यया धर्ममधर्मं च कार्यं चाकार्यमेव च।अयथावत्प्रजानाति बुद्धिः सा पार्थ राजसी।।18.31।।
yayā dharmam adharmaṁ cha kāryaṁ chākāryam eva cha ayathāvat prajānāti buddhiḥ sā pārtha rājasī
That by which one wrongly understands dharma and adharma, and also what ought to be done and what ought not to be done—that intellect, O Arjuna, is rajasic (passionate).
18.31 यया by which? धर्मम् Dharma? अधर्मम् Adharma? च and? कार्यम् what ought to be done? च and? अकार्यम् what ought not to be done? एव even? च and? अयथावत् wrongly? प्रजानाति understands? बुद्धिः intellect? सा that? पार्थ O Partha? राजसी Rajasic (passionate).Commentary There is no proper eivalent in the English language for the word Dharma. Duty? righteousness? virtue? law are very poor translations of the word. That which elevates you and takes you to the goal? i.e.? Brahman or the Self? is Dharma. That which hurls you down into the dark abyss of ignorance is Adharma. What is ordained in the scriptures is Dharma what is prohibited by them is Adharma. A Rajasic intellect is not able to distinguish between right and wrong or to understand the difference between righteous and unrighteous actions.Ayathavat Wrongly Contrary to what is determined by all authorities or men of wisdom or to the highest knowledge.
।।18.31।। व्याख्या -- यया धर्ममधर्मं च -- शास्त्रोंने जो कुछ भी विधान किया है? वह धर्म है अर्थात् शास्त्रोंने जिसकी आज्ञा दी है और जिससे परलोकमें सद्गति होती है? वह धर्म है। शास्त्रोंने जिसका निषेध किया है? वह अधर्म है अर्थात् शास्त्रोंने जिसकी आज्ञा नहीं दी है और जिससे परलोकमें दुर्गति होती है? वह अधर्म है। जैसे? अपने मातापिता? बड़ेबूढ़ोंकी सेवा करनेमें? दूसरोंको सुख पहुँचानेमें? दूसरोंका हित करनेकी चेष्टामें अपने तन? मन? धन? योग्यता? पद? अधिकार? सामर्थ्य आदिको लगा देना धर्म है। ऐसे ही कुआँबावड़ी खुदवाना? धर्मशालाऔषधालय बनवाना? प्याऊसदावर्त चलाना देश? ग्राम? मोहल्लेके अनाथ तथा गरीब बालकोंकी और समाजकी उन्नतिके लिये अपनी कहलानेवाली चीजोंको आवश्यकतानुसार उनकी ही समझकर निष्कामभावसे उदारतापूर्वक खर्च करना धर्म है। इसके विपरीत अपने स्वार्थ? सुख? आरामके लिये दूसरोंकी धनसम्पत्ति? हक? पद? अधिकार छीनना दूसरोंका अपकार? अहित? हत्या आदि करना अपने तन? मन? धन? योग्यता? पद? अधिकार आदिके द्वारा दूसरोंको दुःख देना अधर्म है।वास्तवमें धर्म वह है? जो जीवका कल्याण कर दे और अधर्म वह है? जो जीवको बन्धनमें डाल दे।कार्यं चाकार्यमेव च -- वर्ण? आश्रम? देश? काल? लोकमर्यादा? परिस्थिति आदिके अनुसार शास्त्रोंने हमारे लिये जिस कर्मको करनेकी आज्ञा दी है? वह कर्म हमारे लिये कर्तव्य है। अवसरपर प्राप्त हुए कर्तव्यका पालन न करना तथा न करनेलायक कामको करना अकर्तव्य है। जैसे? भिक्षा माँगना यज्ञ? विवाह आदि कराना और उनमें दानदक्षिणा लेना आदि कर्म ब्राह्मणके लिये तो कर्तव्य हैं? पर क्षत्रिय? वैश्य और शूद्रके लिये अकर्तव्य हैं। इसी प्रकार शास्त्रोंने जिनजिन वर्ण और आश्रमोंके लिये जोजो कर्म बताये हैं? वे सब उनउनके लिये कर्तव्य हैं और जिनके लिये निषेध किया है? उनके लिये वे सब अकर्तव्य हैं।जहाँ नौकरी करते हैं? वहाँ ईमानदारीसे अपना पूरा समय देना? कार्यको सुचारुरूपसे करना? जिस तरहसे मालिकका हित हो? ऐसा काम करना -- ये सब कर्मचारियोंके लिये कर्तव्य हैं। अपने स्वार्थ? सुख और आराममें फँसकर कार्यमें पूरा समय न लगाना? कार्यको तत्परतासे न करना? थोड़ीसी घूस (रिश्वत) मिलनेसे मालिकका बड़ा नुकसान कर देना? दसपाँच रुपयोंके लिये मालिकका अहित कर देना -- ये सब कर्मचारियोंके लिये अकर्तव्य हैं।राजकीय जितने अफसर हैं? उनको राज्यका प्रबन्ध करनके लिये? सबका हित करनेके लिये ही ऊँचे पदपर,रखा जाता है। इसीलिये अपने स्वार्थ और अभिमानका त्याग करके जिस प्रकार सब लोगोंका हित हो सकता है? सबको सुख? आराम? शान्ति मिल सकती है -- ऐसे कामोंको करना उनके लिये कर्तव्य है। अपने तुच्छ स्वार्थमें आकर राज्यका नुकसान कर देना? लोगोंको दुःख देना आदि उनके लिये अकर्तव्य है।सात्त्विकी बुद्धिमें कही हुई प्रवृत्तिनिवृत्ति? भयअभय और बन्धमोक्षको भी यहाँ एव च पदोंसे ले लेना चाहिये।अयथावत्प्रजानाति बुद्धिः सा पार्थ राजसी -- राग होनेसे राजसी बुद्धिमें स्वार्थ? पक्षपात? विषमता आदि दोष आ जाते हैं। इन दोषोंके रहते हुए बुद्धि धर्मअधर्म? कार्यअकार्य? भयअभय? बन्धमोक्ष आदिके वास्तविक तत्त्वको ठीकठीक नहीं जान सकती। अतः किसी वर्णआश्रमके लिये किस परिस्थितिमें कौनसा धर्म कहा जाता है और कौनसा अधर्म कहा जाता है वह धर्म किस वर्णआश्रमके लिये कर्तव्य हो जाता है और किसके लिये अकर्तव्य हो जाता है किससे भय होता है और किससे मनुष्य अभय हो जाता है इन बातोंको जो बुद्धि ठीकठीक नहीं जान सकती? वह बुद्धि राजसी है।जब सांसारिक वस्तु? व्यक्ति? घटना? परिस्थिति? क्रिया? पदार्थ आदिमें राग (आसक्ति) हो जाता है? तो वह राग दूसरोंके प्रति द्वेष पैदा करनेवाला हो जाता है। फिर जिसमें राग हो जाता है उसके दोषोंको और जिसमें द्वेष हो जाता है? उसके गुणोंको मनुष्य नहीं देख सकता। राग और द्वेष -- इन दोनोंमें संसारके साथ सम्बन्ध जुड़ता है। संसारके साथ सम्बन्ध जुड़नेपर मनुष्य संसारको नहीं जान सकता। ऐसे ही परमात्मासे अलग रहनेपर मनुष्य परमात्माको नहीं जान सकता। संसारसे अलग होकर ही संसारको जान सकता है और परमात्मासे अभिन्न होकर ही परमात्माको जान सकता है। वह अभिन्नता चाहे प्रेमसे हो? चाहे ज्ञानसे हो।परमात्मासे अभिन्न होनेमें सात्त्विकी बुद्धि ही काम करती है क्योंकि सात्त्विकी बुद्धिमें विवेकशक्ति जाग्रत् रहती है। परन्तु राजसी बुद्धिमें वह विवेकशक्ति रागके कारण धुँधलीसी रहती है। जैसे जलमें मिट्टी घुल जानेसे जलमें स्वच्छता? निर्मलता नहीं रहती? ऐसे ही बुद्धिमें रजोगुण आ जानेसे बुद्धिमें उतनी स्वच्छता? निर्मलता नहीं रहती। इसलिये धर्मअधर्म आदिको समझनेमें कठिनता पड़ती है। राजसी बुद्धि होनेपर मनुष्य जिसजिस विषयमें प्रवेश करता है? उसको उस विषयको समझनेमें कठिनता पड़ती है। उस विषयके गुणदोषोंको ठीकठीक समझे बिना वह ग्रहण और त्यागको अपने आचरणमें नहीं ला सकता अर्थात् वह ग्राह्य वस्तुका ग्रहण नहीं कर सकता और त्याज्य वस्तुका त्याग नहीं कर सकता। सम्बन्ध -- अब तामसी बुद्धिके लक्षण बताते हैं।
।।18.31।। जहाँ सात्त्विक बुद्धि प्रत्येक पदार्थ को यथार्थ रूप में जानती है? वहाँ राजसी बुद्धि का पदार्थ ज्ञान सन्देहात्मक? अस्पष्ट या कुछ विकृत रूप में होता है। इसका कारण है पूर्वाग्रह और दृढ़ राग और द्वेष।
।।18.31।।कार्याकार्ययोर्धर्माधर्माभ्यां पौनरुक्त्यं परिहरति -- पूर्वोक्ते इति। पूर्वश्लोके कार्याकार्यशब्दाभ्यां दृष्टादृष्टार्थानां कर्मणां करणाकरणे निर्दिष्टे तयोरेवात्रापि ग्रहान्न धर्माधर्माभ्यां पूर्वपर्यायाभ्यां गतार्थतेत्यर्थः। या (सा) बुद्धिर्यया बुद्ध्या बोद्धा निर्णयेन न जानातीत्यर्थः।
।।18.31।।सात्त्विकीं बुद्धिमुक्त्वा राजसीं तामाह -- यया बुद्य्धा धर्मं शास्त्रचोदितं अधर्म च तत्प्रतिषिद्धं कार्यं च,कर्तव्यमकार्यमेव चाकर्तव्यं अयथावत् न यथावत्प्रजानाति सर्वतो निर्णयेन न प्रजानाति सा बुद्धिः पार्थ? राजसी। पृथापुत्रस्य तव नेयं युक्तेति संबोधनाशयः।
।।18.31।।यथार्थत्वानियमाभावे राजस्याः। अन्यथा तामस्याः? भेदाभावात्।
।।18.31।।अयथावत् संदेहास्पदत्वेन। स्पष्टमन्यत्।
।।18.31।।यया पूर्वोक्तं द्विविधं धर्मं तद्विपरीतं च तन्निष्ठानां देशकालावस्थादिषु कार्यं च अकार्यं च यथावत् न जानाति सा राजसी बुद्धिः।
।।18.31।।राजसीं बुद्धिमाह -- ययेति। अयथावत्संदेहास्पदत्वेनेत्यर्थः। स्पष्टमन्यत्।
।।18.31।।धृतिसाधनं धर्म इति व्युत्पत्त्या धर्मशब्दस्य प्रवृत्तिनिवृत्तिसाधारण्यादुभयप्रसङ्गाच्च -- पूर्वोक्तं,द्विविधमित्युक्तम्।
।।18.30 -- 18.32।।प्रवृत्तिमित्त्यादि तामसी मतेत्यन्तम्। अयथावत् -- असम्यक्।
।।18.31।।यया धर्ममधर्मं चेति राजस्या बुद्धेर्धर्मादिविषयायाः अयथार्थज्ञानहेतुत्वमुच्यत,इत्यन्यथाप्रतीतिनिरासार्थमाह -- यथार्थत्वेति। अयथावत्प्रजानातीत्यस्य यथार्थज्ञानजनननियमाभावे तात्पर्यमित्यर्थः। प्रतीत एवार्थः किं न स्यात् इत्यत आह -- अन्यथेति।राजस्याः इति षष्ठ्यन्तमनुवर्तते।तामस्याः इति पञ्चमी? भेदाभावाद्भेदाभावप्रसङ्गात्।
।।18.31।।ययेति। धर्मं शास्त्रविहितं? अधर्मं शास्त्रप्रतिषिद्धमदृष्टार्थमुभयम्? कार्यं चाकार्यं च दृष्टार्थमुभयं अयथावदेव प्रजानाति यथावन्न जानाति किंस्विदिदमिदमित्थं नवेति चानध्यवसायं संशयं वा भजते यया बुद्ध्या सा राजसी बुद्धिः। अत्र तृतीयानिर्देशादन्यत्रापि करणत्वं व्याख्येयम्।
।।18.31।।राजसीमाह -- ययेति। यथा बुद्ध्या धर्मं भगवदिच्छारूपम्? अधर्मं अनिच्छात्मकं? कार्यं भगवद्भजनम्? अकार्यं तदतिरिक्तं कर्म? अयथावत् सन्दिग्धम्? अन्यथा वा प्रजानाति? हे पार्थ सा बुद्धिः,राजसी।
।।18.31।। --,यया धर्मं शास्त्रचोदितम् अधर्मं च तत्प्रतिषिद्धं कार्यं च अकार्यमेव च पूर्वोक्ते एव कार्याकार्ये अयथावत् न यथावत् सर्वतः निर्णयेन न प्रजानाति? बुद्धिः सा पार्थ? राजसी।।
।।18.31।।यया धर्ममिति। पूर्वोक्तं द्विविधं धर्मं तद्विरुद्धं च प्रजानाति? न यथावत् सा राजसी बुद्धिः।