न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु वा पुनः।सत्त्वं प्रकृतिजैर्मुक्तं यदेभिः स्यात्ित्रभिर्गुणैः।।18.40।।
na tad asti pṛithivyāṁ vā divi deveṣhu vā punaḥ sattvaṁ prakṛiti-jair muktaṁ yad ebhiḥ syāt tribhir guṇaiḥ
There is no being on earth or in heaven among the gods that is liberated from the three qualities born of Nature.
18.40 न not? तत् that? अस्ति is? पृथिव्याम् on the earth? वा or? दिवि in heaven? देवेषु among the gods? वा or? पुनः again? सत्त्वम् being? प्रकृतिजैः born of Prakriti (matter)? मुक्तम् freed? यत् which? एभिः from these? स्यात् may be? त्रिभिः from three? गुणैः by alities.Commentary The Gunas form the warp and woof of everything as threads do in the case of cloth.Here in the world of mortals or there in the heavenworld? there is no creature that is not bound by the three alities of Nature. Can there be a cloth without threads Can there be a man without blood and bones Can there be a mountain without stones Even so there is not a single creature in the whole universe into whose composition the three alities of matter do not enter. The whole of creation is wrought of these three alities. They have given rise to the Trinity (Brahma? Vishnu and Siva). In the world of mortals the triplicity of agent? action and fruit owe their origin to them. They are the cause of the different functions of the four castes. This Samsara has been compared to the peepul tree in chapter XV.1. This Samsara is made up of the three alities and is kept up by the force of ignorance.Action? instruments of action and fruits have set the wheel of Samsara in motion and this wheel is revolving from beginningless time. It is only a liberated sage who has attained knowledge of the Self who puts a check to this wheel? goes beyond the cause and the effect? and breaks the bonds of Karma.Cut this mysterious tree of Samsara with the strong sword of nonattachment? transcend the three Gunas and rest in your own essential divine nature as ExistenceKnowledgeBliss Absolute.
।।18.40।। व्याख्या -- [इस अध्यायके आरम्भमें अर्जुनने संन्यास और त्यागका तत्त्व जानना चाहा तो भगवान्ने पहले त्याग -- कर्मयोगका वर्णन किया। उस प्रकरणका उपसंहार करते हुए भगवान्ने कहा कि जो त्यागी नहीं हैं? उनको अनिष्ट? इष्ट और मिश्र -- यह तीन प्रकारका कर्मोंका फल मिलता है और जो संन्यासी हैं? उनको कभी नहीं मिलता। ऐसा कहकर तेरहवें श्लोकसे संन्यास -- सांख्ययोगका प्रकरण आरम्भ करके पहले कर्मोंके होनेमें अधिष्ठानादि पाँच हेतु बताये। सोलहवेंसत्रहवें श्लोकोंमें कर्तृत्व माननेवालोंकी निन्दा और कर्तृत्वका त्याग करनेवालोंकी प्रशंसा की। अठारहवें श्लोकमें कर्मप्रेरणा और कर्मसंग्रहका वर्णन किया। परन्तु जो वास्तविक तत्त्व है? वह न कर्मप्रेरक है और न कर्मसंग्राहक। कर्मप्रेरणा और कर्मसंग्रह तो प्रकृतिके गुणोंके साथ सम्बन्ध रखनेसे ही होते हैं। फिर गुणोंके अनुसार ज्ञान? कर्म? कर्ता? बुद्धि? धृति और सुखके तीनतीन भेदोंका वर्णन किया। सुखका वर्णन करते हुए यह बताया कि प्रकृतिके साथ यत्किञ्चित् सम्बन्ध रखते हुए ऊँचासेऊँचा जो सुख होता है? वह सात्त्विक होता है। परंतु जो स्वरूपका वास्तविक सुख है? वह गुणातीत है? विलक्षण है? अलौकिक है (गीता 6। 21)।सात्त्विक सुखको आत्मबुद्धिप्रसादजम् कहकर भगवान्ने उसको जन्य (उत्पन्न होनेवाला) बताया। जन्य वस्तु नित्य नहीं होती। इसलिये उसको जन्य बतानेका तात्पर्य है कि उस जन्य सुखसे भी ऊपर उठना है अर्थात् प्रकृति और प्रकृतिके तीनों गुणोंसे रहित होकर उस परमात्मतत्त्वको प्राप्त करना है? जो कि सबका अपना स्वाभाविक स्वरूप है। इसलिये कहते हैं -- ]न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु वा पुनः -- यहाँ पृथिव्याम् पदसे मृत्युलोक और पृथ्वीके नीचेके अतल? वितल आदि सभी लोकोंका? दिवि पदसे स्वर्ग आदि लोकोंका? देवेषु पदको प्राणिमात्रके उपलक्षणके रूपमें उनउन स्थानोंमें रहनेवाले मनुष्य? देवता? असुर? राक्षस? नाग? पशु? पक्षी? कीट? पतंग? वृक्ष आदि सभी चरअचर प्राणियोंका? और वा पुनः पदोंसे अनन्त ब्रह्माण्डोंका संकेत किया गया है। तात्पर्य यह हुआ कि त्रिलोकी और अनन्त ब्रह्माण्ड तथा उनमें रहनेवाली कोई भी वस्तु ऐसी नहीं है? जो प्रकृतिसे उत्पन्न इन तीनों गुणोंसे रहित हो अर्थात् सबकेसब त्रिगुणात्मक हैं -- सत्त्वं प्रकृतिजैर्मुक्तं यदेभिः स्यात्ित्रभिर्गुणैः।प्रकृति और प्रकृतिका कार्य -- यह सबकासब ही त्रिगुणात्मक और परिवर्तनशील है। इनसे सम्बन्ध जोड़नेसे ही बन्धन होता है और इनसे सम्बन्धविच्छेद करनेसे ही मुक्ति होती है क्योंकि स्वरूप असङ्ग है। स्वरूप स्व है और प्रकृति पर है। प्रकृतिसे सम्बन्ध जुड़ते ही अहंकार पैदा हो जाता है? जो कि पराधीनताको पैदा करनेवाला है। यह एक विचित्र बात है कि अहंकारमें स्वाधीनता मालूम देती है? पर है वास्तवमें पराधीनता कारण कि अहंकारसे प्रकृतिजन्य पदार्थोंमें आसक्ति? कामना आदि पैदा हो जाती है? जिससे पराधीनतामें भी स्वाधीनता दीखने लग जाती है। इसलिये प्रकृतिजन्य गुणोंसे रहित होना आवश्यक है।प्रकृतिजन्य गुणोंमें रजोगुण और तमोगुणका त्याग करके सत्त्वगुण बढ़ानेकी आवश्यकता है। सत्त्वगुणमें भी प्रसन्नता और विवेक तो आवश्यक है परन्तु सात्त्विक सुख और ज्ञानकी आसक्ति नहीं होनी चाहिये क्योंकि सुख और ज्ञानकी आसक्ति बाँधनेवाली है। इसलिये इनकी आसक्तिका त्याग करके सत्त्वगुणसे ऊँचा उठे। इससे ऊँचा उठनेके लिये ही यहाँ गुणोंका प्रकरण आया है।साधकको तो सात्त्विक ज्ञान? कर्म? कर्ता? बुद्धि? धृति और सुख -- इनपर ध्यान देकर इनके अनुरूप अपना जीवन बनाना चाहिये और सावधानीसे राजसतामसका त्याग करना चाहिये। इनका त्याग करनेमें सावधानी ही साधन है। सावधानीसे सब साधन स्वतः प्रकट होते हैं। प्रकृतिसे सम्बन्धविच्छेद करनेमें सात्त्विकता बहुत आवश्यक है। कारण कि इसमें प्रकाश अर्थात् विवेक जाग्रत् रहता है? जिससे प्रकृतिसे मुक्त होनेमें बड़ी सहायता मिलती है। वास्तवमें तो इससे भी असङ्ग होना है। सम्बन्ध -- त्यागके प्रकरणमें भगवान्ने यह बताया कि नियत कर्मोंका त्याग करना उचित नहीं है। उनका मूढ़तापूर्वक त्याग करनेसे वह त्याग तामस हो जाता है शारीरिक क्लेशके भयसे नियत कर्मोंका त्याग करनेसे वह त्याग राजस हो जाता है और फल एवं आसक्तिका त्याग करके नियत कर्मोंको करनेसे वह त्याग सात्त्विक हो जाता है (18। 7 -- 9)। सांख्ययोगकी दृष्टिसे सम्पूर्ण कर्मोंकी सिद्धिमें पाँच हेतु बताते हुए जहाँ सात्त्विक कर्मका वर्णन हुआ है? वहाँ नियत कर्मको कर्तृत्वाभिमानसे रहित? रागद्वेषसे रहित और फलेच्छासे रहित मनुष्यके द्वारा किये जानेका उल्लेख किया है (18। 23)। उन कर्मोंमें किस वर्णके लिये कौनसे कर्म नियत कर्म हैं और उन नियत कर्मोंको कैसे किया जाय -- इसको बतानेके लिये और साथ ही भक्तियोगकी बात बतानेके लिये भगवान् आगेका प्रकरण आरम्भ करते हैं।
।।18.40।। उपर्युक्त श्लोक के साथ सभी प्राणियों पर? और विशेष रूप से मनुष्य के व्यक्तित्व पर? पड़ने वाले तीन गुणों के प्रभाव का विवेचन समाप्त होता है। इस सम्पूर्ण प्रकरण में विभिन्न मनुष्यों के विभिन्न व्यक्तित्व और उनके व्यवहार की विविधता का भी मनोवैज्ञानिक स्पष्टीकरण दिया गया है। ज्ञान? कर्म? कर्ता? बुद्धि और धृति के विस्तृत विश्लेशण के द्वारा मनुष्यों का वर्णन किया गया है।इस प्रकरण में एक मात्र प्रयोजन हमारा मार्गदर्शन करना है। इसके अध्ययन के द्वारा हम अपनी स्थिति? अपने आन्तरिक तथा बाह्य व्यवहार को भलीभांति जान सकते हैं।यदि हम अपने को राजस या तामस की श्रेणी में पाते हैं तो हम आत्म विकास के साधकों को तत्काल सजग होकर सत्त्वगुण में निष्ठा प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए। स्मरण रहे? और मैं पुन दोहराता हूँ कि हमें यह स्मरण रहना चाहिए कि पूर्वोक्त समस्त वर्गीकरण परपरीक्षण के लिए न होकर आत्मनिरीक्षण तथा आत्मानुशासन के लिए हैं।इन तीन गुणों के वर्णन का कारण यह है कि सम्पूर्ण विश्व पृथ्वी और स्वर्ग में कोई भी प्राणी ऐसा नहीं है? जो प्रकृति के इन त्रिगुणों से रहित हो। स्वयं प्रकृति ही त्रिगुणात्मिका है। इसलिए? उससे उत्पन्न हुए समस्त प्राणी भी उसके गुणों से युक्त हैं। कोई भी व्यक्ति त्रिगुणों की सीमा का उल्लंघन करके जगत् में कार्य नहीं कर सकता।परन्तु? कोई भी दो प्राणी बाह्य जगत् में समान रूप से व्यवहार नहीं करते हैं। इसका कारण है दोनों में इन तीन गुणों के अनुपात की भिन्नता। इस त्रिगुणात्मिका प्रकृति को ही वेदान्त में माया कहते हैं? जो प्रत्येक जीव को विशिष्ट व्यक्तित्व प्रदान करती है और जिसके वश में सभी जीव रहते हैं।चाय के प्रत्येक प्याले में तीन संघटक तत्त्व होते हैं चाय का अर्क? दूध और चीनी? परन्तु प्याले में इन तीनों के मिश्रण का भिन्नभिन्न अनुपात होने पर उन प्यालों के चाय के स्वाद में भी विविधता होगी। जो पुरुष त्रिगुणातीत आत्मस्वरूप का साक्षात्कार कर लेता है? केवल वही पुरुष सर्वाधिष्ठान एक परमात्मा को पहचान सकता है। वही पुरुष इस नामरूपमय सृष्टि को परमात्मा की लीला के रूप में देख सकता है। इसलिए? प्रतिदिन? प्रतिक्षण हम आत्मनिरीक्षण करके अपनी स्थिति को जानने का प्रयत्न करें। राजसी व तामसी स्थिति से ऊपर उठकर सत्त्वगुण में स्थित होने का हमको प्रयत्न करना चाहिए। शुद्ध सत्त्वगुण में निष्ठा प्राप्त होने पर ही हम सत्त्वातीत आत्मा का अनुभव प्राप्त करने में समर्थ हो सकते हैं।इन तीन गुणों के आधार पर ही भगवान् श्रीकृष्ण ने सभी मनुष्यों का सात्त्विक? राजसिक और तामसिक तीन विभागों में वर्गीकरण किया है। हिन्दू धर्म शास्त्रों में गुण प्राधान्य के आधार पर मनुष्यों का चतुर्विध विभाजन किया गया है जो चातुर्र्वण्य के नाम से प्रसिद्ध है। यह वर्गीकरण मानव मात्र का होने के कारण उसकी प्रयोज्यता सार्वभौमिक है? न कि केवल भारतवर्ष तक ही सीमित है। यह चतुर्विध विभाजन केवल अनुवांशिक गुण अथवा जन्म के संयोग के आधार पर न होकर प्रत्येक व्यक्ति के अपने विशिष्ट गुणों के अनुसार है। निम्न तालिका से यह विभाजन स्पष्ट हो जायेगा उपर्युक्त विभाजन सार्वभौमिक एवं सार्वकालिक है। अर्वाचीन भाषा में इन चार वर्णों का नामकरण इस प्रकार किया जा सकता है (1) रचनात्मक विचार करने वाले चिन्तक? (2) राजनीतिज्ञ? (3) व्यापारी वर्ग? और (4) श्रमिक वर्ग। इसमें एक बात स्पष्ट देखी जा सकती है कि किस प्रकार वेतनभोगी श्रमिक अपने नियोक्ता स्वामी (व्यापारी) से भयभीत होता है? व्यापारी वर्ग राजनीतिज्ञों से आशंकित रहता है और राजनीतिज्ञ लोग? साहसी और स्वतन्त्र विचार करने वाले चिन्तकों से भयकम्पित होते हैं। भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुन की शिखर वार्ता के सन्दर्भ में चातुर्र्वण्य का वर्णन करने का अपना प्रयोजन है। भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन को यह समझाना चाहते हैं कि वह क्षत्रिय वर्ण का है और? इसलिए? धर्मयुद्ध से पलायन करना उसे शोभा नहीं देता। उसका कर्तव्य धर्म पालन एवं धर्म रक्षण करना है। ब्राह्मणों के स्वभाव अर्थात् सत्त्वाधिक्य को प्राप्त किये बिना वह सफलतापूर्वक ध्यानाभ्यास नहीं कर सकता। अत? अर्जुन के लिए वासनाक्षय का एक मात्र साधन रह जाता है क्षत्रिय धर्म का पालन करना।अगले श्लोकों में वर्णाश्रम धर्म का विस्तृत विवेचन किया गया है। स्वभाव से प्राप्त धर्म तथा आश्रम अर्थात् जीवन की स्थिति (ब्रह्मचर्य? गृहस्थ? वानप्रस्थ? संन्यास) के अनुकूल कर्तव्यों का यहाँ वर्णन करते हैं
।।18.40।।क्रियाकारकफलात्मनः संसारस्य प्रत्येकं सात्त्विकादिभेदेन त्रैविध्यमुक्त्वा संसारान्तर्भूतमेव किंचिद्गुणत्रयास्पृष्टमपि क्वचिद्भविष्यतीत्याशङ्क्याह -- अथेति। संसारस्य सर्वस्यैव गुणत्रयसंस्पृष्टत्वं प्रकरणम्? अन्यद्वाऽप्राणीत्यत्राप्राणिशब्देन प्रसिद्ध्या स्थावरादि गृह्यते।
।।18.40।।क्रियाकारकफलानां प्रत्येकं सात्त्विकादिभेदेन त्रैविध्यमुक्त्वा किंचिदेभिस्त्रिभिर्गुणैर्मुक्तमपि भविष्यतीत्याकाङ्क्षानुपपत्तयेऽनुक्तमपि संगृह्णन्प्रकरणार्थमुपसंहरति। न तदस्ति पृथिव्यां वा मनुष्यादिसत्त्वं प्राणिजातमन्यद्वाऽप्राणिजातं स्थावरादि दिवि देवेषु वा पुनः प्रकृतिजैः प्रकृतितो जातैः एभिस्त्रिभिर्गुणैः सत्त्वादिभिः मुक्तं,परित्यक्तं यत्स्यात्तन्नास्तीत्यर्थः। अदिवीति परलोकत्वसादृश्यादब्राह्मण इतिवत्। पातालादिपरमितीतरे। आचार्यैस्तु तृतीयवाशब्दाभावात्पृथिवीविवरात्मकस्य पातालस्यापि पृथिवीशब्देन संग्रहसंभवात्प्रत्योजनशून्यक्लिष्टकल्पनाया अयुक्तत्वाच्चैवं न व्याख्यातम्। तथाच क्रियाकारकफललक्षणः सर्वोऽपि संसारः सत्त्वरजस्तमोगुणात्मकोऽविद्यापरिकल्पितः समूलोऽनर्थः आत्मज्ञानेनाविद्यानिवृत्त्या इति भावः।
।।18.40।।प्रकरणार्थमुपसंहरत्यनुक्तमपि संगृह्णन् -- न तदस्तीति। सत्त्वं प्राणिजातम्। इदमुपलक्षणं जडस्यापि। सर्वस्य त्रिगुणविकारत्वात्। प्रकृतिजैर्जन्मान्तरीयधर्माधर्मसंस्कारजैः मायाप्रभवैर्वा। शेषं स्पष्टम्।
।।18.40।।पृथिव्यां मनुष्यादिषु दिवि देवेषु वा प्रकृतिसंसृष्टेषु ब्रह्मादिस्थावरान्तेषु प्रकृतिजैः एभिः त्रिभिः गुणैः मुक्तं यत् सत्त्वं प्राणिजातं न तद् अस्ति।त्यागेनैके अमृतत्वमानशुः (महाना0 8।14) इत्यादिषु मोक्षसाधनतया निर्दिष्टः त्यागः संन्यासशब्दार्थाद् अनन्यः? स च क्रियमाणेषु एव कर्मसु कर्तृत्वत्यागमूलः फलकर्मणोः त्यागः कर्तृत्वत्यागः च परमपुरुषे कर्तृत्वानुसन्धानेन इति उक्तम्। एतत् सर्वं सत्त्वगुणवृद्धिकार्यम् इति सत्त्वोपादेयताज्ञापनाय सत्त्वरजस्तमसां कार्यभेदाः प्रपञ्चिताः इदानीम् एवंभूतस्य मोक्षसाधनतया क्रियमाणस्य कर्मणः परमपुरुषाराधनवेषताम्? तथा अनुष्ठितस्य च कर्मणः तत्प्राप्तिलक्षणं फलं प्रतिपादयितुं ब्राह्मणाद्यधिकारिणां स्वभावानुबन्धिसत्त्वादिगुणभेदभिन्नं वृत्त्या सह कर्तव्यकर्मस्वरूपम् आह --
।।18.40।।अनुक्तमपि संगृह्णन्प्रकरणार्थमुपसंहरति -- न तदस्तीति। एभिः प्रकृतिसंभवैः सत्त्वादिभिस्त्रिभिर्गुणैर्मुक्तं हीनं सत्त्वं प्राणिजातमन्यद्वा यत्स्यात्तत्पृथिव्यां मनुष्यलोकादिषु दिवि देवेषु च क्वापि नास्तीत्यर्थः।
।।18.40।।प्राकृतगुणातीतशुद्धसत्त्वमयभगवत्प्राप्तिलक्षणमोक्षात् प्राङ्नियतदेशकालफलभोगैरुच्चावचैः सर्वैरपि क्षेत्रज्ञैरुक्तस्य त्रिगुणस्य निश्शेषदुस्त्यजत्वमुखेन गुणकार्यप्रकरणं निगम्यते -- न तदस्ति इति श्लोकेन। गुणत्रयप्रकरणं तु नात्रोपसंहृतम्? अनन्तरमपिस्वभावप्रभवैर्गुणैः [18।41] इत्युक्तेः।दिवि देवेषु इति सत्त्वोत्तरदेशाधिकारिणामुपलक्षणम्। तत्तुल्यतयापृथिव्याम् [7।9] इत्यत्रापिमनुष्यादिष्विति राजसतामसाधिकारिविवक्षाख्यापनम्।हिरण्यगर्भो भगवान् [वि.पु.6।7।56]आब्रह्मस्तम्बपर्यन्ताः [वि.ध.104।23] इत्याद्यनुसारेण बहुवचनाभिप्रेतमाह -- ब्रह्मादिष्विति। गुणप्रकरणात् सत्त्वशब्दस्य गुणविशेषार्थताभ्रमव्युदासाय प्राणिशब्दः। समुदायरूपेणापि निर्धार्यमाणेषु तत्रापि गुणनिर्मुक्तं न किञ्चित्सत्त्वमित्यभिप्रायेण जातशब्दः। जातमिति वा व्यस्तम् -- आसंसारं जन्मप्रभृति गुणबद्धताद्योतनार्थम्।
।।18.40।।न तदस्तीति। एवं कर्तृकर्मकरणानां ( N -- कारणानाम् ) बुद्धिधृत्योः सुखस्य च सत्त्वादिभेदभिन्नानां परस्पराङ्गाङ्गिभावबाध्यबाधकत्वसमुच्चयात् वृत्तिक्रमयौगपद्यादियोगात् ( S -- पद्यादिभेदात् ) अपरिसंख्येयभेदत्त्वात् विविधफलप्रसवसमर्थत्वम् इति। अनेन कर्मणां प्राक् सूत्रितं गहनत्वं वितत्य सहेतुकं निर्णीतम्। सर्वे चैते देवादिस्थावरान्ताः गुणत्रयसंबन्धं नातिक्रामन्ति। उक्तं हि -- आ ब्रह्मणश्च कीटान्तं ( S?N कीटाच्च ) न कश्चित्तत्त्वतः सुखी।करोति विकृतीस्तास्ताः सर्व एव जिजीविषुः ( S??N omit this second half of the verse ) ।।इतितत्त्वतो हि सुखं गुणातिक्रान्तमनसः? नेतरस्येत्याशयः।
।।18.40।।इदानीमनुक्तमपि संगृह्णन्प्रकरणार्थमुपसंहरति भगवान् -- न तदस्तीति। सत्त्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रकृतिस्ततो जातैर्वैषम्यावस्थां प्राप्तैः प्रकृतिजैर्नतु साक्षाद्गुणानां प्रकृतिजत्वमस्ति तद्रूपत्वात्तस्माद्वैषम्यावस्थैव तदुत्पत्तिरुपचारात्। अथवा प्रकृतिर्माया तत्प्रभवैस्तत्कल्पितैः प्रकृतिजैरेभिस्त्रिभिर्गुणैर्बन्धनहेतुभिः सत्त्वादिभिर्मुक्तं हीनं सत्त्वं प्राणिजातमप्राणि वा यत्स्यात् तत्पुनः पृथिव्यां मनुष्यादिषु दिवि देवेषु वा नास्ति। क्वापि गुणत्रयरहितमनात्मवस्तु नास्तीत्यर्थः।
।।18.40।।एवं यज्ञादीनां सर्वेषां त्रिविधरूपमुक्त्वाऽप्यथ स्वसम्बन्धातिरिक्तस्य त्रिगुणात्मकतां सर्वस्याऽऽह -- न तदस्तीति। एभिः प्रकृतिजैः प्रकृत्युद्भवैस्त्रिभिः सात्त्विकादिभिर्गुणैर्मुक्तं रहितं सत्त्वं प्राणिजातं यत्स्थावरादिकमन्यद्वा पृथिव्यां मनुष्येषु? वाशब्देन नागादिलोकेषु च दिवि देवलोके वा पुनः देवेषु स्यात् तत्,नास्तीत्यर्थः। सात्त्विकादिष्वपि त्रैविध्यमस्तीतिवा पुनः इत्यनेन केवलसात्त्विकत्वाद्देवेष्वसम्भावितत्वादस्त्येवेति निर्धारितम्।
।।18.40।। --,न तत् अस्ति तत् नास्ति पृथिव्यां वा मनुष्यादिषु सत्त्वं प्राणिजातम् अन्यद्वा अप्राणि? दिवि देवेषु वा पुनः सत्त्वम्? प्रकृतिजैः प्रकृतितः जातैः एभिः त्रिभिः गुणैः सत्त्वादिभिः मुक्तं परित्यक्तं यत् स्यात्? न तत् अस्ति इति पूर्वेण संबन्धः।।सर्वः संसारः क्रियाकारकफललक्षणः सत्त्वरजस्तमोगुणात्मकः अविद्यापरिकल्पितः समूलः अनर्थः उक्तः? वृक्षरूपकल्पनया च ऊर्ध्वमूलम् (गीता 15।1) इत्यादिना? तं च असङ्गशस्त्रेण दृढेन च्छित्त्वा (गीता 15।3) ततः पदं तत्परिमार्गितव्यम् (गीता 15।4) इति च उक्तम्। तत्र च सर्वस्य त्रिगुणात्मकत्वात् संसारकारणनिवृत्त्यनुपपत्तौ प्राप्तायाम्? यथा तन्निवृत्तिः स्यात् तथा वक्तव्यम्? सर्वश्च गीताशास्त्रार्थः उपसंहर्तव्यः? एतावानेव च सर्ववेदस्मृत्यर्थः पुरुषार्थम् इच्छद्भिः अनुष्ठेयः इत्येवमर्थम् ब्राह्मणक्षत्रियविशाम् इत्यादिः आरभ्यते --,
।।18.40।।किमन्यद्वाच्यं प्राणिषु सर्वं प्राकृतत्रिगुणमयमेवेत्याह -- न तदस्तीति। दिवि ब्रह्मलोकपर्यन्तं दिव्येषु प्राकृतैर्गुणैर्मुक्तं सत्त्वं किमपि नास्ति? पृथिव्यां च तथा न देवेष्वधस्तादादिषु पृथिव्यामवतीर्य द्योतमानमहिमस्वपि च तथा न किन्तु क्रियया सगुणत्वमस्त्येवेति पृथग्वा बोध्यम्। (यतोऽप्राकृतमपि भागवतं गुणत्रयमस्ति प्राकृतगुणकार्यनाशकं मन्तव्यं अन्यथा प्रकृतिजैर्गुणैर्मुक्तं सत्वं पृथिव्यादिषु नास्तीति न वदेत्? तस्यैवाप्रसिद्धत्वात् गुणावताराश्च भगवतोऽप्राकृता न भवेयुः स तस्य सत्त्वसम्बन्धः कथं भवेद्भेदाभावे अतस्त्रयो गुणा ब्रह्मविष्णुशिवेष्वेव प्रतिष्ठिताः? अत्र सच्चिदानन्दधर्मत्वात् क्वचिद्विष्णोः सत्त्वमाधारत्वेनादत्ते यदि न केवलोऽवतरतीति) अतएव भगवतो लीला लोकवत्सगुणापि निरूपिताभूगोगोप्यादीनां चापि इति सुबोधिन्यां स्थितम्। वस्तुतस्तुलोकवत्तु लीलाकैवल्यं [ब्र.सू.2।1।33] इति व्यासेन सूत्रितमेवं चानुकरणे तथा स्वरूपतो गुणातीतत्वमित्यवसेयम्।