मुक्तसङ्गोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वितः।सिद्ध्यसिद्ध्योर्निर्विकारः कर्ता सात्त्विक उच्यते।।18.26।।
mukta-saṅgo ‘nahaṁ-vādī dhṛity-utsāha-samanvitaḥ siddhy-asiddhyor nirvikāraḥ kartā sāttvika uchyate
An agent who is free from attachment, non-egoistic, endowed with firmness and enthusiasm, and unaffected by success or failure, is considered to be of a Sattvic (pure) nature.
18.26 मुक्तसङ्गः who is free from attachment? अनहंवादी nonegoistic? धृत्युत्साहसमन्वितः endowed with firmness and enthusiasm? सिद्ध्यसिद्ध्योः in success or failure? निर्विकारः unaffected? कर्ता an agent? सात्त्विकः Sattvic (pure)? उच्यते is called.Commentary A pure agent does his actions with his whole heart without feeling proud at the performance. He looks for the proper time and place and in accordance with the behests of the scriptures determines whether such actions are worth doing or not. He develops courage and a powerful will. He never seeks physical comforts. He is ite prepared to sacrifice his life for a noble cause. He is neither elated by success nor grieved by failure. He always keeps a balanced mind when he does any action. O Arjuna? that man is a pure agent who? while working? exhibits such alities.Siddhi Success attainment of the fruit of action performed.Nirvikarah Unaffected as having been urged to act merely by the authority of the scriptures? not by a desire for the sake of the reward.Now I will tell thee? O Arjuna? of the characteristics of a passionate agent.
।।18.26।। व्याख्या -- मुक्तसङ्गः -- जैसे सांख्ययोगीका कर्मोंके साथ राग नहीं होता? ऐसे सात्त्विक कर्ता भी रागरहित होता है।कामना? वासना? आसक्ति? स्पृहा? ममता आदिसे अपना सम्बन्ध जोड़नेके कारण ही वस्तु? व्यक्ति? पदार्थ? परिस्थिति? घटना आदिमें आसक्ति लिप्तता होती है। सात्त्विक कर्ता इस लिप्ततासे सर्वथा रहित होता है।अनहंवादी -- पदार्थ? वस्तु? परिस्थिति आदिको लेकर अपनेमें जो एक विशेषताका अनुभव करना है -- यह अहंवदनशीलता है। यह अहंवदनशीलता आसुरीसम्पत्ति होनेसे अत्यन्त निकृष्ट है। सात्त्विक कर्तामें यह अहंवदनशीलता? अभिमान तो रहता ही नहीं? प्रत्युत मैं इन चीजोंका त्यागी हूँ? मेरेमें यह अभिमान नहीं है? मैं निर्विकार हूँ? मैं सम हूँ? मैं सर्वथा निष्काम हूँ? मैं संसारके सम्बन्धसे रहित हूँ -- इस तरहके अहंभावका भी उसमें अभाव रहता है।धृत्युत्साहसमन्वितः -- कर्तव्यकर्म करते हुए विघ्नबाधाएँ आ जायँ? उस कर्मका परिणाम ठीक न निकले? लोगोंमें निन्दा हो जाय? तो भी विघ्नबाधा आदि न आनेपर जैसा धैर्य रहता है? वैसा ही धैर्य विघ्नबाधा आनेपर भी नित्यनिरन्तर बना रहे -- इसका नाम धृति है और सफलताहीसफलता मिलती चली जाय? उन्नति होती चली जाय? लोगोंमें मान? आदर? महिमा आदि बढ़ते चले जायँ -- ऐसी स्थितिमें मनुष्यके मनमें जैसी उम्मेदवारी? सफलताके प्रति उत्साह रहता है? वैसी ही उम्मेदवारी इससे विपरीत अर्थात् असफलता? अवनति? निन्दा आदि हो जानेपर भी बनी रहे -- इसका नाम उत्साह है। सात्त्विक कर्ता इस प्रकारकी धृति और उत्साहसे युक्त रहता है।सिद्ध्यसिद्ध्योर्निर्विकारः -- सिद्धि और असिद्धिमें अपनेमें कुछ भी विकार न आये? अपनेपर कुछ भी असर न पड़े अर्थात् कार्य ठीक तरहसे साङ्गोपाङ्ग पूर्ण हो जाय अथवा पूरा उद्योग करते हुए अपनी शक्ति? समझ? समय? सामर्थ्य आदिको पूरा लगाते हुए भी कार्य पूरा न हो फल प्राप्त हो अथवा न हो? तो भी अपने अन्तःकरणमें प्रसन्नता और खिन्नता? हर्ष और शोकका न होना ही सिद्धिअसिद्धिमें निर्विकार रहना है।कर्ता सात्त्विक उच्यते -- ऐसा आसक्ति तथा अहंकारसे रहित? धैर्य तथा उत्साहसे युक्त और सिद्धिअसिद्धिमें निर्विकार कर्ता सात्त्विक कहा जाता है।इस श्लोकमें छः बातें बतायी गयी हैं -- सङ्ग? अहंवदनशीलता? धृति? उत्साह? सिद्धि और असिद्धि। इनमेंसे पहली दो बातोंसे रहित? बीचकी दो बातोंसे युक्त और अन्तकी दो बातोंमें निर्विकार रहनेके लिये कहा गया है। सम्बन्ध -- अब राजस कर्ताके लक्षण बताते हैं।
।।18.26।। अब तक भगवान् श्रीकृष्ण ने त्रिविध ज्ञान और कर्म का वर्णन किया था। कर्म का तीसरा अंग है? कर्ता जीव? जो कामना से प्रेरित होकर कर्म में प्रवृत्त होता है। प्रकृति के तीन गुण हम सबके मानसिक जीवन एवं बौद्धिक क्षमताओं को प्रभावित करते हैं। स्वाभाविक ही है? कि किसी एक गुण के आधिक्य या प्राधान्य से हमारे कर्तृत्व में भी समयसमय पर परिवर्तन होता रहता है। अत यहाँ कर्ता का भी तीन भागों में वर्गीकरण किया गया है। सर्वप्रथम? भगवान् श्रीकृष्ण सात्त्विक कर्ता का वर्णन करते हैं।मुक्तसंग और अनहंवादी ये दो विशेषण सात्त्विक कर्ता के हैं। जो पुरुष कर्म के फल? जगत् की वस्तुओं तथा व्यक्तियों से आसक्ति रहित है? वह सात्त्विक कर्ता है। वह जानता है कि स्वयं से भिन्न किसी भी वस्तु में वह सुख नहीं है? जो उसके जीवन को पूर्ण और कृतार्थ कर सके। इसलिए वह किसी में आसक्ति नहीं रखता। अहंवादी का अर्थ है वह पुरुष? जो अपनी उपलब्धियों और सफलताओं का कर्ता स्वयं को ही मानकर सदैव गर्वयुक्त भाषण करता है? परन्तु सात्त्विक पुरुष में यह अहंमन्यता नहीं होती? क्योंकि उसका यह दृढ़ एवं निश्चयात्मक ज्ञान होता है कि कोई भी उपलब्धि एक अकेले पुरुष की कभी नहीं हो सकती।ईश्वर प्रदत्त क्षमताएं? प्राकृतिक नियम तथा अन्य जनों के सहयोग से ही सफलता सम्पादित की जा सकती है। इस ज्ञान के कारण उसे कभी यह गर्व नहीं होता कि उसने कोई अभूतपूर्व कार्य किया है। वह अपने अहंकार को ईश्वर के चरणों में समर्पित कर देता है।ऐसे मुक्तसंग और अनहंवादी पुरुष में असीम धैर्य और कार्य के प्रति उत्साह होता है। धृति मनुष्य की वह क्षमता है? जिसके कारण कार्य करने में कितने ही विघ्न और कठिनाइयाँ आने पर भी? मनुष्य साहस के साथ उनका सामना करते हुए अपने लक्ष्य तक पहुँचता है। वह प्रयत्नशील पुरुष सदा सफलता के मार्ग पर उत्साह के साथ आगे बढ़ता जाता है।सात्त्विक कर्ता का विशेष गुण है? कार्य की सिद्धिअसिद्धि में हर्ष शोकादि विकारों से मुक्त रहना। इस सन्दर्भ में? मुझे जिस उदाहरण का स्मरण होता है? वह चिकित्सालय में कार्य करती हुई लगनशील परिचारिका का है। उसे सामान्यत किसी रोगी से आसक्ति नहीं होती उसे यह अभिमान नहीं होता कि वह स्वयं रोगी का उपचार कर रही है? क्योंकि वस्तुत वह कार्य चिकित्सक का होता है। धैर्य और उत्साह के बिना वह अपने सेवा कार्य को सतत नहीं कर सकती। और उसी प्रकार? उसे उपचार की सफलता या विफलता के विषय में अनावश्यक चिन्ता नहीं होती। रोगी के स्वस्थ हो जाने अथवा उसकी मृत्यु हो जाने से वह परिचारिका अति हर्षित या अति दुखी नहीं हो जाती। वह जानती है कि चिकित्सालय तो सफलता और विफलता तथा जन्म और मृत्यु का क्षेत्र है। वह तटस्थ भाव से अपने सेवा कार्य में रत रहती है।उपर्युक्त गुणों से सम्पन्न पुरुष सात्त्विक कर्ता कहा जाता है। ऐसा पुरुष अपने कार्य क्षेत्र में अपनी समस्त क्षमताओं का सम्पूर्ण सदुपयोग करता है? क्योंकि आसक्ति आदि भावांे में उसकी शक्तियों का वृथा अपव्यय नहीं होता। स्वाभाविक ही है कि ऐसे सात्त्विक कर्ता को चिरस्थायी सफलता प्राप्त होती है और उसके कार्यों से जगत् का भी कल्याण होता है।सात्त्विक कर्ता को यह विवेक होता है कि शरीर? मन और बुद्धि उपाधियाँ चैतन्यस्वरूप आत्मा के सम्बन्ध से ही अपना कार्य करने में सक्षम होकर जगत् की सेवा कर सकती हैं। चैतन्य के बिना वे घर के एक कोने में रखी छड़ी की तरह असहाय रहती हैं।परमात्मा के पावन संकल्प की अभिव्यक्ति के लिए बुद्धि की क्षमता? हृदय का सौन्दर्य और शरीर की सार्मथ्य आदि सभी माध्यम हैं। अत? यदि इन उपाधियों में सामञ्जस्य न हो? तो आत्मा की अभिव्यक्ति अपने शुद्ध स्वरूप में नहीं हो सकती। सात्त्विक कर्ता को अपने आत्मस्वरूप का सदैव भान बना रहता है।
।।18.26।।इदानीं कर्तृत्रैविध्यं ब्रुवन्नादौ सात्त्विकं कर्तारं दर्शयति -- मुक्तेति। सङ्गो नाम फलाभिसन्धिर्बा कर्तृत्वाभिमानो वा? नाहंवदनशीलः कर्ताहमिति वदनशीलो न भवतीत्यर्थः। धारणं धैर्यम्। क्रियमाणस्य कर्मणो यदि फलानभिसन्धिस्तर्हि नानुष्ठानविश्रम्भः संभवेदित्याशङ्क्याह -- केवलमिति। फलरागादिनेत्यादिशब्देन कर्मरागो गृह्यते। अयुक्त इति च्छेदः।
।।18.26।।अधुना कर्तृत्रैविध्यं विभजन्नादौ सात्त्विकं कर्तारमाह -- मुक्तसङ्गो मुक्तः परित्यक्तः सङ्गः फलाभिसंधिर्येन सः अनहंवादी नाहंवदनशीलः कर्ताहमेतादृशगुणसंपन्नः सर्वोत्तम इति वदनशीलो न भवति। धृतिर्विघ्नाद्युपस्थानेऽपि कायादेर्धारणं धैर्यमिति यावत्। उत्साह उद्यमस्ताभ्यां सम्यगन्वितः कदापि कथमपि धृत्युत्साहरहितो न भवतीत्यर्थः। सिद्य्धसिद्य्धोः क्रियमाणस्य कर्मणः फलसिद्धौ सदसिद्धौ च निर्विकारः हर्षविषादशून्यः केवलं शास्त्रप्रमाणप्रयुक्तो न फलरागा दिना यः कर्ता स सात्त्विक उच्यते।
।।18.26।।कर्तृत्रैविध्यमाह -- मुक्तेत्यादिना। मुक्तसङ्गस्त्यक्ताभिनिवेशः। अनहंवादी पूर्वोक्ताहंकारोक्तिरहितः। धृतिर्धैर्यम्। उत्साहः साधयिष्याम्येवेति बुद्धिनिश्चयः ताभ्यां समन्वितः। सिद्ध्यसिद्ध्योः कर्मण आरब्धस्येति शेषः। निर्विकारो हर्षविषादशून्यः कर्ता सात्त्विक उच्यते।
।।18.26।।मुक्तसङ्गः फलसङ्गरहितः? अनहंवादी कर्तृत्वाभिमानरहितः धृत्युत्साहसमन्वितः? आरब्धे कर्मणि यावत्कर्मसमाप्त्यवर्जनीयदुःखधारणं धृतिः? उत्साहः उद्युक्तचेतस्त्वम्? ताभ्यां समन्वितः सिद्ध्यसिद्ध्योः निर्विकारः युद्धादौ कर्मणि तदुपकरणभूतद्रव्यार्जनादिषु च सिद्ध्यसिद्ध्योः अविकृचित्तः कर्ता सात्त्विक उच्यते।
।।18.26।।कर्तारं त्रिविधमाह -- मुक्तसङ्ग इति त्रिभिः। मुक्तसङ्गस्त्यक्ताभिनिवेशः? अनहंवादी गर्वोक्तिरहितः? धृतिर्धैर्यम्? उत्साह उद्यमः? ताभ्यां समन्वितः संयुक्तः? आरब्धस्य कर्मणः सिद्धावसिद्धौ च निर्विकारो हर्षविषादशून्यः एवंभूतः कर्ता सात्त्विक उच्यते।
।।18.26।।अनहंवादी इत्यनेन कर्तृत्वाभिमानरूपसङ्गस्य पृथङ्निषेधात्मुक्तसङ्गः इत्यत्र सङ्गशब्दः सङ्कुचितविषय इत्याह -- फलसङ्गरहित इति। तत एव कर्मणि स्वकीयतानुसन्धानरूपसङ्गोऽपि प्रतिषिद्धः। अहंवदनशीलोऽहंवादी? तदन्योऽनहंवादी? तत्र मनःपूर्वा हि वागित्यभिप्रायेणाऽऽहकर्तृत्वाभिमानरहित इति। कर्तृत्वस्य विविच्यमानत्वात्तदुपयुक्ता धृतिरिह विवक्षितेत्याहआरब्ध इति। प्रयत्नरूपस्योत्साहस्य कर्तृशब्देनैव सिद्धत्वाद्राजसादिकर्तृसाधारण्याच्च विशेषविवक्षामाह -- उद्युक्तचेतस्त्वमिति।मुक्तसङ्गः इत्यनेन स्वर्गादिफलसङ्गनिवृत्तेरुक्तत्वात्सिद्ध्यसिद्ध्योर्निर्विकारः इत्यस्य दृष्टफलविषयतामाहयुद्धादाविति। मुक्तसङ्गत्वफलं वा निर्विकारत्वम्।
।।18.26 -- 18.28।।मुक्तसङ्ग इत्यादि तामस उच्यते इत्यन्तम्। अहं कर्ता इति न वदन्? तच्छीलः? तद्धर्मा ( N तद्धर्मः ) ? तत्साधुकारी वा यो न ( S न यो भवति ?N?K omit न ) भवति इति अनहंवादी इति। अनेन णिनिना व्यवहारमात्रसंवृत्तिवशेन योगिनोऽपि अहं करोमि इति वचो न निषिद्धम्। हर्षशोकान्वितः? सिद्ध्यसिद्ध्योः। निकृतिः नैर्घृण्यम्।
।।18.26।।इदानीं त्रिविधः कर्तोच्यते -- मुक्तसङ्ग इति। मुक्तसङ्गस्त्यक्तफलाभिसन्धिः? अनहंवादी कर्ताहमिति वदनशीलो न भवति स्वगुणश्लाघाविहीनो वा? धृतिर्विघ्नाद्युपस्थितावपि प्रारब्धापरित्यागो हेतुरन्तःकरणवृत्तिविशेषः? धैर्यं उत्साह इदमहं करिष्याम्येवेति निश्चयात्मिका बुद्धिर्धृतिहेतुभूता ताभ्यां संयुक्तो धृत्युत्साहसमन्वितः? कर्मणः क्रियमाणस्य फलस्य सिद्धावसिद्धौ च हर्षशोकाभ्यां हेतुभ्यां यो विकारो वदनविकासम्लानत्वादिस्तेन रहितः सिद्ध्यसिद्ध्योर्निर्विकारः केवलं शास्त्रप्रमाणप्रयुक्तो न फलरागेण? अत एवंभूतः कर्ता सात्त्विक उच्यते।
।।18.26।।कर्म निरूप्य कर्तारं त्रिविधमाह -- मुक्तसङ्ग इति। मुक्तसङ्गः त्यक्तासक्तिः? अनहंवादी साभिमानोक्तिशून्यः? धृत्युत्साहसमन्वितः धृतिर्धैर्यं दुःखादिसहनरूपम्? उत्साहः उत्तमत्वज्ञानेनोद्यमस्ताभ्यां समन्वितो युक्तः? सिद्ध्यसिद्ध्योः कृतकर्मफलाफलयोर्निर्विकारः हर्षविषादरहितः? एतादृशः कर्त्ता सात्त्विक उच्यते।
।।18.26।। --,मुक्तसङ्गः मुक्तः परित्यक्तः सङ्गः येन सः मुक्तसङ्गः? अनहंवादी न अहंवदनशीलः? धृत्युत्साहसमन्वितः धृतिः धारणम् उत्साहः उद्यमः ताभ्यां समन्वितः संयुक्तः धृत्युत्साहसमन्वितः? सिद्ध्यसिद्ध्योः क्रियमाणस्य कर्मणः फलसिद्धौ असिद्धौ च सिद्ध्यसिद्ध्योः निर्विकारः? केवलं शास्त्रप्रमाणेन प्रयुक्तः न फलरागादिना यः सः निर्विकारः उच्यते। एवंभूतः कर्ता यः सः सात्त्विकः उच्यते।।
।।18.26।।कर्तुस्त्रैविध्यमाह -- मुक्तसङ्ग इति। मुक्तः सङ्गः फलादिविषयको येन अनहंवादी कर्तृत्वाभिमानरहितः कर्मसिद्ध्यसिद्ध्योर्निर्विकारः सात्त्विक उच्यते कर्तेति। साङ्ख्ययोगसारमुपदिशन्वक्ति भगवान् त्वमपि तथा भवेत्यभिप्रायेण।