BG - 18.19

ज्ञानं कर्म च कर्ता च त्रिधैव गुणभेदतः।प्रोच्यते गुणसंख्याने यथावच्छृणु तान्यपि।।18.19।।

jñānaṁ karma cha kartā cha tridhaiva guṇa-bhedataḥ prochyate guṇa-saṅkhyāne yathāvach chhṛiṇu tāny api

  • jñānam - knowledge
  • karma - action
  • cha - and
  • kartā - doer
  • cha - also
  • tridhā - of three kinds
  • eva - certainly
  • guṇa-bhedataḥ - distinguished according to the three modes of material nature
  • prochyate - are declared
  • guṇa-saṅkhyāne - Sānkhya philosophy, which describes the modes of material nature
  • yathā-vat - as they are
  • śhṛiṇu - listen
  • tāni - them
  • api - also

Translation

Knowledge, action, and actor are declared in the science of the Gunas (Sankhya philosophy) to be of three kinds only, according to the distinction of the Gunas. Of these, hear duly.

Commentary

By - Swami Sivananda

18.19 ज्ञानम् knowledge? कर्म action? च and? कर्ता actor? च and? त्रिधा of three kinds? एव only? गुणभेदतः according to the distinction of Gunas? प्रोच्यते are declared? गुणसंख्याने in the science of Gunas (Sankhya philosophy)? यथावत् duly? श्रृणु hear? तानि them? अपि also.Commentary The three alities overpower the whole of creation with their special nature and bring it entirely under their control. The nature of action? the actor and his knowledge are threefold according to the Gunas that is predominant. If all the three are Sattvic? then the action will not bind the man.Karta The doer of the actions.The science of the Gunas here referred to is Kapilas system of philosophy. Though the Sankhya system is opposed to Vedanta with reference to the Supreme Truth? viz.? the oneness or nonduality of Brahman? yet it is an authority on the science of the Gunas.I shall describe knowledge? action and actor? as also their various distinctions caused by different Gunas? scientifically and rationally. Hear My teachings? O Arjuna? with rapt attention. You will be immensely benefited.

By - Swami Ramsukhdas , in hindi

।।18.19।। व्याख्या --   प्रोच्यते गुणसंख्याने -- जिस शास्त्रमें गुणोंके सम्बन्धसे प्रत्येक पदार्थके भिन्नभिन्न भेदोंकी गणना की गयी है? उसी शास्त्रके अनुसार मैं तुम्हें ज्ञान? कर्म तथा कर्ताके भेद बता रहा हूँ।ज्ञानं कर्म च कर्ता च त्रिधैव गुणभेदतः -- पीछेके श्लोकमें भगवान्ने कर्मकी प्रेरणा होनेमें तीन हेतु बताये तथा तीन ही हेतु कर्मके बननेमें बताये। इस प्रकार कर्मसंग्रह होनेतकमें कुल छः बातें बतायीं (टिप्पणी प0 901)। अब इस श्लोकमें भगवान् ज्ञान? कर्म तथा कर्ता -- इन तीनोंका विवेचन करनेकी ही बात कहते हैं। कर्मप्रेरकविभागमेंसे विवेचन करनेके लिये केवल ज्ञान लिया गया है? क्योंकि किसी भी कर्मकी प्रेरणामें पहले ज्ञान ही होता है। ज्ञानके बाद ही कार्यका आरम्भ होता है। कर्मसंग्रहविभागमेंसे केवल कर्म और कर्ता लिये गये हैं। यद्यपि कर्मके होनेमें कर्ता मुख्य है? तथापि साथमें कर्मको भी लेनेका कारण यह है कि कर्ता जब कर्म करता है? तभी कर्मसंग्रह होता है। अगर कर्ता कर्म न करे तो कर्मसंग्रह होगा ही नहीं। तात्पर्य यह हुआ कि कर्मप्रेरणामें ज्ञान तथा कर्मसंग्रहमें कर्म और कर्ता मुख्य हैं। इन तीनों -- (ज्ञान? कर्म और कर्ता -- ) के सात्त्विक होनेसे ही मनुष्य निर्लिप्त हो सकता है? राजस और तामस होनेसे नहीं। अतः यहाँ कर्मप्रेरकविभागमें ज्ञाता और ज्ञेय को तथा कर्मसंग्रहविभागमें करण को नहीं लिया गया है।कर्मप्रेरकविभाग के ज्ञाता और ज्ञेय का विवेचन क्यों नहीं किया कारण कि ज्ञाता जब क्रियासे सम्बन्ध जोड़ता है? तब वह कर्ता कहलाता है और उस कर्ताके तीन (सात्त्विक? राजस और तामस) भेदोंके अन्तर्गत ही ज्ञाताके भी तीन भेद हो जाते हैं। परन्तु ज्ञाता जब ज्ञप्तिमात्र रहता है? तब उसके तीन भेद नहीं होते क्योंकि उसमें गुणोंका सङ्ग नहीं है। गुणोंका सङ्ग होनेसे ही उसके तीन भेद होते हैं। इसलिये वृत्तिज्ञान ही सात्त्विक? राजस तथा तामस होता है।जिसे जाना जाय? उस विषयको ज्ञेय कहते हैं। जाननेके विषय अनेक हैं? इसलिये इसके अलग भेद नहीं किये गये। परन्तु जाननेयोग्य सब विषयोंका एकमात्र लक्ष्य सुख प्राप्त करना ही रहता है। जैसे? कोई विद्या पढ़ता है? कोई धन कमाता है? कोई अधिकार पानेकी चेष्टा करता है तो इन सब विषयोंको जानने? पानेकी चेष्टाका लक्ष्य एकमात्र सुख ही रहता है। विद्या पढ़नेमें यही भाव रहता है कि ज्यादा पढ़कर ज्यादा धन कमाऊँगा? मान पाऊँगा और उनसे मैं सुखी होऊँगा। ऐसे ही हरेक कर्मका लक्ष्य परम्परासे सुख ही रहता है। इसलिये भगवान्ने ज्ञेयके तीन भेद सात्त्विक? राजस और तामस सुख के नामसे आगे (18 । 36 -- 39में) किये हैं।ऐसे ही भगवान्ने करणके भी तीन भेद नहीं किये क्योंकि इन्द्रियाँ आदि जितने भी करण हैं? वे सब साधनमात्र हैं। इसलिये उनके तीन भेद नहीं होते। परन्तु इन सभी करणोंमें बुद्धि की ही प्रधानता है क्योंकि मनुष्य करणोंसे जो कुछ भी काम करता है? उसको वह बुद्धिपूर्वक (विचारपूर्वक) ही करता है। इसलिये भगवान्ने करणके तीन भेद सात्त्विक? राजस और तामस बुद्धिके नामसे आगे (18। 30 -- 32 में) किये हैं।बुद्धिको दृढ़तासे रखनेमें धृति बुद्धिकी सहायक बनती है। ज्ञानयोगकी साधनामें भगवान्ने दो जगह (6। 25 में तथा 18। 51में) बुद्धिके साथ धृति पद भी दिया है। इससे यह मालूम देता है कि ज्ञानमार्गमें बुद्धिके साथ धृतिकी विशेष आवश्यकता है। इसलिये भगवान्ने धृतिके भी तीन भेद (18। 33 -- 35 में) बताये हैं।त्रिधैव पदमें यह भाव है कि ये भेद तीन (सात्त्विक? राजस और तामस) ही होते हैं? कम और ज्यादा नहीं होते अर्थात् न दो होते हैं और न चार होते हैं। कारण कि सत्त्व? रज और तम -- ये तीन गुण ही प्रकृतिसे उत्पन्न हैं -- सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसम्भवाः (गीता 14। 5)। इसलिये इन तीनों गुणोंको लेकर तीन ही भेद होते हैं।यथावत् -- गुणसंख्यानशास्त्रमें इस विषयका जैसा वर्णन हुआ है? वैसाकावैसा तुम्हें सुना रहा हूँ अपनी तरफसे कुछ कम या अधिक करके नहीं सुना रहा हूँ।श्रृणु -- इस विषयको ध्यानसे सुनो। कारण कि सात्त्विक? राजस और तामस -- इन तीनोंमेंसे सात्त्विक चीजें तो कर्मोंसे सम्बन्धविच्छेद करके परमात्मतत्त्वका बोध करानेवाली हैं? राजस चीजें जन्ममरण देनेवाली हैं और तामस चीजें पतन करनेवाली अर्थात् नरकों और नीच योनियोंमें ले जानेवाली हैं। इसलिये इनका वर्णन सुनकर सात्त्विक चीजोंको ग्रहण तथा राजसतामस चीजोंका त्याग करना चाहिये।तानि -- इन ज्ञान आदिका तुम्हारे स्वरूपके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। तुम्हारा स्वरूप तो सदा निर्लेप है।अपि -- इनके भेदोंको जाननेकी भी बड़ी भारी आवश्यकता है क्योंकि इनको ठीक तरहसे जाननेपर यस्य नाहंकृतो भावो ৷৷. न हन्ति न निबध्यते (18। 17) -- इस श्लोकका ठीक अनुभव हो जायगा अर्थात् अपने स्वरूपका बोध हो जायगा। सम्बन्ध --   अब भगवान् सात्त्विक ज्ञानका वर्णन करते हैं।

By - Swami Chinmayananda , in hindi

।।18.19।। आगामी श्लोकों में विवेच्य विषय को यहाँ केवल सूचित किया गया है। चतुर्दश अध्याय में प्रकृति के सत्त्व? रज और तम इन तीन गुणों के लक्षण? व्यापार एवं प्रभाव का विस्तृत वर्णन किया गया था। इन तीन गुणों में से किसी एक के आधिक्य के कारण अथवा इनके विभिन्न अनुपात में संयोग से? या फिर इनके प्राधान्य के क्रमपरिवर्तन के कारण ही विभिन्न व्यक्तियों के स्वभाव तथा कार्यों में इतना वैचित्र्य दिखाई देता है। इतना ही नहीं? अपितु किसी एक व्यक्ति के जीवन में भी समयसमय पर इन गुणों के कारण परिवर्तन होता रहता है।यहाँ गुणसंख्याने शब्द से कपिल मुनि जी का सांख्यशास्त्र अभिप्रेत है। सांख्य दर्शन में त्रिगुणों के व्यापार का विशेष वर्णन किया गया है। यथावत् का अर्थ है यथान्याय और यथाशास्त्र? अर्थात् शास्त्र और युक्ति से युक्त। अर्जुन तो उपदेश का श्रवण कर ही रहा था? तथापि शृणु कहने का अर्थ यह प्रतीत होता है कि भगवान् चाहते हैं कि अर्जुन आगे के विषय को विशेष ध्यान देकर सुने। विवेच्य विषय का विशेष महत्त्व है।सर्वप्रथम त्रिविध ज्ञान बताते हैं

By - Sri Anandgiri , in sanskrit

।।18.19।।अनन्तरश्लोकदशकतात्पर्यमाह -- अथेति। ज्ञानादिप्रस्तावानन्तर्यमथशब्दार्थः। इदानीं प्रस्तुतज्ञानाद्यवान्तरभेदापेक्षायामित्यर्थः। तेषां गुणभेदात्त्रैविध्ये हेतुमाह -- गुणात्मकत्वादिति। वक्तव्यो वक्ष्यमाणश्लोकनवकेनेति शेषः। एवं स्थिते प्रथममवान्तरभेदप्रतिज्ञा क्रियत इत्याह -- इत्यारभ्यत इति। कर्तुरीप्सिततमं कर्मेति यत्तत्परिभाष्यते तन्नात्र कर्मशब्दवाच्यमित्याह -- नेति। गुणातिरेकेण विधान्तरं ज्ञानादिषु नेति निर्धारयितुमवधारणमित्याह -- गुणेति। ज्ञानादीनां प्रत्येकं गुणभेदप्रयुक्ते त्रैविध्ये प्रमाणमाह -- प्रोच्यत इति। नतु कापिलं पातञ्जलमित्यादि शास्त्रं विरुद्धार्थत्वादप्रमाणं कथमिह प्रमाणीक्रियते तत्राह -- तदपीति। विषयविशेषे विरोधेऽपि प्रकृतेऽर्थे प्रामाण्यमविरुद्धमित्यर्थः। यद्यपि कापिलादयो गुणवृत्तिविचारे गौणव्यापारस्य भोगादेर्निरूपणे च निपुणास्तथापि कथं तदीयं शास्त्रमत्र प्रमाणीकृतमित्याशङ्क्याह -- ते हीति। ज्ञानादिषु प्रत्येकमवान्तरभेदो वक्ष्यमाणोऽर्थस्तस्य तन्त्रान्तरेऽपि प्रसिद्धिकथनं स्तुतिस्तादर्थ्येन कापिलादिमतोपादानमिहोपयोगीत्यर्थः। तृतीयपादस्याविरुद्धार्थत्वं निगमयति -- नेति। यथावदित्यादिव्याचष्टे -- यथान्यायमिति।

By - Sri Dhanpati , in sanskrit

।।18.19।।क्रियाकारकफलानामात्मसंबन्धो नास्तीति दर्शयितुं तेषां सर्वेषां त्रिगुणात्मकत्वात् सत्त्वरजस्तमोगुणभेदेन त्रैविध्यप्रतिपादमारभ्यते -- ज्ञानमिति। कर्मशब्देन क्रिया ग्राह्या वक्ष्यमाणानुरोधात्। ननु कर्तुरीप्सिततमं कर्मेति पारिभाषिकं कर्म कारकं कर्ता च क्रियाणां निर्वतर्कः गुणभेदतः सत्त्वादिगुणभेदेन त्रिधैव गुणसंख्याने प्रोच्यते। अवधारणं गुणव्यतिरेकेण विविधान्तरं ज्ञानादिषु नास्तीति निर्धारणार्थम्। गुणाः सत्त्वादयः सभ्यक्कार्यभेदेन ख्यायन्ते प्रतिपाद्यन्तेऽस्मिन्निति गुणसंख्यानं कापिलशास्त्रं यद्यपि परमार्थब्रह्मैकत्वविषये विरुध्यते तथापि तेषां कापिलानां गुणागौणव्यापारनिरुपणेऽभि युक्तात्वात्तच्छास्त्रमपि वक्ष्यमाणस्तुत्यर्थत्वेनोपादीयते। वक्ष्यमाणार्थस्य तन्त्रान्तरेऽपि प्रसिद्धकथनं स्तुतिः। तानि ज्ञानादीनि अपिशब्दात्तद्भेदजातानि च गुणभेदकृतानि श्रृणु। वक्ष्यमाणेऽर्थे मनःसमाधानं कुर्वित्यर्थः।

By - Sri Madhavacharya , in sanskrit

।।18.19।।पुनः साधनप्रथनाय गुणभेदानाह -- ज्ञानमित्यादिना। गुणसङ्ख्याने गुणगणनप्रकरणे।

By - Sri Neelkanth , in sanskrit

।।18.19।।पूर्वश्लोकोक्ते ज्ञानादिषट्के परिज्ञाता कर्ता चैक एवेति परिशिष्टाः पञ्च तेषां सर्वेषां प्राकृतत्वेन त्रिगुणात्मकत्वे प्राप्ते ज्ञेयकरणयोर्जडयोर्घटकुठारकल्पयोः परिसंख्यार्थं त्रयाणामेव प्रत्येकं त्रिविधत्वं विवरीतुं प्रतिजानीते -- ज्ञानमिति। ज्ञानं कर्म कर्ता चेति त्रयमेव गुणभेदतस्त्रिधा न तु ज्ञेयकरणे। गुणसंख्याने कापिले शास्त्रे। यद्यपि तत्र एकस्यां प्रमदायां भर्तुः सुखं जायते तं प्रति तस्याः सत्त्वोद्भूतत्वात्? तामविन्दतश्चैत्रस्य दुःखं जायते तं प्रति तस्याः रजोद्भूतत्वात्। तस्यामेव सपत्न्या द्वेषस्तां प्रति तस्यास्तमोद्भूतत्वात्। प्रमदयैव सर्वे भावा व्याख्याता इति कापिलानां ज्ञेयकरणयोरपि त्रैविध्यं प्रसिद्धम्। तथापि प्रमदादय एकस्यैव पुंसो निमित्तभेदेन प्रीतिदुःखद्वेषविषया अपि भवन्तीति पूर्वोक्तव्यवस्थाया निर्मूलत्वात्। प्रीत्यादीनां कर्तृसमवायितया प्रतीयमानानामालम्बनभूतायाः प्रमदायाः प्रीत्याद्यात्मकत्वं कल्पयितुं न शक्यत इति न भगवता तयोस्त्रिविधत्वं व्याख्यायते। अक्षरार्थः स्पष्टः।

By - Sri Ramanujacharya , in sanskrit

।।18.19।।कर्तव्यकर्मविषयं ज्ञानम्? अनुष्ठीयमानं च कर्म तस्यानुष्ठाता च सत्त्वादिगुणभेदतः त्रिधा एव प्रोच्यते। गुणसंख्याने गुणकार्यगणने यथावत् श्रृणु तानि अपि -- तानि गुणतो भिन्नानि ज्ञानादीनि यथावत् श्रृणु।

By - Sri Sridhara Swami , in sanskrit

।।18.19।।ततः किमत आह -- ज्ञानमिति। गुणाः सम्यक्कार्यभेदेन ख्यायन्ते प्रतिपाद्यन्तेऽस्मिन्निति गुणसंख्यानं सांख्यशास्त्रं तस्मिन्? ज्ञानं कर्म च क्रिया कर्ता च प्रत्येकं सत्त्वादिगुणभेदेन त्रिधैवोच्यते। तान्यपि ज्ञानादीनि वक्ष्यमाणानि यथावच्छृणु। त्रिधैवेत्येवकारो गुणत्रयोपाधिव्यतिरेकेणात्मनः स्वतःकर्तृत्वादिप्रतिषेधार्थः। चतुर्दशेऽध्यायेतत्र सत्त्वं निर्मलत्वात् इत्यादिना गुणानां बन्धकत्वप्रकारो निरूपितः। सप्तदशेऽध्यायेयजन्ते सात्त्विका देवान् इत्यादिना गुणकृतत्रिविधस्वभावनिरूपणेन रजस्तमःस्वभावं परित्यज्य सात्त्विकाहारादिसेवया सात्त्विकस्वभावः संपादनीय इत्युक्तम्। इह तु क्रियाकारकफलादीनामात्मसंबन्धो नास्तीति दर्शयितुं सर्वेषां त्रिगुणात्मकत्वमुच्यत इति विशेषो ज्ञातव्यः।

By - Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha , in sanskrit

।।18.19।।ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता [18।18] इत्युक्ता एव पदार्थाःज्ञानं कर्म च कर्ता च इत्यनूद्यन्ते। ज्ञातृत्वकर्तृत्वयोरवस्थाभेदमात्रत्वात् ज्ञानोक्त्यैव ज्ञातुरपि सिद्धेरिहानुक्तिः ज्ञेयशब्दस्य च कर्मविषयत्वात्। करणं तु कर्मानुप्रविष्टत्वान्न पृथग्विभजिष्यते। गुणसङ्ख्यानशब्देन साङ्ख्यराद्धान्तविवक्षायां प्रमाणाभावात्प्रकृते चानुपयोगात् गुणस्वरूपगणने च ज्ञानादेरनुप्रवेशाभावात्गुणकार्यगणन इत्युक्तम्।यथावच्छृणु यथावछ्रवणयोग्यमवधानं कुर्वित्यर्थः।यथावत् इति विवक्षितं प्रकारमाहगुणतो भिन्नानीति।

By - Sri Abhinavgupta , in sanskrit

।।18.19।।अथैषां षण्णामपि संक्षेपेण गुणभेदात् ( omits गुण -- ) भेदं दर्शयितुमाह -- ज्ञानमिति। गुणानां संख्यानं निश्चयो यत्र? तत्र सांख्यीयकृतान्ते ज्ञानादित्रिविधमुच्यते यत्? तच्छृणु इति संगतिः। ज्ञानम् इत्यनेन ज्ञाने क्रियायां च यत् करणं तत् द्विविधमुक्तम्। एवं कर्म इति ज्ञेयं कार्यं च कर्ता इति ( ? N? K omits कर्तेति ) ज्ञाता कर्ता चेति।

By - Sri Jayatritha , in sanskrit

।।18.19।।ज्ञानं कर्मेत्यादेः प्रकृतोपयोगाप्रतीतेस्तं दर्शयन्नाह -- पुनरिति। मोक्षसाधनं प्रागपि गुणभेदानामुक्तत्वात्पुनरित्युक्तम्। गुणसङ्ख्यानशब्देन कापिलं शास्त्रमुच्यत इति भावेनाऽऽह -- गुणेति। तच्च वैदिकमभिप्रेतम्।

By - Sri Madhusudan Saraswati , in sanskrit

।।18.19।।इदानीं ज्ञानज्ञेयज्ञातरूपस्य करणकर्मकर्तृरूपस्य च त्रिकद्वयस्य त्रिगुणात्मकत्वं वक्तव्यमिति तदुभयं संक्षिप्य त्रिगुणात्मकत्वं प्रतिजानीते -- ज्ञानं कर्म चेति। ज्ञानं प्राग्व्याख्यातम्। ज्ञेयमप्यत्रैवान्तर्भूतं ज्ञानोपाधिकत्वाज्ज्ञेयत्वस्य। कर्म क्रिया त्रिविधः कर्मसंग्रह इत्यत्रोक्ता। चकारात् करणकर्मकारकयोरत्रैवान्तर्भावः क्रियोपाधिकत्वात्कारकत्वस्य। कर्ता क्रियाया निर्वर्तकश्चकाराज्ज्ञाता च। कर्तुः क्रियोपाधिकत्वेऽपि पृथक् त्रैगुण्यकथनं कुतार्किकभ्रमकल्पितात्मत्वनिवारणार्थम्। ते हि कर्तैवात्मेति मन्यन्ते। गुणाः सत्त्वरजस्तमांसि सम्यक् कार्यभेदेन व्याख्यायन्ते प्रतिपाद्यन्तेऽस्मिन्निति गुणसंख्यानं कापिलं तस्मिन् ज्ञानं क्रिया च कर्ता च गुणभेदतः सत्त्वरजस्तमोभेदेन त्रिधैव प्रोच्यते। एवकारो विधान्तरनिवारणार्थः। यद्यपि कापिलं शास्त्रं परमार्थब्रह्मैकत्वविषये न प्रमाणं तथाप्यपरमार्थगुणगौणभेदनिरूपणे व्यावहारिकं प्रामाण्यं भजत इति वक्ष्यमाणार्थस्तुत्यर्थं गुणसंख्याने प्रोच्यत इत्युक्तम्। तन्त्रान्तरेऽपि प्रसिद्धमिदं न केवलस्मिन्नेव तन्त्र इति स्तुतिर्यथावद्यथाशास्त्रं शृणु श्रोतुं सावधानो भव। तानि विज्ञानादीन्यपिशब्दात्तद्भेदजातानि च गुणभेदकृतान्यत्र चैवमपौनरुक्त्यं द्रष्टव्यम्। चतुर्दशेऽध्याये तत्र सत्त्वं निर्मलत्वादित्यादिना गुणानां बन्धहेतुत्वप्रकारो निरूपितो गुणातीतस्य जीवन्मुक्तत्वनिरूपणाय सप्तदशे पुनर्यजन्ते सात्त्विका देवानित्यादिना गुणकृतत्रिविधस्वभावनिरूपणेनासुरं रजस्तमःस्वभावं परित्यज्य सात्त्विकाहारादिसेवया दैवः सात्त्विकः स्वभावः संपादनीय इत्युक्तमिह तु स्वभावतो गुणातीतस्यात्मनः क्रियाकारकफलसंबन्धो नास्तीति दर्शयितुं तेषां सर्वेषां त्रिगुणात्मकत्वमेव न रूपान्तरमस्ति येनात्मसंबन्धिता स्यादित्युच्यत इति विशेषः।

By - Sri Purushottamji , in sanskrit

।।18.19।।अथ ज्ञानादित्रयमपि त्रिगुणभेदेन प्रत्येकं त्रिविधमस्तीत्याह -- ज्ञानमिति। ज्ञानं साधनं? कर्म क्रिया? कर्त्ता पुरुषः? एतत्त्रयमपि गुणभेदेन सात्त्विकादिभेदतस्त्रिधैव। गुणसङ्ख्याने गुणाः कार्यभेदेन सङ्ख्यायन्ते निरूप्यन्ते गण्यन्ते वा अस्मिन्निति साङ्ख्यशास्त्रे प्रोच्यन्ते तान्यपि तत्रोक्तानि यथावत् मदुक्तानि शृणु। साङ्ख्यप्रोक्तानि तान्यपि शृण्वित्युक्त्या सप्तदशाध्याये स्वोक्तत्रैविध्यस्य निर्गुणाधिकारसम्पादकानि कर्माणि भवन्ति? न त्वेतानीति स्वरूपवैजात्यज्ञानार्थं श्रोतव्यानीति ज्ञापितम्।

By - Sri Shankaracharya , in sanskrit

।।18.19।। --,ज्ञानं कर्म च? कर्म क्रिया? न कारकं पारिभाषिकम् ईप्सिततमं कर्म? कर्ता च निर्वर्तकः क्रियाणां त्रिधा एव? अवधारणं गुणव्यतिरिक्तजात्यन्तराभावप्रदर्शनार्थं गुणभेदतः सत्त्वादिभेदेन इत्यर्थः। प्रोच्यते कथ्यते गुणसंख्याने कापिले शास्त्रे तदपि गुणसंख्यानशास्त्रं गुणभोक्तृविषये प्रमाणमेव। परमार्थब्रह्मैकत्वविषये यद्यपि विरुध्यते? तथापि ते हि कापिलाः गुणगौणव्यापारनिरूपणे अभियुक्ताः इति तच्छास्त्रमपि वक्ष्यमाणार्थस्तुत्यर्थत्वेन उपादीयते इति न विरोधः। यथावत् यथान्यायं यथाशास्त्रं श्रृणु तान्यपि ज्ञानादीनि तद्भेदजातानि गुणभेदकृतानि श्रृणु? वक्ष्यमाणे अर्थे मनःसमाधिं कुरु इत्यर्थः।।ज्ञानस्य तु तावत् त्रिविधत्वम् उच्यते --,

By - Sri Vallabhacharya , in sanskrit

।।18.19।।ज्ञानमिति। पूर्वोक्तं ज्ञानं कर्म चानुष्ठीयमानं कर्त्ता तदनुष्ठाता सत्त्वादिगुणभेदतस्त्रिधैवोच्यते। गुणसङ्ख्याने साङ्ख्य इत्यर्थः।