BG - 2.18

अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः। अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत।।2.18।।

antavanta ime dehā nityasyoktāḥ śharīriṇaḥ anāśhino ’prameyasya tasmād yudhyasva bhārata

  • anta-vantaḥ - having an end
  • ime - these
  • dehāḥ - material bodies
  • nityasya - eternally
  • uktāḥ - are said
  • śharīriṇaḥ - of the embodied soul
  • anāśhinaḥ - indestructible
  • aprameyasya - immeasurable
  • tasmāt - therefore
  • yudhyasva - fight
  • bhārata - descendant of Bharat, Arjun

Translation

These bodies of the embodied Self, which are eternal, indestructible, and immeasurable, are said to have an end. Therefore, fight, O Arjuna.

Commentary

By - Swami Sivananda

2.18 अन्तवन्तः having an end? इमे these? देहाः bodies? नित्यस्य of the everlasting? उक्ताः are said? शरीरिणः of the embodied? अनाशिनः of the indestructible? अप्रमेयस्य of the immesaurable? तस्मात् therefore? युध्यस्व fight? भारत O Bharata.Commentary -- Lord Krishna explains to Arjuna the nature of the allpervading? immortal Self in a variety of ways and thus induces him to fight by removing his delusion? grief and despondency which are born of ignorance.

By - Swami Ramsukhdas , in hindi

 2.18।। व्याख्या -- 'अनाशिनः'-- किसी कालमें, किसी कारणसे कभी किञ्चिन्मात्र भी जिसमें परिवर्तन नहीं होता, जिसकी क्षति नहीं होती, जिसका अभाव नहीं होता, उसका नाम  'अनाशी'  अर्थात् अविनाशी है।  'अप्रमेयस्य'-- जो प्रमा-(प्रमाण-)का विषय नहीं है अर्थात् जो अन्तःकरण और इन्द्रियोंका विषय नहीं है, उसको 'अप्रमेय' कहते हैं। जिसमें अन्तःकरण और इन्द्रियाँ प्रमाण नहीं होतीं, उसमें शास्त्र और सन्त-महापुरुष ही प्रमाण होते हैं, शास्त्र और सन्त-महापुरुष उन्हींके लिये प्रमाण होते हैं, जो श्रद्धालु हैं। जिसकी जिस शास्त्र और सन्तमें श्रद्धा होती है, वह उसी शास्त्र और सन्तके वचनोंको मानता है। इसलिये यह तत्त्व केवल श्रद्धाका विषय है,  (टिप्पणी प0 58.1)  प्रमाणका विषय नहीं। शास्त्र और सन्त किसीको बाध्य नहीं करते कि तुम हमारेमें श्रद्धा करो। श्रद्धा करने अथवा न करनेमें मनुष्य स्वतन्त्र है। अगर वह शास्त्र और सन्तके वचनोंमें श्रद्धा करेगा, तो यह तत्त्व उसकी श्रद्धाका विषय है; और अगर वह श्रद्धा नहीं करेगा, तो यह तत्त्व उसकी श्रद्धाका विषय नहीं है।  'नित्यस्य'--  यह नित्य-निरन्तर रहनेवाला है। किसी कालमें यह न रहता हो--ऐसी बात नहीं है अर्थात् यह सब कालमें सदा ही रहता है।  'अन्तवन्त इमे देहा उक्ताः शरीरिणः'-- इस अविनाशी, अप्रमेय और नित्य शरीरीके सम्पूर्ण संसारमें जितने भी शरीर हैं, वे सभी अन्तवाले कहे गये हैं। अन्तवाले कहनेका तात्पर्य है कि इनका प्रतिक्षण अन्त हो रहा है। इनमें अन्तके सिवाय और कुछ है ही नहीं, केवल अन्त-ही-अन्त है। उपर्युक्त पदोंमें शरीरीके लिये तो एकवचन दिया है और शरीरोंके लिये बहुवचन दिया है। इसका एक कारण तो यह है कि प्रत्येक प्राणीके स्थूल, सूक्ष्म और कारण--ये तीन शरीर होते हैं। दूसरा कारण यह है कि संसारके सम्पूर्ण शरीरोंमें एक ही शरीरी व्याप्त है। आगे चौबीसवें श्लोकमें भी इसको  'सर्वगतः' पदसे सबमें व्यापक बतायेंगे। यह शरीरी तो अविनाशी है और इसके कहे जानेवाले सम्पूर्ण शरीर नाशवान् हैं। जैसे अविनाशीका कोई विनाश नहीं कर सकता, ऐसे ही नाशवान्को कोई अविनाशी नहीं बना सकता। नाशवान्का तो विनाशीपना ही नित्य रहेगा अर्थात् उसका तो नाश ही होगा।  विशेष बात  यहाँ 'अन्तवन्त इमे देहाः' कहनेका तात्पर्य है कि ये जो देह देखनेमें आते हैं, ये सब-के-सब नाशवान् हैं। पर ये देह किसके हैं?  'नित्यस्य', 'अनाशिनः'-- ये देह नित्यके हैं, अविनाशीके हैं। तात्पर्य है कि नित्य-तत्त्वने, जिसका कभी नाश नहीं होता, इनको अपना मान रखा है। अपना माननेका अर्थ है कि अपनेको शरीरमें रख दिया और शरीरको अपनेमें रख लिया। अपनेको शरीरमें रखनेसे 'अहंता' अर्थात् 'मैं'-पन पैदा हो गया और शरीरको अपनेमें रखनेसे ममता अर्थात् मेरापन पैदा हो गया। यह स्वयं जिन-जिन चीजोंमें अपनेको रखता चला जाता है, उन-उन चीजोंमें 'मैं'-पन होता ही चला जाता है; जैसे--अपनेको धनमें रख दिया तो 'मैं धनी हूँ'; अपनेको राज्यमें रख दिया तो 'मैं राजा हूँ'; अपनेको विद्यामें रख दिया तो 'मैं विद्वान् हूँ'; अपनेको बुद्धिमें रख दिया तो 'मैं बुद्धिमान् हूँ'; अपनेको सिद्धियों में ख दिया तो 'मैं सिद्ध हूँ'; अपनेको शरीरमें रख दिया तो 'मैं शरीर हूँ'; आदि-आदि। यह स्वयं जिन-जिन चीजोंको अपनेमें रखता चला जाता है, उन-उन चीजोंमें 'मेरा'-पन होता ही चला जाता है; जैसे--कुटुम्बको अपनेमें रख लिया तो 'कुटुम्ब मेरा है'; धनको अपनेमें रख लिया तो 'धन मेरा है'; बुद्धिको अपनेमें रख लिया तो ;बुद्धि मेरी है'; शरीरको अपनेमें रख लिया तो 'शरीर मेरा है'; आदि-आदि। जडताके साथ 'मैं' और 'मेरा'-पन होनेसे ही मात्र विकार पैदा होते हैं। तात्पर्य है कि शरीर और मैं (स्वयं)--दोनों अलग-अलग हैं, इस विवेकको महत्त्व न देनेसे ही मात्र विकार पैदा होते हैं। परन्तु जो इस विवेकको आदर देते हैं महत्व देते हैं वे पण्डित होते हैं। ऐसे पण्डितलोग कभी शोक नहीं करते; क्योंकि सत् सत् ही है और असत् असत् ही है--इसका उनको ठीक अनुभव हो जाता है। 'तस्मात् (टिप्पणी प0 58.2) युध्यस्व'-- भगवान् अर्जुनके लिये आज्ञा देते हैं कि सत्-असत् को ठीक समझकर तुम युद्ध करो अर्थात् प्राप्त कर्तव्यका पालन करो। तात्पर्य है कि शरीर तो अन्तवाला है और शरीरी अविनाशी है। इन दोनों--शरीर--शरीरीकी दृष्टिसे शोक बन ही नहीं सकता। अतः शोकका त्याग करके युद्ध करो।  विशेष बात  यहाँ सत्रहवें और अठारहवें--इन दोनों श्लोकोंमें विशेषतासे सत्तत्त्वका ही विवेचन हुआ है। कारण कि इस पूरे प्रकरणमें भगवान्का लक्ष्य सत्का बोध करानेमें ही है। सत्का बोध हो जानेसे असत्की निवृत्ति स्वतः हो जाती है। फिर किसी प्रकारका किञ्चिन्मात्र भी सन्देह नहीं रहता। इस प्रकार सत्का अनुभव करके निःसंदिग्ध होकर कर्तव्यका पालन करना चाहिये। इस विवेचनसे यह बात सिद्ध होती है कि सांख्ययोग एवं कर्मयोगमें किसी विशेष वर्ण और आश्रमकी आवश्यकता नहीं है। अपने कल्याणके लिये चाहे सांख्ययोगका अनुष्ठान करे, चाहे कर्मयोगका अनुष्ठान करे, इसमें मनुष्यकी पूर्ण स्वतन्त्रता है। परन्तु व्यावहारिक काम करनेमें वर्ण और आश्रमके अनुसार शास्त्रीय विधानकी परम आवश्यकता है, तभी तो यहाँ सांख्ययोगके अनुसार सत्-असत् को विवेचन करते हुए भगवान् युद्ध करनेकी अर्थात् कर्तव्य-कर्म करनेकी आज्ञा देते हैं। आगे तेरहवें अध्यायमें जहाँ ज्ञानके साधनोंका वर्णन किया गया है, वहाँ भी  'असक्तिरनभिष्वङ्गः पुत्रदारगृहादिषु'-- (13। 9) कहकर पुत्र, स्त्री, घर आदिकी आसक्तिका निषेध किया है। अगर संन्यासी ही सांख्य-योगके अधिकारी होते तो पुत्र, स्त्री, घर आदिमें आसक्ति-रहित होनेके लिये कहनेकी आवश्यकता ही नहीं थी; क्योंकि संन्यासीके पुत्र-स्त्री आदि होते ही नहीं। इस तरह गीतापर विचार करनेसे सांख्ययोग एवं कर्मयोग--दोनों परमात्मप्राप्तिके स्वतन्त्र साधन सिद्ध हो जाते हैं। ये किसी वर्ण और आश्रमपर किञ्चिन्मात्र भी अवलम्बित नहीं हैं। सम्बन्ध -- पूर्वश्लोकतक शरीरीको अविनाशी जाननेवालोंकी बात कही। अब उसी बातको अन्वय और व्यतिरेकरीतिसे दृढ़ करनेके लिये जो शरीरीको अविनाशी नहीं जानते उनकी बात आगेके श्लोकमें कहते हैं।

By - Swami Chinmayananda , in hindi

।।2.18।। आत्मा द्वारा धारण किये हुये भौतिक शरीर नाशवान् हैं जबकि आत्मा नित्य अविनाशी और अप्रमेय अर्थात् बुद्धि के द्वारा जानी नहीं जा सकती। यहाँ आत्मा नित्य और अविनाशी है ऐसा कहने का अभिप्राय यह है कि आत्मा का न पूर्णत नाश होता है और न अंशत।नित्य आत्मतत्त्व को अज्ञेय कहा है जिसका अर्थ यह नहीं कि वह अज्ञात है। इसका तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार हम इन्द्रियों के द्वारा विषयों को जानते हैं उस प्रकार इस आत्मा को नहीं जाना जा सकता। इसका कारण यह है कि इन्द्रियाँ मन और बुद्धि आदि हमारे ज्ञान प्राप्ति के साधन हैं वे स्वत जड़ हैं और चैतन्य आत्मा की उपस्थिति में ही वे अन्य वस्तुओं को प्रकाशित कर सकते हैं। अब जिस चैतन्य के कारण इन्द्रियाँ आदि उपकरण विषयों को ग्रहण करने में समर्थ होते हैं तब उसी चैतन्य को वे प्रत्यक्ष विषय के रूप में किस प्रकार जान सकते हैं यह सर्वथा असम्भव है और इसी दृष्टि से यहाँ आत्मा को अज्ञेय कहा गया है। आत्मा स्वत सिद्ध है।इसलिये हे भारत तुम युद्ध करो वास्तव में इस वाक्य के द्वारा सबको युद्ध करने का आदेश नहीं दिया गया है। जिस धर्म की आधारशिला क्षमा और उदार सहिष्णुता है उसी धर्म के शास्त्रीय ग्रन्थों में इस प्रकार का युद्ध का नारा संभव नहीं हो सकता। कोई टीकाकार यदि ऐसा अर्थ करता है तो वह अनुचित है और वह गीता को महाभारत के सन्दर्भ में नहीं पढ़ रहा है। हे भारत तुम युद्ध करो ये शब्द धर्म का आह्वान है प्रत्येक व्यक्ति के लिये जिससे वह पराजय की प्रवृत्ति को छोड़कर जीवन में आने वाली प्रत्येक परिस्थिति का निष्ठापूर्वक और साहस के साथ सामना करे। अधर्म का सक्रिय प्रतिकार यह गीता में श्रीकृष्ण का मुख्य संदेश है।अब आगे भगवान् उपनिषदों के दो मन्त्र सिद्ध करने के लिये उद्धृत करते हैं कि शास्त्र का मुख्य प्रयोजन संसार के मूल कारण मोह अविद्या की निवृत्ति करना है। भगवान् कहते हैं यह तुम्हारी मिथ्या धारणा है कि भीष्म और द्रोण मेरे द्वारा मारे जायेंगे और मैं उनका हत्यारा बनूँगा৷৷. कैसे

By - Sri Anandgiri , in sanskrit

।।2.18।।सदसतोरनन्तरप्रकृतयोः स्वरूपाव्यभिचारित्वेन परमार्थतया सन्निर्धारितम्। इदानीमसन्निर्दिधारयिषया पृच्छति  किं पुनरिति।  असदसदेवेति निर्धारितत्वात् प्रश्नस्य निरवकाशत्वमाशङ्क्य शून्यं व्यावर्त्य विवक्षितमसन्निर्धारयितुं तस्य सावकाशत्वमाह  यत्स्वात्मेति।  देहादेरनात्मवर्गस्य प्रकृतासच्छब्दविषयतेत्याह  उच्यत इति।  तेषां स्वातन्त्र्यं व्युदस्यति  नित्यस्येति।  आकाशादिव्यावृत्त्यर्थं विशिनष्टि  शरीरिण इति।  परिणामिनित्यत्वं व्यवच्छिनत्ति  अनाशिन इति।  तस्य प्रत्यक्षाद्यविषयत्वमाह  अप्रमेयस्येति।  देहादेरवस्तुत्वादात्मनश्चैकरूपत्वाद् युद्धे स्वधर्मे प्रवृत्तस्यापि तव न हिंसादिदोषसंभावनेत्याह  तस्मादिति।  ननु देहादिषु सद्बुद्धेरनुवृत्तेस्तस्या विच्छेदाभावात्कथमन्तवत्त्वं तेषामिष्यते तत्राह  यथेति।  तथेमे देहाः सद्बुद्धिभाजोऽपि प्रमाणतो निरूपणायामवसाने विच्छेदादन्तवन्तो भवन्तीति शेषः। देहत्वादिना च जाग्रद्देहादेरन्तवत्त्वं संप्रतिपन्नवदनुमातुं शक्यमित्याह   स्वप्नेति।  शरीरादेरन्तवत्त्वेऽपि प्रवाहरूपेणात्मनस्तत्संबन्धस्यानन्तवत्त्वमाशङ्क्याह  नित्यस्येति।  प्रवाहस्य प्रवाहिव्यतिरेकेणानिरूपणान्न तदात्मनः देहाद्यभावे संबन्धसिद्धिरित्यभिसंधायोक्तं  विवेकिभिरिति।  पदद्वयस्यैकार्थत्वमाशङ्क्य निरस्यति  नित्यस्येत्यादिना।  नित्यत्वस्य द्वैविध्यसिद्ध्यर्थं नाशद्वैविध्यं प्रतिज्ञातं प्रकटयति  यथेत्यादिना।  नाशस्य निरवशेषत्वेन सावशेषत्वेन च सिद्धे द्वैविध्ये फलितमाह  तत्रेति।  विशेषणाभ्यां कूटस्थनित्यत्वमात्मनोविवक्षितमित्यर्थः। अन्यतरविशेषणमात्रोपादाने परिणामिनित्यत्वमात्मनः शङ्क्येतेत्यनिष्टापत्तिमाशङ्क्याह  अन्यथेति।  औपनिषदत्वविशेषणमाश्रित्याप्रमेयत्वमाक्षिपति  नन्विति।  इतश्चात्मनो नाप्रमेयत्वमित्याह  प्रत्यक्षादिनेति।  तेन चागमप्रवृत्त्यपेक्षया पूर्वावस्थायामात्मैव परिच्छिद्यते तस्मिन्नेवाज्ञातत्वसंभवाद् अज्ञातज्ञापकं प्रमाणमिति च प्रमाणलक्षणादित्यर्थः। एतदप्रमेयमित्यादिश्रुतिमनुसृत्य परिहरति  नेत्यादिना।  कथं मानमनपेक्ष्यात्मनः सिद्धत्वमित्याशङ्क्योक्तं विवृणोति  सिद्धे हीति।  प्रमित्सोः प्रमेयमिति शेषः। तदेव व्यतिरेकमुखेन विशदयति  नहीति।  आत्मनः सर्वलोकप्रसिद्धत्वाच्च तस्मिन्न प्रमाणमन्वेषणीयमित्याह  नह्यात्मेति।  प्रत्यक्षादेरनात्मविषयत्वात्तत्र चाज्ञातताया व्यवहारे संभवात्तत्प्रामाण्यस्य च व्यावहारिकत्वाद्विशिष्टे तत्प्रवृत्तावपि केवले तदप्रवृत्तेः यद्यपि नात्मनि तत्प्रामाण्यं तथापि तद्धितश्रुत्या शास्त्रस्य तत्र प्रवृत्तिरवश्यंभाविनीत्याशङ्क्याह  शास्त्रं त्विति।  शास्त्रेण प्रत्यग्भूते ब्रह्मणि प्रतिपादिते प्रमात्रादिविभागस्यव्यावृत्तत्वाद्युक्तमस्यान्त्यत्वमपौरुषेयतया निर्दोषत्वाच्चास्य प्रामाण्यमित्यर्थः। तथापि कथमस्य प्रत्यगात्मनि प्रामाण्यं तस्य स्वतःसिद्धत्वेनाविषयत्वादज्ञातज्ञापनायोगादित्याशङक्य स्वतो भानेऽपि प्रतीचो मनुष्योऽहं कर्ताहमित्यादिना मनुष्यत्वकर्तृत्वादीनामतद्धर्माणामध्यारोपणेनात्मनि प्रतीयमानत्वात्तन्मात्रनिवर्तकत्वेनात्मनो विषयत्वमनापद्यैव शास्त्रं प्रामाण्यं प्रतिपद्यते सिद्धंतु निवर्तकत्वादिति न्यायादित्याह  अतद्धर्मेति।  घटादाविव स्फुरणातिशयजनकत्वेन किमित्यात्मनि शास्त्रप्रामाण्यं नेष्टमित्याशङ्क्य जडत्वाजडत्वाभ्यां विशेषादिति मत्वाह  नत्विति।  ब्रह्मात्मनो मानापेक्षामन्तरेण स्वतः स्फुरणे प्रमाणमाह  तथाचेति।  साक्षादन्यापेक्षामन्तरेणापरोक्षादपरोक्षस्फुरणात्मकं यद्ब्रह्म न च तस्यात्मनोऽर्थान्तरत्वं सर्वाभ्यन्तरत्वेन सर्ववस्तुसारत्वात्तमात्मानं व्याचक्ष्वेति योजना। अप्रमेयत्वेनाविनाशित्वं प्रतिपाद्य फलितं निगमयति  यस्मादिति।  स्वधर्मनिवृत्तिहेतुनिषेधे तात्पर्यं दर्शयति  युद्धादिति।  आत्मनो नित्यत्वादिस्वरूपमुपपाद्य युद्धकर्तव्यत्वविधानाज्ज्ञानकर्मसमुच्चयोऽत्र भातीत्याशङ्क्याह  नहीति।  युध्यस्वेति वचनात्तत्कर्तव्यत्वविधिरस्तीत्याशङ्क्याह  युद्ध इति।  कथं तर्हि कथं भीष्ममहमित्याद्यर्जुनस्य युद्धोपरमपरं वचनमिति तत्राह  शोकेति।  यदि स्वतो युद्धे प्रवृत्तिस्तर्हि भगवद्वचनस्य का गतिरित्याशङ्क्याह  तस्येति।  भगवद्वचनस्य प्रतिबन्धनिवर्तकत्वे सत्यर्जुनप्रवृत्तेः स्वाभाविकत्वे फलितमाह  तस्मादिति। 

By - Sri Dhanpati , in sanskrit

।।2.18।।किंपुनस्तदसदित्याकाङ्क्षायामाह  अन्तवन्त इति।  ननु स्फुरणरुपस्य सतः कथमविनाशित्वं तस्य देहधर्मत्वाद्देहस्य चानुक्षणविनाशित्वादिति भूतचैतन्यवादिनस्तान्निराकुर्वन्नासतो विद्यते भावः इत्येतद्विवृणोति इति तु नत्वेत्यादिना देहात्मविवेकस्योक्तत्वमभिप्रेत्याचार्यैर्नावतारितम्। अन्तस्तत्त्वज्ञाने बाधो येषां विद्यते तेऽन्तवन्तः। यथा शुत्त्यादिज्ञानेन शुक्तिरुप्यादयो बाध्यास्तथा इमे भ्रान्त्या प्रतीयमाना देहाः स्थूलादयो नित्यस्याबाध्यस्याध्यासिकसंबन्धेन कारणादिशरीरवतः देहा इति सकारणस्य शीतादेरप्युपलक्षणम्। देहानेकत्वाद्बहुवचनम्। पृथिव्यादिवद्य्वाव हारिकनित्यत्वमाशङ्क्याह  अनाशिन इति।  परमार्थनित्यस्य विद्वद्भिरुक्ताः अप्रमेयस्य रुपादिरहितत्वात् व्याप्तिग्रहाभावात् सदृशस्यान्यस्यानिरुपणात्प्रवृत्तिनिमित्ताभावात् तेन विनानुपपद्यमानस्याभावात् अभावत्वाभावात् प्रत्यक्षादिभिरपरिच्छेद्यस्य अथवाऽज्ञाते हि वस्तुनि प्रमाणान्वेषणा भवति ज्ञातश्चात्मा देहाद्भिन्नः सर्वैः प्राणिभिः योऽहं बाल्ये पितरावन्वभूवं स एव नप्तृ़ननुभवामीत्यनुसंधानदर्शनात्। स्वप्ने देवादिशरीरमास्थाय तदुचितान्भोगान्भुक्त्वा प्रबुद्धो मनुष्यदेहं प्राप्य मनुष्य एवाहं नतु देव इति देवशरीरे बाध्यमानेऽप्यहमास्पदस्यात्मनोऽबाध्यमानत्वाच्च योगमाहात्म्येन सिंहादिशरीरमेदेऽप्यात्मनोऽभेदेन ज्ञातत्वाच्च। तथा इन्द्रियेभ्योऽपि भिन्न आत्मा सर्वैर्ज्ञायते योऽहमद्राक्षं स एवेदानीं श्रृणोमीत्यहमालम्बनस्य प्रत्यभिज्ञानात्। बुद्धिमनोभ्यामपि भिन्नः तयोः करणत्वेन कर्तृत्वाश्रयत्वायोगात्। अहं कृश इत्यादिप्रत्ययस्तु प्रेमास्पदे पुत्रादौ विकलेऽहमेव विकल इत्यादिप्रत्ययवदुपपद्यते। तस्मादात्मनोऽज्ञातत्वान्न प्रमाणपरिच्छेद्यता। ननु कथं शास्त्रस्य प्रत्यगात्मनि प्रामाण्यम्। तस्य स्वतःसिद्धस्य ज्ञातत्वेनाविषयत्वादितिचेत्सत्यम्। तथापि शास्त्रस्यात्माध्यस्तसमूलकर्तृत्वाद्यनात्मधर्मनिरासकत्वेन प्रामाण्यमुपपद्यते। तथाच भाष्यम्नहि पूर्वमित्थमहमित्यात्मानं प्रमाय पश्चात्प्रमेयपरिच्छेदाय प्रवर्तते। नह्यात्मा नाम कस्यचित्तदप्रसिद्धो भवति। शास्त्रं त्वन्त्यं प्रमाणम्। अतद्धर्माध्यारोपणमात्रनिवर्तकत्वेन प्राणाण्यमात्मनः प्रतिपद्यते नत्वज्ञातार्थज्ञापकत्वेन। तथाच श्रुतिःयस्साक्षादपरोक्षाद्ब्रह्य य आत्मा इति। यस्मादात्मा नित्यः केनापि क्वचिदपि कदापि न नश्यति देहाश्चनित्यत्वान्नश्यन्त्येव तस्माद्धे भारत भरतवंशोद्भव त्वं युध्यस्व स्वधर्मं युद्धं मा त्याक्षीरित्यर्थः।

By - Sri Madhavacharya , in sanskrit

।।2.18।।भवतु देहस्यापि कस्यचिन्नित्यत्वमिति नेत्याह अन्तवन्त इति। अस्तु तर्हि दर्पणनाशात् प्रतिबिम्बनाशवदात्मनाश इत्यत आह नित्यस्य शरीरिण इति। ईश्वरव्यावृत्तये। न च नैमित्तिकनाश इत्याह अनाशिन इति। कुतः अप्रमेयेश्वरसरूपत्वात्। नह्युपाधिबिम्बसन्निध्यनासे प्रतिबिम्बनाशः सति च प्रदर्शके। स्वयमेवात्र प्रदर्शकः चित्त्वात् नित्यश्चोपाधिः कश्चिदस्ति।प्रतिपत्तौ विमोक्षस्य नित्योपाध्या स्वरूपया। चिद्रूपया युतो जीवः केशवप्रतिबिम्बकः इति भगवद्वचनात्।

By - Sri Neelkanth , in sanskrit

।।2.18।।एवं सत आत्मनो नित्यत्वं असतो देहादेरनित्यत्वं चोक्तमुपसंहरन् एनं युद्धाभिमुखं करोति  अन्तवन्त इति।  यद्यपिनासतो विद्यते भावः इति असतां देहानां कालत्रयेऽपि सत्त्वं नास्तीति परमार्थदृष्ट्या उक्तं तथापि तां दृष्टिमप्रतिपद्यमानस्य नरकादिभयमनुरुध्यमानस्य व्यवहाराभिप्रायेण नित्यानित्यविभागमभिप्रेत्य देहानामन्तवत्त्वमुच्यत इति न दोषः नित्यत्वं कालापरिच्छेद्यत्वं तच्च व्यवहारे नभसोऽप्यस्तीत्यत उक्तं अनाशिन इति। नाशः अदर्शनं तद्वान् हि आकाशःनभ आत्मनि लीयते इति स्मृतेः। अयं तु न तथेत्यनाशी। सर्वदैव प्रकाशमान इत्यर्थः। एतदपि न घटादिवद्दृश्यत्वेनेत्याह  अप्रमेयस्येति।  तथा च श्रुतिरात्मनोऽप्रमेयत्वमाहएतदप्रमयं ध्रुवम् इति। अप्रमयमित्यस्याप्रमेयमित्यर्थः। एतच्चात्मनि प्रमाणाप्रसराज्ज्ञेयम्। तथा च श्रुतिःयेनेदं सर्वं विजानाति तं केन विजानीयाद्विज्ञातारमरे केन विजानीयात् इति। प्रसिद्धिस्त्वस्य प्रत्यगात्मत्वादेव।यत्साक्षादपरोक्षाद्ब्रह्म य आत्मा सर्वान्तरः इति श्रुतेः। उक्तं चप्रमाणमप्रमाणं च प्रमाभासस्तथैव च। यत्प्रसादात्प्रसिध्यन्ति तदसंभावना कुतः। इति। तस्माद्युध्यस्व भारत। भीष्मादिदेहानां मिथ्यात्वादनित्यत्वाच्च स्वयमेव नष्टप्रायतया हननान्निवृत्त्या त्वया स्वधर्मो न नाशनीय इति भावः।

By - Sri Ramanujacharya , in sanskrit

।।2.18।।दिह उपचये इति उपचयरूपा  इमे देहा अन्तवन्तः  विनाशस्वभावाः उपचयात्माका हि घटादयः अन्वन्तो दृष्टाः।  नित्यस्य शरीरिणः  कर्मफलभोगार्थतया भूतसंघातरूपा देहाःपुण्यः पुण्येन (बृ0 उ0 4।4।5) इत्यादिशास्त्रैः  उक्ताः  कर्मावसानविनाशिनः। आत्मा तु अविनाशी कुतः अप्रमेयत्वात्। न हि आत्मा प्रमेयतया उपलभ्यते अपि तु प्रमातृतया। तथा च वक्ष्यते एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः।। (गीता 13।1) इति।न च अनेकोपचयात्मक आत्मा उपलभ्यते। सर्वत्र देहेअहम् इदं जानामि इति देहाद् अन्यस्य प्रमातृतया एकरूपेण उपलब्धेः। न च देहादेः इव प्रदेशभेदे प्रमातुः आकारभेद उपलभ्यते अत एकरूपत्वेन अनुपचयात्मकत्वात् प्रमातृत्वाद् व्यापकत्वात् च आत्मा नित्यः। देहः तु उपचयात्मकत्वात् शरीरिणः कर्मफलभोगार्थत्वाद् अनेकरूपत्वाद् व्याप्यत्वात् च विनाशी।  तस्माद्  देहस्य विनाशस्वभावत्वाद् आत्मनो नित्यस्वभावत्वात् च उभौ अपि न शोकस्थानम् इति शस्त्रपातादिपरुषस्पर्शान् अवर्जनीयान् स्वगतान् अन्यगतांश्च धैर्येण सोढ्वा अमृतत्वप्राप्तये अनभिसंहितफलं युद्धाख्यं कर्म आरभस्व।

By - Sri Sridhara Swami , in sanskrit

।।2.18।।आगमापायधर्मकं संदर्शयति  अन्तवन्त इति।  अन्तो विनाशो विद्यते येषां तेऽन्तवन्तः। नित्यस्य सर्वदैकरुपस्य शरीरिणः शरीरवतः अतएव अनाशिनो विनाशरहितस्याप्रमेयस्यापरिच्छिन्नस्यात्मन इमे सुखदुःखादिधर्मका देहा उक्तास्तत्त्वदर्शिभिः। यस्मादेवमात्मनो न विनाशः नच सुखदुःखादिसंबन्धः तस्मान्मोहजं शोकं त्यक्त्वा युध्यस्व। स्वधर्मे मा त्याक्षीरित्यर्थः।

By - Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha , in sanskrit

।।2.18।।नासतः इतिप्रतिज्ञांशस्योपपादकतयोत्तरश्लोकमवतारयति देहानामिति।अवधारणेन स्वभावशब्देन च असद्व्यपदेशैकान्त्यं सूचितम्।अन्तवन्तः इति साध्यस्य हेत्वाकाङ्क्षां शमयन् धर्मिप्रतिपादकमेव देहशब्दं निर्वक्ति दिह उपचय इति। उपचयरूपाः सावयवा इत्यर्थः। देहशब्दो रूढ्या धर्मिप्रतिपादकः योगेन हेतुप्रतिपादनपर इति भावः। साध्यनिर्देशे प्रकृतिप्रत्यययोरर्थमाह विनाशस्वभावा इति। नात्र निरूपणापेक्षया देशाद्यपेक्षया वा निर्णयपरिमाणादिरन्तो विवक्षितः। मतुप् च नित्ययोगादिविषय इत्यर्थः। व्याप्तिदृष्टान्तावाह उपचयेति। श्रुतितदर्थापत्तिभ्यामपि शरीरस्य विनाशस्वभावतामुपपादयतीत्याह नित्यस्येति।नित्यस्य शरीरिणः इति पदद्वयसूचिते श्रुतितदर्थापत्ती। कथं कैरुक्ता इत्याकाङ्क्षां शमयति कर्मेत्यादिना। शरीरिण इतीनिप्रत्ययेन षष्ठ्या च प्रतीतस्य सम्बन्धस्य कर्माख्यो हेतुः प्रकृतोपयोगाद्दर्शितः। ईश्वरादिशरीराणामकर्माधीनत्वात्तद्व्यवच्छेदार्थम्इमे इति निर्देशसूचितमुक्तम् भूतसङ्घातरूपा इति। अनेकभूतसङ्घातात्मकत्वमपि अनित्यत्वे हेतुः।कर्मावसानविनाशिन इति शरीरशब्द निर्वचनफलितम्। विशरणाद्धि शरीरम्। कैश्चिच्छास्त्रैस्तावद्देहानामुत्पत्तिविनाशौ द्वावप्यभिधीयेते। यैश्च कर्माधीनोत्पत्तिमात्रमुक्तम् तैरप्यर्थात्कर्मावसाने विनाशोऽप्युक्त एव स्यादिति भावः। एवं चइमे देहाः शरीरिणः इति पदत्रयेण सूचितं भूतसङ्घातरूपत्वसावयवत्वकर्मफलभोगार्थत्वरूपं शरीरानित्यत्वे हेतुत्रयमुक्तम्।अनाशिनोऽप्रमेयस्येति पदद्वयमात्मनित्यत्वाख्यसाध्यसम्भावनातद्धेतुपरतया व्याख्याति आत्मा त्विति। नित्यत्वस्य नाशानर्हत्वेन स्थिरीकरणात्नित्यस्यअनाशिनः इत्यनयोरपुनरुक्तिः स्थूलसूक्ष्मनाशविरहाभिप्रायाद्वा। असिद्धो हेतुः आत्मनोऽप्यस्मत्सिद्धान्ते प्रमाविषयत्वादित्यत्राह नह्यात्मेति। प्रमेयत्वपर्युदासः प्रमेयतैकस्वभावशरीरादिव्यावर्तनमुखेन प्रमातृत्वपर्यवसितः नञोऽत्र तदन्यवाचित्वात्। एवमेव हि क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्विवेको वक्ष्यत इत्याह तथा चेति। एतेन ज्ञानाविषयत्वमात्रं व्याकुर्वन्निरस्तः। प्रमेयत्वं चात्र भोग्यत्वपर्यवसितम्। तद्व्यतिरेकश्च पूर्वोक्तकर्मफलभोगार्थत्वरूपहेतुव्यतिरेकरूपेण भोक्तृत्वपर्यवसितः। ततश्चायं पूर्वोक्तहेत्वन्तरद्वयव्यतिरेकस्यापि प्रदर्शनार्थ इति मत्वा तयोरपि व्यतिरेकमाह न चेत्यादिना। सावयवत्वे योग्यानुपलब्धिमाह सर्वत्रेति। सर्वशब्दोऽत्र देहांशकात्स्न्र्यपरः। तेनाणोरप्यात्मनःपादे मे वेदना शिरसि मे सुखम् इत्यादिसुखदुःखनिमित्ततत्तदवयवावच्छिन्नव्यवहारदशायामपि निरवयवत्वोपलब्धिरुक्ता। यद्वा देवादिरूपेण विचित्रप्रकारष्वनन्तेषु देहेषु क्वचिदपि देहे देहिनः सावयवत्वं नोपलब्धमित्यर्थः। अहमित्येकवचनमेकस्मिन् देहैऽभिमन्तुरात्मन एकत्वं सूचयति। यद्यात्मा सावयवः स्यात् तदावयवीति कदाचिदुपलभ्येत प्रत्येकं तदवयवानामपि चैतन्यस्यावश्याभ्युपगमनीयत्वात्। सावयवत्वे ह्यवयवसङ्घातरूपोऽवयविरूपो वा स्यात् उभयथाप्यवयवगतविशेषगुणमन्तरेण न तत्र विशेषगुणसिद्धिः। किण्वादिष्वपि हि प्रत्येकमसिद्धापि मदशक्तिः पाकविशेषाद्रसविशेषादिवत्प्रत्येकं जायते। शक्तेश्चापर्यनुयोज्यत्वेऽपि विशेषगुणेष्वयं नियमो दुस्त्यजः। ज्ञानद्रव्यत्वपक्षेऽप्येवमेव निष्प्रभसमुदाये सप्रभत्वायोगवत्। एवं च सति समाजवदेकस्मिन् देहे मिथः कलहासूयेर्ष्यानिग्रहानुग्रहादयोऽप्युपलभ्येरन्। समुदायावयविनोश्चातिपीडायामवयवव्यतिरिक्तयोरभावादवयवानामेवानुभवितृत्वं स्यात्। तथा सति पाण्याद्यवच्छिन्नात्मावयवानुरूपं तदन्योऽवयवो न प्रतिसन्दधीतेतिदक्षिणहस्तेन मयैव स्पृष्टं वामहस्तेन पुनः स्पृशामि इत्यादिप्रतिसन्धानं न स्यात्। न चात्मावयवानामाशुतरसञ्चारात्तदुपपत्तिः आत्मनश्चूर्णपुञ्जकल्पत्वप्रसङ्गेन सङ्घातविशेषस्याप्यसिद्धिप्रसङ्गात्। न च वस्त्रादिषु मृगमदवासनेवान्यवासनासङ्क्रमः मात्रानुभूतस्य गर्भस्थेनापि स्मरणप्रसङ्गात्। न च भेदाभेदात्सर्वोपपत्तिः तस्यैव व्याघातादिदुस्थत्वस्य शारीरकभाष्यादिषु प्रपञ्चितत्वात्। तदेवम्अहम् इत्येकत्वेनोपलम्भो निरवयवत्वमन्तरेण नोपपद्यते। एतेनार्थाद्देहेन्द्रियप्राणानामप्यात्मत्वं निरस्तं वेदितव्यम्। तथाहि न हि पाण्याद्यारब्धोऽवयव्यस्ति सत्कार्यवादस्थापनात्। न च पाण्यादय एवात्मानः प्रत्येकमहन्त्वाद्यभावात् अविवादनियमासम्भवाच्च। न चात्र परस्परोपकार्योपकारकभावाभिमानः सुवचः। अत एव च न तत्समुदायः। एवमिन्द्रियग्रामे प्राणाख्यसङ्घातेऽपि इति।देहस्य चान्यस्य चेति। गृहक्षेत्रादितुल्योममेदम् इति देहस्येदङ्ग्रहः।स्थूलोऽहम् इत्यादिकं तु प्रबुद्धस्यापृथक्सिद्धेरप्रबुद्धस्य तु भ्रान्त्येति न कश्चिद्दोष इति भावः।प्रमातृतयेति। विमर्शदशायां प्रमेयस्याप्यात्मनः प्रमातृत्वे नैव हि सर्वदा विषयग्रहणवेलायां स्फुरणम्।अज्ञासिषम् इत्येवमादिरूपेण अन्यदापि प्रमातृत्वं परामृष्टम्। आत्मग्रहणेऽपिमां जानामि इति प्रमातृत्वमपि सुस्थितमेवेति भावः।एकरूपेणेति। सावयवत्वे कस्यचिदवयवस्य कदाचित्प्रमातृत्वेऽन्येषां चाप्रमातृत्वेन स्फुरणं स्यात्। न ह्यनेकेषां चेतनानामवयवानां प्रमाप्रसरयौगपद्यनियमोऽस्तीति भावः। अथ पूर्वोक्तमेव मुखभेदेन साधयन् विजातीयसङ्घातात्मकत्वे योग्यानुपलब्धिं चाह नचेति। पाञ्चभौतिकेषु देहादिषु तत्तद्भूतांशभूतत्वगसृङ्मांसादौ तत्तद्भूतप्रयुक्ताकारभेद उपलभ्यते नैवं प्रमातरि। तथा च श्रूयते कृत्स्नः प्रज्ञानघन एव बृ.उप.4।5।13 इत्यादि। यद्वाआकारभेद इति पाणिपादादिसन्निवेशभेदो विवक्षितः। तदेवमात्मनो नित्यत्वे देहस्य विनाशित्वे च प्रत्येकं हेतुचतुष्टयं श्लोकद्वयसिद्धं सुखग्रहणाय सङ्कलय्य दर्शयति अत इति।एकरूपत्वेन अभूतसङ्घातात्मकत्वादित्यर्थः।अनुपचयात्मकत्वात् निरवयवत्वादित्यर्थः। नन्विदमखिलमपि हेतुजातमनुपपन्नम् तथा हि तत्रासङ्घातरूपत्वस्य निरवयवत्वस्य च रूपरसादिभिर्महदादिभिश्चानैकान्त्यम् प्रमातृत्वं च यदि कर्मफलभोक्तृत्वं विवक्षितम् तदानीम् असाधारणानैकान्त्यम् सकलसपक्षविपक्षव्यावृत्तेः। तत्र चेश्वरादेरपि पक्षीकारे भागासिद्धिश्च। यदि प्रमाश्रयत्वमात्रं विवक्षितम् तदा सर्वप्रमातृपक्षीकरणे पूर्ववदसाधारण्यम्। जीवमात्रपक्षीकारे त्वीश्वरनित्यत्वस्यापि दृढाभ्युपगमाभावात्तस्मिन् दृष्टान्ते सन्दिग्धसाध्यवैकल्यादिदोषः। व्यापकत्वं च यदि सर्वव्यापकत्वम् तदा स्वरूपासिद्धिः प्रत्येकं क्षेत्रज्ञानामणूनां तदभावात् ईश्वरापेक्षया व्याप्यत्वाच्च। यदि कतिपयव्यापकत्वम् तदा शस्त्राकाशादिभिरेवानैकान्त्यम्। शरीरानित्यत्वसाधकं सावयवत्वमपीश्वरदिव्यविग्रहाभरणायुधादिविशेषैः एवं कर्मफलभोगार्थत्वं च। यदि तद्धेतुत्वं तदेश्वरजीवस्वरूपादिभिः पूर्ववदनैकान्त्यम्। यदि तदर्थमुत्पन्नत्वम् तदाव्यर्थविशेषणत्वम् उत्पन्नत्वमात्रेण व्याप्तिसिद्धेः। सङ्घातरूपत्वमपि सावयवत्ववदनैकान्तिकम्। व्याप्यत्वं च यदि सर्वापेक्षया तदा त्वसिद्धिदोषः। न हि शरीरादिकं पर्वतादिभिर्व्याप्यते। अप्रसिद्धत्वं च हेतोः कुत्रचिदपि तस्याभावात्। यदि कतिपयापेक्षया तदेश्वरव्याप्यैर्जीवदिव्यमङ्गलविग्रहादिभिरनैकान्त्यम्। यदि जीवव्याप्यत्वमिति विशेष्येत तदा नित्यसूरिविग्रहविशेषादिभिः प्रकृत्यादिभिश्च प्राग्वद्व्यभिचारः। एतेन क्षेत्रज्ञव्याप्यत्वमित्यपि निरस्तम्। यदि पुनरव्यापकत्वं विवक्षितम् तदाणिमाद्यैश्वर्यवद्योगिप्रभृतिशरीरेषु स्वरूपासिद्धिः तच्छरीराणां शिलाद्युन्मज्जननिमज्जनादेरपि योग्यत्वात् इति।अत्रोच्यते असङ्घातत्वनिरवयवत्वयोस्तावत् अर्जुनादिबुद्ध्याघातकतया प्रस्तुतशस्त्राग्न्याद्यधीनविनाशनिवृत्तेः। साध्यत्वान्न महदादिभिरनैकान्त्यम्। द्रव्यत्वेन विशेषणान्नाग्न्यादिनाश्यरूपादिभिरनैकान्त्यम्। एवं प्रत्यक्षादिसिद्धनाशकनिषेधे महदादिवत्केवलमीश्वरसङ्कल्पादिना नाशः शङ्क्येत तदपि श्रुत्यैव प्रतिषिध्येतेति भावः। प्रमातृत्वस्य भोक्तृत्वपर्यवसाने कर्मफलभोगार्थत्वरूपप्रमेयत्वनिषेधमुखेनानुत्पत्तिपर्यवसितत्वादनुत्पन्नत्वस्य च नित्यत्वेन व्याप्तिसिद्धेः आत्मस्वरूपानुत्पत्तेश्च शास्त्रसिद्धत्वान्न कश्चिद्दोषः। प्रमाश्रयत्वमात्रस्य हेतुत्वे त्वीश्वरो दृष्टान्तः। तत्र साध्यसन्देहोन त्वेवाहम् 2।12 इत्यस्य व्याख्यानदशायां निराकृतः। व्यापकत्वस्य प्रयोगस्तु पूर्वमस्मद्व्याख्यातप्रकारेण शस्त्रादिविषयतया पठितव्य इति न तत्रापि दोषः। शरीरानित्यत्वसाधनेषु च सावयवत्वभूतसङ्घातत्वयोः प्राकृतत्वे सतीति विशेषणान्न व्यभिचारः। एतदर्थं हिइमे देहाः इत्युक्तम्। कर्मफलभोगार्थत्वमपि तदर्थमुत्पन्नत्वमेव न च व्यर्थविशेषणम् मुक्तात्मज्ञानविकासस्य व्यवच्छेद्यत्वात्। न हि सोऽनुत्पन्नः प्रागभावात्। निवृत्ते प्रतिबन्धके करणनिरपेक्षस्वरूपाधीनोत्पत्तित्वमात्रेण हि स्वाभाविकमुच्यते न त्वनुत्पन्नत्वेन।दोषप्रहाणान्न ज्ञानमात्मनः क्रियते तथा। प्रकाश्यन्ते न जन्यन्ते नित्या एवात्मनो हि ते वि.ध.104।55 इत्यादिकं त्ववबोधादिस्वरूपस्यानुत्पन्नतामाह न तु तद्विकासस्य। अथवाऽवस्थारूपत्वेन तस्योत्पन्नत्वं नाम पृथक्चिन्त्यताम्। तदवस्थावस्थितव्यवच्छेदाय विशेषणं स्यात्। अस्तु वा विशेषणनैरपेक्ष्यम् तथाप्युत्पन्नत्वमात्रेणानित्यत्वं तावत्सिद्धम् अज्ञातोत्पत्तिषु केषुचिच्छरीरेषु हेत्वसिद्धिशङ्कापरिहारः कर्ममूलत्वप्रदर्शनेन क्रियते। कर्मावसानविनाशित्वस्य वा साध्यत्वात्तदौचित्याय चेदं विशेषणं सार्थम्। साध्यत्वं व्याप्यत्वं च शस्त्राद्यपेक्षया विवक्षितम्। साध्यं च तदधीनविनाशित्वमिति न कश्चिद्दोषः। ननो यो यद्व्याप्यः स तदधीनविनाश इति न व्याप्तिः ईश्वरव्याप्यैः प्रकृतिपुरुषकालादिभिरनैकान्त्यादिति चेत् न योण्यत्वस्य साध्यत्वात्तत्रापि तत्सम्भवात्। ईश्वरनित्येच्छापरिग्रहादेव हि तन्नित्यत्वम् अन्यथा यदीश्वरो जीवादिस्वरूपमपि सञ्जिहीर्षेत् कस्तस्य शासिता। तर्हि जीवाकाशादिव्याप्यैस्तदधीननाशरहितैः शरीरादिभिर्व्यभिचार इति चेत् न तेषामपि तन्नाश्यत्वयोग्यत्वात्। तन्नाशकर्तेश्वरस्तु न तत्र जीवादीन्युपकरणीकरोतीति विशेषः। ततश्चैवं प्रयोगः शरीरादि शस्त्राद्यधीनविनाशयोग्यं तद्व्याप्यत्वात्। यत् यद्व्याप्यं तत्तदधीनविनाशयोग्यम् इति। यद्वा तिष्ठतु सामान्यव्याप्तिः शस्त्रादिनाश्यत्वमेव साध्यम् शस्त्रादिव्याप्यत्वादित्येव च हेतुः। यच्छस्त्रादिव्याप्यं तच्छस्त्रादिनाश्यम् यथा कदलीकाण्डादीति। न चाकाशादि शस्त्रादिव्याप्यं सूक्ष्मत्वे सत्यनुप्रवेशस्य विवक्षित्वात् सूक्ष्मत्वस्य चात्र यत्र यत्प्रतिहन्यते तत्राप्रतिहतत्वं ततः सूक्ष्मत्वमिति निष्कर्षात्। योगिप्रभृतिशरीराणां तु शस्त्रादिव्याप्यत्वमेव परिणामविशेषादेर्निवृत्तम्। अतस्तदधीननाशाभावः। शस्त्राद्यपेक्षया व्यापकत्वमेव तेषामिति तैर्न व्यभिचारः। ततोऽपि सूक्ष्मतरैरीश्वरसङ्कल्पस्वसङ्कल्पादिभिस्तु तन्नाशः। एतेन शस्त्रास्त्रादिप्रतिबन्धकौषधाद्यनुगृहीतशरीरवृत्तान्तोऽपि व्याख्यातः औषधादिभिस्तत्र प्रवेशप्रतिबन्धात्। तस्मात्सिद्धमष्टावपि हेतवोऽष्टदिग्विजयिनः इति।ननु किमर्थमिह लोकसिद्धं शरीरानित्यत्वं प्रसाध्यते। केषुचिच्छरीरेषु प्रत्यक्षत एव नाशो दृष्टः। अविनष्टेषु भीष्मादिशरीरेष्वपि तत्तुल्यतया नाशित्वं निश्चितमेव। अन्यथा शत्रून् प्रति शस्त्रादिकमपि न प्रहीयेत। स्वयमपि शत्रुशस्त्रादिकं न निवारयेत्। अतः शरीरानित्यत्वस्य सम्प्रतिपन्नत्वात्सन्दिग्धे च न्यायापेक्षणान्निरर्थकमिह सावयवत्वाद्यनुमानचतुष्टयम् इति। अत्रोच्यते प्रथमं तावदात्मनित्यत्वानुमानानां यच्छस्त्राद्यधीनविनाशम् तत् सावयवं यथा शरीरमिति व्यतिरेकव्याप्तिप्रदर्शनमेकं प्रयोजनम्। तत एव देहात्मनोर्विरुद्धधर्मप्रपञ्चनेन भेदस्थापनं द्वितीयम्। शस्त्रादिनिवारणरसायनसेवादिभिर्नित्यत्वमपि किं सम्भवेदिति सन्देहापाकरणं तृतीयम्। एवं देहानां नाशतद्धेत्वोरवश्यम्भावित्वप्रतिपादनेन स्वदेहवैराग्यजननं चतुर्थम्। परदेहेषु च स्वस्यैकस्यैव नाशहेतुत्वभ्रमनिरसनेन वक्ष्यमाणप्रकारेण स्वतन्त्रकर्तृत्वाभिमानक्षालनं पञ्चमम्। नाशहेतौ सत्यवश्यं नश्यतीति प्रतिपादनात् फलाभिसन्धिरहितकर्मानुष्ठानादिनाऽत्यन्तनाशस्यापि सम्भावनाद्योतनं षष्ठम्। नश्वरस्वभावत्वादशोचनीयत्वं सप्तमम्। शीघ्रं मोक्षसाधने प्रवर्तितव्यमित्यष्टमम्। एवं यथोचितमन्यदपि भाव्यम् इति।तस्माद्युध्यस्व भारत 2।18 इत्यत्र तस्मादित्यस्य व्याख्यानंदेहस्येत्यादि न शोकस्थानमित्यन्तम्।मात्रास्पर्शास्तु 2।18 इत्यादिश्लोकद्वयप्रतिपादितेन द्वन्द्वतितिक्षारूपपरिकरेणामृतत्वरूपफलेन च पूरयन्नाह शस्त्रेति। अत्रपरगतान् प्रति शोचतः स्वगताभिधानं मर्मोद्धाटनेन मानजननार्थम्। शास्त्रीयत्वादेव हिस्वगतमपि दुःखं सह्यते। तथा यज्ञपशुशत्रुप्रभृतिगतमपि सोढव्यमिति प्रदर्शनार्थं च युद्धस्यानीप्सितराज्यादिक्षुद्रभोगान्तरप्रधानकत्वव्युदासाय प्रकरणारम्भोक्तमेव फलमुचितमितिअमृतत्वप्राप्तये इत्युक्तम्। धात्वर्थस्य पराभिमतं करणतयान्वयमपाकुर्वन्युध्यस्व इत्यत्र प्रकृतिप्रत्ययार्थौ विविच्याह युद्धाख्यं कर्मारभस्वेति। अयमर्थः सेश्वरमीमांसायां प्रपञ्चितोऽस्माभिः।

By - Sri Abhinavgupta , in sanskrit

।।2.18।।यस्तत्त्वदर्शिभिर्दृष्टः स खलु नित्योऽनित्यो वा इत्याशङ्क्याह अविनाशि इति। तुश्चार्थे। आत्मा त्वविनाशी।

By - Sri Jayatritha , in sanskrit

।।2.18।।देहानामन्तवत्त्वं प्रागुक्तं किमथमुच्यत इत्यत आह  भव त्विति। आत्मनित्यत्वानुमानस्य प्रतिपक्षं वक्तुं स्वाभिप्रेतस्य हेतोः सिद्धान्तिनाप्यभ्युपगतत्वं दृढीकुर्वता पूर्वपक्षिणा देहस्यापि कस्यचिन्नित्यत्वं भवतु किमिति पृष्टे (सति) नेत्याहेत्यर्थः। सिद्धार्थतापरिहाराय  कस्यचि दित्युक्तम्। नन्वतिप्रसङ्गोऽयं कस्मान्न भवतिकस्यचिदिति विशेषणवैयर्थ्यप्रसङ्गात्। नित्यस्येत्यात्मनित्यत्वं पुनः कस्मादुच्यत इत्यत आह  अस्त्वि ति। एवं देहानित्यत्वं सिद्धान्तिनोऽपि सिद्धं कृत्वा तर्हि प्रतिबिम्बस्यात्मन उपाधेर्देहस्य नाशान्नाशोऽस्तु दर्पणनाशान्मुखप्रतिबिम्बस्येवेति पूर्वपक्षिणा प्रतिपक्षेऽभिहिते तत्प्रतिषेधायेदमाहेत्यर्थः। अनेन तथाऽप्यात्मा नित्य इति वाक्यवृत्तिः सूचिता। अनुवादे प्रयोजनाभावात् ये देहा अनित्या न तेषामुपाधित्वम् यस्योपाधित्वं नासावनित्य इति भावः। तदिदमुक्तं इमे इति। व्यक्तीकरिष्यते चैतत्। ननु शरीरिणो देहा इति व्यर्थम् अशरीरस्य देहाभावादित्यत आह  शरीरिण  इति। नित्यस्य देहा अन्तवन्त इत्युच्यमाने ईश्वरदेहस्याप्यन्तवत्त्वं प्रसज्यते तद्व्यावृत्त्यर्थं  शरीरिणः  इति विशेषणम्।जन्तुजन्युशरीरिणः अमरे 1।4।30 इत्यभिधानाच्छरीरिशब्दस्य जीवे प्रसिद्धेः। तथापिअनाशिनः इति पुनरुक्तिरिति। अत्र केचित्तत्परिहारायविनाशिनः इति पाठान्तरं कुर्वन्ति तदसत्अन्तवन्तः इत्यनेन पुनरुक्तितादवस्थ्यात्। कथञ्चित्समाधानेऽन्यत्रापि तत्समम्। किमन्यथापाठेनेत्याशयवानाह  नचे ति। उपाधिनाशेन नाशाभावेऽपि उपाधिबिम्बसन्निधिनाशान्निमित्तात्प्रतिबिम्बस्यात्मनो नाशो भविष्यति। न चासिद्धिः शङ्क्या। परिच्छिन्नस्यैव प्रतिबिम्बसम्भवेन सन्निधिनाशध्रौव्यादिति पुनः प्रतिपक्षिते तत्प्रतिषेधायेदमिति भावः। अप्रमेयस्येत्येतदसम्भवि विशेषणम्। व्यर्थं चेत्यतस्तन्निवर्त्यामाशङ्कां दर्शयित्वा व्याचष्टे   कुत  इति। न हि प्रतिपक्षो वाङ्मात्रेण निषेद्धुं शक्यत इति भावः। अप्रमेयेत्यनेन प्रतिपक्षहेतोरसिद्धिमाचष्टे। नायमात्मा घटादेः कस्यचित्प्रतिबिम्बः किन्त्वीश्वरस्य। स चाप्रमेयः सर्वगत इति कथं तस्योपाधिसन्निधिनाश इति। ननु कथमिदं लभ्यते अतद्भावे सामानाधिकरण्यं सारूप्यं गमयतीति प्रसिद्धमेव न च सर्वगतस्य प्रतिबिम्बासम्भवः तदधीनसारूप्यस्य प्रतिबिम्बत्वात् तदिदमुक्तं सरूपत्वादिति।ननु वक्तव्यं सर्वमुक्त्वोपसंहारः क्रियते तत्किमात्मनित्यत्वविषये सर्वशङ्कोद्धारो जातो येनतस्माद्युद्ध्यस्व इत्युपसंह्रियत इत्यतो जात इत्याह  नही ति। उपाधिबिम्बसन्निध्यनाशे प्रदर्शके आदर्शे उपाधौ बिम्बे चाविनष्टे सति प्रतिबिम्बनाशो न ह्यस्ति उपपादितश्चात्र त्रयस्यानाश इति भावः। ननु विनाशिनां देहानामप्यनुपाधिकत्वात्कोऽत्रोपाधिरित्यत आह  स्वयमि ति। उपाध्युपाधिमद्भावो विशेषबलेनेति भावः। लोकेऽदृष्टमिदं कथमङ्गीकार्यमित्यत आह  चित्त्वादि ति। जडेष्वयावद्वस्तुभावित्वात्सर्वत्र भेदाभेदौ। चित्स्वरूपे तु यावद्वस्तुभावित्वादभेद एवेति भावः। स्वस्यैवोपाधित्वे मुक्तावात्मनिवृत्तिः स्यात्। उपाधिनिवृत्तिलक्षणत्वान्मुक्तेरित्यत आह  नित्य  इति। द्विविध उपाधिरात्मनः नित्योऽनित्यश्च तत्र नित्यस्यावस्थानं अन्यस्य निवृत्तिर्मुक्ताविति कुत एतदित्यत आह  प्रतिपत्ता विति। प्राप्तौ सत्यां कुतस्तिष्ठतीति शेषः। ननूपाध्येति कथं किप्रत्ययान्तस्य पुल्लिङ्गतानियमात्। तर्हि इषुधिर्द्वयोः कथम्। प्रयोगदर्शनादपवादः। यथाहलिङ्गशेषविधिर्व्यापी विशेषैर्यद्यबाधितः इति। समं प्रकृतेऽपि। स्व आत्मा रूपं यस्याः सा स्वरूपा। चिद्रूपत्वात् स्वरूपत्वं स्वरूपत्वान्नित्यत्वम्।

By - Sri Madhusudan Saraswati , in sanskrit

।।2.18।।ननुस्फुरणरूपस्य सतः कथमविनाशित्वं तस्य देहधर्मत्वात् देहस्य चानुक्षणविनाशात् इति भूतचैतन्यवादिनस्तान्निराकुर्वन्नासतो विद्यते भावः इत्येतद्विवृणोति। अन्तवन्तो विनाशिनः इमे परोक्षा देहाः उपचितापचितरूपत्वाच्छरीराणि। बहुवचनात्स्थूलसूक्ष्मकारणरूपाः विराट्सूत्राव्याकृताख्याः समष्टिव्यष्ट्यात्मानः सर्वे नित्यस्याविनाशिन एव शरीरिण आध्यासिकसंबन्धेन शरीरवत एकस्य आत्मनः स्वप्रकाशस्फुरणरूपस्य संबन्धिनः दृश्यत्वेन भोग्यत्वेन चोक्ताः श्रुतिभिर्ब्रह्मवादिभिश्च। तथाच तैत्तिरीय केऽन्नमयाद्यानन्दमयान्तान्पञ्च कोशान्कल्पयित्वा तदधिष्ठानमकल्पितंब्रह्मपुच्छं प्रतिष्ठा इति दर्शितम्। तत्र पञ्चीकृतपञ्चमहाभूततत्कार्यात्मको विराट् मूर्तराशिरन्नमयकोशः स्थूलसमष्टिः तत्कारणीभूतोऽपञ्चीकृतपञ्चमहाभूततत्कार्यात्मको हिरण्यगर्भः सूत्रममूर्तराशिः सूक्ष्मसमष्टिः त्रयं वा इदं नामरूपं कर्म इति बृहदारण्यकोक्तत्र्यन्नात्मकः सकर्मात्मकत्वेन क्रियाशक्तिमात्रमादाय प्राणमयकोश उक्तः। नामात्मकत्वेन ज्ञानशक्तिमात्रमादाय मनोमयकोश उक्तः। रूपात्मकत्वेन तदुभयाश्रयतया कर्तृत्वमादाय विज्ञानमयकोश उक्तः। ततः प्राणमयमनोमयविज्ञानमयात्मैक एव हिरण्यगर्भाख्यो लिङ्गशरीरकोशः। तत्कारणीभूतस्तु मायोपहितचैतन्यात्मा सर्वसंस्कारशेषोऽव्याकृताख्य आनन्दमयकोशः। तेच सर्वे एकस्यैवात्मनः शरीराणीत्युक्तम्तस्यैष एव शरीर आत्मा यः पूर्वस्य इति। तस्य प्राणमयस्यैष एव शरीरे भवः शारीर आत्मा यः सत्यज्ञानादिलक्षणो गुहानिहितत्वेनोक्तः पूर्वस्यान्नभयस्य। एवं प्राणमयमनोमयविज्ञानमयानन्दमयेषु योज्यम्। अथवा इमे सर्वे देहास्त्रैलोक्यवर्तिसर्वप्राणिसंबन्धिन एकस्यैवात्मन उक्ता इति योजना। तथाच श्रुतिःएको देवः सर्वभूतेषु गूढः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा। कर्माध्यक्षः सर्वभूताधिवासः साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च।। इति सर्वशरीरसंबन्धिनमेकमात्मानं नित्यं विभुं दर्शयति। ननु नित्यत्वं यावत्कालस्थायित्वं तथाचाविद्यादिवत्कालेन सह नाशेऽपि तदुपपन्नमित्यत आह अनाशिन इति। देशतः कालतो वस्तुतश्च परिच्छिन्नस्याविद्यादेः कल्पितत्वेनानित्यत्वेऽपि यावत्कालस्थायित्वरूपमौपचारिकं नित्यत्वं व्यवह्नियते।यावद्विकारं तु विभागो लोकवत् इति न्यायात्। आत्मनस्तु परिच्छेदत्रयशून्यस्याकल्पितस्य विनाशहेत्वभावान्मुख्यमेव कूटस्थनित्यत्वं नतु परिणामिनित्यत्वं यावत्कालस्थायित्वं चेत्यभिप्रायः। नन्वेतादृशे देहिनि किंचित्प्रमाणमवश्यं वाच्यम् अन्यथा निष्प्रमाणस्य तस्यालीकत्वापत्तेः शास्त्रारम्भवैयर्थ्यापत्तेश्च। तथाच वस्तुपरिच्छेदो दुष्परिहरःशास्त्रयोनित्वात् इति न्यायाच्चात आह अप्रमेयस्येति।एकधैवानुद्रष्टव्यमेतदप्रमयं ध्रुवम्। अप्रमयमप्रमेयम्।न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः। तमेव भान्तमनु भाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति इति च श्रुतेः स्वप्रकाशचैतन्यरूप एवात्मा अतस्तस्य सर्वभासकस्य स्वभानार्थं न स्वभास्यापेक्षा किंतु कल्पिताज्ञानतत्कार्यनिवृत्त्यर्थं कल्पितवृत्तिविशेषापेक्षा। कल्पितस्यैव कल्पितविरोधित्वात्यक्षानुरूपो बलिः इति न्यायात्। तथाच सर्वकल्पितनिवर्तकवृत्तिविशेषोत्पत्त्यर्थं शास्त्रारम्भः तस्य तत्त्वमस्यादिवाक्यमात्राधीनत्वात्स्वतः सर्वदा भासमानत्वात्सर्वकल्पनाधिष्ठानत्वाद्दृश्यमात्रभासकत्वाच्च न तस्य तुच्छत्वापत्तिः। तथाचएकमेवाद्वितीयंसत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म इत्यादिशास्त्रमेव स्वप्रमेयानुरोधेन स्वस्यापि कल्पितत्वमापादयति। अन्यथा स्वप्रामाण्यानुपपत्तेः। कल्पितस्य चाकल्पितपरिच्छेदकत्वं नास्तीति प्राक् प्रतिपादितम्। आत्मनः स्वप्रकाशत्वं च युक्तितोऽपि भगवत्पूज्यपादैरुपपादितम्। तथाहि यत्र जिज्ञासोः संशयविपर्ययव्यतिरेकप्रमाणानामन्यतममपि नास्ति तत्र तद्विरोधि ज्ञानमिति सर्वत्र दृष्टम्। अन्यथा त्रितयान्यतरापत्तेः आत्मनि चाहं वा नाहं वेति न कस्यचित्संशयः नापि नाहमिति विपर्यये व्यतिरेकः प्रमा वेति तत्स्वरूपप्रमा सर्वदास्तीति वाच्यम्। तस्य सर्वसंशयविपर्ययधर्मित्वात्धर्म्यंशे सर्वमभ्रान्तं प्रकारे तु विपर्ययः इति न्यायात्। अतएवोक्तम् प्रमाणमप्रमाणं च प्रमाभासस्तथैव च। कुर्वन्त्येव प्रमां यत्र तदसंभावना कुतः।। इति। प्रमाभासः संशयः स्वप्रकाशे सद्रूपे धर्मिणि प्रमाणाप्रमाणयोर्विशेषो नास्तीत्यर्थः। आत्मनो भासमानत्वे च घटज्ञानं मयि जातं नवेत्यादिसंशयः स्यात्। नचान्तरपदार्थे विषयस्यैव संशयादिप्रतिबन्धकत्वस्वभावः कल्प्यः बाह्यपदार्थे क्लृप्तेन विरोधिज्ञानेनैव संशयादिप्रतिबन्धसंभवे आन्तरपदार्थे स्वभावभेदकल्पनाया अनौचित्यात्। अन्यथा सर्वविप्लबापत्तेः। आत्ममनोयोगमात्रं चात्मसाक्षात्कारे हेतुः। तस्य च ज्ञानमात्रे हेतुत्वाद् घटादिभानेऽप्यात्मभानं समूहालम्बनन्यायेन तार्किकाणां प्रवरेणापि दुर्निवारम्। नच चाक्षुषत्वमानसत्वादिसङ्करः लौकिकत्वालौकिकत्ववदंशभेदेनोपपत्तेः सङ्करस्यादोषत्वाच्चाक्षुषत्वादेर्जातित्वानभ्युपगमाद्वा। व्यवसायमात्र एवात्मभानसामग्र्या विद्यमानत्वादनुव्यवसायोऽप्यपास्तः। नच व्यवसायभानार्थं सः। तस्य दीपवत्स्वव्यवहारे सजातीयानपेक्षत्वात्। नहि घटतज्ज्ञानयोरिव व्यवसायानुव्यवसाययोरपि विषयत्वविषयित्वव्यवस्थापकं वैजात्यमस्ति व्यक्तिभेदातिरिक्तवैधर्म्यानभ्युपगमात् विषयत्वावच्छेदकरूपेणैव विषयित्वाभ्युपगमे घटयोरपि तद्भावापत्तिरविशेषात्। ननु यथा घटव्यवहारार्थं घटज्ञानमभ्युपेयते तथा घटज्ञानव्यवहारार्थं घटज्ञानविषयं ज्ञानमभ्युपेयं व्यवहारस्य व्यवहर्तव्यज्ञानासाध्यत्वादिति चेत् कानुपपत्तिरुद्भाविता देवानांप्रियेण स्वप्रकाशवादिनः। नहि व्यवहर्तव्यभिन्नत्वमपि ज्ञानविशेषणं व्यवहारहेतुतावच्छेदकं गौरवात्। तथाचेश्वरज्ञानवद्योगिज्ञानवत्प्रेयमिति ज्ञानवच्च स्वेनैव स्वव्यवहारोपपत्तौ न ज्ञानान्तरकल्पनावकाशः। अनुव्यवसायस्यापि घटज्ञानव्यवहारहेतुत्वं किं घटज्ञानज्ञानत्वेन किंवा घटज्ञानत्वेनैवेति विवेचनीयम् उभयस्यापि तत्र सत्त्वात्। तत्र घटव्यवहारे घटज्ञानत्वेनैव हेतुतायाः क्लृप्तत्वात्तेनैव रूपेण घटज्ञानव्यवहारेऽपि हेतुतोपपत्तौ न घटज्ञानज्ञानत्वं हेतुतावच्छेदकं गौरवान्मानाभावाच्च। तथाच नानुव्यवसायसिद्धिरेकस्यैव व्यवसायस्य व्यवसातरि व्यवसेये व्यवसाये च व्यवहारजनकत्वोपपत्तेरिति त्रिपुटीप्रत्यक्षवादिनः प्राभाकराः। औपनिषदास्तु मन्यन्ते स्वप्रकाशज्ञानरूप एवात्मा न स्वप्रकाशज्ञानाश्रयः कर्तृकर्मविरोधेन तद्भानानुपपत्तेः ज्ञानभिन्नत्वे घटादिवज्जडत्वेन कल्पितत्वापत्तेश्च स्वप्रकाशज्ञानमात्रस्वरूपोऽप्यात्माऽविद्योपहितः सन्साक्षीत्युच्यते वृत्तिमदन्तःकरणोपहितः प्रमातेत्युच्यते। तस्य चक्षुरादीनि करणानि स चक्षुरादिद्वारान्तःकरणपरिणामेन घटादीन्व्याप्य तदाकारो भवति। एकस्मिंश्चान्तःकरणपरिणामे घटावच्छिन्नचैतन्यं अन्तःकरणावच्छिन्नचैतन्यं चैकलोलीभावापन्नं भवति। ततो घटावच्छिन्नचैतन्यं प्रमात्रभेदात्स्वाज्ञानं नाशयदपरोक्षं भवति घटंच स्वावच्छेदकं स्वतादात्म्याध्यासाद्भासयति अन्तःकरणपरिणामश्च वृत्त्याख्योऽतिस्वच्छः स्वावच्छिन्नेनैव चैतन्येन भास्यत इत्यन्तःकरणतद्वृत्तिघटानामपरोक्षता। तदेतदाकारत्रयमहं जानामि घटमिति भासकचैतन्यस्यैकरूपत्वेऽपि घंटप्रति वृत्त्यपेक्षत्वात्प्रमातृता अन्तःकरणतद्वृत्तीःप्रति तु वृत्त्यनपेक्षत्वात्साक्षितेति विवेकः। अद्वैतसिद्धौ सिद्धान्तबिन्दौ च विस्तरः। यस्मादेवं प्रागुक्तन्यायेन नित्यो विभुरसंसारी सर्वदैकरूपश्चात्मा तस्मात्तन्नाशशङ्क्या स्वधर्मे युद्धे प्राक्प्रवृत्तस्य तव तस्मादुपरतिर्न युक्तेति युद्धाभ्यनुज्ञया भगवानाह तस्माद्युध्यस्व भारतेति। अर्जुनस्य स्वधर्मे युद्धे प्रवृत्तस्य तत उपरतिकारणं शोकमोहौ तौ च विचारजनितेन विज्ञानेन बाधितावितिअपवादापवादे उत्सर्गस्य स्थितिः इति न्यायेन युध्यस्वेत्यनुवादो न विधिः। यथाकर्तृकर्मणोः कृति इत्युत्सर्गःउभयप्राप्तौ कर्मणि इत्यपवादःअकाकारयोः स्त्रीप्रत्यययोः प्रयोगे नेति वक्तव्यम् इति तदपवादः। तथाच मुमुक्षोर्ब्रह्मणो जिज्ञासेत्यत्रापवादापवादे पुनरुत्सर्गस्थितेःकर्तृकर्मणोः कृति इन्यनेनैव षष्ठी। तथाचकर्मणिच इति निषेधाप्रसराद्बह्मजिज्ञासेति कर्मषष्ठीसमासः सिद्धो भवति। कश्चित्त्वेतस्मादेव विधेर्मोक्षे ज्ञानकर्मणोः समुच्चय इति प्रलपति। तन्न। युध्यस्वेत्यतो मोक्षस्य ज्ञानकर्मसमुच्चयसाध्यत्वाप्रतीतेः। विस्तरेण चैतदग्रे भगवद्गीतावचनविरोधेनैव निराकरिष्यामः।

By - Sri Purushottamji , in sanskrit

।।2.18।।ननु देहादिनाशः प्रत्यक्षमनुभूयमानः किंरूप इत्याशङ्क्यामाह अन्तवन्त इति। नित्यस्य जन्ममरणशून्यस्य शरीरिणो जीवस्य जीवभावनाभिलाषप्राप्तमायासम्बन्धिन इमे देहा लौकिकाः परिदृश्यमानाः भीष्मादीनां सर्वेषां चान्तवन्तः अन्तयुक्ता उक्ता इत्यर्थः। अनाशिनो विनाशहीनस्याप्रमेयस्योपायसहस्रैरपि प्रमातुमयोग्यस्य भगवतः सम्बन्धिनः शरीरिणो जीवस्य भगवदीयस्य देहास्तु नान्तवन्त इत्यर्थः। सर्वेषामेवान्तवत्त्वकथने तु पूर्वोक्तवचनैर्विरोधः स्यात्। अत एव तेषु भिन्नत्वज्ञानार्थमेवइमे इत्युक्तवान्प्रभुः। तस्मादेतेषां मारणेन पापसम्भावना नास्तीति युद्ध्यस्व युद्धं कुर्वित्यर्थः।भारतेति सम्बोधनमुक्तवचनविश्वासार्थं यतः सत्कुलोत्पन्नस्यैवम्भूतभगवद्वाक्ये विश्वासो भवति।

By - Sri Shankaracharya , in sanskrit

।।2.18।। अन्तः विनाशः विद्यते येषां ते  अन्तवन्तः । यथा मृगतृष्णिकादौ सद्बुद्धिः अनुवृत्ता प्रमाणनिरूपणान्ते विच्छिद्यते स तस्य अन्तः तथा  इमे देहाः  स्वप्नमायादेहादिवच्च अन्तवन्तः  नित्यस्य शरीरिणः  शरीरवतः  अनाशिनः अप्रमेयस्य  आत्मनः अन्तवन्त इति  उक्ताः  विवेकिभिरित्यर्थः। नित्यस्य अनाशिनः इति न पुनरुक्तम् नित्यत्वस्य द्विविधत्वात् लोके नाशस्य च। यथा देहो भस्मीभूतः अदर्शनं गतो नष्ट उच्यते। विद्यमानोऽपि यथा अन्यथा परिणतो व्याध्यादियुक्तो जातो नष्ट उच्यते। तत्र नित्यस्य अनाशिनः इति द्विविधेनापि नाशेन असंबन्धः अस्येत्यर्थः। अन्यथा पृथिव्यादिवदपि नित्यत्वं स्यात् आत्मनः तत् मा भूदिति नित्यस्य अनाशिनः इत्याह। अप्रमेयस्य न प्रमेयस्य प्रत्यक्षादिप्रमाणैः अपरिच्छेद्यस्येत्यर्थः।।ननु आगमेन आत्मा परिच्छिद्यते प्रत्यक्षादिना च पूर्वम्। न आत्मनः स्वतःसिद्धत्वात्। सिद्धे हि आत्मनि प्रमातरि प्रमित्सोः प्रमाणान्वेषणा भवति। न हि पूर्वम् इत्थमहम् इति आत्मानमप्रमाय पश्चात् प्रमेयपरिच्छेदाय प्रवर्तते। न हि आत्मा नाम कस्यचित् अप्रसिद्धो भवति। शास्त्रं तु अन्त्यं प्रमाणम् अतद्धर्माध्यारोपणमात्रनिवर्तकत्वेन प्रमाणत्वम् आत्मनः प्रतिपद्यते न तु अज्ञातार्थज्ञापकत्वेन। तथा च श्रुतिः यत्साक्षादपरोक्षाद्ब्रह्म य आत्मा सर्वान्तरः इति।।यस्मादेवं नित्यः अविक्रियश्च आत्मा तस्मात् युध्यस्व युद्धात् उपरमं मा कार्षीः इत्यर्थः।।न हि अत्र युद्धकर्तव्यता विधीयते युद्धे प्रवृत्त एव हि असौ शोकमोहप्रतिबद्धः तूष्णीमास्ते। अतः तस्य प्रतिबन्धापनयनमात्रं भगवता क्रियते। तस्मात् युध्यस्व इति अनुवादमात्रम् न विधिः।।शोकमोहादिसंसारकारणनिवृत्त्यर्थं गीताशास्त्रम् न प्रवर्तकम् इत्येतस्यार्थस्य साक्षिभूते ऋचौ आनिनाय भगवान्।यत्तु मन्यसे युद्धे भीष्मादयो मया हन्यन्ते अहमेव तेषां हन्ता इति एषा बुद्धिः मृषैव ते। कथम्

By - Sri Vallabhacharya , in sanskrit

।।2.18।।उक्तं सर्वं निगमयति अन्तवन्त इति। इमे देहा नित्यस्य शरीरिणोऽस्यान्तवन्तः अनित्याः कृतेऽप्यकृते शोकेऽस्थिरा उक्ताः। शास्त्रे अन्तश्चिदात्मा तु अविनाशी अप्रमेयत्वादग्राह्यत्वा देति युद्ध्यस्व।