ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति।समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्।।18.54।।
brahma-bhūtaḥ prasannātmā na śhochati na kāṅkṣhati samaḥ sarveṣhu bhūteṣhu mad-bhaktiṁ labhate parām
Becoming Brahman, serene in the Self, he neither grieves nor desires; he is the same to all beings, and obtains supreme devotion to Me.
18.54 ब्रह्मभूतः having become Brahman? प्रसन्नात्मा sereneminded? न not? शोचति (he) grieves? न not? काङ्क्षति desires? समः the same? सर्वेषु all? भूतेषु in beings? मद्भक्तिम् devotion unto Me? लभते obtains? पराम् supreme.Commentary Brahmabhutah Having attained to Brahman. His attainment of perfect freedom or oneness with the Supreme is described in the next verse.He is tranilminded. He is in a state of balance and eanimity. There is nothing connected with the little personality that may cause him to grieve or prompt him to feel desire. When this state is attained? the multiplicity of objects gradually disappears and he perceives only unity everywhere. The waking and dream consciousness that gives rise to false knowledge gradually passes away.He does not grieve about his bodily wants. If he fails in his attempt to fulfil them? he does not grieve either. He always keeps evenness of mind in success and failure. He has no longing for any object that is not attained.Na sochati na kankshati can also be interpreted as he neither grieves nor exults.Samah sarveshu bhuteshu may also mean he puts himself in the position of others and feels for others. If anyone is in acute agony or distress? he himself feels that he is affected. His heart is very tender and soft. He is extremely compassionate and merciful. He considers that the pleasure and pain of all beings are his own. If others rejoice he also rejoices if others are in distress? he also is distressed. His heart is so much expanded that he feels for all. Jealousy? narrowness of heart? pettymindedness? the idea of separateness? all barriers that separate man from man? prejudices of all sorts and dislike for others -- all vanished in toto. He has cosmic love. He is a cosmic benefactor. He is the friend of all. This state of expansion is beyond description. One has to experience it for oneself. Such a devotee or aspirant attains supreme devotion to Me? the fourth or the highest of the four kinds of devotion mentioned in verse 16 of chapter VII? viz.? devotion of knowledge of the man of wisdom. (Cf.II.70)
।।18.54।। व्याख्या -- ब्रह्मभूतः -- जब अन्तःकरणमें विनाशशील वस्तुओंका महत्त्व मिट जाता है? तब अन्तःकरणकी अहंकार? घमंड आदि वृत्तियाँ शान्त हो जाती हैं अर्थात् उनका त्याग हो जाता है। फिर अपने पास जो वस्तुएँ हैं? उनमें भी ममता नहीं रहती। ममता न रहनेसे सुख और भोगबुद्धिसे वस्तुओंका संग्रह नहीं होता। जब सुख और भोगबुद्धि मिट जाती है? तब अन्तःकरणमें स्वतःस्वाभाविक ही शान्ति आ जाती है।इस प्रकार साधक जब असत्से ऊपर उठ जाता है? तब वह ब्रह्मप्राप्तिका पात्र बन जाता है। पात्र बननेपर उसकी ब्रह्मभूतअवस्था अपनेआप हो जाती है। इसके लिये उसको कुछ करना नहीं पड़ता। इस अवस्थामें मैं ब्रह्मस्वरूप हूँ और ब्रह्म मेरा स्वरूप है ऐसा उसको अपनी दृष्टिसे अनुभव हो जाता है। इसी अवस्थाको यहाँ (और गीता 5। 24 में भी) ब्रह्मभूतः पदसे कहा गया है।प्रसन्नात्मा -- जब अन्तःकरणमें असत् वस्तुओंका महत्त्व हो जाता है? तब उन वस्तुओंको प्राप्त करनेकी कामना पैदा हो जाती है और अशान्ति (हलचल) पैदा हो जाती है। परन्तु जब असत् वस्तुओंका महत्त्व मिट जाता है? तब साधकके चित्तमें स्वाभाविक ही प्रसन्नता रहती है। अप्रसन्नताका कारण मिट जानेसे फिर कभी अप्रसन्नता होती ही नहीं। कारण कि सांख्ययोगी साधकके अन्तःकरणमें अपनेसहित संसारका अभाव और परमात्मतत्त्वका भाव अटल रहता है।न शोचति न काङ्क्षति -- उस प्रसन्नताकी पहचान यह है कि वह शोकचिन्ता नहीं करता। सांसारिक कितनी ही बड़ी हानि हो जाय? तो भी वह शोक नहीं करता और अमुक परिस्थिति प्राप्त हो जाय -- ऐसी इच्छा भी नहीं करता। तात्पर्य है कि उत्पन्न और नष्ट होनेवाली तथा आनेजानेवाली परिवर्तनशील परिस्थिति? वस्तु? व्यक्ति? पदार्थ आदिके बननेबिगड़नेसे उसपर कोई असर ही नहीं पड़ता। जो परमात्मामें अटलरूपसे स्थित है? उसपर आनेजानेवाली परिस्थितियोंका असर हो ही कैसे सकता हैसमः सर्वेषु भूतेषु -- जबतक साधकमें किञ्चिन्मात्र भी हर्षशोक? रागद्वेष आदि द्वन्द्व रहते हैं? तबतक वह सर्वत्र व्याप्त परमात्माके साथ अभिन्नताका अनुभव नहीं कर सकता। अभिन्नताका अनुभव न होनेसे वह अपनेको सम्पूर्ण भूतोंमें सम नहीं देख सकता। परन्तु जब साधक हर्षशोकादि द्वन्द्वोंसे सर्वथा रहित हो जाता है? तब परमात्माके साथ स्वतःस्वाभाविक अभिन्नता (जो कि सदासे ही थी) का अनुभव हो जाता है। परमात्माके साथ अभिन्नता होनेसे? अपना कोई व्यक्तित्व (टिप्पणी प0 948) (व्यक्तित्व उसे कहते हैं? जिसमें मनुष्य अपनी सत्ता अलग मानता है और जिससे बन्धन होता है) न रहनेसे अर्थात् मैं हूँ इस रूपसे अपनी कोई अलग सत्ता न रहनेसे वह सम्पूर्ण प्राणियोंमें सम है -- समोऽहं सर्वभूतेषु (गीता 9। 29)? ऐसे ही वह भी सम्पूर्ण प्राणियोंमें सम हो जाता है।वह सम्पूर्ण प्राणियोंमें सम किस प्रकार होता है जैसे -- मनोराज्य और स्वप्नमें जो नाना सृष्टि होती है? उसमें मन ही अनेक रूप धारण करता है अर्थात् वह सृष्टि मनोमयी होती है। मनोमयी होनेसे जैसे सब सृष्टिमें मन है और मनमें सब सृष्टि है? ऐसे ही सब प्राणियोंमें (आत्मरूपसे) वह है और उसमें सम्पूर्ण प्राणी हैं (गीता 6। 29)। इसीको यहाँ समः सर्वेषु भूतेषु कहा है।मद्भक्तिं लभते पराम् -- जब समरूप परमात्माके साथ अभिन्नताका अनुभव होनेसे साधकका सर्वत्र समभाव हो जाता है? तब उसका परमात्मामें प्रतिक्षण वर्धमान एक विलक्षण आकर्षण? खिंचाव? अनुराग हो जाता है। उसीको यहाँ पराभक्ति कहा है।पाँचवें अध्यायके चौबीसवें श्लोकमें जैसे ब्रह्मभूतअवस्थाके बाद ब्रह्मनिर्वाणकी प्राप्ति बतायी है -- स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति? ऐसे ही यहाँ ब्रह्मभूतअवस्थाके बाद पराभक्तिकी प्राप्ति बतायी है। सम्बन्ध -- अब आगेके श्लोकमें पराभक्तिका फल बताते हैं।
।।18.54।। अहंकार और उसकी विभिन्न अभिव्यक्तियों के परित्याग से साधक का मन शान्त हो जाता है। प्राय मन के असंयमित होने तथा जीवन के त्रुटिपूर्ण मूल्यांकन के कारण ही अन्तकरण में विक्षेप और संभ्रम उत्पन्न होते हैं। उनकी निवृत्ति से मन आपेक्षिक शान्ति को प्राप्त करता है। प्रयत्नपूर्वक प्राप्त की गयी शान्ति स्वरूपानुभव से स्वाभाविक बन जाती है।कृत्रिम शान्ति को स्वाभाविक शान्ति में परिवर्तित करने के लिए शारीरिक प्रयत्नों की आवश्यकता नहीं होती। इसके लिए तो मन की सतत सजगता की ही अपेक्षा होती है। प्राय यह देखा जाता है कि कर्तृत्व के अभिमान का त्याग करने पर भी? साधक में यदि वैराग्य की कुछ न्यूनता हो? तो उसके मन में भोक्तृत्व का अभिमान उत्पन्न हो जाता है। इसी भोक्तृत्वाभिमान के कारण अनेक साधकगण पुन भोगों में आसक्त हो जाते हैं। इसीलिए? साधक को अत्यधिक सजग रहना चाहिए। कर्तृत्व और भोक्तृत्व इन दोनों का नाश होना अनिवार्य है।इस श्लोक में प्रयुक्त ब्रह्मभूत शब्द उस साधक को दर्शाता है? जिसने अध्यात्म शास्त्र का श्रवण और मनन करके अपने ब्रह्मस्वरूप को पहचान लिया है। इसका अर्थ यह नहीं हुआ कि उसने ब्रह्मस्वरूप में निष्ठा प्राप्त कर ली है? तथापि? इस ज्ञान के कारण मन के विक्षेपों की संख्या घटती जाती है। उपाधितादात्म्य से ही विक्षेप उत्पन्न होते हैं? परन्तु विवेकी पुरुष का प्रयत्न उस तादात्म्य की निवृत्ति के लिए ही होता है। जिस मात्रा में वह अपने विवेकी स्वरूप का भान बनाये रखने में समर्थ होता है? उसी मात्रा में उसका अन्तकरण प्रसन्न? अर्थात् शान्त? शुद्ध और स्थिर रहता है।उपर्युक्त गुणों को सम्पादित कर लेने पर साधक की विषयोपभोग की इच्छा समाप्त प्राय हो जाती है। वह भोग की आकांक्षा नहीं करता ( न कांक्षति)। इच्छा के न होने पर शोक का भी अभाव हो जाता है (न शोचति)। इष्ट फल के प्राप्त न होने पर अथवा उसके नष्ट हो जाने पर दुख अवश्यंभावी है। परन्तु विवेकी साधक इन दोनों के बन्धनों से मुक्त हो जाता है। इच्छा? शोक आदि अहंकार के धर्म है? शुद्ध आत्मा के नहीं।जिस विवेकी साधक का सुख बाह्यविषयनिरपेक्ष हो जाता है? वह अपने उस आत्मस्वरूप का दर्शन करता है? जो भूतमात्र की आत्मा है। अत वह समस्त भूतों के प्रति सम हो जाता है।उक्त गुणों से युक्त साधक मेरी परा भक्ति को प्राप्त कर लेता है। इसके पूर्व? एक सम्पूर्ण अध्याय में भक्तियोग का विस्तृत विवेचन किया गया था। भक्ति प्रेमस्वरूप है। प्रेम का मापदण्ड है? प्रियतम के साथ तादात्म्य उस के साथ पूर्णत एकरूप हो जाना। इस पूर्ण तादात्म्य के लिए साधक का उपाधियों के साथ तादात्म्य तथा विषय संग सर्वथा समाप्त हो जाना चाहिए। प्रस्तुत प्रकरण के तीन श्लोकों में उल्लिखित गुणों से युक्त पुरुष ही परमात्मा की परा भक्ति का अधिकारी होता है।साधना के अन्तिम सोपान को अगले श्लोक में बताया गया है
।।18.54।।अपेक्षितं पूरयन्नुत्तरश्लोकमवतारयति -- अनेनेति। बुद्ध्या विशुद्धयेत्यादिरत्र क्रमः? ब्रह्मप्राप्तो जीवन्नेव निवृत्ताशेषानर्थो निरतिशयानन्दं ब्रह्मात्मत्वेनानुभवन्नित्यर्थः। अध्यात्मं प्रत्यगात्मा तस्मिन्प्रसादः सर्वानर्थनिवृत्त्या परमानन्दाविर्भावः स लब्धो येन जीवन्मुक्तेन स तथा। न शोचतीत्यादौ तात्पर्यमाह -- ब्रह्मभूतस्येति। प्राप्तव्यपरिहार्याभावनिश्चयादित्यर्थः। स्वभावानुवादमुपपादयति -- नहीति। तस्याप्राप्तविषयाभावान्नापि परिहार्यापरिहारप्रयुक्तः शोकः परिहार्यस्यैवाभावादित्यर्थः। पाठान्तरे तु रमणीयं प्राप्य न प्रमोदते तदभावादित्यर्थः। विवक्षितं समदर्शनं विशदयति -- आत्मेति। ननु सर्वेषु भूतेष्वात्मनः समस्य निर्विशेषस्य दर्शनमत्राभिप्रेतं किं नेष्यते तत्राह -- नात्मेति। उक्तविशेषणवतो जीवन्मुक्तस्य ज्ञाननिष्ठा प्रागुक्तक्रमेण प्राप्ता सुप्रतिष्ठिता भवतीत्याह -- एवंभूत इति। श्रवणमनननिदिध्यासनवतः शमादियुक्तस्याभ्यस्तैः श्रवणादिभिर्ब्रह्मात्मन्यपरोक्षं मोक्षफलं ज्ञानं सिध्यतीत्यर्थः। आर्तादिभक्तित्रयापेक्षया ज्ञानलक्षणा भक्तिश्चतुर्थीत्युक्ता। तत्र सप्तमस्थवाक्यमनुकूलयति -- चतुर्विधा इति।
।।18.54।।अनेन क्रमेण ब्रह्मभूतः ब्रह्मभवनसमर्थत्वाद् ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा प्रसन्नः कर्तत्वादिविनिर्मुक्तः आविर्भूतानन्द आत्मा प्रत्यगात्मा यस्य स लब्धात्मप्रसादः न शोचति किंचिदर्थवैकल्यमात्मनो वैगुण्यं चोद्दिश्य न शोचति न संतप्यते। न काङ्क्षति अप्राप्तं वस्तु ब्रह्मभूतस्य शोकाकाङ्क्षयोरनुपपन्नत्वात्तस्य स्वभावोऽनुद्यते न शोचति न काङ्क्षतीति। न हृष्यतीति वा पाठः। रमणीयं प्राप्य न प्रमोदते तस्य मिथ्यात्वेन निश्चयादित्यर्थः। सर्वेषु भूतेषु समः सुखं दुःखं वा आत्मौपम्येन सभमेव पश्यतीत्यर्थः। नत्वात्मसमदर्शनमिह ग्राह्यम्। भक्त्या मामभिजानातीति तस्य वक्ष्यमाणत्वात्। य एवंभूतः स मद्विषयां भक्तिं,आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी चेत्यत्रोक्तां चतुर्थी ज्ञानलक्षणाम्।तेषां ज्ञानी नित्युक्त एकभक्तिर्विशिष्यते इत्युक्तां परामनुत्तमां लभते प्राप्नोति।
।।18.54।।अस्यैवं शान्तस्य केवलस्य योगिनो व्युत्थानावस्थामाह -- ब्रह्मभूत इति। यो हि सुप्तौ वा निपतितो योगी व्युत्थाने जडदेहस्तमोग्रस्तचित्त इव तन्द्रालुरुत्तिष्ठति ब्रह्मभूतस्तु प्रसन्नात्मा प्रसन्नचेताः लघुशरीरः अमृतेनेव समाधिसुखेन तृप्तस्तदेकप्रवणो न शोचति नष्टम्। नाप्यप्राप्तं काङ्क्षति दारादिकम्। सर्वेषु भूतेषु चतुर्विधेषु समः ब्रह्मैवेदं सर्वमिति बुद्ध्या वैषम्यवर्जितः सन् परां मद्भक्तिं द्वैतदृष्टिविवर्जितां भावनां लभते। पातञ्जलयोगी तु न व्युत्थाने परां दृष्टिं लभते भेददर्शित्वात्। अयं च भक्तः श्रीभागवते दर्शितःसर्वभूतेषु येनैकं भगवद्भावमीक्षते। भूतानि भगवत्यात्मन्येष भागवतोत्तमःइति। सोऽयं चतुर्थो भक्तोज्ञानी त्वात्मैव मे मतम् इति भगवतापि दर्शितः।
।।18.54।।ब्रह्मभूतः आविर्भूतापरिच्छिन्नज्ञानैकाकारमच्छेषतैकस्वभावात्मस्वरूपः।इतस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम्। (गीता 7।5) इति हि स्वशेषता उक्ता।प्रसन्नात्मा क्लेशकर्मादिभिः अकलुषस्वरूपो मद्व्यतिरिक्तं न कञ्चन भूतविशेषं प्रति शोचति न कञ्चन काङ्क्षति अपि तु मद्व्यतिरिक्तेषु सर्वेषु भूतेषु अनादरणीयतायां समो निखिलं वस्तुजातं तृणवत् मन्यमानो मद्भक्तिं लमते पराम्।मयि सर्वेश्वरे निखिलजगदुद्भवस्थितिप्रलयलीले निरस्तसमस्तहेयगन्धे अनवधिकातिशयासंख्येयकल्याणगुणगणैकताने लावण्यामृतसागरे श्रीमति पुण्डरीकनयने स्वस्वामिनि अत्यर्थप्रियानुभवरूपां परां भक्तिं लभते।तत्फलम् आह --
।।18.54।।ब्रह्माहमित्येवं नैश्चल्येनावस्थानस्य फलमाह -- ब्रह्मभूत इति। ब्रह्मभूतो ब्रह्मण्यवस्थितः प्रसन्नचित्तो नष्टं न शोचति। न चाप्राप्तं काङ्क्षति देहाद्यभिमानाभावात्। अतएव सर्वेष्वपि भूतेषु समः सन् रागद्वेषादिकृतविक्षेपाभावात्सर्वभूतेषु मद्भावनालक्षणां परां मद्भक्तिं लभते।
।।18.54।।एवं कर्मयोगादिसाध्यप्रत्यगात्मानुभवस्य परभक्त्यधिकारापादकत्वमुच्यतेब्रह्मभूतः इति श्लोकेन। तदभिप्रायेण परशेषतैकस्वभावत्वस्याप्याविर्भाव उक्तः। योगसाध्यं ब्रह्माख्यमिह ब्रह्मत्वमित्यभिप्रायेणापरिच्छिन्नज्ञानाविर्भावोक्तिः। शेषत्वस्य स्वरूपानुबन्धित्वं प्रागेवोक्तमित्याहइतस्त्वन्यामिति।रागादिदूषिते चित्ते नास्पदी मधुसूदनः [वि.ध.9।10] इत्याद्युक्तपरभक्त्यनर्हतानिवृत्तिःप्रसन्नात्मा इत्युच्यत इत्याह -- क्लेशकर्मादिभिरकल्मषस्वरूप इति। आदिशब्देन विपाकाशययोर्ग्रहणं? तयोरपि कालुष्यरूपत्वात्क्लेशकर्मविपाकाशयैः [पा.यो.1।24] इति सन्नियोगशिष्टत्वाच्च। अविद्यास्मितादयः पञ्च क्लेशाः? कर्म पुण्यपापरूपं? जात्यायुर्भोगाः विपाकाः? आशयाः संस्काराः।यस्मिन् स्थितो न दुःखेन गुरुणाऽपि विचाल्यते [6।22] इति प्रागुक्तंन शोचति इति परामृष्टम्। तथायं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः [6।22],इत्युक्तंन काङ्क्षति इति स्मारितम्। अत्रन प्रहृष्यति इति पाठान्तरमप्रसिद्धत्वादनङ्गीकृतम्। तत्रात्मानुभवसुखेन बाह्यवैतृष्ण्यं तावज्जायते? परमात्मनस्तु प्रत्यगात्मनोऽप्यधिकसुखतया श्रुतत्वात्तदनुबुभूषास्थायिनीत्यभिप्रायेण मद्व्यतिरिक्तशब्दः।,शोककाङ्क्षानुदयहेतुःसमः इत्युच्यते इत्यभिप्रायेण -- अनादरणीयतायां सम इत्युक्तम्। तुल्यानादर इत्यर्थः। परावरतत्त्वविवेकफलमन्यानादरसाम्यं व्यनक्ति -- निखिलमिति।वस्तुजातमित्यनेन ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्तानामेव मेर्वपेक्षया माषसर्षपादीनामिवावान्तरोत्कर्षस्यानादरयोग्यत्वं सूचितम्।तृणवदिति -- नहि रत्नपर्वतमारुरुक्षोः पलालकूटे सङ्गः स्यादिति भावः। अत्र मच्छब्देन परभक्त्युत्पत्तिविवृद्ध्यर्थतया पूर्वत्र शास्त्रान्तरेषु च प्रपञ्चितानामुपासनदशायामनुसन्धेयानां चाकाराणामभिप्रेतत्वमाहमयि सर्वेश्वर इत्यादिभिः।सर्वेश्वर -- इति ईशितव्यस्य बद्धस्य किं तथाभूतैः ईशितव्यान्तरैरिति भावः।निखिलजगदुद्भवस्थितिप्रलयलील इति -- कारणं तु ध्येयः [अ.शिखो.3] इति हि श्रुतिरिति भावः। यद्वा करणकलेवरप्रदानादिभिर्महोपकारके चतुर्विधहेतुभूते तस्मिन् तिष्ठति सृष्टिसंहारकर्मतयैवावस्थितः कोऽन्यः समाश्रयणीय इति भावः।निरस्तसमस्तहेयगन्ध इति -- नह्यस्मिन्यथावत्प्रतीते वस्त्वन्तरेष्विवावज्ञावैमुख्यादिकारणमस्तीति भावः।अनवधिकेत्यादि एकैकगुणप्रकर्षोऽपि चित्ताकर्षकः किमुतैवं सम्भूत इति भावः। यद्धि परं सुलभं च तदेव ह्याश्रयणीयमिति सौलभ्योपयुक्तगुणानामप्यत्र सङ्ग्रहः।लावण्यामृतसागर इति शुभाश्रय विग्रहगुणोपलक्षणम्।श्रीमतीति -- श्रीर्हि सर्वेषामाश्रयणीया? साप्येनं नित्यमाश्रितेति हृदयम्। श्रीयते श्रयते चेति श्रीशब्दो निरुक्तः। मतुम्नित्ययोगे। श्रुतिश्च -- ह्रीश्च(श्रीश्च)ते लक्ष्मीश्च पत्न्यौ [यजुस्सं.31।22] इत्यादिका। स्मर्यते च -- नित्यैवैषा जगन्माता विष्णोः श्रीरनपायिनी। यथा सर्वगतो विष्णुस्तथैवेयं ৷৷ [वि.पु.1।8।17] इति। एतेनोपास्यत्वप्राप्यत्वादिकं सर्वं सपत्नीकस्येति ज्ञापितम्। आमनन्ति च रहस्याम्नायविद इममेवार्थं -- नित्यसन्निहितशक्तिः इति।पुण्डरीकनयन इत्यवयवसौन्दर्योपलक्षणम्। तस्य यथा कप्यासं पुण्डरीकमेवमक्षिणी तस्योदिति नाम (सः) एष सर्वेभ्यः पाप्मभ्यः उदित उदेति ह वै सर्वेभ्यः पाप्मभ्यो य एवं वेद [छा.उ.1।6।7] इति सर्वपापविमोक्षकामस्योपासनार्थतया पुण्डरीकाक्षत्वमप्युपदिष्टम्।चक्षुषा तव सौम्येन पूताऽस्मि [वा.रा.3।34।13]यं पश्येन्मधुसूदनः इत्यादिषु च तद्वीक्षणस्य पावनतमत्वमुच्यत इति भावः। भक्त्युत्पत्त्यादौ सर्वमिदमेकतः? स्वामित्वं चैकतः? नचासावेकोनसर्वस्वामीत्यभिप्रायेणाऽऽह -- स्वस्वामिनीति।
।।18.41 -- 18.60।।एवमियता षण्णां प्रत्येकं त्रिस्वरूपत्वं धृत्यादीनां च प्रतिपादितम्। तन्मध्यात् सात्त्विके राशौ वर्तमानो दैवीं संपदं प्राप्त इह ज्ञाने योग्यः? त्वं च तथाविधः इत्यर्जुनः प्रोत्साहितः।अधुना तु इदमुच्यते -- यदि तावदनया ज्ञानबुद्ध्या कर्मणि भवान् प्रवर्तते तदा स्वधर्मप्रवृत्त्या विज्ञानपूततया च न कर्मसंबन्धस्तव। अथैतन्नानुमन्यसे? तदवश्यं तव प्रवृत्त्या तावत् भाव्यम् जातेरेव तथाभावे स्थितत्वात्। यतः सर्वः स्वभावनियतः ( S??N स्वस्वभावनियतः ) कुतश्चिद्दोषात् तिरोहिततत्स्वभावः ( S??N -- हिततत्तत्स्वभावः ) कंचित्कालं भूत्वापि? तत्तिरोधायकविगमे स्वभावं व्यक्त्यापन्नं लभत एव। तथाहि एवंविधो,वर्णनां स्वभावः। एवमवश्यंभाविन्यां प्रवृत्तौ ततः फलविभागिता भवेत्।।तदाह -- ब्राह्मणेत्यादि अवशोऽपि तत् इत्यन्तम्। ब्राह्मणादीनां कर्मप्रविभागनिरूपणस्य स्वभावोऽश्यं नातिक्रामति,( S? ? N omit न and read अतिक्रामति ) इति क्षत्रियस्वभावस्य भवतोऽनिच्छतोऽपि प्रकृतिः स्वभावाख्या नियोक्तृताम् अव्यभिचारेण भजते। केवलं तया नियुक्तस्य पुण्यपापसंबन्धः। अतः मदभिहितविज्ञानप्रमाणपुरःसरीकारेण कर्माण्यनुतिष्ठ। तथा सति बन्धो निवर्त्स्यति। इत्यस्यार्थस्य परिकरघटनतात्पर्यं ( S? ? N -- करबन्धघटन -- ) महावाक्यार्थस्य। अवान्तरवाक्यानां स्पष्टा ( ष्टोऽ ) र्थः।समासेन ( S omits समासेन ) ( श्लो. 50 ) संक्षेपेण। ज्ञानस्य? प्रागुक्तस्य। निष्ठां ( ष्ठा ) वाग्जालपरिहारेण निश्चितामाह। बुद्ध्या विशुद्धया इत्यादि सर्वमेतत् व्याख्यातप्रायमिति न पुनरायस्यते,( N -- रारभ्यते )।
।।18.54।।केन क्रमेण ब्रह्मभूयाय कल्पत इति तदाह -- ब्रह्म भूत इति। ब्रह्मभूतोऽहं ब्रह्मास्मीति दृढनिश्चयवान् श्रवणमननाभ्यासात्। प्रसन्नात्मा शुद्धचित्तः शमदमाद्यभ्यासात्। अतएव न शोचति नष्टं? न,काङ्क्षत्यप्राप्तम्। अतएव निग्रहानुग्रहयोरनारम्भात् समः सर्वेषु भूतेष्वात्मौपम्येन सर्वत्र सुखं दुःखं च पश्यतीत्यर्थः। एवंभूतो ज्ञाननिष्ठो यतिर्मद्भक्तिं मयि भगवति शुद्धे परमात्मनि भक्तिमुपासनां मदाकारचित्तवृत्त्यावृत्तिरूपां परिपाकनिदिध्यासनाख्यां श्रवणमननाभ्यासफलभूतां लभते परां श्रेष्ठामव्यवधानेन साक्षात्कारफलां? चतुर्विधा भजन्ते मामित्यत्रोक्तस्य भक्तिचतुष्टयस्यान्त्यां ज्ञानलक्षणमिति वा।
।।18.54।।ब्रह्मात्मावस्थितेः फलमाह -- ब्रह्मभूत इति। ब्रह्मात्मावस्थितः? प्रसन्नः आनन्दयुक्त आत्मा चेतो यस्य तादृशः सन्? नष्टपदार्थेषु भगवल्लीलाज्ञानेन न शोचति? प्राप्तव्यं तदिच्छां विना न काङ्क्षति। सर्वेषु भूतेषु कार्यात्मकस्वरूपज्ञानेन समः परां प्रेमलक्षणां मद्भक्तिं लभते।
।।18.54।। -- ब्रह्मभूतः ब्रह्मप्राप्तः प्रसन्नात्मा लब्धाध्यात्मप्रसादस्वभावः न शोचति? किञ्चित् अर्थवैकल्यम्? आत्मनः वैगुण्यं वा उद्दिश्य न शोचति न संतप्यते न काङ्क्षति? न हि अप्राप्तविषयाकाङ्क्षा ब्रह्मविदः उपपद्यते अतः ब्रह्मभूतस्य अयं स्वभावः अनूद्यते -- न शोचति न काङ्क्षति इति। न हृष्यति इति वा पाठान्तरम्। समः सर्वेषु भूतेषु? आत्मौपम्येन सर्वभूतेषु सुखं दुःखं वा सममेव पश्यति इत्यर्थः। न आत्मसमदर्शनम् इह? तस्य वक्ष्यमाणत्वात् भक्त्या मामभिजानाति (गीता 18।55) इति। एवंभूतः ज्ञाननिष्ठः? मद्भक्तिं मयि परमेश्वरे भक्तिं भजनं पराम् उत्तमां ज्ञानलक्षणां चतुर्थीं लभते? चतुर्विधा भजन्ते माम् (गीता 7।16) इति हि उक्तम्।।ततः ज्ञानलक्षणया --,
।।18.54।।स ब्रह्मभूतः सर्वनिरपेक्षः शुक इव परां ज्ञानादपि फलरूपां मम पुरुषोत्तमस्य क्षराक्षरातीतस्य भक्तिं नवविधां प्रेमलक्षणां लभते? आत्मारामाश्च मुनयो निर्ग्रन्था अप्युरुक्रमे। कुर्वन्त्यहैतुकीं भक्तिमित्थम्भूतगुणो हरिः,[5।7।10] इत्यादिभागवतवाक्यात्। अत्रमद्भक्तिं इत्यनेनाक्षरब्रह्मात्मत्वज्ञानिनो जीवन्मुक्तस्यापि पुरुषोत्तमभक्तिरेवातिशयितपुरुषार्थो भगवताऽऽभिमतः? न त्वक्षरब्रह्मैक्यं साङ्ख्यादिनेति गम्यते। अन्यथैवं नोक्तं स्यात्। न चेहब्रह्मभूयाय कल्पते इत्येव न ब्रह्मरूप इत्यतोविशते तदनन्तरं [18।55] इत्यैक्यमेवायातीति वाच्यम्? अग्रेब्रह्मभूतः इति सिद्धनिर्देशस्तदनन्तरं प्रत्युत तस्य भक्तिलाभकथनात्? तयाऽक्षरातीतपुरुषोत्तमतत्त्वाभिज्ञानतः पुरुषोत्तमस्वरूपप्रवेशोक्तेश्च अतोऽक्षरज्ञानरूपं प्रमाणमार्गादधिकोऽयं प्रमेयमार्गः पुरुषोत्तमसम्बन्धपर्यवसायीति।अक्षरब्रह्ममार्गे हि अक्षरब्रह्मोपासनम्? ततः श्रवणादीच्छा? ततः श्रवणादिसिद्ध्यर्थकज्ञानतोऽक्षरात्मैक्यफलम्। भगवन्मार्गे तु भगवदीयस्वधर्माचरणद्वारा श्रीपुरुषोत्तमभजनं तत्कृपयाक्षरात्मब्रह्मभावेऽपि श्रवणकीर्तनसेवनादिभिः पुनरपि श्रीशुकोद्धवादेरिव पुरुषोत्तमभक्त्या प्रवेश एव एकं कामिकं फलमिति भेदः। अतएववदन्ति तत्तत्त्वविदः [भाग.1।2।11] इत्यत्र यशोदोत्सङ्गलालितं पुरुषोत्तमतत्त्वं भगवानिति सात्वतः? उपासतेअक्षरं ब्रह्म इति साङ्ख्याः?परमात्मा इति योगिन इत्युक्तम्। ते च यथायथं निर्गुणसगुणभक्तिज्ञानकर्मभावधीविषयाः। निर्गुणपरभक्तिविषयस्तु पुष्टिपुरुषोत्तम एव गुणातीतः लोकवेदाप्रथितः। इदं सर्वंगतेरर्थवत्त्वमुभयथाऽन्यथा हि विरोधः [ब्र.सू.3।3।29] इति सूत्रे विचारितं भाष्यकारेणेति ततोऽवगन्तव्यम्।