शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च।ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम्।।18.42।।
śhamo damas tapaḥ śhauchaṁ kṣhāntir ārjavam eva cha jñānaṁ vijñānam āstikyaṁ brahma-karma svabhāva-jam
Serenity, self-restraint, austerity, purity, forgiveness, and uprightness, as well as knowledge, realization, and belief in God, are the duties of Brahmanas, born of their own nature.
18.42 शमः serenity? दमः selfrestraint? तपः austerity? शौचम् purity? क्षान्तिः forgiveness? आर्जवम् uprightness? एव even? च and? ज्ञानम् knowledge? विज्ञानम् realisation? आस्तिक्यम् belief in God? ब्रह्मकर्म (are) the duties of Brahmanas? स्वभावजम् born of nature.Commentary Sama is control of the mind. Dama is control of the senses. Serenity and selfrestraint have already been explained in XVII.2. Austerity of the three kinds has also been explained in XVII.14 to 16.Astikyam Faith in the words of the Guru? in the teachings of the scriptures? in the existence of God? in the life beyond or hereafter and in ones own Self.The mind is absorbed in the Self. This gives peace. Selfrestraint is the helpmate of peace. In obeying the inunctions of the scriptures alone you will attain peace and spiritual progress. You must not argue too much. You must have reverence for and faith in the teaching.As the sandalwood tree is fragrant with its own sweet scent? as a Champaka tree is adorned by its lovely flowers? so also a Brahmana is adorned by these nine virtues which are inseparable from him.Now? O Arjuna? listen to the duties of a Kshatriya.
।।18.42।। व्याख्या -- शमः -- मनको जहाँ लगाना चाहें? वहाँ लग जाय और जहाँसे हटाना चाहें? वहाँसे हट जाय -- इस प्रकार मनके निग्रहको शम कहते हैं।दमः -- जिस इन्द्रियसे जब जो काम करना चाहें? तब वह काम कर लें और जिस इन्द्रियको जब जहाँसे हटाना चाहें? तब वहाँसे हटा लें -- इसी प्रकार इन्द्रियोंको वशमें करना दम है।तपः -- गीतामें शरीर? वाणी और मनके तपका वर्णन आता है (17। 14 -- 16)? उस तपको लेते हुए भी यहाँ वास्तवमें तप का अर्थ है -- अपने धर्मका पालन करते हुए जो कष्ट हो अथवा कष्ट आ जाय? उसको प्रसन्नतापूर्वक सहना अर्थात् कष्टके आनेपर चित्तमें प्रसन्नताका होना।शौचम् -- अपने मन? बुद्धि? इन्द्रियाँ? शरीर आदिको पवित्र रखना तथा अपने खानपान? व्यवहार आदिकी पवित्रता रखना -- इस प्रकार शौचाचारसदाचारका ठीक पालन करनेका नाम शौच है।क्षान्तिः -- कोई कितना ही अपमान करे? निन्दा करे? दुःख दे और अपनेमें उसको दण्ड देनेकी योग्यता? बल? अधिकार भी हो? फिर भी उसको दण्ड न देकर उसके क्षमा माँगे बिना ही उसको प्रसन्नतापूर्वक क्षमा कर देनेका नाम क्षान्ति है।आर्जवम् -- शरीर? वाणी आदिके व्यवहारमें सरलता हो और मनमें छल? कपट? छिपाव आदि दुर्भाव न हों अर्थात् सीधासादापन हो? उसका नाम आर्जव है।ज्ञानम् -- वेद? शास्त्र? पुराण? इतिहास आदिका अच्छी तरह अध्ययन होना और उनके भावोंका ठीक तरहसे बोध होना तथा कर्तव्यअकर्तव्यका बोध होना ज्ञान है। विज्ञानम् -- यज्ञमें स्रुक्? स्रुवा आदि वस्तुओंका किस अवसरपर किस विधिसे प्रयोग करना चाहिये -- इसका अर्थात् यज्ञविधिका तथा अनुष्ठान आदिकी विधिका अनुभव कर लेने (अच्छी तरह करके देख लेने) का नाम विज्ञान है।आस्तिक्यम् -- परमात्मा? वेदादि शास्त्र? परलोक आदिका हृदयमें आदर हो? श्रद्धा हो और उनकी सत्यतामें कभी सन्देह न हो तथा उनके अनुसार अपना आचरण हो? इसका नाम आस्तिक्य है।ब्रह्मकर्म स्वभावजम् -- ये शम? दम आदि ब्राह्मणके स्वाभाविक कर्म (गुण) हैं अर्थात् इन कर्मों(गुणों)को धारण करनेमें ब्राह्मणको परिश्रम नहीं पड़ता।जिन ब्राह्मणोंमें सत्त्वगुणकी प्रधानता है? जिनकी वंशपरम्परा परम शुद्ध है और जिनके पूर्वजन्मकृत कर्म भी शुद्ध हैं? ऐसे ब्राह्मणोंके लिये ही शम? दम आदि गुण स्वाभाविक होते हैं और उनमें किसी गुणके न होनेपर अथवा किसी गुणमें कमी होनेपर भी उसकी पूर्ति करना उन ब्राह्मणोंके लिये सहज होता है।चारों वर्णोंकी रचना गुणोंके तारतम्यसे की गयी है? इसलिये गुणोंके अनुसार उसउस वर्णमें वेवे कर्म स्वाभाविक प्रकट हो जाते हैं और दूसरे कर्म गौण हो जाते हैं। जैसे ब्राह्मणमें सत्त्वगुणकी प्रधानता होनेसे उसमें शम? दम आदि कर्म (गुण) स्वाभाविक आते हैं तथा जीविकाके कर्म गौण हो जाते हैं और दूसरे वर्णोंमें रजोगुण तथा तमोगुणकी प्रधानता होनेसे उन वर्णोंके जीविकाके कर्म भी स्वाभाविक कर्मोंमें सम्मिलित हो जाते हैं। इसी दृष्टिसे गीतामें ब्राह्मणके स्वभावज कर्मोंमें जीविकाके कर्म न कह करके शम? दम आदि कर्म (गुण) ही कहे गये हैं। सम्बन्ध -- अब क्षत्रियके स्वाभाविक कर्म बताते हैं।
।।18.42।। इस श्लोक में सत्त्वगुण प्रधान ब्राह्मण के कर्तव्यों की सूची प्रस्तुत की गयी है। यद्यपि यहाँ कर्म शब्द का प्रयोग किया गया है? परन्तु इस सूची में केवल आन्तरिक गुणों का ही उल्लेख मिलता है। इसका अभिप्राय यह है कि ब्राह्मण का कर्तव्य इन गुणों को स्वयं में सम्पादित कर उनमें दृढ़ निष्ठा प्राप्त करना है। ये गुण उसके स्वाभाविक लक्षण बन जाने चाहिए।शम इसका अर्थ है मनसंयम। मन की विषयाभिमुखी प्रवृत्ति का संयमन शम कहलाता है।दम विषय ग्रहण करने वाली ज्ञानेन्द्रियों तथा प्रतिक्रिया व्यक्त करने वाली कर्मेन्द्रियों पर संयमन होना दम है।तप पूर्व अध्याय में शरीर? वाणी और मन के तप का वर्णन किया गया था। तप के आचरण से हमारी शक्तियों का अपव्यय अवरुद्ध हो जाता है। इस प्रकार संचित की गयी शक्ति का आत्मविकास की साधना में सदुपयोग किया जा सकता है।शौच बाह्य वातावरण? अपने वस्त्र? शरीर तथा मन की शुद्धि को शौच कहते हैं। ब्राह्मण को स्वच्छता के प्रति सतत सजग रहना चाहिए।क्षान्ति इसका अर्थ है क्षमा। किसी के अपराध अथवा दुर्व्यवहार करने पर भी उसे क्षमा करना क्षान्ति है। ऐसा व्यक्ति किसी से द्वेष नहीं करेगा और सब के साथ समान भाव से रहेगा।आर्जवम् हृदय के सरल? निष्कपट भाव को आर्जव कहते हैं। इस ऋजुता के कारण पुरुष निर्भय बन जाता है। उच्च जीवन मूल्यों को जीने के विषय में वह निम्नस्तरीय जीवन के साथ कभी समझौता नहीं करता।उपर्युक्त शमादि छ गुणों द्वारा ब्राह्मण पुरुष का जगत् में आचरण एवं व्यवहार स्पष्ट किया गया है। दूसरी पंक्ति में उसके आध्यात्मिक जीवन का चित्रण किया गया है।ज्ञान इस शब्द से यहाँ शास्त्रों का ज्ञान इंगित किया गया है। इसमें शास्त्र के सिद्धांत? भौतिक जगत्? जगत् का अनुभव करने वाली उपाधियाँ तथा उनके धर्म और कार्य? जीवन का लक्ष्य इत्यादि का सैद्धांतिक ज्ञान समाविष्ट है।विज्ञान उपनिषत्प्रतिपादित आत्मज्ञान का अनुभव स्वानुभव कहलाता है। ज्ञान का उपदेश दिया जा सकता है? परन्तु विज्ञान का नहीं। स्वसंवेद्य आत्मा का अनुभव अन्य व्यक्ति के द्वारा दिया जाना असंभव है। इसके लिए ब्राह्मण को स्वयं ही प्रयत्न करना होगा।आस्तिक्य वेदान्त प्रमाण में श्रद्धा हुए बिना उसमें उपदिष्ट लक्ष्य में आस्तिक्य भाव उत्पन्न नहीं हो सकता? और इस आस्तिकता के बिना उपर्युक्त किसी भी कर्म को करने में प्रवृत्ति नहीं हो सकती। अत इस श्रद्धा का होना अनिवार्य है। श्रद्धा से ज्ञान और तत्पश्चात्? ज्ञान से विज्ञान की प्राप्ति हो सकती है। इस श्लोक में कथित गुणों को सम्पादित करना ही ब्राह्मण का कर्तव्य है।भगवान् आगे कहते हैं
।।18.42।।प्रविभक्तानि कर्माण्येव प्रश्नद्वारा विविच्य दर्शयति -- कानीत्यादिना। अन्तःकरणोपशमः शमो दमो बाह्यकरणोपरतिरित्युक्तं स्मारयति -- यथेति। त्रिविधं तपः सप्तदशे दर्शितमित्याह -- तप इति। शौचमपि बाह्यान्तरभेदेन प्रागेवोक्तमित्याह -- शौचमिति। क्षमा नामाक्रुष्टस्य ताडितस्य वा मनसि विकारराहित्यं? ज्ञानं शास्त्रीयपदार्थज्ञानं? विज्ञानं शास्त्रार्थस्य स्वानुभवायत्तत्वापादनं त्रिधा व्याख्यातं स्वभावशब्दार्थमुपेत्याह -- यदुक्तमिति।
।।18.42।।कानि पुनस्तानि कर्माणीत्यपेक्षायां तानि व्युत्पादयितुमादौ ब्राह्मणस्य कर्माणि दर्शयति। शमः अन्तःकरणोपरमः। तमः बाह्यकरणोपरमः। तपः यथोक्तं शारीरादि। शौचं बाह्याभ्यन्तरभेदेन प्राग्व्याख्यातम्। क्षमा क्षान्तिः आक्रुष्टस्य ताडितस्य वा मनसि विकारराहित्यम्। आर्जवं ऋजुत्वम्। ज्ञानं शास्त्रीयं आत्मादिपदार्थज्ञानम्। विज्ञानं शास्त्रार्थस्यानुभवारुढतापादनम्। आस्तिक्यमास्तिकस्वभाव आगमोक्तार्थेषु श्रद्दधानता। ब्रह्मकर्म ब्राह्मणजातेः कर्म स्वभावजं स्वभावप्रभवेण गुणेन सत्त्वगुणेन प्रविभक्तमित्यर्थः।
।।18.42।।ब्राह्मणकर्माण्याह -- शम इति। अन्तःकरणनिग्रहः शमः। बाह्येन्द्रियनिग्रहो दमः। तपः पूर्वोक्तं शारीरादिभेदेन त्रिविधम्। शौचं बाह्यं मृज्जलाभ्यां आभ्यन्तरं भावशुद्धिः। क्षान्तिः क्षमा। आर्जवमकौटिल्यम्। ज्ञानं शास्त्रीयं कर्म ब्रह्मविषयम्। विज्ञानं तदनुष्ठानानुभवात्मकम्। आस्तिक्यं श्रद्धा एतन्नवकं ब्रह्मकर्म ब्राह्मणत्वजात्यभिव्यञ्जकं कर्म। स्वभावजं प्राचीनधर्मसंस्कारजम्।
।।18.42।।शमः बाह्येन्द्रियनियमनम्। दमः अन्तःकरणनियमनम्। तपः भोगनियमनरूपः शास्त्रसिद्धः कायक्लेशः। शौचं शास्त्रीयकर्मयोग्यता। क्षान्तिः परैः पीड्यमानस्य अपि अविकृतचित्तता। आर्जवं परेषु मनोऽनुरूपं बाह्यचेष्टाप्रकाशनम्। ज्ञानं परावरतत्त्वयाथात्म्यज्ञानम्। विज्ञानं परतत्त्वगतासाधारणविशेषविषयं ज्ञानम्। आस्तिक्यं वैदिकार्थस्य कृत्स्नस्य सत्यतानिश्चयः प्रकृष्टः? केनापि हेतुना चालयितुमशक्य इत्यर्थः।भगवान् पुरुषोत्तमो वासुदेवः परब्रह्मशब्दाभिधेयो निरस्तनिखिलदोषगन्धः स्वाभाविकानवधिकातिशयज्ञानशक्त्याद्यसंख्येयकल्याणगुणगणो निखिलवेदवेदान्तवेद्यः स एव निखिलजगदेककारणं निखिलजगदाधारभूतो निखिलस्य स एव प्रवर्तयिता तदाराधनभूतं च कृत्स्नं वैदिकं कर्म? तैः तैः आराधितो धर्मार्थकाममोक्षाख्यं फलं प्रयच्छति? इति अस्य अर्थस्य सत्यतानिश्चयः आस्तिक्यम्। वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यः। (गीता 15।15)अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते। (गीता 10।8)मयि सर्वमिदं प्रोतम्। (गीता 7।7)भोक्तारं यज्ञ तपसां ৷৷. ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति।। (गीता 5।29)मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय। (गीता 7।7)यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्। स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः।। (गीता 18।46)यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम्। (गीता 10।3) इति ह्युच्यते।तद् एतद् ब्राह्मणस्य स्वभावजं कर्म।
।।18.42।।तत्र ब्राह्मणस्य स्वाभाविकानि कर्मण्याह -- शम इति। शमश्चित्तोपरमः? दमो बाह्येन्द्रियोपरमः? तपः पूर्वोक्तं शारीरादि? शौचं बाह्याभ्यन्तरम्? क्षान्तिः क्षमा? आर्जवमवक्रता? ज्ञानं शास्त्रीयम्? विज्ञानमनुभवः? आस्तिक्यमस्तिपरलोक इति निश्चयः। एतच्छमादि ब्राह्मणस्य स्वभावाज्जातं कर्म।
।।18.42।।शमो दमः इत्यादौ पूर्वं व्याख्यातनामपि गुणानां पुनर्व्याख्यानं वर्णानुबन्धेन विधानेऽवान्तरविशेषशङ्कापाकरणार्थंब्राह्मं कर्म इत्युक्तकर्मत्वसिद्धये? नियतनादिरूपेण पुरुषव्यापारसाध्यत्वज्ञापनार्थं च। अतः शौचावपि तदापादनं ग्राह्यम्। अस्ति मतिरस्येत्यास्तिकः तद्भाव आस्तिक्यं तच्चाप्रामाणिकेषु भवद्दोषाय प्रत्यक्षादिसिद्धे तु नासावतिशयः शास्त्रीयेष्वपि क्वाचित्कसंशयादौ कुदृष्टित्वप्रसङ्गः अतोवैदिकार्थस्य कृत्स्नस्येत्युक्तम्। सहपठितविज्ञानादेर्भेदज्ञापनाय सत्यतानिश्चयस्य प्रकृष्टत्वोक्तिः। तद्विवृणोति -- केनापीति।वैदिकस्य कृत्स्नस्येत्युक्तं कुदृष्ट्याद्यनमतवैदिकार्थसङ्ग्रहव्युदासाय प्राधान्येन सङ्कलय्य व्यनक्ति -- भगवानित्यादिना। अत्र विशेषणानां प्रागेव व्याख्यातत्वादेह सर्ववेदसारतयोद्धृतस्यार्थस्य तदुपबृंहणेऽस्मिंञ्छास्त्रे तथात्वेनैव प्रस्पष्टतामाह -- वेदैश्चेति। निखिलवेदवेदान्तवेद्य इत्युक्तार्थक्रमानुसारेण विप्रकीर्णवाक्योद्धारक्रमः। श्लोकार्थं निगमयति -- तदेतदिति। ब्रह्मणः कर्म ब्राह्मम् ब्रह्मशब्दोऽत्र ब्राह्मणजातिपर इत्यभिप्रायेणाऽऽह -- ब्राह्मणस्येति।
।।18.41 -- 18.60।।एवमियता षण्णां प्रत्येकं त्रिस्वरूपत्वं धृत्यादीनां च प्रतिपादितम्। तन्मध्यात् सात्त्विके राशौ वर्तमानो दैवीं संपदं प्राप्त इह ज्ञाने योग्यः? त्वं च तथाविधः इत्यर्जुनः प्रोत्साहितः।अधुना तु इदमुच्यते -- यदि तावदनया ज्ञानबुद्ध्या कर्मणि भवान् प्रवर्तते तदा स्वधर्मप्रवृत्त्या विज्ञानपूततया च न कर्मसंबन्धस्तव। अथैतन्नानुमन्यसे? तदवश्यं तव प्रवृत्त्या तावत् भाव्यम् जातेरेव तथाभावे स्थितत्वात्। यतः सर्वः स्वभावनियतः ( S??N स्वस्वभावनियतः ) कुतश्चिद्दोषात् तिरोहिततत्स्वभावः ( S??N -- हिततत्तत्स्वभावः ) कंचित्कालं भूत्वापि? तत्तिरोधायकविगमे स्वभावं व्यक्त्यापन्नं लभत एव। तथाहि एवंविधो वर्णनां स्वभावः। एवमवश्यंभाविन्यां प्रवृत्तौ ततः फलविभागिता भवेत्।।तदाह -- ब्राह्मणेत्यादि अवशोऽपि तत् इत्यन्तम्। ब्राह्मणादीनां कर्मप्रविभागनिरूपणस्य स्वभावोऽश्यं नातिक्रामति,( S? ? N omit न and read अतिक्रामति ) इति क्षत्रियस्वभावस्य भवतोऽनिच्छतोऽपि प्रकृतिः स्वभावाख्या नियोक्तृताम् अव्यभिचारेण भजते। केवलं तया नियुक्तस्य पुण्यपापसंबन्धः। अतः मदभिहितविज्ञानप्रमाणपुरःसरीकारेण कर्माण्यनुतिष्ठ। तथा सति बन्धो निवर्त्स्यति। इत्यस्यार्थस्य परिकरघटनतात्पर्यं ( S? ? N -- करबन्धघटन -- ) महावाक्यार्थस्य। अवान्तरवाक्यानां स्पष्टा ( ष्टोऽ ) र्थः।समासेन ( S omits समासेन ) ( श्लो. 50 ) संक्षेपेण। ज्ञानस्य? प्रागुक्तस्य। निष्ठां ( ष्ठा ) वाग्जालपरिहारेण निश्चितामाह। बुद्ध्या विशुद्धया इत्यादि सर्वमेतत् व्याख्यातप्रायमिति न पुनरायस्यते,( N -- रारभ्यते )।
।।18.42।।तत्र ब्राह्मणस्य स्वाभाविकगुणकृतानि कर्माण्याह -- शम इति। शमोऽन्तःकरणोपरमः। दमो बाह्यकरणोपरमः प्रागुक्तः। तपः शारीरादिदेवद्विजगुरुप्राज्ञेत्यादावुक्तम्। शौचमपि बाह्याभ्यन्तरभेदेन प्रागुक्तम्। क्षान्तिः क्षमा आक्रुष्टस्य ताडितस्य वा मनसि विकारराहित्यं प्राग्व्याख्यातम्। आर्जवमकौटिल्यं प्रागुक्तम्। ज्ञानं साङ्गवेदतदर्थविषयम्। विज्ञानं कर्मकाण्डे यज्ञादिकर्मकौशल्यं? ब्रह्मकाण्डे ब्रह्मात्मैक्यानुभवः। आस्तिक्यं सात्त्विकी श्रद्धा प्रागुक्ता। एतच्छमादिनवकं स्वभावजं सत्त्वगुणस्वभावकृतं ब्रह्मकर्म ब्राह्मणजातेः कर्म। यद्यपि चतुर्णामपि वर्णानां सात्त्विकावस्थायामेते धर्माः संभवन्ति तथापि बाहुल्येन ब्राह्मणे संभवन्ति सत्त्वस्वभावत्वात्। तस्य सत्त्वोद्रेकदेशेन त्वन्यत्रापि कदाचिद्भवन्तीति शास्त्रान्तरे साधारणधर्मतयोक्ताः। तथाच विष्णुःक्षमा सत्यं दमः शौचं दानमिन्द्रियसंयमः। अहिंसा गुरुशुश्रूषा तीर्थानुसरणं दया।।आर्जवं लोभशून्यत्वं देवब्राह्मणपूजनम्। अनभ्यसूया च तथा धर्मः सामान्य उच्यते।। सामान्यश्चतुर्णामपि वर्णानाम्। तथा प्रायेण चतुर्णामप्याश्रमाणामित्यर्थः। तथा बृहस्पतिःदया क्षमाऽनसूया च शौचानायासमङ्गलम्। अकार्पण्यमस्पृहत्वं सर्वसाधारणानि च।। परे वा बन्धुवर्गे वा मित्रे द्वेष्टरि वा सदा। आपन्ने रक्षितव्यं तु दयैषा परिकीर्तिता।।बाह्ये चाध्यात्मिके चैव दुःखे चोत्पादिते क्वचित्। न कुप्यति न वा हन्ति सा क्षमा परिकीर्तिता।।न गुणान्गुणिनो हन्ति स्तौति मन्दगुणानपि। नान्यदोषेषु रमते साऽनसूया प्रकीर्तिता।।अभक्ष्यपरिहारश्च संसर्गश्चाप्यनिर्गुणैः। स्वधर्मे च व्यवस्थानं शौचमेतत्प्रकीर्तितम्।।शरीरं पीड्यते येन सुशुभेनापि कर्मणा। अत्यन्तं तन्न कर्तव्यमनायासः स उच्यते।।प्रशस्ताचरणं नित्यमप्रशस्तविसर्जनम्। एतद्धि मङ्गलं प्रोक्तं मुनिभिस्तत्त्वदर्शिभिः।।स्तोकादपि प्रदातव्यमदीनेनान्तरात्मा। अहन्यहनि यत्किंचिदकार्पण्यं हि तत्स्मृतम्।।यथोत्पन्नेन संतोषः कर्तव्यो ह्यर्थवस्तुना। परस्याचिन्तयित्वार्थं साऽस्पृहा परिकीर्तिता।। एत एवाष्टावात्मगुणत्वेन गौतमेन पठिताःअथाष्टावात्मगुणाः दया सर्वभूतेषु क्षान्तिरनसूया शौचमनायासो मङ्गलमकार्पण्यमस्पृहा इति। तथा महाभारतेसत्यं दमस्तपः शौचं संतोषो ह्रीः क्षमार्जवम्। ज्ञानं शमो दया ध्यानमेष धर्मः सनातनः।।सत्यं भूतहितं प्रोक्तं मनसो दमनं दमः। तपः स्वधर्मवर्तित्वं शौचं संकरवर्जनम्। संतोषो विषयत्यागो ह्रीरकार्यनिवर्तनम्। क्षमा द्वन्द्वसहिष्णुत्वमार्जवं समचित्तता। ज्ञानं तत्त्वार्थसंबोधः शमश्चित्तप्रशान्तता। दया भूतहितैषित्वं ध्यानं निर्विषयं मनः।। देवलःशौचं दानं तपः श्रद्धा गुरुसेवा क्षमा दया। विज्ञानं विनयः सत्यमिति धर्मसमुच्चयः।। तथाव्रतोपवासनियमैः शरीरोत्तापनं तपः। प्रत्यंयो धर्मकार्येषु तया श्रद्धेत्युदाहृता।।नास्ति ह्यश्रद्दधानस्य कर्मकृत्यप्रयोजनम्। यत्पुनर्वैदिकीनां च लौकिकीनां च सर्वशः।।धारणं सर्वविद्यानां विज्ञानमिति कीर्त्यते। विनयं द्विविधं प्राहुः शश्वद्दमशमाविति।। शेषं व्याख्यातप्रायमिति वचनानि न लिखितानि। याज्ञवल्क्यःइज्याचारदमाहिंसादानस्वाध्यायकर्मणाम्। अयं तु परमो धर्मो यद्योगेनात्मदर्शनम्।। इति। इयं च सर्वा दैवीसंपत्प्राग्व्याख्याता ब्राह्मणस्य स्वाभाविकीतरेषां तु नैमित्तिकीति न विरोधः।
।।18.42।।तत्र प्रथमं ब्राह्मणस्य स्वाभाविकानि कर्माण्याह -- शम इति। शमः शान्तिः मत्परैकचित्तत्वं? दम इन्द्रियोपसंयमः? तपः शरीरक्लेशः? शौचं बाह्याभ्यन्तरभेदेन द्विविधं? क्षान्तिः क्षमा? आर्जवं सरलता। एवकारेण कुटिलेष्वपि चेत्यर्थः। ज्ञानं शास्त्रीयं? विज्ञान अनुभवः? आस्तिक्यं प्रमाणोक्तफलोत्कर्षे अस्तीति निश्चयबुद्धिः? एवमेतत्सर्वं ब्राह्मणस्य स्वभावजं स्वभावाज्जातं कर्म।
।।18.42।। --,शमः दमश्च यथाव्याख्यातार्थौ? तपः यथोक्तं शारीरादि? शौचं व्याख्यातम्? क्षान्तिः क्षमा? आर्जवम् ऋजुता एव च ज्ञानं विज्ञानम्? आस्तिक्यम् आस्तिकभावः श्रद्दधानता आगमार्थेषु? ब्रह्मकर्म ब्राह्मणजातेः कर्म स्वभावजम् -- यत् उक्तं स्वभावप्रभवैर्गुणैः प्रविभक्तानि इति तदेवोक्तं स्वभावजम् इति।।
।।18.42।।तत्र ब्राह्मणस्य स्वाभाविकवृत्ति कर्माऽऽह -- शम इत्यादि। ज्ञानं श्रौतम्। विज्ञानं परमात्मज्ञानम्।