BG - 18.56

सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्व्यपाश्रयः।मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम्।।18.56।।

sarva-karmāṇy api sadā kurvāṇo mad-vyapāśhrayaḥ mat-prasādād avāpnoti śhāśhvataṁ padam avyayam

  • sarva - all
  • karmāṇi - actions
  • api - though
  • sadā - always
  • kurvāṇaḥ - performing
  • mat-vyapāśhrayaḥ - take full refuge in me
  • mat-prasādāt - by my grace
  • avāpnoti - attain
  • śhāśhvatam - the eternal
  • padam - abode
  • avyayam - imperishable

Translation

Having taken refuge in Me and doing all actions, by My grace he obtains the eternal, indestructible state of being.

Commentary

By - Swami Sivananda

18.56 सर्वकर्माणि all actions? अपि also? सदा always? कुर्वाणः doing? मद्व्यपाश्रयः taking refuge in Me? मत्प्रसादात् by My grace? अवाप्नोति obtains? शाश्वतम् the eternal? पदम् state or abode? अव्ययम् indestructible.Commentary Worshipping Me with the flowers of his good actions he reaches the imperishable Brahmic seat of ineffable splendour through My grace. He attains union with Me and enjoys the supreme bliss. If by chance he commits some prohibited actions? still? as in the Ganga (Indias most holy river) the waters of the drains and roads find union? so My devotee? becoming united with Me? is unaffected by these prohibited actions.Worship of the Lord through ones duties purifies the heart of the aspirant and prepares him for the devotion to knowledge which eventually leads him to the attainment of Selfrealisation. The Yoga of Devotion is eulogised here.All actions Good actions and even the prohibited actions. He who takes shelter in Me? Vaasudeva? the Lord? with his whole self centred in Me attains the eternal abode of Vishnu? by the grace of the Lord.

By - Swami Ramsukhdas , in hindi

।।18.56।। व्याख्या --   मद्व्यपाश्रयः -- कर्मोंका? कर्मोंके फलका? कर्मोंके पूरा होने अथवा न होनेका? किसी घटना? परिस्थिति? वस्तु? व्यक्ति आदिका आश्रय न हो। केवल मेरा ही आश्रय (सहारा) हो। इस तरह जो सर्वथा मेरे ही परायण हो जाता है? अपना स्वतन्त्र कुछ नहीं समझता? किसी भी वस्तुको अपनी नहीं मानता? सर्वथा मेरे आश्रित रहता है? ऐसे भक्तको अपने उद्धारके लिये कुछ करना नहीं पड़ता। उसका उद्धार मैं कर देता हूँ (गीता 12। 7) उसको अपने जीवननिर्वाह या साधनसम्बन्धी किसी बातकी कमी नहीं रहती सबकी मैं पूर्ति कर देता हूँ (गीता 9। 22) -- यह मेरा सदाका एक विधान है? नियम है? जो कि सर्वथा शरण हो जानेवाले हरेक प्राणीको प्राप्त हो सकता है (गीता 9। 30 -- 32)।सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणः -- यहाँ कर्माणि पदके साथ सर्व और कुर्वाणः पदके साथ सदा पद देनेका तात्पर्य है कि जिस ध्यानपरायण सांख्ययोगीने शरीर? वाणी और मनका संयमन कर लिया है अर्थात् जिसने शरीर आदिकी क्रियाओंको संकुचित कर लिया है और एकान्तमें रहकर सदा ध्यानयोगमें लगा रहता है? उसको जिस पदकी प्राप्ति होती है? उसी पदको लौकिक? पारलौकिक? सामाजिक? शारीरिक आदि सम्पूर्ण कर्तव्यकर्मोंको हमेशा करते हुए भी मेरा आश्रय लेनेवाला भक्त मेरी कृपासे प्राप्त कर लेता है।हरेक व्यक्तिको यह बात तो समझमें आ जाती है कि जो एकान्तमें रहता है और साधनभजन करता है? उसका कल्याण हो जाता है परन्तु यह बात समझमें नहीं आती कि जो सदा मशीनकी तरह संसारका सब काम करता है? उसका कल्याण कैसे होगा उसका कल्याण हो जाय? ऐसी कोई युक्ति नहीं दीखती क्योंकि ऐसे तो सब लोग कर्म करते ही रहते हैं। इतना ही नहीं? मात्र जीव कर्म करते ही रहते हैं? पर उन सबका कल्याण होता हुआ दीखता नहीं और शास्त्र भी ऐसा कहता नहीं इसके उत्तरमें भगवान् कहते हैं -- मत्प्रसादात्। तात्पर्य यह है कि जिसने केवल मेरा ही आश्रय ले लिया है? उसका कल्याण मेरी कृपासे हो जायगा? कौन है मना करनेवालायद्यपि प्राणिमात्रपर भगवान्का अपनापन और कृपा सदासर्वदा स्वतःसिद्ध है? तथापि यह मनुष्य जबतक असत् संसारका आश्रय लेकर भगवान्से विमुख रहता है? तबतक भगवत्कृपा उसके लिये फलीभूत नहीं होती अर्थात् उसके काममें नहीं आती। परन्तु यह मनुष्य भगवान्का आश्रय लेकर ज्योंज्यों दूसरा आश्रय छोड़ता जाता है? त्योंहीत्यों भगवान्का आश्रय दृढ़ होता चला जाता है? और ज्योंज्यों भगवान्का आश्रय दृढ़ होता जाता है? त्योंहीत्यों भगवत्कृपाका अनुभव होता जाता है। जब सर्वथा भगवान्का आश्रय ले लेता है? तब उसे भगवान्की कृपाका पूर्ण अनुभव हो जाता है।अवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम् -- स्वतःसिद्ध परमपदकी प्राप्ति अपने कर्मोंसे? अपने पुरुषार्थसे अथवा अपने साधनसे नहीं होती। यह तो केवल भगवत्कृपासे ही होती है। शाश्वत अव्ययपद सर्वोत्कृष्ट है। उसी परमपदको भक्तिमार्गमें परमधाम? सत्यलोक? वैकुण्ठलोक? गोलोक? साकेतलोक आदि कहते हैं और ज्ञानमार्गमें विदेहकैवल्य? मुक्ति? स्वरूपस्थिति आदि कहते हैं। वह परमपद तत्त्वसे एक होते हुए भी मार्गों और उपासनाओंका भेद होनेसे उपासकोंकी दृष्टिसे भिन्नभिन्न कहा जाता है (गीता 8। 21 14। 27)। भगवान्का चिन्मय लोक एक देशविशेषमें होते हुए भी सब जगह व्यापकरूपसे परिपूर्ण है। जहाँ भगवान् हैं? वहीं उनका लोक भी है क्योंकि भगवान् और उनका लोक तत्त्वसे एक ही हैं। भगवान् सर्वत्र विराजमान हैं अतः उनका लोक भी सर्वत्र विराजमान (सर्वव्यापी) है। जब भक्तकी अनन्य निष्ठा सिद्ध हो जाती है? तब परिच्छिन्नताका अत्यन्त अभाव हो जाता है और वही लोक उसके सामने प्रकट हो जाता है अर्थात् उसे यहाँ जीतेजी ही उस लोककी दिव्य लीलाओंका अनुभव होने लगता है। परन्तु जिस भक्तकी ऐसी धारणा रहती है कि वह दिव्य लोक एक देशविशेषमें ही है? तो उसे उस लोककी प्राप्ति शरीर छोड़नेपर ही होती है। उसे लेनेके लिये भगवान्के पार्षद आते हैं और कहींकहीं स्वयं भगवान् भी आते हैं। सम्बन्ध --   पूर्वश्लोकमें अपना सामान्य विधान (नियम) बताकर अब भगवान् आगेके श्लोकमें अर्जुनके लिये विशेषरूपसे आज्ञा देते हैं।

By - Swami Chinmayananda , in hindi

।।18.56।। गीता का तत्त्वज्ञान अत्यन्त जीवन्त और शक्तिशाली है। सरल और सामान्य प्रतीत होने वाला? भगवान् का यह दिव्य गान मानो शक्ति के किसी विस्फोटक पदार्थ का भंडार है जिसे सम्यक् ज्ञान द्वारा विस्फोटित किया जा सकता है।इसके उपदेशानुसार जीवन जीने की उष्णता पाकर वह भण्डार फूट पड़ता है। उसके विस्फोट से एक साधक के श्रेष्ठ एवं दिव्य व्यक्तित्व की संभावनाओं पर जमी हुई अज्ञान की वे समस्त पर्तें ध्वस्त हो जाती हैं। गीता के अनुसार? केवल निष्क्रिय समर्पण अथवा कर्मकाण्ड का अनुष्ठान ही भक्ति नहीं है। कर्तृत्व और भोक्तृत्व के अभिमान का परित्याग कर परमात्मा से तादात्म्य स्थापित करना भक्ति है। भगवान् श्रीकृष्ण इस बात पर भी विशेष बल देते हैं कि साधक को अपने ज्ञान एवं अनुभव को व्यावहारिक जीवन में भी जीने का पूर्ण प्रयत्न करना चाहिए।भगवान् श्रीकृष्ण के मतानुसार धर्म की पूर्णता विषयों से केवल विरति और निजानुभूति में ही नहीं हैं। उनका यह निश्चित मत है कि ज्ञानी पुरुष को आत्मानुभव के पश्चात् पुन व्यावहारिक जगत् में आकर कर्म करने चाहिए। परन्तु ये कर्म निजानुभव की शान्ति और आनन्द से सुरभित हों? जिससे कि यह मन्द और म्लान जगत् तेजोमय और कान्तिमय बन जाये। इसलिए? परम भक्त बनने के लिए एक और आवश्यक गुण का वर्णन इस श्लोक में किया गया है।निस्वार्थ समाज सेवा के अधिकार पत्र के बिना? गीताचार्य भगवान् श्रीकृष्ण न तो किसी भक्त का स्वागत करना चाहते हैं और न किसी को अपना दर्शन देना चाहते हैं। उनकी यह स्पष्ट घोषणा है? जो पुरुष मदाश्रित होकर समस्त कर्म करता है? वह मेरे प्रसाद से अव्यय पद को प्राप्त कर लेता है।ईश्वरार्पण की भावना से ही कर्तृत्वाभिमान को त्यागा जा सकता है। इस भावना से कर्तव्य पालन करने वाले साधक को ईश्वर का प्रसाद? अर्थात् अनुग्रह (कृपा) प्राप्त होता है।अपनी कृपा से भिन्न ईश्वर का अस्तित्व ही नहीं है? ईश्वर ही स्वयं अपनी कृपा है और उसकी कृपा ही वह स्वयं है। अत कृपाप्राप्ति का अभिप्राय यह है कि जिस मात्रा में साधक का अन्तकरण शान्त? शुद्ध? स्थिर और सुगठित होगा? उसी मात्रा में उसे परमात्मनुभूति स्पष्ट होगी। परमात्मा नित्य (शाश्वत) और अविकारी (अव्यय) है। इसलिए? भगवान् कहते हैं कि उत्तम साधक उनकी कृपा से शाश्वत? अव्यय पद को प्राप्त होता है।प्रस्तुत प्रकरण में? भगवान् श्रीकृष्ण ने ज्ञान? भक्ति एवं कर्म मार्गों को इंगित किया है। इन सबका लक्ष्य एक ही है साधक का साध्य के साथ एकत्व का अनुभव। सम्पूर्ण साधना गीतोपदेश का सार है। कर्म? भक्ति और ज्ञान की संयुक्त रूप में साधना करने से हमारे व्यक्तित्व के शारीरिक? मानसिक एवं बौद्धिक इन तीनों पक्षों में सामञ्जस्य आ जाता है। कर्मयोग? भक्तियोग एवं ज्ञानयोग का क्रमश शरीर? मन और बुद्धि के स्तर पर पालन करने के लिए गीता में उपदेश दिया गया है। इस प्रकार? द्रष्टामन्ताज्ञाता रूप जीव को अपने आत्मस्वरूप में पूर्ण स्थिति सिद्ध कराने में गीतोपदेश का प्रमुख योगदान है। हिन्दुओं की औपनिषदिक संस्कृति के पुनरुत्थान में गीता का महत्वपूर्ण स्थान है।इस प्रकार? ब्रह्मप्राप्ति की साधना का क्रमबद्धविवेचन करने के पश्चात्? उपदेश देते हैं कि

By - Sri Anandgiri , in sanskrit

।।18.56।।तर्हि ज्ञाननिष्ठस्यैव मोक्षसंभवान्न कर्मानुष्ठानसिद्धिरित्याशङ्क्याह -- स्वकर्मणेति। तामेव सिद्धिप्राप्तिं विशिनष्टि -- ज्ञानेति। ज्ञाननिष्ठायोग्यतायै स्वकर्मानुष्ठानं भगवदर्चनरूपं कर्तव्यमित्यर्थः। ज्ञाननिष्ठायोग्यतापि किमर्थेत्याशङ्क्य ज्ञाननिष्ठासिद्ध्यर्थेत्याह -- यन्निमित्तेति। ज्ञाननिष्ठापि कुत्रोपयुक्तेत्यत्राह -- मोक्षेति। स्वकर्मणा भगवदर्चनात्मनो भक्तियोगस्य परम्परया मोक्षफलस्य कार्यत्वेन विधेयत्वे विध्यपेक्षितां स्तुतिमवतारयति -- स भगवदिति। ज्ञाननिष्ठा कर्मनिष्ठेत्युभयं प्रतिज्ञाय तत्र तत्र विभागेन प्रतिपादितं किमितीदानीं कर्मनिष्ठा पुनः स्तुत्या कर्तव्यतयोच्यते तत्राह -- शास्त्रार्थेति। तत्रतत्रोक्तस्यैव कर्मानुष्ठानस्य प्रकरणवशादिहोपसंहारः। स च शास्त्रार्थनिश्चयस्य दृढतां द्योतयतीत्यर्थः। यद्यपि कस्यचित्कर्मानुष्ठायिनो बुद्धिशुद्धिद्वारा कैवल्यं सिध्यति तथापि पापबाहुल्यात्कर्मानुष्ठायिनोऽपि कस्यचिद्बुद्धिशुद्ध्यभावे कैवल्यासिद्धिरित्याशङ्क्याह -- सर्वकर्माणीति। सर्वशब्दानुरोधादीश्वराराधनस्तुतिपरत्वेन श्लोकं व्याचष्टे -- प्रतिषिद्धान्यपीति। नित्यनैमित्तिकवदित्यपेरर्थः। निषिद्धाचरणस्य प्रामादिकत्वं व्यावर्तयति -- सदेति। अनुतिष्ठन्वैष्णवं पदमाप्नोतीति संबन्धः। पापकर्मकारिणो यथोक्तपदप्राप्तौ पापस्यापि मोक्षफलत्वमुपगतं स्यादित्यत्राह -- मद्व्यपाश्रय इति। तस्यैव तात्पर्यमाह -- मयीति। तर्हि ज्ञानस्य मोक्षहेतुत्वमुपेक्षितं स्यादित्यत्राह -- सोऽपीति। प्रसादोऽनुग्रहः सम्यग्ज्ञानोदयः पदं पदनीयमुपनिषत्तात्पर्यगम्यमव्ययमपक्षयरहितम्।

By - Sri Dhanpati , in sanskrit

।।18.56।।एवं शुद्धान्तःकरणस्य संन्यासधिकारिणो ब्रह्मप्राप्तिक्रममभिधायानात्मज्ञस्याशुद्धान्तःकरणस्य संन्यासनधिकारिणो ब्रह्मप्राप्तिसाधनं भगवद्भक्तियोग्यं तत्र तत्र प्रतिपादतं शास्त्रार्थोपसंहारप्रकरणे शास्त्रार्थनिश्चयदार्ढ्याय स्तौति -- सर्वकर्माणीति। सर्वाणि नित्यनैमित्तिकादीनि प्रतिषिद्धान्पि सदा कुर्वाणोऽनुतिष्ठन्नपि मद्य्वपाश्रयोऽहं वासुदेव ईश्वरो व्यपाश्रय आश्रयणीयो यस्य स मद्य्वपाश्रयो मय्यर्पितसर्वात्मभावः मत्प्रासादान्ममेश्वरस्य प्रसादात् शाश्वतं नित्यमव्ययमपक्षयशून्यं पदं वैष्णवमवाप्नोति। निषिद्धान्यप्याचरन् शाश्वतं पदमव्ययमवाप्नोतीत्युक्त्या पापस्यापि मोक्षफलहेतुत्वं स्यादित्याशङ्कानिरासाय मद्य्वपाश्रयः मत्प्रसादादित्युक्तम्। तथाच येन भक्तियोगेन प्रसादितादौश्वरात्सर्वक्रमाण्यनुतिष्ठतोऽपि वैष्णवपदप्राप्तितस्य माहात्म्यं किं वक्तव्य मिति भाव।

By - Sri Madhavacharya , in sanskrit

।।18.56।।पुनरन्तरङ्गसाधनान्युक्त्वोपसंहरति -- सर्वकर्माणीत्यादिना।

By - Sri Neelkanth , in sanskrit

।।18.56।।ननुतद्यथैषीकातूलमग्नौ प्रोतं दूयेतैवं हास्य सर्वे पाप्मानः प्रदूयन्ते इति पूर्वकर्मणां ज्ञानेन प्रायश्चित्तेनेव सत्यपि नाशश्रवणे ज्ञानोत्तरकालीनानां कर्मणां नाशाभावात् ज्ञानोत्तरमपि देहधारणे स्वाभाविकानां कर्मणां वर्जनस्यासंभवादवश्यं ज्ञानिनोऽपि बन्धः स्यादित्याशङ्क्याह -- सर्वकर्माणीति। मद्व्यपाश्रयोऽहमेव प्रज्ञानघनः प्रत्यगात्मा व्यपाश्रय आश्रयो यस्य स मद्व्यपाश्रयो ज्ञानी। सर्वकर्माणि विहितानि निषिद्धानि वा सदाऽसकृत्कुर्वाणोऽपि मत्प्रसादान्मदनुग्रहात् शाश्वतं नित्यं अव्ययं परमसर्वोत्कृष्टं पदं पदनीयं मोक्षमवाप्नोति। न तु ज्ञानोत्तरमपि क्रियमाणैः कर्मभिर्बध्यते।तस्य पुत्रा दायमुपयन्ति सुहृदः साधुकृत्यां द्विषन्तः पापकृत्याम् इति?न ह वा एवविदि किंचन राज आध्वंसतेतं विदित्वा न लिप्यते कर्मणा पापकेन इत्यादिशास्त्रेण तत्त्वज्ञानिनः कर्मालेपश्रवणात्।

By - Sri Ramanujacharya , in sanskrit

।।18.56।।न केवलं नित्यनैमित्तिककर्माणि अपि तु काम्यानि अपि सर्वाणि कर्माणि मद्व्यपाश्रयः मयि संन्यस्तकर्तृत्वादिकः कुर्वाणो मत्प्रसादात् शाश्वतं पदम् अव्ययम् अविकलं प्राप्नोति। पद्यते गम्यते इति पदम् मां प्राप्नोति इत्यर्थः।यस्माद् एवं तस्मात् --

By - Sri Sridhara Swami , in sanskrit

।।18.56।।स्वकर्मभिः परमेश्वराराधनादुक्तं मोक्षप्रकारमुपसंहरति -- सर्वकर्माणीति। सर्वकर्माणि नित्यनैमित्तिकानि काम्यानि च कर्माणि पूर्वोक्तक्रमेण मद्व्यपाश्रयः सन् कुर्वाणोऽहमेव व्यपाश्रय आश्रयणीयो नतु स्वर्गादिफलं यस्य सः मत्प्रसादाच्छाश्वतमनादि अव्ययं नित्यं सर्वोत्कृष्टं वैष्णवं पदं प्राप्नोति।

By - Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha , in sanskrit

।।18.56।।पूर्वत्र ज्ञाननिष्ठोक्ता? अनन्तरं कर्मनिष्ठोच्यत इति शङ्काव्युदासाय पूर्वत्रापि कर्मनिष्ठायामेवावान्तरविशेषविपक्तिमनुवदन् सङ्गतिमाह -- एवमिति। विपाकोऽत्र पूर्वश्लोकद्वयोक्तपरभक्तिपरज्ञानपरमभक्तिपर्यन्तः। विहितकर्मणां पूर्वमुक्तत्वात्सर्वकर्माण्यपीति निषिद्धानुष्ठानं भगवदनन्यतास्तुत्यर्थमुपक्षिप्यत इति स्वैराभिलाषिशङ्करादिमतमपाकरोतिइदानीं काम्यानामपि कर्मणामिति। सर्वशब्दोऽत्र शास्त्रीयेष्वेवानुक्तसङ्ग्रहणार्थ इति भावः। तदेव विवृणोतिन केवलमित्यादिना। पूर्वश्लोकस्थप्राप्यमेवात्रापि सविशेषणपदशब्देन निर्दिष्टमित्यभिप्रायेण निर्वक्तिपद्यत इति।

By - Sri Abhinavgupta , in sanskrit

।।18.41 -- 18.60।।एवमियता षण्णां प्रत्येकं त्रिस्वरूपत्वं धृत्यादीनां च प्रतिपादितम्। तन्मध्यात् सात्त्विके राशौ वर्तमानो दैवीं संपदं प्राप्त इह ज्ञाने योग्यः? त्वं च तथाविधः इत्यर्जुनः प्रोत्साहितः।अधुना तु इदमुच्यते -- यदि तावदनया ज्ञानबुद्ध्या कर्मणि भवान् प्रवर्तते तदा स्वधर्मप्रवृत्त्या विज्ञानपूततया च न कर्मसंबन्धस्तव। अथैतन्नानुमन्यसे? तदवश्यं तव प्रवृत्त्या तावत् भाव्यम् जातेरेव तथाभावे स्थितत्वात्। यतः सर्वः स्वभावनियतः ( S??N स्वस्वभावनियतः ) कुतश्चिद्दोषात् तिरोहिततत्स्वभावः ( S??N -- हिततत्तत्स्वभावः ) कंचित्कालं भूत्वापि? तत्तिरोधायकविगमे स्वभावं व्यक्त्यापन्नं लभत एव। तथाहि एवंविधो वर्णनां स्वभावः। एवमवश्यंभाविन्यां प्रवृत्तौ ततः फलविभागिता भवेत्।।तदाह -- ब्राह्मणेत्यादि अवशोऽपि तत् इत्यन्तम्। ब्राह्मणादीनां कर्मप्रविभागनिरूपणस्य स्वभावोऽश्यं नातिक्रामति,( S? ? N omit न and read अतिक्रामति ) इति क्षत्रियस्वभावस्य भवतोऽनिच्छतोऽपि प्रकृतिः स्वभावाख्या नियोक्तृताम् अव्यभिचारेण भजते। केवलं तया नियुक्तस्य पुण्यपापसंबन्धः। अतः मदभिहितविज्ञानप्रमाणपुरःसरीकारेण कर्माण्यनुतिष्ठ। तथा सति बन्धो निवर्त्स्यति। इत्यस्यार्थस्य परिकरघटनतात्पर्यं ( S? ? N -- करबन्धघटन -- ) महावाक्यार्थस्य। अवान्तरवाक्यानां स्पष्टा ( ष्टोऽ ) र्थः।समासेन ( S omits समासेन ) ( श्लो. 50 ) संक्षेपेण। ज्ञानस्य? प्रागुक्तस्य। निष्ठां ( ष्ठा ) वाग्जालपरिहारेण निश्चितामाह। बुद्ध्या विशुद्धया इत्यादि सर्वमेतत् व्याख्यातप्रायमिति न पुनरायस्यते,( N -- रारभ्यते )।

By - Sri Jayatritha , in sanskrit

।।18.56।।उत्तरग्रन्थस्य सङ्गतिं सूचयंस्तात्पर्यमाह -- पुनरिति। उपसंहरति? शास्त्रमिति शेषः।

By - Sri Madhusudan Saraswati , in sanskrit

।।18.56।।ननु योऽनात्मज्ञोऽशुद्धान्तःकरणः सोऽन्तःकरणशुद्धिपर्यन्तं सहजं कर्म न त्यजेत्। यस्तु शुद्धान्तःकरणः स नैष्कर्म्यसिद्धिं संन्यासेनाधिगच्छतीत्युक्तं संन्यासश्च ब्राह्मणेनैव कर्तव्यो न क्षत्रियवैश्याभ्यामिति प्रागुक्तं भगवताकर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादय इत्यत्र। तत्र शुद्धान्तःकरणेन क्षत्रियादिना किं कर्माण्यनुष्ठेयानि किं सर्वकर्मसंन्यासः कर्तव्यः। नाद्यःआरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते। योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते इत्यादिना योगमन्तःकरणशुद्धिमारूढस्य कर्मानुष्ठाननिषेधात्। न द्वितीयः।स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः इत्यादिना ब्राह्मधर्मस्य सर्वकर्मसंन्यासस्य क्षत्रियादिकं प्रति निषेधात्। नच कर्मानुष्ठानकर्मत्यागयोरन्यतरमन्तरेण तृतीयः प्रकारोऽस्ति। तस्मादुभयोरपि प्रतिषिद्धत्वे गत्यन्तराभावेन चावश्यकर्तव्ये प्रतिषेधातिक्रमे कर्मत्याग एव श्रेयान् बन्धहेतुपरित्यागेन मोक्षसाधनपौष्कल्यान्नतु कर्माण्यनुष्ठेयानि चित्तविक्षेपहेतुत्वेन मोक्षसाधनज्ञानप्रतिबन्धकत्वादित्यभिप्रायमर्जुनस्यालक्ष्याह भगवान् -- सर्वकर्माण्यपीति। यः पूर्वोक्तः कर्मभिः शुद्धान्तःकरणः सोऽवश्यं भगवदेकशरणो भगवदेकशरणतार्पयन्तत्वादन्तःकरणशुद्धेः? एतादृशश्चेद्ब्राह्मणः संन्यासप्रतिबन्धरहितः सर्वकर्माणि संन्यस्यतु नाम संसारविमोक्षस्तु तस्य भगवदेकशरणस्य भगवत्प्रसादादेव। एतादृशश्चेत्क्षत्रियादिः संन्यासानधिकारी स करोतु नाम कर्माणि किंतु मद्व्यपाश्रयोऽहं भगवान्वासुदेव एव व्यपाश्रयः शरणं यस्य स मदेकशरणो,मय्यर्पितसर्वात्मभावः संन्यासानधिकारात्सर्वकर्माणि सर्वाणि कर्माणि वर्णाश्रमधर्मरूपाणि लौकिकानि प्रतिषिद्धानि वा सदा कुर्वाणो मत्प्रसादान्ममेश्वरस्यानुग्रहादवाप्नोति। हिरण्यगर्भवन्मद्विज्ञानोत्पत्त्या शाश्वतं नित्यं पदं वैष्णवमव्ययमपरिणाम्येतादृशो भगवदेकशरणः करोत्येव न प्रतिषिद्धानि कर्माणि। यदि कुर्यात्तथापि मत्प्रसादात्प्रत्यवायानुत्पत्त्या मद्विज्ञानेन मोक्षभाग्भवतीति भगवदेकशरणतास्तुत्यर्थं सर्वकर्माणि सर्वदा कुर्वाणोऽपीत्यनूद्यते।

By - Sri Purushottamji , in sanskrit

।।18.56।।एवं स्वकर्मफलमुक्त्वा स्वसम्बन्धिकर्मफलमाह -- सर्वकर्माण्यपीति। सदा निरन्तरं मद्व्यपाश्रयः अहमेवाश्रयणीयो यस्य तादृशः सन् सर्वकर्माण्यपि मदाज्ञारूपेण? न तु फलाभिलाषेण कुर्वाणो मत्प्रसादात् शाश्वतमनादि? अव्ययमविनाशि? एतादृशं पदमक्षरमवाप्नोति? प्राप्नोतीत्यर्थः।

By - Sri Shankaracharya , in sanskrit

।।18.56।। --,सर्वकर्माण्यपि प्रतिषिद्धान्यपि सदा कुर्वाणः अनुतिष्ठन् मद्व्यपाश्रयः अहं वासुदेवः ईश्वरः व्यपाश्रयणं यस्य सः मद्व्यपाश्रयः मय्यर्पितसर्वभावः इत्यर्थः। सोऽपि मत्प्रसादात् मम ईश्वरस्य प्रसादात् अवाप्नोति शाश्वतं नित्यं वैष्णवं पदम् अव्ययम्।।यस्मात् एवम् --,

By - Sri Vallabhacharya , in sanskrit

।।18.56।।इदानीं सर्वेषामपि कर्मणामुक्तिविधयाऽनुष्ठीयमानानां तु सतामेष एव विपाक इत्याह -- सर्वेति। यो भगवन्मार्गीयत्वादृशः सर्वाणि लौकिकानि वैदिकानि च स्वधर्मरूपाणि कर्माणि मदधीनः सन्कुर्वाणः भगवानेवान्तर्यामी प्रेरयति? तदिच्छया कृतं कर्म बन्धकं न भवतीति भगवन्तं मामाश्रितः स मत्प्रसादान्मत्कृपातः नित्यं पदं ब्रह्माक्षरं धामाप्नोति। इदमप्येकं परं फलं भक्तितत्त्वज्ञानतः पुरुषोत्तमसायुज्यमित्याशयेनअव इत्युपसर्गः।