अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तस्तमाहुः परमां गतिम्। यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम।।8.21।।
avyakto ’kṣhara ityuktas tam āhuḥ paramāṁ gatim yaṁ prāpya na nivartante tad dhāma paramaṁ mama
What is known as the Unmanifested and the Imperishable, That is said to be the highest goal. Those who reach It do not return (to this Samsara). That is My supreme abode (place or state).
8.21 अव्यक्तः unmanifested? अक्षरः imperishable? इति thus? उक्तः called? तम् That? आहुः (they) say? परमाम् the highest? गतिम् goal (path)? यम् which? प्राप्य having reached? न not? निवर्तन्ते return? तत् that? धाम abode (place or state)? परमम् highest? मम My.Commentary Para Brahman is called the Unmanifested because It cannot be perceived by the senses. It is called the Imperishable also. It is allpervading? allpermeating and interpenetrating. Para Brahman is the highest Goal. There is nothing higher than It. This is the true nondual state free from all sorts of limiting adjuncts. The attainment of Brahmaloka (the region of the Creator) etc.? is inferior to this. Only by realising the Self is one liberated from Samsara. (Cf.XII.3?XV.6)
।।8.21।। व्याख्या--'अव्यक्तोऽक्षर ৷৷. तद्धाम परमं मम'--भगवान्ने सातवें अध्यायके अट्ठाईसवें, उन्तीसवें और तीसवें श्लोकमें जिसको 'माम्', कहा है तथा आठवें अध्यायके तीसरे श्लोकमें 'अक्षरं ब्रह्म', चौथे श्लोकमें 'अधियज्ञः', पाँचवें और सातवें श्लोकमें 'माम्', आठवें श्लोकमें 'परमं पुरुषं दिव्यम्', नवें श्लोकमें 'कविं पुराणमनुशासितारम्' आदि, तेरहवें, चौदहवें, पन्द्रहवें और सोलहवें श्लोकमें 'माम्', बीसवें श्लोकमें,'अव्यक्तः' और 'सनातनः' कहा है, उन सबकी एकता करते हुए भगवान् कहते हैं कि उसीको अव्यक्त और अक्षर कहते हैं तथा उसीको परमगति अर्थात् सर्वश्रेष्ठ गति कहते हैं; और जिसको प्राप्त होनेपर जीव फिर लौटकर नहीं आते, वह मेरा परमधाम है अर्थात् मेरा सर्वोत्कृष्ट स्वरूप है। इस प्रकार जिस प्रापणीय वस्तुको अनेक रूपोंमें कहा गया है, उसकी यहाँ एकता की गयी है। ऐसे ही चौदहवें अध्यायके सत्ताईसवें श्लोकमें भी 'ब्रह्म, अविनाशी, अमृत, शाश्वत धर्म और ऐकान्तिक सुखका आश्रय मैं हूँ' ऐसा कहकर भगवान्ने प्रापणीय वस्तुकी एकता की है।लोगोंकी ऐसी धारणा रहती है कि सगुण-उपासनाका फल दूसरा है और निर्गुण-उपासनाका फल दूसरा है।,इस धारणाको दूर करनेके लिये इस श्लोकमें सबकी एकताका वर्णन किया गया है। मनुष्योंकी रुचि, विश्वास और योग्यताके अनुसार उपासनाके भिन्न-भिन्न प्रकार होते हैं, पर उनके अन्तिम फलमें कोई फरक नहीं होता। सबका प्रापणीय तत्त्व एक ही होता है। जैसे भोजनके प्राप्त न होनेपर अभावकी और प्राप्त होनेपर तृप्तिकी एकता होनेपर भी भोजनके पदार्थोंमें भिन्नता रहती है, ऐसे ही परमात्माके प्राप्त न होनेपर अभावकी और प्राप्त होनेपर पूर्णताकी एकता होनेपर भी उपासनाओंमें भिन्नता रहती है। तात्पर्य यह हुआ कि उस परमात्माको चाहे सगुण-निराकार मानकर उपासना करें, चाहे निर्गुण-निराकार मानकर उपासना करें और चाहे सगुण-साकार मानकर उपासना करें, अन्तमें सबको एक ही परमात्माकी प्राप्ति होती है।
।।8.21।। पूर्व श्लोक में जिसे सनातन अव्यय भाव कहा गया है जो अविनाशी रहता हैं उसे ही यहाँ अक्षर शब्द से इंगित किया गया है। अध्याय के प्रारम्भ में कहा गया था कि अक्षर तत्त्व ब्रह्म है जो समस्त विश्व का अधिष्ठान है। ँ़ या प्रणव उस ब्रह्म का वाचक या सूचक है जिस पर हमें ध्यान करने का उपदेश दिया गया था। यह अविनाशी चैतन्य स्वरूप आत्मा ही अव्यक्त प्रकृति को सत्ता एवं चेतनता प्रदान करता है जिसके कारण प्रकृति इस वैचित्र्यपूर्ण सृष्टि को व्यक्त करने में समर्थ होती है। यह सनातन अव्यक्त अक्षर आत्मतत्त्व ही मनुष्य के लिए प्राप्त करने योग्य पररम लक्ष्य है।संसार में जो कोई भी स्थिति या लक्ष्य हम प्राप्त करते हैं उससे बारम्बार लौटना पड़ता है। संसार शब्द का अर्थ ही है वह जो निरन्तर बदलता रहता है। निद्रा कोई जीवन का अन्त नहीं वरन् दो कर्मप्रधान जाग्रत अवस्थाओं के मध्य का विश्राम काल है उसी प्रकार मृत्यु भी जीवन की समाप्ति नहीं है। प्रायः वह जीव के दो विभिन्न शरीर धारण करने के मध्य का अव्यक्त अवस्था में विश्राम का क्षण होता है। यह पहले ही बताया जा चुका है कि ब्रह्मलोक तक के सभी लोक पुनरावर्ती हैं जहाँ से जीवों को पुनः अपनी वासनाओं के क्षय के लिए शरीर धारण करने पड़ते हैं। पुनर्जन्म दुःखालय कहा गया है इसलिए परम आनन्द का लक्ष्य वही होगा जहाँ से संसार का पुनरावर्तन नहीं होता।प्रायः वेदान्त के जिज्ञासु विद्यार्थी प्रश्न पूछते हैं कि आत्मसाक्षात्कार के पश्चात् पुनरावर्तन क्यों नहीं होगा यद्यपि ऐसा प्रश्न पूछना स्वाभाविक ही है तथापि वह क्षण भर के परीक्षण के समक्ष टिक नहीं सकता। सामान्यतः कारण की खोज उसी के सम्बन्ध में की जाती है जो वस्तु उत्पन्न होती है या जो घटना घटित होती हैं और न कि उसके सम्बन्ध में जो अनुत्पन्न या अघटित है कोई मुझे उत्सुकता से यह नहीं पूछता कि मैं अस्पताल में क्यों नहीं हूँ जबकि अस्पताल में जाने पर उसका कारण जानना उचित हो सकता है। हम यह पूछ सकते हैं कि अनन्त ब्रह्म परिच्छिन्न कैसे बन गया परन्तु इस प्रश्न का कोई औचित्य ही सिद्ध नहीं होता कि अनन्त वस्तु पुनः परिच्छिन्न क्यों नहीं बनेगी यह प्रश्न अत्युक्तिक इसलिए है कि यदि वस्तु अनन्तस्वरूप है तो वह न कभी परिच्छिन्न बनी थी और न कभी भविष्य में बन सकती है।एक छोटीसी बालिका को हम वैवाहिक जीवन के शारीरिक और भावुक पक्ष के सुखों का वर्णन करके नहीं बता सकते हैं और न समझा सकते हैं। उसमें उस विषय को समझने की शारीरिक और मानसिक परिपक्वता नहीं होती। बचपन में वह केवल यह चाहती है कि उसकी माँ उसका विवाह करे परन्तु वही बालिका युवावस्था में पदार्पण करने पर उस विषय को समझने योग्य बन जाती है। इसी कारण अन्तःकरण की अशुद्धि रूप गोबर के ढेर के अशुद्ध वातावरण में पड़ा हुआ व्यक्ति खुले आकाश में मन्दमन्द प्रवाहित समीर की सुगन्ध को कभी नहीं जान सकता। जब वह व्यक्ति उपदिष्ट ध्यानविधि के अभ्यास से उपाधियों के साथ हुए मिथ्या तादात्म्य को दूर कर देता है तब वह अपने शुद्ध अनन्तस्वरूप का साक्षात् अनुभव करता है। स्वप्न से जागने पर ही स्वप्न के मिथ्यात्व का बोध होता है अन्यथा नहीं और एक बार जाग्रत् अवस्था में आने के पश्चात् स्वप्न के सुख और दुःख के प्रभाव से मनुष्य सर्वथा मुक्त हो जाता है।यहाँ शुद्ध चैतन्यस्वरूप आत्मा को महर्षि व्यास जी ने काव्यात्मक शैली द्वारा श्रीकृष्ण के निवास स्थान के रूप में वर्णित किया है तद्धाम परमं मम। अनेक स्थलों पर यह स्पष्ट किया गया है कि गीता में भगवान् श्रीकृष्ण मैं शब्द का प्रयोग आत्मस्वरूप की दृष्टि से करते हैं। अतः यहाँ भी धाम शब्द से किसी स्थान विशेष से तात्पर्य नहीं वरन् उनके स्वरूप से ही है। यह आत्मानुभूति ही साधक का लक्ष्य है जो उसके लिए सदैव उपलब्ध भी है। ध्यान द्वारा परम दिव्य पुरुष की प्राप्ति के प्रकरण में इसका विस्तृत वर्णन किया जा चुका है।अब उस परम धाम की उपलब्धि का साक्षात् उपाय बताते हैं --
।।8.21।।यथोक्तेऽव्यक्ते भावे श्रुतिसंमतिमाह -- अव्यक्त इति। तस्य परमगतित्वं साधयति -- यं प्राप्येति। योऽसावव्यक्तो भावोऽत्र दर्शितः सयेनाक्षरं पुरुषं वेद सत्यम् इत्यादिश्रुतावक्षर इत्युक्तस्तं वाक्षरं भावं परमां गतिंपुरुषान्न परं किंचित्सा काष्ठा सा परा गतिः इत्याद्याः श्रुतयो वदन्तीत्याह -- योऽसाविति। परमपुरुषस्य परमगतित्वमुक्तं व्यनक्ति -- यं भावमिति।तद्विष्णोः परमं पदम् इति श्रुतिमत्र संवादयति -- तद्धामेति।
।।8.21।।योऽसौ अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तस्तमाहुः परमां गतिम्एतद्वै तदक्षरं गार्गि ब्राह्मणा अभिवदन्ति अस्थूलमनणुएतस्य वाऽक्षरस्य प्रशासने गार्गि सूर्याचन्द्रमसौ विधृतौ तिष्ठतः। एतस्मिन्नु खल्वक्षरे गार्गि आकाश ओतश्च प्रोतश्चपुरुषान्न परं किंचित्सा काष्ठा सा परा गतिः इत्यादिश्रुतयस्तमेवाक्षरसंज्ञकं अव्यक्तं भावे परमां प्रकृष्टां गतिं प्राप्यमाहुः। यं प्राप्यं भावं प्राप्य गत्वा पुनः संसाराय न निवर्तन्ते। जन्ममरणादिरुपां संसृतिं न प्राप्नुवन्ति। मम विषणोः परब्रह्मणः तत्परमं सर्वोत्कृष्टं धाम स्थानंतद्विष्णोः परमं पदम् इति श्रुतेः। श्रुतावत्र च राहोः शिर इतिवदभेदेऽपि भेदकल्पनया षष्ठी। अतोऽहमेव मोक्षाख्यं परमं स्थानमित्यर्थः।
।।8.20 -- 8.21।।अव्यक्तो भगवान्यं प्राप्य न निवर्तन्ते इतिमामुपेत्य [8।15] इत्यस्य परामर्शात्।अव्यक्तं परमं विष्णुं इति प्रयोगाच्च गारुडे। धाम स्वरूपं तेजस्स्वरूपंतेजस्स्वरूपं च गृहं प्राज्ञैर्धामेति गीयते इत्यभिधानात्।
।।8.21।।अव्यक्तो न व्यज्यत इति दृश्यत्वं निरस्तम्। अक्षरोऽश्नुते व्याप्नोतीति त्रिविधपरिच्छेदशून्यत्वमुक्तम्। तं भावं परमां गतिम्। ब्रह्मलोकान्ता गतिरपरमा। कार्यत्वात्। इयं तु परमा। कार्यकराणातीतत्वात्। आहुःएषास्य परमा गतिः इत्यादयः श्रुतयः। यं भावं प्राप्य न निवर्तन्ते पुनः संसारे न पतन्ति तदिति विधेयापेक्षं क्लीबत्वम्। स एव मम विष्णोः परममुपाध्यस्पृष्टं धाम प्रकाशःतद्विष्णोः परमं पदम् इति श्रुतिप्रसिद्धं निष्कलं ब्रह्म।
।।8.21।।सः अव्यक्तः अक्षर इति उक्तःये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते। (गीता 12।3)कूटस्थोऽक्षर उच्यते।। (गीता 15।16) इत्यादिषु तं वेदविदः परमां गतिम् आहुः अयम् एवयः प्रयाति त्यजन् देहं स याति परमां गतिम्।। इत्यत्र परमगतिशब्दनिर्दिष्टः अक्षरः प्रकृतिसंसर्गवियुक्तस्वरूपेण अवस्थित आत्मा इत्यर्थः।यम् एवंभूतं स्वरूपेणावस्थितम् प्राप्य न निवर्तन्ते तद् मम परमं धाम परमं नियमनस्थानम्। अचेतनप्रकृतिः एकं नियमनस्थानम् तत्संसृष्टरूपा जीवप्रकृतिः द्वितीयं नियमनस्थानम् अचित्संसर्गवियुक्तं स्वरूपेणावस्थितं मुक्तस्वरूपं परमं नियमनस्थानम् इत्यर्थः। तत् च अपुनरावृत्तिरूपम्।अथवा प्रकाशवाची धामशब्दः प्रकाशः च इह ज्ञानम् अभिप्रेतं प्रकृतिसंसृष्टात् परिच्छिन्नज्ञानरूपाद् आत्मनः अपरिच्छिन्नज्ञानरूपतया मुक्तस्वरूपं परं धाम।ज्ञानिनः प्राप्यं तु तस्माद् अत्यन्तविभक्तम् इत्याह --
।।8.21।।अविनाशे प्रमाणं दर्शयन्नाह -- अव्यक्त इति। यो भावः अव्यक्तोऽतीन्द्रियोऽक्षरः प्रवेशनाशशून्य इतितथाऽक्षरात्संभवतीह विश्वम् इत्यादिश्रुतिष्वक्षर इत्युक्तः तं परमां गतिं गम्यं पुरुषार्थमाहुःपुरुषान्न परं किंचित्सा काष्ठा सा परा गतिः इत्यादिश्रुतयः। परमगतित्वमेवाह -- यं प्राप्य न निवर्तन्त इति। तच्च ममैव धाम स्वरूपम्। ममैवेत्युपचारे षष्ठी राहोः शिर इतिवत्। अतोऽहमेव परमा गतिरित्यर्थः।
।। 8.21 परः इत्यादिश्लोकद्वयस्यार्थमाह -- अथेति।अयमभिप्रायः -- भगवन्तं प्राप्तानां पुनरावृत्तिः प्रागेवोक्ता अव्यक्तात्परत्वेन निर्दिष्टोऽक्षरश्च जीव एव भवितुमर्हतिअपरेयमितस्त्वन्याम् [7।5] इत्यादिप्रत्यभिज्ञानात् वक्तव्या च कैवल्यार्थिनामवरोहाभावादपुनरावृत्तिः। अत एव तत्परमेवेदं श्लोकद्वयम् -- इति। अव्यक्तस्यैव पूर्वप्रकृतत्वात् अत्रापिअव्यक्तात् इत्येव परभेदः। तस्य चापेक्षया परशब्दान्यशब्दाभ्यामप्यन्वयः। तत्र च पौनरुक्त्यव्युदासायोत्कृष्टत्वाभिधानमुखेन पुरुषार्थरूपत्वपरः परशब्दः। तत एव च स्वरूपभेदस्य सिद्धत्वादन्यशब्दः प्रकारान्यत्वपरः। अतः स च प्रकारभेदश्चेतनत्वरूप एव प्रमाणसिद्ध इत्यभिप्रायेणाह -- तस्मादिति। भावशब्दोऽत्र पदार्थमात्रवाची।व्यक्तः इति पदच्छेदो न युक्तःअव्यक्तोऽक्षरः इत्यत्रैवाभिधानात् दुर्ग्रहे च जीवे व्यक्तशब्दप्रयोगानुपपत्तेरित्यभिप्रायेणाह -- केनचिदिति। ननु जीवस्याव्यक्तत्वमयुक्तं प्रत्यक्षानुमानागमैर्यथासम्भवं तद्व्यक्तेः अन्यथा खपुष्पत्वप्रसङ्गादित्यत्राह -- स्वसंवेद्येति। प्रमाणान्तराणि हि साधारण्येन तत्प्रतिपादकानीति भावः। नित्यत्वे द्वितीयाध्यायोक्तहेतुस्मरणंउत्पत्तिविनाशानर्हतयेति। भूतशब्दोऽत्र महाभूतपरः तद्विनाशेऽप्यात्मस्थितवचनेन नित्यत्वस्यानायासादलभात्। तत्र सर्वशब्दाभिप्रायवशादेव सकारणत्वं सकार्यत्वं च सिद्धमित्यभिप्रायेणाहवियदादिष्विति। प्रसक्तो हि नाशो जीवे निषेध्यः प्रसङ्गश्चात्र नश्यत्पदार्थानुप्रवेशवशात् यथा तिलेषु दह्यमानेषु तदनुप्रविष्टं तैलमपि दह्यते ततश्च सर्वेषु भूतेषु नश्यत्स्वित्यस्यैव सामर्थ्यलब्धमुक्तंतत्र तत्र स्थितोऽपीतियः स सर्वेषु [मम इति सम्बन्धमात्रविधानस्य प्रागेव सिद्धेः स्थानस्य च स्थानिसापेक्षत्वनियमात् य आत्मनि तिष्ठन् [श.प.ब्रा.14।6।5।30] इत्याद्युक्तमधिष्ठेयं स्थानपर्यायं धामशब्देन विवक्षितमित्याहनियमनस्थानमिति। अत्र किमपरं नियमनस्थानं यद्व्यवच्छेदाय परमशब्दः इत्यत्राहअचेतनेति। अत्र परमधामत्वव्यपदेशात्परिशुद्धात्मविषयत्वं सिद्धम् ततश्चाशुद्धो जीवोऽप्यपर एव विवक्षित इत्याहतत्संसृष्टेति। यदि मुक्तोऽपि परमात्मपरतन्त्रः तर्हि स्वतन्त्रेण परमात्मना पुनरपि संसारगर्ते प्रक्षिप्येतेत्यत्राहतच्चेति।अयं भावः -- अविद्यादिर्हि संसारकारणम् न तु पारतन्त्र्यं अविद्यादेश्च प्रक्षयादीश्वरकारुण्यादीनां च स्वाभाविकत्वान्न मुक्तस्य संसारगन्ध इत्यर्थः। यद्वा न केवलं भगवत्प्राप्तिरेव अपुनरावृत्तिरूपा किन्तु परिशुद्धजीवप्राप्तिरपि अवरोहणाभावात्तथेति भावः।नियमनस्थानं इत्यस्याश्रितविशेषणोपादानारुचेराहअथ वेति। अस्तु धामशब्दस्तेजःपयार्यः प्रकाशवाची तस्य कथमत्रान्वयः इत्यत्राहप्रकाशश्चेति। विशेषणफलितं दर्शयति -- प्रकृतिसंसृष्टादिति। प्रकाशपक्षे -- तत् परमं धाम मम -- मच्छेषभूतम् -- इति वाक्यार्थः। यद्यपिअपरेयम् [7।5] इत्यादिना प्रागेव स्वशेषत्वमुक्तम् तथापि समष्टिचेतनमात्रविषयत्वं तत्र प्रतीयते इह तु मुक्तस्यापि स्वशेषत्वमुच्यत इत्यपौनरुक्त्यम्।
।।8.20 -- 8.22।।सर्वतो लोकेभ्यः पुनरावत्तिः न तु मां परमेश्वरं (S K omit परमेश्वरम्) प्राप्य इति स्फुटयति -- पर इत्यादि प्रतिष्ठितमित्यन्तम्। उक्तप्रकारं कालसंकलनाविवर्जितं तु वासुदेवतत्त्वम्। व्यक्तम् सर्वानुगतम् तत्त्वेऽपि अव्यक्तम् दुष्प्रापत्वात्। तच्च भक्तिलभ्यमित्यावेदितं प्राक्। तत्रस्थं च एतद्विश्वं यत्खलु अविनाशिरूपं ( स्वरूपम्) सदा तथाभूतम्। तत्र कः पुनःशब्दस्य आवृत्तिशब्दस्य चार्थः स हि मध्ये तत्स्वभावविच्छेदापेक्षः। न च सदातनविश्वोत्तीर्णविश्वाव्यतिरिक्त -- विश्वप्रतिष्ठात्मक (SNK (n) विश्वनिष्ठात्मक -- ) परबोधस्वातन्त्र्यस्वभावस्य श्रीपरमेश्वरस्य तद्भावप्राप्तिः (N -- प्राप्तस्य) [ संभवति ] येन स्वभावविच्छेदः कोऽपि कदाप्यस्ति [इति कल्प्येत]। अतो युक्तमुक्ततम् मामुपेत्य तु (VIII 16) इति।
।।8.20 -- 8.21।।इदानीमव्यक्ताख्यात्मेति यदुक्तं तत्साधयितुमाह -- अव्यक्त इति।मामुपेत्य [8।1516] इत्युक्तार्थस्ययं प्राप्य न निवर्तन्ते इत्यव्यक्तविषयतया परामर्शात्। न केवलमव्यक्तशब्दो युक्तिबलात् भगवति नीयते। किन्तु वाचकस्य तस्येत्याह -- अव्यक्तमिति। कथं तर्हि भगवता व्यक्तस्य स्वस्थानत्वमुच्यते इत्यत आह -- धामेति।
।।8.21।।यो भाव इहाव्यक्त इत्यक्षर इति चोक्तोऽन्यत्रापि श्रुतिषु स्मृतिषु च तं भावमाहुः श्रुतयः स्मृतयश्चपुरुषान्न परं किंचित्सा काष्ठा सा परा गतिः इत्याद्याः। परमामुत्पत्तिविनाशशून्यस्वप्रकाशपरमानन्दरूपां गतिं पुरुषार्थविश्रान्तिम्। यं भावं प्राप्य न पुनः निवर्तन्ते संसाराय तद्धाम स्वरूपं मम विष्णोः परमं सर्वोत्कृष्टम्। मम धामेति राहोः शिर इतिवद्भेदकल्पनया षष्ठी। अतोऽहमेव परमा गतिरित्यर्थः।
।।8.21।।एवमव्यक्तपरस्वरूपमुक्त्वा ज्ञानार्थं विशिनष्टि -- अव्यक्त इति। अव्यक्तः अप्रकटः ज्ञातुभशक्यो यो भावः स अक्षरः न क्षरति न चलति मच्चरणांशरूप इत्युक्तः तमक्षरं वेदादिविदः परमां परस्य अनुमेयां गतिमाहुः। ननु ते तस्य परमगतित्वं कुतो वदन्ति। इत्याशङ्क्याह -- यं प्राप्य न निवर्तन्ते इति। यत्स्थानं प्राप्य न निवर्तन्ते पुनर्जन्मानो न भवन्ति अतस्तथा वदन्तीत्यर्थः। तथात्वं तस्य स्वसम्बन्धादित्याह -- तदिति। तदक्षरात्मकं मम परममुत्कृष्टं धाम गृहमित्यर्थः। मद्गृहत्वात् पुनरावृत्तिर्न भवतीति भावः।
।।8.21।। --,योऽसौ अव्यक्तः अक्षरः इत्युक्तः तमेव अक्षरसंज्ञकम् अव्यक्तं भावम् आहुः परमां प्रकृष्टां गतिम्। यं परं भावं प्राप्य गत्वा न निवर्तन्ते संसाराय तत् धाम स्थानं परमं प्रकृष्टं मम विष्णोः परमं पदमित्यर्थः।।तल्लब्धेः उपायः उच्यते --,
।।8.21।।तथापि सोऽव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तः। न चाव्यक्तशब्देन जीवः प्रकृतिर्वाऽभिधेयायं प्राप्य न निवर्त्तन्ते इत्युक्तत्वात् जीवादौ तथात्वासम्भवात् तथा सति नित्यमुक्तत्वापत्त्या शास्त्रसाधनादिवैफल्यापत्तेश्च। अतएव ज्ञानमार्गीयाणां तत्प्राप्तिरेव मुक्तिरिति तदाह -- तमाहुः परमां गतिमिति। मम पुरुषोत्तमस्याधिष्ठानभूतं च तदित्याह -- परमं मम धामेति वैकुण्ठभुवनं तेजश्च प्रकाशात्मकम्सत्यं ज्ञानमनन्तं यद्ब्रह्म ज्योतिः सनातनम्। ते तु ब्रह्मह्रदं नीता मग्नाः कृष्णेन चोद्धृताः। ददृशुर्ब्रह्मणो लोकं इत्यादिवाक्यात् ततो भूतप्रकृतिवियुक्तात्मा गुणातिगो द्युभ्वाद्यायतनोऽनन्तरूपोऽगणितानन्दः सर्वधर्माश्रयः पुरुषप्रकृतिको ब्रह्मपदवाच्योऽक्षरोऽध्यात्मरूपं पुरुषोत्तमस्य धामतदाहुरक्षरं ब्रह्म सर्वकारणकारणम्। विष्णोर्धाम परं साक्षात् पुरुषस्य महात्मनः। इति वाक्यात्। सोऽयं ससाधनज्ञानलभ्यः अहं तु न तथाऽहैतुकभक्तिलभ्यत्वादित्याह।