BG - 8.20

परस्तस्मात्तु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातनः। यः स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति।।8.20।।

paras tasmāt tu bhāvo ’nyo ’vyakto ’vyaktāt sanātanaḥ yaḥ sa sarveṣhu bhūteṣhu naśhyatsu na vinaśhyati

  • paraḥ - transcendental
  • tasmāt - than that
  • tu - but
  • bhāvaḥ - creation
  • anyaḥ - another
  • avyaktaḥ - unmanifest
  • avyaktāt - to the unmanifest
  • sanātanaḥ - eternal
  • yaḥ - who
  • saḥ - that
  • sarveṣhu - all
  • bhūteṣhu - in beings
  • naśhyatsu - cease to exist
  • na - never
  • vinaśhyati - is annihilated

Translation

But verily, there exists higher than this Unmanifested, another Unmanifested Eternal, which is not destroyed even when all beings are destroyed.

Commentary

By - Swami Sivananda

8.20 परः higher? तस्मात् than that? तु but? भावः existence? अन्यः another? अव्यक्तः unmanifested? अव्यक्तात् than the unmanifested? सनातनः Eternal? यः who? सः that? सर्वेषु all? भूतेषु beings? नश्यत्सु when destroyed? न not? विनश्यति is destroyed.Commentary Another unmanifested in the ancient or eternal Para Brahman Who is distinct from the Unmanifested (Avyakta or Primordial Nature)? Who is of ite a different nature. It is superior to Hiranyagarbha (the Cosmic Creative Intelligence) and the Unmanifested Nature because It is their cause. It is not destroyed when all the beings from Brahma down to the ants or the blade of grass are destroyed. (Cf.XV.17)

By - Swami Ramsukhdas , in hindi

।।8.20।। व्याख्या--'परस्तस्मात्तु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातनः'-- सोलहवेंसे उन्नीसवें श्लोकतक ब्रह्मलोक तथा उससे नीचेके लोकोंको पुनरावर्ती कहा गया है। परन्तु परमात्मतत्त्व उनसे अत्यन्त विलक्षण है, -- यह बतानेके लिये यहाँ 'तु' पद दिया गया है।यहाँ 'अव्यक्तात्' पद ब्रह्माजीके सूक्ष्मशरीरका ही वाचक है। कारण कि इससे पहले अठारहवें-उन्नीसवें श्लोकोंमें सर्गके आदिमें ब्रह्माजीके सूक्ष्मशरीरसे प्राणियोंके पैदा होनेकी और प्रलयमें ब्रह्माजीके सूक्ष्मशरीरमें प्राणियोंके लीन होनेकी बात कही गयी है। इस श्लोकमें आया 'तस्मात्' पद भी ब्रह्माजीके उस सूक्ष्मशरीरका द्योतन करता है। ऐसा होनेपर भी यहाँ ब्रह्माजीके सूक्ष्मशरीर-(समष्टि मन, बुद्धि और अहंकार-) से भी पर अर्थात् अत्यन्त विलक्षण जो भावरूप अव्यक्त कहा गया है, वह ब्रह्माजीके सूक्ष्म-शरीरके साथ-साथ ब्रह्माजीके कारण-शरीर- (मूल प्रकृति-) से भी अत्यन्त विलक्षण है।ब्रह्माजीके सूक्ष्मशरीरसे पर दो तत्त्व हैं--मूल प्रकृति और परमात्मा। यहाँ प्रसङ्ग मूल प्रकृतिका नहीं है, प्रत्युत परमात्माका है। अतः इस श्लोकमें परमात्माको ही पर और श्रेष्ठ कहा गया है, जो सम्पूर्ण प्राणियोंके नष्ट होनेपर भी नष्ट नहीं होता। आगेके श्लोकमें भी 'अव्यक्तोऽक्षर' आदि पदोंसे उस परमात्माका ही वर्णन आया है। गीतामें प्राणियोंके अप्रकट होनेको अव्यक्त कहा गया है--'अव्यक्तादीनि भूतानि' (2। 28); ब्रह्माजीके सूक्ष्मशरीरको भी अव्यक्त कहा गया है (8। 18) प्रकृतिको भी अव्यक्त कहा गया है --'अव्यक्तमेव च' (13। 5) आदि। उन सबसे परमात्माका स्वरूप विलक्षण, श्रेष्ठ है, चाहे वह स्वरूप व्यक्त हो, चाहे अव्यक्त हो। वह भावरूप है अर्थात् किसी भी कालमें उसका अभाव हुआ नहीं, होगा नहीं और हो सकता भी नहीं। कारण कि वह सनातन है अर्थात् वह सदासे है और सदा ही रहेगा। इसलिये वह पर अर्थात् सर्वश्रेष्ठ है। उससे श्रेष्ठ कोई हो ही नहीं सकता और होनेकी सम्भावना भी नहीं है।

By - Swami Chinmayananda , in hindi

।।8.20।। विद्यालय की कक्षा में एक श्यामपट लगा होता है जिसका उपयोग एक ही दिन में अनेक अध्यापक विभिन्न विषयों को समझाने के लिए करते हैं। प्रत्येक अध्यापक अपने पूर्व के अध्यापक द्वारा श्यामपट पर लिखे अक्षरों को मिटाकर अपना विषय समझाता है। इस प्रकार गणित का अध्यापक अंकगणित या रेखागणित की आकृतियाँ खींचता है तो भूगोल पढ़ाने वाले अध्यापक नक्शों को जिनमें नदी पर्वत आदि का ज्ञान कराया जाता है। रासायन शास्त्र के शिक्षक रासायनिक क्रियाएँ एवं सूत्र समझाते हैं और इतिहास के शिक्षक पूर्वजों की वंश परम्पराओं का ज्ञान कराते हैं। प्रत्येक अध्यापक विभिन्न प्रकार के अंक आकृति चिह्न आदि के द्वारा अपने ज्ञान को व्यक्त करता है। यद्यप्ा सबके विषय आकृतियाँ भिन्नभिन्न थीं परन्तु उन सबके लिए उपयोग किया गया श्यामपट एक ही था।इसी प्रकार इस परिवर्तनशील जगत् के लिए भी जो कि अव्यक्त का व्यक्त रूप है एक अपरिवर्तनशील अधिष्ठान की आवश्यकता है जो सब भूतों के नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होता। जब संध्याकाल में सब विद्यार्थी और शिक्षक अपने घर चले जाते हैं तब भी वह श्यामपट अपने स्थान पर ही स्थित रहता है। यह चैतन्य तत्त्व जो स्वयं इन्द्रिय मन और बुद्धि के द्वारा अग्राह्य होने के कारण अव्यक्त कहलाता है इस जगत् का अधिष्ठान है जिसे भगवान् श्रीकृष्ण के इस कथन में इंगित किया गया है परन्तु इस अव्यक्त से परे अन्य सनातन अव्यक्त भाव है। इस प्रकार हम देखते है कि यहाँ व्यक्त सृष्टि के कारण को तथा चैतन्य तत्त्व दोनों को ही अव्यक्त कहा गया है। परन्तु दोनों में भेद यह है कि चैतन्य तत्त्व कभी भी व्यक्त होकर प्रमाणों का विषय नहीं बनता जबकि सृष्टि की कारणावस्था जो अव्यक्त कहलाती है कल्प के प्रारम्भ में सूक्ष्म तथा स्थूल रूप में व्यक्त भी होती है।अव्यक्त (वासनाएँ) व्यक्त सृष्टि की बीजावस्था है जिसे वेदान्त में अविद्या भी कहते हैं। अविद्या या अज्ञान स्वयं कोई वस्तु नहीं है किन्तु अज्ञान किसी विद्यमान वस्तु का ही हो सकता है। किसी मनुष्य को अपनी पूँछ का अज्ञान नहीं हो सकता क्योंकि पूँछ अभावरूप है। इससे एक भावरूप परमार्थ सत्य का अस्तित्व सिद्ध होता है। जैसे कक्षा में पढ़ाये गये विषय ज्ञान के लिए श्यामपट अधिष्ठान है वैसे ही इस सृष्टि के लिए यह चैतन्य तत्त्व आधार है। इस सत्य को नहीं जानना ही अविद्या है जो इस परिवर्तनशील नामरूपमय सृष्टि को व्यक्त करती है। पुनः पुनः सर्ग स्थिति और लय को प्राप्त होने वाली इस अविद्याजनित सृष्टि से परे जो तत्त्व है उसी का संकेत यहाँ सन्ाातन अव्यय भाव इन शब्दों द्वारा किया गया है।क्या यह अव्यक्त ही परम तत्त्व है अथवा इस सनातन अव्यय से परे श्रेष्ठ कोई भाव जीवन का लक्ष्य बनने योग्य है

By - Sri Anandgiri , in sanskrit

।।8.20।।अक्षरं ब्रह्म परममित्युपक्रम्य तदनुपयुक्तं किमिदमन्यदुक्तमित्याशङ्क्य वृत्तमनूद्यानन्तरग्रन्थसंगतिमाह -- यदुपन्यस्तमिति। अक्षरस्वरूपे निर्दिदिक्षिते तस्मिन्पूर्वोक्तयोगमार्गस्य कथमुपयोगः स्यादित्याशङ्क्य तत्प्राप्त्युपायत्वेनेत्याह -- अनेनेति। गन्तव्यमिति योगमार्गोक्तिरुपयुक्तेति शेषः। पूर्वोक्तादव्यक्तादिति संबन्धः। परशब्दस्य व्यतिरिक्तविषयत्वे तुशब्देन वैलक्षण्यमुक्त्वा पुनरन्यशब्दप्रयोगात्पौनरुक्त्यमित्याशङ्क्याह -- व्यतिरिक्तत्व इति। तुना द्योतितं वैलक्षण्यमन्यशब्देन प्रकटितम्। यतो भिन्नेष्वपि भावभेदेषु सालक्षण्यमालक्ष्यते ततश्चाव्यक्ताद्भिन्नत्वेऽपि ब्रह्मणस्तेन सादृश्यमाशङ्कते तन्निवृत्त्यर्थमन्यपदमित्यर्थः। यद्वा परशब्दस्य प्रकृष्टवाचिनो भावविशेषणार्थत्वे पुनरुक्तिशङ्कैव नास्तीति द्रष्टव्यम्। अनादिभावस्याक्षरस्याविनाशित्वमर्थसिद्धं समर्थयते -- यः स भाव इति। सर्वं हि विनश्यद्विकारजातं पुरुषान्तं विनश्यति स तु विनाशहेत्वभावान्न,विन(नं)ष्टुमर्हतीत्यर्थः।

By - Sri Dhanpati , in sanskrit

।।8.20।।अक्षरं ब्रह्म परममित्युपक्रम्योमित्येकाक्षरं ब्रह्मेत्यादिना तत्प्राप्त्युपाय उपदिष्टः अथेदानीमक्षरस्य प्राप्यस्य स्वरुपमाह -- पर इत्यादिना। तस्मात्त्वव्यक्ताद्भूतग्रामबीजभूताविद्यालक्षणात्परो व्यक्तिरिक्तो भिन्नः। अव्यक्तात् हिरण्यगर्भादिति वा। अस्मिन्पक्षेमहतः परमव्यक्तमव्यक्तात्पुरुषः परः। पुरुषान्न परं किंचित्सा काष्ठा सा परा गतिः इति श्रुत्या हरिण्यगर्भान्महानात्मेत्यनेन प्रतिपादितात्पत्वमव्यक्तशब्दप्रतिपादिताया मूलप्रकृतेरुक्तं तदनुरोधेनात्रापि हिरण्यगर्भात्परस्य मूलप्रकृतिबोधकस्याव्यक्तशब्दस्य ग्रहणः प्राप्तोतीति। इमं पक्षं विहायाचार्यैरव्यक्तात्पुरुषः परः इति श्रुतिरनुसृता। तुशब्दः संसारबीजभूतान्मूलप्रकृतिशब्दावाच्यादव्यक्तान्मोक्षाख्यस्य सकलप्रपञ्चशून्यस्य परमानन्दैकघनस्य परमात्मनोऽव्यक्तस्याक्षरस्य वैलक्षण्यद्योतनार्थः। भावः सत्तास्वरुपः अक्षराख्यं परं ब्रह्म। स्वरूपो व्यतिरिक्तत्वेऽपि लक्षणैक्यव्यावृत्त्यर्थं तुना द्योतितमर्थं तद्वाचकेनाप्याहान्य इति। विलक्षण इत्यर्थः। यद्वा परशब्दस्य प्रकृष्टवाचिनो भावे विशेषणार्थत्वेन पुनरुक्तिशंङ्कैव नास्तीत्येके। आचार्यैस्तु निकृष्टात्प्रकृष्टस्य विलक्षणत्वव्यतिरिक्तत्वध्रौव्याक्तुशब्दयोरुभयोरपि वैयथर्यमभिप्रेत्य सुगमत्वाद्वायं पक्षस्त्यक्तः। वैलक्षण्यं स्फुटयति। सनातनः चिरंतनः यः सर्वेषु भूतेषु हिरण्यगरभादिषु विनयश्यत्सु न विनश्यति स भावः परमात्मेत्यर्थः। तथाच सनातन्तवे सति अनश्वरत्वं परमात्मलक्षणं नाव्यक्त इति भावः।

By - Sri Madhavacharya , in sanskrit

।।8.20 -- 8.21।।अव्यक्तो भगवान्यं प्राप्य न निवर्तन्ते इतिमामुपेत्य [8।15] इत्यस्य परामर्शात्।अव्यक्तं परमं विष्णुं इति प्रयोगाच्च गारुडे। धाम स्वरूपं तेजस्स्वरूपंतेजस्स्वरूपं च गृहं प्राज्ञैर्धामेति गीयते इत्यभिधानात्।

By - Sri Neelkanth , in sanskrit

।।8.20।।एवं ब्रह्मभुवनान्तानामावृत्तिं व्याख्याय यत्प्राप्तानामावृत्तिर्नास्ति तदक्षरं परमं ब्रह्मेत्युपक्रान्तं वस्तु लक्षयति -- परस्तस्मादिति त्रिभिः। पर इति। तस्मादव्यक्ताद्भूतग्रामबीजभूतादविद्यालक्षणादनृतात् अन्योऽत्यन्तविलक्षणो भावः सत्ता। तुशब्दात्पराभिमतं सत्तासामान्यं वारयति। तस्य सामान्यादिभ्यो व्यावृत्तत्वात्। अस्य च सर्वानुगतत्वात्। सनातनो नित्यैकरूपः। उपाधिमान् हि उपाधिविक्रियया नित्यं विक्रियत इव भाति। अयं त्वनुपाधित्वान्नित्यैकरूप एव यः स भावः सर्वेषु भूतेषु वियदादिषु नश्यत्सु न विनश्यति केवलसत्तारूपत्वात्। एतेन तस्य कालत्रयाबाध्यत्वं नित्यत्वं चोक्तम्।

By - Sri Ramanujacharya , in sanskrit

।।8.20।।तस्माद् अव्यक्ताद् अचेतनप्रकृतिरूपात् पुरुषार्थतया पर उत्कृष्टो भावः अन्यो ज्ञानैकाकारतया तस्माद् विसजातीयः अव्यक्तः केनचित् प्रमाणेन न व्यज्यत इति अव्यक्तः स्वसंवेद्यसाधारणाकार इत्यर्थः। सनातनः उत्पत्तिविनाशानर्हतया नित्यः। यः सर्वेषु वियदादिषु भूतेषु सकारणेषु सकार्येषु विनश्यत्सु तत्र तत्र स्थितो अपि न विनश्यति।

By - Sri Sridhara Swami , in sanskrit

।।8.20।। लोकानामनित्यत्वं प्रपञ्चय परमेश्वरस्वरूपस्य नित्यत्वं प्रपञ्चयति -- पर इति द्वाभ्याम्। तस्माच्चराचरकारणभूतादव्यक्तात्परः तस्यापि कारणभूतो योऽन्यस्तद्विलक्षणोऽव्यक्तश्चक्षुराद्यगोचरो भावः सनातनोऽनादिः स तु सर्वेषु कार्यकारणलक्षणेषु भूतेषु नश्यत्स्वपि न विनश्यति।

By - Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha , in sanskrit

।।8.20।।परः इत्यादिश्लोकद्वयस्यार्थमाह -- अथेति।अयमभिप्रायः -- भगवन्तं प्राप्तानां पुनरावृत्तिः प्रागेवोक्ता अव्यक्तात्परत्वेन निर्दिष्टोऽक्षरश्च जीव एव भवितुमर्हतिअपरेयमितस्त्वन्याम् [7।5] इत्यादिप्रत्यभिज्ञानात् वक्तव्या च कैवल्यार्थिनामवरोहाभावादपुनरावृत्तिः। अत एव तत्परमेवेदं श्लोकद्वयम् -- इति। अव्यक्तस्यैव पूर्वप्रकृतत्वात् अत्रापिअव्यक्तात् इत्येव परभेदः। तस्य चापेक्षया परशब्दान्यशब्दाभ्यामप्यन्वयः। तत्र च पौनरुक्त्यव्युदासायोत्कृष्टत्वाभिधानमुखेन पुरुषार्थरूपत्वपरः परशब्दः। तत एव च स्वरूपभेदस्य सिद्धत्वादन्यशब्दः प्रकारान्यत्वपरः। अतः स च प्रकारभेदश्चेतनत्वरूप एव प्रमाणसिद्ध इत्यभिप्रायेणाह -- तस्मादिति। भावशब्दोऽत्र पदार्थमात्रवाची।व्यक्तः इति पदच्छेदो न युक्तःअव्यक्तोऽक्षरः इत्यत्रैवाभिधानात् दुर्ग्रहे च जीवे व्यक्तशब्दप्रयोगानुपपत्तेरित्यभिप्रायेणाह -- केनचिदिति। ननु जीवस्याव्यक्तत्वमयुक्तं प्रत्यक्षानुमानागमैर्यथासम्भवं तद्व्यक्तेः अन्यथा खपुष्पत्वप्रसङ्गादित्यत्राह -- स्वसंवेद्येति। प्रमाणान्तराणि हि साधारण्येन तत्प्रतिपादकानीति भावः। नित्यत्वे द्वितीयाध्यायोक्तहेतुस्मरणंउत्पत्तिविनाशानर्हतयेति। भूतशब्दोऽत्र महाभूतपरः तद्विनाशेऽप्यात्मस्थितवचनेन नित्यत्वस्यानायासादलभात्। तत्र सर्वशब्दाभिप्रायवशादेव सकारणत्वं सकार्यत्वं च सिद्धमित्यभिप्रायेणाहवियदादिष्विति। प्रसक्तो हि नाशो जीवे निषेध्यः प्रसङ्गश्चात्र नश्यत्पदार्थानुप्रवेशवशात् यथा तिलेषु दह्यमानेषु तदनुप्रविष्टं तैलमपि दह्यते ततश्च सर्वेषु भूतेषु नश्यत्स्वित्यस्यैव सामर्थ्यलब्धमुक्तंतत्र तत्र स्थितोऽपीतियः स सर्वेषु [मम इति सम्बन्धमात्रविधानस्य प्रागेव सिद्धेः स्थानस्य च स्थानिसापेक्षत्वनियमात् य आत्मनि तिष्ठन् [श.प.ब्रा.14।6।5।30] इत्याद्युक्तमधिष्ठेयं स्थानपर्यायं धामशब्देन विवक्षितमित्याहनियमनस्थानमिति। अत्र किमपरं नियमनस्थानं यद्व्यवच्छेदाय परमशब्दः इत्यत्राहअचेतनेति। अत्र परमधामत्वव्यपदेशात्परिशुद्धात्मविषयत्वं सिद्धम् ततश्चाशुद्धो जीवोऽप्यपर एव विवक्षित इत्याहतत्संसृष्टेति। यदि मुक्तोऽपि परमात्मपरतन्त्रः तर्हि स्वतन्त्रेण परमात्मना पुनरपि संसारगर्ते प्रक्षिप्येतेत्यत्राहतच्चेति।अयं भावः -- अविद्यादिर्हि संसारकारणम् न तु पारतन्त्र्यं अविद्यादेश्च प्रक्षयादीश्वरकारुण्यादीनां च स्वाभाविकत्वान्न मुक्तस्य संसारगन्ध इत्यर्थः। यद्वा न केवलं भगवत्प्राप्तिरेव अपुनरावृत्तिरूपा किन्तु परिशुद्धजीवप्राप्तिरपि अवरोहणाभावात्तथेति भावः।नियमनस्थानं इत्यस्याश्रितविशेषणोपादानारुचेराहअथ वेति। अस्तु धामशब्दस्तेजःपयार्यः प्रकाशवाची तस्य कथमत्रान्वयः इत्यत्राहप्रकाशश्चेति। विशेषणफलितं दर्शयति -- प्रकृतिसंसृष्टादिति। प्रकाशपक्षे -- तत् परमं धाम मम -- मच्छेषभूतम् -- इति वाक्यार्थः। यद्यपिअपरेयम् [7।5] इत्यादिना प्रागेव स्वशेषत्वमुक्तम् तथापि समष्टिचेतनमात्रविषयत्वं तत्र प्रतीयते इह तु मुक्तस्यापि स्वशेषत्वमुच्यत इत्यपौनरुक्त्यम्।

By - Sri Abhinavgupta , in sanskrit

।।8.20 -- 8.22।।सर्वतो लोकेभ्यः पुनरावत्तिः न तु मां परमेश्वरं (S K omit परमेश्वरम्) प्राप्य इति स्फुटयति -- पर इत्यादि प्रतिष्ठितमित्यन्तम्। उक्तप्रकारं कालसंकलनाविवर्जितं तु वासुदेवतत्त्वम्। व्यक्तम् सर्वानुगतम् तत्त्वेऽपि अव्यक्तम् दुष्प्रापत्वात्। तच्च भक्तिलभ्यमित्यावेदितं प्राक्। तत्रस्थं च एतद्विश्वं यत्खलु अविनाशिरूपं ( स्वरूपम्) सदा तथाभूतम्। तत्र कः पुनःशब्दस्य आवृत्तिशब्दस्य चार्थः स हि मध्ये तत्स्वभावविच्छेदापेक्षः। न च सदातनविश्वोत्तीर्णविश्वाव्यतिरिक्त -- विश्वप्रतिष्ठात्मक (SNK (n) विश्वनिष्ठात्मक -- ) परबोधस्वातन्त्र्यस्वभावस्य श्रीपरमेश्वरस्य तद्भावप्राप्तिः (N -- प्राप्तस्य) [ संभवति ] येन स्वभावविच्छेदः कोऽपि कदाप्यस्ति [इति कल्प्येत]। अतो युक्तमुक्ततम् मामुपेत्य तु (VIII 16) इति।

By - Sri Jayatritha , in sanskrit

।।8.20 -- 8.21।।इदानीमव्यक्ताख्यात्मेति यदुक्तं तत्साधयितुमाह -- अव्यक्त इति।मामुपेत्य [8।1516] इत्युक्तार्थस्ययं प्राप्य न निवर्तन्ते इत्यव्यक्तविषयतया परामर्शात्। न केवलमव्यक्तशब्दो युक्तिबलात् भगवति नीयते। किन्तु वाचकस्य तस्येत्याह -- अव्यक्तमिति। कथं तर्हि भगवता व्यक्तस्य स्वस्थानत्वमुच्यते इत्यत आह -- धामेति।

By - Sri Madhusudan Saraswati , in sanskrit

।।8.20।।एवमवशानामुत्पत्तिविनाशप्रदर्शनेनआब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनः इत्येतद्व्याख्यातं अधुनामामुपेत्य पुनर्जन्म न विद्यते इत्येतद्व्यांचष्टे द्वाभ्याम् -- तस्माच्चराचरस्थूलप्रपञ्चकारणभूताद्धिरण्यगर्भाख्यादव्यक्तात्परो व्यतिरिक्तः श्रेष्ठो वा,तस्यापि कारणभूतः। व्यतिरेकेऽपि सालक्षण्यं स्यादिति नेत्याह -- अन्योऽत्यन्तविलक्षणः।न तस्य प्रतिमा अस्ति इति श्रुतेः। अव्यक्तो रूपादिहीनतया चक्षुराद्यगोचरो भावः कल्पितेषु सर्वेषु कार्येषु सद्रूपेणानुगतः। अतएव सनातनो नित्यः। तुशब्दो हेयादनित्यादव्यक्तादुपादेयत्वं नित्यस्याव्यक्तस्य वैलक्षण्यं सूचयति। एतादृशो यो भावः हिरण्यगर्भ इव सर्वेषु भूतेषु नश्यत्स्वपि न विनश्यति उत्पद्यमानेष्वपि नोत्पद्यत इत्यर्थः। हिरण्यगर्भस्य तु कार्यस्य भूताभिमानित्वात्तदुत्पत्तिविनाशाभ्यां युक्तावेवोत्पत्तिविनाशौ नतु तदनभिमानिनोऽकार्यस्य परमेश्वरस्येति भावः।

By - Sri Purushottamji , in sanskrit

।।8.20।।एवं तेषां पुनरुद्गममुक्त्वा स्वप्राप्तौ तदभावाय स्वस्थानस्वरूपमाह -- परस्तस्मादिति। तुशब्देन पूर्वस्य परत्वं व्यावर्त्तयति तस्मात्पूर्वोत्पत्तिकारणात्मकादन्यो भावः अव्यक्तः तस्यापि मूलभूत इत्यर्थः। अव्यक्तात्सनातनः अनादिसिद्धः परः सर्वोत्तम इत्यर्थः। तत्स्वरूपमाह -- यः सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु सत्सु न विनश्यति न विकारमाप्नोतीत्यर्थः।

By - Sri Shankaracharya , in sanskrit

।।8.20।। --,परः व्यतिरिक्तः भिन्नः कुतः तस्मात् पूर्वोक्तात्। तुशब्दः अक्षरस्य विवक्षितस्य अव्यक्तात् वैलक्षण्यविशेषणार्थः। भावः अक्षराख्यं परं ब्रह्म। व्यतिरिक्तत्वे सत्यपि सालक्षण्यप्रसङ्गोऽस्तीति तद्विनिवृत्त्यर्थम् आह -- अन्यः इति। अन्यः विलक्षणः।,स च अव्यक्तः अनिन्द्रियगोचरः। परस्तस्मात् इत्युक्तम् कस्मात् पुनः परः पूर्वोक्तात् भूतग्रामबीजभूतात् अविद्यालक्षणात् अव्यक्तात्। अन्यः विलक्षणः भावः इत्यभिप्रायः। सनातनः चिरन्तनः यः सः भावः सर्वेषु भूतेषु ब्रह्मादिषु नश्यत्सु न विनश्यति।।

By - Sri Vallabhacharya , in sanskrit

।।8.20।।व्यक्तिसम्बन्धाद्व्यक्तसंज्ञको जीव आब्रह्मपर्यन्त उक्तः। तस्मात्क्षरादन्योऽव्यक्तः व्यक्तिरहितः परो गुणातीतश्च सनानतः व्यक्तिमत्सु सर्वेषु नश्यत्सु न नश्यति अनुच्छित्तिधर्मत्वात्।