BG - 2.28

अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत। अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना।।2.28।।

avyaktādīni bhūtāni vyakta-madhyāni bhārata avyakta-nidhanānyeva tatra kā paridevanā

  • avyakta-ādīni - unmanifest before birth
  • bhūtāni - created beings
  • vyakta - manifest
  • madhyāni - in the middle
  • bhārata - Arjun, scion of Bharat
  • avyakta - unmanifest
  • nidhanāni - on death
  • eva - indeed
  • tatra - therefore
  • - why
  • paridevanā - grieve

Translation

Beings are unmanifest in their beginning, manifest in their middle state, O Arjuna, and unmanifest again in their end. What is there to grieve about?

Commentary

By - Swami Sivananda

2.28 अव्यक्तादीनि unmanifested in the beginning? भूतानि beings? व्यक्तमध्यानि manifested in their middle state? भारत O Bharata? अव्यक्तनिधनानि unmanifested again in the end? एव also? तत्र there? का what? परिदेवना grief.Commentary The physical body is a combination of the five elements. It is seen by the physical eyes only after the five elements have entered into such combination. After death? the body disintegrates and the five elements go back to their source it cannot be seen. Therefore? the body can be seen only in the middle state. The relationship as son? friend? teacher? father? mother? wife? brother and sister is formed through the body on account of attachment and Moha (delusion). Just as planks unite and separate in a river? just as pilgrims unite and separate in a public inn? so also fathers? mothers? sons and brothers unite and separate in this world. This world is a very big public inn. People unite and separate.There is no pot in the beginning and in the end. Even if you see the pot in the middle? you should think and feel that it is illusory and does not really exist. So also there is no body in the beginning and in the end. That which does not exist in the beginning and in the end must be illusory in the middle also. You must think and feel that the body does not really exist in the middle as well.He who thus understands the nature of the body and all human relationships based on it? will not grieve.

By - Swami Ramsukhdas , in hindi

 2.28।। व्याख्या-- 'अव्यक्तादीनि भूतानि'-- देखने, सुनने और समझनेमें आनेवाले जितने भी प्राणी (शरीर आदि) हैं, वे सब-के-सब जन्मसे पहले अप्रकट थे अर्थात् दीखते नहीं थे।  'अव्यक्तनिधनान्येव'-- ये सभी प्राणी मरनेके बाद अप्रकट हो जायँगे अर्थात् इनका नाश होनेपर ये सभी 'नहीं' में चले जायँगे, दीखेंगे नहीं।  'व्यक्तमध्यानि'-- ये सभी प्राणी बीचमें अर्थात् जन्मके बाद और मृत्युके पहले प्रकट दिखायी देते हैं। जैसे सोनेसे पहले भी स्वप्न नहीं था और जगनेपर भी स्वप्न नहीं रहा, ऐसे ही इन प्राणियोंके शरीरोंका पहले भी अभाव था और पीछे भी अभाव रहेगा। परन्तु बीचमें भावरूपसे दीखते हुए भी वास्तवमें इनका प्रतिक्षण अभाव हो रहा है।  'तत्र का परिदेवना'-- जो आदि और अन्तमें नहीं होता, वह बीचमें भी नहीं होता है--यह सिद्धान्त है  (टिप्पणी प0 68) । सभी प्राणियोंके शरीर पहले नहीं थे और पीछे नहीं रहेंगे; अतः वास्तवमें वे बीचमें भी नहीं हैं। परन्तु यह शरीरी पहले भी था और पीछे भी रहेगा; अतः वह बीच में भी रहेगा ही। निष्कर्ष यह निकला कि शरीरोंका सदा अभाव है और शरीरीका कभी भी अभाव नहीं है। इसलिये इन दोनोंके लिये शोक नहीं हो सकता।

By - Swami Chinmayananda , in hindi

।।2.28।। इस श्लोक से लेकर आगे के कुछ श्लोकों में संसार के सामान्य मनुष्य के दृष्टिकोण से समस्या को अर्जुन के समक्ष बड़ी सुन्दरता से प्रस्तुत किया गया है। इन दस श्लोकों में श्रीकृष्ण समस्या का स्पष्टीकरण सामान्य व्यक्ति की दृष्टि एवं बुद्धि के अनुसार प्रस्तुत करते हैं।इस भौतिक जगत् में कार्यकरण का नियम अबाधरूप से कार्य करते हुए अनुभव में आता है। कार्य की उत्पत्ति कारण से होती है। सामान्यत कार्य व्यक्त रूप में दिखाई देता है और कारण अव्यक्त रहता है। अत सृष्टिका अर्थ है वस्तुओं का अव्यक्त अवस्था से व्यक्त अवस्था में आ जाना। यही क्रम निरन्तर नियमपूर्वक चलता रहता है।इस प्रकार आज का व्यक्त इसके पूवर् कल अव्यक्त था वर्तमान में वह व्यक्त रूप में उपलब्ध है परन्तु भविष्य में फिर अव्यक्त अवस्था में विलीन हो जायेगा। इसका अर्थ यह हुआ कि वर्तमान स्थिति अज्ञात से आयी और पुन अज्ञात में लीन हो जायेगी। ऐसा समझने पर दुख का कोई कारण नहीं रह जाता क्योंकि एक चक्र के आरे निरन्तर घूमते हुए नीचे भी आते हैं तो केवल बाद में ऊपर उठने के लिए ही।उदाहरणार्थ स्वप्न के पत्नी और शिशु पहले अव्यक्त थे और जागने पर फिर लुप्त हो जाते हैं तो एक ब्रह्मचारी को उस पत्नी और शिशु के लिए शोक करने का क्या कारण है जिसके साथ उसका विवाह कभी हुआ ही नहीं था और जिस शिशु का कभी जन्म ही नहीं हुआ था यदि जैसा कि भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा इस जगत् की उत्पत्ति और लय का चक्र निरन्तर एक पारमार्थिक नित्य अविकारी सत्य के रूप में ही चल रहा है तो क्या कारण है कि उस सत्य को बारम्बार बताने पर भी हम समझ नहीं पाते श्रीशंकराचार्य के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण यह विचार करते हैं कि इस सत्य को न समझने के लिए अर्जुन को दोष देना उचित नहीं है।श्री शंकराचार्य कहते हैं इस आत्मा का साक्षात् अनुभव करके उसे यथार्थ में जानना कठिन है। तुम्हें ही मैं दोष क्यों दूँ जबकि इसका कारण अज्ञान सबके लिए समान है कोई पूछ सकता है कि आत्मानुभव में इतनी कठिनाई क्या है भगवान् कहते हैं

By - Sri Anandgiri , in sanskrit

।।2.28।।आत्मानमुद्दिश्यानुशोकस्य कर्तुमयोग्यत्वेऽपि भूतसंघातात्मकानि भूतान्युद्दिश्य तस्य कर्तव्यत्वमाशङ्क्याह  कार्येति।  समनन्तरश्लोकस्तत्र हेतुरित्याह  यत इति।  चाक्षुषदर्शनमात्रवृत्तिं व्यावर्तयति  अनुपलब्धिरिति।  नहि यथोक्तसंघातरूपाणि भूतानि पूर्वमुत्पत्तेरुपलभ्यन्ते तेन तानि तथा व्यपदेशभाञ्जि भवन्तीत्यर्थः। किं तन्मध्यं यदेषां व्यक्तमिष्यते तदाह  उत्पन्नानीति।  उत्पत्तेरूर्ध्वं मरणाच्च पूर्वं व्यावहारिकं सत्त्वं मध्यमेषां व्यक्तमिति तथोच्यते जन्मानुसारित्वं विलयस्य युक्तमिति मत्वा तात्पर्यार्थमाह  मरणादिति।  उक्तेऽर्थे पौराणिकसंमतिमाह  तथाचेति।  तत्रेत्यस्यार्थमाह  अदृष्टेति।  पूर्वमदृष्टानि सन्ति पुनर्दृष्टानि तान्येव पुनर्नष्टानि तदेवं भ्रान्तिविषयतया घटिकायन्त्रवच्चक्रीभूतेषु शोकनिमित्तस्य प्रलापस्य नावकाशोऽस्तीत्यर्थः।

By - Sri Dhanpati , in sanskrit

।।2.28।।नन्वात्मनो नित्यत्वेऽपि कार्यकरणसंघातात्मकानि भूतानि शोचमीति चेत्तत्राह  अव्यक्तादीनीति।  प्रागुत्पत्तेरव्यक्तमदर्शनमादिर्येषां पुत्रमित्रादिकार्यकरणसंघातानां भूतानां तानि अव्यक्तं निधनं मरणं येषां तानि तत्र का परिदेवना कः शोकः। नहि शुक्तिरुप्यमुद्दिश्य कश्चिच्छोचतीति भावः। तथाचोक्तंअदर्शनादापतितः पुनश्चादर्शनं गतः। नासौ तव न तस्य त्वं वृथा का परिदेवना।। इति। ननु अव्यक्तमव्याकृतं भूतान्याकाशादीनि नामरुपाभ्यां व्यज्यत इति व्यक्तमित्याकाशादिमहाभूताभिप्रायेणायं श्लोक आचार्यैः कुतो न व्याख्यात इति चेत् तत्र का परिदेवनेति वाक्यशेषविरोधात्। अदर्शनादापतित इत्यादिवचनेन तस्मात्सर्वाणि भूतानीत्युपसंहारस्थेन कार्यकरणसंघातबोधकभूतशब्देन चैकार्थत्वानापत्तेश्चेति गृहाण। यथा भरतादयोऽव्यक्ताद्भूत्वाऽव्यक्त एव लयं गतास्तथेति सूचयन्नाह भारतेति।

By - Sri Madhavacharya , in sanskrit

।।2.28।।तदेव स्पष्टयति अव्यक्तादीनीति।

By - Sri Neelkanth , in sanskrit

।।2.28।।अस्त्वात्मनोऽशोच्यत्वं तथापि इष्टदेहविनाशजः शोको भवत्येवेत्याशङ्क्य सकारणस्य देहादेर्मिथ्यात्वं साधयति  अव्यक्तादीनीति।  भूतानि वियदादीनि तद्विकारभूतानि जरायुजादीनि च। न व्यक्तमव्यक्तमज्ञानं आदिर्येषां तथाविधानि। व्यक्तः स्पष्टः मध्यः उत्पत्तिमारभ्य मरणात्प्रागवस्था येषाम्। अव्यक्ते एव निधनं लयो येषामिति। अयमर्थः रज्जूरगादिकारणमज्ञानं न रज्जुवत् उरगवद्वा व्यक्तमस्ति। परीक्ष्यमाणं च न दृष्टिपथमवतरति। अतस्तदव्यक्तम्। तत उत्पन्नः सर्पस्तत्रैव लीयते न रज्ज्वाम्। एवं आत्मनि कल्पितानां भूतानां आदिरन्तश्चाव्यक्तमेव। तेनआदावन्ते च यन्नास्ति वर्तमानेऽपि तत्तथा इति न्यायेन मध्ये भासमानान्यपि तानि रज्जुरगवत् असन्त्येव। एवंविधे तत्र तस्मिन्विषये का परिदेवना को वा विलापः। नहि मरुमरीचिकाह्रदो नष्ट इति कश्चित्तत्त्ववित् विलपति। अतएव भूतानां रज्जूरगादीनामिव प्रतीतिसमकालिकीं सृष्टिमभिप्रेत्य कौषीतकिब्राह्मणे स्वापप्रबोधयोर्जगल्लयोदयौ पठ्येते।स यदा स्वपिति तदैनं वाक्सर्वैर्नामभिः सहाप्येति चक्षुः सर्वै रूपैः सहाप्येति श्रोत्रं सर्वैः शब्दैः सहाप्येति मनः सर्वैर्ध्यानैः सहाप्येति स यदा प्रबुध्यतेऽथैतस्मादात्मनः सर्वे प्राणा यथायतनं विप्रतिष्ठन्ते प्राणेभ्यो देवा देवेभ्यो लोकाः इति। प्राणाश्चक्षुरादीन्द्रियाणि। देवास्तदनुग्राहकाः सूर्यादयः। लोकाः रूपादयः। नन्विहान्यत्र च आत्मैव सर्वभूतानां लयोदयस्थानमित्युच्यते नान्यत्। तत्कथमेषामव्यक्तं लयोदयस्थानमित्युच्यते। सत्यम्। अज्ञानाश्रयत्वाद्ब्रह्मणि तथात्वव्यपदेशो न वस्तुगत्या। नहि अपरिणामिनः कूटस्थस्य मृद्वत्कार्यप्रविलयोदयस्थानत्वं भवति। यथोक्तम्अस्य द्वैतेन्द्रजालस्य यदुपादानकारणम्। अज्ञानं तदुपाश्रित्य ब्रह्मकारणमुच्यते। इति।

By - Sri Ramanujacharya , in sanskrit

।।2.28।।मनुष्यादि भूतानि सन्ति एव द्रव्याणि अनुपलब्धपूर्वावस्थानि उपलब्धमनुष्यत्वादिमध्यमावस्थानि अनुपलब्धोत्तरावस्थानि स्वेषु स्वभावेषु वर्तन्ते इति न तत्र  परिदेवना निमित्तिम् अस्ति।एवं शरीरात्मवादे अपि नास्ति शोकनिमित्तम् इति उक्त्वा शरीरातिरिक्त आश्चर्यस्वरूप आत्मनि द्रष्टा वक्ता श्रोता श्रवणायत्तात्मनिश्चयः च दुर्लभ इत्याह

By - Sri Sridhara Swami , in sanskrit

।।2.28।।किंच देहादीनां च स्वभावं पर्यालोच्य तदुपाधिके आत्मनो जन्ममरणे च शोको न कार्य इत्याह  अव्यक्तादीनीति।  अव्यक्तं प्रधानं तदेवादिः पूर्वरूपं येषां तान्यव्यक्तादीनि भूतानि शरीराणि कारणात्मनापि स्थितानामेवोत्पत्तेः। तथा व्यक्तमभिव्यक्तं मध्यं जन्ममरणान्तरालस्थितिलक्षणं येषाम्। अव्यक्ते निधनं लयो येषां तानीमान्येवंभूतान्येव तत्र तेषु का परिदेवना कः शोकनिमित्तो विलापः। प्रतिबुद्धस्य स्वप्नदृष्टवस्तुष्विव शोको न युज्यत इत्यर्थः।

By - Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha , in sanskrit

।।2.28।।एवमपरिहार्यत्वेनाशोचनीयत्वमुक्तम् अथ तत्तद्वस्तूनां प्रतिनियतस्वभावत्वेन पूर्वोत्तरावस्थायां सुखरूपत्वदुःखरूपत्वयोः अन्यतरविवेकानर्हानुपलभ्यदशापत्त्या चाशोचनीयत्वमुच्यते अव्यक्तादीनीति। भूतशब्दस्यात्र देहपरत्वार्थमुक्तम् मनुष्यादीति। अव्यक्तव्यक्तादिशब्दानां प्रकृत्यवस्थाविशेषादिपरत्वभ्रमव्युदासाय यादवप्रकाशोक्तसद्ब्रह्मादिपरत्वस्य च प्रकृतानुपयोगज्ञापनायोक्तम् अनुपलब्धेत्यादि।अदर्शनादिहायातः पुनश्चादर्शनं गतः। नासौ तव न तस्य त्वं वृथा किमनुशोचसि म.भा.11।2।13 इति ह्यन्यत्राप्युच्यते।स्वेषु स्वभावेषु वर्तन्त इति। अयमभिप्रायः न तावदेषां द्रव्याणां मनुष्यत्वादिव्यक्तावस्था स्वभावः संहतिविशेषादिसाध्यत्वात्। नाप्यव्यक्तपूर्वोत्तरावस्था तस्या अपि विभागादिसाध्यत्वात्। अतः सामान्यतः परिणामित्वमात्रं स्वभावः। ततश्च यथा परिणामिनो द्रव्यस्याव्यक्तपूर्वावस्था व्यक्तमध्यावस्था च न शोकनिमित्तम् एवमुत्तरावस्थाऽपि। एवकारोऽत्रावर्जनीयत्वपरः स्वभावप्राप्तिपरो वा। यद्यव्यक्तावस्थैव स्वभाव इति मनुषे तदा स्वभावपरित्यागलक्षणमनुष्यत्वाद्यवस्थैव शोचनीया। यदि पुनर्मनुष्यत्वावस्थैव स्वभावः प्रतिबन्धकवशादव्यक्तावस्थेति मन्वीथाः तदा प्रतिबन्धकस्यावर्जनीयत्वादागन्तुकस्य तस्य कदाचिदपगमे पुनर्मनुष्यत्वादिसिद्धेश्च अवर्जनीयत्वान्न कथञ्चिदपि शोचनीयम्। यदि तु स्वभाव एव वस्तूनां सामान्यतः शोकनिमित्तम् तर्हि प्रतिनियतविचित्रस्वभावानन्तवस्तुसन्तते जगति सर्वस्य सर्वथा दुःखजलनिधावेव मज्जनमिति नेदानीं विशेषतः शोकनिमित्तमस्ति। अथौपाधिकस्यापि सुखहेतोर्वियोगाच्छोकः तदा दुःखहेतूनां शत्रुप्रभृतीनां भैक्षचर्यादेश्च परमार्थतः शोकनिमित्तत्वम् न तु सुखहेतोः शत्रुनिरसनस्य सार्वभौमत्वादेर्वा। अथ सुखहेतोः स्वशरीरादेर्नाशात् बिभेषि तर्हि महाबाहुना भारतेन त्वया जिघांसूनां सन्निधौ यथाशक्ति व्यापारेण शरीरादिरक्षणं कार्यम्। यदि च बन्धुवधादिनिमित्तलोकापवादादेर्भीतिः तदा समर्थस्य ते बन्धुसंरक्षणाद्यभावनिमित्तो महीयानपवादः स्यात् भीरुत्वादिनिमित्ता मरणातिरिक्ता चाकीर्तिः स्यात् न चायं दुस्त्यजः शीतातपादिसांस्पर्शिकदुःखवच्छोकः किन्त्वविचारितरमणीयाभिमानमूलतया तन्निवृत्त्या परिहार्यः अत एव देहात्ममोहमहाग्रहगृहीतस्त्वं लोकायतसमयरहस्यतत्त्वविचारेणापि न कथञ्चिदपि शोचितुमर्हसीति परिदेवना किन्निमित्तेत्यर्थः। तदिदमुक्तं न तत्र परिदेवनानिमित्तमस्ति इति।

By - Sri Abhinavgupta , in sanskrit

।।2.28।।न चैतदन्यथा नित्यानित्यत्वमुपपत्तिमत् (NK नित्यत्वानित्यत्वम्)। यतः (S adds कुत इत्याह after यतः) जातस्येति। जन्मनः अनन्तरं नाशः नाशादनन्तरं जन्मेति चक्रवदयं जन्ममरणसन्तान इति किंपरिमाणं शोच्यताम् (N शोच्यतायाम) इति।

By - Sri Jayatritha , in sanskrit

।।2.28।।स्पष्टनं न जन्ममरणस्वरूपनिरूपणेन।

By - Sri Madhusudan Saraswati , in sanskrit

।।2.28।।तदेवं सर्वप्रकारेणात्मनोऽशोच्यत्वमुपपादितम्। अथेदानीमात्मनोऽशोच्यत्वेऽपि भूतसङ्घातात्मकानि शरीराण्युद्दिश्य शोचामीत्यर्जुनाशङ्कामपनुदति भगवान्आदौ जन्मनः प्राक् अव्यक्तान्यनुपलब्धानि पृथिव्यादिभूतमयानि शरीराणि मध्ये जन्मानन्तरं मरणात्प्राक् व्यक्तान्युपलब्धानि सन्ति निधने पुनरव्यक्तान्येव भवन्ति यथा स्वप्नेन्द्रजालादौ प्रतिभासमात्रजीवनानि शुक्तिरूप्यादिवन्नतु ज्ञानात्प्रागूर्ध्वं वा स्थितानि दृष्टिसृष्ट्यभ्युपगमात्। तथाचआदावन्ते च यन्नास्ति वर्तमानेऽपि तत्तथा इति न्यायेन मध्येऽपि न सन्त्येवैतानिनासतो विद्यते भावः इति प्रागुक्तेश्च। एवंसति तत्र तेषु मिथ्याभूतेष्वत्यन्ततुच्छेषु भूतेषु का परिदेवना को वा दुःखप्रलापः। न कोऽप्युचित इत्यर्थः। नहि स्वप्ने विविधान्बन्धूनुपलभ्य प्रतिबुद्धस्तद्विच्छेदेन शोचति पृथग्जनोऽपि। एतदेवोक्तं पुराणेअदर्शनादापतितः पुनश्चादर्शनं गतः। भूतसङ्ध इति शेषः। तथाच शरीराण्युद्दिश्य शोको नोचित इति भावः। आकाशादिमहाभूताभिप्रायेण वा श्लोको योज्यः। अव्यक्तमव्याकृतमविद्योपहितचैतन्यमादिः प्रागवस्था येषां तानि तथा व्यक्तं नामरूपाभ्यामेवाविद्यकाभ्यां प्रकटीभूतं नतु स्वेन परमार्थसदात्मना मध्यस्थित्यवस्था येषां तादृशानि भूतान्याकाशादीन्यव्यक्तनिधनान्येव अव्यक्ते स्वकारणे मृदीव घटादीनां निधनं प्रलयो येषां तेषु भूतेषु का परिदेवनेति पूर्ववत्। तथाच श्रुतिःतद्धेदं तर्ह्यव्याकृतमासीत्तन्नामरूपाभ्यामेव व्याक्रियत इत्यादिरव्यक्तोपादानतां सर्वस्य प्रपञ्चस्य दर्शयति। लयस्थानत्वं तु तस्यार्थसिद्धम्। कारण एव कार्यलयस्य दर्शनाद्ग्रन्थान्तरे तु विस्तरः। तथा चाज्ञानकल्पितत्वेन तुच्छान्याकाशादिभूतान्यप्युद्दिश्य शोको नोचितश्चेत्तत्कार्याण्युद्दिश्य नोचित इति किमु वक्तव्यमिति भावः। अथवा सर्वदा तेषामव्यक्तरूपेण विद्यमानत्वाद्विच्छेदाभावेन तन्निमित्तः प्रलापो नोचित इत्यर्थः। भारतेत्यनेन संबोधयन् शुद्धवंशोद्भवत्वेन शास्त्रीयमर्थं प्रतिपत्तुमर्होऽसि किमिति न प्रतिपद्यस इति सूचयति।

By - Sri Purushottamji , in sanskrit

।।2.28।।नन्वीश्वरोत्पादितानां देहानां स्वस्यनाशकरणमनुचितमित्याशङ्क्य देहानामुत्पत्तिस्थितिप्रलयविचारेणापि शोकाभावमाह अव्यक्तादीनीति। अव्यक्तं अक्षरमादिरुत्पत्तिर्येषां तानि अव्यक्तादीनि भूतानि शरीराणि। व्यक्तं जगत् तदेव मध्यं स्थितिरूपमुत्पत्तिलययोर्मध्यं येषां तानि। अव्यक्ते अक्षर एव निधनं लयो येषां तानि तथा। तत्र तेषु का परिदेवना का चिन्तेत्यर्थः।अत्रायमर्थः यत उत्पत्तिस्तत्रैव नाशे शोकः स्वस्याऽनुचित इत्यर्थः। स्वस्यापि तन्मारणानन्तरं न नरकादिसम्भावना यत उत्पत्तिस्थल एव स्वस्यापि नाशो भविष्यति।

By - Sri Shankaracharya , in sanskrit

।।2.28।। अव्यक्तादीनि अव्यक्तम् अदर्शनम् अनुपलब्धिः आदिः येषां भूतानां पुत्रमित्रादिकार्यकरणसंघातात्मकानां तानि अव्यक्तादीनि भूतानि प्रागुत्पत्तेः उत्पन्नानि च प्राङ्मरणात् व्यक्तमध्यानि। अव्यक्तनिधनान्येव पुनः अव्यक्तम् अदर्शनं निधनं मरणं येषां तानि अव्यक्तनिधनानि। मरणादूर्ध्वमप्यव्यक्ततामेव प्रतिपद्यन्ते इत्यर्थः। तथा चोक्तम् अदर्शनादापतितः पुनश्चादर्शनं गतः। नासौ तव न तस्य त्वं वृथा का परिदेवना इति। तत्र का परिदेवना को वा प्रलापः अदृष्टदृष्टप्रनष्टभ्रान्तिभूतेषु भूतेष्वित्यर्थः।।दुर्विज्ञेयोऽयं प्रकृत आत्मा किं त्वामेवैकमुपालभे साधारणे भ्रान्तिनिमित्ते। कथं दुर्विज्ञेयोऽयमात्मा इत्यत आह

By - Sri Vallabhacharya , in sanskrit

।।2.28।।पुनरपि साङ्ख्येनैवोपदिशति अव्यक्तादीनीति।भूतानि इत्यत्रैवं विवेचनीयम् भूतशब्देन यदि कार्यशरीराणि तदाऽव्यक्तं प्रधानं प्रकृतिस्तदादीनि तन्निधनान्येव। एतेन कारणात्मकत्वमुक्तम्। मध्ये व्यक्तता कार्यता तां दृष्ट्वा न शोकः कार्यः आद्यन्तयोरव्यक्तत्वात्। अन्यथा ध्वस्तघटादेरपि शोकः स्यात्। यदि वा भूतशब्देनात्मानः तदाऽव्यक्तस्याक्षरस्य महतो भूतस्य सकाशात् व्युच्चरितानि तन्निधनान्येवेति तदात्मकत्वं बोध्यम्। मध्ये व्यक्ततां देहात्मतां दृष्ट्वा न शोकः कार्यः आद्यन्तयोरव्यक्तस्य मध्येऽप्यक्ततैवाऽभ्युपगन्तव्या व्यक्तता तु दृश्यमाना मदिच्छया प्राकृतेति सिद्धान्तः। अतएव आराग्रमात्रो ह्यवरोऽपि दृष्टो बुद्धेर्गुणेनात्मगुणो न चैव श्वे.उ.5।8 इति श्रुतावात्मेच्छागुणकृतमणुत्वमात्मनां मायाबुद्धिगुणकृतमवरत्वं च व्यक्त्यभिमति सुखिदुःखित्वादीति निरूपितम्।