यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः।।18.46।।
yataḥ pravṛittir bhūtānāṁ yena sarvam idaṁ tatam sva-karmaṇā tam abhyarchya siddhiṁ vindati mānavaḥ
He from whom all the beings have evolved and by whom all this is pervaded, worshipping Him with his own duty, one attains perfection.
18.46 यतः from whom? प्रवृत्तिः (is) the evolution? भूतानाम् of beings? येन by whom? सर्वम् all? इदम् this? ततम् is pervaded? स्वकर्मणा with his own duty? तम् Him? अभ्यर्च्य worshipping? सिद्धिम् perfection? विन्दति attains? मानवः man.Commentary The performance by a man of his own duty is simply carrying into effect the intention of the Supreme from Whom the whole of the creation emanates. When a man worships Him? the Supreme Being? with the flowers of his action? then He is immensely pleased and being thus gratified by such worship He confers on Him? as a boon? dispassion and discrimination.Pravritti Evolution or activity it proceeds from the Lord? the Antaryamin? the Inner Ruler.Bhutanam Beings living creatures.Svakarmana With his own duty each according to his caste as described above.Man attains perfection by worshipping the Lord by performing his own duty? i.e.? he becomes alified for the dawn of Selfknowledge (for Jnana Yoga).
।।18.46।। व्याख्या -- यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम् -- जिस परमात्मासे संसार पैदा हुआ है? जिससे सम्पूर्ण संसारका संचालन होता है? जो सबका उत्पादक? आधार और प्रकाशक है और जो सबमें परिपूर्ण है अर्थात् जो परमात्मा अनन्त ब्रह्माण्डोंकी उत्पत्तिसे पहले भी था? जो अनन्त ब्रह्माण्डोंके लीन होनेपर भी रहेगा और अनन्त ब्रह्माण्डोंके रहते हुए भी जो रहता है तथा जो अनन्त ब्रह्माण्डोंमें व्याप्त है? उसी परमात्माका अपनेअपने स्वभावज (वर्णोचित स्वाभाविक) कर्मोंके द्वारा पूजन करना चाहिये।स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य -- मनुस्मृतिमें ब्राह्मणोंके लिये छः कर्म बताये गये हैं -- स्वयं पढ़ना और दूसरोंको पढ़ाना? स्वयं यज्ञ करना और दूसरोंसे यज्ञ कराना तथा स्वयं दान लेना और दूसरोंको दान देना (टिप्पणी प0 938.1) (इनमें पढ़ाना? यज्ञ कराना और दान लेना -- ये तीन कर्म जीविकाके हैं और पढ़ना? यज्ञ करना और दान देना -- ये तीन कर्तव्यकर्म हैं)। उपर्युक्त शास्त्रनियत छः कर्म और शमदम आदि नौ स्वभावज कर्म तथा इनके अतिरिक्त खानापीना? उठनाबैठना आदि जितने भी कर्म हैं? उन कर्मोंके द्वारा ब्राह्मण चारों वर्णोंमें व्याप्त परमात्माका पूजन करें। तात्पर्य है कि परमात्माकी आज्ञासे? उनकी प्रसन्नताके लिये ही भगवद्बुद्धिसे निष्कामभावपूर्वक सबकी सेवा करें।ऐसे ही क्षत्रियोंके लिये पाँच कर्म बताये गये हैं -- प्रजाकी रक्षा करना? दान देना? यज्ञ करना? अध्ययन करना और विषयोंमें आसक्त न होना (टिप्पणी प0 938.2)। इन पाँच कर्मों तथा शौर्य? तेज आदि सात स्वभावज कर्मोंके द्वारा और खानापीना आदि सभी कर्मोंके द्वारा क्षत्रिय सर्वत्र व्यापक परमात्माका पूजन करें।वैश्य यज्ञ करना? अध्ययन करना? दान देना और ब्याज लेना तथा कृषि? गौरक्ष्य और वाणिज्य (टिप्पणी प0 939.1) -- इन शास्त्रनियत और स्वभावज कर्मोंके द्वारा और शूद्र शास्त्रविहित तथा स्वभावज कर्म सेवा (टिप्पणी प0 939.2) के द्वारा सर्वत्र व्यापक परमात्माका पूजन करें अर्थात् अपने शास्त्रविहित? स्वभावज और खानापीना? सोनाजागना आदि सभी कर्मोंके द्वारा भगवान्की आज्ञासे? भगवान्की प्रसन्नताके लिये भगवद्बुद्धिसे निष्कामभावपूर्वक सबकी सेवा करें।शास्त्रोंमें मनुष्यके लिये अपने वर्ण और आश्रमके अनुसार जोजो कर्तव्यकर्म बताये गये हैं? वे सब संसाररूप परमात्माकी पूजाके लिये ही हैं। अगर साधक अपने कर्मोंके द्वारा भावसे उस परमात्माका पूजन करता है? तो उसकी मात्र क्रियाएँ परमात्माकी पूजा हो जाती है। जैसे? पितामह भीष्मने (अर्जुनके साथ युद्ध करते हुए) अर्जुनके सारथि बने हुए भगवान्की अपने युद्धरूप कर्मके द्वारा (बाणोंसे) पूजा की। भीष्मके बाणोंसे भगवान्का कवच टूट गया? जिससे भगवान्के शरीरमें घाव हो गये और हाथकी अंगुलियोंमें छोटेछोटे बाण लगनेसे अंगुलियोंसे लगाम पकड़ना कठिन हो गया। ऐसी पूजा करके अन्तसमयमें शरशय्यापर पड़े हुए पितामह भीष्म अपने बाणोंद्वारा पूजित भगवान्का ध्यान करते हैं -- युद्धमें मेरे तीखे बाणोंसे जिनका कवच टूट गया है? जिनकी त्वचा विच्छिन्न हो गयी है? परिश्रमके कारण जिनके मुखपर स्वेदकण सुशोभित हो रहे हैं? घोड़ोंकी टापोंसे उड़ी हुई रज जिनकी सुन्दर अलकावलिमें लगी हुई है? इस प्रकार बाणोंसे अलंकृत भगवान् कृष्णमें मेरे मनबुद्धि लग जायँ (टिप्पणी प0 939.3)।,लौकिक और पारमार्थिक कर्मोंके द्वारा उस परमात्माका पूजन तो करना चाहिये? पर उन कर्मोंमें और उनको करनेके करणोंउपकरणोंमें ममता नहीं रखनी चाहिये। कारण कि जिन वस्तुओं? क्रियाओँ आदिमें ममता हो जाती है? वे सभी चीजें अपवित्र हो जानेसे (टिप्पणी प0 939.4) पूजासामग्री नहीं रहतीं (अपवित्र फल? फूर आदि भगवान्पर नहीं चढ़ते)। इसलिये मेरे पास जो कुछ है? वह सब उस सर्वव्यापक परमात्माका ही है?,मुझे तो केवल निमित्त बनकर उनकी दी हुई शक्तिसे उनका पूजन करना है -- इस भावसे जो कुछ किया जाय? वह सबकासब परमात्माका पूजन हो जाता है। इसके विपरीत उन क्रियाओँ? वस्तुओँ आदिको मनुष्य जितनी अपनी मान लेता है? उतनी ही वे (अपनी मानी हुई) क्रियाएँ? वस्तुएँ (अपवित्र होनेसे) परमात्माके पूजनसे वञ्चित रह जाती हैं।सिद्धिं विन्दति मानवः -- सिद्धिको प्राप्त होनेका तात्पर्य है कि अपने कर्मोंसे परमात्माका पूजन करनेवाला मनुष्य प्रकृतिके सम्बन्धसे रहित होकर स्वतः अपने स्वरूपमें स्थित हो जाता है। स्वरूपमें स्थित होनेपर पहले जो परमात्माके समर्पण किया था? उस संस्कारके कारण उसका प्रभुमें अनन्यप्रेम जाग्रत् हो जाता है। फिर उसके लिये कुछ भी पाना बाकी नहीं रहता।यहाँ मानवः पदका तात्पर्य केवल ब्राह्मण? क्षत्रिय? वैश्य? शूद्र और ब्रह्मचारी? गृहस्थ? वानप्रस्थ? संन्यास -- इन वर्णों और आश्रमों आदिसे ही नहीं है? प्रत्युत हिन्दू? मुसलमान? ईसाई? बौद्ध? पारसी? यहूदी आदि सभी जातियों और सम्प्रदायोंसे है। किसी भी जाति? सम्प्रदाय आदिके कोई भी व्यक्ति क्यों न हों? सबकेसब ही परमात्माके पूजनके अधिकारी हैं क्योंकि सभी परमात्माके अपने हैं। जैसे घरमें स्वभाव आदिके भेदसे अनेक तरहके बालक होते हैं? पर उन सबकी माँ एक ही होती है और उन बालकोंकी तरहतरहकी जितनी भी क्रियाएँ होती हैं? उन सब क्रियाओंसे माँ प्रसन्न होती रहती है क्योंकि उन बालकोंमें माँका अपनापन होता है। ऐसे ही भगवान्के सम्मुख हुए मनुष्योंकी सभी क्रियाओँको भगवान् अपना पूजन मान लेते हैं और प्रसन्न होते हैं।इसी अध्यायके सत्तरवें श्लोकमें भगवान्ने अर्जुनसे कहा है कि कोई भी मनुष्य हम दोनोंके संवादका अध्ययन करेगा? उसके द्वारा मैं ज्ञानयज्ञसे पूजित हो जाऊँगा। इससे यह सिद्ध होता है कि कोई गीताका पाठ करे? अध्ययन करे तो उसको भगवान् अपना पूजन मान लेते हैं। ऐसे ही जो उत्पत्तिविनाशशील वस्तुओँसे विमुख होकर भगवान्के सम्मुख हो जाता है? उसकी क्रियाओँको भगवान् अपना पूजन मान लेते हैं।विशेष बातकर्मयोगमें कर्मोंके द्वारा जडतासे असङ्गता होती है और भक्तियोगमें संसारसे असङ्गतापूर्वक परमात्माके प्रति पूज्यभाव होनेसे परमात्माकी सम्मुखता रहती है।कर्मयोगी तो अपने पास शरीर? इन्द्रियाँ? मन? बुद्धि आदि जो कुछ संसारका जडअंश है? उसको स्वार्थ? अभिमान? कामनाका त्याग करके संसारकी सेवामें लगा देता है। इससे अपनी मानी हुई चीजोंसे अपनापन छूटकर उनसे सर्वथा सम्बन्धविच्छेद हो जाता है? और जो स्वतःस्वाभाविक असङ्गता है? वह प्रकट हो जाती है।भक्त अपने वर्णोचित स्वाभाविक कर्मों और समयसमयपर किये गये पारमार्थिक कर्मों(जप? ध्यान आदि) के द्वारा सम्पूर्ण संसारमें व्याप्त परमात्माका पूजन करता है।इन दोनोंमें भावकी भिन्नता होनेसे इतना ही अन्तर हुआ कि कर्मयोगीकी सम्पूर्ण क्रियाओंका प्रवाह सबको सुख पहुँचानेमें लग जाता है? तो क्रियाओँको करनेका वेग मिटकर स्वयंमें असङ्गता आ जाती है और भक्तकी सम्पूर्ण क्रियाएँ परमात्माकी पूजनसामग्री बन जानेसे जडतासे विमुखता होकर भगवान्की सम्मुखता आ जाती है और प्रेम बढ़ जाता है।भक्त तो पहलेसे ही भगवान्के सम्मुख होकर अपनेआपको भगवान्के अर्पित कर देता है। स्वयंके,अनन्यतापूर्वक भगवान्के समर्पित हो जानेसे खानापीना? कामधंधा आदि लौकिक और जप? ध्यान? सत्सङ्ग? स्वाध्याय आदि पारमार्थिक क्रियाएँ भी भगवान्के अर्पण हो जाती हैं। उसकी लौकिकपारमार्थिक क्रियाओंमें केवल बाहरसे भेद देखनेमें आता है परन्तु वास्तवमें कोई भेद नहीं रहता।कर्मयोगी और ज्ञानयोगी -- ये दोनों अन्तमें एक हो जाते हैं। जैसे? कर्मयोगी कर्मोंके द्वारा जडताका त्याग करता है अर्थात् सेवाके द्वारा उसकी सभी क्रियाएँ संसारके अर्पण हो जाती हैं और स्वयं असङ्ग हो जाता है और ज्ञानयोगी विचारके द्वारा जडताका त्याग करता है अर्थात् विचारके द्वारा उसकी सभी क्रियाएँ प्रकृतिके अर्पण हो जाती हैं और स्वयं असङ्ग हो जाता है। तात्पर्य है कि दोनोंके अर्पण करनेके प्रकारमें अन्तर है? पर असङ्गतामें दोनों एक हो जाते हैं (टिप्पणी प0 940)। इस असङ्गतामें कर्मयोगी और ज्ञानयोगी -- दोनों स्वतन्त्र हो जाते हैं। उनके लिये किञ्चिन्मात्र भी कर्मोंका बन्धन नहीं रहता। केवल कर्तव्यपालनके लिये ही कर्तव्यकर्म करनेसे कर्मयोगीके सम्पूर्ण कर्म लीन हो जाते हैं (गीता 4। 23)? और ज्ञानरूप अग्निसे ज्ञानयोगीके सम्पूर्ण कर्म भस्म हो जाते हैं (गीता 4। 37)। परन्तु इस स्वतन्त्रतामें भी जिसको संतोष नहीं होता अर्थात् स्वतन्त्रतासे जिसको उपरति हो जाती है? उसमें भगवत्कृपासे प्रेम प्रकट हो सकता है। , सम्बन्ध -- स्वभावज (सहज) कर्मोंको निष्कामभावपूर्वक और पूजाबुद्धिसे करते हुए उसमें कोई कमी रह भी जाय? तो भी उसमें साधकको हताश नहीं होना चाहिये -- इसको आगेके दो श्लोकोंमें बताते हैं।
।।18.46।। जब मनुष्य अपने स्वभाव (वर्ण) तथा स्वधर्म (आश्रम? जैसे ब्रह्मचर्य? गृहस्थ आदि) के अनुसार कर्म करता है तब उसकी पूर्वार्जित वासनाओं का क्षय होता जाता है। यह वासना निवृत्ति तथा इसके फलस्वरूप प्राप्त होने वाली चित्त की शुद्धि और शान्ति तभी संभव होती है? जब मनुष्य अपने अहंकार को त्यागकर ईश्वरार्पण की भावना से कर्म करना सीख लेता है।लौकिक कर्तव्यों में यह नियम देखा जाता है कि जिस स्रोत से हमें कार्य करने की शक्ति और फल प्राप्ति होती है? उसके प्रीत्यर्थ कर्म करना हमारा कर्तव्य समझा जाता है। उदाहरणार्थ? सरकारी नौकरी करने वालों का कर्तव्य होता है कि अपने पद का कार्यभार सम्भालते हुए सरकार के लिए कार्य करें? क्योंकि सरकार ही उन्हें कार्य करने का अधिकार और वेतन प्रदान करती है। यदि कोई मनुष्य उस सरकार की शक्ति को विस्मृत कर अपने अधिकार का उपयोग स्वार्थसिद्धि में करता है? तो वह कर्म उसके लिए बन्धन कारक बन जाता है। इसके विपरीत अर्पण की भावना से कार्य करने पर बन्धन तो होते ही नहीं? अपितु उनकी पदोन्नति भी होती है। इसी प्रकार? हमको उस परमेश्वर का स्मरण करते हुए अपने कर्म करने चाहिए? जिससे हमें इन्द्रियाँ? मन आदि उपाधियों तथा उनकी क्षमताओं का प्राप्ति हुई है। हमारा कर्तव्य पालन ही ईश्वर की पूजा हो। इस श्लोक में भगवान् श्रीकृष्ण का यही उपदेश है कि सभी वर्णाश्रमों के मनुष्यों को अपने कर्तव्यों के पालन द्वारा जगत्कारण परमात्मा का पूजन करना चाहिए।ईश्वरार्पण की भावना से कार्य करने में अहंकार सर्वथा लुप्त हो जाता है। अहंकार के अभाव में पूर्वार्जित वासनाओं का क्षय होता है और नवीन बन्धनकारक वासनाएं उत्पन्न नहीं होती। इस प्रकार? कर्म के नियमानुसार लौकिक फल की प्राप्ति तो होती ही है? किन्तु उसके अतिरिक्त चित्त की शुद्धि भी प्राप्त होती है। जिसका अन्तकरण शुद्ध होता है? वही पुरुष परमात्मस्वरूप की अनुभूति को प्राप्त हो सकता है। यही वास्तविक सिद्धि है।इस प्रकार हम देखते हैं कि अपने कर्म के पालन में पूजन की भावना आ जाने पर हमारा कार्यक्षेत्र ही मन्दिर या तीर्थस्थान बन सकता है।स्वकर्म पालन में ही सिद्धि प्राप्त हो सकती है इसलिए
।।18.46।।तमेव प्रकारं स्फुटयति -- यत इति। यतःशब्दार्थं यस्मादित्युक्तं व्यक्तीकरोति -- यस्मादिति। प्राणिनामुत्पत्तिर्यस्मादीश्वरात्तेषां चेष्टा च यस्मादन्तर्यामिणो येन च सर्वं व्याप्तं मृदेव घटादिकार्यस्य कारणातिरिक्तस्वरूपाभावात्तं स्वकर्मणाभ्यर्च्य मानवः संसिद्धिं विन्दतीति संबन्धः। नहि ब्राह्मणादीनां यथोक्तधर्मनिष्ठया साक्षान्मोक्षो लभ्यते तस्य ज्ञानैकलभ्यत्वात्किंतु तन्निष्ठानां शुद्धबुद्धीनां कर्म,सुफलमपश्यतामीश्वरप्रसादासादितविवेकवैराग्यवतां संन्यासिनां ज्ञाननिष्ठयोग्यतावतां ज्ञानप्राप्त्या मुक्तिरित्यभिप्रेत्याह -- केवलमिति।
।।18.46।।तमेव प्रकारं दर्शयति -- यतः यस्मात् जगज्जनकादन्तर्यामिणो भूतानां। प्रवृत्तिरुत्पत्तिश्चेष्टा वा स्यात्। येनेश्वरेण सर्वं कृत्स्त्रमिदं ततं व्याप्तं कार्यस्य कारणसत्तातिरिक्तसत्ताकत्वाभावात्। तं परमात्मानं स्वकर्मणा प्रतिवर्ण पूर्वोक्तेन अभ्यर्च्य सभ्यक् पूजयित्वा आराध्य मानवोऽधिकृतो मनुष्यः सिद्धिं केवलज्ञाननिष्ठायोग्यतालक्षणां विन्दति लभते।
।।18.46।।तमेव प्रकारमाह -- यत इति। प्रवृत्तिः कायवाङ्मनोनिर्वर्त्या चेष्टा। यतो हेतोरन्तर्यामिणः।येन वागभ्युद्यते इत्यादिश्रुतेः। येन इदं सर्वं दृश्यं ततं व्याप्तं उपादानत्वात्। स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य संतर्प्य सिद्धिं मोक्षं विन्दति लभते मानवः। मनुष्याधिकारिकत्वाच्छास्त्रस्य। परमेश्वरे नित्यकर्मणामर्पणमेव मोक्षद्वारमित्यर्थः।
।।18.46।।यतो भूतानाम् उत्पत्त्यादिका प्रवृत्तिः? येन च सर्वम् इदं ततं स्वकर्मणां तं माम् इन्द्राद्यन्तरात्मतयावस्थितम् अभ्यर्च्य मत्प्रसादात् मत्प्राप्तिरूपां सिद्धिं विन्दति मानवः।मत्त एव सर्वम् उत्पद्यते? मया च सर्वम् इदम् ततम् इति पूर्वम् एव उक्तम् -- अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा।।मत्तः परतर नान्यत्किञ्चिदस्ति धनंजय। (गीता 7।67)मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना। (गीता 9।4)मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम्।। (गीता 9।10)अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते। (गीता 10।8) इत्यादिषु।
।।18.46।।तमेवाह -- यत इति। यतोऽन्तर्यामिणः परमेश्वराद्भूतानां प्राणिनां प्रवृत्तिश्चेष्टा भवति। येन च कारणात्मना सर्वमिदं विश्वं ततं व्याप्तं तमीश्वरं स्वकर्मणाऽभ्यर्च्य पूजयित्वा सिद्धिं लभते मनुष्यः।
।।18.46।।सर्वकारणभूतः सर्वान्तर्यामी परमात्मा स्वसृज्यत्वशरीरभूतेन्द्रादिवाचकैः शब्दैराम्नायत इति तत्समाराधनत्वात्संसिद्धिसाधनत्वं वर्णाश्रमधर्माणामुपपन्नमित्युच्यतेयतः प्रवृत्तिः इति श्लोकेन। प्रवृत्तिशब्दस्यात्र चेष्टामात्रपरत्वव्युदासायाऽऽहउत्पत्त्यादिकेति। चेतनाचेतनवाचिभूतशब्दसमन्वितः प्रवृत्तिशब्दोऽत्र विशेषकाभावात्सर्वविधव्यापारसङ्ग्राहक इति भावः। सर्वविधकारणत्वोपयुक्त आकार उच्यतेयेन सर्वमिदं ततम् इति। ततं नियन्तृत्वेनेति हृदयम्।तम् इति परोक्षतया निर्दिष्टःकथं मामिति व्याख्यायते इति शङ्कायांयतः इत्यनुवादस्य प्राप्त्यर्थं पुरोवादं स्मारयति -- मत्त एवेति। कारणत्वसर्वाधिकत्वसर्वव्यापित्वसर्वनियन्तृत्वादिषु यथासम्भवं वचनानि योज्यानि।
।।18.41 -- 18.60।।एवमियता षण्णां प्रत्येकं त्रिस्वरूपत्वं धृत्यादीनां च प्रतिपादितम्। तन्मध्यात् सात्त्विके राशौ वर्तमानो दैवीं संपदं प्राप्त इह ज्ञाने योग्यः? त्वं च तथाविधः इत्यर्जुनः प्रोत्साहितः।अधुना तु इदमुच्यते -- यदि तावदनया ज्ञानबुद्ध्या कर्मणि भवान् प्रवर्तते तदा स्वधर्मप्रवृत्त्या विज्ञानपूततया च न कर्मसंबन्धस्तव। अथैतन्नानुमन्यसे? तदवश्यं तव प्रवृत्त्या तावत् भाव्यम् जातेरेव तथाभावे स्थितत्वात्। यतः सर्वः स्वभावनियतः ( S??N स्वस्वभावनियतः ) कुतश्चिद्दोषात् तिरोहिततत्स्वभावः ( S??N -- हिततत्तत्स्वभावः ) कंचित्कालं भूत्वापि? तत्तिरोधायकविगमे स्वभावं व्यक्त्यापन्नं लभत एव। तथाहि एवंविधो वर्णनां स्वभावः। एवमवश्यंभाविन्यां प्रवृत्तौ ततः फलविभागिता भवेत्।।तदाह -- ब्राह्मणेत्यादि अवशोऽपि तत् इत्यन्तम्। ब्राह्मणादीनां कर्मप्रविभागनिरूपणस्य स्वभावोऽश्यं नातिक्रामति,( S? ? N omit न and read अतिक्रामति ) इति क्षत्रियस्वभावस्य भवतोऽनिच्छतोऽपि प्रकृतिः स्वभावाख्या नियोक्तृताम् अव्यभिचारेण भजते। केवलं तया नियुक्तस्य पुण्यपापसंबन्धः। अतः मदभिहितविज्ञानप्रमाणपुरःसरीकारेण कर्माण्यनुतिष्ठ। तथा सति बन्धो निवर्त्स्यति। इत्यस्यार्थस्य परिकरघटनतात्पर्यं ( S? ? N -- करबन्धघटन -- ) महावाक्यार्थस्य। अवान्तरवाक्यानां स्पष्टा ( ष्टोऽ ) र्थः।समासेन ( S omits समासेन ) ( श्लो. 50 ) संक्षेपेण। ज्ञानस्य? प्रागुक्तस्य। निष्ठां ( ष्ठा ) वाग्जालपरिहारेण निश्चितामाह। बुद्ध्या विशुद्धया इत्यादि सर्वमेतत् व्याख्यातप्रायमिति न पुनरायस्यते,( N -- रारभ्यते )।
।।18.46।।यत इति। यतो मायोपाधिकचैतन्यानन्दघनात्सर्वज्ञात्सर्वशक्तेरीश्वरादुपादानान्निमित्ताच्च सर्वान्तर्यामिणः प्रवृत्तिरुत्पत्तिर्मायामयी स्वाप्नरथादीनामिव भूतानां भवनधर्मणामाकाशादीनां येन चैकेन सद्रूपेण स्फुरणरूपेण च सर्वमिदं दृश्यजातं त्रिष्वपि कालेषु ततं व्याप्तं स्वात्मन्येवान्तर्भावितं कल्पितस्याधिष्ठानानतिरेकात्। तथाच श्रुतिःयतो वा इमानि भूतानि जायन्ते? येन जातानि जीवन्ति? यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति? तद्विजिज्ञासस्व तद्ब्रह्मेति। अत्र यत इति प्रकृतौ पञ्चमी। यतो येनेति चैकत्वं विवक्षितम्। आनन्दो ब्रह्मेति व्यजानात्? आनन्दाद्ध्येव खल्विमानि भूतानि जायन्ते इति च। तस्य निर्णयवाक्यंमायां तु प्रकृतिं विद्यान्मायिनं तु महेश्वरम् इत्यादि श्रुत्यन्तराच्च मायोपाधिलाभः।यः सर्वज्ञः सर्ववित् इत्यादि श्रुत्यन्तरात्सर्वज्ञत्वादिलाभः। एवं श्रौत एवायमर्थो भगवता प्रकाशितः।यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम् इति तमन्तर्यामिणं भगवन्तं स्वकर्मणा प्रतिवर्णाश्रमं विहितेनाभ्यर्च्य तोषयित्वा तत्प्रसादादैकात्म्यज्ञाननिष्ठायोग्यतालक्षणां सिद्धिमन्तःकरणशुद्धिं विन्दति मानवो? देवादिस्तूपासनामात्रेणेति भावः।
।।18.46।।तं प्रकारमेवाऽऽह -- यत इति। यतो भगवतः भूतानां प्राणिनां प्रवृत्तिरुत्पत्तिर्भवति? सर्वकर्मसु वा यतः प्रवृत्तिः प्रकर्षेण वर्तनमनुसरणं भवति? येन कारणरूपेण इदं सर्वं विश्वं ततं व्याप्तं? तं भगवन्तं स्वकर्मणा आत्मकर्मणा भक्त्या अभ्यच्य सम्पूज्य मानवः मनोर्जातो मनुष्यः सद्धर्मरूपः सिद्धिं विन्दति लभत इत्यर्थः।
।।18.46।। --,यतः यस्मात् प्रवृत्तिः उत्पत्तिः चेष्टा वा यस्मात् अन्तर्यामिणः ईश्वरात् भूतानां प्राणिनां स्यात्? येन ईश्वरेण सर्वम् इदं ततं जगत् व्याप्तम् स्वकर्मणा पूर्वोक्तेन प्रतिवर्णं तम् ईश्वरम् अभ्यर्च्य पूजयित्वा आराध्य केवलं ज्ञाननिष्ठायोग्यतालक्षणां सिद्धिं विन्दति मानवः मनुष्यः।।यतः एवम्? अतः --,
।।18.46।।तत्प्रकारमाह सार्द्धेन -- स्वकर्मेति। स्पष्टम्।यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी [15।4] ब्रह्मणा येनाक्षरेण भगवत्स्वरूपेणेदं ततं तमेवाभ्यर्च्य? न तु देवान्तरं? तदा सिद्धिं मुक्तिं प्राप्नोति स्वकर्मणेति द्रढयति।