भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम्। व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते।।2.44।।
bhogaiśwvarya-prasaktānāṁ tayāpahṛita-chetasām vyavasāyātmikā buddhiḥ samādhau na vidhīyate
For those who are attached to pleasure and power, whose minds are drawn away by such teachings, their determinate reason is not formed which is steadily bent on meditation and Samadhi (superconscious state).
2.44 भोगैश्वर्यप्रसक्तानाम् of the people deeply attached to pleasure and lordship? तया by that? अपहृतचेतसाम् whose minds are drawn away? व्यवसायात्मिका determinate? बुद्धिः reason? समाधौ in Samadhi? न not? विधीयते is fixed.Commentary Those who cling to pleasure and power cannot have steadiness of mind. They cannot concentrate or meditate. They are ever busy in planning projects for the acisition of wealth and power. Their minds are ever restless. They have no poised understanding.
2.44।। व्याख्या -- 'तयापहृतचेतसाम्'-- पूर्वश्लोकोंमें जिस पुष्पित वाणीका वर्णन किया गया है उस वाणीसे जिनका चित्त अपहृत हो गया है अर्थात् स्वर्गमें बड़ा भारी सुख है दिव्य नन्दनवन है अप्सराएँ हैं अमृत है ऐसी वाणीसे जिनका चित्त उन भोगोंकी तरफ खिंच गया है। 'भोगैश्वर्यप्रसक्तानाम्'-- शब्द स्पर्श रूप रस और गन्ध ये पाँच विषय शरीरका आराम मान और नामकी बड़ाई इनके द्वारा सुख लेनेका नाम भोग है। भोगोंके लिये पदार्थ रूपयेपैसे मकान आदिका जो संग्रह किया जाता है उसका नाम ऐश्वर्य है। इन भोग और ऐश्वर्यमें जिनकी आसक्ति है प्रियता है खिंचाव है अर्थात् इनमें जिनकी महत्त्वबुद्धि है उनको 'भोगैश्वर्यप्रसक्तानाम्' कहा गया है। जो भोग और ऐश्वर्यमें ही लगे रहते हैं वे आसुरी सम्पत्तिवाले होते हैं। कारण कि असु नाम प्राणोंका है और उन प्राणोंको जो बनाये रखना चाहते हैं उन प्राणपोषणपरायण लोगोंका नाम असुर है। वे शरीरकी प्रधानताको लेकर यहाँके अथवा स्वर्गके भोग भोगना चाहते हैं (टिप्पणी प0 80) । 'व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते'-- जो मनुष्यजन्मका असली ध्येय है जिसके लिये मनुष्यशरीर मिला है उस परमात्माको ही प्राप्त करना है ऐसी व्यवसायात्मिका बुद्धि उन लोगोंमें नहीं होती। तात्पर्य यह है कि जो भोग भोगे जा चुके हैं जो भोग भोगे जा सकते हैं जिन भोगोंको सुन रखा है और जो भोग सुने जा सकते हैं उनके संस्कारोंके कारण बुद्धिमें जो मलिनता रहती है उस मलिनताके कारण संसारसे सर्वथा विरक्त होकर एक परमात्माकी तरफ चलना है ऐसा दृढ़ निश्चय नहीं होता। ऐसे ही संसारकी अनेक विद्याओं कलाओं आदिका जो संग्रह है उससे मैं विद्वान हूँ मैं जानकार हूँ ऐसा जो अभिमानजन्य सुखका भोग होता है उसमें आसक्त मनुष्योंका भी परमात्मप्राप्तिका एक निश्चय नहीं होता। विशेष बात परमदयालु प्रभुने कृपा करके इस मनुष्यशरीरमें एक ऐसी विलक्षण विवेकशक्ति दी है जिससे वह सुखदुःखसे ऊँचा उठ जाय अपना उद्धार कर ले सबकी सेवा करके भगवान्तकको अपने वशमें कर ले इसीमें मनुष्यशरीरकी सार्थकता है। परन्तु प्रभुप्रदत्त इस विवेकशक्तिका अनादर करके नाशवान् भोग और संग्रहमें आसक्त हो जाना पशुबुद्धि है। कारण कि पशुपक्षी भी भोगोंमें लगे रहते हैं ऐसे ही अगर मनुष्य भी भोगोंमें लगा रहे तो पशुपक्षियोंमें और मनुष्यमें अन्तर ही क्या रहा पशुपक्षी तो भोगयोनि है अतः उनके सामने कर्तव्यका प्रश्न ही नहीं है। परन्तु मनुष्यजन्म तो केवल अपने कर्तव्यका पालन करके अपना उद्धार करनेके लिये ही मिला है भोग भोगनेके लिये नहीं। इसलिये मनुष्यके सामने जो कुछ अनुकूलप्रतिकूल परिस्थिति आती है वह सब साधनसामग्री है भोगसामग्री नहीं। जो उसको भोगसामग्री मान लेते हैं उनकी परमात्मामें व्यवसायात्मिका बुद्धि नहीं होती। वास्तवमें सांसारिक पदार्थ परमात्माकी तरफ चलनेमें बाधा नहीं देते प्रत्युत वर्तमानमें जो भोगोंका महत्व अन्तःकरणमें बैठा हुआ है वही बाधा देता है। भोग उतना नहीं अटकाते जितना भोगोंका महत्व अटकाता है। अटकानेमें अपनी रुचि नीयतकी प्रधानता है। भोग और संग्रहकी रुचिको रखते हुए कोई परमात्माको प्राप्त करना चाहे तो परमात्माकी प्राप्ति तो दूर रही उनकी प्राप्तिका एक निश्चय भी नहीं हो सकता। कारण कि जहाँ परमात्माकी तरफ चलनेकी रुचि है वहीं भोगोंकी रुचि भी है। जबतक भोग और संग्रहमें मानबड़ाईआराममें रुचि है तबतक कोई भी एक निश्चय करके परमात्मामें नहीं लग सकता क्योंकि उसका अन्तःकरण भोगोंकी रुचिद्वारा हर लिया गया उसकी जो शक्ति थी वह भोग और संग्रहमें लग गयी। सम्बन्ध-- किसी बातको पुष्ट करना हो तो पहले उसके दोनों पक्ष सामने रखकर फिर उसको पुष्ट किया जाता है। यहाँ भगवान् निष्कामभावको पुष्ट करना चाहते हैं अतः पीछेके तीन श्लोकोंमें सकामभाववालोंका वर्णन करके अब आगेके श्लोकमें निष्काम होनेकी प्रेरणा करते हैं।
।।2.44।। महर्षि व्यास ऐसे पहले साहसी क्रान्तिकारी थे जिन्होंने अपने काल में अत्यन्त शोचनीय पतन की स्थिति से हिन्दू संस्कृति का पुनरुत्थान किया। क्रान्ति का वह ग्रन्थ गीता है जिसकी रचना उन्होंने की। अपने काल की स्थितियों की उनके द्वारा की गयी तीव्र आलोचना भगवान् के इन शब्दों से स्पष्ट होती है जहां श्रीकृष्ण वेदों के कर्मकाण्ड को पुष्पिता वाणी कहते हैं। कर्मकाण्ड की तीव्र आलोचना करने में व्यास जी के साहस को समझने के लिये हमें उस काल के पुरोगामी पारम्परिक वातावरण की कल्पना करनी होगी हमें मानसिक रूप से उस काल में रहना होगा।वेदों का कर्मकाण्ड उन लोगों के लिए है जो विषयोपभोग और ऐश्वर्य में अत्यन्त आसक्त हैं कर्मफल पाने की इच्छा और चिन्ता के कारण जिनकी सदसद् विवेक की क्षमता खो गयी है। सर्वोच्च साध्य को भूलकर साधनभूत कर्मों में ही वे लिप्त रहते हैं।वेदोक्त कर्मों को अत्यन्त परिश्रमपूर्वक करना पड़ता है तब मृत्यु के पश्चात् स्वर्ग के रूप में उनका फल प्राप्त होता है जहाँ अलौकिक विषयों का उपभोग किया जा सकता है। इन सब प्रयत्नों में कामनाओं और चिन्ताओं आदि के कारण व्यक्तित्व के विकास के लिये अवसर नहीं मिलता इसलिये व्यास जी का विचार है कि अध्यात्म की दृष्टि से ये सकाम कर्म निरर्थक हैं। कर्मकाण्ड में आसक्त पुरुष जीवन के परम साध्य को भूलकर साधन में ही फंसा रह जाता है।अनन्तस्वरूप परम सत्य के प्रतिपादक के रूप में श्रीकृष्ण उन लोगों की हँसी उड़ाते हैं जो साधन को ही साध्य मानने की त्रुटि करते हैं। कर्मकाण्ड में ही उपदिष्ट केवल कर्तव्य कर्म के पालन से चित्त शुद्धि एवं एकाग्रता प्राप्त होती है और इस प्रकार ध्यान का अभ्यास करने की योग्यता पाकर उपनिषदों में निरूपित निदिध्यासन के द्वारा आत्मा का अपरोक्ष अनुभव प्राप्त होता है जो जीवन का वास्तविक साध्य है। कर्म में ही रत पुरुषों को जीवन में कभी शान्ति नहीं मिलती।अविवेकी कामी पुरुषों को क्या फल मिलता है भगवान् कहते हैं
।।2.44।।ननु कर्मकाण्डनिष्ठानां कर्मानुष्ठायिनामपि बुद्धिशुद्धिद्वारेणान्तःकरणे साध्यसाधनभूतबुद्धिद्वयसमुदायसंभवादतो मोक्षो भविष्यति नेत्याह तेषां चेति। तदात्मभूतानां तयोरेव भोगैश्वर्ययोरात्मकर्तव्यत्वेनारोपितयोरभिनिविष्टे चेतसि तादात्म्याध्यासवतां बहिर्मुखानामित्यर्थः। तथापि शास्त्रानुसारिण्या विवेकप्रज्ञया व्यवसायात्मिका बुद्धिस्तेषामुदेष्यतीत्याशङ्क्याह तयेति। ननु समाधिः संप्रज्ञातासंप्रज्ञातभेदेन द्विधोच्यते तत्र बुद्धिद्वयविधिरप्रसक्तः सन्कथं निषिध्यते तत्राह समाधीयत इति।
।।2.44।।तेषां बोगैश्वर्ययोः प्रसक्तानामतिरक्तचितानां यतस्तया वाचापहृतमाच्छादितं चेतो येषां तेषां व्यवसायात्मिका सांख्ये योगे वा या बुद्धिः सा समाधौ समाधीयते पुरुषोपभोगाय सर्वमस्मिन्नन्तःकरणं तस्मिन्न विधीयते न स्थिरीभवतीत्यर्थः। ननु अहं ब्रह्मास्मीत्यवस्थानं समाधिस्तन्निमित्तमिति चित्तैकाग्र्यं परमेश्वरैकाग्र्याभिमुखत्वं तस्मिन्वेति व्याख्यानद्वयमाचारर्यैः कुतो न प्रदर्शितमितिचेत् अहं ब्रह्मास्मीत्यवस्थानस्य परमेश्वरैकाग्र्याभिमुखत्वस्य च व्यवसायात्मिकसांख्ययोगबुद्धावन्तर्भावमभिप्रेत्येति गृहाण।
।।2.44।।तेषां सम्यण्युक्तिनिर्णयात्मिका बुद्धिः समाधौ समाध्यर्थे न विधीयते। सम्यङ्निर्णीतार्थानामीश्वरे मनस्समाधानं सम्यग्भवति। तद्धि मोक्षसाधनम्। उक्तं चैतदन्यत्र न तस्य तत्त्वग्रहणाय साक्षाद्वरीयसीरपि वाचः समासन्। स्वप्ने निरुक्त्या गृहमेधिसौख्यं न यस्य हेयानुमितं स्वयं स्यात् भाग.5।11।3।
।।2.44।। भोगेति। तया पुष्पितया वाचा अपहृतचेतसां पुंसां बुद्धिः समाधौ समाध्यनुष्ठानकाले व्यवसायात्मिका व्यवसायो ज्ञानं तदात्मिका शुद्धचिन्मात्राकारा न विधीयते न भवति। कर्मकर्तरि लकारः। विरक्तस्य हि बुद्धिः समाधौ चिन्मात्राकारा भवति न तु भोगाद्यासक्तस्येति स्पष्टमेव। भाष्ये तु समाधौ अन्तःकरणे व्यवसायात्मिका बुद्धिर्न भवतीति व्याख्यातम्। यद्वा समाध्यनुष्ठानार्थमेव निश्चयात्मिका तेषां बुद्धिर्न भवतीति व्याख्येयम्।
।।2.44।।तेषां भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तया वाचा भोगैश्वर्यविषयया अपहृता त्मज्ञानानां यथोदिता व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ मनसि न विधीयते न उत्पद्यते। समाधीयते अस्मिन् आत्मज्ञानम् इति समाधिः मनः। तेषां मनसि आत्मयाथात्म्यनिश्चयज्ञानपूर्वकमोक्षसाधनभूतकर्मविषया बुद्धिः कदाचिद् अपि न उत्पद्यते इत्यर्थः। अतः काम्येषु कर्मसु मुमुक्षुणा न सङ्गः कर्तव्यः।एवम् अत्यन्ताल्पफलानि पुनर्जन्मप्रसवानि कर्माणि मातापितृसहस्रेभ्यः अपि वत्सलतरतया आत्मोपजीवने प्रवृत्ता वेदाः किमर्थं वदन्ति कथं वा वेदोदितानि त्याज्यतया उच्यन्ते इति अत्र आह
।।2.44।।ततश्च भोगैश्वर्यप्रसक्तानामिति। भोगैश्वर्ययोः प्रसक्तानामभिनिविष्टानाम्। तया पुष्पितया वाचापहृतमाकृष्टं चेतो येषां तेषां समाधिः चित्तैकाग्र्यं पमेश्वरैकाग्र्याभिमुखत्वं तस्मिन्निश्चयात्मिका बुद्धिर्न विधीयते। कर्मकर्तरिप्रयोगः। नोत्पद्यत इत्यर्थः।
।।2.43 2.45।।तथाच यामिमामित्यादि। ये कामाभिलाषिणः ते स्वयमेतां वाचं वेदात्मिकां पुष्पितां भविष्यत्स्वर्गफलेन ( N omit भविष्यत् S reads भविष्यता) व्याप्तां वदन्ति। अत एव जन्मनः कर्मैव फलमिच्छन्ति ते अविपश्चितः। ते च तयैव स्वयं कल्पितया वेदवाचा अपहृतचित्ताः व्यवसायबुद्धियुक्ता अपि न समाधियोग्याः तत्र फलनिश्चयत्वात्। इति श्लोकत्रयस्य तात्पर्यम्।
।।2.44।।तयाऽपहृतेत्यादेरप्रतीतिनिरासायार्थमाह तेषा मिति। तेषां बुद्धिर्मनोवृत्तिर्व्यवसायात्मिका सम्यग्युक्तिनिर्णयात्मिका न भवति। तत एवेश्वरे सम्यक्समाधानार्थं न विधीयत इत्यर्थः। सम्यग्युक्तिनिर्णयात्मकत्वाभावे कुतः समाध्यभावः इत्यत आह सम्यगि ति। अनेन समाधिशब्दार्थोऽपि विवृतो भवति। किमीश्वरे मनस्समाधानेन येन तदभावे निन्दा स्यात् इत्यत आह तद्धी ति। मोक्षाभावश्च महानिन्देति। वक्ष्यति। सम्यङ्निर्णीतार्थानामित्युक्तम्। न केवलमानुभाविकं किन्तु पुराणेप्युक्तमित्याह उक्तं चे ति। वरीयसीः वरीयस्यः।सुपां सुलुक् अष्टा.7।1।39 इत्यादिना जसः पूर्वसवर्णः। वाचो वेदवाचः। स्वप्ने निरुक्त्या स्वप्नप्रतीतार्थदृष्टान्तेन हेयानुमितं हेयत्वेनानुमितम्। इदमेव हि सम्यङ्निर्णीतार्थत्वम्। यद्धेयोपादेयविवेकेन हेयहानमुपादेयोपादानं च तद्धि मोक्षसाधनमित्येतत्तु श्रुत्यादिप्रसिद्धमेव।
।।2.42 2.44।।अव्यवसायिनामपि व्यवसायात्मिका बुद्धिः कुतो न भवति प्रमाणस्य तुल्यत्वादित्याशङ्क्य प्रतिबन्धकसद्भावान्न भवतीत्याह त्रिभिः यामिमां वाचं प्रवदन्ति तया वाचापहृतचेतसामविपश्चितां व्यवसायात्मिका बुद्धिर्न भवतीत्यन्वयः। इमामध्ययनविध्युपात्तत्वेन प्रसिद्धां पुष्पितां पुष्पितपलाशवदापातरमणीयांसाध्यसाधनसंबन्धप्रतिभानान्निरतिशयफलाभावाच्च। कुतो निरतिशयफलत्वाभावस्तत्राह जन्मकर्मफलप्रदां जन्म चापूर्वशरीरेन्द्रियादिसंबन्धलक्षणं तदधीनं च कर्म तत्तद्वर्णाश्रमाभिमाननिमित्तं तदधीनं च फलं पुत्रपशुस्वर्गादिलक्षणं विनश्वरं तानि प्रकर्षेण घटीयन्त्रवदविच्छेदेन ददातीति तथा ताम्। कुतएवमत आह भोगैश्वर्यगतिं प्रति क्रियाविशेषबहुलां अमृतपानोर्वशीविहारपारिजातपरिमलादिनिबन्धनो यो भोगस्तत्कारणं च यदैश्वर्यं देवादिस्वामित्वं तयोर्गतिं प्राप्तिं प्रति साधनभूता ये क्रियाविशेषा अग्निहोत्रदर्शपूर्णमासज्योतिष्टोमादयस्तैर्बहुलां विस्तृताम्। अतिबाहुल्येन भोगैश्वर्यसाधनक्रियाकलापप्रतिपादिकामिति यावत्। कर्मकाण्डस्य हि ज्ञानकाण्डापेक्षया सर्वत्रातिविस्तृतत्वं प्रसिद्धम्। एतादृशीं कर्मकाण्डलक्षणां वाचं प्रवदन्ति प्रकृष्टां परमार्थस्वर्गादिफलामभ्युपगच्छन्ति। के। येऽविपश्चितो विचारजन्यतात्पर्यपरिज्ञानशून्याः। अतएव वेदवादरताः वेदे ये सन्ति वादा अर्थवादाःअक्षय्यं ह वै चातुर्मास्ययाजिनः सुकृतं भवति इत्येवमादयस्तेष्वेव रता वेदार्थसत्यत्वेनैवमेवैतदिति मिथ्याविश्वासेन संतुष्टाः। हे पार्थ अतएव नान्यदस्तीतिवादिनः कर्मकाण्डापेक्षया नास्त्यन्यज्ज्ञानकाण्डं सर्वस्यापि वेदस्य कार्यपरत्वात् कर्मफलापेक्षया च नास्त्यन्यन्निरतिशयं ज्ञानफलमिति वदनशीलाः। महता प्रबन्धेन ज्ञानकाण्डविरुद्धार्थभाषिण इत्यर्थः। कुतो मोक्षद्वेषिणस्ते। यतः कामात्मानः काम्यमानविषयशताकुलचित्तत्वेन काममयाः। एवंसति मोक्षमपि कुतो न कामयन्ते। यतः स्वर्गपराः स्वर्ग एवोर्वश्याद्युपेतत्वेन पर उत्कृष्टो येषां ते तथा। स्वर्गातिरिक्तः पुरुषार्थो नास्तीति भ्राम्यन्तो विवेकवैराग्याभावान्मोक्षकथामपि सोढुमक्षमा इति यावत्। तेषां च पूर्वोक्तभोगैश्वर्ययोः प्रसक्तानां क्षयित्वादिदोषादर्शनेन निविष्टान्तःकरणानां तया क्रियाविशेषबहुलया वाचापहृतमाच्छादितं चेतो विवेकज्ञानं येषां तथाभूतानामर्थवादाः स्तुत्यर्थास्तात्पर्यविषये प्रमाणान्तराबाधिते वेदस्य प्रामाण्यमिति सुप्रसिद्धमपि ज्ञातुमशक्तानां समाधावन्तःकरणे व्यवसायात्मिका बुद्धिर्न विधीयते। न भवतीत्यर्थः। समाधिविषया व्यवसायात्मिका बुद्धिस्तेषां न भवतीति वा। अधिकरणे विषये वा सप्तम्यास्तुल्यत्वात्। विधीयत इति कर्मकर्तरि लकारः। समाधीयतेऽस्मिन्सर्वमिति व्युत्पत्त्या समाधिरन्तःकरणं वा परमात्मा वेति नाप्रसिद्धार्थकल्पनम्। अहं ब्रह्मेत्यवस्थानं समाधिस्तन्निमित्तं व्यवसायात्मिका बुद्धिर्नोत्पद्यत इति व्याख्याने तु रूढिरेवादृता। अयंभावःयद्यति काम्यान्यग्निहोत्रादीनि शुद्ध्यर्थेभ्यो न विशिष्यन्ते तथापि फलाभिसंधिदोषान्नाशयशुद्धिं संपादयन्ति। भोगानुगुणा तु शुद्धिर्न ज्ञानोपयोगिनी। एतदेव दर्शयितुं भोगैश्वर्यप्रसक्तानामिति पुनरुपात्तम्। फलाभिसन्धिभन्तरेण तु कृतानि कर्माणि ज्ञानोपयोगिनीं शुद्धिमादधतीति सिद्धं विपश्चिदविपश्चितोः फलवैलक्षण्यम्। विस्तरेण चैतदग्रे प्रतिपादयिष्यते।
।।2.44।।ततो भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तेषां तया वाचा अपहृतचित्तानां समाधौ वैयग्र्यभावेन भगवच्चिन्तने तथा बुद्धिर्न भवतीत्यर्थः।
।।2.44।। भोगैश्वर्यप्रसक्तानां भोगः कर्तव्यः ऐश्वर्यं च इति भोगैश्वर्ययोरेव प्रणयवतां तदात्मभूतानाम्। तया क्रियाविशेषबहुलया वाचा अपहृतचेतसाम् आच्छादितविवेकप्रज्ञानां व्यवसायात्मिका सांख्ये योगे वा बुद्धिः समाधौ समाधीयते अस्मिन् पुरुषोपभोगाय सर्वमिति समाधिः अन्तःकरणं बुद्धिः तस्मिन् समाधौ न विधीयते न भवति इत्यर्थः।।ये एवं विवेकबुद्धिरहिताः तेषां कामात्मनां यत् फलं तदाह
।।2.44।।तथाभूतानां तेषां तया वाचाऽपहृतचेतसां काम्यकर्मपराणां व्यवसायात्मिकैका बुद्धिः समाधिविषयिणी न विधीयते। विशेषेण न स्थाप्यते इति वा। तेषां समाधौ हृदीति।