सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ। ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि।।2.38।।
sukha-duḥkhe same kṛitvā lābhālābhau jayājayau tato yuddhāya yujyasva naivaṁ pāpam avāpsyasi
Having made pleasure and pain, gain and loss, victory and defeat equal, engage in battle for the sake of battle; thus, you shall not incur sin.
2.38 सुखदुःखे pleasure and pain? समे same? कृत्वा having made? लाभालाभौ gain and loss? जयाजयौ victory and defeat? ततः then? युद्धाय for battle? युज्यस्व engage thou? न not? एवम् thus? पापम् sin? अवाप्स्यसि shalt incur.Commentary This is the Yoga of eanimity or the doctrine of poise in action. If anyone does any action with the above mental attitude or balanced state of mind he will not reap the fruits of his action. Such an action will lead to the purification of his heart and freedom from birth and death. One has to develop such a balanced state of mind through continous struggle and vigilant efforts.
2.38।। व्याख्या-- [अर्जुनको यह आशंका थी कि युद्धमें कुटुम्बियोंको मारनेसे हमारेको पाप लग जायगा, पर भगवान् यहाँ कहते हैं कि पापका हेतु युद्ध नहीं है, प्रत्युत अपनी कामना है। अतः कामनाका त्याग करके तू युद्धके लिये खड़ा हो जा।] 'सुखदुःखे समे ৷৷. ततो युद्धाय युज्यस्व'-- युद्धमें सबसे पहले जय और पराजय होती है, जय-पराजयका परिणाम होता है--लाभ और हानि तथा लाभ-हानिका परिणाम होता है सुख और दुःख। जयपराजयमें और लाभ-हानिमें सुखी-दुःखी होना तेरा उद्देश्य नहीं है। तेरा उद्देश्य तो इन तीनोंमें सम होकर अपने कर्तव्यका पालन करना है। युद्धमें जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुःख तो होंगे ही। अतः तू पहलेसे यह विचार कर ले कि मुझे तो केवल अपने कर्तव्यका पालन करना है, जय-पराजय आदिसे कुछ भी मतलब नहीं रखना है। फिर युद्ध करनेसे पाप नहीं लगेगा अर्थात् संसारका बन्धन नहीं होगा। सकाम और निष्काम--दोनों ही भावोंसे अपने कर्तव्य-कर्मका पालन करना आवश्यक है। जिसका सकाम भाव है, उसको तो कर्तव्यकर्मके करनेमें आलस्य, प्रमाद बिलकुल नहीं करने चाहिये, प्रत्युत तत्परतासे अपने कर्तव्यका पालन करना चाहिये। जिसका निष्काम भाव है, जो अपना कल्याण चाहता है, उसको भी तत्परतापूर्वक अपने कर्तव्यका पालन करना चाहिये। सुख आता हुआ अच्छा लगता है और जाता हुआ बुरा लगता हौ तथा दुःख आता हुआ बुरा लगता है और जाता हुआ अच्छा लगता है। अतः इनमें कौन अच्छा है, कौन बुरा? अर्थात् दोनोंही समान हैं, बराबर हैं। इस प्रकार सुख-दुःखमें समबुद्धि रखते हुए तुझे अपने कर्तव्यका पालन करना चाहिये। तेरी किसी भी कर्ममें सुखके लोभसे प्रवृत्ति न हो और दुःखके भयसे निवृत्ति न हो। कर्मोंमें तेरी प्रवृत्ति और निवृत्ति शास्त्रके अनुसार हो ही (गीता 16। 24)। 'नैवं पापमवाप्स्यसि'-- यहाँ 'पाप' शब्द पाप और पुण्य--दोनोंका वाचक है, जिसका फल है--स्वर्ग और नरककी प्राप्तिरूप बन्धन, जिससे मनुष्य अपने कल्याणसे वञ्चित रह जाता है और बार-बार जन्मता-मरता रहता है। भगवान् कहते हैं कि हे अर्जुन! समतामें स्थित होकर युद्धरूपी कर्तव्य-कर्म करनेसे तुझे पाप और पुण्य --दोनों ही नहीं बाँधेंगे। प्रकरण सम्बन्धी विशेष बात भगवान्ने इकतीसवें श्लोकसे अड़तीसवें श्लोकतकके आठ श्लोकोंमें कई विचित्र भाव प्रकट किये हैं; जैसे-- (1) किसीको व्याख्यान देना हो और किसी विषयको समझाना हो तो भगवान् इन आठ श्लोकोंमें उसकी कला बताते हैं। जैसे, कर्तव्य-कर्म करना और अकर्तव्य न करना--ऐसे विधि-निषेधका व्याख्यान देना हो तो उसमें पहले विधिका, बीचमें निषेधका और अन्तमें फिर विधिका वर्णन करके व्याख्यान समाप्त करना चाहिये। भगवान्ने भी यहाँ पहले इकतीसवें-बत्तीसवें दो श्लोकोंमें कर्तव्य-कर्म करनेसे लाभका वर्णन किया, फिर बीचमें तैंतीसवेंसे छत्तीसवेंतकके चार श्लोकोंमें कर्तव्य-कर्म न करनेसे हानिका वर्णन किया और अन्तमें सैंतीसवें-अड़तीसवें दो श्लोकोंमें कर्तव्य-कर्म करनेसे लाभका वर्णन करके कर्तव्य-कर्म करनेकी आज्ञा दी। (2) पहले अध्यायमें अर्जुनने अपनी दृष्टिसे जो दलीलें दी थीं, उनका भगवान्ने इन आठ श्लोकोंमें समाधान किया है; जैसे अर्जुन कहते हैं-- मैं युद्ध करनेमें कल्याण नहीं देखता हूँ (1। 31), तो भगवान् कहते हैं--क्षत्रियके लिये धर्ममय युद्धसे बढ़कर दूसरा कोई कल्याणका साधन नहीं है (2। 31)। अर्जुन कहते हैं--युद्ध करके हम सुखी कैसे होंगे? (1। 37) तो भगवान् कहते हैं--जिन क्षत्रियोंको ऐसा युद्ध मिल जाता है वे ही क्षत्रिय सुखी है (2। 32)। अर्जुन कहते हैं--युद्धके परिणाममें नरककी प्राप्ति होगी (1। 44) तो भगवान् कहते हैं--युद्ध करनेसे स्वर्गकी प्राप्ति होगी (2। 32 37)। अर्जुन कहते हैं--युद्ध करनेसे पाप लगेगा (1। 36) तो भगवान् कहते हैं--युद्ध न करनेसे पाप लगेगा (2। 33)। अर्जुन कहते हैं--युद्ध करनेसे परिणाममें धर्मका नाश होगा (1। 40) तो भगवान् कहते हैं--युद्ध न करनसे धर्मका नाश होगा (2। 33)। (3) अर्जुनका यह आग्रह था कि युद्धरूपी घोर कर्मको छोड़कर भिक्षासे निर्वाह करना मेरे लिये श्रेयस्कर है (2। 5), तो उनको भगवान्ने युद्ध करनेकी आज्ञा दी (2। 38); और उद्धवजीके मनमें भगवान्के साथ रहनेकी इच्छा थी तो उनको भगवान्ने उत्तराखण्डमें जाकर तप करनेकी आज्ञा दी (श्रीमद्भा0 11। 29। 41)। इसका तात्पर्य यह हुआ कि अपने मनका आग्रह छोड़े बिना कल्याण नहीं होता। वह आग्रह चाहे किसी रीतिका हो, पर वह उद्धार नहीं होने देता।
।।2.38।। सम्पूर्ण गीता के साररूप इस द्वितीय अध्याय में सांख्ययोग के पश्चात् इस श्लोक में कर्मयोग का दिशा निर्देश है। इसी अध्याय में आगे भक्तियोग का भी संक्षेप में संकेत किया गया है।यह प्रथम अवसर है जब श्रीकृष्ण इस श्लोक में आत्मोन्नति की साधना का स्पष्टरूप से वर्णन करते हैं। इसलिये इसका सावधानीपूर्वक अध्ययन गीता के समस्त साधकों के लिये अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होगा।शरीर मन और बुद्धि इन तीन उपाधियों के माध्यम से ही हम जीवन में विभिन्न अनुभव प्राप्त कर सकते हैं। इन तीन स्तरों पर प्राप्त होने वाले सभी अनुभवों का समावेश इस श्लोक में कथित तीन प्रकार के द्वन्द्वों में किया गया है। अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों को सुख और दुख के रूप में अनुभव करना बुद्धि की प्रतिक्रिया है लाभ और हानि ये मन की कल्पनायें हैं जिस कारण वस्तु की प्राप्ति पर हर्ष और वियोग पर शोक होना स्वाभाविक है भौतिक जगत् की उपलब्धियों को यहाँ जयपराजय शब्द से सूचित किया है। श्रीकृष्ण का उपदेश यह है कि मनुष्य को इस प्रकार की विषम परिस्थितियों में सदैव मन के सन्तुलन को बनाये रखना चाहये। इसके लिये सतत जागरूकता की आवश्यकता है।समुद्र स्नान के इच्छुक व्यक्ति को समुद्र स्नान करने की कला ज्ञात होनी चाहिये अन्यथा समुद्र की उत्तुंग तरंगे उस व्यक्ति को व्यथित कर देंगी और उसे जल समाधि में खींच ले जायेंगी किन्तु बड़ी लहरों के नीचे झुकने और छोटी लहरों पर सवार होने की कला जो व्यक्ति जानता है वही समुद्र स्नान का आनन्द उठा सकता है। यह आशा करना कि समुद्र की लहरें शान्त हो जायें अथवा स्नान के समय कष्ट न पहुँचायंे अपनी सुविधा के लिये समुद्र को उसके स्वरूप का त्याग करने के आदेश देने के समान है किन्तु अज्ञानी पुरुष जीवन में यही चाहता है कि किसी प्रकार की समस्यायें उसके सामने न आयें जो सर्वथा असम्भव है। जीवन के समुद्र में सुख दुख लाभहानि और जयपराजय की लहरें उठना अनिवार्य है अन्यथा पूर्ण गतिहीनता ही मृत्यु है।यदि जीवन का स्वरूप ही एक उफनते तूफानी समुद्र के समान है तो उसमें उठती उत्तुंग तरंगों के आघातों अथवा गहन गह्वरों से विचलित हुये बिना जीवन जीने की कला हमको सीखनी चाहिये। इन उठती हुई तरंगों में किसी एक के साथ भी तादात्म्य स्थापित कर लेना मानो समुद्र की सतह पर उसके साथ इधरउधर बहते जाना है और न कि उस प्रकाश के स्तम्भ के समान स्थिर रहना है जो वहीं विक्षुब्ध लहरों के बीच निश्चल खड़ा रहता है और जिसकी नींव समुद्र तल की चट्टान पर निर्मित होती है। भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन को युद्ध करने के लिये प्रेरित करते हैं किन्तु साथ में इस समत्व भाव का उपदेश भी देते हैं अन्यथा कर्म में प्रवृत्त हुआ व्यक्ति अनेक अवसरों पर अपनी ही नकारात्मक प्रवृत्तियों का शिकार बन जाता है। मन के इस समभाव के होने पर ही मनुष्य वास्तविक स्फूर्ति और प्रेरणा का जीवन जी सकता है और ऐसे व्यक्ति की उपलब्धियां ही सच्ची सफलता की आभा से युक्त होती हैं।यह सुविदित तथ्य है कि सभी कार्य क्षेत्रों में जो कर्म स्फूर्ति और प्रेरणा युक्त होते हैं उनकी अपनी ही दैवी चमक होती है जिनकी न प्रतिकृति हो सकती है और न ही उसे बारम्बार दोहराया जा सकता है। किसी भी कार्य क्षेत्र का व्यक्ति चाहे वह कवि हो या कलाकार चिकित्सक हो या वक्ता जब अपनी सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि या कृति प्रस्तुत करता है तब वह सर्वसम्मति से प्रेरणा का कार्य ही स्वीकार किया जाता है। इस प्रकार हम जब दैवी प्रेरणा के आनन्द से अविभूत कोई कार्य कर रहे होते हैं तब हमारी कल्पनायें विचार और कर्म अपनी एक निराली ही सुन्दरता से ओतप्रोत होते हैं जिन्हें एक यन्त्र के समान पुन दोहराया नहीं जा सकता।प्रसिद्ध चित्रकार दा विन्सी अपनी श्रेष्ठ कृति मन्द स्मितवदना मोनालिसा का चित्र दोबारा चित्रित नहीं कर सका महाकवि कीट्स की लेखनी उड़ते हुये बुलबुल के गान को दूसरी बार नहीं लिख पायी बीथोवेन पियानों पर फिर एक बार वही मधुर स्वर झंकृत नहीं कर सका भगवान् श्रीकृष्ण ने भी अर्जुन के प्रार्थना करने पर युद्ध के पश्चात् दोबारा गीता सुनाने में अपनी असमर्थता स्वीकार की पाश्चात्य विचारकों के लिये प्रेरणा संयोग की कोई रहस्यमय घटना है जिस पर मानव का कोई नियन्त्रण नहीं रहता जबकि भारतीय मनीषियों के अनुसार दैवी प्रेरणा का जीवन मनुष्य का वास्तविक लक्ष्य है जिसे वह अपने आत्मस्वरूप के साथ पूर्णतया तादात्म्य स्थापित करके जी सकता है। समत्व भाव का वह जीवन जहाँ हम जीवन में आने वाली परिस्थितियों से अप्रभावित अपने मन और बुद्धि के साक्षी बनकर रहते हैं अहंकार की विस्मृति के क्षण हैं और तब हमारे कर्म उषकाल की जगमगाती आभा से समृद्ध होते हैं। सामान्य मनुष्य की धारणा होती है कि अहंकार के अभाव में हम कार्य करने में अकुशल या असमर्थ बन जायेंगे परन्तु यह मिथ्या धारणा है। प्रेरणा की आभा ही सामान्य सफलता को भी महान् उपलब्धि की ऊँचाई तक पहुँचाती है।प्राचीन हिन्दू योगियों ने एक साधना का आविष्कार किया जिसके अभ्यास से मन और बुद्धि की युक्तता एवं समता सम्पादित की जा सकती है। इस साधना को योग कहते हैं। वैदिक काल के लोगों को इसका ज्ञान था तथा इसका अभ्यास करके वे योगी का जीवन जीते थे। उन्होंने असाधारण उपलब्धियों को अर्जित करके राष्ट्र के लिये स्वर्णयुग का निर्माण किया।भारत जैसे देश में वैदिक काल में निश्चित ही आस्तिक दर्शन प्रचलित होगा परन्तु उसकी उपयोगिता जीवन के सभी क्षेत्रों में समान रूप से है। यदि उसकी सार्वक्षेत्रीय उपयोगिता न हो तो वह वास्तविक अर्थ में दर्शन ही नहीं है। अधिक से अधिक उसे किसी श्रेष्ठ पुरुष का जीवन विषयक मत माना जा सकता है जिसका सीमित उपयोग हो किन्तु तत्त्वज्ञान के रूप में वह कभी स्वीकार नहीं हो सकता।अब तक के उपदेश में भगवान् ने वे सभी आवश्यक तर्क अर्जुन के समक्ष प्रस्तुत किये जिनको समझकर प्राप्त परिस्थितियों में स्वबुद्धि से उचित निर्णय लेने में वह समर्थ हो सके। सभी भौतिक परिस्थितियों के मूल्यांकन में केवल आध्यात्मिक दृष्टिकोण को ही अन्तिम प्रमाण नहीं माना जा सकता। जीवन की प्रत्येक परिस्थिति या चुनौती का मूल्यांकन आध्यात्मिक दृष्टि के साथसाथ बुद्धि के स्तर पर तर्क मन के स्तर पर नैतिकता और भौतिक स्तर पर परम्परा और सामाजिक रीति रिवाज की दृष्टि से भी करना आवश्यक है। इन सब के द्वारा बिना किसी विरोधाभास के यदि किसी एक सत्य का संकेत मिलता है तो निश्चय ही वह दिव्य मार्ग है जिस पर मनुष्य्ा को प्रत्येक मूल्य पर चलने का प्रयत्न करना चाहिये।केवल नैतिकता की भावना से युद्ध की ओर देखने से अर्जुन उस परिस्थिति को उचित रूप में समझ नहीं सका। शत्रुपक्ष में खड़े अपने ही बन्धुबान्धवों को विनष्ट करना नैतिकता के विरुद्ध था। किन्तु भावावेशजनित मन की भ्रमित अवस्था में उसने अन्य दृष्टिकोणों पर विचार नहीं किया जिससे वह पुन संयमित हो सकता था। ऐसे अवसर पर जो करने योग्य है वही करता हुआ अर्जुन भगवान् कृष्ण की शरण में जाता है। श्रीकृष्ण उसके मार्गदर्शन का उत्तरदायित्व अपने ऊपर लेकर जीवन के सभी दृष्टिकोणों को उसके सामने प्रस्तुत करते हैं। सम्पूर्ण गीता में श्रीकृष्ण मनुष्य को प्राप्त विवेकशील बुद्धि की भूमिका निभाते हैं जो कठोपनिषद् की भाषा में देहरूपी रथ का योग्य सारथि है।इस प्रकार आध्यात्मिक बौद्धिक नैतिक और पारम्परिक दृष्टियों से विचार करने के पश्चात् पूर्व के श्लोक में भगवान अर्जुन को युद्ध करने की सम्मति देते हैं। जिस भावना से कर्म करना चाहिये उसका विवेचन इस श्लोक में श्रीकृष्ण ने किया है। शरीरादि अनात्म उपाधियों के साथ तादात्म्य करने से जो चिन्तायें विक्षेप व्याकुलतायें होती हैं उनसे ऊपर उठकर सभी विषम परिस्थितियों में समभाव में स्थित होकर कर्म करना चाहिये।मन के समत्व भाव में रहने से जीवन की वास्तविक सफलता निश्चित होती है। इसके पूर्व हम देख चुके हैं कि जीवन में किस प्रकार पूर्व संचित वासनायें क्षीण हो सकती हैं। जगत् में सभी जीव अपनीअपनी वासनाओं का क्षय करने के लिये ही विभिन्न शरीर धारण किये हुये हैं। इस प्रकार वृक्ष पशु अथवा मनुष्य सभी वासनाओं के भण्डार हैं।सब परिस्थितियों में समभाव में स्थित हुआ मन वासनाओं के निस्सारण का मार्ग बनता है। यह द्वार जब अहंकार और स्वार्थ से अवरुद्ध होता है तब वासनाक्षय के स्थान पर असंख्य नयी वासनाएँ उत्पन्न होती जाती हैं। द्वन्द्वों के कारण हुआ विक्षेप अहंकार के जन्म और वृद्धि के कारण है। कर्मयोग की भावना से कर्म करते हुये जीवन जीने पर अन्तकरण की शुद्धि प्राप्त होती है। इस कर्मयोग का विस्तृत विवेचन गीता के तृतीय अध्याय में है।तत्त्वज्ञान और सामान्यजन की दृष्टि से विचार करने के पश्चात् भगवान् अर्जुन को कर्मयोग की भावना से युद्ध करने का उपदेश देते हैं। तत्त्वज्ञान को समझ कर उसे जीवन में जीना ही व्यावहारिक धर्म है।इसके पश्चात् इस अध्याय में वेदान्त ज्ञान का व्यवहार में उपयोग करने के उपायों एवं साधनों का निरूपण किया है। भगवान् कहते हैं
।।2.38।।पापभीरुतया युद्धाय निश्चयं कृत्वा नोत्थातुं शक्नोमीत्याशङ्क्याह तत्रेति। युद्धस्य स्वधर्मतया कर्तव्यत्वे सतीति यावत्। सुहृज्जीवनमरणादिनिमित्तयोः सुखदुःखयोः समताकरणं कथमिति तत्राह रागद्वेषाविति। लाभः शत्रुकोषादिप्राप्तिलाभस्तद्विपर्ययः न्याय्येन युद्धेनापरिभूतेन परस्य परिभवो जयस्तद्विपर्यस्त्वजयस्तयोर्लाभालाभयोर्जयाजययोश्च समताकरणं समानमेव रागद्वेषावकृत्वेत्येतद्दर्शयितुं तथेत्युक्तम् यथोक्तोपदेशवशात्परमार्थदर्शनप्रकरणे युद्धकर्तव्यतोक्तेः समुच्चयपरत्वं शास्त्रस्य प्राप्तमित्याशङ्क्याह एष इति। क्षत्रियस्य तव शर्मभूतयुद्धकर्तव्यतानुवादप्रसङ्गागतत्वादस्योपदेशस्य नानेन मिषेण समुच्चयः सिध्यतीत्यर्थः।
।।2.38।।ननु गुर्वादिवधार्थं प्रवृत्तस्य पापावाप्त्या कुतः स्वर्गप्राप्तिः जित्वा वा कुतो भोगसुखं निन्दया व्याप्तवात्तेषामित्याशङ्क्य निष्कामस्य समदृष्टेः स्वधर्मबुद्य्धा प्रवृत्तस्य ते पापादिप्राप्तिर्नास्तीत्याशयेनाह सुखेति। सुखदुःखे समे कृत्वा सुखे रागं दुःखे द्वेषं चाकृत्वा तथा तत्साधनीभूतौ लाभालाभौ तत्साधनीभूतौ जयाजयौ च समौ कृत्वा ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि। तथाचाग्नीषोमीयहिंसाविधायकवचनवद्युद्धहिंसाविधायकमपि धर्मशास्त्रविशेषवचनंन हिंस्यात्सर्वा भूतानि इत्यस्य सामान्यशास्त्रस्य बाधकमतः पापावाप्तेरभावाद्युद्धप्रवृत्तौ सर्वथापि लाभ एवेति।
।।2.38।।स्वधर्मस्य युद्धस्याकरणे धर्मकीर्त्योर्नाशः पापावाप्तिश्चअथ चेत् इति श्लोकेन भगवता यद्यप्युक्ता तथापि युद्धस्य अर्जुनाभिमते काम्यत्वपक्षेअहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम्। यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः। इति तत्करणे पापप्रसक्तिरस्ति तां निवारयितुं सिद्ध्यसिद्ध्योः समत्वलक्षणं योगमाह सुखदुःखे इति। समे कृत्वा सुखदुःखयोस्तद्धेत्वोः राज्यलाभालाभयोस्तद्धेत्वोश्च जयाजययोः रागद्वेषावकृत्वेत्यर्थः। केवलं स्वधर्मोऽयमिति मत्वा युद्धाय युज्यस्व घटस्व। एवं कुर्वंस्त्वं पापं नावाप्स्यसि। यस्तु राज्यलोभेन सुहृद्वधं करोति तस्यास्त्येव पापमिति भावः। कथं तर्हि स्वधर्मत्वेनानुष्ठितेऽपि युद्धे हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गमित्यादिफलस्मरणमानुषङ्गिकमिति ब्रूमः। तथाचापस्तम्बःतद्यथाम्रे फलार्थं निर्मिते च्छाया गन्धावनूत्पद्येते एवं धर्मं चर्यमाणमर्था अनूत्पद्यन्ते नो चेदनूत्पद्यन्ते न धर्महानिर्भवति इत्याम्रनिदर्शनेन प्रतिपादयति।
।।2.38।।एवं देहातिरिक्तम् अस्पृष्टसमस्तदेहस्वभावं नित्यम् आत्मानं ज्ञात्वा युद्धे च अवर्जनीयशस्त्रपातादिनिमित्तसुखदुःखार्थलाभालाभजयपराजयेषु अविकृतबुद्धिःस्वर्गादिफलाभिसन्धिरहितः केवलकार्यबुद्ध्या युद्धम् आरभस्व। एवं कुर्वाणो न पापम् अवाप्स्यसि पापं दुःखरूपं संसारं न अवाप्स्यसि। संसारबन्धात् मोक्ष्यसे इत्यर्थः।एवम् आत्मयाथात्म्यज्ञानम् उपदिश्य तत्पूर्वकं मोक्षसाधनभूतं कर्मयोगं वक्तुम् आरभते
।।2.38।।यदप्युक्तंपापमेवाश्रयेदस्मान् इति तत्राह सुखदुःखे इति। सुखदुःखे समे कृत्वा तथा तयोः कारणभूतौ यौ लाभालाभावपि तयोरपि कारणभूतौ जयाजयावपि समौ कृत्वा एतेषां समत्वे कारणं हर्षविषादराहित्यम्। युज्यस्व सन्नद्धो भव। सुखाद्यभिलाषं हित्वा स्वधर्मबुद्ध्या युध्यमानः पापं न प्राप्स्यसीत्यर्थः।
।।2.38।।एवमस्थानस्नेहकारुण्यधर्माधर्मधियाकुलत्वमुपशामितम् अथ धर्मत्वेन स्थापितस्य मुमुक्षुविषयानुष्ठानप्रकारं वदतीत्याह मुमुक्षोरिति। न हि राज्यादिकामिनामीदृशी बुद्धिरपेक्षिता अतोऽल्पास्थिरदुःखमिश्रयुद्धसाध्यफलेन कि ममेति नाशङ्कनीयमिति भावः। पूर्वोक्तमात्मतत्त्वज्ञानमनुष्ठानदशायामनुवर्तनीयतया दर्शयति एवमिति।देहातिरिक्तमिति। सति धर्मिणि हेयविरहादिधर्मचिन्तेति भावः। पौनरुक्त्यभ्रमपरिहाराय लाभालाभयोर्धनादिविषयत्वमुक्तम्। विषमयोः सुखदुःखप्रवाहयोः समीकरणं कथमित्यत्रोक्तंअविकृतबुद्धिरिति। विकारो हर्षशोकादिरूपः तदभावकथनेन विवेकादिसप्तकान्तर्गतानवसादानुद्धर्षयोर्ग्रहणम्।युद्धायेति। तादर्थ्यविभक्तिसूचितान्यार्थत्वनिवृत्तिरुच्यते स्वर्गादिति।मा फलेषु कदाचन 2।47एतान्यपि तु 18।6 इत्यादिवक्ष्यमाणमत्रानुहितम्। तत इत्यस्योपयुक्तहेतुविशेषपरत्वमेवोचितम् आनन्तर्यादिपरत्वं तु अनुपयुक्तमित्यभिप्रायेणाह केवलकार्यबुद्ध्येति। पापशब्दोऽत्र न गुरुवधादिशङ्कितपापपरः युद्धस्य स्वधर्मतामात्रेण तन्निवृत्तौ सुखदुःखसाम्यादिबुद्धिविशेषस्यैवमित्यनूदितस्य नैरर्थक्यप्रसङ्गात्। न च कृतपापपरः नावाप्स्यसीत्यनन्वयात्। करिष्यमाणे च न प्रायश्चित्तम्। न च विद्याव्यतिरिक्तेषूत्तराघाश्लेषः। अतोऽत्रामृतत्वप्रकरणान्मुमुक्ष्वपेक्षयाऽनिष्टफलत्वाविशेषेण पुण्यपापरूपसकलसांसारिककर्मपरः। ततश्च तत्फलभूतः संसारोऽत्र लक्ष्यत इत्यभिप्रायेणाह दुःखरूपं संसारमिति।नैवं पापमवाप्स्यसि इत्युक्ते पापहेतुत्वाभावमात्रं प्रतिभातीत्यत्राह संसारबन्धादिति। परम्परयेति शेषः।सोऽमृतत्वाय कल्पते 2।15 इति पूर्वोक्तमिह स्मारितम्।
।।2.34 2.38।।यद्भयाच्च भवान् युद्धात् निवर्तते (K निवर्तेत) तदेव शतशाखमुपनिपतिष्यति भवत इत्याह अथ चेत्यादि। श्लोकपञ्चकमिदम् अभ्युपगम्यवादरूपमुच्यते ( N उपगम्य) यदि लौकिकेन व्यवहारेणास्ते भवान् तथाप्यवश्यानुष्ठेयमेतत्।
।।2.38।।नन्वेवं स्वर्गमुद्दिश्य युद्धकरणे तस्य नित्यत्वव्याघातः राज्यमुद्दिश्य युद्धकरणे त्वर्थशास्त्रत्वाद्धर्मशास्त्रापेक्षया दौर्बल्यं स्यात् ततश्च काम्यस्याकरणे कुतः पापं दृष्टार्थस्य गुरुब्राह्मणादिवधस्य कुतो धर्मत्वं तथाचअथ चेत् इति श्लोकार्थो व्याहत इति चेत्तत्राह समताकरणं रागद्वेषराहित्यं सुखे तत्कारणे लाभे तत्कारणे जये च रागमकृत्वा एवं दुःखे तद्धेतावलाभे तद्धेतावपजये च द्वेषमकृत्वा ततो युद्धाय युज्यस्व संनद्धो भव। एवं सुखकामनां दुःखनिवृत्तिकामनां वा विहाय स्वधर्मबुद्ध्या युध्यमानो गुरुब्राह्मणादिवधनिमित्तं नित्याकर्माकरणनिमित्तं च पापं न प्राप्स्यसि। यस्तु फलकामनया करोति स गुरुब्राह्मणादिवधनिमित्तं पापं प्राप्नोति। यो वा न करोति स नित्यकर्माकरणनिमित्तम्। अतः फलकामनामन्तरेण कुर्वन्नुभयविधमपि पापं न प्राप्नोतीति प्रागेव व्याख्यातोऽभिप्रायः।हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम् इति त्वानुषङ्गिफलकथनमिति न दोषः। तथाचापस्तम्बः स्मरतितद्याथाम्रे फलार्थं निमिते छायागन्धावनूत्पद्येते एवं धर्मंचर्यमाणमर्था अनूत्पद्यन्ते नो चेदनूत्पद्यन्ते न धर्महानिर्भवति इति। अतो युद्धशास्त्रस्यार्थशास्त्रत्वाभावात्पापमेवाश्रयेदस्मान् इत्यादि निराकृतं भवति।
।।2.38।।मया पूर्वं पापसम्भावना कृता तन्न का गतिरित्याशङ्क्याह सुखदुःखे इति। सुखदुःखे देहस्य लाभालाभौ राज्यस्य जयाजयौ यशसः समौ कृत्वा हर्षविषादरहितः सन् ततस्तदनन्तरं मदाज्ञाविचारेण युद्धाय युज्यस्व युक्तो भव। एवंकृते पापं नावाप्स्यसीत्यर्थः।
।।2.38।। सुखदुःखे समे तुल्ये कृत्वा रागद्वेषावप्यकृत्वेत्येतत्। तथा लाभालाभौ जयाजयौ च समौ कृत्वा ततो युद्धाय युज्यस्व घटस्व। न एवं युद्धं कुर्वन् पापम् अवाप्स्यसि । इत्येष उपदेशः प्रासङ्गिकः।।शोकमोहापनयनाय लौकिको न्यायः स्वधर्ममपि चावेक्ष्य इत्याद्यैः श्लोकैरुक्तः न तु तात्पर्येण। परमार्थदर्शनमिह प्रकृतम्। तच्चोक्तमुपसंह्रियते एषा तेऽभिहिता (गीता 2.39) इति शास्त्रविषयविभागप्रदर्शनाय। इह हि प्रदर्शिते पुनः शास्त्रविषयविभागे उपरिष्टात् ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् इति निष्ठाद्वयविषयं शास्त्रं सुखं प्रवर्तिष्यते श्रोतारश्च विषयविभागेन सुखं ग्रहीष्यन्ति इत्यत आह
।।2.38।।यच्चोक्तंपापमेवाश्रयेदस्मान् हत्वा 1।36 इत्यादिना तत्रावधेहि सुखदुःखे समे कृत्वेति। योगमपि संस्मरन्नाह साङ्ख्यनैकीकृत्य। जगति फलभूते सुखदुःखे समे हेयोपादेयतया तुल्ये कृत्वा तत्साधनक्रियाभूतौ लाभालाभौ जयाजयौ च समौ कृत्वा युद्धाय युज्यस्व। एवं कृतेऽनुद्देशतस्त्वं पापं न प्राप्स्यसि।