इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन।न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयति।।18.67।।
idaṁ te nātapaskyāya nābhaktāya kadāchana na chāśhuśhruṣhave vāchyaṁ na cha māṁ yo ‘bhyasūtayi
Never speak this to one who is devoid of austerities or devotion, who does not render service, who does not desire to listen, or who cavils at Me.
18.67 इदम् this? ते by thee? न not? अतपस्काय to one who is devoid of austerity? न not? अभक्ताय to one who is not devoted? कदाचन never? न not? च and? अशुश्रूषवे to one who does not render service or who does not desire to listen? वाच्यम् to be spoken? न not? च and? माम् Me? यः who? अभ्यसूयति cavils at.Commentary This The scripture which has been taught to you.Service To the Guru.The scripture can be taught to him who does not speak ill of the Lord? who is a man of austerities? who is devoted? who is thirsting to hear and who renders service to his Guru.One who cavils at Me He who disregards Me taking Me for an ordinary man? who does not like to be told that I am the Lord.
।।18.67।। व्याख्या -- इदं ते नातपस्काय -- पूर्वश्लोकमें आये सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज -- इस सर्वगुह्यतम वचनके लिये यहाँ इदम् पद आया है।अपने कर्तव्यका पालन करते हुए स्वाभाविक जो कष्ट आ जाय? विपरीत परिस्थिति आ जाय? उसको प्रसन्नतापूर्वक सहनेका नामतप है। तपके बिना अन्तःकरणमें पवित्रता नहीं आती? और पवित्रता आये बिना अच्छी बातें धारण नहीं होतीं। इसलिये भगवान् कहते हैं कि जो तपस्वी नहीं है? उसको यह सर्वगुह्यतम रहस्य नहीं कहना चाहिये।जो सहिष्णु अर्थात् सहनशील नहीं है? वह भी अतपस्वी है। अतः उसको भी यह सर्वगुह्यतम रहस्य नहीं कहना चाहिये। यह सहिष्णुता चार प्रकारकी होती है --,(1) द्वन्द्वसहिष्णुता -- रागद्वेष? हर्षशोक? सुखदुःख? मानअपमान? निन्दास्तुति आदि द्वन्द्वोंसे रहित हो जाना -- ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ताः (गीता 7। 28) द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञैः गीता (15। 5)।(2) वेगसहिष्णुता -- काम? क्रोध? लोभ? द्वेष आदिके वेगोंको उत्पन्न न होने देना -- कामक्रोधोद्भवं वेगम् (गीता 5। 23)।(3) परमतसहिष्णुता -- दूसरोंके मतकी महिमा सुनकर अपने मतमें सन्देह न होना और उनके मतसे उद्विग्न न होना (टिप्पणी प0 987.1) -- एकं सांख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति (गीता 5। 5)।(4) परोत्कर्षसहिष्णुता -- अपनेमें योग्यता? अधिकार? पद? त्याग? तपस्या आदिकी कमी है? तो भी दूसरोंकी योग्यता? अधिकार आदिकी प्रसंशा सुनकर अपनेमें कुछ भी विकार न होना -- विमत्सरः (गीता 4। 22) हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तः (गीता 12। 15)।ये चारों सहिष्णुताएँ सिद्धोंकी हैं। ये सहिष्णुताएँ जिसका लक्ष्य हों? वही तपस्वी है और जिसका लक्ष्य न हों? वही अतपस्वी है।ऐसे अतपस्वी अर्थात् असहिष्णु (टिप्पणी प0 987.2) को सर्वगुह्यतम रहस्य न सुनानेका मतलब है किसम्पूर्ण धर्मोंको मेरेमें अर्पण करके तू अनन्यभावसे मेरी शरण आ जा -- इस बात को सुनकर उसके मनमें कोई विपरीत भावना या दोष आ जाय? तो वह मेरी इस सर्वगुह्यतम बातको सह नहीं सकेगा और इसका निरादर करेगा? जिससे उसका पतन हो जायगा।दूसरा भाव यह है कि जिसका अपनी वृत्तियों? आचरणों? भावों आदिको शुद्ध करनेका उद्देश्य नहीं है? वह यदि मेरीतू मेरी शरणमें आ जा? तो मैं तुझे सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त कर दूँगा? तू चिन्ता मत कर -- इन बातोंको सुनेगा तोमैं चिन्ता क्यों करूँ चिन्ता भगवान् करेंगे ऐसा उल्टा समझकर दुर्गणदुराचारोंमें लग जायगा और अपना अहित कर लेगा। इससे मेरी सर्वगुह्यतम् बातका दुरुपयोग होगा। अतः इसे कुपात्रको कभी मत सुनाना।नाभक्ताय कदाचन -- जो भक्तिसे रहित है? जिसका भगवान्पर भरोसा? श्रद्धाविश्वास और भक्ति न होनेसे उसकी यह विपरीत धारणा हो सकती है किभगवान् जो आत्मश्लाघी हैं? स्वार्थी हैं और दूसरोंको वशमें करना चाहते हैं। जो दूसरोंको अपनी आज्ञामें चलाना चाहता है? वह दूसरोंको क्या निहाल करेगा उसके शरण होनेसे क्या लाभ आदिआदि। इस प्रकार दुर्भाव करके वह अपना पतन कर लेगा। इसलिये ऐसे,अभक्तको कभी मत कहना।न चाशुश्रूषवे वाच्यम् -- जो इस रहस्यको सुनना नहीं चाहता? इसकी उपेक्षा करता है? उसको भी कभी मत सुनाना क्योंकि बिना रुचिके? जबर्दस्ती सुनानेसे वह इस बातका तिरस्कार करेगा? उसको सुनना अच्छा नहीं लगेगा? उसका मन इस बातको फेंकेगा। यह भी उसके द्वारा एक अपराध होगा। अपराध करनेवालेका भला नहीं होता। अतः जो सुनना नहीं चाहता? उसको मत सुनाना।न च मां योऽभ्यसूयति -- जो गुणोंमें दोषारोपण करता है? उसको भी मत सुनाना क्योंकि उसका अन्तःकरण अत्यधिक मलिन होनेके कारण वह भगवान्की बात सुनकर उलटे उनमें दोषारोपण ही करेगा।दोषदृष्टि रहनेसे मनुष्य महान् लाभसे वञ्चित हो जाता है और अपना पतन कर लेता है। अतः दोषदृष्टि करना बड़ा भारी दोष है। यह दोष श्रद्धालुओंमें भी रहता है। इसलिये साधकको सावधान होकर इस भयंकर दोषसे बचते रहना चाहिये। भगवान्ने भी (गीता 3। 31में) जहाँ अपना मत बताया? वहाँ श्रद्धावन्तः अनसूयन्तः पदोंसे यह बात कही कि श्रद्धायुक्त और दोषदृष्टिसे रहित मनुष्य कर्मोंसे छूट जाता है। ऐसे ही गीताके माहात्म्य (गीता 18। 71) में भी श्रद्धावाननसूयश्च पदोंसे यह बताया कि श्रद्धावान् और दोषदृष्टिसे रहित मनुष्य केवल गीताको सुननेमात्रसे वैकुण्ठ आदि लोकोंको चला जाता है।इस गोपनीय रहस्यको दूसरोंसे मत कहना -- यह कहनेका तात्पर्य दूसरोंको इस गोपनीय तत्त्वसे वञ्चित रखना नहीं है? प्रत्युत जिसकी भगवान् और उनके वचनोंपर श्रद्धाभक्ति नहीं है? वह भगवान्को स्वार्थी समझकर (जैसे साधारण मनुष्य अपने स्वार्थके लिये ही किसीको स्वीकार करते हैं)? भगवान्पर दोषारोपण करके महान् पतनकी तरफ न चला जाय? इसलिये उसको कहनेका निषेध किया है। सम्बन्ध -- गीताजीका यह प्रभाव है कि जो प्रचार करेगा? उससे बढ़कर मेरा प्यारा कोई नहीं होगा -- यह बात भगवान् आगेको दो श्लोकोंमें बताते हैं।
।।18.67।। प्राय अध्यात्मशास्त्र के समस्त ग्रन्थों के अन्तिम भाग में शास्त्रसंप्रदाय की विधि अर्थात् ज्ञान के अधिकारी का वर्णन किया जाता है। इसी महान् परम्परा का अनुसरण करते हुए? इस श्लोक में? भगवान् श्रीकृष्ण बताते हैं कि यह ज्ञान किसे नहीं देना चाहिए। इसी के द्वारा यहाँ इसका भी बोध कराया गया है कि ज्ञान के योग्य अधिकारी में कौन से गुण होने चाहिए। इसका अर्थ यह नहीं हुआ कि इन गुणों के उल्लेख से गीता की ज्ञान निधि के चारों ओर प्राचीरें खड़ी की गई हैं। कोई यह न समझे कि कतिपय लोगों की स्वार्थसिद्धि के लिए और उन्हें इस ज्ञाननिधि के व्यापार का एकाधिकार प्रदान करने के लिए इस सम्प्रदाय विधि का निर्माण किया गया है।यहाँ उल्लिखित गुणों के अध्ययन से ज्ञात होगा कि साधक के आन्तरिक व्यक्तित्व के सुगठन के लिए इन गुणों का होना आवश्यक है। साधन सम्पन्न साधक ही इस ज्ञान का ग्रहण? धारण एवं स्मरण करने में समर्थ होता है। वही इस ज्ञानानन्द का अनुभव एवं अर्जन करके उसे अपने जीवन में प्रकट कर सकता है।यह ज्ञान ऐसे पुरुष को नहीं देना चाहिए जो (1) तपरहित है शरीर? वाणी और मन का संयम ही तप है जिसके द्वारा हम समस्त शक्तियों का संचय कर सकते हैं। संयमरूपी तप से रहित पुरुष में इस ज्ञान को ग्रहण करने की मानसिक और बौद्धिक क्षमता ही नहीं होती। इसलिए? तप रहित व्यक्ति से ज्ञान नहीं कहना चाहिए? क्योंकि इससे उस व्यक्ति को कोई लाभ नहीं होगा। इस कथन में रंचमात्र भी पूर्वाग्रह और दुराग्रह नहीं है। यह कथन इसी प्रकार का है कि? कृपया चट्टानों पर बीजारोपण मत करो। कारण यह है कि कृषक को इससे कोई फसल प्राप्त नहीं होगी।(2) जो अभक्त है तपयुक्त हो किन्तु भक्त न हो? तो उस पुरुष से भी यह ज्ञान नहीं कहना चाहिए। जो साधक अपने लक्ष्य के साथ तादात्म्य नहीं कर सकते? उससे प्रेम नहीं कर सकते? वे इस ज्ञान के अधिकारी नहीं हैं। प्रेम के अभाव में त्याग और उत्साह संभव नहीं है। प्रेमालिंगन में अपने आदर्श को बांध लेना ही भक्ति है।(3) जो अशुश्रुषु (सेवा में अतत्पर) है यदि कोई पुरुष तपस्वी और भक्त है? परन्तु गुरुसेवा और जनसेवा करने में संकोच करता है? तो वह भी योग्य विद्यार्थी नहीं कहा जा सकता। भगवान् श्रीकृष्ण ने सम्पूर्ण गीता में निस्वार्थ सेवा पर विशेष बल दिया है? क्योंकि चित्तशुद्धि का वही सर्वश्रेष्ठ साधन है। स्वार्थी लोग कभी भी इस ज्ञान को ग्रहण नहीं कर पाते हैं और न ही उसके आनन्द का अनुभव कर सकते हैं।(4) जो मुझे से असूया अर्थात् मुझमें दोष देखता है गुणों में दोष देखना असूया है? जो लोग ईश्वर? गुरु और शास्त्रप्रमाण में भी दोष देखते हैं? वे किस प्रकार आत्मज्ञान को प्राप्त कर सकते हैं मुझसे असूया का अर्थ परमात्मा से असूया है। उसी प्रकार? तत्त्वज्ञान का अनादर करने वाले लोग भी अभ्यसूयक कहलाते हैं। बल प्रयोग के द्वारा कराये गये धर्म परिवर्तन से उस मत के अनुयायियों का संख्याबल तो बढ़ाया जा सकता है? परन्तु? ऐसे प्रयोग से आत्मविकास नहीं कराया जा सकता। किसी के भी ऊपर धर्म को नहीं थोपना चाहिए। यदि तत्त्वज्ञान के प्रति मन में तिरस्कार का भाव है? तो बुद्धि से उसे समझने पर भी हम उसे अपने जीवन म्ों कार्यान्वित नहीं कर सकते हैं। इसलिए? असूया युक्त पुरुष इस ज्ञान का अधिकारी नहीं है।इस प्रकार के श्लोकों का प्रयोजन साधकों को साधन मार्ग दर्शाना होता है। गीता के अध्ययन से तत्काल ही किसी लाभ की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए। रातोरात व्यक्तित्व का सुगठन नहीं किया जा सकता। गीता इस प्रकार के चमत्कार का आश्वासन नहीं देती।इस श्लोक का अभिप्राय यह हुआ कि तप? भक्ति? सेवाभाव और आदर से युक्त पुरुष ही आत्मज्ञान का उत्तम अधिकारी है। यदि हम शास्त्र के अध्ययन से अधिक लाभान्वित नहीं होते हैं? तो? निश्चय ही हममें किसी आवश्यक गुण का अभाव होना चाहिए। उस स्थिति में आत्मनिरीक्षण के द्वारा हम आत्मशोधन करें। जैसे? दर्पण पर जमी धूल को स्वच्छ कर देने से प्रतिबिम्ब स्पष्ट दिखाई देता है? उसी प्रकार अन्तकरण के शुद्ध और स्थिर होने पर आत्मानुभव स्पष्ट होता है।अब? संप्रदाय के प्रवर्तक एवं प्रचारक को प्राप्त होने वाले फल को बताते हैं
।।18.67।।पूर्वापरालोचनातो गीताशास्त्रं व्याख्यायोपसंहृत्य तत्तात्पर्यार्थं निर्धारितमपि विचारद्वारा निर्धारयितुं विचारमवतारयति -- अस्मिन्निति। किंशब्दार्थमेव त्रेधा विभजते -- ज्ञानमिति। निमित्ताभावे संशयस्याभासत्वान्न निरस्येति मत्वा पृच्छति -- कुत इति। तत्तदर्थावद्योतकानेकवाक्यदर्शनं तन्निमित्तमित्याह -- यज्ज्ञात्वेति। कर्मणामवश्यकर्तव्यत्वोपलम्भात्तेभ्योऽपि निःश्रेयसप्राप्तिर्भातीत्याह -- कर्मण्येवेति। तथापि समुच्चयप्रापकं नास्तीत्याशङ्क्याह -- एवमिति। सत्यां सामग्र्यां कार्यमवश्यंभावीत्युपसंहरति -- इति भवेदिति। संदिग्धं सफलं च विचार्यमिति स्थितेरसति फले संदिग्धमपि न विचार्यमिति बुद्ध्या पृच्छति -- किं पुनरिति। प्रत्येकं ज्ञानकर्मणोः समुच्चितयोर्वा मुक्तिं प्रति परमसाधनतेत्यवधारणमेव विचारफलमिति परिहरति -- नन्विति। संदेहप्रयोजनयोर्विचारप्रयोजकयोर्भावाद्विचारद्वारा परममुक्तिसाधनं निर्धारणीयमिति निगमयति -- अत इति। एवं विचारमवतार्य सिद्धान्तं संगृह्णाति -- आत्मेति। संग्रहवाक्यं विवृण्वन्नादावात्मज्ञानापोह्यामविद्यां दर्शयति -- क्रियेति। आश्रयोक्त्या तदनादित्वमाह -- आत्मनीति। तामेवाविद्यामनाद्यविद्योत्थामनर्थात्मिकां प्रपञ्चयति -- ममेति। अनाद्यविद्याकार्यत्वात्प्रवाहरूपेणानादित्वमस्या विवक्षित्वा विशिनष्टि -- अनादीति। तत्र कारणाविद्यानिवर्तकत्वमात्मज्ञानस्योपन्यस्यति -- अस्या इति। ननु नेदमुत्पन्नं ज्ञानं निवर्तयत्यविरोधेनोत्पन्नत्वान्न चानुत्पन्नमलब्धात्मकस्यार्थक्रियाकारित्वाभावात्तत्राह -- उत्पद्यमानमिति। कथं तस्य कारणाविद्यानिवर्तकत्वमित्याशङ्क्य कार्याविद्यानिवर्तकत्वदृष्टेरित्याह -- कर्मेति। आत्मज्ञानस्येत्यादिसंग्रहवाक्ये तुशब्दद्योत्यविशेषाभावात्तदानर्थक्यमाशङ्क्याह -- तुशब्द इति। पक्षद्वयव्यावर्तकत्वमेवास्य स्फुटयति -- नेत्यादिना। इतश्च कर्मासाध्यता मुक्तेरित्याह -- अकार्यत्वाच्चेति।एष नित्यो महिमा इति श्रुतेर्नित्यत्वेन मोक्षस्याकार्यत्वान्न तत्र हेत्वपेक्षेत्युपपादयति -- नहीति। ज्ञानेनापि मोक्षो न क्रियते चेत्तर्हि केवलमपि ज्ञानं मुक्त्यनुपयुक्तमिति कुतस्तस्य तत्र हेतुत्वधीरित्याशङ्कते -- केवलेति। ज्ञानानर्थक्यं दूषयति -- नेति। तदेव प्रपञ्चयति -- अविद्येति। यदुक्तमविद्यानिवर्तकज्ञानस्य कैवल्यफलावसायित्वं दृष्टमिति तत्र दृष्टान्तमाह -- रज्ज्वादीति। उक्ते विषये तमोनिवर्तकप्रकाशस्य कस्मिन्फले पर्यवसानं तत्राह -- विनिवृत्तेति। प्रदीपप्रकाशस्य सर्पभ्रमनिवृत्तिद्वारा रज्जुमात्रे पर्यवसानवदात्मज्ञानस्यापि तदविद्यानिवृत्त्यात्मकैवल्यावसानमिति दार्ष्टान्तिकमाह -- तथेति। ज्ञात्रादीनां ज्ञाननिष्ठाहेतूनां कर्मान्तरे प्रवृत्तिसंभवात्कर्मसहितैव सा कैवल्यावसायिनीति चेत्तत्राह -- दृष्टार्थायामिति। कर्मसाहित्यं ज्ञाननिष्ठाया दृष्टान्तेन साधयन्नाशङ्कते -- भुजीति। भुजिक्रियाया लौकिक्या वैदिक्याश्चाग्निहोत्रादिक्रियायाः सहानुष्ठानवदग्निहोत्रादिक्रियाया ज्ञाननिष्ठायाश्च साहित्यमित्यर्थः। भुजिफले तृष्णाख्ये प्राप्तेऽपि स्वर्गादौ तद्धेतौ चाग्निहोत्रादावर्थित्वदृष्टेर्युक्तं तत्र साहित्यं न तथा मुक्तिफलज्ञाननिष्ठालाभे स्वर्गादौ तद्धेतौ वा कर्मण्यर्थित्वं तेन ज्ञाननिष्ठाकर्मणोर्न साहित्यमिति परिहरति -- नेत्यादिना। संग्रहवाक्यं विवृणोति -- कैवल्येति। ज्ञाने फलवति लब्धे फलान्तरे तद्धेतौ च नार्थितेत्यत्र दृष्टान्तमाह -- सर्वत इति। सर्वत्र संप्लुतं व्याप्तमुदकमिति समुद्रोक्तिस्तत्फलं स्नानादि तस्मिन्प्राप्ते न तडागादिनिर्माणक्रियायां तदधीने च स्नानादौ कस्यचिदर्थित्वं तथा प्रकृतेपीत्यर्थः। निरतिशयफले ज्ञाने लब्धे सातिशयफले कर्मणि नार्थित्वमित्येतद्दृष्टान्तेन स्फुटयति -- नहीति। कर्मणः सातिशयफलत्वमुक्तमुपजीव्य फलितमाह -- तस्मान्नेति। ज्ञानकर्मणोः साहित्यासंभवमपि पूर्वोक्तं निगमयति -- नचेति। नहि प्रकाशतमसोरिव मिथो विरुद्धयोस्तयोः साक्षादेकस्मिन्फले साहित्यमित्यर्थः। ननु ज्ञानमेव मोक्षं साधयदात्मसहायत्वेन कर्मापेक्षते,करणस्योपकरणापेक्षत्वात्तत्राह -- नापीति। ज्ञानमुत्पत्तौ यज्ञाद्यपेक्षमपि नोत्पन्नं फले तदपेक्षं स्वोत्पत्तिनान्तरीयकत्वेन मुक्तेस्तन्मात्रायत्तत्वादित्यर्थः। यदुक्तमितिकर्तव्यत्वेन ज्ञानं कर्मापेक्षमिति तत्राह -- अविद्येति। ज्ञानस्याज्ञाननिवर्तकत्वात्तत्र कर्मणो विरुद्धतया सहकारित्वायोगान्न फले तदपेक्षेत्यर्थः। कर्मणोऽपि ज्ञानवदज्ञाननिवर्तकत्वे कुतो विरुद्धतेत्याशङ्क्याह -- नहीति। केवलस्य समुच्चितस्य वा कर्मणो मोक्षे साक्षादनन्वये फलितमाह -- अत इति। केवलं ज्ञानं मुक्तिसाधनमित्युक्तं तन्निषेधयन्नाशङ्कते -- नेत्यादिना। निषेध्यमनूद्य नञर्थमाह -- यत्तावदिति। नित्याकरणे प्रत्यवायाप्राप्तेरिति हेतुं प्रपञ्चयति -- यत इति। ज्ञानवतोऽपि नित्यानुष्ठानस्यावश्यकत्वान्न केवलज्ञानस्य कैवल्यहेतुतेत्यर्थः। कैवल्यस्य च नित्यत्वादित्यस्य व्यावर्त्यं दर्शयति -- नन्विति। यदि नित्यनैमित्तिककर्माणि श्रौतान्यकरणे प्रत्यवायकारीण्यवश्यानुष्ठेयान्येवं तर्हि तेभ्यः समुच्चितेभ्योऽसमुच्चितेभ्यश्च मोक्षो नेत्युक्तत्वात्केवलज्ञानस्य चातद्धेतुत्वादनिबन्धना मुक्तिर्न सिध्येदित्यर्थः। कैवल्यस्य चेत्यादि व्याकुर्वन्ननिर्मोक्षप्रसङ्गं प्रत्यादिशति -- नैष दोष इति। मुक्तेर्नित्यत्वेनायत्नसिद्धेर्न तदभावशङ्केत्युक्तं प्रपञ्चयति -- नित्यानामिति। काम्यकर्मवशादिष्टशरीरापत्तिं शङ्कित्वोक्तं -- काम्यानां चेति। आरब्धकर्मवशात्तर्हि देहान्तरं नेत्याह -- वर्तमानेति। तर्हि देहान्तरं शेषकर्मणा स्यादित्याशङ्क्य कर्माशयस्यैकभविकत्वान्नेत्याह -- पतितेऽस्मिन्निति। रागादिना कर्मान्तरं ततो देहान्तरं च भविष्यतीत्याशङ्क्याह -- रागादीनां चेति। आत्मनः स्वरूपावस्थानमिति संबन्धः। अतीतासंख्यजन्मभेदेष्वर्जितस्य कर्मणो नानाफलस्यानारब्धस्य भोगेन विनाक्षयात्ततो देहान्तरारम्भादैकभविकत्वस्याप्रामाणिकत्वान्न मुक्तेरयत्नसिद्धतेति चोदयति -- अतिक्रान्तेति। नोक्तकर्मनिमित्तं देहान्तरं शङ्कितव्यमित्याह -- नेति। नित्यनैमित्तिककर्माणि श्रौतान्यवश्यमनुष्ठेयानि तदनुष्ठाने च महानायासस्ततो दुःखोपभोगस्तस्योक्तानारब्धकर्मफलभोगत्वोपगमान्न ततो देहान्तरमित्याह -- नित्येति। नित्यादिना दुरितनिवृत्तावप्यविरोधान्न सुकृतनिवृत्तिस्ततो देहान्तरमित्याशङ्क्य सुकृतस्य नित्यादेरन्यत्वेनारब्धत्वे च न्यायविरुद्धस्य तस्यासिद्धत्वात्ततो देहान्तरायोगान्नित्यादेरनन्यत्वे च न तस्य फलान्तरमिति मत्वा यथा प्रायश्चित्तमुपात्तदुरितनिबर्हणार्थं न फलान्तरापेक्षं तथेदं सर्वमपि नित्यादिकर्मोपात्तपापनिराकरणार्थं तस्मिन्नेव पर्यवस्यन्न देहान्तरारम्भकमिति पक्षान्तरमाह -- प्रायश्चित्तवदिति। तथापि प्रारब्धवशादेव देहान्तरं शङ्क्यते नानाजन्मारम्भकाणामपि तेषां यावदधिकारन्यायेन संभवादित्याशङ्क्याह -- आरब्धानां चेति। पूर्वार्जितकर्मणामेवं क्षीणत्वेऽपि कानिचित्पूर्वकर्माणि देहान्तरमारभेरन्नित्याशङ्क्याह -- अपूर्वाणां चेति। विना ज्ञानं कर्मणैव मुक्तिरिति पक्षं श्रुत्यवष्टम्भेन निराचष्टे -- नेत्यादिना। विद्यतेऽयनायेति श्रुतेरिति संबन्धः। एवकारार्थं विवृण्वन्नेत्यादिभागं व्याकरोति -- अन्य इति।यदा चर्मवदाकाशं वेष्टयिष्यन्ति मानवाः। तदा देवमविज्ञाय दुःखस्यान्तो भविष्यति इति श्रुतिमर्थतोऽनुवदति -- चर्मवदिति। श्रौतार्थे स्मृतिं संवादयति -- ज्ञानादिति। किञ्च त्वदीयन्यायस्यानुग्राह्यमानहीनत्वेनाभासतया पुण्यकर्मणामनारब्धफलानां क्षयाभावे देहान्तरारम्भसंभवान्न ज्ञानं विना मुक्तिरित्याह -- अनारब्धेति। तथाविधानां कर्मणां नास्ति संभावनेत्याशङ्क्याह -- यथेति। अनारब्धफलपुण्यकर्माभावेऽपि कथं मोक्षानुपपत्तिरिति तत्राह -- तेषां चेति। इतश्च कर्मक्षयानुपपत्त्या मोक्षानुपपत्तिरिति तत्राह -- धर्मेति।कर्मणा पितृलोकः इति श्रुतिमाश्रित्य कर्माक्षये हेत्वन्तरमाह -- नित्यानामिति। स्मृत्यापि यथोक्तमर्थं समर्थयति -- वर्णा इति। प्रेत्य कर्मफलमनुभूय ततः शेषेण विशिष्टजात्यादिभाजो जन्म प्रतिपद्यन्त इत्येतदादिपदार्थः। यत्तु नित्यानुष्ठानायासदुःखभोगस्य तत्फलभोगत्वमिति तदिदानीमनुभवति -- ये त्विति। नित्यान्यनुष्ठीयमानान्यायासपर्यन्तानीति शेषः। तथापि नित्यानां काम्यानामिव स्वरूपातिरिक्तं फलमाशङ्क्य विध्युद्देशे तदश्रवणान्मैवमित्याह -- नत्विति। विध्युद्देशे फलाश्रुतौ तत्कामनाया निमित्तस्याभावान्न नित्यानि विधीयेरन्नित्याशङ्क्याह -- जीवनादीति। न नित्यानां विध्यसिद्धिरिति शेषः। अनुभाषितं दूषयति -- नेत्यादिना। तदेव विवृण्वन्निषेध्यमनूद्य नञर्थमाह -- यदुक्तमिति। अप्रवृत्तानामित्यादिहेतुं प्रपञ्चयति -- नहीति। कर्मान्तरारब्धेऽपि देहे दुरितफलं नित्यानुष्ठानायासदुःखं भुज्यतां कानुपपत्तिरित्याशङ्क्याह -- अन्यथेति। यदुक्तं दुःखफलविशेषानुपपत्तिश्च स्यादिति तदुपपादयति -- तस्येति। संभावितानि तावदनन्तानि संचितानि दुरितानि तानि च नानादुःखफलानि यदि तानि नित्यानुष्ठानायासरूपं दुःखं तन्मात्रफलानि कल्प्येरंस्तदा तेष्वेवं कल्प्यमानेषु सत्सु नित्यस्यानुष्ठितस्यायासमासादयतो यो दुरितकृतो दुःखविशेषो न तत्फलं दुरितफलानां दुःखानां बहुत्वादतो नित्यं कर्म यथाविशेषं तं दुरितकृतदुःखविशेषफलकमित्यक्तमित्यर्थः। किञ्च नित्यानुष्ठानायासदुःखमात्रफलानि चेद्दुरितानि कल्प्यन्ते,तदा द्वन्द्वशब्दितरागादिबाधस्य रोगादिबाधायाश्च दुरितनिमित्तत्वानुपपत्तेः सुकृतकृतत्वस्य चासंभवादनुपपत्तिरेवोदीरितबाधायाः स्यादित्याह -- द्वन्द्वेति। इतश्च नित्यानुष्ठानायासदुःखमेव दुरितफलमित्ययुक्तमित्याह -- नित्येति। दुःखमिति न शक्यते कल्पयितुमिति पूर्वेण संबन्धः। यदि तदेव तत्फलं न तर्हि शिरसा पाषाणवहनादिदुःखं दुरितकृतं नच तत्कारणं सुकृतं दुःखस्यातत्कार्यत्वादतस्तदाकस्मिकं स्यादित्यर्थः। नित्यानुष्ठानायासदुःखमुपात्तदुरितफलमित्येतदप्रकृतत्वाच्चायुक्तं वक्तुमित्याह -- अप्रकृतं चेति। तदेव प्रपञ्चयितुं पृच्छति -- कथमिति। तत्रादौ प्रकृतमाह -- अप्रसूतेति। तथापि कथमस्माकमप्रकृतवादित्वं तत्राह -- तत्रेति। प्रसूतफलत्वमप्रसूतफलत्वमिति प्राचीनदुरितगतविशेषानुपगमादविशेषेण सर्वस्यैव तस्य प्रसूतफलत्वान्नित्यानुष्ठानायासदुःखफलत्वसंभवान्नाप्रकृतवादितेति शङ्कते -- अथेति। पूर्वोपात्तदुरितस्याविशेषेणारब्धफलत्वे विशेषणानर्थक्यमिति परिहरति -- तत इति। दुरितमात्रस्यारब्धफलत्वेनानारब्धफलस्य तस्योक्तफलविशेषवत्त्वानुपपत्तेरित्यर्थः। पूर्वोपात्तदुरितमारब्धफलं चेद्भोगेनैव तत्क्षयसंभवात्तन्निवृत्त्यर्थं नित्यं कर्म न विधातव्यमिति दोषान्तरमाह -- नित्येति। इतश्च नित्यानुष्ठानायासदुःखं नोपात्तदुरितफलमित्याह -- किञ्चेति। तदेव स्फोरयति -- श्रुतस्येति।यथा व्यायामगमनादिकृतं दुःखं नान्यस्य दुरितस्येष्यते तत्फलत्वसंभवात्तथा नित्यस्यापि श्रुत्युक्तस्यानुष्ठितस्यायासपर्यन्तस्य फलान्तरानुपगमादनुष्ठानायासदुःखमेव चेत्फलं तर्हि तस्मादेव तद्दर्शनात्तस्य न दुरितफलत्वं कल्प्यं नित्यफलत्वसंभवादित्यर्थः। दुःखफलत्वे नित्यानामननुष्ठानमेव श्रेयः स्यादित्याशङ्क्याह -- जीवनादिति। नित्यानां दुरितफलत्वानुपपत्तौ हेत्वन्तरमाह -- प्रायश्चित्तवदिति। दृष्टान्तं प्रपञ्चयति -- यस्मिन्निति। तथा जीवनादिनिमित्ते विहितानां नित्यानां दुरितफलत्वासिद्धिरिति शेषः। सत्यं प्रायश्चित्तं न निमित्तस्य पापस्य फलं किंतु तदनुष्ठानायासदुःखं तस्य पापस्य फलमिति शङ्कते -- अथेति। प्रायश्चित्तानुष्ठानायासदुःखस्य निमित्तभूतपापफलत्वे जीवनादिनिमित्तमित्याद्यनुष्ठानायासदुःखमपि जीवनादेरेव फलं स्यान्नोपात्तदुरितस्येति परिहरति -- जीवनादिति। प्रायश्चित्तदुःखस्य तन्निमित्तपापफलत्ववज्जीवनादिनिमित्तकर्मकृतमपि दुःखं जीवनादिफलमित्यत्र हेतुमाह -- नित्येति। इतश्च नित्यानुष्ठानायासदुःखमेवोपात्तदुरितफलमित्याशङ्क्य वक्तुमित्याह -- किञ्चेति। काम्यानुष्ठानायासदुःखमपि दुरितफलमित्युपगमात्प्रसङ्गस्येष्टत्वमाशङ्क्याह -- तथाचेति। विहितानि तावन्नित्यानि नच तेषु फलं श्रुतं नच विना फलं विधिस्तेन दुरितनिबर्हणार्थानि नित्यानीत्यर्थापत्त्या कल्प्यते नच सा युक्ता काम्यानुष्ठानादपि दुरितनिवृत्तिसंभवादित्यर्थः। किञ्च नित्यान्यनुष्ठानायासदुःखातिरिक्तफलानि विहितत्वात्काम्यवदित्यनुमानान्न तेषां दुरितनिवृत्त्यर्थतेत्याह -- एवमिति। काम्यादिकर्म दृष्टान्तयितुमेवमित्युक्तम्। स्वोक्तिव्याघाताच्च नित्यानुष्ठानाद्दुरितफलभोगोक्तिरयुक्तेत्याह -- विरोधाच्चेति। तदेव प्रपञ्चयति -- विरुद्धं चेति। इदंशब्दार्थमेव विशदयति -- नित्येति। अन्यस्य कर्मणो दुरितस्येति यावत्। स एवेति। यदनन्तरं यद्भवति तत्तस्य कार्यमिति नियमादित्यर्थः। इतश्च नित्यानुष्ठाने दुरितफलभोगो न सिध्यतीत्याह -- किञ्चेति। काम्यानुष्ठानस्य नित्यानुष्ठानस्य च यौगपद्यान्नित्यानुष्ठानायासदुःखेन दुरितफलभोगवत्काम्यफलस्यापि मुक्तत्वसंभवादिति हेतुमाह -- तत्तन्त्रत्वादिति। नित्यकाम्यानुष्ठानयोर्यौगपद्येऽपि नित्यानुष्ठानायासदुःखादन्यदेव काम्यानुष्ठानफलं श्रुतत्वादिति शङ्कते -- अथेति। काम्यानुष्ठानफलं नित्यानुष्ठानायासदुःखाद्भिन्नं चेत्तर्हि काम्यानुष्ठानायासदुःखं नित्यानुष्ठानायासदुःखं च मिथो भिन्नं स्यादित्याह -- तदनुष्ठानेति। प्रसङ्गस्येष्टत्वमाशङ्क्य निराचष्टे -- नचेति। दृष्टविरोधमेव स्पष्टयति -- नहीति। आत्माज्ञानवदग्निहोत्रादीनां मोक्षे साक्षादन्वयो नेत्यत्रान्यदपि कारणमस्तीत्याह -- किञ्चान्यदिति। तदेव कारणं विवृणोति -- अविहितमिति। यत्कर्म मर्दनभोजनादि तन्न शास्त्रेण विहितं निषिद्धं वा तदनन्तरफलं तथानुभवादित्यर्थः। शास्त्रीयं कर्म तु नानन्तरफलमानन्तर्यस्याचोदितत्वादतो ज्ञाने दृष्टफले नादृष्टफलं कर्म सहकारि भवति? नापि स्वयमेव दृष्टफले मोक्षे कर्म प्रवृत्तिक्षममिति विवक्षित्वाह -- नत्विति। शास्त्रीयस्याग्निहोत्रादेरपि फलानन्तर्ये स्वर्गादीनामनन्तरमनुपलब्धिर्विरुद्ध्येत ततस्तेष्वदृष्टेऽपि तथाविधफलापेक्षया प्रवृत्तिरग्निहोत्रादिषु न स्यादित्याह -- तदेति। किञ्च नित्यानामग्निहोत्रादीनां नादृष्टं फलं तेषामेव काम्यानां तादृक्फलं नच हेतुं विनायं विभागो भावीत्याह -- अग्निहोत्रादीनामिति। फलकामित्वमात्रेणेति। न स्यादिति पूर्वेण संबन्धः। यानि नित्यान्यग्निहोत्रादीनि यानि च काम्यानि तेषामुभयेषामेव कर्मस्वरूपविशेषाभावेऽपि नित्यानां तेषामनुष्ठानायासदुःखमात्रेण क्षयो न फलान्तरमस्ति?,तेषामेव काम्यानामङ्गाद्याधिक्याभावेऽपि फलकामित्वमधिकारिण्यस्तीत्येतावन्मात्रेण स्वर्गादिमहाफलत्वमित्ययं विभागो न प्रमाणवानित्यर्थः। उक्तविभागायोगे फलितमाह -- तस्मान्नेति। काम्यवन्नित्यानामपि पितृलोकाद्यदृष्टफलवत्त्वे दुरितनिवृत्त्यर्थत्वायोगात्तादर्थ्येनात्मविद्यैवाभ्युपगन्तव्येत्याह -- अतश्चेति। शुभाशुभात्मकं कर्म सर्वमविद्यापूर्वकं चेदशेषतस्तर्हि तस्य क्षयकारणं विद्येत्युपपद्यते न तु सर्वं कर्माविद्यापूर्वकमिति सिद्धमित्याशङ्क्याह -- अविद्येति। तत्र हि शब्दद्योतितां युक्तिं दर्शयति -- तथेति। इतश्चाविद्वद्विषयं कर्मेत्याह -- अविद्वदिति। अधिकारिभेदेन निष्ठाद्वयमित्यत्र वाक्योपक्रममनुकूलयन्नात्मनि कर्तृत्वं कर्मत्वं चारोपयन्न जानात्यात्मानमिति वदता कर्माज्ञानमूलमिति दर्शितमित्याह -- उभाविति। आत्मानं याथातथ्येन जानन्कर्तृत्वादिरहितो भवतीति ब्रुवता कर्मसंन्यासे ज्ञानवतोऽधिकारित्वं सूचितमित्याह -- वेदेति। निष्ठाद्वयमधिकारिभेदेन बोद्धव्यमित्यत्रैव वाक्यान्तरमाह -- ज्ञानेति। न बुद्धिभेदं जनयेदित्यत्र चाविद्यामूलत्वं कर्मणः सूचयता कर्मनिष्ठा विद्वद्विषयानुमोदितेत्याह -- अज्ञानामिति। यदुक्तं विद्वद्विषया संन्यासपूर्विका ज्ञाननिष्ठेति तत्रतत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः इत्यादि वाक्यमुदाहरति -- तत्त्ववित्त्विति। तत्रैव वाक्यान्तरं पठति -- सर्वेति। विदुषो ज्ञाननिष्ठेत्यत्रैव पाञ्चमिकं वाक्यान्तरमाह -- नैवेति। तत्रैवार्थसिद्धमर्थं कथयति -- अज्ञ इति। मन्यत इति संबन्धः। अज्ञस्य चित्तशुद्ध्यर्थं कर्म शुद्धचित्तस्य कर्मसंन्यासो ज्ञानप्राप्तौ हेतुरित्यत्र वाक्यान्तरमाह -- आरुरुक्षोरिति। यथोक्ते विभागे साप्तमिकं वाक्यमनुगुणमित्याह -- उदारा इति। एवं त्रयीधर्ममित्यादि नावमिकं वाक्यमविद्वद्विषयं कर्मेत्यत्र प्रमाणयति -- अज्ञा इति। विदुषः संन्यासपूर्विका ज्ञाननिष्ठेत्यत्रैव नावमिकं वाक्यान्तरमाह -- अनन्या इति। मामित्येतद्व्याचष्टे -- यथोक्तमिति। तेषां सततयुक्तानामित्यादि दाशमिकं वाक्यं तत्रैव प्रमाणयति -- ददामीति। विद्यावतामेव भगवत्प्राप्तिनिर्देशादितरेषां तदप्राप्तिः सूचितेत्यर्थसिद्धमर्थमाह -- अर्थादिति। ननु भगवत्कर्मकारिणां युक्ततमत्वात्कर्मिणोऽपि भगवन्तं यान्तीत्याशङ्क्याह -- भगवदिति। ये मत्कर्मकृदित्यादिन्यायेन भगवत्कर्मकारिणस्ते यद्यपि युक्ततमास्तथापि कर्मिणोऽज्ञाः सन्तो न भगवन्तं सहसा गन्तुमर्हन्तीत्यर्थः। तेषामज्ञत्वे गमकं दर्शयति -- उत्तरोत्तरेति। चित्तसमाधानमारभ्य फलत्यागपर्यन्तं पाठक्रमेणोत्तरोत्तरं हीनसाधनोपादानादभ्यासासमर्थस्य भगवत्कर्मकारित्वाभिधानाद्भगवत्कर्मकारिणामज्ञत्वं विज्ञातमित्यर्थः। ये त्वक्षरमनिर्देश्यमित्यादिवाक्यावष्टम्भेन विद्वद्विषयत्वं संन्यासपूर्वकज्ञाननिष्ठाया निर्धारयति -- अनिर्देश्येति। उक्तसाधनास्तेन ते संन्यासपूर्वकज्ञाननिष्ठायामधिक्रियेरन्निति शेषः। किञ्च त्रयोदशे यान्यमानित्वादीनि चतुर्दशे च प्रकाशं च प्रवृत्तिं चेत्यादीनि यानि पञ्चदशे च यान्यसङ्गत्वादीन्युक्तानि तैः सर्वैः साधनैः सहिता भवन्त्यनिर्देश्याक्षरोपासकास्ततोऽपि ते ज्ञाननिष्ठायामेवाधिक्रियेरन्नित्याह -- क्षेत्रेति। निष्ठाद्वयमधिकारिभेदेन प्रतिष्ठाप्य ज्ञाननिष्ठानामनिष्टमिष्टं मिश्रमिति त्रिविधं कर्मफलं न भवति किंतु मुक्तिरेव कर्मनिष्ठानां तु त्रिविधं कर्मफलं न मुक्तिरिति शास्त्रार्थविभागमभिप्रेतमुपसंहरति -- अधिष्ठानादीति। यदुक्तमविद्याकामबीजं सर्वं कर्मेति तन्न शास्त्रावगतस्य कर्मणोऽविद्यापूर्वकत्वानुपपत्तेरित्याक्षिपति -- अविद्येति। दृष्टान्तेन समाधत्ते -- नेति। तत्राभिमतां प्रतिज्ञां विभजते -- यद्यपीति। उक्तं दृष्टान्तं व्याचष्टे -- यथेति। अविद्यादिमतो ब्रह्महत्यादि कर्मेत्यत्र हेतुमाह -- अन्यथेति। दार्ष्टान्तिकं गृह्णाति -- तथेति। तान्यप्यविद्यादिमतो भवन्तीत्यविद्यादिपूर्वकत्वं तेषामेषितव्यमित्यर्थः। पारलौकिककर्मसु देहाद्यतिरिक्तात्मज्ञानं विना प्रवृत्त्ययोगान्न तेषामविद्यापूर्वकतेति शङ्कते -- व्यतिरिक्त इति। सत्यपि व्यतिरिक्तात्मज्ञाने पारमार्थिकात्मज्ञानाभावान्मिथ्याज्ञानादेव नित्यादिकर्मसु प्रवृत्तेरविद्यापूर्वकत्वं तेषामप्रतिहतमिति परिहरति -- नेत्यादिना। कर्मणश्चलनात्मकत्वान्नात्मकर्तृकत्वं तस्य निष्क्रियत्वाद्देहादिसंघातस्य तु सक्रियत्वात्तत्कर्तृकं कर्म युक्तं तथापि संघातेऽहमभिमानद्वाराहं करोमीत्यात्मनो मिथ्याधीपूर्विका कर्मणि प्रवृत्तिर्दृष्टा तेनाविद्यापूर्वकत्वं तस्य युक्तमित्यर्थः। यदुक्तं देहादिसंघातेऽहमभिमानस्य मिथ्याज्ञानत्वं तदाक्षिपति -- देहादीति। अहंधियो गौणत्वे तत्पूर्वककर्मस्वपि गौणत्वापत्तेरात्मनोऽनर्थाभावात्तन्निवृत्त्यर्थं हेत्वन्वेषणं न स्यादिति दूषयति -- नेति। एतदेव प्रपञ्चयन्नादौ चोद्यं प्रपञ्चयति -- आत्मीयेति। तत्र श्रुत्यवष्टम्भेन दृष्टान्तमाह -- यथेति। दर्शितश्रुतेरात्मीये पुत्रेऽहंप्रत्ययो गौणो यथा संघातेऽप्यात्मीयेऽहंप्रत्ययस्तथा युक्त इत्यर्थः। भेदधीपूर्वकत्वं गौणधियो लोके प्रसिद्धमित्याह -- लोके चेति। लोकवेदानुरोधेनात्मीये संघातेऽहंधीरपि गौणी स्यादिति दार्ष्टान्तिकमाह -- तद्वदिति। मिथ्याधियोऽपि भेदधीपूर्वकत्वसंभवादात्मीये संघातेऽहंधियो मिथ्यात्वमेव किं न स्यादित्याशङ्क्याह -- नैवायमिति। भेदधीपूर्वकत्वाभावे कथं मिथ्याधीरुदेतीत्याशङ्क्याह -- मिथ्येति।,अधिष्ठानारोप्ययोर्विवेकाग्रहात्तदुत्पत्तिरित्यर्थः। देहादावहंधियो गौणतेति चोद्ये विवृते तत्कार्येष्वपीत्यादिपरिहारं विवृणोति -- नेत्यादिना। हेतुभागं विभजते -- यथेति। सिंहो देवदत्त इति वाक्यं देवदत्तः सिंह इवेत्युपमया देवदत्तं क्रौर्याद्यधिकरणं स्तोतुं प्रवृत्तमग्निर्माणवक इत्यपि वाक्यं माणवकोऽग्निरिवेत्युपमया माणवकस्य पैङ्गल्याधिकरणस्य स्तुत्यर्थमेव न तथा मनुष्योऽहमिति वाक्यस्याधिकरणस्तुत्यर्थता भातीत्यर्थः। देवदत्तमाणवकयोरधिकरणत्वं कथमित्याशङ्क्याह -- क्रौर्येति। किञ्च गौणशब्दं तत्प्रत्ययं च निमित्तं कृत्वा सिंहकार्यं न किंचिद्देवदत्ते साध्यते नापि माणवके किंचिदग्निकार्यं मिथ्याधीकार्यं त्वनर्थमात्मानुभवत्यतो न देहादावहंधीर्गौणीत्याह -- नत्विति। इतोऽपि देहादौ नाहंधीर्गौणीत्याह -- गौणेति। यो देवदत्तो माणवको वा गौण्या धियो विषयस्तं परो नैष सिंहो नायमग्निरिति जानाति नैवमविद्वानात्मनः संघातस्य च सत्यपि भेदे संघातस्यानात्मत्वं प्रत्येत्यतो न संघातेऽहंशब्दप्रत्ययौ गौणावित्यर्थः। संघाते तयोर्गौणत्वे दोषान्तरं समुच्चिनोति -- तथेति। तथा सत्यात्मनि कर्तृत्वादिप्रतिभासासिद्धिरिति शेषः। गौणेन कृतं न मुख्येन कृतमित्युदाहरणेन स्फुटयति -- नहीति। यद्यपि देवदत्तमाणवकाभ्यां कृतं कार्यं मुख्याभ्यां सिंहाग्निभ्यां न क्रियते तथापि देवदत्तगतक्रौर्येण मुख्यसिंहस्य माणवकनिष्ठपैङ्गल्येन मुख्याग्नेरिव च संघातगतेनापि जडत्वेनात्मनो मुख्यस्य किंचित्कार्यं कृतं भविष्यतीत्याशङ्क्याह -- नचेति। देहादावहंधियो गौणत्वायोगे हेत्वन्तरमाह -- स्तूयमानाविति। देवदत्तमाणवकयोः सिंहाग्निभ्यां भेदधीपूर्वकं तद्व्यापारवत्त्वाभावधीवदात्मनोऽपि मुख्यस्य संघाताद्भेदधीद्वारा तदीयव्यापारराहित्यमात्मनि दृष्टं स्यादित्यर्थः। व्यावर्त्यं दर्शयति -- न पुनरिति। संघातेऽहंधियो मिथ्याधीत्वेऽपि न तत्कृतमात्मनि कर्तृत्वं किं चात्मीयैर्ज्ञानेच्छाप्रयत्नैरस्य कर्तृत्वं वास्तवमिति मतमनुवदति -- यच्चेति। ज्ञानादिकृतमपि कर्तृत्वं मिथ्याधीकृतमेव ज्ञानादीनां मिथ्याधीकार्यत्वादिति दूषयति -- न तेषामिति। तदेव प्रपञ्चयति -- मिथ्येति। मिथ्याज्ञानं निमित्तं कृत्वा किंचिदिष्टं किंचिदनिष्टमित्यारोप्य तद्द्वारानुभूते तस्मिन्प्रेप्साजिहासाभ्यां क्रियां निर्वर्त्य तयेष्टमनिष्टं च फलं भुक्त्वा तेन संस्कारेण तत्पूर्विकाः स्मृत्यादयः स्वात्मनि क्रियां कुर्वन्तीति युक्तं कर्तृत्वस्य मिथ्यात्वमित्यर्थः। अतीतानागतजन्मनोरिव वर्तमानेऽपि जन्मनि कर्तृत्वादिसंसारस्य वस्तुत्वमाशङ्क्याह -- यथेति। विमतौ कालावविद्याकृतसंसारवन्तौ कालत्वाद्वर्तमानकालवदित्यर्थः। संसारस्याविद्याकृतत्वे फलितमाह -- ततश्चेति। तस्याविद्यत्वेन विद्यापोह्यत्वे हेत्वन्तरमाह -- अविद्येति। कुतोऽस्याविद्याकृतत्वं धर्माधर्मकृतत्वसंभवादित्याशङ्क्याह -- देहादीति। आत्मनो धर्मादिकर्तृत्वस्याविद्यत्वान्नाविद्यां विना कर्मिणां देहाभिमानः संभवत्यतश्चात्मनः संघातेऽहमभिमानस्याविद्याविद्यमानतेत्यर्थः। आत्मनो देहाद्यभिमानस्याविद्यकत्वमन्वयव्यतिरेकाभ्यां साधयन्व्यतिरेकं दर्शयति -- नहीति। अन्वयं दर्शयन्व्यतिरेकमनुवदति -- अजानन्निति। पुत्रे पितुरहंधीवदात्मीये देहादावहंधीर्गौणीत्युक्तमनुवदति -- यस्त्विति। तत्र दृष्टान्तश्रुतेर्गौणात्मविषयत्वमुक्तमङ्गीकरोति -- स त्विति। तर्हि देहादावपि तथैव स्वकीये स्यादहंधीर्गौणीत्याशङ्क्याह -- गौणेनेति। नहि स्वकीयेन पुत्रादिना गौणात्मना पितृभोजनादिकार्यं क्रियते तथा देहादेरपि गौणात्मत्वे तेन कर्तृत्वादिकार्यमात्मनो न वास्तवं सिद्ध्यतीत्यर्थः। गौणात्मना मुख्यात्मनो नास्ति वास्तवं कार्यमित्यत्र दृष्टान्तमाह -- गौणेति। नहि गौणसिंहेन देवदत्तेन मुख्यसिंहकार्यं क्रियते नापि गौणाग्निना माणवकेन मुख्याग्निकार्यं दाहपाकादि तथा देहादिना गौणात्मना मुख्यात्मनो न वास्तवं कार्यं कर्तृत्वादि कर्तुं शक्यमित्यर्थः। स्वर्गकामादिवाक्यप्रामाण्यादात्मनो देहाद्यतिरेकज्ञानात्तस्य च केवलस्याकर्तृत्वात्तत्कर्तव्यं कर्म गौणैरेव देहाद्यात्मभिः संपाद्यते नहि सत्येव श्रौतातिरेकज्ञाने देहादावात्मत्वमात्मनो मुख्यं युक्तमिति चोदयति -- अदृष्टेति। न देहादीनामात्मत्वं गौणं तदीयात्मत्वस्याविद्यत्वेन मुख्यत्वादतो न गौणात्मभिरात्मकर्तव्यं कर्म क्रियते किंतु मिथ्यात्मभिरिति परिहरति -- नाविद्येति। तदेव विवृण्वन्नञर्थं स्फुटयति -- न गौणा इति। कथं तर्हि देहादिविषयात्मत्वप्रथेत्याशङ्क्याविद्याकृतेत्यादिहेतुं विभजते -- कथं तर्हीति। देहादीनामनात्मनामेव सतामात्मत्वं मिथ्याप्रत्ययकृतमित्यत्रान्वयव्यतिरेकावुदाहरति -- तद्भाव इति। उक्तेऽन्वये शास्त्रीयसंस्कारशून्यानामनुभवं प्रमाणयति -- अविवेकिनामिति। व्यतिरेकेऽपि दर्शिते शास्त्राभिज्ञानामनुभवमनुकूलयति -- नत्विति। अन्वयव्यतिरेकाभ्यामनुभवानुसारिणां सिद्धमर्थमुपसंहरति -- तस्मादिति। तत्कृत एव देहादावहंप्रत्यय इति शेषः। किञ्च व्यवहारभूमौ भेदग्रहस्य गौणत्वव्यापकत्वात्तस्य प्रकृतेऽभावान्न देहादावहंशब्दप्रत्ययौ गौणावित्याह -- पृथगिति। अदृष्टविषयचोदनाप्रामाण्यात्कर्तुरात्मनो व्यतिरेकावधारणात्तस्य देहादावहमभिमानस्य गौणतेत्युक्तमनुवदति -- यत्त्विति।,श्रुतिप्रामाण्यस्याज्ञातार्थविषयत्वान्मानान्तरसिद्धे व्यतिरिक्तात्मनि चोदनाप्रामाण्याभावान्न तदवष्टम्भेन देहादावात्माभिमानस्य गौणतेत्युत्तरमाह -- न तदिति। श्रुतिप्रामाण्यस्यादृष्टविषयत्वं स्पष्टयति -- प्रत्यक्षादीति। अज्ञातार्थज्ञापकं प्रमाणमिति स्थितेर्न ज्ञाते श्रुतिप्रामाण्यमित्याह -- अदृष्टेति। अज्ञातसाध्यसाधनसंबन्धबोधिनः शास्त्रस्यातिरिक्तात्मन्यौदासीन्ये फलितमाह -- तस्मादिति। अन्वयव्यतिरेकाभ्यां दृष्टो मिथ्याज्ञाननिमित्तो देहादिसंघातोऽहंप्रत्ययस्तस्येति यावत्। अन्यविषयत्वाच्चोदनाया नातिरिक्तात्मविषयतेत्युक्तमिदानीं तद्विषयत्वाङ्गीकारेऽपि न तन्निर्वोढुं शक्यं प्रत्यक्षविरोधादित्याह -- नहीति। अपौरुषेयायाः श्रुतेरसंभावितदोषाया मानान्तरविरोधेऽपि प्रामाण्यमप्रत्याख्येयमित्यभिप्रेत्याह -- यदीति। स्वार्थं बोधयन्त्याः श्रुतेरविरोधापेक्षत्वाद्विरुद्धार्थवादित्वे तत्परिहाराय विवक्षितमर्थान्तरमविरुद्धं तस्याः स्वीकर्तव्यं विरोधे तत्प्रामाण्यानुपपत्तेरित्याह -- तथापीति। अविरोधमवधा[धी]र्य श्रुत्यर्थकल्पना न युक्तेति व्यावर्त्यमाह -- नत्विति। अविद्यावत्कर्तृकं कर्मेति त्वयोपगमादुत्पन्नायां विद्यायामविद्याभावे तदधीनकर्तुरभावादन्तरेण कर्तारमनुष्ठानासिद्धौ कर्मकाण्डाप्रामाण्यमित्यध्ययनविधिविरोधः स्यादिति शङ्कते -- कर्मण इति। कर्मकाण्डश्रुतेर्विद्योदयात्पूर्वं व्यावहारिकप्रामाण्यस्य तात्त्विकप्रामाण्याभावेऽपि संभवाद्ब्रह्मकाण्डश्रुतेश्च तात्त्विकप्रामाण्यस्य ब्रह्मविद्याजनकत्वेनोपपन्नत्वान्नाध्ययनविधिविरोध इति परिहरति -- न ब्रह्मेति। कर्मकाण्डश्रुतेस्तात्त्विकप्रामाण्याभावे ब्रह्मकाण्डश्रुतेरपि तदसिद्धिरविशेषादिति शङ्कते -- कर्मेति। उत्पन्नाया ब्रह्मविद्याया बाधकाभावेन प्रमाणत्वात्तद्धेतुश्रुतेस्तात्त्विकं प्रामाण्यमिति दूषयति -- न बाधकेति। ब्रह्मविद्याया बाधकानुपपत्तिं दृष्टान्तेन साधयति -- यथेति। देहादिसंघातवदित्यपेरर्थः। लौकिकावगतेरिवात्मावगतेरपि फलाव्यतिरेकमुदाहरणेन स्फोरयति -- यथेति। फलमज्ञाननिवृत्तिः। कर्मविधिश्रुतिवदित्युक्तं दृष्टान्तं विघटयति -- न चेति। अनादिकालप्रवृत्तस्वाभाविकप्रवृत्तिव्यक्तीनां प्रतिबन्धेन यागाद्यलौकिकप्रवृत्तिव्यक्तीर्जनयति? कर्मकाण्डश्रुतिस्तज्जननं च चित्तशुद्धिद्वारा प्रत्यगात्माभिमुख्यप्रवृत्तिमुत्पादयति? तथाच कर्मविधिश्रुतीनां पारंपर्येण प्रत्यगात्मज्ञानार्थत्वात्तात्त्विकप्रामाण्यसिद्धिरित्यर्थः। नन्वेवमपि श्रुतेर्मिथ्यात्वाद्धूमाभासवदप्रामाण्यमिति चेन्नेत्याह -- मिथ्यात्वेऽपीति। स्वरूपेणासत्यत्वेऽपि सत्योपेयद्वारा प्रामाण्यमित्यत्र दृष्टान्तमाह -- यथेति। मन्त्रार्थवादेतिहासपुराणानां श्रुतेऽर्थे प्रामाण्याभावेऽपि शेषिविध्यनुरोधेन प्रामाण्यवत्प्रकृतेऽपि श्रुतेः स्वरूपेणासत्याया विषयसत्यतयाः सत्यत्वे प्रामाण्यमविरुद्धमित्यर्थः वाक्यस्य शेषिविध्यनुरोधेन प्रामाण्यं नालौकिकमित्याह -- लोकेऽपीति। कर्मकाण्डश्रुतीनामुक्तरीत्या परंपरया प्रामाण्येऽपि साक्षात्प्रामाण्यमुपेक्षितमित्याशङ्क्याह -- प्रकारान्तरेति। आत्मज्ञानोदयात्प्रागवस्था प्रकारान्तरं? तत्र स्थितानां कर्म श्रुतीनामज्ञातसंबन्धबोधकत्वेन साक्षादेव प्रामाण्यमिष्टमित्यर्थः। ज्ञानात्पूर्वं कर्मश्रुतीनां व्यावहारिकप्रामाण्ये दृष्टान्तमाह -- प्रागिति। प्रातीतिककर्तृत्वस्याविद्यकत्वेऽपि श्रुतिप्रामाण्यमप्रत्यूहमित्युक्तं संप्रति कर्तृत्वस्य प्रकारान्तरेण पारमार्थिकत्वमुत्थापयति -- यत्त्विति। स्वव्यापाराभावे संनिधिमात्रेण कुतो मुख्यं कर्तृत्वमित्याशङ्क्य दृष्टान्तमाह -- यथेति। स्वयमयुध्यमानत्वे कथं तत्फलवत्त्वमित्याशङ्क्य प्रसिद्धिवशादित्याह -- जित इति। कायिकव्यापाराभावेऽपि कर्तृत्वस्य मुख्यत्वे दृष्टान्तमाह -- सेनापतिरिति। तस्यापि फलवत्त्वं राजवदविशिष्टमित्याह -- क्रियेति। अन्यकर्मणान्यस्य संनिहितस्य मुख्ये कर्तृत्वे वैदिकमुदाहरणमाह -- यथा चेति। कथमृत्विजां कर्म यजमानस्येत्याशङ्क्याह -- तत्फलस्येति। स्वव्यापारादृते संनिधेरेवान्यव्यापारहेतोर्मुख्यकर्तृत्वे दृष्टान्तान्तरमाह -- यथाचेति। क्रियां कुर्वत्कारणं कारकमित्यङ्गीकारविरोधान्नैतदिति दूषयति -- तदसदिति। कारकविशेषविषयत्वेनाङ्गीकारोपपत्तिरिति शङ्कते -- कारकमिति। स्वव्यापारमन्तरेण न किंचिदपि कारकमिति परिहरति -- न राजेति। दर्शनमेव विशदयति -- राजेति। तथा राज्ञो युद्धे योधयितृत्वेन धनदानेन च मुख्यं कर्तृत्वं तथा फलभोगेऽपि मुख्यमेव तस्य कर्तृत्वमित्याह -- तथेति। यदुक्तमृत्विक्कर्म यजमानस्येति तत्राह -- यजमानस्यापीति। स्वव्यापारादेव मुख्यं कर्तृत्वमिति स्थिते फलितमाह -- यस्मादिति। तदेव प्रपञ्चयति -- यदीति। तर्हि संनिधानादेव मुख्यं कर्तृत्वं राजादीनामुपगतमिति नेत्याह -- न तथेति। राजादीनां स्वव्यापारवत्त्वे पूर्वोक्तं सिद्धमित्याह -- तस्मादिति। राजप्रभृतीनां संनिधेरेव कर्तृत्वस्य गौणत्वे जयादिफलवत्त्वस्यापि सिद्धं गौणत्वमित्याह -- तथा चेति। तत्र पूर्वोक्तं हेतुत्वेन स्मारयति -- नेति। अन्यव्यापारेणान्यस्य मुख्यकर्तृत्वाभावे फलितमुपसंहरति -- तस्मादिति। कथं तर्हि त्वयात्मनि कर्तृत्वादि स्वीकृतं नहि बुद्धेस्तदिष्टं कर्ता शास्त्रार्थवत्त्वादिति न्यायात्तत्राह -- भ्रान्तीति। कर्तृत्वाद्यात्मनि भ्रान्तमित्येतदुदाहरणेन स्फोरयति -- यथेति। मिथ्याज्ञानकृतमात्मनि,कर्तृत्वादीत्यत्र व्यतिरेकं दर्शयति -- नचेति। उक्तव्यतिरेकफलं कथयति -- तस्मादिति। संसारभ्रमस्याविद्याकृतत्वे सिद्धे परमप्रकृतमुपसंहरति -- इति सम्यगिति। शास्त्रतात्पर्यार्थं विचारद्वारा निर्धार्यानन्तरश्लोकमवतारयति -- सर्वमिति। प्रकृते खल्वष्टादशाध्याये गीताशास्त्रार्थं सर्वं प्रतिपत्तिसौकर्यार्थमुपसंहृत्यान्ते च सर्वधर्मान्परित्यज्येत्यादौ विशेषस्तस्य संक्षेपेणोपसंहारं कृत्वा संप्रदायविधिवचनस्यावसरे सतीदानीमिति योजना। किमिति विस्तरेणोपसंहृतः शास्त्रार्थः संक्षिप्योपसंह्रियते तत्राह -- शास्त्रार्थेति। संक्षेपविस्तराभ्यामुक्तोऽर्थः सर्वेषां दृढतया बुद्धिमधिरोहतीत्यर्थः। हितायेत्येतदेव व्याचष्टे -- संसारेति। कदाचनेति सर्वैः संबध्यते। प्रतिषेधसामर्थ्यसिद्धमर्थं कथयति -- भगवतीति। अर्थसिद्धेऽर्थे स्मृत्यन्तरमनुसृत्य मेधावित्वमन्तर्भावयति -- तत्रेति। विकल्पदर्शनात्तेषूक्तेषु विशेषणेषु मेधावित्वमपि प्रविशतीत्यर्थः। विकल्पपक्षे कथमधिकारिप्रतिपत्तिरिति तत्राह -- शुश्रूषेति। ताभ्यां युक्ताय भगवत्यसूयारहिताय तपस्विने वाच्यमिति संबन्धः। तद्युक्ताय शुश्रूषाभक्त्यनसूयासहितायेत्यर्थः। तपस्वित्वं मेधावित्वं वा निरपेक्षमधिकारिविशेषणमिति शङ्कां शातयति -- शूश्रूषेति। भगवद्विषयासूयाराहित्ये तात्पर्यं सूचयति -- भगवतीति। कस्मै तर्हि वाच्यमेतदित्याशङ्क्य पूर्वोक्तसर्वगुणसंपन्नायेत्याह -- गुरुशुश्रूषेति। अनुक्तेतरविशेषणोपलक्षणार्थमुभयग्रहणम्। मेधाविनस्तपस्वित्वं नातीवापेक्षते सर्वमन्यद्बाधकाभावादपेक्षितमेवेति भावः।
।।18.67।।एवं सप्तदशाध्यायान्तगीताशास्त्रार्थं सर्वं प्रतिपत्तिससौकर्यार्थमस्मिन्नध्याये विस्तरेणोपसंहृत्यान्ते मन्मना भवेति द्वाभ्यां पुनः स्वशास्त्रदार्ढ्याय संक्षेपतस्तस्योपसंहारं कृत्वाथेदानीं शास्त्रसंप्रदायविधिमाह -- इदमिति। इदं शास्त्रं संसारविच्छित्तिहेतुभूतं तव हिताय मयोक्ताम्। अतपस्काय उक्तशारीरादितपोरहिताय न वाच्यं कदाचन कस्यंचिदप्यवस्थायापति सर्वैः सबंध्यते। तपस्विनेऽप्यभक्ताय गुरौ देवे च भक्तिरहिताय कदाचन न वाच्यं विशेषणद्वययुक्तायाप्यशुश्रूषवे शुश्रूषावर्जिताय कदापि न वाज्यम्। यो मां वासुदेवं मनुष्यं प्राकृतं मत्वाऽभ्यसूयति आत्मप्रशंसादिदोषाध्योरोपणेन मतस्वरुपानभिज्ञो ममेश्वरत्वं न सहते तस्मै ममेश्वरत्वासहिष्णवेऽतापस्विनेऽतपस्विनेऽभक्तायाशुश्रूषवेऽपि कदाचन न वाच्यम्। तपस्विने भक्ताय शुश्रूषवेऽनसूयवे शास्त्रं वाच्यमिति प्रतिषेधासामर्थ्याद्गभ्यते। तत्र मेधाविनी तपस्विने वेति स्मृत्यन्तरे मेधावितपस्विनेर्विकल्पदर्शात्। शुश्रूषाभक्तियुक्ताय भगवत्यसूयारहिताय तपस्विने वाच्यम्। शुश्रूषाभक्त्यनसूयासहिताय मेधाविने वा वाच्यम्। शूश्रूषाभिक्तिवियुक्ताय तपस्विने मेधाविने यपि न वाच्यम्। भगवत्यसूयायुक्ताय समस्तगुणवतेऽपि न वाच्यम्। गुरुशुश्रूषाभक्त्यनसूयायुक्ताय तपस्विने मेधाविने वा वाच्यमित्येष शास्त्रसंप्रदायविधिः।
।।18.67।।एवं श्लोकद्वयेनज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् इति सांख्ययोगौ द्वितीयाध्याये दर्शितावुपसंहृत्य विद्यासंप्रदायविधिमाह -- इदमिति। अतपस्काय तप आलोचनं तद्रहिताय। अयत्नशीलायेत्यर्थः। अभक्ताय श्रद्धाहीनाय। अशुश्रूषवे गुरुसेवामकुर्वते। मां परमात्मानं योऽभ्यसूयति मदीयगुणासहिष्णुतया मयि दोषारोपपरो भवति तस्मै। नञः प्रत्येकं संबद्धत्वादेतेषां विशेषणानामन्यतमाभावेऽपि कदाचन महत्यपि संकटे इदं न वाच्यं नोपदेष्टव्यम्। अत्रविद्या ह वै ब्राह्मणमाजगाम गोपाय मा शेवधिष्टेऽहमस्मि। असूयकायानृजवेऽयताय न मा ब्रूयाऽवीर्यवती तथा स्याम्।यस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ। तस्यैते कथिता ह्यर्थाः प्रकाशन्ते महात्मनः इति श्रवणादसूयारहितायार्जवोपेतायाभ्यासशीलाय गुरुपरमेश्वराराधनपराय च एतद्रहस्य देयं नान्यस्मा इत्यर्थः।
।।18.67।।इदं ते परमं गुह्यं शास्त्रं मया आख्यातम् अतपस्काय अतप्ततपसे त्वया न वाच्यं त्वयि वक्तरि मयि च अभक्ताय कदाचन न वाच्यं तप्ततपसे च अभक्ताय न वाच्यम् इत्यर्थः। न च अशुश्रूषवे भक्ताय अपि अशुश्रूषवे न वाच्यं न च मां यः अभ्यसूयति मत्स्वरूपे मदैश्वर्ये मद्गुणेषु च कथितेषु यो दोषम् आविष्करोति न तस्मै वाच्यम्? असमानविभक्तिनिर्देशः तस्य अत्यन्तपरिहरणीयताज्ञापनाय।
।।18.67।।एवं गीतार्थतत्त्वमुपदिश्य तत्संप्रदायप्रवर्तने नियममाह -- इदमिति। इदं गीतार्थतत्त्वं ते त्वयाऽतपस्काय स्वधर्मानुष्ठानहीनाय न वाच्यं? न चाभक्ताय गुरौ ईश्वरे च भक्तिशून्याय कदाचिदपि न वाच्यं? न चाशुश्रूषवे परिचर्यामकुर्वत वाच्यं? मां परमेश्वरं योऽभ्यसूयति मनुष्यदृष्ट्या दोषारोपेण निन्दति तस्मै च न वाच्यम्।
।।18.67।।एवं स्वोपदेशेन प्रतिष्ठिततत्त्वहितज्ञानस्य अर्जुनस्य कर्तव्यविशेषोपदेशव्याजेन सम्प्रदायविधिसिद्ध्यथमस्मिन् शास्त्रेऽनधिकारिणस्तावद्व्यनक्ति -- इदं ते इति श्लोकेन।इदम् इति सामान्येन निर्दिष्टं पूर्वापरग्रन्थस्थैः पदैर्विवृणोति -- इद ते परमं गुह्यं शास्त्रं मयाऽऽख्यातमिति। अत्र तेशब्दःइति ते ज्ञानमाख्यातम् [18।63] इति श्लोकादाकृष्टः श्लोकस्थस्य तु तेशब्दस्यत्वयेति व्याक्रिया। अतपस्कशब्देन तपःप्रारम्भमात्रे कृतेऽपि श्रवणानधिकारित्वं विवक्षितमित्याह -- अतप्ततपस इति।यस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ [श्वे.उ.6।23सुबालो.16।2यो.शि.2।22शाट्याय.37] इति श्रुत्यनुसारेणाऽऽह -- त्वयि वक्तरि मयि चाभक्तायेति। अभक्तत्वे विशेषसङ्कोचकाभावात्।मद्भक्तेष्वभिधास्यति [18।68] इत्यनन्तरं भक्तावादरदर्शनाच्च।कदाचन इत्यनेन तपसि सम्यगनुष्ठितेऽपीति विवक्षितमित्याह -- तप्तपसे चाभक्तायेति। प्रत्येकपरिहरणीयत्वाय च नञ्प्रयोगावृत्तिः। उत्तरोत्तरतीव्रत्वतात्पर्येण क्रमविशेष इत्यभिप्रायेणाऽऽह -- भक्तायाप्यशुश्रूषव इति। अत्रापि सङ्कोचहेत्वभावात् पूर्ववत्।प्रब्रूहि तं श्रद्दधानाय मह्यम् [कठो.1।1।13] इति श्रुत्या च शुश्रूषाप्राधान्यमवगतम्? मामभ्यसूयति मह्यमभ्यसूयतीत्यर्थः।क्रुधदुहेर्ष्यासूयार्थानां यं प्रति कोपः [अष्टा.1।4।37] इति कर्मत्वस्यापि सिद्धत्वात् द्वितीयाऽत्रानपोदिता। मां प्रत्यसूयतीत्युक्तं भवति। विषयतो लक्षणतश्च असूयां व्यनक्तिमत्स्वरूप इत्यादिना।माम् इति सप्रकारपरामर्श इति भावः।प्रक्रमानुरोधेननचाभ्यसूयवे इति वक्तव्ये प्रक्रमभङ्गेन विरूपवाक्यकरणं केनाभिप्रायेणेत्यत्राऽऽह -- असमानेति। असूयकायानृजवे [मुक्तिको.1।51]असूयकाय मां मादाः [मनुः2।114] इत्यादिभिरसूयामात्रवते प्रवचनं निषिद्धम्। भगवत्यभ्यसूयावते तु प्रवचनमत्यन्तपरिहरणीयमिति भावः।न च ৷৷. वाच्यम् इत्यनेनानधिकारिषु प्रवचने प्रत्यवायः सूचितः। अत्रमेधाविने तपस्विने वा इत्यनयोर्विकल्पोऽन्यत्र दृष्टः? भक्तादेस्तु न तथा अतो भक्त्यादिरहिताय न मेधाविने नापि तपस्विने वाच्यम्। सर्वगुणयोगेऽपि भगवत्यभ्यसूयावते न वाच्यमित्युक्तं भवति।
।।18.67।।इदमिति। अस्य ज्ञानस्य गोप्यमानत्वं सिद्धिदम्? सर्वजनाविषयत्वात्। तपसा तावत् पापग्रन्थौ विशीर्णे कुशलपरिपाकोन्मुखता भवति? इति पूर्वं तपः तपसः श्रद्धा ( S adds जायते after श्रद्धा ) ? सैव भक्तिः। श्रद्धापि उपजाता कदाचित् न प्ररोहति? सौदामिनीव क्षणदृष्टनष्टत्वात् ( N क्षणदृष्टत्वात् )। ततः तत्प्ररोहे श्रोतुमिच्छा भवति। इयदपि च कस्यचिदनीश्वरेऽवस्तुनि शुष्कसांख्यादिज्ञाने भवति। सेश्वरेऽपि वा कस्यचित् फलार्थितया फलमेव प्रधानीकृत्य भगवन्तं च स्वात्मानं तदुपकरणपात्रीकरणेन न्यक्कृत्यं भवेत्। यदुक्तम् -- पुरुषश्च कर्मार्थत्वात् ( JS? III? i? 6 )कर्माण्यपि फलार्थत्वात् ( JS? III? i? 4 ) इति। एवमुभयथापि भगवति असूयैव अनादर इत्यर्थः।
।।18.67।।समाप्तः शास्त्रार्थः। शास्त्रसंप्रदायविधिमधुना कथयति -- इदमिति। इदं गीताख्यं सर्वशास्त्रार्थरहस्यं ते तव संसारविच्छित्तये मयोक्तं नातपस्कायासंयेतेन्द्रियाय न वाच्यम्। कदाचन कस्यामप्यवस्थायामिति पर्यायत्रयेऽपि संबध्यते। तपस्विनेऽप्यभक्ताय गुरौ देवे च भक्तिरहिताय न वाच्यं कदाचन तपस्विने भक्तायाप्यशुश्रूषवे शुश्रूषां परिचर्यामकुर्वते च न वाच्यम्। कदाचन चशब्दो वाच्यं कदाचनेति पदद्वयाकर्षणार्थः। नच मां योऽभ्यसूयति मां भगवन्तं वासुदेवं मनुष्यमसर्वज्ञत्वादिगुणकं मत्वाभ्यसूयत्यात्मप्रशंसादिदोषाध्यारोपणेनेश्वरत्वमसहमानो द्वेष्टि यस्तस्मै श्रीकृष्णोत्कर्षासहिष्णवेऽतपस्विने भक्तायाशुश्रूषवेऽपि न वाच्यं कदाचनेत्यनुकर्षणार्थश्चकारः। तपस्विने भक्ताय शुश्रूषवे श्रीकृष्णानुरक्ताय च वाच्यमित्यर्थः। एकैकविशेषणाभावेऽप्ययोग्यताप्रतिपादनार्थाश्चत्वारो नकाराः। मेधाविने तपस्विने वेत्यन्यत्र विकल्पदर्शनात्। शुश्रूषा गुरुभक्तिभगवदनुरक्तियुक्ताय तपस्विने तद्युक्ताय मेधाविने वा वाच्यं मेधातपसोः पाक्षिकत्वेऽपि भगवदनुरक्तिगुरुभक्तिशुश्रूषाणां नियम एवेति भाष्यकृतः।
।।18.67।।एवं सकलशास्त्रार्थगीतार्थतत्त्वमुपदिश्य लोकोद्धारार्थमेतदुपदेशनेन मार्गप्रवर्तनार्थमधिकारिणमाह -- इदं ते इति। इदं सर्वशास्त्ररहस्यं ते त्वया अतपस्काय स्वाचारहीनाय न वाच्यम्। न च अभक्ताय मद्भक्तिरहिताय कदाचन वाच्यम्।कदाचन इतिपदेनाभक्तसंसर्गिणे भक्तायाऽपि न वाच्यमिति ज्ञापितम्। न च पुनः अशुश्रूषवे श्रवणेच्छारहिताय? अनासक्तायेत्यर्थः। यद्वा मत्परिचर्याहीनाय च न वाच्यम्। यो मां पुरुषोत्तमं बाहिर्मुख्येण अभ्यसूयति दोषारोपपूर्वकं कौटिल्येन निन्दति तस्मै च न च वाच्यम्।
।।18.67।। --,इदं शास्त्रं ते तव हिताय मया उक्तं संसारविच्छित्तये अतपस्काय तपोरहिताय न वाच्यम् इति व्यवहितेन संबध्यते। तपस्विनेऽपि अभक्ताय गुरौ देवे च भक्तिरहिताय कदाचन कस्यांचिदपि अवस्थायां न वाच्यम्। भक्तः तपस्वी अपि सन् अशुश्रूषुः यो भवति तस्मै अपि न वाच्यम्। न च यो मां वासुदेवं प्राकृतं मनुष्यं मत्वा अभ्यसूयति आत्मप्रशंसादिदोषाध्यारोपणेन ईश्वरत्वं मम अजानन् न सहते? असावपि अयोग्यः? तस्मै अपि न वाच्यम्। भगवति अनसूयायुक्ताय तपस्विने भक्ताय शुश्रूषवे वाच्यं शास्त्रम् इति,सामर्थ्यात् गम्यते। तत्र मेधाविने तपस्विने वा इति अनयोः विकल्पदर्शनात् शुश्रूषाभक्तियुक्ताय तपस्विने तद्युक्ताय मेधाविने वा वाच्यम्। शुश्रूषाभक्तिवियुक्ताय न तपस्विने नापि मेधाविने वाच्यम्। भगवति असूयायुक्ताय समस्तगुणवतेऽपि न वाच्यम्। गुरुशुश्रूषाभक्तिमते च वाच्यम् इत्येषः शास्त्रसंप्रदायविधिः।।संप्रदायस्य कर्तुः फलम् इदानीम् आह --,
।।18.67।।एवं स्वगीतार्थमुपदिश्य तत्सम्प्रदायप्रवर्तने नियमयति -- इदमिति। गीतं ज्ञानं ते त्वयाऽतपस्काय न वाच्यम्। एवमन्यत्स्पष्टम्।