BG - 18.78

यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः। तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम।।18.78।

yatra yogeśhvaraḥ kṛiṣhṇo yatra pārtho dhanur-dharaḥ tatra śhrīr vijayo bhūtir dhruvā nītir matir mama

  • yatra - wherever
  • yoga-īśhvaraḥ - Shree Krishna, the Lord of Yog
  • kṛiṣhṇaḥ - Shree Krishna
  • yatra - wherever
  • pārthaḥ - Arjun, the son of Pritha
  • dhanuḥ-dharaḥ - the supreme archer
  • tatra - there
  • śhrīḥ - opulence
  • vijayaḥ - victory
  • bhūtiḥ - prosperity
  • dhruvā - unending
  • nītiḥ - righteousness
  • matiḥ mama - my opinion

Translation

Wherever Krishna, the Lord of Yoga, is; and wherever Arjuna, the wielder of the bow, is; there is prosperity, victory, happiness, and a firm policy; this is my conviction.

Commentary

By - Swami Sivananda

18.78 यत्र wherever? योगेश्वरः the Lord of Yoga? कृष्णः Krishna? यत्र wherever? पार्थः Arjuna? धनुर्धरः the archer? तत्र there? श्रीः prosperity? विजयः victory? भूतिः happiness? ध्रुवा firm? नीतिः policy? मतिः conviction? मम my.Commentary This verse is called the Ekasloki Gita? i.e.? Bhagavad Gita in one verse. Repetition of even this one verse bestows the benefits of reading the whole of the scripture.Wherever On that side on which.Yogesvarah The Lord of Yoga. Krishna is called the Lord of Yogas as the seed of all Yogas comes forth from Him.Dhanurdharah The wielder of the bow called the Gandiva. There On the side of the Pandavas.Thus in the Upanishads of the glorious Bhagavad Gita? the science of the Eternal? the scripture of Yoga? the dialogue between Sri Krishna and Arjuna? ends the eighteenth discourse entitledThe Yoga of Liberation by Renunciation.OM SHANTIH SHANTIH SHANTIH ,,

By - Swami Ramsukhdas , in hindi

।।18.78।। व्याख्या --   यत्र योगेश्वरः कृष्णो पार्थो धनुर्धरः -- सञ्जय कहते हैं कि राजन जहाँ अर्जुनका संरक्षण करनेवाले? उनको सम्मति देनेवाले? सम्पूर्ण योगोंके महान् ईश्वर? महान् बलशाली? महान् ऐश्वर्यवान्? महान् विद्यावान्? महान् चतुर भगवान् श्रीकृष्ण हैं और जहाँ भगवान्की आज्ञाका पालन करनेवाले? भगवान्के प्रिय सखा तथा भक्तगाण्डीवधनुर्धारी अर्जुन हैं? उसी पक्षमें श्री? विजय? विभूति और अचल नीति -- ये सभी हैं और मेरी सम्मति भी उधर ही है। भगवान्ने जब अर्जुनको दिव्य दृष्टि दी? उस समय सञ्जयने भगवान्को महायोगेश्वरः (टिप्पणी प0 1001) कहा था? अब उसी महायोगेश्वरकी याद दिलाते हुए यहाँ योगेश्वरः कहते हैं। वे सम्पूर्ण योगोंके ईश्वर (मालिक) भगवान् कृष्ण तो प्रेरक हैं और उनकी आज्ञाका पालन करनेवाले धनुर्धारी अर्जुन प्रेर्य हैं। गीतामें भगवान्के लियेमहायोगेश्वर?योगेश्वर आदि शब्दोंका प्रयोग हुआ है। इनका तात्पर्य है कि भगवान् सब योगियोंको सिखानेवाले हैं। भगवान्को खुद सीखना नहीं पड़ता क्योंकि उनका योग स्वतःसिद्ध है। सर्वज्ञता? ऐश्वर्य? सौन्दर्य? माधुर्य आदि जितने भी वैभवशाली गुण हैं? वे सबकेसब भगवान्में स्वतः रहते हैं? वे गुण भगवान्में नित्य रहते हैं? असीम रहते हैं। ऐसे पिताका पिता? फिर पिताका पिता -- यह परम्परा अन्तमें जाकर परमपिता परमात्मामें समाप्त होती है? ऐसे ही जितने भी गुण हैं? उन सबकी समाप्ति परमात्मामें ही होती है।पहले अध्यायमें जब युद्धकी घोषणाका प्रसङ्ग आया? तब कौरवपक्षमें सबसे पहले भीष्मजीने शङ्ख बजाया। भीष्मजी कौरवसेनाके अधिपति थे? इसलिये उनका शङ्ख बजाना उचित ही था। परन्तु भगवान् श्रीकृष्ण तो पाण्डवसेनामें सारथि बने हुए हैं और सबसे पहले शङ्ख बजाकर युद्धकी घोषणा करते हैं लौकिक दृष्टिसे देखा जाय तो सबसे पहले शङ्ख बजानेका भगवान्का कोई अधिकार नहीं दीखता। फिर भी वे शङ्ख बजाते हैं तो इससे सिद्ध होता है कि पाण्डवसेनामें सबसे मुख्य भगवान् श्रीकृष्ण ही हैं और दूसरे नम्बरमें अर्जुन हैं। इसलिये इन दोनोंने पाण्डवसेनामें सबसे पहले शङ्ख बजाये। तात्पर्य यह हुआ कि सञ्जयने जैसे आरम्भमें (शङ्खवादनक्रियामें) दोनोंकी मुख्यता प्रकट की? ऐसे ही यहाँ अन्तमें इन दोनोंका नाम लेकर दोनोंकी मुख्यता प्रकट करते हैं।गीताभरमें पार्थ सम्बोधनकी अड़तीस बार आवृत्ति हुई है। अर्जुनके लिये इतनी संख्यामें और कोई सम्बोधन नहीं आया है। इससे मालूम होता है कि भगवान्को पार्थ सम्बोधन ज्यादा प्रिय लगता है। इसी रीतिसे अर्जुनको भी कृष्ण सम्बोधन ज्यादा प्रिय लगता है। इसलिये गीतामें कृष्ण सम्बोधनकी आवृत्ति नौ बार हुई है। भगवान्के सम्बोधनोंमें इतनी संख्यामें दूसरे किसी भी सम्बोधनकी आवृत्ति नहीं हुई। अन्तमें गीताका उपसंहार करते हुए सञ्जयने भी कृष्ण और पार्थ ये दोनों नाम लिये हैं।तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम -- लक्ष्मी? शोभा? सम्पत्ति -- ये सब श्री शब्दके अन्तर्गत हैं। जहाँ श्रीपति भगवान् कृष्ण हैं? वहाँ श्री रहेगी ही।विजय नाम अर्जुनका भी है और शूरवीरता आदिका भी। जहाँ विजयरूप अर्जुन होंगे? वहाँ शूरवीरता? उत्साह आदि क्षात्रऐश्वर्य रहेंगे ही।ऐसे ही जहाँ योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण होंगे? वहाँ विभूति -- ऐश्वर्य? महत्ता? प्रभाव? सामर्थ्य आदि सबकेसब भगवद्गुण रहेंगे ही और जहाँ धर्मात्मा अर्जुन होंगे? वहाँ ध्रुवा नीति -- अटल नीति? न्याय? धर्म आदि रहेंगे ही।वास्तवमें श्री? विजय? विभूति और ध्रुवा नीति -- ये सब गुण भगवान्में और अर्जुनमें हरदम विद्यमान रहते हैं। उपर्युक्त दो विभाग तो मुख्यताको लेकर किये गये हैं। योगेश्वर श्रीकृष्ण और धनुर्धारी अर्जुन -- ये दोनों जहाँ रहेंगे? वहाँ अनन्त ऐश्वर्य? अनन्त माधुर्य? अनन्त सौशील्य? अनन्त सौजन्य? अनन्त सौन्दर्य आदि दिव्य गुण रहेंगे ही।धृतराष्ट्रका विजयकी गूढ़ाभिसन्धिरूप जो प्रश्न है? उसका उत्तर सञ्जय यहाँ सम्यक् रीतिसे दे रहे हैं। तात्पर्य है कि पाण्डुपुत्रोंकी विजय निश्चित है? इसमें कोई सन्देह नहीं है। ज्ञानयज्ञः सुसम्पन्नः प्रीतये पार्थसारथेः। अङ्गीकरोतु तत्सर्वं मुकुन्दो भक्तवत्सलः।। नेत्रवेदखयुग्मे हि बहुधान्ये च वत्सरे (टिप्पणी प0 1002) संजीवनी मुमुक्षूणां माधवे पूर्णतामियात्।। इस प्रकार ? तत्? सत् -- इन भगवन्नामोंके उच्चारणपूर्वक ब्रह्मविद्या और योगशास्त्रमय श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद्रूप श्रीकृष्णार्जुनसंवादमें मोक्षसंन्यासयोग नामक अठारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ।।18।।  

By - Swami Chinmayananda , in hindi

।।18.78।। सात सौ एक श्लोकों वाली श्रीमद्भगवद्गीता का यह अन्तिम श्लोक है। अधिकांश व्याख्याकारों ने इस श्लोक पर पर्याप्त विचार नहीं किया है और इसकी उपयुक्त व्याख्या भी नहीं की है। प्रथम दृष्टि में इसका शाब्दिक अर्थ किसी भी बुद्धिमान पुरुष को प्राय निष्प्राण और शुष्क प्रतीत होगा। आखिर इस श्लोक में संजय केवल अपने विश्वास और व्यक्तिगत मत को ही तो प्रदर्शित कर रहा है? जिसे गीता के पाठक स्वीकार करे ही? ऐसी कोई आवश्यकता नहीं है। संजय का कथन यह है कि जहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण और धनुर्धारी अर्जुन हैं? वहाँ समृद्धि (श्री)? विजय? विस्तार और अचल नीति है? यह मेरा मत है।यदि संजय का उद्देश्य अपने व्यक्तिगत मत को हम पर थोपने का होता? और इस श्लोक में किसी विशेष सत्य का प्रतिपादन नहीं किया होता? तो? सार्वभौमिक शास्त्र के रूप में गीता को प्राप्त मान्यता समाप्त हो गयी होती।पूर्ण सिद्ध महर्षि व्यास इस प्रकार की त्रुटि कभी नहीं कर सकते थे? इस श्लोक का गम्भीर आशय है? जिसमें अकाट्य सत्य का प्रतिपादन किया गया है।योगेश्वर श्रीकृष्ण सम्पूर्ण गीता में? श्रीकृष्ण चैतन्य स्वरूप आत्मा के ही प्रतीक हैं। यह आत्मतत्त्व ही वह अधिष्ठान है? जिस पर विश्व की घटनाओं का खेल हो रहा है। गीता में उपदिष्ट विविध प्रकार की योग विधियों में किसी भी विधि से अपने हृदय में उपस्थित उस आत्मतत्त्व का साक्षात्कार किया जा सकता है।धनुर्धारी पार्थ इस ग्रन्थ में? पृथापुत्र अर्जुन एक भ्रमित? परिच्छिन्न? असंख्य दोषों से युक्त जीव का प्रतीक है। जब वह अपने प्रयत्न और उपलब्धि के साधनों (धनुष बाण) का परित्याग करके शक्तिहीन आलस्य और प्रमाद में बैठ जाता है? तो निसन्देह? वह किसी प्रकार की सफलता या समृद्धि की आशा नहीं कर सकता। परन्तु जब वह धनुष् धारण करके अपने कार्य में तत्पर हो जाता है? तब हम उसमें धनुर्धारी पार्थ के दर्शन करते हैं? जो सभी चुनौतियों का सामना करने के लिए तत्पर है।इस प्रकार? योगेश्वर श्रीकृष्ण और धनुर्धारी अर्जुन के इस चित्र से आदर्श जीवन पद्धति का रूपक पूर्ण हो जाता है। आध्यात्मिक ज्ञान और शक्ति से सम्पन्न कोई भी पुरुष जब अपने कार्यक्षेत्र में प्रयत्नशील हो जाता है? तो कोई भी शक्ति उसे सफलता से वंचित नहीं रख सकती। संक्षेप में? गीता का यह मत है कि आध्यात्मिकता को अपने व्यावहारिक जीवन में जिया जा सकता है? और अध्यात्म का वास्तविक ज्ञान जीवन संघर्ष में रत मनुष्य के लिए अमूल्य सम्पदा है।आज समाज में सर्वत्र एक दुर्व्यवस्था और अशांति फैली हुई दृष्टिगोचर हो रही है। वैज्ञानिक उपलब्धियों और प्राकृतिक शक्तियों पर विजय प्राप्त कर लेने पर भी? आज का मानव? जीवन की आक्रामक घटनाओं के समक्ष दीनहीन और असहाय हो गया है। इसका एकमात्र कारण यह है कि उसके हृदय का योगेश्वर उपेक्षित रहा है। मनुष्य की उन्नति का मार्ग है? लौकिक सार्मथ्य और आध्यात्मिक ज्ञान का सुखद मिलन। यही गीता में उपदिष्ट मार्ग है। मनुष्य के सुखद जीवन के विषय में श्री वेद व्यास जी की यही कल्पना है। केवल भौतिक उन्नति से जीवन में गति और सम्पत्ति तो आ सकती है? परन्तु मन में शांति नहीं। आन्तरिक शांति रहित समृद्धि एक निर्मम और घोर अनर्थ हैपरन्तु यह श्लोक दूसरे अतिरेक को भी स्वीकार नहीं करता है। कुरुक्षेत्र के समरांगण में युद्ध के लिए तत्पर धनुर्धारी अर्जुन के बिना योगेश्वर श्रीकृष्ण कुछ नहीं कर सकते थे। केवल आध्यात्मिकता की अन्तर्मुखी प्रवृत्ति से हमारा भौतिक जीवन गतिशील और शक्तिशाली नहीं हो सकता। सम्पूर्ण गीता में व्याप्त समाञ्जस्य के इस सिद्धांत को मैंने यथाशक्ति एवं यथासंभव सर्वत्र स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है। मनुष्य के चिरस्थायी सुख का यही एक मार्ग है।संजय इसी मत की पुष्टि करते हुए कहता है कि जिस समाज या राष्ट्र के लोग संगठित होकर कार्य करने? विपत्तियों को सहने और लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए तत्पर हैं (धनुर्धारी अर्जुन)? और इसी के साथ ये लोग अपने हृदय में स्थित आत्मतत्त्व के प्रति जागरूक हैं (योगेश्वर श्रीकृष्ण)? तो ऐसे राष्ट्र में समृद्धि? विजय? भूति (विस्तार) और दृढ़ नीति होना स्वाभाविक और निश्चित है।समृद्धि? विजय? विस्तार और दृढ़ नीति का उल्लिखित क्रम भी तर्कसिद्ध है। विश्व इतिहास के समस्त विद्यार्थियों की इसकी युक्तियुक्तता स्पष्ट दिखाई देती है। अर्वाचीन काल और राजनीति के सन्दर्भ में? हम यह जानते हैं कि किसी एक विवेकपूर्ण दृढ़ राजनीति के अभाव में कोई भी सरकार राष्ट्र को प्रगति के मार्ग पर आगे नहीं बढ़ा सकती। दृढ़ नीति के द्वारा ही राष्ट्र की प्रसुप्त क्षमताओं का विस्तार सम्भव होता है? और केवल तभी परस्पर सहयोग और बन्धुत्व की भावना से किसी प्रकार की उपलब्धि प्राप्त की जा सकती है। दृढ़ नीति और क्षमताओं के विस्तार के साथ विजय कोई दूर नहीं रह जाती। और इन तीनों की उपस्थिति में राष्ट्र का समृद्धशाली होना निश्चित ही है। आधुनिक राजनीति के सिद्धांतों में भी इससे अधिक स्वस्थ सिद्धांत हमें देखने को नहीं मिलता है।अत यह स्पष्ट हो जाता है कि यह केवल संजय का ही व्यक्तिगत मत नहीं है? वरन् सभी आत्मसंयमी तत्त्वचिन्तकों का भी यह दृढ़ निश्चय है।गीता के अनेक व्याख्याकार? हमारा ध्यान गीता के प्रारम्भिक श्लोक के प्रथम शब्द धर्म तथा इस अन्तिम श्लोक के अन्तिम शब्द मम की ओर आकर्षित करते हैं। इन दो शब्दों के मध्य सात सौ श्लोकों के सनातन सौन्दर्य की यह माला धारण की गई है। अत इन व्याख्याकारों का यह मत है कि गीता का प्रतिपाद्य विषय है मम धर्म अर्थात् मेरा धर्म। मम धर्म से तात्पर्य मनुष्य के तात्विक स्वरूप और उसके लौकिक कर्तव्यों से है। जब इन दोनों का गरिमामय समन्वय किसी एक पुरुष में हो जाता है? तब उसका जीवन आदर्श बन जाता है। इसलिए? गीता के अध्येताओं को चाहिए कि उनका जीवन आत्मज्ञान? प्रेमपूर्ण जनसेवा एवं त्याग के समन्वय से युक्त हो। यही आदर्श जीवन है।conclusion तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रेश्रीकृष्णार्जुनसंवादे मोक्षसंन्यासयोगो नाम अष्टादशोऽध्याय।।इस प्रकार? श्रीकृष्णार्जुनसंवाद के रूप में ब्रह्मविद्या और योगशास्त्रस्वरूप श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद् का मोक्षसंन्यासयोग नामक अठारहवाँ अध्याय समाप्त होता है।इस अन्तिम अध्याय का शार्षक मोक्षसंन्यासयोग है। यह नाम हमें वेदान्त के अस्पर्शयोग का स्मरण कराता है? जिसकी परिभाषा भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता में दी है। जीवन के असत् मूल्यों का परित्याग करने का अर्थ ही अपने स्वत सिद्ध सच्चिदानन्दस्वरूप का साक्षात्कार करना है। हममें स्थित पशु का त्याग (संन्यास) करना ही? हममें स्थित दिव्यतत्त्व का मोक्ष है।मेरे सद्गुरु स्वामी तपोवनजी महाराज को समर्पित।।

By - Sri Anandgiri , in sanskrit

।।18.78।।द्वयोरपि कृष्णार्जुनयोर्नरनारायणयोः संवादस्य प्रामाण्यार्थं परममुत्कर्षं दर्शयति -- किं बहुनेति। कथं सर्वेषां योगानामीश्वरो भगवानिति तत्राह -- तत्प्रभवत्वादिति। सर्वयोगो ज्ञानं कर्म च तस्य बीजं शास्त्रीयं ज्ञानवैराग्यादि तद्धि भगवदधीनं तदनुग्रहविहीनस्य तदयोगादतो योगतत्फलयोर्भगवदनुग्रहायत्तत्वाद्भगवतो योगेश्वरत्वमित्यर्थः। श्रीर्लक्ष्मीर्विजयः परम उत्कर्षः। राज्ञो धृतराष्ट्रस्य स्वपुत्रेषु विजयाशां शिथिलीकृत्य पाण्डवेषु जयप्राप्तिमैकान्तिकीमुपसंहरति -- इत्येवमिति। उपायोपेयभावेन निष्ठाद्वयस्य प्रतिष्ठापितत्वात्कर्मनिष्ठा परंपरया ज्ञाननिष्ठाहेतुः? ज्ञाननिष्ठा तु साक्षादेव मोक्षहेतुरिति शास्त्रार्थमुपसंहर्तुमितीत्युक्तम्।काण्डत्रयात्मकं शास्त्रं पदवाक्यार्थगोचरम्। आदिमध्यान्तषट्केषु व्याख्याया गोचरीकृतम्।।1।।संक्षेपविस्तराभ्यां यो लक्षणैरुपपादितः। सोऽर्थोऽन्तिमेन संक्षिप्य लक्षणेन विवक्षितः।।2।।गीताशास्त्रमहार्णवोत्थममृतं वैकुण्ठकण्ठोद्भवं श्रीकण्ठापरनामवन्मुनिकृतं निष्ठाद्व्यद्योतितम्।निष्ठा यत्र मतिप्रसादजननी साक्षात्कृतं कुर्वती मोक्षे पर्यवसास्यति प्रतिदिनं सेवध्वमेतद्बुधाः।।3।।प्राचामाचार्यपादानां पदवीमनुगच्छता। गीताभाष्ये कृता टीका टीकतां पुरुषोत्तमम्।।4।।इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यशुद्धानन्दपूज्यपादशिष्यभगवदानन्दगिरिविरचितेश्रीगीताभाष्यविवेचनेऽष्टादशोऽध्यायः।।18।।

By - Sri Dhanpati , in sanskrit

।।18.78।।द्वयोरपि कृष्णार्जुनयोः परनारायणयोः संवादस्य प्रामाण्यार्थ जयाशाशातनार्थं च परममुत्कर्षं दर्शयति -- यत्रेति। यत्र यस्मिन्पक्षे योगेश्वरो योगानां कर्मयोगादीनामघटितघटनापटीयसीनां मायाशक्तीनां चेश्वरः कृष्णःकृषिर्भूवाचकः शब्दोणश्च निर्वृतिवाचकः। तयोरैक्यं परं ब्रह्म कृष्ण इत्यभिधीयते इत्युक्तः सच्चिदानन्दघनोऽघाकर्षणश्च यत्र यस्मिन्पक्षे? यत्र च पार्थोऽर्जुनो धनुर्धरोगाण्डीवधन्वास्ति तत्र तस्मिन्पाण्डवानां पक्षे श्रीः लक्ष्मीः विजयः परम उत्कर्षः विभूतिः गजादिरुपेण विस्तारः ध्रुवाऽव्यभिचारिणीति सर्वत्र संबन्धनीयम्। नीतिः नयः एतत्सर्वं तस्मिन्पक्षेऽस्तीति मम मतिः निश्चयः।इति श्रीमत्परमहंससपरिब्राजकाचार्यश्रीबालस्वामिशिष्यदत्तवंशावतंसरामकुमारमूनुधनपतिविदुषा सारस्वतेन विरचितायां श्रीगीताभाष्योत्कर्षदीपिकायां अष्टादशोऽध्यायः।।18।।

By - Sri Madhavacharya , in sanskrit

।।18.78।। पूर्णादोषमहाविष्णोर्गीतामाश्रित्य लेशतः। निरूपणं कृतं तेन प्रीयतां मे सदा विभुः।सङ्कराख्यस्य दुयोर्नेर्निस्सृतेन रजस्वला। गीतानारी समीरेण शोधिता हंसरूपिणा।।1।।मायिनः शलभायन्ते भास्करस्तस्करायते। यस्य तस्मिन्प्राणनाथे यतीन्द्रे भक्तिरस्तु मे।।2।।

By - Sri Neelkanth , in sanskrit

।।18.78।।यस्मादनन्तैश्वर्यो भगवांस्तदनुगृहीतोऽर्जुनश्च युधिष्ठिरपक्षेऽस्ति अतस्त्वया जयाशा न कार्येत्याह -- यत्रेति। यत्र पक्षे। ध्रुवेति सर्वत्र संबध्यते। श्रीर्दिव्यसभादिशोभा। विजयः प्रसिद्धः। भूतिरैश्वर्यं सर्वनियन्तृत्वम्। नीतिर्नयश्च एतत्सर्वं तत्र तस्मिन्पक्षे ध्रुवमिति मम मतिः। अतः पाण्डवैः सह संधिरेव कर्तव्य इति भावः।

By - Sri Ramanujacharya , in sanskrit

।।18.78।।यत्र योगेश्वरः कृत्स्नस्य उच्चावचरूपेण अवस्थितस्य चेतनस्य अचेतनस्य च वस्तुनो ये ये स्वभावयोगाः तेषां सर्वेषां योगानाम् ईश्वरः स्वसंकल्पायत्तस्वेतरसमस्तवस्तुस्वरूपस्थितिप्रवृत्तिभेदः कृष्णो वसुदेवसूनुः यत्र च पार्थो धनुर्धरः तत्पितृष्वसुः पुत्रः तत्पदद्वन्द्वैकाश्रयः तत्र श्रीः विजयो भूतिः नीतिः च ध्रुवा निश्चला इति मतिः मम इति। ,

By - Sri Sridhara Swami , in sanskrit

।।18.78।।अतस्त्वं पुत्राणां राज्यादिशङ्कां परित्यजेत्याशयेनाह -- यत्रेति। यत्र येषां पाण्डवानां पक्षे योगेश्वरः श्रीकृष्णो वर्तते? यत्र च पार्थो गाण्डीवधनुर्धरः तत्रैव श्री राज्यलक्ष्मीः? तत्रैव च विजयः तत्रैव च भूतिरुत्तरोत्तराभिवृद्धिश्च? तत्रैव नीतिर्नयोऽपि ध्रुवा निश्चितेति सर्वत्र संबद्ध्यते। इति मम मतिर्निश्चयः। अत इदानीमपि तावत्सपुत्रस्त्वं श्रीकृष्णं शरणमुपेत्य पाण्डवान्प्रसाद्य सर्वस्वं च तेभ्यो निवेद्य पुत्रप्राणरक्षणं कुर्विति भावः। भगवद्भक्तियुक्तस्य तत्प्रसादात्मबोधतः। सुखं बन्धविमुक्तिः स्यादिति गीतार्थसंग्रहः।।1।।तथाहिपुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया?भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन इत्यादौ भगवद्भक्तेर्मोक्षं प्रति साधकतमत्वश्रवणात्तदेकान्तभक्तिरेव तत्प्रसादोत्थज्ञानावान्तरव्यापारमात्रयुक्ता मोक्षहेतुरिति स्फुटं प्रतीयते। ज्ञानस्य भक्त्यवान्तरव्यापारत्वमेव युक्तम्।तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्। ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते?भद्भक्त एतद्विज्ञाय मद्भावायोपपद्यते इत्यादिवचनात्तत्त्वज्ञानमेव भक्तिरित्युक्तम्।समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्। भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः इत्यादौ भेदेन निर्देशात्। न चैवं सतितमेव विदित्वातिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय इत्यादि श्रुतिविरोधः शङ्कनीयः? भक्त्यवान्तरव्यापारत्वाज्ज्ञानस्य। न हि काष्ठैः पचतीत्युक्ते ज्वालानामसाधनत्वमुक्तं भवति। किंचयस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ। तस्यैते कथिता ह्यर्थाः प्रकाशन्ते महात्मनाम्देहान्ते देवः परं ब्रह्म तारकं व्याचष्टेयमेवैष वृणुते तेन लभ्यः इत्यादि श्रुतिस्मृतिपुराणवचनान्येवं सति समंजसानि भवन्ति तस्माद्भक्तिरेव मोक्षहेतुरिति सिद्धम्।।तेनैव दत्तया मत्या तद्गीताविवृतिः कृता। स एव परमानन्दस्तया प्रीणातु माधवः।।1।।परमानन्दपादाब्जरजःश्रीधारिणाधुना। श्रीधरस्वामियतिना कृता गीतासुबोधिनी।।2।।स्वप्रागल्भ्यबलाद्विलोड्य भगवद्गीतां तदन्तर्गतं तत्त्वं प्रेप्सुरुपैति किं गुरुकृपापीयूषदृष्टिं विना।अम्बु स्वाञ्जलिना निरस्य जलधेरादित्सुरन्तर्मणीनावर्तेषु न किं निमज्जति जनः सत्कर्णधारं विना।।3।।

By - Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha , in sanskrit

।।18.78।।सुयोधनविजयबुभुत्सया कृतस्य प्रश्नस्य सहसा साक्षादुत्तरं वक्तुमशक्नुवन्अर्धोक्ताः कुरुपाञ्चालाः इति मत्वा गूढाभिसन्धिः संवादाद्भुतत्वादिकमुक्तवान् तावताऽप्यजानतः सर्वात्मनाऽन्धस्य साक्षादुत्तरमाहेत्याह -- किमत्र बहुनेति। अनभिप्रायज्ञस्य ते भगवताऽर्जुनायाध्यात्मोपदेशवैश्वरूप्यप्रकाशनादिभिः पाण्डवविजयसूचकैरलम् सूचितमेव स्पष्टं वदामीत्युच्यत इति भावः। यत्र यस्मिन् पक्ष इत्यर्थः। योगेश्वरशब्दस्यकथयतः स्वयम् इत्यत्राप्ततमत्वाय प्रागुक्तादर्थादर्थान्तरकथनम्? अनेकार्थसम्भवात् प्रकरणानुगुण्येन तत्तद्विशेषपरिग्रहोपपत्तेश्च। ईश्वरशब्दस्य नियन्तव्यसाकाङ्क्षतया योगशब्देन नियन्तव्यविशेषसमर्पणं च युक्ततमम् अतो विवक्षितविजयाद्यनुगुणमर्थमाह -- कृत्स्नस्येत्यादिना। तत्र फलितमाह -- स्वसङ्कल्पेति। अवस्थान्तरेऽपि श्यामभूतः अतः कृष्णशब्दोऽत्रावतारदशायामपि योगेश्वरत्वेनाजहत्स्वस्वभावत्वसूचनार्थ इत्यभिप्रायेणाऽऽह -- वसुदेवसूनुरिति। पार्थसम्बन्धविशेषोऽप्यनेन सूचितः। अत एव हि पार्थशब्द एवं व्याख्यायते -- तत्पितृष्वसुः पुत्र इति।विसृज्य सशरं चापम् [1।47] इति प्रागुक्तावस्थाव्यतिरेकपरोऽत्र धनुर्धरशब्दः भगवदनुशिष्टयथोक्तकरणार्थतया गाण्डीवाख्यधनुर्ग्रहणद्योतनार्थः। तत्र विशिष्टोपकरणविशेषवीर्यादिविशेषोऽप्यन्तर्नीतः।पार्थस्य च महात्मनः [18।74] इति प्रागुक्तमहामतित्वं पार्थशब्देन सूचितमित्याह -- तत्पदद्वन्द्वैकाश्रय इति। नह्यसौ त्वत्पुत्रवत्कृष्णमभ्यर्थ्य निस्सारान्परिकरत्वेन परिजग्राहेति भावः।तत्र इति सामान्यनिर्देशः प्रत्यक्षपारुष्यपरिहारार्थः। श्रीः राज्यादिभोग्यसमृद्धिरूपा। विजयः शत्रुनिरासः।तत्र ध्रुवः इति विपरिणामः। भूतिः ऐश्वर्यम्?विभूतिर्भूतिरैश्वर्यम् [अमरः1।1।38] इति पर्यायपाठात्। तेनास्य पुरुषस्य प्रभुत्वादिशक्तियोगो विवक्षितः। उत्पन्नायाः समृद्धेरुत्तरोत्तराभिवृद्धिरूपमवनं भूतिः? नीतिः अर्थशास्त्रजन्यकर्तव्यनिश्चयः? तच्चोदिता धर्माविरुद्धा वा वृत्तिः पटुप्रज्ञैरवहितैरपि युष्माभिश्चतुर्भिरप्युपायैरकम्पनीयो नयो ध्रुवशब्दाभिप्रेत इत्याह -- निश्चलेति।मतिर्मम इत्यस्यान्वयार्थमितिशब्दोऽध्याहृतः। ममैव मतिःविद्या (श्रृणु) राजन्न ते विद्या मम विद्या न हीयते। विद्याहीनस्तमोध्वस्तो नाभिजानासि केशवम्। [म.भा.5।69।2]मायां न सेवे भ्रदं ते न वृथा धर्ममाचरे। शुद्धभावं गतो भक्त्या शास्त्राद्वेद्मि जनार्दनम् [म.भा.5।69।5] इति। अतस्ते ध्रुवा नैवं मतिः? मम त्वेवं समीचीना मतिः सञ्जातेति भावः।कृष्णस्तत्त्वं परं तत्परमपि च हितं तत्पदैकाश्रयत्वं शास्त्रार्थोऽयं च षट्कैस्त्रिभिरिहं कथितस्तत्र पूर्वत्र षट्के।भक्त्यर्थस्वात्मदृष्टेः करयुगलदशा मध्यमे भक्त्युपायः स्वोक्तानुष्ठानवृत्तिं द्रढयितुमखिलं प्रोक्तमन्तेऽप्यशोधि।।1।।अध्यायैः शिष्यमोहस्तदुपशमविधिः कर्मयोगोऽस्य भेदास्तत्सौकर्यादियोगस्तदुचितमहिमा भूतिकामादिभेदः।भक्तिस्तन्मूलभूमा भजनसुलभता भक्तिशैघ्र्यादि जीवत्रैगुण्यं शासिताज्ञा तदधिगमपरः सारवर्गश्च गीताः।।2।।৷৷. ৷৷. ৷৷. ৷৷. इत्यादिः सर्वयोगो भगवति परमैकान्त्यसम्प्रीतियुक्तम्।येषामन्योन्ययोगो भवति च कलया नित्यनैमित्तिकानां त्रिष्वप्येतेषु योगं परममितफलं वक्तुमन्यत्प्रसक्तम्।।3।।शुद्धादेशवशंवदीकृतयतिक्षोणीशवाणीशता प्रज्ञातल्पपरिष्कृतश्रुतिशिरःप्रासादमासेदुषी।नित्यानन्दविभूतिसन्निधिसदासामोददामोदरद्वित्रालिङ्गनदौर्ललित्यललितोन्मेषा मनीषाऽस्तु मे।।4।।तत्त्वं यत्प्रणवे धनञ्जयरथेऽप्यग्रे दरीदृश्यते तच्चित्तो भुवि वेङ्कटेश्वरकविर्भक्तोऽनुकम्प्यः सताम्।तत्तादृग्गुरुदृष्टिपातमहिमग्रस्तेन यच्चेतसा गीताविष्णुपदी यतीश्वरवचस्तीर्थैरवागाह्यत।।5।।इति श्रीकवितार्किकसिंहस्य सर्वतन्त्रस्वतन्त्रस्य श्रीमद्वेङ्कटनाथस्य वेदान्ताचार्यस्य कृतिषु श्रीभगवद्रामानुजविरचितश्रीमद्गीताभाष्यटीकायां तात्पर्यचन्द्रिकायां अष्टादशोऽध्यायः।।18।। ,

By - Sri Abhinavgupta , in sanskrit

।।18.74 -- 18.78।।इत्यहमित्यादि मतिर्ममेत्यन्तम्। संजयवचनेन संवादमुपसंहरन एतदर्थस्य गाढप्रबन्धक्रमेण निरन्तरचिन्तासन्तानोपकृतनैरन्तर्यादेव चान्ते सुपरिस्फुटनिर्विकल्पानुभवरूपतामापाद्यमानं स्मरणमात्रमेव परब्रह्मप्रदायकम् इत्युच्यते। एवं भगवदर्जुनसंवादमात्रस्मरणादेव तत्त्वावाप्त्या ( S? तत्त्वव्याप्त्या ) श्रीविजयविभूतय इति।।।शिवम्।।अत्र संग्रहश्लोकः -- भङ्क्त्वाऽज्ञानविमोहमन्थरमयीं सत्त्वादिभिन्नां धियं प्राप्य स्वात्मविबोधसुन्दरतया ( K स्वात्मविभूत -- ) विष्णुं विकल्पातिगम्।यत्किञ्चित् स्वरसोद्यदिन्द्रियनिजव्यापारमात्रस्थिते ( तो ) हेलातः कुरुते तदस्य सकलं संपद्यते शंकरम्।।।।इति श्रीमहामाहेश्वराचार्यवर्यराजानकाभिनवगुप्तपादविरचिते श्रीमद्भगवद्गीतार्थसंग्रहे अष्टादशोऽध्यायः।।[ आचार्यप्रशस्तिः ] श्रीमान् ( S श्रीमत्कात्यायनो -- ) कात्यायनोऽभूद्वररुचिसदृशः प्रस्फुरद्बोधतृप्त स्तद्वंशालंकृतो यः स्थिरमतिरभवत् सौशुकाख्योऽतिविद्वान्।विप्रः श्रीभूतिराजस्तदनु समभवत् तस्य सूनुर्महात्मा येनामी सर्वलोकास्तमसि निपतिताः प्रोद्धृतता भानुनेव।।1।।तच्चरणकमलमधुपो भगवद्गीतार्थसङ्ग्रहं व्यदधात्।अभिनवगुप्तः सद्द्विज लोटककृतचोदनावशतः ( S लोठककृत -- ?N लोककृत)।।2।।अत इयमयथार्थं वा यथार्थमपि सर्वथा नैव।विदुषामसूयनीयं कृत्यमिदं बान्धवार्थं हि।।3।।अभिनवरूपा शक्ति स्तद्गुप्तो यो महेश्वरो देवः।तदुभयथामलरूपम् ( ? K? S तदुभययामल -- ) अभिनवगुप्तं शिवं वन्दे।।4।।परिपूर्णोऽयं ( This verse is given differently in different Mss. S परिपूर्णोऽयं गीतार्थसंग्रहः।कृतिस्त्रिनयनचरणचिन्तनलब्धप्रसिद्धेश्श्रीमदभिनवगुप्तस्य।? N? K अत इत्ययमर्थसंग्रहः। [ N substitutes this sentence with परिपूर्णोऽयं श्रीमद्भगवद्गीतार्थसंग्रहः। ] कृतिश्चेयं परमेश्वरचरण [ K adds सरोरुह ] चिन्तन लब्धचिदात्मसाक्षात्काराचार्याभिनवगुप्तपादानाम्। ) श्रीमद् भगवद्गीतार्थसंग्रहः [ सु ] कृतिः।त्रिणयनचरण [ वि ] चिन्तन लब्धप्रसिद्धेरभिनवगुप्तस्य।।5।।।।इति शिवम्।।

By - Sri Jayatritha , in sanskrit

।।18.78।।इदानीं समापितभाष्यो भगवानाचार्यो भाष्यनिर्माणस्य फलं भगवत्प्रीतिमेवाशास्ते -- पूर्णेति। एतद्गीतामित्यनेन निरूपणमित्यनेन च सम्बध्यते। तेनेति श्रवणाद्यदिति लभ्यते।करतलकलितामलकमिव प्रभुणा येनेदमवगतं विश्वम्। स जयति जनकसुतायाः कान्तः श्रीरघुनन्दनो देवः।।1।।नमामि व्यासदासस्य पूर्णबुद्धेः पदाम्बुजे। नतामरशिरोरत्नराजिनीराजिते सदा।।2।।अक्षोभ्यतीर्थगुरुणा शुकवच्छिक्षितस्य मे। वचोभिरमृतप्रायैः प्रीयन्तां सततं बुधाः।।3।।

By - Sri Madhusudan Saraswati , in sanskrit

।।18.78।।एवंच सति स्वपुत्रे विजयादिसंभावनां परित्यजेत्याह -- यत्रेति। यत्र यस्मिन् युधिष्ठिरपक्षे योगेश्वरः सर्वयोगसिद्धीनामीश्वरः सर्वज्ञः सर्वशक्तिर्भगवान्कृष्णो भक्तदुःखकर्षणस्तिष्ठति नारायणो यत्र पार्थो धनुर्धरो यत्र गाण्डीवधन्वा तिष्ठत्यर्जुनो नरस्तत्र नरनारायणाधिष्ठिते तस्मिन् युधिष्ठिरपक्षे श्री राजलक्ष्मीर्विजयः शत्रुपराजयनिमित्त उत्कर्षो भूतिरुत्तरोत्तरं राजलक्ष्म्या विवृद्धिर्ध्रुवाऽवश्यंभाविनीति सर्वत्रान्वयः। नीतिर्नयः एवं मम मतिर्निश्चयस्तस्माद्वृथा पुत्रविजयाशां त्यक्त्वा भगवदनुगृहीतैर्लक्ष्मीविजयादिभाग्भिः पाण्डवैः सह सन्धिरेव विधीयतामित्यभिप्रायः।वंशीविभूषितकरान्नवनीरदाभात्पीताम्बरादरुणबिम्बफलाधरोष्ठात्।पूर्णेन्दुसुन्दरमुखादरविन्दनेत्रात् कृष्णात्परं किमपि तत्त्वमहं न जाने।।काण्डत्रयात्मकं शास्त्रं गीताख्यं येन निर्मितम्। आदिमध्यान्तषट्केषु तस्मै भगवते नमः।।श्रीगोविन्दमुखारविन्दमधुना मिष्टं महाभारते गीताख्यं परमं रहस्यमृषिणा व्यासेन विख्यापितम्।व्याख्यातं भगवत्पदैः प्रतिपदं श्रीशङ्कराख्यैः पुनर्विस्पष्टं मधुसूदनेन मुनिना स्वज्ञानशुद्ध्यै कृतम्।।इह योऽस्ति विमोहयन्मनः परमानन्दघनः सनातनः। गुणदोषभृदेष एव नस्तृणतुल्यो यदयं स्वयं जनः।।श्रीरामविश्वेश्वरमाधवानां प्रसादमासाद्य मया गुरूणाम्। व्याख्यानमेतद्विहितं सुबोधं समर्पितं तच्चरणाम्बुजेषु।। ,

By - Sri Purushottamji , in sanskrit

।।18.78।।एवं गीताश्रवणेन भगवद्दर्शनानन्दितचित्तेन स्वमतिनिश्चितार्थमनुवदति तथात्वज्ञानेन शरणागमनार्थम् -- यत्रेति। यत्र येषां पक्षे योगानां सर्वसाधनानामीश्वरो नियामकः तत्र श्रीः लक्ष्मीः? यत्र यस्मिन्नर्थे पार्थः पृथायाः क्षत्ित्रयायाःयदर्थे क्षत्ित्रयासुत इति वाक्यवक्त्र्याः पुत्रो महाशूरो भगवदीयश्च धनुर्धरः ससामग्रीकः तत्र विजयः शत्रूणां पराजयपूर्वकमुत्कर्षः? यत्रैव लक्ष्मीस्तत्रैव भूतिस्तदंशरूपा राज्यलक्ष्मीः ध्रुवा निश्चला? यत्र विजयस्तत्र नीतिर्नय इत्यर्थः। इत्येवंरूपा मे मतिः मद्बुद्धिनिश्चयः।अत्रायं भावः -- यत्र श्रीकृष्णार्जुनौ पक्षे भवतः तत्र श्यादिकं भवति? तत्र साक्षात्तावेव यत्र तत्र किं वाच्यमिति भावः। अतस्तवापि संरम्भादित्यागेन शरणगमनमेव सर्वार्थसाधकमिति भावः। स्वमतित्ववाचकस्येति प्रतिजानीमः।श्रीकृष्णानन्यभक्तस्य गीताश्रवणतः परा। दृढा भक्तिर्भवेद्गीतासारस्त्वेवं हि बुद्ध्यताम्।।1।।शास्त्रार्थरूपमज्ञात्वा कृतं न फलदं भवेत्। हरिर्भजनसिद्ध्यर्थं गीताशास्त्रमथाब्रवीत्।।2।।अर्जुनाय प्रसङ्गेन सर्वोद्धारप्रयत्नवान्। तस्माज्ज्ञात्वा हि गीतार्थं कृष्णः सेव्यो हि सर्वदा।।3।।अतस्तदर्थं गीतार्थो निगूढो विनिरूपितः। श्रीमदाचार्यपादाब्जभक्त्या लब्धो ह्यनन्यया।।4।।श्रीमदाचार्यपादेषु गीतार्थकुसुमाञ्जलिः। न्यस्तस्तेन प्रसीदन्तु ते सदा मयि किङ्करे।।5।।पुष्टिमार्गीयभक्तानां विहारार्थं सुनिर्मला। कृता श्रीकृष्णभावाब्धिगीतामृततरङ्गिणी।।6।।अनन्यैकैव भक्तिर्हि कार्या श्रीकृष्णतुष्टये। विद्याष्टादशकेनापि सर्वथैवोच्यते यतः।।7।।इत्येवाष्टादशाध्यायैर्गीताशास्त्रं हरिः स्वयम्। प्रकटीकृतवाँल्लोके दयालुर्देवकीसुतः।।8।।अत्र युक्तमयुक्तं वा जीवबुद्ध्या ह्यलेखि यत्। तत् क्षमन्तु सदाऽऽचार्याः स्वाङ्गीकृतिबलान्मयि।।9।।कृष्णो जलधरश्यामो बभौ राजीवलोचनः। श्यामाऽपि यस्य वामांसे विद्युल्लेखेव राजते।।10।।

By - Sri Shankaracharya , in sanskrit

।।18.78।। --,यत्र यस्मिन् पक्षे योगेश्वरः सर्वयोगानाम् ईश्वरः? तत्प्रभवत्वात् सर्वयोगबीजस्य? कृष्णः? यत्र पार्थः यस्मिन् पक्षे धनुर्धरः गाण्डीवधन्वा? तत्र श्रीः तस्मिन् पाण्डवानां पक्षे श्रीः विजयः? तत्रैव भूतिः श्रियो विशेषः विस्तारः भूतिः? ध्रुवा अव्यभिचारिणी नीतिः नयः? इत्येवं मतिः मम इति।।इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यस्य श्रीगोविन्दभगवत्पूज्यपादशिष्यस्य,श्रीमच्छंकरभगवतः कृतौ श्रीमद्भगवद्गीताभाष्येअष्टादशोऽध्यायः।।।।श्रीमद्भगवद्गीताशास्त्रं संपूर्णम्।।,

By - Sri Vallabhacharya , in sanskrit

।।18.78।।अतो राजंस्त्वमेवं सर्वमालोच्य निस्संशयो भव? किंबहुना यत्रेति। यत्र योगेश्वरः कृष्णः? यत्र पार्थो धनुर्धरः? तत्र श्रीः राज्यलक्ष्मीः? विजयो ध्रुवा निश्चिता नीतिः? अन्यत्रैवं न? भगवतः श्रीपतित्वात् अर्जुनस्य विजयत्वात्? तत्संयोगे एव सर्वं ध्रुवं नीतिश्चेति मे मतिः। अन्येषामेवं भातु मा भातु वा? ममत्वेवं प्रतिभातीत्यर्थः।यावत्तदुक्तमार्गेण श्रीकृष्णः शरणं मम। नरो न भावयेद्भक्त्या तावन्मोहो न नश्यति।।1।।साङ्ख्यबुद्ध्या नात्मभिन्ने स्वात्मन्यवगते क्रिया। भगवत्यर्पिता कार्या तथा योगधियाऽपि च।।2।।सापि भक्त्या गमयति श्रीकृष्णस्याक्षरं पदम्। तत्रापि पुष्टिभक्त्या हि हरितत्त्वावबोधनम्।।3।।तत्प्रवेशः फलं काम्यं भगवांस्तु परं फलम्। सन्न्यस्य सर्वधर्मान्वा शरणं भावयेत्प्रभुम्।।4।।तदाज्ञा धर्मतः सिद्धिरिति गीतार्थसङ्ग्रहः। विवेकधैर्यहेतुभ्यामाश्रयोऽयं निरूपितः।।5।।तथासति स्थिता राज्ये भगवद्धर्मतेति च।।6।।कर्मान्तर्गतमेव यत्र विमलं ज्ञानं विशुद्धं परं साक्षाच्छ्रीपुरुषोत्तमैकविषयं भक्तिश्च निर्हेतुका।मर्यादा भुवि पुष्टिरुद्भवमिता गत्या प्रपत्त्यात्मनः सर्वत्यागत एव सेयममला गीता समुद्भासते।।6।।या वेदार्थपराद्ध्य्ररत्नविलसन्मञ्जूषिका दूषिका निस्सत्त्वस्य च यन्त्रिणा भगवता पार्थार्थमुद्धाटिता।स्वस्नेहाद्विमतान्तरालतिमिरे श्रीवल्लभाग्नेर्मया प्रादुर्भावितदीपिकात इह सा सन्दृश्यतां भो बुधाः।।7।।श्रीवल्लभविभुचरणाम्बुजयुगविलसद्रजस्सनाथेन। कृतया तुष्यतु रमया सह हरिरनया सतत्त्वदीपिकाया।।8।।,