त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन। निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्।।2.45।।
trai-guṇya-viṣhayā vedā nistrai-guṇyo bhavārjuna nirdvandvo nitya-sattva-stho niryoga-kṣhema ātmavān
The Vedas deal with the three attributes; be thou above these three attributes. O Arjuna, free yourself from the pairs of opposites and ever remain in the quality of Sattva, freed from acquisition and preservation, and be established in the Self.
2.45 त्रैगुण्यविषयाः deal with the three attributes? वेदाः the Vedas? निस्त्रैगुण्यः without these three attributes? भव be? अर्जुन O Arjuna निर्द्वन्द्वः free from the pairs of opposites? नित्यसत्त्वस्थः ever remaining in the Sattva (goodness)? निर्योगक्षेमः free from (the thought of) acisition and preservation? आत्मवान् established in the Self.Commentary Guna means attribute or ality. It is substance as well as ality. Nature (Prakriti) is made up of three Gunas? viz.? Sattva (purity? light or harmony)? Rajas (passion or motion) and Tamas (darkness or inertia). The pairs of opposites are heat and cold? pleasure and pain? gain and loss? victory and defeat? honour and dishonour? praise and censure. He who is anxious about new acuqisitions or about the preservation of his old possessions cannot have peace of mind. He is ever restless. He cannot concentrate or meditate on the Self. He cannot practise virtue. Therefore? Lord Krishna advises Arjuna that he should be free from the thought of acisition and preservation of things. (Cf.IX.20?21).
2.45।। व्याख्या-- 'त्रैगुण्यविषया वेदाः'-- यहाँ वेदोंसे तात्पर्य वेदोंके उस अंशसे है, जिसमें तीनों गुणोंका और तीनों गुणोँके कार्य स्वर्गादि भोग-भूमियोंका वर्णन है। यहाँ उपर्युक्त पदोंका तात्पर्य वेदोंकी निन्दामें नहीं है, प्रत्युत निष्कामभावकी महिमामें है। जैसे हीरेके वर्णनके साथ-साथ काँचका वर्णन किया जाय तो उसका तात्पर्य काँचकी निन्दा करनेमें नहीं है, प्रत्युत हीरेकी महिमा बतानेमें है। ऐसे ही यहाँ निष्कामभावकी महिमा बतानेके लिये ही वेदोंके सकामभावका वर्णन आया है, निन्दाके लिये नहीं। वेद केवल तीनों गुणोंका कार्य संसारका ही वर्णन करनेवाले हैं, ऐसी बात भी नहीं है। वेदोंमें परमात्मा और उनकी प्राप्तिके साधनोंका भी वर्णन हुआ है। 'निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन'-- हे अर्जुन! तू तीनों गुणोंके कार्यरूप संसारकी इच्छाका त्याग करके असंसारी बन जा अर्थात् संसारसे ऊँचा उठ जा। 'निर्द्वन्द्वः'-- संसारसे ऊँचा उठनेके लिये राग-द्वेष आदि द्वन्द्वोंसे रहित होनेकी बड़ी भारी आवश्यकता है; क्योंकि ये ही वास्तवमें मनुष्यके शत्रु हैं अर्थात् उसको संसारमें फँसानेवाले हैं (गीता 3।34) (टिप्पणी प0 81) । इसलिये तू सम्पूर्ण द्वन्द्वोंसे रहित हो जा।
।।2.45।। विभिन्न अनुपातों में सत्त्व रज और तम इन तीन गुणों के संयोग से प्राणियों का निर्माण हुआ है। अन्तकरण (मन और बुद्धि) इन तीन गुणों का ही कार्य है। तीन गुणों के परे जाने का अर्थ है मन के परे जाना। तांबा जस्ता और टिन से निर्मित किसी मिश्र धातु का पात्र बना हो और यदि उसमें से इन तीनों धातुओं को विलग करने के लिये कहा जाय तो उसका अर्थ उस पात्र को ही नष्ट करना होगा। उपनिषद् साधक को मन के परे जाने का उपदेश देते हैं जिससे साधक को आत्मस्वरूप से ईश्वर का परिचय होगा। उपनिषदों के इस स्पष्ट उपदेश को यथार्थ में नहीं समझने के कारण अनेक हिन्दू लोग अपने धर्म से अलग हो गये और इसलिये गीता में पुनर्जागरण का आवाहन किया गया। औपनिषदिक अर्थ को ही यहां दूसरे शब्दों में कहा अर्जुन तुम त्रिगुणातीत बनो।यदि कोई चिकित्सक किसी रोगी के लिये ऐसी औषधि लिख देता है जो विश्व में कहीं भी उपलब्ध न हो तो उस चिकित्सक का लिखा हुआ उपचार व्यर्थ है। इसी प्रकार आत्मसाक्षात्कार के लिये त्रिगुणों के परे जाने का उपदेश भले ही श्रेष्ठ हो परन्तु कौन सी साधना के अभ्यास से उसे सम्पादित किया जाय इसका स्पष्टीकरण यदि नहीं किया गया है तो वह उपदेश निरर्थक है। ज्ञान क्रिया और निष्क्रियता ये क्रमश सत्त्व रज और तमोगुण के लक्षण हैं।इस श्लोक की दूसरी पंक्ति में त्रिगुणों के ऊपर उठकर असीम आनन्द में स्थित होने की साधना बतायी गयी है। पूर्व उपदिष्ट समत्व भाव का ही उपदेश यहाँ दूसरे शब्दों में किया गया है।परस्पर भिन्न एवं विपरीत लक्षणों वाले सुखदुख शीतउष्ण लाभहानि इत्यादि जीवन के द्वन्द्वात्मक अनुभव हैं। इन सब में समभाव में रहने का अर्थ ही निर्द्वन्द्व होना है इनसे मुक्त होना है। यही उपदेश श्रीकृष्ण अर्जुन को दे रहे हैं। नित्यसत्त्वस्थ तीनों गुणों में सत्व गुण सूक्ष्मतम एवं स्वभाव से शुद्ध है तथापि शोकात्मक रजोगुण और मोहात्मक तमोगुण के सम्बन्ध से उसमें अशुद्धि भी आ जाती है। मोह का अर्थ है वस्तु को यथार्थ रूप में न पहचानना (आवरण)। जिसके कारण वस्तु का अनुभव किसी अन्य रूप मे ही होता है जिसे विक्षेप कहते हैं और जिसका परिणाम हैशोक। अत सत्वगुण में स्थित होने का अर्थ विवेकजनित शान्ति में स्थित होना है। सत्त्वस्थ बनने के लिए सतत् सजग प्रयत्न की अपेक्षा है। निर्योगक्षेमयहाँ योग का अर्थ है अप्राप्त वस्तु को प्राप्त करना और प्राप्त वस्तु के रक्षण का नाम हैक्षेम। मनुष्य के सभी प्रयत्न योग और क्षेम के लिये होते हैं। अत इन दो शब्दों में विश्व के सभी प्राणियों के कर्म समाविष्ट हैं। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि अहंकार और स्वार्थ से प्रेरित कर्मों का निर्देश योग और क्षेम के द्वारा किया गया है। मनुष्य की चिन्ताओं और विक्षेपों का कारण भी ये दो ही हैं। निर्योगक्षेम बनने का अर्थ है इन दोनों को त्याग देना जिससे चिन्ताओं से मुक्ति तत्काल ही मिलती हैं।निर्द्वन्द और निर्योगक्षेम बनने का उपदेश देना सरल है किन्तु साधक के लिये तत्त्वज्ञान का उपयोग तभी है जब इस ज्ञान को जीवन में उतारने की व्यावहारिक विधि का भी उपदेश दिया गया हो। इस श्लोक में ऐसी विधि का निर्देश आत्मवान भव इन शब्दों में किया गया है। द्वन्द्वों तथा योगक्षेम के कारण उत्पन्न दुख और पीड़ा केवल तभी सताते हैं जब हमारा तादात्म्य शरीर मन और बुद्धि के साथ होकर अहंकार और स्वार्थ की अधिकता होती है।इन अनात्म उपाधियों के साथ विद्यमान तादात्म्य को छोड़कर इनसे भिन्न अपने शुद्ध चैतन्य स्वरूप के प्रति सतत जागरूक रहने का अभ्यास ही आत्मवान अर्थात् आत्मस्वरूप में स्थित होने का उपाय है। इसकी सिद्धि होने पर अहंकार नष्ट हो जाता है और वह साधक त्रिगुणों के परे आत्मा में स्थित हो जाता है। ऐसे सिद्ध पुरुष को वेदों का कोई प्रयोजन नहीं रह जाता। वास्तव में ज्ञानी पुरुष के होने के कारण वेदवाक्यों का प्रामाण्य सिद्ध होता है।यदि वैदिक यज्ञों के फलों की कामना त्यागनी चाहिये तो उनका अनुष्ठान किस लिये करें इसका उत्तर है
।।2.45।।अविवेकिनामपि वेदाभ्यासवतां विवेकबुद्धिरुदेष्यतीत्याशङ्क्याह य एवमिति। तर्हि वेदार्थतया कामात्मता प्रशस्तेत्याशङ्क्याह निस्त्रैगुण्य इति। भवेति पदं निर्द्वन्द्वादिविशेषणेष्वपि प्रत्येकं संबध्यते। त्रयाणां सत्त्वादीनां गुणानां पुण्यपापव्यामिश्रकर्मतत्फलसंबन्धलक्षणः समाहारस्त्रैगुण्यमित्यङ्गीकृत्य व्याचष्टे संसार इति। वेदशब्देनात्र कर्मकाण्डमेव गृह्यते तदभ्यासवतां तदर्थानुष्ठानद्वारा संसारध्रौव्यान्न विवेकावसरोऽस्तीत्यर्थः। तर्हि संसारपरिवर्जनार्थं विवेकसिद्धये किं कर्तव्यमित्याशङ्क्याह त्वं त्विति। कथं निस्त्रैगुण्यो भवेति गुणत्रयराहित्यं विधीयते नित्यसत्त्वस्थो भवेति वाक्यशेषविरोधादित्याशङ्क्याह निष्काम इति। सप्रतिपक्षत्वं परस्परविरोधित्वं पदार्थौ शीतोष्णादिलक्षणौ। निष्कामत्वे द्वन्द्वान्निर्गतत्वं शीतोष्णादिसहिष्णुत्वं हेतुमुक्त्वा तत्रापि हेत्वपेक्षायां सदा सत्वगुणाश्रितत्वं हेतुमाह नित्येति। योगक्षेमव्यापृतचेतसो रजस्तमोभ्यामसंस्पृष्टे सत्त्वमात्रे समाश्रितत्वमशक्यमित्याशङ्क्याह तथेति। योगक्षेमयोर्जीवनहेतुतया पुरुषार्थसाधनत्वान्निर्योगक्षेमो भवेति कुतो विधिरित्याशङ्क्याह योगेति। योगक्षेमप्रधानत्वं सर्वस्य स्वारसिकमिति ततो निर्गमनमशक्यमित्याशङ्क्याह आत्मवानिति। अप्रमादो मनसो विषयपारवश्यशून्यत्वम्। अथ यथोक्तोपदेशस्य मुमुक्षुविषयत्वादर्जुनस्य मुमुक्षुत्वमिह विवक्षितमिति नेत्याह एष इति।
।।2.45।।वेदवादरतानां वेदोक्तत्रिगुणात्मकसंसार एव फलमित्याशयेनाह त्रैगुण्येति। त्रैगुण्यं संसारो विषयः प्रतिपाद्यो येषां कर्मकाण्डपराणां वेदानां तर्हि मया कथं भाव्यमित्याकाङ्क्षयामाह निस्त्रैगुण्य इति। निस्त्रैगुण्यो निष्कामो भव। हे अर्जुनेति संबोधयन्स्वनाम सार्थक कर्तुमर्हसीति ध्वनयति। निस्त्रैगुण्यभवने उपायमाह निर्द्वन्द्व इति। सुखदुःखहेतु प्रतिपक्षपदार्थो द्वन्द्वशब्दावाच्यौ तस्माद्रहितो भव। तत्रोपायमाह नित्येति। नित्यं सत्त्वे स्थितो भव। तत्राप्युपायमाह निर्योगेति। अनुपात्तस्योपादानं योगः उपात्तस्य रक्षणं क्षेमः ताभ्यां निर्गतः रजोगुणरहितो भव। आत्मवानप्रमत्तः। तमोगुणाद्विनिर्गतो भवेत्यर्थः।
।।2.45।।तां योगबुद्धिमाह त्रैगुण्यविषया इत्यादिना। इतरदपोद्य वेदानां परोक्षार्थत्वात्ित्रगुणसम्बन्धिस्वर्गादिप्रतीतितोऽर्थ इव भाति।परोक्षवादो वेदोऽयं इति ह्युक्तम्। अतः प्रातीतिकेऽर्थे भ्रान्तिं मा कुर्वित्यर्थः।वादो विषयकत्वं च मुखतोवचनं स्मृतम् इत्यभिधानात्। न तु वेदपक्षो निषिध्यते।वेदे रामायणे चैव पुराणे भारते तथा। आदावन्ते च मध्ये च विष्णुः सर्वत्र गीयते। सर्वे वेदा यत्पदम् कठो.2।15वेदोऽखिलो धर्ममूलं स्मृतिशीले च तद्विदाम्। आचारश्चैव साधूनामात्मनो रुचि(नस्तुष्टि) रेव च मनुः2।16वेदप्रणिहितो धर्मो ह्यधर्मस्तद्विपर्ययः। भाग.6।1।40 इति वेदानां सर्वात्मना विष्णुपरत्वोक्तेस्तद्विहितस्य तद्विरुद्धस्य च धर्माधर्मोक्तेश्च।
।।2.45।।कस्य तर्हि समाधौ बुद्धिर्भवतीत्यत आह त्रैगुण्येति। त्रैगुण्यं गुणत्रयकार्यमूर्ध्वमध्याधोगतिरूपं संसरणं तदेव प्रकाश्यत्वेन विषयो येषां तादृशाः कर्मकाण्डपरा वेदाः। त्वं तु निस्त्रैगुण्यो भव। ऊर्ध्वगतावपि विरक्तो भवेत्यर्थः। वक्ष्यति च तत्तद्गुणप्रधानं गतित्रयंऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्वस्था इति। दिव्येभ्योऽपि विषयेभ्यो विरक्तः समाधावधिक्रियत इति भावः। किं लक्षणोऽसौ निस्त्रैगुण्य इत्यत आह निर्द्वन्द्व इति। सुखदुःखे मानापमानौ शत्रुमित्रे शीतोष्णे इत्यादीनि द्वन्द्वानि सप्रतिपक्षपदार्थरूपाणि तेभ्यो निर्गतो निर्द्वन्द्वः। सर्वत्र समबुद्धिरित्यर्थः। ननु बाधमानमुष्णादिकं कथं शीतादिवत्क्षन्तुं शक्यमत आह नित्यसत्त्वस्थ इति। नित्यं सर्वदा सत्त्वं धैर्यं सत्वगुणो वा तदाश्रितो भूत्वा। धीरो हि सर्वं सोढुं शक्तः सात्विको वा प्रारब्धकर्मोपस्थापितमिदं दुःखमपरिहार्यं किमु तप्ततयेति जानन् सर्वं सोढुं शक्नोत्येव। नन्वत्यन्तदुःसहं क्षुधादिदुःखं कथं निस्त्रैगुण्येन सर्वथा प्रवृत्तिशून्येन सोढुं शक्यमत आह निर्योगक्षेम इति। अप्राप्तस्य प्राप्तिर्योगः। प्राप्तस्य संरक्षणं क्षेमः। एतद्वयमपि प्रारब्धकर्माधीनमिति ततोऽपि निर्गत इत्यर्थः। तत्र हेतुः यत आत्मवाञ्जितचित्तः। सहि सर्वास्वप्यापत्स्वनाकुलो नित्यतृप्ततया निरुद्यमश्च भवतीति त्वमप्येतादृशो निस्त्रैगुण्यो भवेत्यर्थः।
।।2.45।।त्रयो गुणाः त्रैगुण्यं सत्त्वरजस्तमांसि सत्त्वरजस्तमःप्रचुराः पुरुषाः त्रैगुण्यशब्देन उच्यन्ते। तद्विषया वेदाः तमःप्रचुराणां रजःप्रचुराणां सत्त्वप्रचुराणां च वत्सलतरतया एव हितम् अवबोधयन्ति वेदाः।यदि एषां स्वगुणानुगुण्येन स्वर्गादिसाधनम् एव हितं न अवबोधयन्ति तदा एव ते रजस्तमःप्रचुरतया सात्त्विकफलमोक्षविमुखाः स्वापेक्षितफलसाधनम् अजानन्तः कामप्रावण्यविवशा अनुपायेषु उपायभ्रान्त्या प्रविष्टाः प्रणष्टा भवेयुः। अतः त्रैगुण्यविषया वेदाः त्वं तु निस्त्रैगुण्यो भव इदानीं सत्त्वप्रचुरः त्वं तदेव वर्धय नान्योन्यसंकीर्णगुणत्रयप्रचुरो भव। न तत्प्राचुर्यं वर्धय इत्यर्थः निर्द्वन्द्वः निर्गतसकलसांसारिकस्वभावः। नित्यसत्त्वस्थः गुणद्वयरहितनित्यप्रवृद्धसत्त्वस्थो भव।कथम् इति चेत् निर्योगक्षेमः आत्मस्वरूपतत्प्राप्त्युपायबहिर्भूतानाम् अर्थानां योगं प्राप्तानां च क्षेमं परिपालनं परित्यज्य आत्मवान् भव आत्मस्वरूपान्वेषणपरो भव। अप्राप्तस्य प्राप्तिः योगः प्राप्तस्य परिरक्षणं क्षेमः। एवं वर्तमानस्य ते रजस्तमः प्रचुरता नश्यति सत्त्वं च वर्धते।न च वेदोदितं सर्वं सर्वस्य उपादेयम्
।।2.45।।ननु च यदि स्वर्गादिकं परमं फलं न भवति तर्हि किमिति वेदैस्तत्साधनतया कर्माणि विधीयन्ते तत्राह त्रैगुण्यविषया इति। त्रिगुणात्मकाः सकामा येऽधिकारिणस्तद्विषयास्तेषां कर्मफलसंबन्धप्रतिपादका वेदाः। त्वं तु निस्त्रैगुण्यो निष्कामो भव। तत्रोपायमाह। निर्द्वन्द्वः सुखदुःखशीतोष्णादियुगुलानि द्वन्द्वानि तद्रहितो भव। तानि सहस्वेत्यर्थः। कथमित्यत्राह। नित्यसत्त्वस्थः सन्। धैर्यमवलम्ब्येत्यर्थः। तथा निर्योगक्षेमः। अप्राप्तस्वीकारो योगः प्राप्तपरिपालनं क्षेमं तद्रहितः। आत्मवानप्रमत्तः। नहि द्वन्द्वाकुलस्य योगक्षेमव्यापृतस्य च प्रमादिनस्त्रैगुण्यातिक्रमः संभवतीति।
।।2.43 2.45।।तथाच यामिमामित्यादि। ये कामाभिलाषिणः ते स्वयमेतां वाचं वेदात्मिकां पुष्पितां भविष्यत्स्वर्गफलेन ( N omit भविष्यत् S reads भविष्यता) व्याप्तां वदन्ति। अत एव जन्मनः कर्मैव फलमिच्छन्ति ते अविपश्चितः। ते च तयैव स्वयं कल्पितया वेदवाचा अपहृतचित्ताः व्यवसायबुद्धियुक्ता अपि न समाधियोग्याः तत्र फलनिश्चयत्वात्। इति श्लोकत्रयस्य तात्पर्यम्।
।।2.45।।यथैषा चतुश्श्लोकी न प्रतिज्ञातं योगमाह तथात्रैगुण्य इत्येतदपीतिप्रतीतिनिरासायाह तामि ति प्रतिज्ञाताम्। आदिग्रहणेनाषष्ठसमाप्तेरिति सूचयति। सप्तमोपक्रमे पुनः प्रतिज्ञानात्। तर्हि प्रतिज्ञानन्तरमेव कुतो नावोचदिति मन्दाशङ्कानिरासायोक्तं इतर दिति। स्वोक्तौ निष्ठाभावे कारणमेवमपोद्येदानीं प्रतिज्ञातमाह। अन्यथा तत्प्रबन्धेनास्यानवसरादिति भावः। अथवा वक्ष्यमाणानां वाक्यानां द्वेधावृत्तिमनेनाचष्टे। कैश्चिद्वाक्यैरितरद्योगविरुद्धमपोद्य कैश्चिद्योगमाहेति। यद्वाबहूनि मे व्यतीतानि 4।5 इत्यादि प्रासङ्गिकं विहायान्यद्योगविषयं ज्ञातव्यमित्यर्थः। तथा च वक्ष्यतिसाधनं प्राधान्येनोक्तम् इति। वेदास्त्रैगुण्यविषयाः त्वं तुनिस्त्रैगुण्यो भव इत्यनेन वेदपरित्यागो विधीयते इत्यन्यथाप्रतीतिनिरासाय व्याचष्टे वेदानामि ति। त्रिगुणसम्बन्धीत्यनेन तस्थेदमित्यर्थे तद्धितोऽयम्। विचित्रा हि तद्धितगतिरिति वचनादिति सूचयति। सम्बन्धि कार्यम्। प्रतीतितः आपाततः प्रतीतितः। अर्थः प्रतिपाद्यं प्रयोजनं च। वेदानां परोक्षार्थत्वं कुतः इत्यत आह परोक्षे ति। यत एवं भवति अतः प्राप्तिसद्भावात्प्रसक्तां भ्रान्तिं माकार्षीः। कथमेतदनेन लभ्यते इत्यत आह वाद इति। वेदवादरता इत्यत्राप्येतदेव चाभिधानम्। प्रतीत एवार्थोऽस्तु इत्यत आह नत्वि ति। पक्षः परमसिद्धान्तः। उत्तानार्थो वेदो निषिध्यत एव। योगविरोधित्वादित्यतः पक्ष इत्युक्तम्। कुत इत्यत आह वेद इति। धर्ममूलं धर्मज्ञप्तेः कारणम्। तद्विदां वेदविदां मन्वादीनां स्मृतिर्ग्रन्थः शीलं मनोगतिः आचारो धर्मबुद्ध्यानुष्ठानम् आत्मनो मनसो रुचिः। विकल्पविषये प्रणिहितो विहितः। तद्विपर्ययः प्रतिषिद्धः विवक्षितयोगविरोधे हि वेदे सिद्धान्तो निषेध्यः स्यात्। नचैवं प्रत्युत तदनुगुण एवेति भावः। धर्मशब्दोऽत्र निवृत्तिधर्मपरः।
।।2.45।।ननु सकामानां माभूदाशयदोषाद्व्यवसायात्मिका बुद्धिः निष्कामानां तु व्यवसायात्मकबुद्ध्या कर्म कुर्वतां कर्मस्वाभाव्यात्स्वर्गादिफलप्राप्तौ ज्ञानप्रतिबन्धः समान इत्याशङ्क्याह त्रयाणां गुणानां कर्म त्रैगुण्यं काममूलः संसारः स एव प्रकाश्यत्वेन विषयो येषां तादृशा वेदाः कर्मकाण्डात्मकाः यो यत्फलकामस्तस्यैव तत्फलं बोधयन्तीत्यर्थः। नहि सर्वेभ्यः कोमेभ्यो दर्शपूर्णमासाविति विनियोगेऽपि सकृदनुष्ठानात्सर्वफलप्राप्तिर्भवति तत्तत्कामनाविरहात् यत्फलकामनयानुतिष्ठिति तदेव फलं तस्मिन्प्रयोग इति स्थितं योगसिद्ध्यधिकरणे। यस्मादेवं कामनाविरहे फलविरहः तस्मात्त्वं निस्त्रैगुण्यो निष्कामो भव हे अर्जुन। एतेन कर्मस्वाभाव्यात्संसारो निरस्तः। ननु शीतोष्णादिद्वन्द्वप्रतीकाराय वस्त्राद्यपेक्षणात्कुतो निष्कामत्वमत आह निर्द्वन्द्वः। सर्वत्र भवेति संबध्यते। मात्रास्पर्शास्त्वित्युक्तन्यायेन शीतोष्णादिद्वन्द्वसहिष्णुर्भव। असह्यं दुःखं कथं वा सोढव्यमित्यपेक्षायामाह नित्यसत्त्वस्थः नित्यमचञ्चलं यत्सत्त्वं धैर्यापरर्यायं तस्मिंस्तिष्ठतीति तथा। रजस्तमोभ्यामभिभूतसत्त्वो हि शोतोष्णादिपीडया मरिष्यामीति मन्वानो धर्माद्विमुखो भवति त्वं तु रजस्तमसी अभिभूय सत्त्वमात्रालम्बनो भव। ननु शीतोष्णादिसहनेऽपि क्षुत्पिपासादिप्रतीकारार्थं किंचिदनुपात्तमुपादेयमुपात्तं च रक्षणीयमिति तदर्थं यत्ने क्रियमाणे कुतः सत्त्वस्थत्वमित्यत आह निर्योगक्षेमः। अलब्धलाभो योगः लब्धपरिरक्षणं क्षेमस्तद्रहितो भव। चित्तविक्षेपकारिपरिग्रहरहितो भवेत्यर्थः। नचैवं चिन्ता कर्तव्या कथमेवं सति जीविष्यामिति। यतः सर्वान्तर्यामी परमेश्वर एव तव योगक्षेमादि निर्वाहयिष्यतीत्याह आत्मवान् आत्मा परमात्मा ध्येयत्वेन योगक्षेमादिनिर्वाहकत्वेन च वर्तते यस्य स आत्मवान्। सर्वकामनापरित्यागेन परमेश्वरमाराधयतो मम सएव देहयात्रामात्रमपेक्षितं संपादयिष्यतीति निश्चित्य निश्चिन्तो भवेत्यर्थः। आत्मवानप्रमत्तो भवेति वा।
।।2.45।।ननु ते त्वज्ञाः वेदोक्तविषये प्रवर्तन्ते परं स्वर्गादीनां फलाभावे वेदः कथं बोधयति इत्याशङ्क्याह त्रैगुण्यविषया वेदा इति। त्रैगुण्याः त्रिगुणसृष्टौ सृष्टा ये जीवास्तद्विषयास्तदर्थं स्वर्गादिफलककर्मबोधका वेदाः। न तु गुणातीतसाक्षाद्भगवत्क्रीडौपयिकभगवदीयसृष्ट्यन्तर्गतभगवद्भक्तविषया इत्यर्थः। भगवल्लीलासृष्टिस्तु निर्गुणा अत एवअन्यैव काचित्सा सृष्टिर्विधातुर्व्यतिरेकिणी इत्यादि श्रीवराहवचनम्। गुणातीतपुरुषोत्तमस्वरूपं तु वेदाद्यविषयमेव। अत एव श्रुतिराह नेति नेति बृ.उ.2।3।6 यतो वाचो निवर्त्तन्ते तै.उ.2।4।12।9।1 इत्यादि। यस्माद्वेदास्त्रिगुणविषयास्तस्मात् त्वं निस्त्रैगुण्यो भक्तो भवेत्यर्थः। निस्त्रिगुणस्य भावुको भवेति भावः। यद्वा वेदास्त्रैगुण्यविषयाः त्रिगुणात्मकस्वरूपफलप्रतिपादकाः न तु साक्षाद्भगवत्सम्बन्धप्रतिपादकाः। अतस्तथा बोधयन्तीत्यर्थः। ननु वेदास्त्रिगुणविषयाश्चेत्तदाऽस्माकमज्ञानानां का गतिरित्याशङ्क्याह निस्त्रैगुण्य इति। गुणातीतमद्धर्मैकपरो भवेति भावः। केन साधनेन तथात्वं भवेत् इत्याशङ्कायामाह निर्द्वन्द्व इति। निर्गतानि द्वन्द्वानि सुखदुःखाहम्ममेत्यादीनि तद्रहितो भव। सर्वं त्यक्त्वा भक्तिपरो भव। तथा त्वमपि कथं इत्याकाङ्क्षायामाह नित्यसत्त्वस्थ इति। नित्यं सत्त्वं यस्मात्तस्मिन् गुणातीते स्थितो भव। किञ्च निर्योगक्षेम इति। साधनासाध्यपरमाप्तवस्त्वभिलाषो योगः स्वेच्छाप्राप्तवस्तुन्याप्तज्ञानेन स्वीकारो क्षेमस्तद्रहित आत्मवान् आत्मज्ञानवान् भवेत्यर्थः।
।।2.45।। त्रैगुण्यविषयाः त्रैगुण्यं संसारो विषयः प्रकाशयितव्यः येषां ते वेदाः त्रैगुण्यविषयाः। त्वं तु निस्त्रैगुण्यो भव अर्जुन निष्कामो भव इत्यर्थः। निर्द्वन्द्वः सुखदुःखहेतू सप्रतिपक्षौ पदार्थौ द्वन्द्वशब्दवाच्यौ ततः निर्गतः निर्द्वन्द्वो भव। नित्यसत्त्वस्थः सदा सत्त्वगुणाश्रितो भव। तथा निर्योगक्षेमः अनुपात्तस्य उपादानं योगः उपात्तस्य रक्षणं क्षेमः योगक्षेमप्रधानस्य श्रेयसि प्रवृत्तिर्दुष्करा इत्यतः निर्योगक्षेमो भव। आत्मवान् अप्रमत्तश्च भव। एष तव उपदेशः स्वधर्ममनुतिष्ठतः।।सर्वेषु वेदोक्तेषु कर्मसु यान्युक्तान्यनन्तानि फलानि तानि नापेक्ष्यन्ते चेत् किमर्थं तानि ईश्वरायेत्यनुष्ठीयन्ते इत्युच्यते श्रृणु
।।2.45।।स्वयमेव वेदतात्पर्यमाह भगवान् त्रैगुण्यविषया वेदा इति। यत एवं कामात्मनां त्रैगुण्याधिकारिणां त्रैगुण्यफलविषया वेदास्त्रिकाण्डविषया अपि अतस्त्वं वेदादिमूलानिस्त्रिगुणतत्त्वाश्रितो भव। त्रिगुणमाश्रितस्त्रैगुण्यस्तद्भिन्नो निस्त्रैगुण्यः। निस्त्रिगुणं मामाश्रितो भवेति गूढाभिप्रायः। तल्लिङ्गमाह निर्द्वन्द्व इत्यादि।त्रिदुःखसहनं धैर्यं इति नित्यं सत्वे धैर्ये स्थितःसत्त्वैकमनसो वृत्तिः इति वाक्यान्नित्यसत्त्वरूपभगवन्निष्ठो भवेति गूढाभिसन्धिः। स्वबलेन कृतमप्राप्तसम्पादनं योगः। प्राप्तपरिपालनं क्षेमः। योगश्च क्षेमश्च योगक्षेमौ तद्रहित इति योगानुरोधेनोक्तम्। वस्तुतस्तु सत्त्वैकमनसो भगवदीयस्य भक्तियोगानुसारेण भगवदधीनयोगक्षेमवत्त्वं सूच्यते निर्योगक्षेमशब्देन। एवमेवाग्रे वक्ष्यति। तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् 9।22 इति। आत्मना मनो विद्यते यस्य वश इति तथा।