कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।।2.47।।
karmaṇy-evādhikāras te mā phaleṣhu kadāchana mā karma-phala-hetur bhūr mā te saṅgo ’stvakarmaṇi
Your right is only to work, but not to its results; do not let the results of action be your motive, nor let your attachment be to inaction.
2.47 कर्मणि in work? एव only? अधिकारः right? ते thy? मा not? फलेषु in the fruits? कदाचन at any time? मा not? कर्मफलहेतुः भूः let not the fruits of action be thy motive? मा not? ते thy? सङ्गः attachment? अस्तु let (there) be? अकर्मणि in inaction.Commentary When you perform actions have no desire for the fruits thereof under any circumstances. If you thirst for the fruits of your actions? you will have to take birth again and again to enjoy them. Action done with expectation of fruits (rewards) brings bondage. If you do not thirst for them? you get purification of heart and you will get knowledge of the Self through purity of heart and through the knowledge of the Self you will be freed from the round of births and deaths.Neither let thy attachment be towards inaction thinking what is the use of doing actions when I cannot get any reward for themIn a broad sense Karma means action. It also means duty which one has to perform according to his caste or station of life. According to the followers of the Karma Kanda of the Vedas (the Mimamsakas) Karma means the rituals and sacrifices prescribed in the Vedas. It has a deep meaning also. It signifies the destiny or the storehouse of tendencies of a man which give rise to his future birth.
2.47।। व्याख्या-- 'कर्मण्येवाधिकारस्ते'-- प्राप्त कर्तव्य कर्मका पालन करनेमें ही तेरा अधिकार है। इसमें तू स्वतन्त्र है। कारण कि मनुष्य कर्मयोनि है। मनुष्यके सिवाय दूसरी कोई भी योनि नया कर्म करनेके लिये नहीं है। पशु-पक्षी आदि जङ्गम और वृक्ष, लता आदि स्थावर प्राणी नया कर्म नहीं कर सकते। देवता आदिमें नया कर्म करनेकी सामर्थ्य तो है, पर वे केवल पहले किये गये यज्ञ, दान आदि शुभ कर्मोंका फल भोगनेके लिये ही हैं। वे भगवान्के विधानके अनुसार मनुष्योंके लिये कर्म करनेकी सामग्री दे सकते हैं, पर केवल सुखभोगमें ही लिप्त रहनेके कारण स्वयं नया कर्म नहीं कर सकते। नारकीय जीव भी भोगयोनि होनेके कारण अपने दुष्कर्मोंका फल भोगते हैं, नया कर्म नहीं कर सकते। नया कर्म करनेमें तो केवल-मनुष्यका ही अधिकार है। भगवान्ने सेवारूप नया कर्म करके केवल अपना उद्धार करनेके लिये यह अन्तिम मनुष्यजन्म दिया है। अगर यह कर्मोंको अपने लिये करेगा तो बन्धनमें पड़ जायगा और अगर कर्मोंको न करके आलस्य-प्रमादमें पड़ा रहेगा तो बार-बार जन्मता-मरता रहेगा। अतः भगवान् कहते हैं कि तेरा केवल सेवारूप कर्तव्य-कर्म करनेमें ही अधिकार है। 'कर्मणि' पदमें एकवचन देनेका तात्पर्य है कि मनुष्यके सामने देश, काल, घटना, परिस्थिति आदिको लेकर शास्त्रविहित कर्म तो अलग-अलग होंगे, पर एक समयमें एक मनुष्य किसी एक कर्मको ही तत्परतापूर्वक कर सकता है। जैसे, क्षत्रिय होनेके कारण अर्जुनके लिये युद्ध करना, दान देना आदि कर्तव्यकर्मोंका विधान है, पर वर्तमानमें युद्धके समय वह एक युद्धरूप कर्तव्य-कर्म ही कर सकता है, दान आदि कर्तव्य-कर्म नहीं कर सकता। 'मार्मिक बात' मनुष्यशरीरमें दो बातें हैं--पुराने कर्मोंका फलभोग और नया पुरुषार्थ। दूसरी योनियोंमें केवल पुराने कर्मोंका फलभोग है अर्थात् कीट-पतंग, पशु-पक्षी, देवता, ब्रह्म-लोकतककी योनियाँ भोग-योनियाँ हैं। इसलिये उनके लिये ऐसा करो और ऐसा मत करो'--यह विधान नहीं है। पशु-पक्षी कीट-पतंग आदि जो कुछ भी कर्म करते हैं, उनका वह कर्म भी फलभोगमें है। कारण कि उनके द्वारा किया जानेवाला कर्म उनके प्रारब्धके अनुसार पहलेसे ही रचा हुआ है। उनके जीवनमें अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितिका जो कुछ भोग होता है, वह भोग भी फलभोगमें ही है। परन्तु मनुष्यशरीर तो केवल नये पुरुषार्थके लिये ही मिला है, जिससे यह अपना उद्धार कर ले। इस मनुष्यशरीरमें दो विभाग हैं--एक तो इसके सामने पुराने कर्मोंके फलरूपमें अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति आती है; और दूसरा यह नया पुरुषार्थ (नये कर्म) करता है। नये कर्मोंके अनुसार ही इसके भविष्यका निर्माण होता है। इसलिये शास्त्र, सन्त-महापुरुषोंका विधि-निषेध, राज्य आदिका शासन केवल मनुष्योंके लिये ही होता है ;क्योंकि मनुष्यमें पुरुषार्थकी प्रघानता है, नये कर्मोंको करनेकी स्वतन्त्रता है। परन्तु पिछले कर्मोंके फलस्वरूप मिलनेवाली अनुकूल-प्रतिकूलरूप परिस्थितिको बदलनेमें यह परतन्त्र है। तात्पर्य है कि मनुष्य कर्म करनेमें स्वतन्त्र और फल-प्राप्तिमें परतन्त्र है। परन्तु अनुकूल-प्रतिकूलरूपसे प्राप्त परिस्थितिका सदुपयोग करके मनुष्य उसको अपने उद्धारकी साधन-सामग्री बना सकता है; क्योंकि यह मनुष्यशरीर अपने उद्धारके लिये ही मिला है। इसलिये इसमें नया पुरुषार्थ भी उद्धारके लिये है और पुराने कर्मोंके फल फलरूपसे प्राप्त परिस्थिति भी उद्धारके लिये ही है।
।।2.47।। वेद प्रतिपादित सिद्धान्त के अनुसार ईश्वरार्पण बुद्धि और निष्काम भाव से किये गये कर्म अन्तकरण को शुद्ध करते हैं। आत्मबोध के पूर्व चित्तशुद्धि होना अनिवार्य है। गीता में इसी सिद्धान्त की पुष्टि करते हुये विशद विवरण में वैयक्तिक और सामाजिक सभी कर्मों का समावेश कर लिया गया है जबकि वेदों में कर्म से तात्पर्य यज्ञयागादि धार्मिक विधियों से ही था।अपरिपक्व बुद्धि से तत्त्वज्ञान जैसा गम्भीर विषय समझ में नहीं आ सकता। पर्याप्त विचार किये बिना उपर्युक्त श्लोक का अर्थ असंभव ही प्रतीत होगा। अधिकसेअधिक कोई यह मान लेगा कि उस काल में दरिद्र को दरिद्र ही रखने में और धनवान को उन पर अत्याचार करने की धार्मिक अनुमति इस श्लोक में दी गयी हैं। केवल बौद्धिक विचार करने वाले व्यक्ति को फलासक्ति न रखकर कर्म करने का आदर्श अव्यावहारिक और असंभव प्रतीत होगा। परन्तु वही व्यक्ति अध्ययन के पश्चात् अपने कर्म क्षेत्र में इसका पालन करके देखे तो उसे यह ज्ञात होगा कि जीवन में वास्तविक सफलताओं को प्राप्त करने की यही एक मात्र कुंजी है।इसके पूर्व प्रेरणा का जीवन जीने की कला जो कर्मयोग के रूप में बतायी गयी थी उसी की शिक्षा यहाँ श्रीकृष्ण पुन अर्जुन को दे रहे हैं। अनुचित संकल्पविकल्प जीवन के विष हैं। जीवन में सभी असफलताओं का मूल मनस्थिरता के अभाव में निहित है जो सामान्यत भविष्य में संभाव्य हानि के भय की कल्पना मात्र का परिणाम होता है। हममें से अधिकांश लोग असफलता के भय से महान् कार्य को अपने हाथों में लेना ही स्वीकार नहीं करते और जो कोई थोड़े लोग ऐसा साहस करते भी हैं तो अल्पकाल के बाद निरुत्साहित होकर उस कार्य को अपूर्ण ही छोड़ देते हैं। इसका कारण एक ही हैमन की शक्ति का अपव्यय। इस अपव्यय के परिहार का एक मात्र उपाय है किसी श्रेष्ठ आदर्श के प्रति सब कर्मों का समर्पण। प्रेरणायुक्त इन कर्मों की परिसमाप्ति गौरवमयी सफलता मेंं ही होती है। यह कर्म का सनातन नियम है।भविष्य का निर्माण सदैव वर्तमान में होता है। आगामी कल की फसल आज के जोतने और बीज बोने पर निर्भर है। किन्तु भविष्य में सम्भावित फसल की हानि की कल्पना करके ही यदि कोई कृषक भूमि जोतने और बीजारोपण के अवसरों को वर्तमान समय में खो देता है तो यह निश्चित है कि भविष्य में उसे कोई फसल मिलने वाली नहीं। उन्नत भविष्य के लिए वर्तमान समय का उपयोग बुद्धिमत्तापूर्वक करना चाहिये। भूतकाल तो मृत है और भविष्य अभी अनुत्पन्न। वर्तमान में अकुशलता से कार्य करने पर व्यक्ति को भविष्य में किसी बड़ी सफलता की आशा नहीं करनी चाहिये।इस सुविदित और बोधगम्य मूलभूत सत्य को गीता की भाषा में इस प्रकार कह सकते हैं कि यदि तुम सफलता चाहते हो तो ऐसे मन से प्रयत्न कभी नहीं करो जो फल प्राप्ति की चिन्ता एवं भय से बिखरा हुआ हो। यहाँ कर्मफल से शास्त्र का क्या तात्पर्य है इसे सूक्ष्म विचार से समझना आवश्यक और लाभप्रद होगा। सम्यक् विचार करने से यह ज्ञात होगा कि वास्तव में कर्मफल स्वयं कर्म से कोई भिन्न वस्तु नहीं है। वर्तमान में किया गया कर्म ही भविष्य में फल के रूप में प्रकट होता है। वास्तविकता यह है कि कर्म की समाप्ति अथवा पूर्णता उसके फल में ही है जो उससे भिन्न नहीं है। अत कर्मफल की चिन्ता करके उसी में डूबे रहने का अर्थ है शक्तिशाली गतिशील वर्तमान से पलायन करना और अनुत्पन्न भविष्य की कल्पना में बने रहना संक्षेप में भगवान् का आह्वान है कि मनुष्य को व्यर्थ की चिन्ताओं में प्राप्त समय को नहीं खोना चाहिये वरन् बुद्धिमत्तापूर्वक उसका सदुपयोग करना चाहिये। भविष्य का निर्माण अपने आप होगा और कर्मयोगी को प्राप्त होगी श्रेष्ठ आध्यात्मिक उन्नति।निष्कर्ष यह निकलता है कि अर्जुन के लिये इस युद्ध का प्रयोजन धर्म पालन जैसा श्रेष्ठ आदर्श है यह समझकर उसे अपनी पूरी योग्यता से कर्म में प्रवृत्त होना चाहिये। प्रेरणायुक्त कर्मों का सुफल अवश्य मिलेगा और उसके साथ ही चित्त शुद्धि के रूप में आध्यात्मिक फल भी प्राप्त होगा।एक सच्चा कर्मयोगी बनने के लिये इस श्लोक में चार नियम बताये गये हैं। जो यह समझता है कि (क) कर्म करने मात्र में मेरा अधिकार है (ख) कर्मफल की चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है (ग) किसी कर्म विशेष के एक निश्चित फल का आग्रह या उद्देश्य मन में नहीं होना चाहिये और (घ) इन सबका निष्कर्ष यह नहीं कि अकर्म में प्रीति हो वही व्यक्ति वास्तव में कर्मयोगी है। संक्षेप में इस उपदेश का प्रयोजन मनुष्य को चिन्ता मुक्त बनाकर कर्म करते हुये दैवी आनन्द में निमग्न रहकर जीना सिखाना है। कर्म करना ही उसके लिये सबसे बड़ा पुरस्कार और उपहार है श्रेष्ठ कर्म करने के सन्तोष और आनन्द में वह अपने आपको भूल जाता है। कर्म है साधन और आत्मानुभूति है साध्य।ईश्वर का स्मरण करते हुये सभी बाह्य चुनौतियों का तत्परता से सामना करते हुये मनुष्य सरलतापूर्वक शान्ति और वासना क्षय द्वारा चित्त की शुद्धि प्राप्त कर सकता है। जितनी अधिक मात्रा में चित्त में शुद्धि होगी उतनी ही अधिक आत्मानुभूति उसे सुलभ होगी।यदि कर्मफल की आसक्ति रखकर कर्म न करें तो फिर उन्हें कैसे करना चाहिये इसका उत्तर है
।।2.47।।तर्हि परम्परया पुरुषार्थसाधनं योगमार्गं परित्यज्य साक्षादेव पुरुषार्थकारणमात्मज्ञानं तदर्थमुपदेष्टव्यं तस्मै हि स्पृहयति मनो मदीयमित्याशङ्क्याह तव चेति। तर्हि तत्फलाभिलाषोऽपि स्यादिति नेत्याह मा फलेष्विति। पूर्वोक्तमेवार्थं प्रपञ्चयति मा कर्मेति। फलाभिसन्ध्यसंभवे कर्माकरणमेव श्रद्दधामीत्याशङ्क्याह मा त इति। ज्ञानानधिकारिणोऽपि कर्मत्यागप्रसक्तिं निवारयति कर्मण्येवेति। कर्मण्येवेत्येवकारार्थमाह न ज्ञानेति। नहि तत्राब्राह्मणस्यापरिपक्वकषायस्य मुख्योऽधिकारः सिध्यतीत्यर्थः। फलैस्तर्हि संबन्धो दुर्वारः स्यादित्याशङ्क्याह तत्रेति। कर्मण्येवाधिकारे सतीति सप्तम्यर्थः। फलेष्वधिकाराभावं स्फोरयति कर्मेति। कर्मानुष्ठानात्प्रागूर्ध्वं तत्काले चेत्येतत्कदाचनेति विवक्षितमित्याह कस्यांचिदिति। फलाभिसंधाने दोषमाह यदेति। एवं कर्मफलतृष्णाद्वारेणेत्यर्थः। कर्मफलहेतुत्वं विवृणोति यदा हीति। तर्हि विफलं क्लेशात्मकं कर्म न कर्तव्यमिति शङ्कामनुभाष्य दूषयति यदीत्यादिना। अकर्मणि ते सङ्गो मा भूदित्युक्तमेव स्पष्टयति अकरण इति।
।।2.47।। मम तर्हि क्वाधिकार इत्याकाङ्क्षायामाह कर्मणीति। कर्मण्येव नतु ज्ञाननिष्ठायामन्तःकरणशुद्य्धभावात् तत्रापि चित्तशुद्धिहेतौ फलाभिसंधिरहिते कर्मणि नतु बन्धनिमित्ते काम्ये इत्याह मेति। कदाचन कस्यांचितवस्थायामपि कर्मफलतृष्णा ते मास्तु। फलतृष्णया काम्ये तेऽधिकारो मास्त्विति यावत्। ननु तृष्णाभावेऽपि भोजनात्तृप्तिरिव कर्मणः फलं स्यादेवेति तत्राह मा कर्मेति। मा कर्मफले हेतुर्भूः फलतृष्णया तदुत्पादको माभूः। कामनया कृतस्य कर्मणः पश्वादिफलदातृत्वनियमात्चित्रया यजेत पशुकामः इति श्रुतेः। यत्तु कर्मफलं प्रवृत्तिहेतुर्यस्येति तन्न। बहुव्रीह्यपेक्षया तत्पुरुषस्य लघुत्वात् दुःखरुपेण निष्फलेन कर्मणा किमिति ते कर्माकरणे सङ्ग आसक्तिर्माभूत्।
।।2.47।।कामात्मनां निन्दा कृता। कथं एषां स्वर्गकामो यजेत आप.श्रौ.10।1।2।1 इत्यादौ कामस्यापि विहितत्वात् इत्यत आह कर्मण्येवेति। त इत्युपलक्षणार्थम्। तव ज्ञानिनोऽपि न फलकामकर्तव्यता किम्वन्येषाम्। नत्वस्ति केषाञ्चिन्न तेऽस्तीति। स हि ज्ञानी नरांश इन्द्रश्च मोहादिस्त्वभिभवादेः। यदि तेषां शुद्धसत्त्वानां न स्याज्ज्ञानं कान्येषाम्। उपदेशादेश्च सिद्धं ज्ञानं तेषाम्।पार्थार्ष्टिषेणेत्यादिज्ञानिगणनाच्च कामनिषेध एवात्र। फलानि ह्यस्वातन्त्र्येण भवन्ति। नहि कर्मफलानि कर्माभावे यत्नतो भवन्ति। भवन्ति च काम्यकर्मिणो विपर्ययप्रयत्नेऽप्यविरोधे। अतः कर्माकरण एव प्रत्यवायः न तु ज्ञानादिना वाऽकामनया फलाप्राप्तौ अतः कर्मण्येवाधिकारः। अतस्तदेव कार्यम्। न तु कामेन ज्ञानादिनिषेधेन वा फलप्राप्तिः।कामवचनानां तु तात्पर्यं भगवतैवोक्तम् रोचनार्थं फलश्रुतिः।यथा भैषज्यरोचनम् इति भागवते। 11।21।23 अत एव कामी यजेतेत्यर्थः। न तु कामी भूत्वेत्यर्थः।निष्कामं ज्ञानपूर्वं च इति वचनात् वक्ष्यमाणेभ्यश्च। वसन्ते वसन्ते ज्योतिषा यजेत इत्यादिभ्यश्च। अतो मा कर्मफलहेतुर्भूः। कर्मफलं तत्कृतौ हेतुर्यस्य स कर्मफलहेतुः स मा भूः।तर्हि न करोमीत्यत आह मा त इति। कर्माकरणे स्नेहो मास्त्वित्यर्थः। अन्यथा फलाभावेऽपि मत्प्रसादाख्यफलभावात्। इच्छा च तस्य युक्तावृणीमहे ते परितोषणाय इति महदाचारात्। अनिन्दनाद्विशेषत इतरनिन्दनाच्च। सामान्यं विशेषो बाधत इति च प्रसिद्धम्सर्घानानय नैकं मैत्रम् इत्यादौ। अतोनैकात्मतां मे स्पृद्दयन्ति केचित् भाग.3।25।34 भक्तिमन्विच्छन्तः।ब्रह्मजिज्ञासा ब्र.सू.1।1।1 विज्ञाय प्रज्ञां द्रष्टव्यः बृ.उ.2।4।5।5।6 इत्यादिववनेभ्यः। स्वार्थसेवकं प्रति न तथा स्नेहः। किं ददामीत्युक्ते सेवादि याचकंप्रति बहुतरस्नेह इति लोकप्रसिद्धन्यायाच्च भक्तिज्ञानादिकामना कार्येति सिद्धम्।
।।2.47।।ननु ममाप्यौपनिषदात्मज्ञानार्थिनः शम एवेष्टस्तत्कथं मां युध्यस्वेति प्रेरयसीत्याशङ्क्याह कर्मण्येवेति। कर्मण्येवाधिकारो न ज्ञाननिष्ठायाम्। मा फलेषु सङ्गोऽस्त्वित्यपकृष्यते। कर्मफलं स्वर्गपश्वादिहेतुः कर्मसु प्रवर्तकं यस्य तादृशो मा भूः। अकर्मणि कर्माकरणेऽपि तव सङ्गो मास्तु।
।।2.47।।नित्ये नैमित्तिके काम्ये च केनचित् फलविशेषेण संबन्धितया श्रूयमाणे कर्मणि नित्यसत्त्वस्थस्य मुमुक्षोः ते कर्ममात्रे अधिकारः। तत्संबन्धितया अवगतेषु फलेषु न कदाचिद् अपि अधिकारः। सफलस्य बन्धरूपत्वात् फलरहितस्य केवलस्य मदाराधनरूपस्य मोक्षहेतुत्वाच्च। मा च कर्मफलयोः हेतुः भूः। त्वया अनुष्ठीयमाने अपि कर्मणि नित्यसत्त्वस्थस्य मुमुक्षोः तवाकर्तृत्वम् अपि अनुसन्धेयम्। फलस्य अपि क्षुन्निवृत्त्यादेः न त्वं हेतुः इति अनुसन्धेयम्। तद् उभयं गुणेषु वा सर्वेश्वरे मयि वा अनुसन्धेयम् इति उत्तरत्र वक्ष्यते। एवम् अनुसन्धाय कर्म कुरु। अकर्मणि अननुष्ठाने न योत्स्यामि इति यत् त्वया अभिहितं न तत्र ते सङ्गः अस्तु। उक्तेन प्रकारेण युद्धादिकर्मणि एव सङ्गः अस्तु इत्यर्थः।एतद् एव स्पष्टीकरोति
।।2.47।।तर्हि सर्वकर्मफलानि परमेश्वराराधनादेव भविष्यन्तीत्यभिसंधाय प्रवर्तेत किं कर्मणेत्याशङ्क्य तद्वारयन्नाह कर्मण्येवेति। ते तव तत्त्वज्ञानार्थिनः कर्मण्येवाधिकारः। तत्फलेषु बन्धहेतुष्वधिकारः कामो मास्तु। ननु कर्मणि कृते तत्फलं स्यादेव भोजने कृते तृप्तिवदित्याशङ्क्याह। मा कर्मफलहेतुर्भूः कर्मफलं प्रवृत्तिहेतुर्यस्य तथाभूतो मा भूः। कामितस्यैव स्वर्गादेर्नियोज्यविशेषणत्वेन फलत्वादकामितं फलं न स्यादिति भावः। अतएव फलं बन्धकं भविष्यतीति भयादकर्मणि कर्माकरणेऽपि तव सङ्गो निष्ठा मास्तु।
।।2.47।।यतो वेदाः परं तेषां सम्यग्ज्ञानोपयोगिनः अत एवाह (K omits एव) यावानिति। यस्य स्वधर्ममात्रे (N omits स्व ) ज्ञाने वा प्राधान्यं तस्य परिमितादपि वेदभाषितात् कार्यं सम्पद्यते ।
।।2.47।।ज्ञानिनः कर्माभावमुक्त्वा इदानीमज्ञानिनः कर्मोच्यत इत्यन्यथा व्याख्याननिरासायाह कामात्मना मिति। येषां कर्मिणां सकामतया कर्म कुर्वतां या निन्दा कृतायामिमां 2।42 इत्यादिना सा न युक्तेत्यर्थः। कुतः स्वर्गकामो यजेत आप.श्रौ.10।1।2।1 इत्यादौ। यजनवत्स्वर्गकामस्यापि विहितत्वान्नहि विहितं कुर्वतां निन्द्यत्वम्। तथात्वे यजनस्यापि निन्द्यत्वप्रसङ्गादिति वदन्विशिष्टविधित्वं मन्यते पूर्वपक्षी।ते इत्येतदर्जुनमात्रविषयमित्यन्यथा प्रतीतिनिरासायाह त इति। सर्ववर्णाश्रमोपलक्षणमर्थः प्रयोजनमस्येति तथोक्तम्। वक्तर्यायत्ते शब्दप्रयोगे वाचकमेव प्रयुज्यतां किं लक्षणया इत्यत आह तवे ति। फलकामः कर्तव्यो यस्यासौ तथोक्तस्तस्य भावस्तत्ता। फलकामस्य कर्तव्यता तव कर्तुरिति वा। कृतोऽपि फलकामो ज्ञानिनो नात्यन्तबाधकः। तत्प्रतिबन्धनीयस्य ज्ञानस्याप्तत्वात् मोक्षस्य च नियतत्वात्। तथापि मोक्षविलम्बहेतुत्वात्तस्यापि न कर्तव्यः किम्वन्येषामज्ञानिनाम् इति प्रदर्शनायोपलक्षकपदप्रयोग इति भावः। ननुकर्मण्येवाधिकारो৷৷.मा फलेषु इति द्वयमुक्तम् तत्कथं न फलकामकर्तव्यतेत्येकस्यैव ग्रहणम् उच्यते फलकामकर्तव्यतानिषेधस्यैवात्र प्राधान्यात्कर्मण्येवाधिकार इति तदर्थानुवादः। तथापि न फलकामाधिकार इति वक्तव्यम्। मैवम् अधिकाराभावाभावयोः कर्तव्यत्वाकर्तव्यत्वसमर्थनार्थमुक्तत्वेन साध्यस्यैवोपादानात्। तथा च वक्ष्यति। त इत्युपलक्षणार्थमित्युक्तस्य व्यावर्त्यमाह न त्वि ति। केषाञ्चित्फलकामकर्तव्यताऽस्ति केवलं तेनास्तीत्यर्थस्तु नेत्यर्थः। कामान्यः कामयते मुं.उ.3।2।2 इत्यादौ सर्वेषां निषेधादिति भावः। नन्वर्जुनस्य ज्ञानित्वे स्यादिदं तदेव कुत इत्यत आह स ही ति। हिशब्दसूचितां प्रमाणसिद्धिमेव दर्शयति नरांश इति। कथं तर्हियज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहं 4।35 इत्यर्जुनस्य मोह उच्यते कथं च प्रश्नकरणम् इत्यत आह मोहादि रिति। बलवता प्रारब्धकर्मादिना ज्ञानस्याभिभवान्मोहः। विशेषज्ञानाद्यर्थः प्रश्न इत्यर्थः। नन्विन्द्रादीनामेव कुतो ज्ञानित्वं इत्यत आह यदी ति। सत्त्वं हि ज्ञानकारणम्।सत्त्वात्सञ्जायते ज्ञानं 14।17 इति वचनात् देवाश्च शुद्धसत्त्वाः अतः कारणसद्भावाद्युक्तं तेषां ज्ञानम्। अन्यथा न कस्यापि स्यात्। इतश्चेन्द्रादयो ज्ञानिन इत्यत आह उपदेशे ति। एतदु हैवेंद्रो विश्वामित्राय प्रोवाच इत्यादिरुपदेशः। आदिपदेन प्रजापतौ ब्रह्मचर्यम्।अर्जुनस्य ज्ञानित्वे प्रमाणान्तरमाह पार्थे ति। ज्ञानिषु गणनात्। एतेनापव्याख्यानमपि निरस्तम्। नन्वत्रमा फलेषु इति फलविषयो निषेधः कृतः तत्कथमुक्तं फलकामेति तत्राह कामे ति। फलशब्देन तद्विषयं काममुपलक्ष्य तद्विषयो निषेधोऽत्र क्रियते न फलविषय इत्यर्थः। कुतो लक्षणाश्रयणं इत्यत आह फलानी ति। यत्र हि पुरुषस्य कर्तुमकर्तुं वा स्वातन्त्र्यं तत्रैव निषेधः नान्यत्र प्रसक्तेरभावात्। न च फलेषु स्वातन्त्र्यमस्ति अतो मुख्ये बाधकाल्लक्षणाश्रयणमित्यर्थः। कथम स्वातंत्र्यमित्यतः करणे तावदाह न ही ति। अकरणेपि तदाह भवन्ति चे ति। चोऽवधारणे। अविरोधे ब्रह्मदर्शनादितत्तद्विरोध्यभावे। तदनेनते इतिफलेषु इति च पदद्वयं व्याख्यातम्। स्यादेतत्। स्वर्गकामो यजेत आप.श्रौ.10।1।2।1 इत्यादौ स्वर्गादिकामनाविशिष्टं यजनादिकं कर्म कार्यतयोच्यते अतो न कामात्मनां निन्दोचितेति शङ्कायां किमेतत्कर्मण्येवाधिकारः इत्याद्यसङ्गतमुच्यते यश्च कर्मवत्कामनाया अपि कार्यतां मन्यते कुतस्तस्य फलकामनायामधिकाराभावः सिद्धः फलेष्विति लाक्षणिकशब्दप्रयोगे च किं प्रयोजनं इत्याशङ्क्य पूर्वार्धं व्याचष्टे अत इति।अतः इत्यस्य वक्ष्यमाणेनभूत्वा इत्यतः परेणेत्यर्थ इत्यनेनान्वयः। अत उक्तन्यायेन पदद्वयस्य लाक्षणिकत्वे सतीत्यर्थः। श्लोकार्थः सम्पद्यते इति शेषः। तत्र तावत्कर्मण्येवाधिकारः सर्ववर्णाश्रमिणां न फलकामनायामित्युक्तेऽर्थद्वये हेतुद्वयमाह कर्माकरण इति। कुर्वन्नेवेह कर्माणि इत्युक्त्वा एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे ई.उ.2 इत्युक्तत्वात्। कर्माकरण एव प्रत्यवायोऽनिष्टप्राप्तीष्टानवाप्तिलक्षणः। न त्वकामनया प्रत्यवायः प्रमाणाभावात्। ननु कामाभावे तत्तत्फलानवाप्तेः कथं प्रत्यवायाभाव इत्यत उक्तम् फलाप्राप्ता विति। काम्यकर्मफलाप्राप्तावपि न प्रत्यवाय इत्येतदुपपादनायोक्तं ज्ञानादिना वे ति। वाशब्द उपमायाम्। यथा ज्ञानादिना साधनेन मोक्षं गच्छतः स्वर्गाद्यलाभो न खेदहेतुः महाफललाभेऽल्पफलहानेरकिञ्चित्करत्वात् तथाऽकामनया फलाप्राप्तावपि न खेदः निष्कामेण कर्मणा महाफलस्य ज्ञानादेर्लाभादिति भावः। ततः किमित्यत उक्तस्य हेतुद्वयस्य गीतोक्तं साध्यद्वयमाह अत इति। न तु फलकामनायामिति च वक्तव्यम्। यत एवं कर्माकरणे प्रत्यवायोऽतः कर्मण्येवाधिकारः। यतः कामाकरणे प्रत्यवायोऽतो न कामेऽधिकार इत्यर्थः। ततः किं प्रकृते इत्यतः परमसाध्यद्वयमाह अत इति। यतः कर्मण्येवाधिकारोऽतस्तदेव कार्यं विधिविषय इत्यर्थः। यतः कामेनाधिकारोऽतः कामेन फलप्राप्तिः फलप्राप्तये कामः इति यावत् न कार्यः। तत्र दृष्टान्तः। ज्ञानादिनिषेधेन वे ति। अत्रापि वाशब्द उपमायाम्। यथा प्रेक्षावता ज्ञानादिकं परित्यज्य फलप्राप्तिर्न क्रियते तथेत्यर्थः।पूर्वोक्त एवाभिप्रायः। यदि कर्मैव विधिविषयो न कामः तर्हि स्वर्गकामो यजेत इत्यादिवाक्यानां किं तात्पर्यम् इत्यत आह कामे ति। अनादिविषयवासनावासितान्तःकरणा न सहसा ज्ञानसाधने कर्मणि प्रवर्तितुं शक्यन्ते अतस्तेषां कर्मण्यभिरुचिजननार्थं स्वर्गकामः आ.श्रौ.10।1।2।1 इत्यादिश्रुतिः प्रवृत्ता कर्मणि प्रवृत्तांस्तु शनैः कामं त्याजयिष्यामीत्यभिप्रायवती। यथा फलेन प्रलोभ्य बालानां भैषज्यरोचनं क्रियते तथेत्यर्थः। अस्त्वेवं तात्पर्यं योजना तु कथं इत्यत आह अत इति। यत एवं न्यायेन कर्मण एव कार्यत्वं न कामस्येति प्राप्तम् अतः कामी यजेतेत्येव श्रुत्यर्थः। कामानुवादेन यजनं विधीयत इति यावत्। एवशब्दव्यावर्त्यमाह नत्वि ति। कामविशिष्टयजनविधानं तु नेत्यर्थः। एतदुक्तं भवति विशिष्टविधानशङ्कायां नेदं विशिष्टविधानं किन्तु कामानुवादेन यजनस्यैवेति परमसाध्यमत्राध्याहार्यम्। तत्कुतः इत्यपेक्षायां कर्मण एव कार्यत्वात् कामस्य तदभावादिति वा हेतुवचनं चोपस्कर्तव्यम्। तदपि कुत इत्यपेक्षायां कर्मण्येवाधिकारः न फलकाम इति गीतोक्तयोर्हेत्वोरुपस्थानम्। तदपि कुतः इत्यपेक्षायां कर्मकामकरणाकरणयोः प्रत्यवायभावाभावयोर्हेत्वोरध्याहारः। एतदुपपादनाय लाक्षणिकफलशब्दोपादानमिति। भास्करस् त्वाह नित्यनैमित्तिकान्येव कर्माणि मुमुक्षुणा निष्कामतया कर्तव्यानि न तु ज्योतिष्टोमादीनि कामाधिकारे विहितानि तेषां निष्कामतया करणे प्रमाणाभावात् अतोऽसदिदं व्याख्यानमिति तत्राह निष्काम मिति। यज्ञादिकमेव प्रक्रम्य तस्य निष्कामतयाऽनुष्ठानवचनाद्युक्तमिदं व्याख्यानम्।एतान्यपि तु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा 18।6 इत्यादिवक्ष्यमाणवचनेभ्यश्च। न चैतानि नित्यनैमित्तिकविषयाणि तत्र कामप्रसक्त्यभावेन तत्प्रतिषेधानुपपत्तेः। किञ्च नित्यनैमित्तिकातिरिक्तस्य ज्योतिर्नामकयज्ञस्य फलकामनया विनाऽविधानाच्च। ज्योतिष्टोमस्यैवायं गुणविधानायानुवाद इति तु न सम्मतम्। आदिपदेन विश्वजिता यजेत इत्यादेर्ग्रहणम्। तत्रापि स्वर्गकामपदाध्याहारो निर्णीत इति चेत् सत्यम् कामिनां तु तथा स्ववनेनानुक्तौ कारणमिहोक्तमिति। ननु पूर्वार्धेनैव शङ्काया निरस्तत्वात्किमुत्तरार्धेन इत्यतः क्रमेण पादद्वयोपयोगमाह अत इति। फलकामस्याकर्तव्यत्वात् कर्मफलहेतुत्वमप्रसक्तं किमिति प्रतिषिध्यत इत्यत आह कर्मे ति। शाकपार्थिवादित्वात्तत्कृतिपदलोपोऽत्रेति भावः। तर्ही ति। यदि फलं नाकाङ्क्ष्यमित्यर्थः। न करोमि स्वयं क्लेशरूपत्वादिति भावः। अकर्मपदस्य निषिद्धेऽपि प्रवृत्तेः सङ्गशब्दस्य चानेकार्थत्वात्प्रकृतोपयुक्ततया व्याचष्टे कर्मे ति। सोपपत्तिकमाक्षिप्ते कथमिदमुत्तरं इत्यतो भगवदभिप्रायमाह अन्ये ति। प्रसादशब्देन भक्तिज्ञानादिकमप्युपलक्ष्यते। एवं तर्हि भगवत्प्रसादादीच्छया कर्म कर्तव्यमित्युक्तं स्यात्। न च तद्युक्तम् कामस्य निन्दितत्वात्। अन्यथा स्वर्गादिकामनाया अपि प्रसङ्गात्। अतो नेदं भगवदभिप्रायवर्णनं युक्तमित्यत आह इच्छा चेति। ते तव परितोषणाय सकलं कर्म वृणीमह इति महदाचारेण भगवत्परितोषणस्य कर्तव्यतावगमात्। ननु तदकर्तव्यतायामपि कामनानिन्दावचनं प्रमाणमस्तीत्युक्तमित्यत आह अनिन्दना दिति। यथा महदाचारो विशेषविषयो न तथा कामनिन्दावचनं किन्तु सामान्यविषयसेव। अतो महदाचारेण बाध्यत इति भावः। तर्हि तद्वत्स्वर्गादिकामनाऽपि कार्येति यदुक्तं तत्राह विशेषत इति। चशब्देन प्रमाणाभावं समुच्चिनोति। अस्त्वाचारो विशेषविषयः कामनिन्दावचनं तु सामान्यविषयम् तथापि कुतो बाध्यबाधकभाव इत्यत आह सामान्य मिति। सामान्यविशेषशब्दौ तद्विषयप्रमाणपरौ। चशब्दाद्विरोधे सति। उक्तं च प्रमाणमुपसंहरन् प्रमाणान्तराण्यप्यत्राह अत इति। एकात्मतां सायुज्यम्। अस्यैव शेषो भक्तिमन्विच्छन्त इति। ननु न ब्रह्मजिज्ञासाशब्दो ज्ञानेच्छापरः किन्तु विचारस्योपलक्षकः सत्यम् तथापि तत्पूर्वको विचारो लक्ष्यते अन्यथा सम्बन्धाभावात् लोकसिद्धन्यायात् लोकसिद्धव्याप्तिकानुमानात्।
।।2.47।।ननु निष्कामकर्मभिरात्मज्ञानं संपाद्य परमानन्दप्राप्तिः क्रियते चेदात्मज्ञानमेव तर्हि संपाद्यं किं बह्वायासैः कर्मभिर्बहिरङ्गसाधनभूतैरित्याशङ्क्याह ते तवाशुद्धान्तःकरणस्य तात्त्विकज्ञानोत्पत्त्ययोग्यस्य कर्मण्येवान्तःकरणशोधकेऽधिकारो मयेदं कर्तव्यमिति बोधोऽस्तु न ज्ञाननिष्ठारुपे वेदान्तवाक्यविचारादौ। कर्म च कुर्वतस्तव तत्फलेषु स्वर्गादिषु कदाचन कस्यांचिदप्यवस्थायां कर्मानुष्ठानात्प्रागूर्ध्वं तत्काले वाधिकारो मयेदं भोक्तव्यमिति बोधो मास्तु। ननु मयेदं भोक्तव्यमिति बुद्ध्यभावेऽपि कर्म स्वसामर्थ्यादेव फलं जनयिष्यतीति चेन्नेत्याह मा कर्मफलहेतुर्भूः फलकामनया हि कर्म कुर्वन्फलस्य हेतुरुत्पादको भवति। त्वं तु निष्कामः सन्कर्मफलहेतुर्माभूः। नहि निष्कामेन भगवदर्पणबुद्ध्या कृतं कर्म फलाय कल्पत इत्युक्तम्। फलाभावे किं कर्मणेत्यत आह मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि। यदि फलं नेष्यते किं कर्मणा दुःखरूपेणेत्यकरणे तव प्रीतिर्माभूत्।
।।2.47।।नन्वेवं चेत्तर्हि किमिति कर्मकरणोपदेशः इत्याशङ्क्याह कर्मण्येवाधिकारस्त इति। ते तव स्वपराह न्मभ() ज्ञानयुक्तस्य कर्मण्येव अधिकारः। अस्तीति शेषः। अत्रायं भावः यावत्पर्यन्तं स्वपरेति ज्ञान तावन्न कर्मत्यागः। अत एवतावत्कर्माणि कुर्वीत न निर्विद्येत यावता इत्याद्युक्तं श्रीभागवते 11।20।9़ ननु तर्हि पूर्वोक्तबाध इति चेत्तत्राह मा फलेषु इति। फलेषु तदुक्तेषु अधिकारो मनसि कामो मास्तु।कदाचनेति साधनदशायामपि। ननु कृतं कर्म कामाभावे स्वफलं करिष्यत्येव अज्ञानादपि भक्षणे विषवन्मृत्युमित्यत आह मा कर्मफलहेतुरिति। त्वं कर्मफलहेतुः कर्मफलभोगभोग्यदेहयुक्तो मा भूः। न भविष्यसीत्यर्थः। मदाज्ञयेति भावः। किञ्च ते अकर्मणि सकामकर्त्तरि सङ्गः सम्बन्धो मास्तु। एवं वरमेव ददामीति भावः।
।।2.47।। कर्मण्येव अधिकारः न ज्ञाननिष्ठायां ते तव। तत्र च कर्म कुर्वतः मा फलेषु अधिकारः अस्तु कर्मफलतृष्णा मा भूत् कदाचन कस्याञ्चिदप्यवस्थायामित्यर्थः। यदा कर्मफले तृष्णा ते स्यात् तदा कर्मफलप्राप्तेः हेतुः स्याः एवं मा कर्मफलहेतुः भूः। यदा हि कर्मफलतृष्णाप्रयुक्तः कर्मणि प्रवर्तते तदा कर्मफलस्यैव जन्मनो हेतुर्भवेत्। यदि कर्मफलं नेष्यते किं कर्मणा दुःखरूपेण इति मा ते तव सङ्गः अस्तु अकर्मणि अकरणे प्रीतिर्मा भूत्।।यदि कर्मफलप्रयुक्तेन न कर्तव्यं कर्म कथं तर्हि कर्तव्यमिति उच्यते
।।2.47।।एवं सति मम वेदोदन्वति किमुपादेयमित्याकाङ्क्षायामाह कर्मण्येवाधिकारस्ते इति। कर्मैवोपादेयं तत्रैव तत्राधिकार इति। परन्तु तत्फलेषु मा कदाचनाधिकारोऽस्तु। उपदेशमुद्रामाह मा कर्मफलहेतुर्भूरिति। अकर्मणि च निषिद्धे परधर्मे सङ्गो मा तेऽस्तु।