शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः।न्याय्यं वा विपरीतं वा पञ्चैते तस्य हेतवः।।18.15।।
śharīra-vāṅ-manobhir yat karma prārabhate naraḥ nyāyyaṁ vā viparītaṁ vā pañchaite tasya hetavaḥ
Whatever action a person performs with their body, speech, and mind, whether right or wrong, these five are its causes.
18.15 शरीरवाङ्मनोभिः by (his) body? speech and mind? यत् whatever? कर्म action? प्रारभते performs? नरः man? न्याय्यम् right? वा or? विपरीतम् the reverse? वा or? पञ्च five? एते these? तस्य its? हेतवः causes.Commentary Nyayyam Right Not opposed to Dharma conformable to the scriptures justifiable.Viparitam The opposite What is opposite to Dharma and opposed to the scriptures unjustifiable.Even those actions? -- acts like winking and the like which are necessary conditions of life? are indicated by the term the right and the reverse? as they are effects of past Dharma and Adharma.Tasya Hetavah Its Causes The causes of every action.An objector argues In the previous verse it is said that the body? actor? various organs? etc.? are the necessary factors of every action. Why do you then make a distinction in actions by saying whatever action a man does by the body? speech and mindOur answer is In the performance of every action? one of the three -- body? speech or mind -- has a more prominent share than the others while seeing? hearing and other activities which accompany or go along with life are subordinate to that one.Therefore all actions are classified under three groups and are spoken of as done by the body or speech or mind. The fruit of an actions also is enjoyed through the body? speech and mind and one of the three takes a more prominent share than the rest. Therefore? it is proper to say Whatever action a man performs with his body? speech and mind৷৷.
।।18.15।। व्याख्या -- शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म ৷৷. पञ्चैते तस्य हेतवः -- पीछेके (चौदहवें) श्लोकमें कर्मोंके होनेमें जो अधिष्ठान आदि पाँच हेतु बताये गये हैं? वे पाँचों हेतु इन पदोंमें आ जाते हैं जैसे -- शरीर पदमें अधिष्ठान आ गया? वाक् पदमें बहिःकरण और मन पदमें अन्तःकरण आ गया? नरः पदमें कर्ता आ गया? और प्रारभते पदमें सम्पूर्ण इन्द्रियोंकी चेष्टा आ गयी। अब रही दैव की बात। यह दैव अर्थात् संस्कार अन्तःकरणमें ही रहता है परन्तु उसका स्पष्ट रीतिसे पता नहीं लगता। उसका पता तो उससे उत्पन्न हुई वृत्तियोंसे और उसके अनुसार किये हुए कर्मोंसे ही लगता है।मनुष्य शरीर? वाणी और मनसे जो कर्म आरम्भ करता है अर्थात् कहीं शरीरकी प्रधानतासे? कहीं वाणीकी प्रधानतासे और कहीं मनकी प्रधानतासे जो कर्म करता है? वह चाहे न्याय्य -- शास्त्रविहित हो? चाहे विपरीत, -- शास्त्रविरुद्ध हो? उसमें ये (पूर्वश्लोकमें आये) पाँच हेतु होते हैं।शरीर? वाणी और मन -- इन तीनोंके द्वारा ही सम्पूर्ण कर्म होते हैं। इनके द्वारा किये गये कर्मोंको ही कायिक? वाचिक और मानसिक कर्मकी संज्ञा दी जाती है। इन तीनोंमें अशुद्धि आनेसे ही बन्धन होता है। इसीलिये इन तीनों(शरीर? वाणी और मन) की शुद्धिके लिये सत्रहवें अध्यायके चौदहवें? पन्द्रहवें और सोलहवें श्लोकमें क्रमशः कायिक? वाचिक और मानसिक तपका वर्णन किया गया है। तात्पर्य यह है कि शरीर? वाणी और मनसे कोई भी शास्त्रनिषिद्ध कर्म न किया जाय? केवल शास्त्रविहित कर्म ही किये जायँ? तो वह तप हो जाता है। सत्रहवें अध्यायके ही सत्रहवें श्लोकमें अफलाकाङ्क्षिभिः पद देकर यह बताया है कि निष्कामभावसे किया हुआ तप सात्त्विक होता है। सात्त्विक तप बाँधनेवाला नहीं होता? प्रत्युत मुक्ति देनेवाला होता है। परन्तु राजसतामस तप बाँधनेवाले होते हैं।इन शरीर? वाणी आदिको अपना समझकर अपने लिये कर्म करनेसे ही इनमें अशुद्धि आती है? इसलिये इनको शुद्ध किये बिना केवल विचारसे बुद्धिके द्वारा सांख्यसिद्धान्तकी बातें तो समझमें आ सकती हैं परन्तु कर्मोंके साथ मेरा किञ्चिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं है -- ऐसा स्पष्ट बोध नहीं हो सकता। ऐसी हालतमें साधक शरीर आदिको अपना न समझे और अपने लिये कोई कर्म न करे तो वे शरीरादि बहुत जल्दी शुद्ध हो जायँगे अतः चाहे कर्मयोगकी दृष्टिसे इनको शुद्ध करके इनसे सम्बन्ध तोड़ ले? चाहे सांख्ययोगकी दृष्टिसे प्रबल विवेकके द्वारा इनसे सम्बन्ध तोड़ ले। दोनों ही साधनोंसे प्रकृति और प्रकृतिके कार्यके साथ अपने माने हुए सम्बन्धका विच्छेद हो जाता है और वास्तविक तत्त्वका अनुभव हो जाता है।जिस समष्टिशक्तिसे संसारमात्रकी क्रियाएँ होती हैं? उसी समष्टिशक्तिसे व्यष्टि शरीरकी क्रियाएँ भी स्वाभाविक होती हैं। विवेकको महत्त्व न देनेके कारण स्वयं उन क्रियाओंमेंसे खानापीना? उठनाबैठना? सोनाजगना आदि जिन क्रियाओंका कर्ता अपनेको मान लेता है? वहाँ कर्मसंग्रह होता है अर्थात् वे क्रियाएँ बाँधनेवाली हो जाती हैं। परन्तु जहाँ स्वयं अपनेको कर्ता नहीं मानता? वहाँ कर्मसंग्रह नहीं होता। वहाँ तो केवल क्रियामात्र होती है। इसलिये वे क्रियाएँ फलोत्पादक अर्थात् बाँधनेवाली नहीं होतीं। जैसे? बचपनसे जवान होना? श्वासका आनाजाना? भोजनका पाचन होना तथा रस आदि बन जाना आदि क्रियाएँ बिना कर्तृत्वाभिमानके प्रकृतिके द्वारा स्वतःस्वाभाविक होती हैं और उनका कोई कर्मसंग्रह अर्थात् पापपुण्य नहीं होता। ऐसे ही कर्तृत्वाभिमान न रहनेपर सभी क्रियाएँ प्रकृतिके द्वारा ही होती हैं -- ऐसा स्पष्ट अनुभव हो जाता है। सम्बन्ध -- भगवान्ने सांख्यसिद्धान्त बतानेके लिये जो उपक्रम किया है? उनमें कर्मोंके होनेमें पाँच हेतु बतानेका क्या आशय है -- इसका वर्णन आगेके श्लोकमें करते हैं।
।।18.15।। न्याय्य और विपरीत कर्मों से तात्पर्य क्रमश धर्म के अनुकूल और प्रतिकूल कर्मों से है। निरपवाद रूप से सब प्रकार कर्मों की सिद्धि के लिए शरीरादि पाँच कारणों की आवश्यकता होती है।यहाँ विशेष ध्यान देने योग्य बात यह है कि कर्मों के पञ्चविध कारणों का वर्णन केवल बोनट के नीचे स्थित इंजन का ही है? पेट्रोल का नहीं। पेट्रोल के बिना इंजन कार्य नहीं कर सकता और न ही केवल पेट्रोल के द्वारा यात्रा सफल और सुखद हो सकती है। इंजन और पेट्रोल के सम्बन्ध से वाहन में गति आती है और तब स्वामी की इच्छा के अनुसार चालक उसे गन्तव्य तक पहुँचा सकता है। इस उदाहरण को समझ लेने पर भगवान् श्रीकृष्ण के कथन का अभिप्राय स्पष्ट हो जायेगा।अकर्म चैतन्य स्वरूप आत्मा देहादि उपाधियों से तादात्म्य करके जीव के रूप में अनेक प्रकार की इच्छाओं से प्रेरित होकर उचितअनुचित कर्म करता है। इन समस्त कर्मों के लिए पूर्वोक्त पाँच कारणों की आवश्यकता होती है।पूर्व के दो श्लोकों का निष्कर्ष यह है कि मनुष्य का कर्तृत्वाभिमान मिथ्या है। भगवान् कहते हैं
।।18.15।।पञ्चानामधिष्ठानादीनामुक्तानां सर्वकर्मसिद्ध्यर्थत्वं स्फुटयति -- शरीरेति। ननु जीवनकृतं निमेषोन्मेषादिकर्मान्तरं साधारणमस्ति तत्कथं राशिद्वयकरणमिति तत्राह -- यच्चेति। अधिष्ठानादीनां कर्ममात्रहेतुत्वं प्रतिज्ञाय शारीरादित्रिविधकर्महेतुत्वोक्तिरयुक्तेति शङ्कते -- नन्विति। पूर्वापरविरोधं परिहरति -- नैष दोष इति। ननु जीवनकृतानि स्वाभाविकानि कर्माणि दर्शनादीनि विधिनिषेधबाह्यत्वान्न देहादिनिर्वर्त्यानीत्याशङ्क्याह -- तदङ्गतयेति। तस्य देहादित्रयस्य प्रधानस्याङ्गं चक्षुरादि तन्निष्पाद्यत्वेन,जीवनकृतं दर्शनादि प्रधानकर्मण्यन्तर्भूतमिति त्रैविध्यमविरुद्धमित्यर्थः। देहाद्यारम्भे त्रिविधे कर्मणि सर्वकर्मान्तर्भावेऽपि कथं पञ्चानामेवाधिष्ठानादीनां तत्र हेतुत्वं फलोपभोगकाले कारणान्तरापेक्षासंभवादित्याशङ्क्य जन्मकालभाविनो भोगकालभाविनश्च सर्वस्य कारणस्य तेष्वेवान्तर्भावान्मैवमित्याह -- फलेति।
।।18.15।।पञ्चानां स्वरुपमुक्त्वा कर्महेतुत्वमाह -- शरीरेति। यत्कर्म न्याय्यं वा धर्म्यं शास्त्रीयं विपरीतं वाऽधर्म्यमशास्त्रीयं य़च्चापि। निमिषितचेष्टादिजीवनहेतुः तदपि पर्वकृतधर्मादेरेव कार्यमिति न्याय्यविपरीतयोर्ग्रहणेन ग्राह्यं यज्ञ्याय्यादि कर्म शरीरवाङ्ग्नोभिस्त्रिर्भिर्नरः प्रारभ्ते निर्वर्तयति यस्य सर्वसस्यैव कर्मणः पञ्चैते यथोक्ता अधिष्ठानादयो हेतवः कारणानि। ननु पञ्चैतानीत्यादिनाधिष्ठानादीनि सर्वकर्मणां निवर्तकान्युक्तानि अत्रतु शरीरवाङ्गनोभिः कर्म प्रारभत इत्युक्तमतः पूर्वापरविरोध इतिचेत्। नैष दोषः। शरीराद्यारभ्ये त्रिविधे कर्मणि पञ्चानामधिष्ठानादीनां हेतुत्वस्तय विवक्षणात् दर्शनश्रवणादि च जीवनलक्षणत्रिविधकर्मण्येवान्तर्भवतीति त्रिधैव राशीकृतमुच्यते। ननु फलोपभोगकाले कारणान्तरापेक्षासंभवात्कथं पञ्चानामेवाधिष्ठानादीनां तत्र हेतुत्वमितिचेत् अपेक्षितस्य सर्वस्यापि कारणस्यैतेष्वेवान्तर्भावात्पञ्चानां हेतुत्वं न विरुध्यते।
।।18.14 -- 18.15।।अधिष्ठानं देहादिः। कर्ता विष्णुः स हि सर्वकर्तेत्युक्तम् जीवस्य चाकर्तृत्वे प्रमाणमुक्तम्। करणमिन्द्रियादि च। चेष्टाः क्रियाः हस्तादिक्रियाभिर्होमादिकर्माणि जायन्ते। ध्यानादेरपि मानसी चेष्टा कारणम्। पूर्वतनी चेष्टाऽपि संस्कारकारणत्वेन भवति। दैवमदृष्टम्। तथा चायास्यश्रुतिः -- देहो ब्रह्मार्थेन्द्रियाद्याः क्रियाश्च तथाऽदृष्टं पञ्चमं कर्महेतुः इति।
।।18.15।।शरीरेति। न्याय्यं धर्म्यं शास्त्रीयम्। विपरीतमन्याय्यमधर्म्यमशास्त्रीयम्। ननु शरीरादिभिस्त्रिभिरारभ्यते पञ्चैते तस्य हेतव इति च विप्रतिषिद्धमुच्यते। नैष दोषः। अत्रापि शरीरपदेनाधिष्ठानस्य नरपदेन कर्तुर्वाङ्मन इति करणस्यारभत इति चेष्टानां न्याय्यमिति धर्माधर्मरूपस्य दैवस्य च संग्रहात्। सर्वेषु कर्मसु पञ्चानां समानेऽप्युपयोगे विधिप्रतिषेधलक्षणं त्रिविधमेव कर्म शास्त्रे प्रसिद्धमिति। इदं शारीरं कर्मेदं मानसमिदं वाचिकमिति व्यपदेशो देहादीनां प्राधान्यापेक्ष इति न कश्चिद्विरोधः।
।।18.15।।न्याय्ये शास्त्रसिद्धे विपरीते प्रतिषिद्धे वा सर्वस्मिन् कर्मणि शारीरे वाचिके मानसे च पञ्च एते हेतवः। अधिष्ठानं शरीरम्? अधिष्ठीयते जीवात्मना इति महाभूतसंघातरूपं शरीरम् अधिष्ठानम्। तथा कर्ता जीवात्मा अस्य जीवात्मनः ज्ञातृत्वं कर्तृत्वं च -- ज्ञोऽत एव (ब्र0 सू0 2।3।18)कर्ता शास्त्रार्थवत्त्वात् (ब्र0 सू0 2।3।33) इति च सूत्रोपपादितम्। करणं च पृथग्विधम् वाक्पाणिपादादिपञ्चकं समनस्कं कर्मेन्द्रियम्? पृथग्विधं कर्मनिष्पत्तौ पृथग्व्यापारम्। विविधाः च पृथक् चेष्टाः -- चेष्टाशब्देन पञ्चात्मा वायुः अभिधीयते? तद्वृत्तिवाचिना? शरीरेन्द्रियधारकस्य प्राणापानादिभेदभिन्नस्य वायोः पञ्चात्मनो विविधा च चेष्टा विविधा वृत्तिः। दैवं च एव अत्र पञ्चमम्? अत्र कर्म हेतुकलापे दैवं पञ्चमम् परमात्मा अन्तर्यामी कर्मनिष्पत्तौ प्रधानहेतुः इति अर्थः उक्तं हिसर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्विज्ञानमपोहनं च। (गीता 15।15) इति। वक्ष्यति च -- ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति। भ्रामयन् सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया।। (गीता 18।61) इति।परमात्मायत्तं च जीवात्मनः कर्तृत्वम् -- परात्तु तच्छ्रुतेः (ब्र0 सू0 2।3।41) इति उपपादितम्।ननु एवं परमात्मायत्ते जीवात्मनः कर्तृत्वे जीवात्मा कर्मणि अनियोज्यो भवति इति विधिनिषेधशास्त्राणि अनर्थकानि स्युः।इदम् अपि चोद्यं सूत्रकारेण एव परिहृतम्।कृतप्रयत्नापेक्षस्तु विहितप्रतिषिद्धावैयर्थ्यादिभ्यः (ब्र0 सू0 2।3।42) इति।एतद् उक्तं भवति -- परमात्मना दत्तैः तदाधारैः च करणकलेवरादिभिः तदाहितशक्तिभिः स्वयं च जीवात्मा तदाधारः तदाहितशक्तिः सन् कर्मनिष्पत्तये स्वेच्छया करणाद्यधिष्ठानाकारं प्रयत्नं च आरभते तदन्तः अवस्थितः परमात्मा स्वानुमतिदानेन तं प्रवर्तयति इति जीवस्य अपि स्वबुद्ध्या एव प्रवृत्तिहेतुत्वम् अस्ति। यथा गुरुतरशिलामहीरुहादिचलनादिफलप्रवृत्तिषु बहुपुरुषसाध्यासु बहूनां हेतुत्वं विधिनिषेधभाक्त्वं च इति।
।।18.15।।एतेषामेव सर्वकर्महेतुत्वमाह -- शरीरेति। यथोक्तैः पञ्चभिः प्रारभ्यमाणं कर्म त्रिष्वेवान्तर्भाव्यशरीरवाङ्मनोभिरित्युक्तं शारीरं वाचिकं मानसं च त्रिविधं कर्मेति प्रसिद्धेः। शरीरादिभिर्यद्यत्कर्म धर्म्य वाऽधर्म्यं वा करोति नरस्तस्य सर्वस्य कर्मण एते पञ्च हेतवः।
।। 18.15 उक्तविवरणतया श्लोकद्वयस्यापुनरुक्तिं परमते विरोधं चाभिप्रेत्याऽऽह -- तदिदमाहेति। तत् श्रुतिसिद्धम्? इदं विवक्षितमित्यर्थः। न्याय्यं न्यायादानपेतंधर्मपथ्यर्थन्यायादनपेते [अष्टा.4।4।92] इत्यनुशासनात्। न्यायशब्दश्चात्र अर्थान्तरानौचित्याद्व्युत्पत्त्यनुरोधाच्च शास्त्रमेवानुसन्धत्त इत्यभिप्रायेणाऽऽह -- शास्त्रसिद्ध इति। शास्त्रसिद्धेन सह लौकिकविवक्षायां तदन्यद्वेति वक्तव्यम्। विहिते निर्दिष्टे विपरीतशब्दश्च निषिद्धे स्वरसः कैमुत्येन च लौकिकं लभ्यमित्यभिप्रायेणाऽऽह -- प्रतिषिद्धे वेति।सर्वस्मिन् कर्मणीति फलितोक्तिः। यथा शारीरमानसवाचिकेषु कर्मसु शरीरादीनां प्राधान्येन प्रतिनियतता न तथाऽमी पञ्च हेतवः अपितु प्रतिकर्म पञ्चाप्यपेक्षिता इत्यभिप्रायेण शारीरत्वाद्युक्तिः। पञ्चहेतुकेषु सर्वेषु कर्मसु प्राधान्यादेव हि शारीरत्वादिविभागः। यद्यपि जगत्सृष्ट्यादिषु परमात्मैव कारणं? तथापि क्षेत्रज्ञकर्तृकेषु परमात्मना स्वेच्छयैवमुपकरणीकृतान्येतानीत्यभिप्रायेण हेत्वन्तरोक्तिः।अधिष्ठानं क्षेत्रमाहुः [म.भा.12।307।14] इति करालायाऽऽह वसिष्ठः तदनुसारेणाऽऽह -- अधिष्ठानं शरीरमिति। श्रुतिश्च -- मघवन्मर्त्यं वा इदं शरीरमात्तं मृत्युना तदेत(तदस्या)दमृतस्याशरीरस्यात्मनोऽधिष्ठानम् [छां.उ.8।12।1] इति शरीरेऽधिष्ठानशब्दं प्रयुङ्क्ते।कृत्यल्युटो बहुलम् [अष्टा.3।3।113] इति कर्मार्थतया शरीरेऽधिष्ठानशब्दं व्युत्पादयति -- अधिष्ठीयत इति। अधिष्ठातुर्जीवस्यापि परमात्माधिष्ठेयत्वात्तद्व्यवच्छेदायजीवात्मनेति विशेषितम्। जीवाधिष्ठेयस्यापि करणादेः पृथङ्निर्देशात्तत्सङ्कोचायाऽऽहमहाभूतसङ्घातरूपमिति।विश्वकर्तुरिह दैवशब्देन पृथग्ग्रहणात् कर्तृशब्दस्य चात्रशास्त्रफलं प्रयोक्तरि [पू.मी.3।7।18] इति न्यायसूचनार्थत्वाच्चकर्ता जीवात्मेत्युक्तम्। ननु कर्तृत्वं हि ज्ञानचिकीर्षापूर्वकप्रयत्नयोगित्वं ज्ञानमात्रस्यात्मनो ज्ञातृत्वासम्भवात्तन्मूलं कर्तृत्वमपि न स्यादेवेत्यत आह -- अस्य जीवात्मनो ज्ञातृत्वं कर्तृत्वं चेति।ज्ञोऽत एव [ब्र.सू.2।3।18] इत्यादिसूत्रग्रहणं? श्रुत्यादेरपि तत एवाकर्षणात्।कर्मोत्पत्तिहेतूपन्यासात्करणशब्दोऽत्र कर्मेन्द्रियमात्रपर इत्यभिप्रायेणाऽऽहवागिति। यद्यपि ज्ञानेन्द्रियाणां तत्तद्विषयज्ञानोत्पादनद्वारा परम्परया कर्मणि हेतुत्वमस्ति? तथापि वस्तुमात्रेष्वालोचितेषु मनसा सङ्कल्प्यैव कर्मकरणान्मनसश्चान्यव्यापारव्यवधानाभावात् -- समनस्कमित्युक्तम्। ज्ञानेन्द्रियस्यापि मनसः कर्मेन्द्रियप्रवृत्तिष्वपि साधारण्यात्कर्मेन्द्रियत्वोक्तिः।शरीरवाङ्मनोभिः इत्यत्रैवोक्तेः मनसः सङ्कल्पादिकर्मापेक्षया वा कर्मेन्द्रियत्ववादः। साङ्ख्यैरप्येवमेवोक्तं -- बुद्धीन्द्रियाणि चक्षुश्श्रोत्रघ्राणरसनत्वगाख्यानि (स्पर्शनकानि)। वाक्पाणिपादपायूपस्थान्कर्मेन्द्रियाण्याहुः। उभयात्मकमत्र मनः सङ्कल्पकमिन्द्रियं च साधर्म्यात् [सां.का.2627] इति।कर्महेतुषूपादीयमानेषुपृथग्विधम् इति विशेषणं तदुपयुक्तव्यापाराख्यविधापरमित्याहकर्मनिष्पत्तौ पृथग्व्यापारमिति। वागादिष्वेकैकस्य वचनादानविहरणोत्सर्गानन्दसङ्कल्पादिक्रियाव्यापारो हि मिथो विलक्षणः। प्रयत्नमूला शरीरादिक्रियैव हि चेष्टेत्युच्यते अतोऽत्र कर्मणस्तदेव कारणमित्यात्माश्रयः स्यात् तत्राऽऽह -- चेष्टाशब्देन पञ्चात्मा वायुरिति।अभिधीयत इति शब्देन प्रतिपादनमात्रं विवक्षितम्। अत्र तद्धेतावन्यस्मिन् लक्षयितव्ये वागादीनां करणादिशब्दैरुपात्तत्वात्प्राणसंवादादिषु करणानां शरीरस्य च स्थितिप्रवृत्तेः प्राणायत्तत्वश्रुतेः प्राणप्रवृत्तिनिमित्तचेष्टावाचिना शब्देन प्राणलक्षणाऽत्र युक्तेत्यभिप्रायेणाऽऽह -- तद्वृत्तिवाचिनेति। चेष्टाशब्देनेति पूर्वेणान्वयः।प्राणसंवादादिस्मारणेन प्राणलक्षणाया औचित्यं वृत्तेर्वैविध्यं च विवृणोति -- शरीरेन्द्रियेति। पृथक्छब्दविविधशब्दयोः पौनरुक्त्यपरिहारायाऽऽहशरीरेन्द्रियधारकस्य प्राणापानादिभेदभिन्नस्येति। अधिष्ठानकर्तृकरणव्यापारापेक्षया शरीरेन्द्रियवर्गरूपविषयभेदेन च पृथक्त्वं प्राणादिवृत्तिभेदप्रतिनियतोच्छ्वासनिमेषोन्मेषादिव्यापारैर्वैविध्यं चेति भावः। पञ्चात्मशब्दोऽत्र पञ्चवृत्तित्वपरः तथा च सूत्रं -- पञ्चवृत्तिर्मनोवद्व्यपदिश्यते [ब्र.सू.2।4।12] इति। पञ्चवृत्तित्वोक्तिश्च नागकूर्मकृकरदेवदत्तधनञ्जयरूपवृत्त्यन्तरपञ्चकस्यापि प्रदर्शिका। दैवं चैवात्र पञ्चमम् इत्यत्र दैवाख्यप्रधाननिर्धारणार्थमत्रेत्यनुवाद इत्याह -- अत्र कर्महेतुकलाप इति। परमात्मनः पञ्चमतया परिगणने श्रुत्यर्थपाठादिक्रमासम्भवाद्वाचः क्रमवर्तित्वेन यथासम्भवं परिगणनेऽपिपञ्चमम् इति पूरणे निर्देशे प्रयोजनाभावात् यथा कठवल्ल्याम् -- इन्द्रियेभ्यः परा ह्यर्थाः इत्युपक्रम्य महतः परमव्यक्तमव्यक्तात्पुरुषः परः। पुरुषान्न परं किञ्चित्सा काष्ठा सा परा गतिः [1।3।1011] इतीन्द्रियादिसमस्तप्रवृत्तौ प्रधानहेतुः परमपुरुषो वशीकरणीयकाष्ठात्वेन निर्दिष्टः? तद्वदिहापीत्यभिप्रायेणाऽऽह -- परमात्मान्तर्यामीति। ननुदैवं पुराकृतं कर्मदैवं दिष्टं भागधेयम् [अमरः1।4।28] इत्यादिषु प्राचीनकर्मरूपभोग्यपर्यायतया दैवशब्दं पठन्ति तस्य च हेतुत्वमुपपन्नम् अतः कथमत्र परमात्मेत्युच्यते इत्थं न हि प्रागेव विनष्टानां कर्मणां स्वरूपेण हेतुत्वं सम्भवति अतः कर्मजन्यादृष्टरूपपरमपुरुषसङ्कल्पस्यैव हेतुत्वं वक्तव्यं ततो वरं तस्यैव दैवशब्देन प्रतिपादनम् अस्ति च दैवशब्दस्य दैवतपर्यायतयाऽपि लोकवेदयोः प्रसिद्धिः यथा -- सत्यं सत्यं पुनः सत्यमुद्धृत्य भुजमुच्यते। वेदशास्त्रात्परं नास्ति न दैवं केशवात्परम् [नृ.पु.18।33] इति। नह्यत्रार्थान्तरं सम्भवति। एवं श्रीमद्रामायणेऽपि -- स्वाधीनं समतिक्रम्य मातरं पितरं गुरुम्। अस्वाधीनं कथं दैवं प्रकारैरभिराध्यते [वा.रा.2] इति। तथा सभापर्वणि -- श्रूयतां परमं दैवं दुर्विज्ञेयं मयाऽपि च। नारायणस्तु पुरुषो विश्वरूपो महाद्युतिः इति। तथा याज्ञवल्क्यप्रणीते योगशास्त्रे -- आर्षं छन्दश्च मन्त्राणां दैवतं ब्राह्मणं तथा इति। उक्त एवार्थः पुनःआर्षं छन्दश्च दैवं च इत्यादिनाऽपि निर्दिश्यते। तत्रैव दैत्यमोहनार्थे प्रजापत्युपदेशानुवादेआत्मानं पूजयेन्नित्यं भूषणाच्छादनादिभिः। स्वदेह एव दैवं स्यादन्यद्दैवं न विद्यते [यो.या.] इति। तथा -- दैवाधीनं जगत्सर्वं मन्त्राधीनं च दैवतम्। तन्मन्त्रं ब्राह्मणाधीनं तस्माद्विप्रा हि दैवतम्। [वि.सं.22] इति। अस्मिन्नपि शास्त्रेसाधिभूताधिदेवं माम् [7।30] इति प्रस्ताव्यअधिदैवं किमुच्यते [8।1] इति पृष्टमर्थंपुरुषश्चाधिदैवतम् [8।4] इति प्रतिवक्ति। छान्दोग्ये () च आदित्याख्यदैवतवर्तिनः पुरुषस्याधिदैवतमिति नामोच्यते -- तस्योपनिषदहः [बृ.उ.5।5।3] इत्यधिदैवतं तस्योपनिषदहं [बृ.उ.5।5।4] इत्यध्यात्मम्। इति। एवमन्यत्रापि द्रष्टव्यम्। अन्यैरपि चात्र दैवशब्दश्चक्षुराद्यनुग्राहकादित्यादिविषयतया व्याख्यातः। वयं त्वादित्यादीनामप्यनुग्राहकं परमात्मानमिह दैवं ब्रूम इति विशेषः। प्रयुक्तं च स्तोत्रेप्रख्यातदैवपरमार्थविदां मतैश्च [स्तो.र.15] इति। लक्ष्मीकल्याणे च -- धर्मे प्रमाणं समयस्तदीयो वेदाश्च तत्त्वं च तदिष्टदैवम् इति। तस्माद्देवशब्दोऽत्र देवतापर्यायः। स चात्र सर्वप्रवर्तकहेतुपरत्वाद्विशेषकाभावाच्च परदेवताविषय उचित इतिपरमात्मान्तर्यामी कर्मनिष्पत्तौ प्रधानहेतुरित्युक्तम्। यथाऽसौ सर्वेषामात्मा? न तथाऽस्य कश्चिदित्यतः परमात्मा। तथा शरीरादेः प्रवृत्तौ जीवः प्रधानहेतुः? तथा तस्याप्यसावित्यभिप्रायेणान्तर्यामित्वोक्तिः। तद्विवक्षामत्र पूर्वापराभ्यां स्थापयति -- उक्तं हीत्यादिना। ननुस्वतन्त्रः कर्ता [अष्टा.1।3।5] इति कर्तृलक्षणमनुशिष्टम् इह च कर्तेति क्षेत्रज्ञ एव निर्दिष्टः अतः कारकान्तरप्रयोक्तृत्वं कारकान्तराप्रयोज्यत्वं च तस्याङ्गीकर्तव्यम्। तस्माद्दैवमप्यत्राधिष्ठानादिवत्तदपेक्षया गुणीभूतं वक्तव्यमित्यत्राऽऽह -- परमात्मायत्तं चेति। उत्पन्नज्ञानचिकीर्षाप्रयत्नस्य हि पुरुषस्य कारकान्तरप्रयोक्तृत्वादिकम् ज्ञानाद्युत्पत्तिरेव तु परमात्मायत्तेति श्रुतिसिद्धत्वात्? जीवस्य परायत्तकर्तृत्वं स्वातन्त्र्यं चाविरुद्धमिति शारीरके स्थापितमिति भावः।इममभिप्रायमजानन्वायूदकादिवत्परमात्मनः प्रेरकत्वाच्चोदयति -- नन्वेवमिति। ज्योतिष्टोमादिषु यदि परमात्मा प्रेरयति? तदा न जीवस्य किञ्चिद्विधेयं न हि प्रबलेन ह्रियमाणस्य गमनविधिः अथ निरुन्धे? तथापि न विधेयं न हि दुर्बलस्य प्रबलेन निरुद्धस्य गमनविधिः एवं यत्र परमात्मा प्रवर्तयति? तत्र निवृत्तेरशक्यत्वान्निषेधो निष्फलः यत्र तु न प्रवर्तयेत्? तत्र तु प्रवृत्तेरेवाशक्यत्वान्न निषेधापेक्षेति भावः। इयमत्र चार्वाकेतरसमस्तसिद्धान्तावलम्बिनी चोद्यकाष्ठा -- निग्रहानुग्रहाम्नातपूर्वादृष्टप्रचोदितः। निग्रहानुग्रहाद्यर्ह इतीदं घटते कथम् इति। जीवस्य ज्ञातृत्वकर्तृत्वपारतन्त्र्याभावचोद्यवत् पारतन्त्र्येऽपि विधिनिषेधवैयर्थ्यप्रसङ्गचोद्यमपि पञ्चमवेदतदुपन्षिदोर्द्रष्टा भगवान्बादरायणः स्वयमेव परिजहारेत्याह -- इदमपीति। विहितप्रतिषिद्धावैयर्थ्यादिहेतुभ्य एव चेतनेन कृतं प्रयत्नमपेक्ष्य परमात्मा उत्तरोत्तरेषु प्रवर्तयतीति सूत्रार्थः। तत्र सर्वप्रवृत्तिषु परमात्माधीनासु कथं कृतप्रयत्नापेक्षत्वमुच्यते वैयर्थ्यचोद्यस्य चावैयर्थ्यासिद्ध्यर्थतया परिहारे साध्याविशेषश्च स्यादिति शङ्कायां सूत्रस्याभिप्रायिकमर्थमाह -- एतदुक्तमिति।अयमभिप्रायः -- यत्तावदीश्वरस्य यन्त्रादिवत्त्वसङ्कल्पकल्पितप्रवृक्तिशक्तीनां करणकलेवराणां समर्पणं? यच्च भूतलादिवत्सर्वप्रवृत्तिनिवृत्त्यानुगुण्येन स्वरूपतः सङ्कल्पतश्च सर्वाधारतयाऽवस्थानं? यदपि करणकलेवराद्यधिष्ठानशक्तिप्रदानं? यच्च प्रवृत्त्यालम्बनबाह्यविषयपुरस्करणं? तत्सर्वं जीवस्य कर्तृत्वानुगुणं सर्वप्रवृत्तिनिवृत्तिसाधारणं चेति न तत्र चोद्यावकाशः। एतावतैव सर्वप्रवृत्तिनिवृत्तिसाधारणमुदासीनत्वं भगवत उच्यते। एवं लब्धशक्तेः पुरुषस्य प्रवृत्तिकाले यत्कार्यनिष्पत्त्यर्थमीश्वरस्यानुमन्तृत्वं? तदपि न जीवस्य कर्तृतां वारयति अपितूत्तम्नातीति न ततोऽपि विधिनिषेधवैयर्थ्यम्। नचैकस्मिन्नेव कर्मणि परमात्माख्यकर्त्रन्तरसाहचर्यं जीवस्यानियोज्यताकारणं? प्रत्येकमशक्येषु सम्भूय बहुभिरनुष्ठीयमानेष्वपि लोके विधिनिषेधतत्फलादिदर्शनात्प्रवृत्तिशक्तस्येच्छायामन्यैरनिवार्यत्वेन स्वातन्त्र्यादिसिद्धेः। एवंकार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः [3।5] इत्यादिष्वपि ज्ञानेच्छापुरस्कारेण प्रवर्तनादिच्छाविशेषादेश्च स्ववासनादिविशेषमूलत्वाज्जीवस्य कर्तृत्वं सुस्थितम्। अत एव ह्यत्र हेतुपञ्चके कर्तेति समाख्यासमाधिना कर्तृत्वेनैव जीवो निरूप्यते यत्तु करणकलेवरशक्तिज्ञानवाञ्छादिषु विषमप्रदानमहितप्रवृत्तावनिवारणमनुमननं प्रत्यवायजननं च? तदप्यनादिपूर्वकर्मवैषम्योपाधिकतया नेश्वरस्य वैषम्यनैर्घृण्यापादकम्। प्रवृत्तिवैषम्यस्यादृष्टवैषम्यमूलत्वेऽपि तदेवादृष्टं शास्त्रपुरस्कारेणास्य दृष्टादिकमारभते। तदप्येवमिति विधिनिषेधावकाशलाभः। न हि पूर्वं यज्ञादिकारणमदृष्टं कृतमिति तेनैवेदानीं यज्ञादिकं निष्पद्यते? शास्त्रजन्यबुद्ध्यादिसापेक्षत्वात्तस्य। एवं पापहेतुभूतमप्यदृष्टं स्वबुद्ध्यैव निवृत्तियोग्यतया शासनानर्हदशामापाद्य पापे प्रवर्तयति तदपि तथेति? अन्यथादृष्टमूलत्वाद्धिताहितप्रवृत्त्योर्न शास्त्रापेक्षेति वादिनः पूर्वादृष्टेऽपि तथा प्रसङ्गात्स्ववचनविरोधः। अथादृष्टमूलत्वे शास्त्रवैयर्थ्यप्रसङ्गः सार्थकं च शास्त्रं परैरभ्युपगम्यत इत्यदृष्टमूलत्वमेव नोपपद्येतेति मन्यसे तदपि न? लौकिकविधिनिषेधयोरपि तथा प्रसङ्गात्। तत्रापि हि सामग्रीवैचित्र्यमूलत्वे प्रवृत्तिनिवृत्त्यादिवैचित्र्यस्य किंगामानय इत्यादिनियोगेन अथ सोऽपि नियोगः स्वसामग्र्योपनीतः प्रवृत्तिनिवृत्तिसामग्रीमध्यमध्यास्त इति पश्यसि? एवं वैदिकनियोगोऽपीति सम्पश्येथाः। तर्हि लौकिकमपि नियोगं परित्यजाम इति चेत् -- हन्त परस्परसंव्यवहारव्युत्त्पत्त्याद्यसम्भवाद्विलीनं लोकायतेनापीति मूकीभव। एवं सामान्यतः सर्वेषु अदृष्टवैषम्यमूलेष्वपि कर्मसु शास्त्रे सावकाशे तदेव शास्त्रमीश्वरबुद्धिविशेषं चेददृष्टमुपदिशति? तथाविधोऽयमीश्वरः प्रमाणबलादगवत इति न तत्र परिचोदनावकाशः। न चैष दोषः -- यथोक्तमाचार्यैर्वादिहंसाम्बुवाहैः -- वैषम्ये सति कर्मणामविषमः किं नाम कुर्यात्कृती किंवोदारतया ददीत वरदो वाञ्छन्ति चेद्दुर्गतिम् इति।तदयं चार्वाकेतरसमस्तसिद्धान्तनिष्ठानां साधारणपरिहारसारः -- तत्तदिष्टादृष्टमूलशास्त्रवश्यदशान्वयात्। पुनस्तथातथा दृष्टसम्पत्तिरुपपद्यते।।पुमर्थसाधनत्वेन प्रतीतेः स्वेच्छया पुमान्। प्रवर्तेतेति तादर्थ्यात्सावकाशाऽत्र चोदना।। इति। अत्र करणकलेवरप्रदानादिसाधारणोपकारसापेक्षतया जीवकर्तृत्वस्य परापेक्षत्वंसन्नित्यन्तेनोक्तम्।कर्मनिष्पत्तये इत्यादिना तु प्रवृत्तिविशेषे जीवस्य स्वातन्त्र्यं दर्शितम्। तत्रापि परस्य किञ्चित्कारःतदन्तरवस्थित इत्यादिनोक्तः।तं -- कृतप्रयत्नमित्यर्थः।
।।18.13 -- 18.17।।अधुना व्यवहारदशायामपि पञ्चस्वपि कर्महेतुषु स्थितेषु बलादेवामी ( बलादमी ) अविद्यान्धाः पुमांसः स्वात्मन्येव सकलकर्तृभावभारमारोपयन्ति ( आरोपयन्त्येते )। अतो निजयैव धिया आत्मानं बध्नन्ति? न तु वस्तुस्थित्या अस्य बन्धः इत्युपदिश्यते -- पञ्चेत्यादि न निबद्ध्यते इत्यन्तम्। कृतः अन्तः? निश्चयः यत्रेति कृतान्तः? सिद्धान्तः। अधिष्ठानं? विषयः। दैवम्? प्रागर्जितं शुभाशुभम्। पञ्चैते अधिष्ठानादयः सामग्रीरूपतां प्राप्ताः सर्वकर्मसु हेतवः।अन्ये तु? अधिष्ठीयते अनेन सर्वं कर्म इति बुद्धिगतं रजोलब्धवृत्तिकं धृतिश्रद्धासुखविविदिषाविविदिषारूपपञ्चकपरिणामिकर्मयोगशब्दवाच्यमधिष्ठानं क्वचित् प्रयत्नशब्देन उक्तम्। कर्ता? अनुसन्धाता बुद्धिलक्षणः। करणं मनश्चक्षुरादि? बाह्यमपि च खड्गादि। चेष्टा प्राणापानादिका। दैवशब्देन धर्माधर्मौ ताभ्यां च बुद्धिगताः सर्वेऽपि भावा उपलक्षिताः [ इति ]। अन्ये तु अधिष्ठानम् ईश्वरं मन्यन्ते।अकृतबुद्धित्वात्? अनिश्चितप्रज्ञतया। यः पुनरहंकारवियोगदार्ढ्येन प्रागुक्तयुक्तिशतशोधितेन कर्माणि करोति न स बन्धभाक् ( ? N न संबन्धभाक् )? कृतबुद्धित्वात् इत्याशयः।
।।18.14 -- 18.15।।अधिष्ठानादि करण एवान्तर्भूतमिति वक्ष्यति? तत्प्रबोधनायाधिष्ठानं निर्दिशति -- अधिष्ठानमिति। आदिपदेन भूम्यादि। कर्ता जीव इति व्याख्यानमसदिति भावेनाऽऽह -- कर्तेति। शंरीरवाङ्मनोभिः क्रियमाणानां कर्मणां कर्ता कथं विष्णुः इत्यत आह -- स हीति। उक्तमुपपादितम्। तथापि जीवोऽत्र कर्ता किं न स्यात् इत्यत आह -- जीवस्य चेति। अपराधीनत्वाभिप्रायेणेदं निराकरणं? पराधीनं कर्तृत्वमङ्गीकृत्यान्यत्र जीवो व्याख्यात इत्यविरोधः। भावसाधनताप्रतीतिनिरासार्थमाह -- करणमिति। आदिपदेन स्रुवादि। भावसाधनार्थस्य साध्यत्वाच्चेष्टाग्रहणेन च गृहीतत्वाच्च। वायवीयाः प्राणापानाद्याश्चेष्टाः (शां.) इत्यसत्। द्रव्याभिधाने चेष्टात्वानुपपत्तेः। प्राणनाद्यभिधाने साध्यत्वात्कारकत्वानुपपत्तेरित्याशयवानाह -- चेष्टा इति। क्रियाणां साधकत्वात्कथं कारकत्वं इत्यत आह -- हस्तादीति। सावान्तरव्यापारं हि करणं कारकमुच्यते। तत्राधिष्ठानादिपदैर्व्यापारिणो निर्दिश्यन्ते। क्रियाशब्देन त्ववान्तरा व्यापाराः। कारकाश्रिताभिरवान्तरक्रियाभिः प्रधानक्रियाजननं च प्रसिद्धमेवेत्यर्थः।नन्वत्र कारकाभिधानप्रसङ्गेऽधिष्ठानाद्येवोक्तं कर्मसम्प्रदानापादानानि कुतो नोक्तानि अधिष्ठानादीनां सर्वक्रियानुगमात् कर्मादीनां तदभावादिति ब्रूमः। तथा च वक्ष्यति -- शरीरवाङ्मनोभिर्यत् [18।15] इति। एवं,तर्हि चेष्टाऽपि न वक्तव्या। ध्यानादिजनने करणस्य मनसश्चेष्टाभावेनानुगमादित्यत आह -- ध्यानादेरपीति। आदिपदेन स्मरणं गृह्यते? ज्ञात एवार्थे ध्यानं भवति? ज्ञानं चात्मेन्द्रियसन्निकृष्टेनैव मनसा जायते? सन्निकर्षश्च मानसचेष्टाजन्यः? अतो ध्यानादेरपि मनस्सम्बन्धिनी चेष्टा कारणं भवतीति भावः। ननु नियतपूर्वक्षणे सत्कारणं न च ध्यानादिपूर्वक्षणे मनसि क्रियाऽस्ति चिरातीतत्वात्। मनोनैश्चल्यसाध्यत्वाद्ध्यानादेः। न च सन्निकर्षज्ञानद्वारा करणं तस्यापि चिरातीतत्वादित्यत आह -- पूर्वतनीति। पूर्वतनी चिरातीताऽपि मानसी क्रिया सन्निकर्षद्वारा ध्यानादिहेतुसंस्कारकारणत्वेन भवति? ध्यानादेः कारणसंस्कारस्य स्थायित्वादित्यर्थः। दैवमन्तर्यामिव्यापार इति कश्चित्? तदसत् कर्तेत्यनेनैवोक्तत्वात्। चक्षुराद्यनुग्राहकाः सूर्यादय इत्यपरः [वें.ब्र.] तदप्यसत् करणादिशब्दैरेव गृहीतत्वादिति भावेनाऽऽह -- दैवमदृष्टमिति। उक्तमर्थं श्रुतिसम्मत्याऽपि समर्थयते -- तथा चेति। देह इत्युपलक्षणम्। हेतुः कारणम्। कर्म हेत्विति क्वचित्पाठः? तत्र छान्दसो लिङ्गव्यत्ययः।
।।18.15।।स्वरूपमुक्त्वा तेषां पञ्चानां कर्महेतुत्वमाह तृतीयेन। शारीरं वाचिकं मानसिकं च विधिप्रतिषेधलक्षणं त्रिविधं कर्म धर्मशास्त्रेषु प्रसिद्धमक्षपादेन चोक्तंप्रवृत्तिर्वाग्बुद्धिशरीरारम्भः इति बुद्धिर्मनोऽतः प्राधान्याभिप्रायेणोच्यते। शरीरेण वाचा मनसा वा यत्कर्म प्रारभते निर्वर्तयति नरो मनुष्याधिकारत्वाच्छास्त्रस्य कीदृशं कर्म न्याय्यं वा? शास्त्रीयं धर्म विपरीतं वाऽशास्त्रीयमधर्मं यच्च निमिषितचेष्टितादि जीवनहेतुरन्यद्वा विहितप्रतिषिद्धसमं तत्सर्वं पूर्वकृतधर्माधर्मयोरेव कार्यमिति न्याय्यविपरीतयोरेवान्तर्भूतम्। पञ्चैते यथोक्ता अधिष्ठानादयस्तस्य सर्वस्यैव कर्मणो हेतवः कारणानि।
।।18.15।।पञ्चानामेव सर्वकर्महेतुत्वमाह -- शरीरेति। कर्म त्रिविधं शारीरं? वाचनिकं? मानसिकम्। अतः शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म नरो मनुष्यः प्रारभते न्याय्यं वा मदाज्ञया मदिच्छारूपं? विपरीतं स्वफलभोगार्थरूपं विपरीतमन्याय्यं वा प्रारभते तस्यैते पूर्वोक्ता पञ्च हेतवः? कारणरूपा इत्यर्थः। विकल्पवाचकवाशब्दद्वयेन मदिच्छाज्ञानाभावे न्याय्यस्य वेदोक्तत्वेनावश्यप्राप्तस्याऽपि विपरीतत्वं तज्ज्ञाने विपरीतस्याऽपि न्याय्यत्वमिति ज्ञापितम्।
।।18.15।। --,शरीरवाङ्मनोभिः यत् कर्म त्रिभिः एतैः प्रारभते निर्वर्तयति नरः? न्याय्यं वा धर्म्यं शास्त्रीयम्? विपरीतं वा अशास्त्रीयम् अधर्म्यं यच्चापि निमिषितचेष्टितादि जीवनहेतुः तदपि पूर्वकृतधर्माधर्मयोरेव कार्यमिति न्याय्यविपरीतयोरेव ग्रहणेन गृहीतम्? पञ्च एते यथोक्ताः तस्य सर्वस्यैव कर्मणो हेतवः कारणानि।।ननु एतानि अधिष्ठानादीनि सर्वकर्मणां निर्वर्तकानि कथम् उच्यते शरीरवाङ्मनोभिः यत् कर्म प्रारभते इति नैष दोषः विधिप्रतिषेधलक्षणं सर्वं कर्म शरीरादित्रयप्रधानम् तदङ्गतया दर्शनश्रवणादि च जीवनलक्षणं त्रिधैव राशीकृतम् उच्यते शरीरादिभिः आरभते इति। फलकालेऽपि तत्प्रधानैः साधनैः भुज्यते इति पञ्चानामेव हेतुत्वं न विरुध्यते इति।।
।।18.14 -- 18.15।।तथाहि अधिष्ठानमिति। शरीरवाङ्मनोभिरिति न्याय्यं शास्त्रीयं? विपरीतं निषिद्धं वा? अन्यत्सर्वं कर्म शारीरं वाचिकं मानसं च तस्य पञ्चते हेतवो भवन्ति। तान्याह -- अधिष्ठानं प्रथमं शरीरं कारणं? कर्ता जीवात्मा सांहकारो ज्ञाता संज्ञात एवकर्ता शास्त्रार्यवत्त्वात् [ब्र.सू.2।3।33] इति सूत्रात् करणं च समनस्कं चक्षुश्श्रोत्रादिज्ञानकर्मभेदात् पृथग्विधं गृहीतं कार्यस्वरूपतो विविधःश्चेष्टः प्राणादीनां वृत्तयोऽत्र कर्मणि हेतवः। दैवं च पञ्चमं अदृष्टमिति केचित् (माध्वाः)। वस्तुतस्तु पञ्चसङ्ख्यापूरणमुत्तममन्तर्यामिरूपं,कर्ममात्रनिष्पत्तौ प्रधानं? हेतुरित्यर्थः। उक्तं हि पाक् भगवता पुरुषोत्तमेन स्वान्तरे स्वरूपमाहात्म्यंहृदि सर्वस्य धिष्ठितं [13।18] इति। श्रीमदाचार्यैरप्युक्तं -- कृष्णात्परं नास्ति दैवं वस्तुतो दोषवर्जितम् इति। तथा च सूत्रेष्वपि तदन्तरात्मायत्तजीवात्मदेहेन्द्रियादेः कर्त्तृत्वंपरानुवृत्तेः इत्युपपादितंयथा च तक्षोभयथा [ब्र.सू.2।3।40] इति।अत्र भाष्यकारः -- ननु कर्मकारिणां कर्त्तृत्वभोक्तृत्वभेदो दृश्यते तथा च कर्तृत्वभोक्तृत्वयोर्भेदो भविष्यतीति चेत्? न यथा तक्षा रथं निर्माय तत्रारूढो विहरति पीठं वा स्वतो न व्याप्रियते वास्यादिद्वारेण वा? चकारादन्ये स्वार्थकर्त्तारः। अन्यार्थमपि करोतीति चेत्प्रकृतेऽपि सर्वहितार्थं प्रयतमानत्वात्। न च कर्तृत्वमात्रं दुःखरूपं पयःपानादेः सुखरूपत्वात्। तथा च स्वार्थं परार्थं कर्त्तृत्त्वं कारयितृत्वं च सिद्धम्। अन्यच्च -- परात्तु तच्छ्रुतेः [ब्र.सू.2।3।41] इति। कर्तृत्वं ब्रह्मगतमेव तत्सम्बन्धादेव जीवं कर्तृत्वं? तदंशत्वात् ऐश्वर्यादिवत् न तु जडैकगतं इति। अतः नान्योऽतोऽस्ति द्रष्टा [बृ.उ.3।7।23] इति सर्वकर्त्तृत्वं घटते। कुत एतत् श्रुतेः तस्यैव कर्तृकारयितृत्वश्रवणात् यमुन्निनीषति तं साधु कर्म कारयति यमधोनिनीषति तमसाधु कारयति इतिसर्वकर्ता? सर्वभोक्ता? सर्वनियन्ता इति सर्वरूपत्वान्न भगवति दोषः। तथाच सूत्रं -- कृतप्रयत्नापेक्षस्तु विहितप्रतिषिद्धावैयर्थ्यादिभ्यः [ब्र.सू.2।3।42] ननु वैषम्यनैर्घृण्ययोर्न परिहारः? अनादित्वेन स्वस्यैव कारयितृत्वादिति पक्षं तुशब्दो निवारयति प्रयत्नपर्यन्तं जीवकृत्यं अग्रे तस्याऽशक्यत्वात् स्वयमेव कारयति। यथा पुत्रं यतमानं बालं वा पदार्थगुणदोषौ वर्णयन्नपि तत्प्रयत्नाभिनिवेशं दृष्ट्वा तथैव कारयति सर्वत्र तत्कारणत्वाय तदानीं फलदातृत्वे या इच्छा तामेवानुवदतिउन्निनीषति अधोनिनीषति इति। अन्यथा विहितप्रतिषिद्धयोर्वैयर्थ्यापत्तिः? अप्रामाणिकत्वं च। फलदाने कर्मापेक्षः कर्मकारणे प्रयत्नापेक्षः कामे प्रवाहापेक्ष इति मर्यादारक्षार्थं वेदांश्चकार? ततो न ब्रह्मणि दोषगन्धोऽपि? न चानीश्वरत्वं मर्यादामार्गस्य तथैव निर्णयात् यत्रान्यथा स पुष्टिमध्ये इति।