राजन्संस्मृत्य संस्मृत्य संवादमिममद्भुतम्।केशवार्जुनयोः पुण्यं हृष्यामि च मुहुर्मुहुः।।18.76।।
rājan sansmṛitya sansmṛitya saṁvādam imam adbhutam keśhavārjunayoḥ puṇyaṁ hṛiṣhyāmi cha muhur muhuḥ
O King, remembering this wonderful and holy dialogue between Krishna and Arjuna, I continually rejoice.
18.76 राजन् O King? संस्मृत्य having remembered? संस्मृत्य having remembered? संवादम् the dialogue? इमम् this? अद्भुतम् wonderful? केशवार्जुनयोः between Kesava and Arjuna? पुण्यम् holy? हृष्यामि (I) rejoice? च and? मुहुः again? मुहुः again.Commentary Rajan King Dhritarashtra to whom the Gita is narrated by Sanjaya.Punyam Holy because the mere hearing of the dialogue destroys a multitude of sins and makes the hearer pious and Godfearing and turns his mind towards God.
।।18.76।। व्याख्या -- राजन्संस्मृत्य ৷৷. मुहुर्मुहुः -- सञ्जय कहते हैं कि हे महाराज भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुनका यह बहुत अलौकिक? विलक्षण संवाद हुआ है। इसमें कितना रहस्य भरा हुआ है कि घोरसेघोर युद्धरूप क्रिया करते हुए भी ऊँचीसेऊँची पारमार्थिक सिद्धि हो सकती है मनुष्यमात्र हरेक परिस्थितिमें अपना उद्धार कर सकता है। इस प्रकारके संवादको याद करकरके मैं बड़ा हर्षित हो रहा हूँ? प्रसन्न हो रहा हूँ।श्रीभगवान् और अर्जुनके इस अद्भुत संवादकी महिमा भी बहुत विलक्षण है। भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुन सदा साथमें रहनेपर भी इन दोनोंका ऐसा संवाद कभी नहीं हुआ। युद्धके समय अर्जुन घबरा गये क्योंकि एक तरफ तो उनको कुटुम्बका मोह तंग कर रहा था और दूसरी तरफ वे क्षात्रधर्मकी दृष्टिसे युद्ध करना अवश्य कर्तव्य समझते थे। मनुष्यकी जब किसी एक सिद्धान्तपर? एक मतपर स्थिति नहीं होती? तब उसकी व्याकुलता बड़ी विचित्र होती है (टिप्पणी प0 1000)। अर्जुन भीयुद्ध करना श्रेष्ठ है या युद्ध न करना श्रेष्ठ है -- इन दोनोंमेंसे एक निश्चित निर्णय नहीं कर सके। इसी व्याकुलताके कारण अर्जुन भगवान्की तरफ खिंच गये? उनके सम्मुख हो गये। सम्मुख होनेसे भगवान्की कृपा उनको विशेषतासे प्राप्त हुई। अर्जुनकी अनन्य भावना? उत्कण्ठाके कारण भगवान् योगमें स्थित हो गये अर्थात् ऐश्वर्य आदिमें स्थित न रहकर केवल अपने प्रेमतत्त्वमें सराबोर हो गये और उसी स्थितिमें अर्जुनको समझाया। इस प्रकार उत्कट अभिलषासम्पन्न अर्जुन और अलौकिक अटलयोगमें स्थित भगवान्के संवादका क्या महिमा कहें उसकी महिमाको कहनेमें कोई भी समर्थ नहीं है।
।।18.76।। ईश्वरीय काव्य गीता को श्रवण करके संजय इस श्लोक में अपनी स्पष्ट प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहता है कि भगवान् केशव और मानव अर्जुन सम्पूर्ण एवं अपूर्ण? उच्च एवं निम्न के मध्य यह संवाद अद्भुत और पुण्यपवित्र है।संजय द्वारा श्रवण किया गया गीता का ज्ञान इतना गम्भीर और आकर्षक रूप से बोधगम्य था कि वह उसे पुन पुन स्मरण करके अपने हृदय में बारम्बार हर्षित हो रहा था।गीता जीवन जीने की कला को बताने वाली सूचनाओं की निर्देशिका है अत? यहाँ भी महर्षि व्यास जी अप्रत्यक्ष रूप से हमें साधनमार्ग का संकेत करते हैं। संस्मृत्य (स्मरण करके) शब्द के द्वारा वे यह दर्शाते हैं कि साधक को श्रवण करने के पश्चात्? बारम्बार मनन? अर्थात् प्राप्त ज्ञान पर चिन्तन करना चाहिए। सम्यक् ज्ञान का फल हर्ष होगा।गर्भ से शवागर्त तक की निरर्थक जीवन यात्रा में? जब मनुष्य कोई निश्चित दिव्य लक्ष्य देख लेता है? तब वह प्रसन्न हो जाता है। गीता का अध्ययन न केवल हमारे दैनिक जीवन को ही अर्थवन्त बना देता है? वरन् सम्पूर्ण जगत् को एक सुनिश्चित आशा और आनन्द का सन्देश भी देता है। गीता हमें जीवन की अन्धेरी गलियों से उठाकर? अपने आन्तरिक साम्राज्य के राजसिंहासन पर प्रतिष्ठित कर देती है। वह मनुष्य को अपनी आन्तरिक परिस्थितियों का सम्राट बना देती है। अज्ञान की दशा में मनुष्य के जीवन का अर्थ केवल वस्तुओं और प्राणियों के आविर्भाव और तिरोभाव रूपी मृत्यु का विक्षिप्त नृत्य ही होता है परन्तु गीताज्ञान से शिक्षित पुरुष उसी दिन प्रतिदिन के सामान्य जीवन में एक लय को पहचानता है? सुन्दरता का अवलोकन करता है और मधुर संगीत का श्रवण करता है।विश्वरूप दर्शन का स्मरण करते हुए संजय कहता है
।।18.76।।यथोक्तं संवादं भगवतः श्रुत्वा किमुपेक्षसे नेत्याह -- राजन्निति। पुण्यत्वं साधयति -- श्रवणादपीति।
।।18.76।।किंचेममेव केशवार्जुनयोः संवादमद्भुतं पुण्यं श्रवणमात्रेणापि पापहरं श्रुत्वा संस्मृत्य संस्मृत्य पुनः पुनः स्मृत्वा,मुहुर्मुहुः प्रतिक्षणं हृष्यामि रोमाञ्चितो भवामि हर्षं प्राप्नोमीति वा। तयोः संवादं श्रुतवान् त्वमपि वैरं विहाय कृष्णभक्तिमत्यादरेणाङ्गीकुर्वन्नत्यन्तदीप्तिमानत्यन्तहृष्टो वास्तवो राजा भवेति बोधयन् संबोधयति हे राजन्निति।
।।18.76।।केशवार्जुनसंवादश्रवणजं विश्वरूपाख्ययोगदर्शनजं चाह्लादं क्रमेण श्लोकद्वयेनाह -- राजन्निति। हे राजन् हे धृतराष्ट्र? पुण्यं पुण्यकरं पापहरं चेत्यर्थात्। संस्मृत्यसंस्मृत्येति संभ्रमे द्विरुक्तिः। शेषं स्पष्टार्थम्।
।।18.76।।केशवार्जुनयोः इमं पुण्यम् अद्भुतं संवादं साक्षाच्छ्रुतं स्मृत्वा मुहुः मुहुः हृष्यामि।
।।18.76।।किंच -- राजन्निति। हृष्यामि रोमाञ्चितो भवामि हर्षं प्राप्नोमीति वा। स्पष्टमन्यत्।
।।18.76।।अद्भुततरत्वमाह -- राजन् इत्यादिना श्लोकद्वयेन। पुण्यं श्रवणमात्रेणापि ज्ञानयज्ञादिवत्पावनम्। अद्भुतं शब्दतोऽर्थतश्च आश्चार्यावहम्।
।।18.74 -- 18.78।।इत्यहमित्यादि मतिर्ममेत्यन्तम्। संजयवचनेन संवादमुपसंहरन एतदर्थस्य गाढप्रबन्धक्रमेण निरन्तरचिन्तासन्तानोपकृतनैरन्तर्यादेव चान्ते सुपरिस्फुटनिर्विकल्पानुभवरूपतामापाद्यमानं स्मरणमात्रमेव परब्रह्मप्रदायकम् इत्युच्यते। एवं भगवदर्जुनसंवादमात्रस्मरणादेव तत्त्वावाप्त्या ( S? तत्त्वव्याप्त्या ) श्रीविजयविभूतय इति।।।शिवम्।।अत्र संग्रहश्लोकः -- भङ्क्त्वाऽज्ञानविमोहमन्थरमयीं सत्त्वादिभिन्नां धियं प्राप्य स्वात्मविबोधसुन्दरतया ( K स्वात्मविभूत -- ) विष्णुं विकल्पातिगम्।यत्किञ्चित् स्वरसोद्यदिन्द्रियनिजव्यापारमात्रस्थिते ( तो ) हेलातः कुरुते तदस्य सकलं संपद्यते शंकरम्।।।।इति श्रीमहामाहेश्वराचार्यवर्यराजानकाभिनवगुप्तपादविरचिते श्रीमद्भगवद्गीतार्थसंग्रहे अष्टादशोऽध्यायः।।[ आचार्यप्रशस्तिः ] श्रीमान् ( S श्रीमत्कात्यायनो -- ) कात्यायनोऽभूद्वररुचिसदृशः प्रस्फुरद्बोधतृप्त स्तद्वंशालंकृतो यः स्थिरमतिरभवत् सौशुकाख्योऽतिविद्वान्।विप्रः श्रीभूतिराजस्तदनु समभवत् तस्य सूनुर्महात्मा येनामी सर्वलोकास्तमसि निपतिताः प्रोद्धृतता भानुनेव।।1।।तच्चरणकमलमधुपो भगवद्गीतार्थसङ्ग्रहं व्यदधात्।अभिनवगुप्तः सद्द्विज लोटककृतचोदनावशतः ( S लोठककृत -- ?N लोककृत)।।2।।अत इयमयथार्थं वा यथार्थमपि सर्वथा नैव।विदुषामसूयनीयं कृत्यमिदं बान्धवार्थं हि।।3।।अभिनवरूपा शक्ति स्तद्गुप्तो यो महेश्वरो देवः।तदुभयथामलरूपम् ( ? K? S तदुभययामल -- ) अभिनवगुप्तं शिवं वन्दे।।4।।परिपूर्णोऽयं ( This verse is given differently in different Mss. S परिपूर्णोऽयं गीतार्थसंग्रहः।कृतिस्त्रिनयनचरणचिन्तनलब्धप्रसिद्धेश्श्रीमदभिनवगुप्तस्य।? N? K अत इत्ययमर्थसंग्रहः। [ N substitutes this sentence with परिपूर्णोऽयं श्रीमद्भगवद्गीतार्थसंग्रहः। ] कृतिश्चेयं परमेश्वरचरण [ K adds सरोरुह ] चिन्तन लब्धचिदात्मसाक्षात्काराचार्याभिनवगुप्तपादानाम्। ) श्रीमद् भगवद्गीतार्थसंग्रहः [ सु ] कृतिः।त्रिणयनचरण [ वि ] चिन्तन लब्धप्रसिद्धेरभिनवगुप्तस्य।।5।।।।इति शिवम्।।
।।18.76।।राजन्निति। पुण्यं श्रवणेनापि सर्वपापहरं केशवार्जुनयोरिमं संवादमद्भुतं न केवलं श्रुतवानस्मि किंतु संस्मृत्य संस्मृत्य। संभ्रमे द्विरुक्तिः। मुहुर्मुहुर्वारंवारं हृष्यामि च हर्षं प्राप्नोमि च। प्रतिक्षणं रोमाञ्चितो भवामीति वा।
।।18.76।।किञ्च -- राजन्निति। हे राजन् इमं केशवार्जुनयोः संवादं अद्भुतं लौकिकोपपत्तिरहितं पुण्यजनकं संस्मृत्य संस्मृत्य सादरं संस्मृत्य सादरं संस्मृत्य मुहुर्मुहुः वारंवारं हृष्यामि हर्षं प्राप्नोमि।
।।18.76।। --,हे राजन् धृतराष्ट्र? संस्मृत्य संस्मृत्य प्रतिक्षणं संवादम् इमम् अद्भुतं केशवार्जुनयोः पुण्यम् इमं श्रवणेनापि पापहरं श्रुत्वा हृष्यामि च मुहुर्मुहुः प्रतिक्षणम्।।
।।18.76।।राजन्निति। केशवार्जुनयोः संवादमिममद्भुतं स्मृत्वाऽहं मुहुर्महुर्हृष्यामि।