असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः। वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः।।6.36।।
asaṅyatātmanā yogo duṣhprāpa iti me matiḥ vaśhyātmanā tu yatatā śhakyo ’vāptum upāyataḥ
I think Yoga is hard to be attained by one with an uncontrolled self, but the self-controlled and striving one can attain it by the appropriate means.
6.36 असंयतात्मना by a man of uncontrolled self? योगः Yoga? दुष्प्रापः hard to attain? इति thus? मे My? मतिः opinion? वश्यात्मना by the selfcontrolled one? तु but? यतता by the striving one? शक्यः possible? अवाप्तुम् to obtain? उपायतः by (proper) means.Commentary Uncontrolled self he who has not controlled the senses and the mind by the constant practice of dispassion and meditation. Selfcontrolled he who has controlled the mind by the constant practice of dispassion and meditation. He can attain Selfrealisation by the right means and constant endeavour.
।।6.36।। व्याख्या--असंयतात्मना योगो दुष्प्रापः--मेरे मतमें तो जिसका मन वशमें नहीं है उसके द्वारा योग सिद्ध होना कठिन है। कारण कि योगकी सिद्धिमें मनका वशमें न होना जितना बाधक है उतनी मनकी चञ्चलता बाधक नहीं है। जैसे पतिव्रता स्त्री मनको वशमें तो रखती है पर उसे एकाग्र नहीं करती। अतः ध्यानयोगीको अपना मन वशमें करना चाहिये। मन वशमें होनेपर वह मनको जहाँ लगाना चाहे वहाँ लगा सकता है जितनी देर लगाना चाहे उतनी देर लगा सकता है और जहाँसे हटाना चाहे वहीँसे हटा सकता है।प्रायः साधकोंकी यह प्रवृत्ति होती है कि वे साधन तो श्रद्धापूर्वक करते हैं पर उनके प्रयत्नमें शिथिलता रहती है जिससे साधकमें संयम नहीं रहता अर्थात् मन इन्द्रियाँ अन्तःकरणका पूर्णतया संयम नहीं होता। इसलिये योगकी प्राप्तिमें कठिनता होती है अर्थात् परमात्मा सदासर्वत्र विद्यमान रहते हुए भी जल्दी प्राप्त नहीं होते।भगवान्की तरफ चलनेवाले वैष्णव संस्कारवाले साधकोंकी मांस आदिमें जैसी अरुचि होती है वैसी अरुचि साधककी विषयभोगोंमें नहीं होती अर्थात् विषयभोग उतने निषिद्ध और पतन करनेवाले नहीं दीखते। कारण कि विषयभोगोंका ज्यादा अभ्यास होनेसे उनमें मांस आदिकी तरह ग्लानि नहीं होती। मांस आदि सर्वथा निषिद्ध वस्तु खानेसे पतन तो होता ही है पर उससे भी ज्यादा पतन होता है रागपूर्वक विषयभोगोंको भोगनेसे। कारण कि मांस आदिमें तो यह निषिद्ध वस्तु है ऐसी भावना रहती है पर भोगोंको भोगनेसे यह निषिद्ध है ऐसी भावना नहीं रहती। इसलिये भोगोंके जो संस्कार भीतर बैठ जाते हैं वे बड़े भयंकर होते हैं। तात्पर्य है कि मांस आदि खानेसे जो पाप लगता है वह दण्ड भोगकर नष्ट हो जायगा। वह पाप आगे नये पापोंमें नहीं लगायेगा। परन्तु रागपूर्वक विषयभोगोंका सेवन करनेसे जो संस्कार पड़ते हैं वे जन्मजन्मान्तरतक विषयभोगोंमें और उनकी रुचिके परिणामस्वरूप पापोंमें लगाते रहेंगे।तात्पर्य है कि साधकके अन्तःकरणमें विषयभोगोंकी रुचि रहनेके कारण ही वह संयतात्मा नहीं हो पातामनइन्द्रियोंको अपने वशमें नहीं कर पाता। इसलिये उसको योगकी प्राप्तिमें अर्थात् ध्यानयोगकी सिद्धिमें कठिनता होती है।
।।6.36।। पूर्व श्लोक के अभ्यास में अत्याधिक बल दिया गया था परन्तु अभ्यास क्या है इसका निर्देश नहीं किया गया। किसी शब्द की परिभाषा तर्क या युक्ति के अभाव में कोई भी शास्त्रीय ग्रन्थ पूर्ण नहीं माना जा सकता। विचाराधीन श्लोक में भगवान् श्रीकृष्ण अभ्यास का अर्थ स्पष्ट करते हैं।असंयत मन का अर्थात् विघटित व्यक्तित्व का पुरुष अध्यात्म साधना के लिए आवश्यक सजगता उत्साह और सार्मथ्य से रहित होता है और इस कारण वह आत्मसाक्षात्कार के शिखर तक नहीं पहुँच पाता।जो व्यक्ति शारीरिक सुखों में आसक्त होकर विषयों का दास बन जाता है अथवा कामुक मन के गाये मृत्युगीत की शोकधुन पर नृत्य करता है अथवा मदोन्मत्त बुद्धि की विकृत दुष्ट और अन्तहीन इच्छाओं को पूर्ण करने हेतु इतस्तत भ्रमण करता रहता है उस पुरुष में न वह शान्ति होती है और न स्फूर्ति जो उसे अन्तरात्मा के मन्दिर तक पहुँचाने के लिए उद्यत कर सके।जब तक इन्द्रियां वश में नहीं होतीं तब तक मन के विक्षेप शान्त नहीं हो सकते। विक्षेपयुक्त मन के द्वारा न श्रवण हो सकता है न मनन और न निदिध्यासन ही। इन तीनों के बिना आवरण शक्ति की निवृत्ति नहीं हो सकती। आवरण और विक्षेप ये क्रमश तमोगुण और रजोगुण के कार्य हैं। हम देख चुके हैं कि इन दो गुणों को वश में किये बिना सत्वगुण का प्रभाव साधक में दृष्टिगोचर नहीं होता।वादविवाद की सामान्य पद्धति के अनुसार अपना मत प्रस्तुत करते समय प्रतियोगी के तर्कों का खण्डन इस प्रकार करना होता है कि वह दोनों मतों के अन्तर को देखकर हमारे दृष्टिकोण की युक्तियुक्तता एवं स्वीकार्यता को समझ सके। इसी पद्धति का उपयोग करते हुए दूसरी पंक्ति में भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं परन्तु स्वाधीन मन वाले प्रयत्नशील पुरुष द्वारा किये गये उपाय से योग प्राप्त होना संभव है। इन्द्रियों को उनके विषयों से पराङमुख करना आध्यात्मिक जीवन का प्रथम सोपान है जो मन को सत्याभिमुख किये बिना संभव नहीं हो सकता।लौकिक जीवन में भी त्याग और तप के बिना कोई भी लक्ष्य प्राप्त नहीं होता । चुनाव के समय एक प्रत्याशी का और परीक्षा के पूर्व एक विद्यार्थी का जीवन अथवा एक अभिनेता या नर्तकी का रंगमंच पर प्रथम कार्यक्रम प्रस्तुत करने के पूर्व का जीवनये कुछ उदाहरण हैं जिनमें हम देखते हैं कि अपनेअपने कार्य क्षेत्रों में सफलता पाने के लिए ये सभी लोग सामान्य भोगमय जीवन को त्यागकर कठिन परिश्रम करते हैं। यदि केवल सामान्य और अनित्य लौकिक वस्तु या कीर्ति प्राप्त करने के लिए भी इतने बड़े त्याग तप और संयम की आवश्यकता होती है तब नित्य अनन्त अखण्ड आत्मानन्द की प्राप्ति के लिए कितने अधिक आत्मसंयम की आवश्यकता होगी इसकी कोई भी व्यक्ति सहज ही कल्पना कर सकता है।इसका अर्थ यह नहीं हुआ कि साधक को सभी विषयों को पूर्णतया त्याग देना चाहिए। परन्तु प्राय साधकों की यही धारणा बन जाती है।धर्म या साधना के नाम पर अनेक साधक कुछ काल तक अत्यन्त कठोर तप का जीवन जीते हैं जिसमें शरीर को क्लेश देना शारीरिक आवश्यकताओं एवं प्रवृत्तियों का सर्वथा त्याग और दमन करना सम्मिलित है। इस प्रकार स्वयं पर आसुरी और आत्मघातक अत्याचार करने पर निश्चय ही एक समय यही दमित प्रवृत्तियां भयंकर रूप में फूटकर बाहर निकल पड़ती हैं।कहीं ऐसा न हो कि गीता का अध्येतावर्ग भी इसी भ्रामक विचार की बलि बन जाये भगवान् कहते हैं कि इस योग को प्रयत्नशील साधक उचित उपाय के द्वारा प्राप्त कर सकता है। केवल चित्रपट देखने न जाने अथवा खेलकूद को त्यागने से ही कोई विद्यार्थी परीक्षा में उत्तीर्ण नहीं हो सकता क्योंकि उसके साथ ही अध्ययन में समय का सदुपयोग करना नितान्त आवश्यक होता है। एक बात और भी है कि गणित की परीक्षा हो और विद्यार्थी भूगोल का अध्ययन कर रहा हो तो उसे कोई विशेष सफलता नहीं मिल सकती। उचित प्रयत्न के द्वारा ही सफलता प्राप्त की जा सकती है।इसी प्रकार वैषयिक भोग के त्यागरूप तप के द्वारा संचित शक्ति का उपयोग साधक को निदिध्यासन में करना चाहिए जिसका फल आत्मसाक्षात्कार अर्थात् स्वस्वरूप की पहचान है। ऐसा साधनसम्पन्न व्यक्ति इस योग को प्राप्त कर सकता है आनन्दकन्द भगवान् श्रीकृष्ण का यह आशावादी तत्त्वज्ञान है।इन दो श्लोकों के द्वारा भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन के प्रश्न का उत्तर देते हैं और आगे के प्रकरण से यह सिद्ध होता है कि अर्जुन उनके उत्तर से सन्तुष्ट हो जाता है।एक प्रश्न फिर भी रह जाता है कि उस पुरुष की गति क्या होती है जो संयमित होकर योगाभ्यास करता है परन्तु योगफल प्राप्त करने के पूर्व ही योग से विचलित हो जाता है
।।6.36।।संयतात्मनो योगप्राप्तिः सुलभेत्युक्त्वा व्यतिरेकं दर्शयति यः पुनरिति। व्यतिरेकोपन्यासपरं पूर्वार्धमनूद्य व्याकरोति असंयतेति। पूर्वोक्तान्वयव्याख्यानपरमुत्तरार्धं व्याचष्टे यस्त्वित्यादिना। अन्तःकरणस्य स्ववशत्वे सिद्धेऽपि वैराग्यादावास्थावता भवितव्यमित्याह यततेति। उपायो वैराग्यादिपूर्वको मनोनिरोधः।
।।6.36।।असंयतं अभ्यासवैराग्याभ्यामनायत्तं चित्तं यस्य तेन आत्मौपम्येनेत्यनेनोक्तो योगो दुष्प्रापः प्राप्तुमशक्यः। वशीकृतचित्तेन तूपायतः अभ्यासवैराग्यरुपोपायात् भूयोऽपि यतता प्रयत्नं कुर्वता योगोऽवापुतुं प्राप्तुं शक्यः।
।।6.36।।न च कदाचित्स्वयमेव मनो नियम्यते।शुभेच्छारहितानां च द्वेषिणां च रमापतौ। नास्तिकानां च वै पुंसां तदा मुक्तिर्न युज्यते इति निषेधाद्ब्राह्मे।
।।6.36।।असंयतात्मनाऽजितचित्तेन। वश्यात्मना जितचित्तेन। उपायतोऽभ्यासवैराग्यरूपात्।
।।6.36।।असंयतात्मना अजितमनसा महता अपि बलेन योगो दुष्प्राप एव। उपायतः तु वश्यात्मना पूर्वोक्तेन मदाराधनरूपेण अन्तर्गतज्ञानेन कर्मणा जितमनसा यतमानेन अयम् एव समदर्शनरूपो योगः अवाप्तुं शक्यः।अथनेहाभिक्रमनाशोऽस्ति (गीता 2।40) इत्यादौ एव श्रुतं योगमाहात्म्यं यथावत् श्रोतुम् अर्जुनः पृच्छति। अन्तर्गतात्मज्ञानतया योगशिरस्कतया च हि कर्मयोगस्य माहात्म्यं तत्रोदितं तच्च योगमाहात्म्यम् एव
।।6.36।।एतावांस्त्विह निश्चय इत्याह असंयतात्मनेति। असंयतात्मा उक्तप्रकारेणाभ्यासवैराग्याभ्यामसंयत आत्मा चित्तं यस्य तेन पुरुषेणायं योगो दुष्प्रापः प्राप्तुमशक्यः। अभ्यासवैराग्याभ्यां वश्यो वशवर्ती आत्मा चित्तं यस्य तेन पुरुषेण पुनश्चानेनैवोपायेन प्रयत्नं कुर्वता योगः प्राप्तुं शक्यः।
।। 6.36 अथार्जुनेन कण्ठोक्तमनुवदन् बुभुत्सितमुपायं श्लोकद्वयेनाह भगवान्। तत्रदुर्निग्रहंचलम् इति पदद्वयमर्जुनोक्तप्रतिज्ञाहेत्वनुवादरूपमाहचलस्वभावतयेति।असंशयं इत्येतत्सत्यमितिवदर्धाङ्गीकारपरम्। तुशब्दाभिप्रेतं विशेषं दर्शयतितथापीति। अनुकूलतयाऽभ्यासो हि तत्र प्रावण्यहेतुः स्यादित्यभ्यासविशेषं तत्फलं च व्यनक्तिआत्मन इति। नित्यत्वज्ञानत्वानन्दत्वाकर्मवश्यत्वामलत्वादयोऽत्र गुणाः। कथञ्चिदित्यवधानार्थम्। एवं मनसो ग्रहणोपाय उक्तः ततश्चएतस्याहं न पश्यामि 6।33 इत्युक्तमर्थं विषयविशेषे व्यवस्थापयति असंयत इति श्लोकेन। मनोनिग्रहप्रकरणत्वात् असंयतवश्यशब्दसमभिव्याहारसामर्थ्याच्चात्र आत्मशब्दो मनोविषयः। महाबाहुशब्दसम्बुद्धिसूचितमाहमहतापि बलेनेति।उपायेन तु यच्छक्यं न तच्छक्यं पराक्रमैः पं.तं. इति भावः।मे मतिः इत्यनेन निस्सन्देहत्वं विवक्षितमित्याहदुष्प्राप एवेति।उपायतस्तु वश्यात्मनेति व्याख्येयान्वयप्रदर्शनम्। तद्व्याख्यानंपूर्वेत्यादि। उक्तलक्षणं कर्ममात्रं मनोनिग्रहोपायः अभ्यासवैराग्ये तु तस्यैवाङ्गतयोक्ते इति भावः यतमानेन योगमभ्यस्यतेत्यर्थः।
।।6.36।।अत एषा प्रतिज्ञा असंयतेति। असंयतात्मनः अविरक्तस्य न कथंचिद्योगावाप्तिः। वश्यात्मनेति वैराग्यवता। यतमानेनेति साभ्यासेन। उपायतः उपायान् अनेकसिद्धान्तादिशास्त्रविहितान् संश्रित्य।
।।6.35 6.36।।संयतेति श्लोको व्यर्थ इव प्रतीयते तन्निवर्त्यामाशङ्कां सूचयन् तात्पर्यमाह न चेति। यथा मत्तमातङ्गः स्वयमेव श्रान्तः शान्तो भवति तथा विषयैस्तुष्टं मनः कदाचित्स्वयमेव नियतं भवति किमभ्यासादिना इत्येतन्नैवेत्यर्थः। कुतः इत्यत आह शुभेति। सदेति पूर्वेण सम्बन्धः। अनेनात्र शुभेच्छादिकमप्युलक्षितमिति सूचितम्। मुक्तिबीजत्वान्मनोनियमनस्य मुक्तिरित्युक्तम्।
।।6.36।।यत्तु त्वमवोचः प्रारब्धभोगेन कर्मणा तत्त्वज्ञानादपि प्रबलेन स्वफलदानाय मनसो वृत्तिषूत्पद्यमानासु कथं तासां निरोधः कर्तुं शक्य इति तत्रोच्यते उत्पन्नेऽपि तत्त्वसाक्षात्कारे वेदान्तव्याख्यानादिव्यासङ्गादालस्यादिदोषाद्वाऽभ्यासवैराग्याभ्यां न संयतो निरुद्ध आत्मान्तःकरणं येन तेनासंयतात्मना तत्त्वसाक्षात्कारवतापि योगो मनोवृत्तिनिरोधः दुष्प्रापः दुःखेनापि प्राप्तुं न शक्यते। प्रारब्धकर्मकृताच्चित्तचाञ्चल्यादिति चेत्त्वं वदसि तत्र मे मतिर्मम संमतिस्तत्तथैवेत्यर्थः। केन तर्हि प्राप्यते। उच्यते वश्यात्मना तु वैराग्यपरिपाकेन वासनाक्षये सति वश्यः स्वाधीनो विषयपारतन्त्र्यशून्य आत्मान्तःकरणं यस्य तेन। तुशब्दोऽसंयतात्मनो वैलक्षण्यद्योतनार्थोऽवधारणार्थो वा। एतादृशेनापि यतता यतमानेन वैराग्येण विषयस्रोतःखिलीकरणेऽप्यात्मस्रोतउद्धाटनार्थमभ्यासं प्रागुक्तं कुर्वता योगः सर्वचित्तवृत्तिनिरोधः शक्योऽवाप्तुम् चित्तचाञ्चल्यनिमित्तानि प्रारब्धकर्माण्यप्यभिमूय प्राप्तुं शक्यः। कथमतिबलवतामारब्धभोगानां कर्मणामभिभवः। उच्यते उपायतः उपायात्। उपायः पुरुषकारस्तस्य लौकिकस्य वैदिकस्य वा प्रारब्धकर्मापेक्षया प्राबल्यात्। अन्यथा लौकिकस्य कृष्यादिप्रयत्नस्य वैदिकानां ज्योतिष्टोमादिप्रयत्नस्य च वैयर्थ्यापत्तेः। सर्वत्र प्रारब्धकर्मसदसत्त्वविकल्पग्रासात्प्रारब्धकर्मसत्त्वे तत एव फलप्राप्तेः किं पौरुषेण प्रयत्नेन तदसत्त्वे तु सर्वथा फलासंभवात्किं तेनेति। अथ कर्मणः स्वयमदृष्टरूपस्य दृष्टसाधनसंपत्तिव्यतिरेकेण फलजननासमर्थत्वादपेक्षितः कृष्यादौ पुरुषप्रयत्न इति चेत्। योगाभ्यासेऽपि समं समाधानं तत्साध्याया जीवन्मुक्तेरपि सुखातिशयरूपत्वेन प्रारब्धकर्मफलान्तर्भावात्। अथवा यथा प्रारब्धकर्मफलं तत्त्वज्ञानात्प्रबलमिति कल्प्यते दृष्टत्वात्तथा तस्मादपि कर्मणो योगाभ्यासः प्रबलोऽस्तु शास्त्रीयस्य प्रयत्नस्य सर्वत्र ततः प्राबल्यदर्शनात्। तथाचाह भगवान्वसिष्ठःसर्वमेवेह हि सदा संसारे रघुनन्दन। सम्यक्प्रयुक्तात्सर्वेण पौरुषात्समवाप्यते।।उच्छास्त्रं शास्त्रितं चेति पौरुषं द्विविधं स्मृतम् तत्रोच्छास्त्रमनर्थाय परमार्थाय शास्त्रितम्।। उच्छास्त्रं शास्त्रप्रतिषिद्धमनर्थाय नरकाय। शास्त्रितं शास्त्रविहितमन्तःकरणशुद्धिद्वारा परमार्थाय चतुर्ष्वर्थेषु परमाय मोक्षाय।शुभाशुभाभ्यां मार्गाभ्यां वहन्ती वासनासरित्। पौरुषेण प्रयत्नेन योजनीया शुभे पथि।।अशुभेषु समाविष्टं शुभेष्वेवावतारय। स्वमनः पुरुषार्थेन बलेन बलिनां वर।।द्रागभ्यासवशाद्याति यदा ते वासनोदयम्। तदाभ्यासस्य साफल्यं विद्धि त्वमरिमर्दन।। इति। वासना शुभेति शेषः।संदिग्धायामपि भृशं शुभामेव समाहर। शुभायां वासनावृद्धौ तात दोषो न कश्चन।।अव्युत्पन्नमना यावद्भवानज्ञाततत्पदः। गुरुशास्त्रप्रमाणैस्त्वं निर्णीतं तावदाचर।।ततः पक्वकषायेण नूनं विज्ञातवस्तुना। शुभोऽप्यसौ त्वया त्याज्यो वासनौघो निराधिना।। इति। तस्मात्साक्षिगतस्य संसारस्याविवेकनिबन्धनस्य विवेकसाक्षात्कारादपनयेऽपि प्रारब्धकर्मपर्यवस्थापितस्य चित्तस्य स्वाभाविकीनामपि वृत्तीनां योगाभ्यासप्रयत्नेनापनये सति जीवन्मुक्तः परमो योगी। चित्तवृत्तिनिरोधाभावे तु तत्त्वज्ञानवानप्यपरमो योगीति सिद्धम्। अवशिष्टं जीवन्मुक्तिविवेके सविस्तरमनुसंधेयम्।
।।6.36।।अथ यो मनश्चञ्चलमिति ज्ञात्वाऽभ्यासवैराग्ययोर्यत्ननिरपेक्षः स नाप्नोतीत्याह असंयतात्मनेति। असंयतात्मना उक्तप्रकारेणाभ्यासवैराग्याभ्यामसंयतः अवशीकृत आत्माऽन्तःकरणं यस्य तेन योगो मत्संयोगात्मको दुष्प्रापः दुःखेनापि प्राप्तुमशक्यः। वश्यात्मना तु अभ्यासवैराग्यवशीकृतयत्नेन यतता मत्संयोगार्थं यत्नं कुर्वता उपायतोऽवाप्तुं शक्य इति मे मतिः। अत्र स्वमतित्वकथनेन मदुक्तिविश्वासपूर्वकं यो यतेत तस्याऽवश्यं मया संयोगः फलदानं कर्तुं मनोनिग्रहः करणीय इति व्यञ्जितम्।
।।6.36।। असंयतात्मना अभ्यासवैराग्याभ्यामसंयतः आत्मा अन्तःकरणं यस्य सोऽयम् असंयतात्मा तेन असंयतात्मना योगो दुष्प्रापः दुःखेन प्राप्यत इति मे मतिः। यस्तु पुनः वश्यात्मा अभ्यासवैराग्याभ्यां वश्यत्वमापादितः आत्मा मनः यस्य सोऽयं वश्यात्मा तेन वश्यात्मना तु यतता भूयोऽपि प्रयत्नं कुर्वता शक्यः अवाप्तुं योगः उपायतः यथोक्तादुपायात्।।तत्र योगाभ्यासाङ्गीकरणेन इहलोकपरलोकप्राप्तिनिमित्तानि कर्माणि संन्यस्तानि योगसिद्धिफलं च मोक्षसाधनं सम्यग्दर्शनं न प्राप्तमिति योगी योगमार्गात् मरणकाले चलितचित्तः इति तस्य नाशमाशङ्क्य अर्जुन उवाच अर्जुन उवाच
।।6.36।।एवं मनसो निरोधे साम्येन स योगो घटते नान्यथेत्याह असंयतात्मन इति। स्पष्टमेतत्।