मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि।अथ चेत्त्वमहङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि।।18.58।।
mach-chittaḥ sarva-durgāṇi mat-prasādāt tariṣhyasi atha chet tvam ahankārān na śhroṣhyasi vinaṅkṣhyasi
Fixing your mind on Me, you shall, by My grace, overcome all obstacles; but if you will not hear Me due to egoism, you shall perish.
18.58 मच्चित्तः fixing thy mind on Me? सर्वदुर्गाणि all obstacles? मत्प्रसादात् by My grace? तरिष्यसि (thou) shalt overcome? अथ now? चेत् if? त्वम् thou? अहङ्कारात् from egoism? न not? श्रोष्यसि (thou) wilt hear? विनङ्क्ष्यसि (thou) shalt perish.Commentary When thy mind? O Arjuna? through onepointed devoion is fixed on Me? thou shalt by My grace cross over all difficulties and obstacles. But shouldst thou not take My teaching to heart and through pride disregard it? thou shalt be ruined.Difficulties Obstacles? snares? pitfalls? temptations on the spiritual path and various sorts of other difficulties of Samsara? diseases? etc.Egosim The idea that thou art a learned man. Thou shouldst not think I am independent. I know everything. I am a wise man. Why should I take the advice of another
।।18.58।। व्याख्या -- मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि -- भगवान् कहते हैं कि मेरेमें चित्तवाला होनेसे तू मेरी कृपासे सम्पूर्ण विघ्न? बाधा? शोक? दुःख आदिको तर जायगा अर्थात् उनको दूर करनेके लिये तुझे कुछ भी प्रयास नहीं करना पड़ेगा।भगवद्भक्तने अपनी तरफसे सब कर्म भगवान्के अर्पण कर दिये? स्वयं भगवान्के अर्पित हो गया? समताके आश्रयसे संसारकी संयोगजन्य लोलुपतासे सर्वथा विमुख हो गया और भगवान्के साथ अटल सम्बन्ध जोड़ लिया। यह सब कुछ हो जानेपर भी वास्तविक तत्त्वकी प्राप्तिमें यदि कुछ कमी रह जाय या सांसारिक लोगोंकी अपेक्षा अपनेमें कुछ विशेषता देखकर अभिमान आ जाय अथवा इस प्रकारके कोई सूक्ष्म दोष रह जायँ? तो उन दोषोंको दूर करनेकी साधकपर कोई जिम्मेवारी नहीं रहती? प्रत्युत उन दोषोंको? विघ्नबाधाओंको दूर करनेकी पूरी जिम्मेवारी भगवान्की हो जाती है। इसलिये भगवान् कहते हैं -- मत्प्रसादात्तरिष्यसि अर्थात् मेरी कृपासे सम्पूर्ण विघ्नबाधाओँको तर जायगा। इसका तात्पर्य यह निकला कि भक्त अपनी तरफसे? उसको जितना समझमें आ जाय? उतना पूरी सावधानीके साथ कर ले? उसके बाद जो कुछ कमी रह जायगी? वह भगवान्की कृपासे पूरी हो जायगी।मनुष्यका अगर कुछ अपराध हुआ है तो वह यही हुआ है कि उसने संसारके साथ अपना सम्बन्ध मान लिया और भगवान्से विमुख हो गया। अब उस अपराधको दूर करनेके लिये वह अपनी ओरसे संसारका सम्बन्ध तोड़कर भगवान्के सम्मुख हो जाय। सम्मुख हो जानेपर जो कुछ कमी रह जायगी? वह भगवान्की कृपासे पूरी हो जायगी। अब आगेका सब काम भगवान् कर लेंगे। तात्पर्य यह हुआ कि भगवत्कृपा प्राप्त करनेमें संसारके साथ किञ्चित् भी सम्बन्ध मानना और भगवान्से विमुख हो जाना -- यही बाधा थी। वह बाधा उसने मिटा दी तो अब पूर्णताकी प्राप्ति भगवत्कृपा अपनेआप करा देगी।जिसका प्रकृति और प्रकृतिके कार्य शरीरादिके साथ सम्बन्ध है? उसपर ही शास्त्रोंका विधिनिषेध? अपने वर्णआश्रमके अनुसार कर्तव्यका पालन आदि नियम लागू होते हैं और उसको उनउन नियमोंका पालन,जरूर करना चाहिये। कारण कि प्रकृति और प्रकृतिके कार्य शरीरादिके सम्बन्धको लेकर ही पापपुण्य होते हैं और उनका फल सुखदुःख भी भोगना पड़ता है। इसलिये उसपर शास्त्रीय मर्यादा और नियम विशेषतासे लागू होते हैं। परन्तु जो प्रकृति और प्रकृतिके कार्यसे सर्वथा ही विमुख होकर भगवान्के सम्मुख हो जाता है? वह शास्त्रीय विधिनिषेध और वर्णआश्रमोंकी मर्यादाका दास नहीं रहता। वह विधिनिषेधसे भी ऊँचा उठ जाता है अर्थात् उसपर विधिनिषेध लागू नहीं होते क्योंकि विधिनिषेधकी मुख्यता प्रकृतिके राज्यमें ही रहती है। प्रभुके राज्यमें तो शरणागतिकी ही मुख्यता रहती है।जीव साक्षात् परमात्माका अंश है (गीता 15। 7)। यदि वह केवल अपने अंशी परमात्माकी ही तरफ चलता है तो उसपर देव? ऋषि? प्राणी? मातापिता आदि आप्तजन और दादापरदादा आदि पितरोंका भी कोई ऋण नहीं रहता (टिप्पणी प0 957) क्योंकि शुद्ध चेतन अंशने इनसे कभी कुछ लिया ही नहीं। लेना तभी बनता है? जब वह जड शरीरके साथ अपना सम्बन्ध जोड़ लेता है और सम्बन्ध जोड़नेसे ही कमी आती है नहीं तो उसमें कभी कमी आती ही नहीं -- नाभावो विद्यते सतः (गीता 2। 16)। जब उसमें कभी कमी आती ही नहीं? तो फिर वह उनका ऋणी कैसे बन सकता है यही सम्पूर्ण विघ्नोंको तरना हैसाधनकालमें जीवननिर्वाहकी समस्या? शरीरमें रोग आदि अनेक विघ्नबाधाएँ आती हैं परन्तु उनके आनेपर भी भगवान्की कृपाका सहारा रहनेसे साधक विचलित नहीं होता। उसे तो उन विघ्नबाधाओंमें भगवान्की विशेष कृपा ही दीखती है। इसलिये उसे विघ्नबाधाएँ बाधारूपसे दीखती ही नहीं? प्रत्युत कृपारूपसे ही दीखती हैं।पारमार्थिक साधनमें विघ्नबाधाओंके आनेकी तथा भगवत्प्राप्तिमें आड़ लगनेकी सम्भावना रहती है। इसके लिये भगवान् कहते हैं कि मेरा आश्रय लेनेवालेके दोनों काम मैं कर दूँगा अर्थात् अपनी कृपासे साधनकी सम्पूर्ण विघ्नबाधाओंको भी दूर कर दूँगा और उस साधनके द्वारा अपनी प्राप्ति भी करा दूँगा।अथ चेत्त्वमहंकारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि -- भगवान् अत्यधिक कृपालुताके कारण आत्मीयतापूर्वक अर्जुनसे कह रहे हैं कि अथ -- पक्षान्तरमें मैंने जो कुछ कहा है? उसे न मानकर अगर अहंकारके कारण अर्थात् मैं भी कुछ जानता हूँ? करता हूँ तथा मैं कुछ समझ सकता हूँ? कुछ कर सकता हूँ आदि भावोंके कारण तू मेरी बात नहीं सुनेगा? मेरे इशारेके अनुसार नहीं चलेगा? मेरा कहना नहीं मानेगा? तो तेरा पतन हो जायगा -- विनङ्क्ष्यसि।यद्यपि अर्जुनके लिये यह किञ्चिन्मात्र भी सम्भव नहीं है कि वह भगवान्की बात न सुने अथवा न माने? तथापि भगवान् कहते हैं कि चेत् -- अगर तू मेरी बात नहीं सुनेगा तो तेरा पतन हो जायगा। तात्पर्य यह है कि अगर तू अज्ञता अर्थात् अनजानपनेसे मेरी बात न सुने अथवा किसी भूलके कारण न सुने? तो यह सब क्षम्य है परन्तु यदि तू अहंकारसे मेरी बात नहीं सुनेगा तो तेरा पतन हो जायगा क्योंकि अहंकारसे मेरी बात न सुननेसे तेरा अभिमान बढ़ जायगा? जो सम्पूर्ण आसुरी सम्पत्तिका मूल है।पहले चौथे अध्यायमें भगवान् स्वयं अपने श्रीमुखसे कहकर आये हैं कि तू मेरा भक्त और प्रिय सखा है -- भक्तोऽसि मे सखा चेति (4। 3) और फिर नवें अध्यायमें उन्होंने कहा है कि हे अर्जुन तू प्रतिज्ञा कर कि मेरे भक्तका पतन नहीं होता -- कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति (9। 31)। इससे सिद्ध हुआ कि अर्जुन भगवान्के भक्त हैं अतः वे कभी भगवान्से विमुख नहीं हो सकते और उनका पतन भी कभी नहीं हो सकता। परन्तु वे अर्जुन भी यदि भगवान्की बात नहीं सुनेंगे तो भगवान्से विमुख हो जायँगे और भगवान्से विमुख होनेके कारण उनका भी पतन हो जायगा। तात्पर्य यह है कि भगवान्से विमुख होनेके कारण ही प्राणिका पतन होता है अर्थात् वह जन्ममरणके चक्करमें पड़ता है (गीता 9। 3 16। 20)।विशेष बातइसी अध्यायके छप्पनवें श्लोकमें भगवान्ने प्रथम पुरुष अवाप्नोति का प्रयोग करके सामान्य रीतिसे सबके लिये कहा कि मेरी कृपासे परमपदकी प्राप्ति हो जाती है? और यहाँ मध्यम पुरुष तरिष्यसि का प्रयोग करके अर्जुनके लिये कहते हैं कि मेरी कृपासे तू विघ्नबाधाओंको तर जायगा। इन दोनों बातोंका तात्पर्य यह है कि भगवान्की कृपामें जो शक्ति है? वह शक्ति किसी साधनमें नहीं है। इसका अर्थ यह नहीं कि साधन न करें? प्रत्युत परमात्मप्राप्तिके लिये साधन करना मनुष्यका स्वाभाविक धर्म होना चाहिये क्योंकि मनुष्यजन्म केवल परमात्मप्राप्तिके लिये ही मिला है। मनुष्यजन्मको प्राप्त करके भी जो परमात्माको प्राप्त नहीं करता? वह यदि ऊँचेसेऊँचे लोकोंमें भी चला जाय? तो भी उसे लौटकर संसार(जन्ममरण)में आना ही पड़ेगा (टिप्पणी प0 958) (गीता 8। 16)। इसलिये जब यह मनुष्यशरीर प्राप्त हुआ है? तो फिर मनुष्यको जीतेजी ही भगवत्प्राप्ति कर लेनी चाहिये और जन्ममरणसे रहित हो जाना चाहिये। कर्मयोगीके लिये भी भगवान्ने कहा है कि समतायुक्त पुरुष इस जीवितअवस्थामें ही पुण्य और पाप -- दोनोंसे रहित हो जाता है (गीता 2। 50)। तात्पर्य यह हुआ कि कर्मबन्धनसे सर्वथा रहित होना अर्थात् जन्ममरणसे रहित होना मनुष्यमात्रका परम ध्येय है।दसवें अध्यायके ग्यारहवें श्लोकमें भगवान्ने कहा है कि मैं अपनी कृपासे भक्तोंके अन्तःकरणमें ज्ञान प्रकाशित कर देता हूँ? और ग्यारहवें अध्यायके सैंतालीसवें श्लोकमें भगवान्ने कहा कि मैंने अपनी कृपासे ही विराट्रूप दिखाया है। उसी कृपाको लेकर भगवान् यहाँ कहते हैं कि मेरी कृपासे परमपदकी प्राप्ति हो जायगी (18। 56) और मेरी कृपासे ही सम्पूर्ण विघ्नोंको तर जायगा (18। 58)। परमपदको प्राप्त होनेपर किसी प्रकारकी विघ्नबाधा सामने आनेकी सम्भावना ही नहीं रहती। फिर भी सम्पूर्ण विघ्नबाधाओंको तरनेकी बात कहनेका तात्पर्य यह है कि अर्जुनके मनमें यह भय बैठा था कि युद्ध करनेसे मुझे पाप लगेगा युद्धके कारण कुलपरम्पराके नष्ट होनेसे पितरोंका पतन हो जायगा और इस प्रकार अनर्थपरम्परा बढ़ती ही जायगी हमलोग राज्यके लोभमें आकर इस महान् पापको करनेके लिये तैयार हो गये हैं? इसलिये मैं शस्त्र छोड़कर बैठ जाऊँ और धृतराष्ट्रके पक्षके लोग मेरेको मार भी दें? तो भी मेरा कल्याण ही होगा (गीता 1। 36 -- 46)। इन सभी बातोंको लेकर और अनेक जन्मोंके दोषोंको भी लेकर भगवान् अर्जुनसे कहते हैं कि मेरी कृपासे तू सब विघ्नोंको? पापोंको तर जायगा -- सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि। भगवान्ने बहुवचनमें दुर्गाणि पद देकर भी उसके साथ सर्व शब्द और जोड़ दिया है। इसका तात्पर्य यह है कि मेरी कृपासे तेरा किञ्चिन्मात्र भी पाप नहीं रहेगा कोई भी बन्धन नहीं रहेगा और मेरी कृपासे सर्वथा शुद्ध होकर तू परमपदको प्राप्त हो जायगा।
।।18.58।। सारांशत? साधक को सतत ईश्वर का स्मरण करते हुए अपने कर्तव्य कर्म करते रहने चाहिए। सतत अभ्यास करने पर शरीर और मन भी ऐसी अनुप्राणित बुद्धि का साथ देने लगते हैं? जो ईश्वर के अखण्ड स्मरण में रमती है।भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं? मच्चित्त होकर तुम मेरी कृपा से समस्त कठिनाइयों को पार कर जाओगे। हमारे जीवन में आने वाले अधिकांश विघ्न या प्रतिबन्ध केवल काल्पनिक होते हैं। मिथ्या भय और वृथा चिन्ता संभ्रमित मन के लक्षण हैं। मन के परमात्मस्वरूप में समाहित होने से प्राप्त होने वाले फल को ही कृपा कहते हैं। यहाँ कथित कृपा का अर्थ यह नहीं है कि करुणासागर भगवान् भक्त विशेष पर ही अपनी कृपा की वर्षा करते हैं? और अन्य जनों पर नहीं। भगवान् तो स्वयं कृपास्वरूप ही हैं। उनकी कृपा सर्वव्यापी है। आवश्यकता केवल हमारे अन्तकरण को शुद्ध करने की तथा विवेक को जाग्रत करने की है। शुद्धता और विवेक होने पर परमात्मा शुद्ध स्वरूप में प्रकट हो जाता है? जो साधक के हृदय में पहले से ही विद्यमान था। सूर्य का प्रकाश किसी से पक्षपात नहीं करता। परन्तु जो व्यक्ति अपने घर के द्वार और वातायन सदैव बन्द रखता है? वह सूर्य प्रकाश से वंचित रह जाता है। इसमें सूर्य को दोष नहीं दिया जा सकता।इस श्लोक की द्वितीय पंक्ति में भगवान् श्रीकृष्ण चेतावनी देते हैं कि अहंकारवश उनके उपदेश का पालन न करने पर मनुष्य अपना नाश ही कर लेगा। प्राकृतिक नियम अपरिवर्तनीय होते हैं उनके न नेत्र होते हैं न श्रोत्र। वे अपना काम लयबद्ध करते रहते हैं। जो मनुष्य इन नियमें को पहचान कर उनका पूर्ण पालन करता है? वही सुखी रहता है।यदि अहंकारवश तुम नहीं सुनोगे? तो तुम नष्ट हो जाओगे यह किसी क्रूर सत्ताधारी की मानव जाति को भयभीत करके उससे आज्ञा पालन करवाने के लिए दी गई धमकी नहीं है।अन्य धर्मों में दी गई नरक की धमकी के साथ इसकी तुलना नहीं करनी चाहिए। यह वस्तु स्थिति का कथन मात्र है। यदि न्यूटन भी अपने घर की छत से कूद पड़ता तो गुरुत्वाकर्षण की शक्ति निःक्ष्ड़ त्द्धड़श्चत रूप से उस पर भी अपना प्रभाव दिखाती ही प्रकृति के नियमों में एक निश्चितता है। बन्धन और मोक्ष? इन दो विकल्पों में से मनुष्य किसी का भी चयन करने में स्वतन्त्र है। मोक्षमार्ग का यहाँ वर्णन किया जा चुका है। प्रस्तुत कथन में भगवान् की केवल निर्मम स्पष्टवक्तृता तथा साधक के कल्याण की भावना ही स्पष्ट होती है। अपने इस स्पष्ट कथन से वे किसी बात को बनाना या बिगाड़ना नहीं चाहते।अन्तप्रेरणा की सौम्य एवं मधुर वाणी से हमें सदैव जीवन की सत्य पद्धति का मार्गदर्शन मिलता रहता है। परन्तु मनुष्य का अहंकार और स्वार्थ उस मधुर वाणी की उपेक्षा करके विषयोपभोग के निम्नस्तरीय जीवन का ही अनुकरण करता है। फलत वह अपने ही अनियन्त्रित मनोवेगों तथा अशुद्ध विचारों द्वारा दण्डित किया जाता है। अत यहाँ चेतावनी दी गई है कि तुम नष्ट हो जाओगे। यहाँ नाश का यह अर्थ है कि ऐसा अहंकारी पुरुष जीवन के परम पुरुषार्थ को नहीं प्राप्त कर सकता।अपने कथन को और अधिक स्पष्ट करते हुए भगवान् कहते हैं
।।18.58।।किमतो भवति तदाह -- मच्चित्त इति। भीत्यापि प्रवर्तेतेति मन्वानो विपर्यये दोषमाह -- अथ चेदिति।
।।18.58।।ततः किमित्यपेक्षायामाह -- मञ्चित्तः सर्वदुर्गाणि संसारहेतुभूताज्ञानादीनि मत्प्रसादात्तरिष्यस्यतिक्रमिष्यसि। व्यतिरेके दोषमाह -- अथ चेद्यदि मदुक्तमहंकारात् पण्डितेन मया स्वबुद्य्धा यद्विचारितं तदेव सभ्यगित्यभिमानान्न श्रोष्यसि न ग्रहीष्यसि ततस्त्वं विनङ्क्ष्यसि विनाशं गमिष्यसि पुरुषार्थाद्भ्रष्टो भविष्यसि।
।।18.58।।एतस्य भक्तियोगस्य करणे गुणमकरणे दोषं चाह -- मच्चित्त इति। दुर्गाणि आध्यात्मिकाधिभौतिकादीनि संकटानि। अहंकारात्स्वपाण्डित्याभिमानात् न श्रोष्यसि मद्वाक्यं तर्हि विनङ्क्ष्यसि पुरुषार्थशून्यो भविष्यसि।
।।18.58।।मच्चित्तः सर्वकर्माणि कुर्वन् सर्वाणि सांसारिकाणि दुर्गाणि मत्प्रसादाद् एव तरिष्यसि। अथ त्वम् अहंकाराद् अहम् एव कृत्याकृत्यविषयं सर्वं जानामि इति भावात् मदुक्तं न श्रोष्यसि चेद् विनङ्क्ष्यसि नष्टो भविष्यसि। न हि कश्चिद् मद्व्यतिरिक्तः कृत्स्नस्य प्राणिजातस्य कृत्याकृत्ययोः ज्ञाता शासिता वा अस्ति।
।।18.58।।ततो यद्भविष्यति तच्छृणु -- मच्चित्त इति। मच्चित्तः सन् मत्प्रसादात्सर्वाण्यपि दुर्गाणि दुस्तराणि सांसारिकाणि दुःखानि तरिष्यसि। विपक्षे दोषमाह -- अथ चेद्यदि पुनस्त्वमहकाराज्ज्ञातृत्वाभिमानान्मदुक्तमेतन्न श्रोष्यसि तर्हि विनङ्क्ष्यसि पुरुषार्थाद्भश्यसि।
।।18.58।।मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि इत्यत्र मच्चित्तशब्देन पूर्वश्लोकोक्तस्यैवानुवादात्तत्र च बुद्धिविशेषविशिष्टकर्मविधिपरत्वादुत्तरेष्वपि ग्रन्थेषु युद्धाख्यस्वधर्मप्रोत्साहनस्यैव स्फुटत्वादिहापि तद्विवक्षामाह -- एवं मच्चित्तः सर्वकर्माणि कुर्वन्निति। मच्चित्तत्वमात्रस्य विधेयत्वे अनन्तरं युद्धनिवृत्त्यध्यवसायप्रतिक्षेपो न सङ्गच्छत इति भावः। दुर्गशब्दस्य गिरिवनजलादिदुर्गेषु प्रसिद्धिप्रकर्षात्क्षत्ित्रयस्य चार्जुनस्य युयुत्सोस्तन्निस्तारापेक्षासम्भवात्तद्विषयत्वशङ्कामप्यपाकर्तुं पूर्वापरानुरोधेनसांसारिकाणीति विशेषितम्।मत्प्रसादात् इत्यनेन व्युत्पत्त्यनुशासनश्रुतिस्मृत्यादिविरुद्धापूर्वादिकल्पनाव्युदासः? स्वस्य फलप्रदाने प्रतिबन्धनिवृत्त्यादिमात्रसाकाङ्क्षत्वं च सूच्यत इत्यभिप्रायेणाऽऽहमत्प्रसादादेवेति। एवं नित्यनैमित्तिककाम्यरूपाणां कर्मणां बुद्धिविशेषनियमादियोगेन कर्मयोगशब्दितानां परम्परया परिपूर्णभगवत्प्राप्तिपर्यन्तं विपाकमुपपाद्य सर्वथा कर्मयोग एव ते कर्तव्य इति निगमितम्।,अथ तदकरणे प्रत्यवायमाह -- अथ चेत् इत्यर्धेन। हितवचनानादरस्य निमित्तभूतमहङ्कारविशेषमाहअहमेव कृत्याकृत्यविषयं सर्वं जानामीति भावादिति।न श्रोष्यसीति -- श्रूयमाणेऽपि श्रुतफलनिवृत्त्यभिप्रायम्।विनङ्क्ष्यसि इत्यनेनानादिकालमनुवृत्तस्यात्मनाशस्योत्तरकालेप्यनुवृत्तिर्विवक्षितेत्यभिप्रायेणाऽऽहनष्टो भविष्यसीति।बुद्धिनाशात्प्रणश्यति [2।63] इति प्रागुक्तप्रत्यभिज्ञापनमिति भावः। अश्रवणादिनिदानमाप्तान्तरादिसम्भवमपाकुर्वन्विनङ्क्ष्यसि इत्यस्य शापवचनतुल्यताव्यावृत्त्यर्थं स्वस्यैवाप्ततमत्वकथनेन स्वोपदिष्टस्यार्थस्थितिरुपतायामभिप्रायमाहनहि कश्चिदिति। अन्ये हि वक्तारो मया वाचिताः परिमितविषयं किञ्चिद्वदन्ति अहं तु सर्वस्याधिकारिणः सर्वविधहिताहितवेदा यानि च परोक्तानि शास्त्राण्यनुक्तानि च च्छन्दांसि? तान्यपि मदाज्ञारूपतयैव प्रमाणभूतानीति भावः।
।।18.41 -- 18.60।।एवमियता षण्णां प्रत्येकं त्रिस्वरूपत्वं धृत्यादीनां च प्रतिपादितम्। तन्मध्यात् सात्त्विके राशौ वर्तमानो दैवीं संपदं प्राप्त इह ज्ञाने योग्यः? त्वं च तथाविधः इत्यर्जुनः प्रोत्साहितः।अधुना तु इदमुच्यते -- यदि तावदनया ज्ञानबुद्ध्या कर्मणि भवान् प्रवर्तते तदा स्वधर्मप्रवृत्त्या विज्ञानपूततया च न कर्मसंबन्धस्तव। अथैतन्नानुमन्यसे? तदवश्यं तव प्रवृत्त्या तावत् भाव्यम् जातेरेव तथाभावे स्थितत्वात्। यतः सर्वः स्वभावनियतः ( S??N स्वस्वभावनियतः ) कुतश्चिद्दोषात् तिरोहिततत्स्वभावः ( S??N -- हिततत्तत्स्वभावः ) कंचित्कालं भूत्वापि? तत्तिरोधायकविगमे स्वभावं व्यक्त्यापन्नं लभत एव। तथाहि एवंविधो वर्णनां स्वभावः। एवमवश्यंभाविन्यां प्रवृत्तौ ततः फलविभागिता भवेत्।।तदाह -- ब्राह्मणेत्यादि अवशोऽपि तत् इत्यन्तम्। ब्राह्मणादीनां कर्मप्रविभागनिरूपणस्य स्वभावोऽश्यं नातिक्रामति,( S? ? N omit न and read अतिक्रामति ) इति क्षत्रियस्वभावस्य भवतोऽनिच्छतोऽपि प्रकृतिः स्वभावाख्या नियोक्तृताम् अव्यभिचारेण भजते। केवलं तया नियुक्तस्य पुण्यपापसंबन्धः। अतः मदभिहितविज्ञानप्रमाणपुरःसरीकारेण कर्माण्यनुतिष्ठ। तथा सति बन्धो निवर्त्स्यति। इत्यस्यार्थस्य,परिकरघटनतात्पर्यं ( S? ? N -- करबन्धघटन -- ) महावाक्यार्थस्य। अवान्तरवाक्यानां स्पष्टा ( ष्टोऽ ) र्थः।समासेन ( S omits समासेन ) ( श्लो. 50 ) संक्षेपेण। ज्ञानस्य? प्रागुक्तस्य। निष्ठां ( ष्ठा ) वाग्जालपरिहारेण निश्चितामाह। बुद्ध्या विशुद्धया इत्यादि सर्वमेतत् व्याख्यातप्रायमिति न पुनरायस्यते,( N -- रारभ्यते )।
।।18.58।।ततः किं स्यादिति तदाह -- मच्चित्त इति। मच्चित्तस्त्वं सर्वदुर्गाणि दुस्तराणि कामक्रोधादीनि संसारदुःखसाधनानि मत्प्रसादात्स्वव्यापारमन्तरेणैव तरिष्यस्यनायासेनैवातिक्रमिष्यसि। अथचेत् यदि तु त्वं मदुक्ते विश्वासमकृत्वाहंकारात्पण्डितोऽहमिति गर्वान्न श्रोष्यसि मद्वचनार्थं न करिष्यसि ततो विनङ्क्ष्यसि पुरुषार्थाद्भ्रष्टो भविष्यसि कामकारेण संन्यासाद्याचरन्।
।।18.58।।तादृग्भूते फलमाह -- मच्चित्त इति। मच्चित्तः सन् सर्वदुर्गाणि ऐहिकपारलौकिकसङ्कटस्थानानि कर्मकरणेऽपि साधनयुक्तोऽपि मदाज्ञाकरणात् मत्प्रसादात् तरिष्यसि। विपक्षे बाधकमाह -- अथेति। अथ भिन्नप्रकारेण अहङ्कारात् स्वज्ञानाभिमानेनावश्यं कर्मभोगनैयत्यादकरणार्थं चेत् त्वं न श्रोष्यसि तदा विनङ्क्ष्यसि मत्सम्बन्धाद्भ्रश्यसीत्यर्थः।
।।18.58।। --,मच्चितः सर्वदुर्गाणि सर्वाणि दुस्तराणि संसारहेतुजातानि मत्प्रसादात् तरिष्यसि अतिक्रमिष्यसि। अथ चेत् यदि त्वं मदुक्तम् अहंकारात् पण्डितः अहम् इति न श्रोष्यसि न ग्रहीष्यसि? ततः त्वं विनङ्क्ष्यसि विनाशं गमिष्यसि।।इदं च त्वया न मन्तव्यम् स्वतन्त्रः अहम्? किमर्थं परोक्तं करिष्यामि इति --,
।।18.58।।ततो यद्भावि तदवधेहि? मच्चित्तः सर्वदुर्गाणीति। सर्वकृच्छ्राणि सङ्कटरूपाणि तरिष्यसि। अथ चेदिति उपपत्तिः। मतान्तरस्थितिमाशङ्क्य न श्रोष्यसि तर्हि नष्टो भविष्यसि? प्राकृत इव।