बुद्धेर्भेदं धृतेश्चैव गुणतस्त्रिविधं श्रृणु।प्रोच्यमानमशेषेण पृथक्त्वेन धनञ्जय।।18.29।।
buddher bhedaṁ dhṛiteśh chaiva guṇatas tri-vidhaṁ śhṛiṇu prochyamānam aśheṣheṇa pṛithaktvena dhanañjaya
Hear thou the threefold division of intellect and firmness, according to the Gunas, as I declare them fully and distinctly, O Arjuna.
18.29 बुद्धेः of intellect? भेदम् division? धृतेः of firmness? च and? एव even? गुणतः according to alities? त्रिविधम् threefold? श्रृणु hear? प्रोच्यमानम् as I declare? अशेषेण fully? पृथक्त्वेन distinctly? धनञ्जय O Dhananjaya.Commentary Dhananjaya The coneror of wealth Arjuna is so called because he acired much material and spiritual wealth during his tours of conest (Digvijaya) to the four arters of the earth.
।।18.29।। व्याख्या -- [इसी अध्यायके अठारहवें श्लोकमें कर्मसंग्रहके तीन हेतु बताये गये हैं -- करण? कर्म और कर्ता। इनमेंसे कर्म करनेके जो इन्द्रियाँ आदि करण हैं? उनके सात्त्विक? राजस और तामस -- ये तीन भेद नहीं होते। उन इन्द्रियोंमें बुद्धिकी ही प्रधानता रहती है और सभी इन्द्रियाँ बुद्धिके अनुसार ही काम करती हैं। इसलिये यहाँ बुद्धिके भेदसे करणोंके भेद बता रहे हैं।बुद्धिके निश्चयको? विचारको दृढ़तासे ठीक तरह रखनेवाली और अपने लक्ष्यसे विचलित न होने देनेवाली धारणशक्तिका नाम धृति है। धारणशक्ति अर्थात् धृतिके बिना बुद्धि अपने निश्चयपर दृढ़ नहीं रह सकती। इसलिये बुद्धिके साथहीसाथ धृतिके भी तीन भेद बताने आवश्यक हो गये (टिप्पणी प0 911.1)।मनुष्य जो कुछ भी करता है? बुद्धिपूर्वक ही करता है अर्थात् ठीक सोचसमझकर ही किसी कार्यमें प्रवृत्त होता है। उस कार्यमें प्रवृत्त होनेपर भी उसको धैर्यकी बड़ी भारी आवश्यकता होती है। उसकी बुद्धिमें विचारशक्ति तेज है और उसे धारण करनेवाली शक्ति -- धृति श्रेष्ठ है? तो उसकी बुद्धि अपने निश्चित किये हुए लक्ष्यसे विचलित नहीं होती। जब बुद्धि अपने लक्ष्यपर दृढ़ रहती है? तब मनुष्यका कार्य सिद्ध हो जाता है।अभी साधकोंके लिये कर्मप्रेरक और कर्मसंग्रहका जो प्रकरण चला है? उसमें ज्ञान? कर्म और कर्ताकी ही खास आवश्यकता है। ऐसे ही साधक अपनी साधनामें दृढ़तापूर्वक लगा रहे? इसके लिये बुद्धि और धृतिके भेदको जाननेकी विशेष आवश्यकता है क्योंकि उनके भेदको ठीक जानकर ही वह संसारसे ऊँचा उठ सकता है। किस प्रकारकी बुद्धि और धृतिको धारण करके साधक संसारसे ऊँचा उठ सकता है और किस प्रकारकी बुद्धि और धृतिके रहनेसे उसे ऊँचा उठनेमें बाधा लग सकती है -- यह जानना साधकके लिये बहुत जरूरी है। इसलिये भगवान्ने उन दोनोंके भेद बताये हैं। भेद बतानेमें भगवान्का भाव यह है कि सात्त्विकी बुद्धि और धृतिसे ही साधक ऊँचा उठ सकता है? राजसीतामसी बुद्धि और धृतिसे नहीं।]धनञ्जय -- जब पाण्डवोंने राजसूय यज्ञ किया था? तब अर्जुन अनेक राजाओंको जीतकर बहुतसा धन लेकर आये थे। इसीसे उनका नाम धनञ्जय पड़ा था। अब भगवान् अर्जुनसे कहते हैं कि अपनी साधनामें सात्त्विकी बुद्धि और धृतिको ग्रहण करके गुणातीत तत्त्वकी प्राप्ति करना ही वास्तविक धन है इसलिये तुम इस वास्तविक धनको धारण करो? इसीमें तुम्हारे धनञ्जय नामकी सार्थकता है।बुद्धेर्भेदं धृतेश्चैव गुणतस्त्रिविधं श्रृणु -- भगवान् कहते हैं कि बुद्धि भी एक है और धृति भी एक है परन्तु गुणोंकी प्रधानतासे उस बुद्धि और धृतिके भी सात्त्विक? राजस और तामस -- ये तीनतीन भेद हो जाते हैं। उनका मैं ठीकठीक विवेचन करूँगा और थोड़ेमें बहुत विशेष बात कहूँगा? उनको तुम मन लगाकर? ध्यान देकर ठीक तरहसे सुनो।धृति श्रोत्रादि करणोंमें नहीं आयी है। इसलिये भगवान् चैव पदका प्रयोग करके कह रहे हैं कि जैसे बुद्धिके तीन भेद बताऊँगा? ऐसे ही धृतिके भी तीन भेद बताऊँगा। साधारण दृष्टिसे देखनेपर तो धृति भी बुद्धिका ही एक गुण दीखती है। बुद्धिका एक गुण होते हुए भी धृति बुद्धिसे अलग और विलक्षण है क्योंकि धृति स्वयं अर्थात् कर्तामें रहती है। उस धृतिके कारण ही मनुष्य बुद्धिका ठीकठीक उपयोग कर सकता है। धृति जितनी श्रेष्ठ अर्थात् सात्त्विकी होगी? साधककी (साधनमें) बुद्धि उतनी ही स्थिर रहेगी। साधनमें बुद्धिकी स्थिरताकी जितनी आवश्यकता है? उतनी आवश्यकता मनकी स्थिरताकी नहीं है। हाँ? एक अंशमें अणिमा आदि सिद्धियोंकी प्राप्तिमें मनकी स्थिरताकी आवश्यकता है परन्तु पारमार्थिक उन्नतिमें तो बुद्धिके अपने उद्देश्यपर स्थिर रहनेकी ही ज्यादा आवश्यकता है (टिप्पणी प0 911.2)। साधककी बुद्धि भी सात्त्विकी हो और धृति भी सात्त्विकी हो? तभी साधक अपने साधनमें दृढ़तासे लगा रहेगा। इसलिये इन दोनोंके ही भेद जाननेकी आवश्यकता है।पृथक्त्वेन -- उनके भेद अलगअलग ठीक तरहसे कहूँगा अर्थात् बुद्धि और धृतिके विषयमें भी क्याक्या भेद होते हैं? उनको भी कहूँगा।प्रोच्यमानमशेषेण -- भगवान् कहते हैं कि बुद्धि और धृतिके विषयमें जाननेकी जोजो आवश्यक बाते हैं? उन सबको मैं पूरापूरा कहूँगा? जिसके बाद फिर जानना बाकी नहीं रहेगा।, सम्बन्ध -- अब भगवान् सात्त्विकी बुद्धिके लक्षण बताते हैं।
।।18.29।। कर्म संपादन के तीन संघटक तत्त्व हैं ज्ञान? कर्म और कर्ता। पूर्व के नौ श्लोंको में इन तीनों के त्रिविध वर्गीकरण का वर्णन किया गया था। ज्ञान से प्रेरित होकर जब कर्ता जगत् में कर्म करता है तब? निसन्देह? एक कार्य विशेष सम्पन्न होता है। परन्तु कार्य सम्पादन के लिए प्रयत्नों के सातत्य की जो आवश्यकता होती है? उसकी पूर्ति दो तत्त्वों के द्वारा होती हैं? और वे तत्त्व हैं बुद्धि और धृति। ये दोनों तत्त्व मानो ईन्धन और प्रेरक बल हैं।बुद्धि से तात्पर्य मनुष्य की उस क्षमता से है? जिसके द्वारा वह कर्म की कर्तव्यता तथा बाह्य घटनाओं के अर्थ आदि को समझता है। धृति का अर्थ है धारणशक्ति। लक्ष्य प्राप्ति में अनेक विघ्न आते हैं? जिनको पार करके लक्ष्य को पाने के लिए धृति की आवश्यकता होती है। इन दोनों बुद्धि और धृति के अभाव में तो मनुष्य केवल शुष्क पर्ण के समान इतस्तत भटकता रहेगा।प्रथम? बुद्धि के त्रिविध भेद को बताते हैं
।।18.29।।ज्ञानादीनां प्रत्येकं त्रैविध्यमुक्त्वा वृत्तिमत्या बुद्धेस्तद्वृत्तेश्च धृत्याख्यायास्त्रैविध्यं सूचयति -- बुद्धेरिति। सूत्रविवरणं प्रतिजानीते -- प्रोच्यमानमिति। अर्जुनस्य धनंजयत्वं व्युत्पादयति -- दिगिति।
।।18.29।।एवं ज्ञानस्य बुद्धिवृत्तेः कर्मणः क्रियायाः कर्तुः बुद्ध्युपहितस्य च त्रैविध्यमुक्त्वा वृत्तिमत्या बुद्धेस्तदृत्तेश्च धृत्याख्यायास्त्रैविध्यं वक्तुमारभते। बुद्धेर्वृत्तिमत्या धृतेश्च तदृत्तेर्गुणतः सात्त्वादिगुणतस्त्रिविधभेदं मया प्रोच्यमानं कथ्यमानमशेषेण निःशेषतः पृथक्त्वेन हेयोपादेयविवेकतः श्रुणु श्रोतुं सावधानो भव। दिग्विजये मानुषं दैवं च प्रभूतं धनं यया बुद्य्धा धृत्या च त्वं जितवानसि सा त्वयान्यैश्च तनादिसमस्तपुरुषार्थसिद्धये विजयहेतुभूता उपादेयेति बोधनाय मया प्रोज्यमानं बुद्धेर्धृतेश्च त्रिविधं भेदं श्रृण्विति द्योतनाय संबोधयति धनंजयेति।
।।18.29।।बुद्धिधृती त्रैविध्येन व्याख्यातुमाह -- बुद्धेरिति। तत्र बुद्धिविशिष्टश्चिदाभासः कर्ता ज्ञानं च प्रागुक्तम्। अत्रतु केवला बुद्धिर्वृत्तिमती तदीयवृत्त्यन्तरोपलक्षणार्थं तद्वृत्तिविशेषो धृतिश्चत्रैविध्येन कथ्यत इत्यर्थः।
।।18.29।।बुद्धिः विवेकपूर्वकं निश्चयरूपं ज्ञानम्? धृतिः आरब्धायाः क्रियायाः विघ्नोपनिपतिं अपि विधारणसामर्थ्यम्? तयोः सत्त्वादिगुणतः त्रिविधं भेद पृथक्त्वेन प्रोच्यमानं यथावत् श्रृणु।
।।18.29।।इदानीं बुद्धेर्धृतेश्चापि त्रैविध्यं प्रतिजानीते -- बुद्धिरिति। स्पष्टार्थः।
।।18.29।।ज्ञानत्रैविध्यमुक्तम् पुनर्बुद्धित्रैविध्यं वक्ष्यते तत्र पर्यायतया पुनरुक्तिशङ्कां परिहर्तुमुक्तस्य विशेषविषयतामनुवदतिएवं कर्तव्यकर्मविषयज्ञान इति। प्रकृतोपयुक्तमनन्तरं प्रस्तूयत इति सङ्गत्यभिप्रायेणाऽऽहइदानीमिति। ज्ञानत्रैविध्यं पूर्वोक्तं? पुनरिह त्रैविध्यकथनं किमर्थम् इति शङ्कायामनुष्ठानदशाभाव्यनुसन्धानाद्विलक्षणस्तद्धेतुतया ततः पूर्वभाविशास्त्रादिजन्योऽध्यवसाय इह बुद्धिशब्दार्थ इत्याहसर्वतत्त्वसर्वपुरुषार्थनिश्चयरूपाया इति। एतेनज्ञानं बुद्धेर्वृत्तिः? बुद्धिस्तु वृत्तिमती इति परोक्तं (शं.) निरस्तम्। तदेव व्यनक्ति -- बुद्धिर्विवेकपूर्वकं निश्चयरूपं ज्ञानमिति।विवेकपूर्वं पक्षान्तरप्रतिक्षेपपर्यन्तविचारपूर्वमित्यर्थः। प्रस्तुतत्रिविधानुष्ठानोपयुक्तप्रकारेण त्रिविधाया धृतेः साधारणं रूपमाह -- आरब्धाया इति। अयमपि सङ्कल्पदार्ढ्यादिरूपो बुद्धिस्वभावविशेष एव। गुणतो विभक्ते वाच्ये? वचने चासङ्कीर्णस्वरूपेऽन्वयात्ित्रविधपृथक्त्वशब्दयोरपुनरुक्तिमाहत्रिविधं भेदं पृथक्त्वेन प्रोच्यमानमिति। एवं बुद्ध्यादिकार्यकात्स्न्र्यपरस्यअशेषेण इत्यस्य श्रवणेऽन्वयादपुनरुक्तिःयथावच्छृण्विति दर्शिता। सावधानं संशयविपर्ययरहितं श्रृण्वित्यर्थः। दिग्विजये मानुषदैवधनवच्छमादिधनं च जेतव्यमिति सम्बुद्धेर्भावः।
।।18.29।।बुद्धेरिति। बुद्धिः निश्चयः। धृतिः सन्तोषः। सर्वो हि सुकृतं दुष्कृतं वा कृत्वा अन्ते अवश्यं कृतं करणीयं? किमन्येन ( S N किमनेन ) इति धियं गृह्णाति। अन्यथा क्रियाभ्यो व्युपरमे को हेतुः स्यात् अतः सर्वस्यैव धृतिरस्तीति तात्पर्यार्थः। पदार्थस्त्वप्रसिद्धो व्याख्याय ( स्य ) त एव।
।।18.29।।तदेवंज्ञानं कर्म च कर्ता च त्रिधैव गुणभेदतः इति व्याख्यातम्। संप्रति धृत्युत्साहसमन्वित इत्यत्र सूचितयोर्बुद्धिधृत्योस्त्रैविध्यं प्रतिजानीते -- बुद्धेरिति। बुद्धेरध्यवसायादिवृत्तिमत्या धृतेश्च तद्वृत्तेः सत्त्वादिगुणतस्त्रिविधमेव भेदं मया त्वां प्रति त्यक्तालस्येन परमाप्तेन प्रोच्यमानमशेषेण निरवशेषं पृथक्त्वेन हेयोपादेयविवेकेन शृणु श्रोतुं सावधानो भव। हे धनंजयेति दिग्विजये प्रसिद्धं महिमानं सूचयन्प्रोत्साहयति। अत्रेदं चिन्त्यते -- किमत्र बुद्धिशब्देन वृत्तिमात्रमभिप्रेतं किंवा वृत्तिमदन्तःकरणम्। प्रथमे ज्ञानं पृथङ्ग वक्तव्यम्। द्वितीये कर्ता पृथङ्ग वक्तव्यः। वृत्तिमदन्तःकरणस्यैव कर्तृत्वात् ज्ञानधृत्योः पृथक्कथनवैयर्थ्यं च। नचेच्छादिपरिसंख्यार्थं तत्? वृत्तिमदन्तःकरणत्रैविध्यकथनेन सर्वासामपि तद्वृत्तीनां त्रैविध्यस्य विवक्षितत्वात्।,उच्यते? अन्तःकरणोपहितश्चिदाभासः कर्ता। इहतूपहितान्निष्कृष्य उपाधिमात्रं करणत्वेन विवक्षितं सर्वत्र करणोपहितस्य कर्तृत्वात्। यद्यपि चकामः संकल्पो विचिकित्सा श्रद्धाऽश्रद्धा धृतिरधृतिर्ह्रीर्धीर्भीरित्येतत्सर्वं मन एव इति श्रुत्यनूदितानां सर्वासामपि वृत्तीनां त्रैविध्यं विवक्षितं तथापि धीधृत्योस्त्रैविध्यं पृथगुक्तं ज्ञानशक्तिक्रियाशक्त्युपलक्षणार्थं नतु परिसंख्यार्थमिति रहस्यम्।
।।18.29।।ज्ञानं ज्ञेयं [18।18] इत्यत्र ज्ञेयपरिज्ञात्रोश्चोल्लेखः कृतः? सोऽत्र कर्तृत्रैविध्ये परिज्ञातुः प्रवेशः कर्मत्रैविध्ये च ज्ञेयस्य। करणस्य निरूपणार्थं बुद्धेर्धृतेश्च त्रैविध्ये प्रतिजानीते -- बुद्धेरिति। बुद्धेरिन्द्रियात्मिकाया धृतेश्चैव गुणतस्त्रिविधं भेदं पृथक्त्वेन भिन्नत्वेन -- मयेति शेषः -- प्रोच्यमानं अशेषेण हे धनञ्जय सर्वत्रोत्कर्षयुक्त शृणु।
।।18.29।। --,बुद्धेः भेदं धृतेश्चैव भेदं गुणतः सत्त्वादिगुणतः त्रिविधं श्रृणु इति सूत्रोपन्यासः। प्रोच्यमानं कथ्यमानम् अशेषेण निरवशेषतः यथावत् पृथक्त्वेन विवेकतः धनंजय? दिग्विजये मानुषं दैवं च प्रभूतं धनं जितवान्? तेन असौ धनंजयः अर्जुनः।।
।।18.29।।अथ कर्तृत्रैविध्येनैव ज्ञातुरपि त्रैविध्यमुक्तं तथा कर्मस्थले कर्मत्रैविध्येन च ज्ञेयस्यापि त्रैविध्यं बुद्धेः त्रैविध्येन करणस्याप्युक्तमिति निश्चयरूपाया बुद्धेर्धृतेश्च गुणतस्त्रैविध्यं प्रतिजानन्नाह -- बुद्धेरिति। गुणतस्त्रिविधं भेदं शृणु। तत्रापि पृथक्त्वेनोभयोर्भेदं शृणु।