BG - 2.40

नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते। स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्।।2.40।।

nehābhikrama-nāśho ’sti pratyavāyo na vidyate svalpam apyasya dharmasya trāyate mahato bhayāt

  • na - not
  • iha - in this
  • abhikrama - efforts
  • nāśhaḥ - loss
  • asti - there is
  • pratyavāyaḥ - adverse result
  • na - not
  • vidyate - is
  • su-alpam - a little
  • api - even
  • asya - of this
  • dharmasya - occupation
  • trāyate - saves
  • mahataḥ - from great
  • bhayāt - danger

Translation

In this, there is no loss of effort, nor is there any harm produced, nor any transgression. Even a little of this knowledge protects one from great fear.

Commentary

By - Swami Sivananda

2.40 न not? इह in this? अभिक्रमनाशः loss of effort? अस्ति is? प्रत्यवायः production of contrary results? न not? विद्यते is? स्वल्पम् very little? अपि even? अस्य of this? धर्मस्य duty? त्रायते protects? महतः (from) great? भयात् fear.Commentary If a religious ceremony is left uncompleted? it is a wastage as the performer cannot realise the fruits. But it is not so in the case of Karma Yoga because every action causes immediate purification of the heart.In agriculture there is uncertainty. The farmer may till the land? plough and sow the seed but he may not get a crop if there is no rain. This is not so in Karma Yoga. There is no uncertainty at all. Further? there is no chance of any harm coming out of it. In the case of medical treatment great harm will result from the doctors injudicious treatment if he uses a wrong medicine. But it is not so in the case of Karma Yoga. Anything done? however little it may be? in this path of Yoga? the Yoga of action? saves one from great fear of being caught in the wheel of birth and death. Lord Krishna here extols Karma Yoga in order to create interest in Arjuna in this Yoga.

By - Swami Ramsukhdas , in hindi

 2.40।। व्याख्या-- [इस समबुद्धिकी महिमा भगवान्ने पूर्वश्लोकके उत्तरार्धमें और इस (चालीसवें) श्लोकमें चार प्रकारसे बतायी है-- (1) इसके द्वारा कर्मबन्धनसे मुक्त हो जाता है, (2) इसके उपक्रमका नाश नहीं होता, (3) इसका उलटा फल नहीं होता और (4) इसका थोड़ा-सा भी अनुष्ठान महान् भयसे रक्षा करनेवाला होता है।]  'नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति'-- इस समबुद्धि (समता) का केवल आरम्भ ही हो जाय, तो उस आरम्भका भी नाश नहीं होता। मनमें समता प्राप्त करनेकी जो लालसा, उत्कण्ठा लगी है, यही इस समताका आरम्भ होना है। इस आरम्भका कभी अभाव नहीं होता; क्योंकि सत्य वस्तुकी लालसा भी सत्य ही होती है। यहाँ  'इह'  कहनेका तात्पर्य है कि इस मनुष्यलोकमें यह मनुष्य ही इस समबुद्धिको प्राप्त करनेका अधिकारी है। मनुष्यके सिवाय दूसरी सभी भोगयोनियाँ है। अतः उन योनियोंमें विषमता (राग-द्वेष) का नाश करनेका अवसर नहीं है; क्योंकि भोग राग-द्वेषपूर्वक ही होते हैं। यदि राग-द्वेष न हों तो भोग होगा ही नहीं, प्रत्युत साधन ही होगा।  'प्रत्यवायो न विद्यते'--सकामभावपूर्वक किये गये कर्मोंमें अगर मन्त्र-उच्चारण, यज्ञ-विधि आदिमें कोई कमी रह जाय तो उसका उलटा फल हो जाता है। जैसे, कोई पुत्र-प्राप्तिके लिये पुत्रेष्टि यज्ञ करता है तो उसमें विधिकी त्रुटि हो जानेसे पुत्रका होना तो दूर रहा, घरमें किसीकी मृत्यु हो जाती है अथवा विधिकी कमी रहनेसे इतना उलटा फल न भी हो, तो भी पुत्र पूर्ण अङ्गोंके साथ नहीं जन्मता! परन्तु जो मनुष्य इस समबुद्धिको अपने अनुष्ठानमें लानेका प्रयत्न करता है, उसके प्रयत्नका, अनुष्ठानका कभी भी उलटा फल नहीं होता। कारण कि उसके अनुष्ठानमें फलकी इच्छा नहीं होती। जबतक फलेच्छा रहती है, तबतक समता नहीं आती और समता आनेपर फलेच्छा नहीं रहती। अतः उसके अनुष्ठानका विपरीत फल होता ही नहीं, होना सम्भव ही नहीं। विपरीत फल क्या है? संसारसे विषमताका होना ही विपरीत फल है। सांसारिक किसी कार्यमें राग होना और किसी कार्यमें द्वेष होना ही विषमता है, और इसी विषमतासे जन्म-मरणरूप बन्धन होता है। परन्तु मनुष्यमें जब समता आती है, तब राग-द्वेष नहीं रहते और राग-द्वेषके न रहनेसे विषमता नहीं रहती, तो फिर उसका विपरीत फल होनेका कोई कारण ही नहीं है।  'स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्'--इस समबुद्धिरूप धर्मका थोड़ा-सा भी अनुष्ठान हो जाय, थोड़ी-सी भी समता जीवनमें, आचरणमें आ जाय तो यह जन्ममरणरूप महान् भयसे रक्षा कर लेता है। जैसे सकाम कर्म फल देकर नष्ट हो जाता है ऐसे यह समता धन-सम्पत्ति आदि कोई फल देकर नष्ट नहीं होती अर्थात् इसका फल नाशवान् धनसम्पत्ति आदिकी प्राप्ति नहीं होत। साधकके अन्तःकरणमें अनुकूल-प्रतिकूल वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति आदिमें जितनी समता आ जाती है, उतनी समता अ़टल हो जाती है। इस समताका किसी भी कालमें नाश नहीं हो सकता। जैसे, योगभ्रष्टकी साधन-अवस्था में जितनी समता आ जाती है, जितनी साधन-सामग्री हो जाती है, उसका स्वर्गादि ऊँचे लोकोंमें बहुत वर्षोंतक सुख भोगनेपर और मृत्युलोगमें श्रीमानोंके घरमें भोग भोगनेपर भी नाश नहीं होता (गीता 6। 41 44)। यह समता, साधन-सामग्री कभी किञ्चिन्मात्र भी खर्च नहीं होती, प्रत्युत सदा ज्यों-की-त्यों सुरक्षित रहती है; क्योंकि यह सत् है, सदा रहनेवाली है। 'धर्म'  नाम दो बातोंका है--(1) दान करना, प्याऊ लगाना, अन्नक्षेत्र खोलना आदि परोपकारके कार्य करना और (2) वर्ण-आश्रमके अनुसार शास्त्र-विहित अपने कर्तव्य-कर्मका तत्परतासे पालन करना। इन धर्मोंका निष्कामभावपूर्वक पालन करनेसे समतारूप धर्म स्वतः आ जाता है; क्योंकि यह समतारूप धर्म स्वयंका धर्म अर्थात् स्वरूप है। इसी बातको लेकर यहाँ समबुद्धिको धर्म कहा गया है।  समतासम्बन्धी विशेष बात  लोगोंके भीतर प्रायः यह बात बैठी हुई है कि मन लगनेसे ही भजन-स्मरण होता है, मन नहीं लगा तो राम-राम करनेसे क्या लाभ? परन्तु गीताकी दृष्टिमें मन लगना कोई ऊँची चीज नहीं है। गीताकी दृष्टिमें ऊँची चीज है--समता। दूसरे लक्षण आयें या न आयें, जिसमें समता आ गयी उसको गीता सिद्ध कह देती है। जिसमें दूसरे सब लक्षण आ जायँ और समता न आये उसको गीता सिद्ध नहीं कहती। समता दो तरहकी होती है--अन्तःकरणकी समता और स्वरूपकी समता। समरूप परमात्मा सब जगह परिपूर्ण है। उस समरूप परमात्मामें जो स्थित हो गया, उसने संसार-मात्रपर विजय प्राप्त कर ली, वह जीवन्मुक्त हो गया। परन्तु इसकी पहचान अन्तःकरणकी समतासे होती है (गीता 5। 19)। अन्तःकरणकी समता है-- सिद्धि-असिद्धिमें सम रहना (गीता 2। 48)। प्रशंसा हो जाय या निन्दा हो जाय कार्य सफल हो जाय या असफल हो जाय, लाखों रूपये आ जायँ या लाखों रूपये चले जायँ पर उससे अन्तःकरणमें कोई हलचल न हो; सुख-दुःख, हर्ष-शोक आदि न हो (गीता 5। 20)। इस समताका कभी नाश नहीं होता। कल्याणके सिवाय इस समताका दूसरा कोई फल होता ही नहीं। मनुष्य, तप, दान, तीर्थ, व्रत आदि कोई भी पुण्य-कर्म करे, वह फल देकर नष्ट हो जाता है; परन्तु साधन करते-करते अन्तःकरणमें थोड़ी भी समता (निर्विकारता) आ जाय तो वह नष्ट नहीं होती, प्रत्युत कल्याण कर देती है। इसलिये साधनमें समता जितनी ऊँची चीज है, मनकी एकाग्रता उतनी ऊँची चीज नहीं है। मन एकाग्र होनेसे सिद्धियाँ तो प्राप्त हो जाती है, पर कल्याण नहीं होता। परन्तु समता आनेसे मनुष्य संसार-बन्धनसे सुखपूर्वक मुक्त हो जाता है (गीता 5। 3)। सम्बन्ध-- उन्तालीसवें श्लोकमें भगवान्ने जिस समबुद्धिको योगमें सुननेके लिये कहा था उसी समबुद्धिको प्राप्त करनेका साधन आगेके श्लोकमें बताते हैं।

By - Swami Chinmayananda , in hindi

।।2.40।। क्रमनाश जिस प्रकार कृषि क्षेत्र में फसल पाने के लिये भूमि जोतना सींचना बीज बोना निराई सुरक्षा और कटाई आदि क्रम का पालन करना पड़ता है अन्यथा हानि उठानी पड़ती है उसी प्रकार वेदों के कर्मकाण्ड में वर्णित यज्ञयागादि के अनुष्ठान में भी क्रमानुसार क्रिया विधि न करने पर यज्ञ का फल नहीं मिलता। इतना ही नहीं यदि वेद प्रतिपादित कर्मों को न किया जाय तो वह प्रत्यवाय दोष कहलाता है जिसका अनिष्ट फल कर्त्ता (जीव)को भोगना पड़ता है। लौकिक फल प्राप्ति में यही बातें देखी जाती हैं। भौतिक जगत् में भी इसी प्रकार के अनेक उदाहरण हैं जैसे गलत औषधियों के प्रयोग से रोगी को अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ता है।कर्म क्षेत्र में इन दोषों के होने से हमें इष्टफल नहीं मिल पाता। भगवान् श्रीकृष्ण यहां मानो इस ज्ञान का विज्ञापन करते हुये कर्मयोग का उपर्युक्त दोनों दोषों से सर्वथा मुक्त और सुरक्षित होने का आश्वासन देते हैं।अब इस ज्ञान का स्वरूप बताते हैं

By - Sri Anandgiri , in sanskrit

।।2.40।।ननु कर्मानुष्ठानस्यानैकान्तिकफलत्वेनाकिंचित्करत्वादनेकानर्थकलुषितत्वेन दोषवत्त्वाच्च योगबुद्धिरपि न श्रद्धेयेति तत्राह  किञ्चेति।  अन्यच्च किंचिदुच्यते। कर्मानुष्ठानस्यावश्यकत्वे कारणमिति यावत्। कर्मणा सह समाधेरनुष्ठातुमशक्यत्वादनेकान्तरायसंभवात्तत्फलस्य च साक्षात्कारस्य दीर्घकालाभ्याससाध्यस्यैकस्मिञ्जन्मन्यसंभवादर्थाद्योगी भ्रश्येतानर्थे च निपतेदित्याशङ्क्याह   नेहेति।  प्रतीकत्वेनोपात्तस्य नकारस्य पुनरन्वयानुगुणत्वेन नास्तीत्यनुवादः। यत्तु कर्मानुष्ठानस्यानैकान्तिकफलत्वेनाकिंचित्करत्वमुक्तं तद्दूषयति  यथेति।  कृषिवाणिज्यादेरारम्भस्यानियतं फलं संभावनामात्रोपनीतत्वान्न तथा कर्मणि वैदिके प्रारम्भस्य फलमनियतं युज्यते शास्त्रविरोधादित्यर्थः। यत्तूक्तमनेकानर्थकलुषितत्वेन दोषवदनुष्ठानमिति तत्राह  किञ्चेति।  इतोऽपि कर्मानुष्ठानमावश्यकमिति प्रतिज्ञाय हेत्वन्तरमेव स्फुटयति  नापीति।  चिकित्सायां हि क्रियमाणायां व्याध्यतिरेको वा मरणं वा प्रत्यवायोऽपि संभाव्यते कर्मपरिपाकस्य दुर्विवेकत्वान्न तथा कर्मानुष्ठाने दोषोऽस्ति विहितत्वादित्यर्थः। संप्रति कर्मानुष्ठानस्य फलं पृच्छति  किंत्विति।  उत्तरार्धं व्याकुर्वन्विवक्षितं फलं कथयति  स्वल्पमपीति।  सम्यग्ज्ञानोत्पादनद्वारेण रक्षणं विवक्षितंसर्वपापप्रसक्तोऽपि ध्यायन्निमिषमच्युतम्। यतिस्तपस्वी भवति पङ्क्तिपावनपावनः।। इति स्मृतेरित्यर्थः।

By - Sri Dhanpati , in sanskrit

।।2.40।।काभ्यादस्य महद्वैलक्षण्यमित्याशयेनाह  नेहेति।  इह निष्कामकर्मणि समाधियोगे च मोक्षमार्गे अभिक्रमस्य प्रारम्भस्य नाशो नास्ति। कृष्यादेरिव प्रत्यवायः पापोत्पत्तिरपि चिकित्सावन्न विद्यते। अस्य धर्मस्य त्वल्पमप्यनुष्ठितं महतो भयाज्जन्ममरणादिलक्षणसंसारभयाद्रक्षति।

By - Sri Neelkanth , in sanskrit

।।2.40।।एतदेवोपपादयति  नेहेति।  इह कर्मबन्धप्रहाणार्थे कर्मयोगेऽनुष्ठीयमाने। अभिक्रम्यते व्याप्यत इत्यभिक्रमः कर्मारम्भः कर्मैव वा तस्य नाशो नास्ति। अन्यत्तु फलं दत्त्वा नश्यति नत्विदम्। इष्टफलस्याजननात्। नन्वेतस्यापि काम्यान्तःपातितया नित्याकरणजनितः प्रत्यवाय उत्पद्येतैव। सकृदनुष्ठितस्य बन्धप्रहाणप्रत्यवायपरिहाराख्यफलद्वयहेतुत्वायोगादित्याशङ्क्याह  प्रत्यवायो न विद्यत इति। तमेतं वेदानुवचनेन ब्राह्मणा विविदिषन्ति यज्ञेन दानेन तपसाऽनाशकेन इति श्रुत्या संयोगपृथक्त्वन्यायेनदध्नेन्द्रियकामस्य जुहुयात् इत्यनेन नित्यस्य दध्नो वीर्यार्थत्वमिव नित्यानामपि कर्मणां विविदिषार्थत्वं विनियोगबलात्सिध्यति। ततश्च काम्येनैव प्रयोगेण नित्यस्यापि सिद्धेर्न नित्याकरणनिमित्तो वा काम्यत्वात्सर्वाङ्गानुपसंहारनिमित्तो वा प्रत्यवायो विद्यते। नित्यानामेव विनियोगात्। नित्येषु च यथाशक्त्युपबन्धस्यानुज्ञानात्। वार्तिके तु काम्यानामप्यत्र विनियोगो दृष्टः। यथावेदानुवचनादीनामैकात्म्यज्ञानजन्मने। तमेतमिति वाक्येन नित्यानां वक्ष्यते विधिः। यद्वा विविदिषार्थत्वं काम्यानामपि कर्मणाम्। तमेतमिति वाक्येन संयोगस्य पृथक्त्वतः। इति। अस्मिन्पक्षे काम्यानामपि तुल्यफलत्वात् नित्यवद्यथाशक्त्युपबन्धो भविष्यतीति न सर्वाङ्गानुपसंहारजनितः प्रत्यवायो विद्यते। स्वल्पमपि अस्य योगधर्मस्यानुष्ठितं अनुपभुक्तबीजकल्पम्जन्मजन्मान्तराभ्यस्तं दानमध्ययनं तपः। तेनैवाभ्यासयोगेन तच्चैवाभ्यसते पुनः। इति स्मृतेरुत्तरोत्तरसंस्काराधानद्वारा स्वसजातीयवृद्धेर्निमित्तं सत्कामादिदोषक्षपणद्वारा महतो भयात्संसारात्त्रायते। तस्मात्सांख्यानधिकारिणा कर्मयोग एवानुष्ठेय इति भावः।

By - Sri Ramanujacharya , in sanskrit

।।2.40।। इह  कर्मयोगे  न अभिक्रमनाशः अस्ति।  अभिक्रम आरम्भः नाशः फलसाधनभावनाशः। आरब्धस्य असमाप्तस्य विच्छिन्नस्य अपि न निष्फलत्वम्। आरब्धस्य विच्छेदे  प्रत्यवायः  अपि  न विद्यते।   अस्य  कर्मयोगाख्यस्य स्व धर्मस्य  स्वल्पांशः  अपि महतो भयात्  संसारभयात्  त्रायते।  अयम् अर्थः पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते। (गीता 6।40) इति उत्तरत्र प्रपञ्चयिष्यते।अन्यानि हि लौकिकानिवैदिकानि च साधनानि विच्छिन्नानि न हि फलप्रसवाय भवन्ति प्रत्यवायाय च भवन्ति।काम्यकर्मविषयाया बुद्धेः मोक्षसाधनभूतकर्मविषयां बुद्धिं विशिनष्टि

By - Sri Sridhara Swami , in sanskrit

।।2.40।।ननु कृष्यादिवत्कर्मणां कदाचिद्विघ्नबाहुल्येन फले व्याभिचारान्मन्त्राद्यङ्गवैगुण्येन च प्रत्यवायसंभवात्कुतः कर्मयोगेन कर्मबन्धप्रहरणं तत्राह  नेहेति।  इह निष्कामकर्मयोगेऽभिक्रमस्य प्रारम्भस्य नाशो निष्फलत्वं नास्ति प्रत्यवायश्च न विद्यते ईश्वरोद्देशेनैव विघ्नवैगुण्याद्यसंभवात्। किंच अस्य धर्मस्य स्वल्पमप्युपक्रममात्रमपि कृतं महतो भयात्संसारान्त्रायते रक्षति नतु काम्यकर्मवत्किंचिदङ्गवैगुण्यादिना नैष्फल्यमस्येत्यर्थः।

By - Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha , in sanskrit

।।2.40।।ननुइमां श्रृणु 2।39 इत्युक्तेऽनन्तरंव्यवसाया 2।41 इत्यादि वक्तव्यम् मध्येनेहाभिक्रम इत्येतन्न सङ्गच्छत इत्यत्राह वक्ष्यमाणेति। उपक्रमे माहात्म्यकथनेन बुभुत्सातिशयजननाय प्ररोचना क्रियत इति भावः। इहेत्यनेन सूचितं कर्मान्तरेभ्यो वैलक्षण्यमाह कर्मयोग इति। अभिमुखक्रमणशङ्कां व्युदस्यति अभिक्रम आरम्भ इति। उपक्रमशब्दवदयमिति भावः। क्रियारूपस्याभिक्रमस्य कथमविनाशित्वमित्यतोनाशः फलसाधनभावनाश इति। तात्पर्यमाह आरब्धस्येति। प्रत्यवायशङ्काहेतुं दर्शयन् द्वितीयं पादं व्याकरोति आरब्धस्य विच्छेदे इति। उक्तविवरणरूपमुत्तरार्धं व्याख्याति अस्येति।संसारभयादिति। महत्त्वविशेषितं भयं संसारभयमेव हीति भावः। स्वल्पांशस्यापि संसारनिवृत्तिहेतुत्वं देशकालादिवैगुण्यात् प्रामादिकाकृत्यकरणादिना च विच्छिन्नस्याप्यवश्यं पुनः सन्धानादिति दर्शयन्नस्य श्लोकस्योक्तार्थैकपरत्वं सङ्ग्रहविस्तररूपत्वेन वक्ष्यमाणापौनरुक्त्यं चाह अयमर्थ इति। कृतांशस्य कथं न नाशप्रसङ्ग इति शङ्कायामिहेत्यस्य व्यवच्छेद्यं दर्शयति अन्यानि हीति। लौकिकानीत्यतिशङ्काहेतुर्दृष्टान्त उक्तः।वैदिकानीति सामान्यनिर्देशस्यायं भावः नित्यनैमित्तिकान्यपि विच्छेदे सति न फलाय स्युः प्रत्यवायाय च भवेयुः। अशक्त्यादिमूलमीषद्वैकल्यमात्रं हि तत्र सह्यम्। काम्येषु त्वङ्गवैकल्येऽपि नैष्फल्यमिति विशेष इति प्रत्यवायाय च भवन्तीति न केवलं स्वर्गादेरलाभमात्रम् ब्रह्मरक्षस्त्वप्राप्त्यादिरपि स्यादिति भावः।

By - Sri Abhinavgupta , in sanskrit

।।2.40।।एषा त इति। एषा च तव सांख्ये सम्यग्ज्ञाने बुद्धिर्निश्चयात्मिका उक्ता। एषैव च यथा योगे कर्मकौशलाय उच्यते (S K कौशले यो (S य) ज्यते) तथैव श्रृणु यया बुद्ध्या कर्मणां बन्धकत्वं त्यक्ष्यसि। न हि कर्माणि स्वयं बध्नन्ति जडत्वात्। अतः स्वयमात्मा कर्मभिः वासनात्मकैरात्मानं बध्नाति।

By - Sri Madhusudan Saraswati , in sanskrit

।।2.40।।ननुतमेतं वेदानुवचनेन ब्राह्मणा विविदिषन्ति यज्ञेन दानेन तपसाऽनाशकेन इति श्रुत्या विविदिषां ज्ञानं चोद्दिश्य संयोगपृथक्त्वन्यायेन सर्वकर्मणां विनियोगात्तत्र चान्तःकरणशुद्धेर्द्वारत्वान्मांप्रति कर्मानुष्ठानं विधीयते। तत्रतद्यथेह कर्मजितो लोकः क्षीयत एवमेवामुत्र पुण्यजितो लोकः क्षीयते इति श्रुतिबोधितस्य फलनाशस्य संभवात् ज्ञानं विविदिषां चोद्दिश्य क्रियमाणस्य यज्ञादेः काम्यत्वात्सर्वाङ्गोपसंहारेणानुष्ठेयस्य यत्किंचिदङ्गासंपत्तावपि वैगुण्योपपत्तेर्यज्ञेनेत्यादिवाक्यविहितानां च सर्वेषां कर्मणामेकेन पुरुषायुषपर्यवसानेऽपि कर्तुमशक्यत्वात्कुतःकर्मबन्धं प्रहास्यसि इति फलं प्रत्याशेत्यत आह भगवान् अभिक्रम्यते कर्मणा प्रारभ्यते यत्फलं सोऽभिक्रमस्तस्य नाशस्तद्यथेहेत्यादिना प्रतिपादितः स इह निष्कामकर्मयोगे नास्ति एतत्फलस्य शुद्धेः पापक्षयरूपत्वेन लोकशब्दावाच्यभोग्यत्वाभावेन च क्षयासंभवात् वेदनपर्यन्ताया एव विविदिषायाः कर्मफलत्वाद्वेदनस्य चाव्यवधानेनाज्ञाननिवृत्तिफलजनकस्य फलमजनयित्वा नाशासंभवादिह फलनाशो नास्तीति साधूक्तम्। तदुक्तम् तद्यथेहेति या निन्दा सा फले न तु कर्मणि। फलेच्छां तु परित्यज्य कृतं कर्म विशुद्धिकृत्।। इति। तथा प्रत्यवायोऽङ्गवैगुण्यनिबन्धनं वैगुण्यमिह न विद्यते तमितिवाक्येन नित्यानामेवोपात्तदुरितक्षयद्वारेण विविदिषायां विनियोगात्। तत्रच सर्वाङ्गोपसंहारनियमाभावात् काम्यानामपि संयोगपृथक्त्वन्यायेन विनियोग इति पक्षेऽपि फलाभिसंधिरहितत्वेन तेषां नित्यतुल्यत्वात्। नहि काम्यनित्याग्निहोत्रयोः स्वतः कश्चिद्विशेषोऽस्ति। फलाभिसंधितदभावाभ्यामेव तु काम्यत्वनित्यत्वव्यपदेशः। इदंच पक्षद्वयमुक्तं वार्तिके वेदानुवचनादीनामैकात्म्यज्ञानजन्मने। तमेतमिति वाक्येन नित्यानां वक्ष्यते विधिः।।यद्वा विविदिषार्थत्वं काम्यानामपि कर्मणाम्। तमेतमिति वाक्येन संयोगस्य पृथक्त्वतः।। इति। तथाच फलाभिसंधिना क्रियमाण एव कर्मणि सर्वाङ्गोपसंहारनियमात्तद्विलक्षणे शुद्ध्यर्थे कर्मणि प्रतिनिध्यादिना समाप्तिसंभवान्नाङ्गवैगुण्यनिमित्तः प्रत्यवायोऽस्तीत्यर्थः। तथास्य शुद्ध्यर्थस्य धर्मस्यतमेतम् इत्यादिवाक्यविहितस्य मध्ये स्वल्पमपि संख्ययेतिकर्तव्यतया वा यथाशक्तिभगवदाराधनार्थं किंचिदप्यनुष्ठितं सन्महतः संसारभयात्त्रायते भगवत्प्रसादसंपादनेनानुष्ठातारं रक्षति।सर्वपापप्रसक्तोऽपि ध्यायन्निमिषमच्युतम्। भूयस्तपस्वी भवति पङ्क्तिपावनपावनः।। इत्यादिस्मृतेः।तमेतम् इति वाक्ये समुच्चयविधायकाभावाच्च अशुद्धितारतम्यादेवानुष्ठानतारतम्योपपत्तेर्युक्तमुक्तंकर्मबन्धं प्रहास्यसि इति।

By - Sri Purushottamji , in sanskrit

।।2.40।।ननु कर्मणा बाहुल्यात्कालादिसाध्यत्वाच्च कृतानां पूर्णत्वाभावाद्वैकल्यं प्रत्युत अङ्गवैगुण्यादिना प्रत्यवायादिसम्भावना भवेदिति कथं बन्धो न भविष्यतीति चेत् इत्याशङ्क्यार्जुनस्य भगवत्कुण्डलात्मकसंयोगरूपयोगस्वरूपाज्ञानात्तज्ज्ञानार्थं तत्स्वरूपमाह नेहाभिक्रमनाश इति। भगवन्मार्गे भगवदर्थं भगवदाज्ञारूपेण कर्त्तव्यत्वं कर्मणां न तु फलसाधकत्वेन तस्मान्न पूर्वोक्तदोषसम्भावनात्र। तदेवाह इह मदाज्ञात्वेन क्रियमाणस्य कर्मणोऽभिक्रमनाशः प्रारब्धकर्मनाशो नास्ति निष्फलत्वं न भवतीत्यर्थः। प्रत्यवायश्च न विद्यते। यतोऽस्य धर्मस्य स्वल्पमपि कृतं महतो भयात् त्रायते रक्षति। अत्रायं भावः अन्यत्र कृतकर्मसाफल्यार्थं साङ्गत्वाय च भगवत्स्मरणं बोध्यतेयस्य स्मृत्या वि.पु. इत्यादिना तत्र साक्षाद्भगवदर्थं कृतानां कर्मणां कथं वैफल्यं भवेत्

By - Sri Shankaracharya , in sanskrit

।।2.40।।  न इह  मोक्षमार्गे कर्मयोगे  अभिक्रमनाशः  अभिक्रमणमभिक्रमः प्रारम्भः तस्य नाशः नास्ति यथा कृष्यादेः। योगविषये प्रारम्भस्य न अनैकान्तिकफलत्वमित्यर्थः। किञ्चनापि चिकित्सावत् प्रत्यवायः विद्यते भवति। किं तु  स्वल्पमपि अस्य धर्मस्य  योगधर्मस्य अनुष्ठितं  त्रायते  रक्षति  महतः भयात्  संसारभयात् जन्ममरणादिलक्षणात्।।येयं सांख्ये बुद्धिरुक्ता योगे च वक्ष्यमाणलक्षणा सा

By - Sri Vallabhacharya , in sanskrit

।।2.40।।सर्वतो योगे सुगमतामाह नेहाभिक्रमनाश इति। इह योगबुद्धौ धर्मस्य योऽभिक्रमः प्रारम्भस्तस्य नाशो नास्ति।नह्यङ्गोपक्रमे ध्वंसो स्वधर्मस्योद्धवाण्वपि। मया व्यवसितः 11।29।20 इति भागवतवाक्यात्। स्वल्पमप्यस्य धर्मस्याभिक्रमो महतो भयात्त्रायते। साङ्ख्ये तु सिद्धे धर्मकर्मणां त्यागः अत्र तु न तथा। उक्तं च यमादयस्तु कर्त्तव्याः सिद्धे योगे कृतार्थता इति।