न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय। उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु।।9.9।।
na cha māṁ tāni karmāṇi nibadhnanti dhanañjaya udāsīna-vad āsīnam asaktaṁ teṣhu karmasu
These acts do not bind Me, O Arjuna, sitting as one indifferent, unattached to those acts.
9.9 न not? च and? माम् Me? तानि these? कर्माणि acts? निबध्नन्ति bind? धनञ्जय O Dhananjaya? उदासीनवत् like one indifferent? आसीनम् sitting? असक्तम् unattached? तेषु in those? कर्मसु acts.Commentary These acts Creation and dissolution of the universe. I am the only cause of dissolution of the universe. I am the only cause of Nature and its activities and yet? being indifferent to everythin? I do nothing. Nor do I cause anything to be done.I remain as one neutral or indifferent or unconcerned. I have no attachment for the fruits of those actions. Further I have not go the egoistic feeling of agency I do this. I know that the Self is actionless. Therefore the actions involved in creation and dissolution do not bind Me.As in the case of Isvara so in the case of others also the absence of the egoistic feeling of agency and the absense of attachment to the fruits of action is the cause of freedom (from Dharma and Adharma? virtue and evil) The ignorant man who works with egoism and who expects rewards for his action is bound by his own actions like the silkworm in the cocoon.Just as the neutral referee or umpire in a cricket or football match is not affected by the victory or defeat of the parties? so also the Lord is not affected by the creation and destruction of this world as He remains unconcerned or indifferent and as He is a silent and changeless witness. (Cf.IV.14)
।।9.9।। व्याख्या--'उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु'--महासर्गके आदिमें प्रकृतिके परवश हुए प्राणियोंकी उनके कर्मोंके अनुसार विविध प्रकारसे रचनारूप जो कर्म है, उसमें मेरी आसक्ति नहीं है। कारण कि मैं उनमें उदासीनकी तरह रहता हूँ अर्थात् प्राणियोंके उत्पन्न होनेपर मैं हर्षित नहीं होता और उनके प्रकृतिमें लीन होनेपर मैं खिन्न नहीं होता।यहाँ 'उदासीनवत्' पदमें जो 'वत्'(वति) प्रत्यय है, उसका अर्थ तरह होता है अतः इस पदका अर्थ हुआ -- उदासीनकी तरह। भगवान्ने अपनेको उदासीनकी तरह क्यों कहा? कारण कि मनुष्य उसी वस्तुसे उदासीन होता है, जिस वस्तुकी वह सत्ता मानता है। परन्तु जिस संसारकी उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय होता है, उसकी भगवान्के सिवाय कोई स्वतन्त्र सत्ता ही नहीं है। इसलिये भगवान् उस संसारकी रचनारूप कर्मसे उदासीन क्या रहें? वे तो उदासीनकी तरह रहते हैं; क्योंकि भगवान्की दृष्टिमें संसारकी कोई सत्ता ही नहीं है। तात्पर्य है कि वास्तवमें यह सब भगवान्का ही स्वरूप है, इनकी स्वतन्त्र सत्ता है ही नहीं, तो अपने स्वरूपसे भगवान् क्या उदासीन रहें? इसलिये भगवान् उदासीनकी तरह हैं।
।।9.9।। एक परिच्छिन्न जीव को उसके अहंकारमूलक कर्म अपने संस्कार उसके अन्तकरण में अंकित करके कालान्तर में फलोन्मुख होकर उसे उत्पीड़ित करते हैं। सभी अहंकार केन्द्रित कर्म? जो कि सदा स्वार्थ से ही प्रेरित होते हैं? अपने कुरूप पदचिन्हों को मनरूपी समुद्र तट पर अंकित करते हैं? निरहंकार और निस्वार्थ भाव से किये गये कर्म नहीं जैसे? आकाश में विचरण करते हुए पक्षी अपने पदचिन्हों को पीछे नहीं छोड़ते। एक कृतघ्न पुत्र अपने पिता पर ही पदाघात करता है इसकी तुलना कीजिये? खेल में मग्न उस निष्पाप शिशु से जो अपने छोटेछोटे पैरों से अपने पिता को मार रहा हो यद्यपि पदाघात की क्रिया में समानता होने पर भी दोनों के अन्तर को समझने के लिए हमें किसी दार्शनिक की सूक्ष्म दृष्टि की आवश्यकता नहीं होती। जहाँ कहीं और जब कभी अहंकार और स्वार्थ से प्रेरित होकर कर्म किये जाते हैं? वे निश्चय ही दुखदायक वासनाओं को जन्म देते हैं।प्रकृति को चेतनता प्रदान करने और भूत समुदाय की पुनपुन रचना करने में परम पुरुष को न कोई राग है और न कोई द्वेष। इस सृष्टि चक्र के चलते रहने मात्र से वह सनातन परम पुरुष कभी प्रभावित नहीं होता। वे कर्म मुझे बांधते नहीं। कारण यह है कि वे कर्म न अहंकार मूलक हैं और न स्वार्थ से प्रेरित।चलचित्रगृह के श्वेत परदे पर दिखाया जाने वाला चलचित्र (सिनेमा) कितना ही दुखान्त और हत्यापूर्ण क्यों न हो? उसकी कथा कितनी ही अश्रुपूर्ण और उदासी भरी क्यों न हो? कितने ही आंधी और वर्षा के दृश्य उसमें क्यों न दिखाये गये हों सिनेमा की समाप्ति पर वह श्वेतपट न रक्तरंजित होता है और न अश्रुओं से भीगा ही होता है? और न तूफानों से वह क्षतिग्रस्त ही होता है। तथापि हम जानते हैं कि उस स्थिर अपरिवर्तित पट के बिना? छाया और प्रकाश के माध्यम से चित्रपट की कथा प्रदर्शित नहीं की जा सकती थी। उसी प्रकार? नित्य शुद्ध अनन्त आत्मा वह चिरस्थायी रंगमंच हैं? जिस पर दुखपूर्ण जीवन का नाटक अनेकत्व की भाषा में असंख्य जीवों के द्वारा निरन्तर अभिनीत होता रहता है? जो अपनी पूर्वाजित वासनाओं से विवश हुए निर्धारित भूमिकाओं को करते रहते हैं।रेल के पटरी से उतरने के कारण होने वाली भयंकर दुर्घटना के लिए इंजिन की वाष्प को दंडित नहीं किया जाता? और न ही गन्तव्य तक अपने समय पर सुरक्षित पहुँचने पर उसका अभिनन्दन ही किया जाता है। यह सत्य है कि उस वाष्प के बिना दुर्घटना नहीं हो सकती थी और न ही गन्तव्य की प्राप्ति क्योंकि उसके बिना इंजिन केवल निष्क्रिय? भारी लोहा ही होता है। रचनात्मक या विध्वंसात्मक कार्य करने की शक्ति इंजिन को वाष्प से ही प्राप्त होती है। इन सब घटनाओं में? उस वाष्प को इंजिन चलाने के प्रति न राग है और न द्वेष? इसलिए इन घटनाओं का उत्तरदायित्व उस पर थोप कर उसे बन्धन में नहीं डाला जाता। कर्म का प्रेरक उद्देश्य ही कर्म के फल्ा को निश्चित करता है।सम्पूर्ण शक्ति का स्रोत आत्मा है। वह मन को शक्ति प्रदान करता है। प्रत्येक मन वासनाओं का संचय मात्र है। शुभ वासनाओं से संस्कारित मन आनन्द और सामञ्जस्य का गीत गाता है? जबकि अशुभ वासनाएं मन को दुख से कराहने को बाध्य करती हैं। ग्रामोफोन की सुई रिकार्ड से बज रहे संगीत के लिए उत्तरदायी नहीं होती। जैसा रिकार्ड? वैसा संगीत। इसी प्रकार? आत्मा सनातन है? जिसे इसकी चिन्ता नहीं होती है कि किस प्रकार का जगत् उत्पन्न हुआ है। जगत् परिवर्तन के प्रति उसे किसी प्रकार की व्याकुलता नहीं होती। जगत् में जो कुछ हो रहा हो चाहे हत्या हो या प्राणोत्सर्ग सूर्यप्रकाश उसे प्रकाशित करता है। सूर्य का सम्बन्ध न हत्यारे के अप्ाराध से है और न बलिदानी पुरुष के गौरव से ही है। शुद्धचैतन्यस्वरूप आत्मा वासनारूपी प्रकृति को व्यक्त करने की क्षमता प्रदान करता है? फिर वे वासनाएं नरकयातना के लिए हों या गौरव ख्याति के लिए। उन कर्मों में असक्त और उदासीन के समान स्थित आत्मा को वे कर्म नहीं बांधते हैं।अनन्त और सान्त में निश्चित रूप से वह अद्भुत सम्बन्ध कौनसा है ऐसा कहा गया है कि सान्त प्रकृति अनन्त आत्मा के कारण कार्य करती है और फिर भी आत्मा उदासीन रहता है? वह कैसे
।।9.9।।यदि प्राकृतं भूतग्रामं स्वभावादविद्यादितन्त्रं विषमं विदधासि तर्हि तव विषमसृष्टिप्रयुक्तं धर्मादिमत्त्वमित्यनीश्वरत्वापत्तिरिति शङ्क्यते -- तर्हीति। तत्रेति सप्तम्या परमेश्वरो निरुच्यते। ईश्वरस्य फलासङ्गाभावात्कर्तृत्वाभिमानाभावाच्च कर्मासंबन्धवदीश्वरादन्यस्यापि तदुभयाभावो धर्माद्यसंबन्धे कारणमित्याह -- अतोऽन्यस्येति। यदि कर्मसु कर्तृत्वाभिमानो वा कस्यचित्कर्मफलसङ्गो वा स्यात्तत्राह -- अन्यथेति।
।।9.9।।ननु यथा जीवो विषमस्वभावत्वाद्वध्यते तथा त्वामपि देवनतिर्यगादिरुपविषमसृष्टिकर्तारं वैषम्यावशयंभावाद्धर्माधर्मादिकर्माणि कुतो न निबन्धन्तीत्याशङ्क्यास्य शुभं दास्याम्यस्याशुभमिति तत्तच्छुभाशुभदानात्म केषु कर्मस्वसक्तं यता कल्पवृक्षादिकमुदासी नं तत्तत्पुरुषस्य तत्तत्कर्मजन्यतत्तत्संकल्पानुसारितत्तत्फलोत्पत्तिकर्तारं तानि तानि कर्माणइ न निबन्धन्ति तथा मामपीत्याह -- नचेति। मामीश्वरं तानि भूतसमुदायस्य विष्टम्भविसर्गनिमित्तानि कर्माणि न निबन्धन्ति यथा युधिष्ठिरराजसूर्यार्थं धनं जेतुं प्रवृत्तं त्वां तत्र तत्र कृतानि निग्रहानुग्रहादीनि कर्माणि न निबन्धन्ति तत्तद्राज्ञः कर्मानुसारेण निरग्रहानुग्रहादीनां त्वया संपादितत्वादिति धनंजयेति संबोधनाभिसंधिः। कर्माणि मां न निबन्धन्तीत्युक्तं तत्र हेतुमाह -- उदासीनवदासीनमित्यादिना। तथाच फलासक्तिरहितस्याहंकरोमीत्यभिमानवर्जितस्य न तत्तत्कर्मभिर्बन्धः अतोऽन्यस्यापि फलासक्तिकर्तत्वाभावोऽबन्धस्य हेतुरन्यथा कोशकारवन्मूढः कर्मभिर्बध्यत इत्यभिप्रायः।
।।9.9।।उदासीनवत्? नतूदासीनः। तदर्थमाह -- असक्तमिति। अवाक्यनादरः [छां.उ.3।34।2] इति श्रुतिः।द्रव्यं कर्म च कालश्च स्वभावो जीव एव च। यदनुग्रहतः सन्ति न सन्ति यदुपेक्षया इति भागवते [2।10।12] यस्यासक्त्यैव सर्वकर्मशक्तिः कुतस्तस्य सर्वकर्मबन्धः इति भावः। न कर्मणा वर्धते नो कनीयान् [बृ.उ.4।4।23] इति हि श्रुतिः। यः कर्माणि नियामयति कथं च तं कर्म बध्नाति।
।।9.9 -- 9.10।।ननु विषमां सृष्टिं कुर्वतस्तव वैषम्यनैर्घृण्ये स्यातामत आह -- न चेति। तानि विषमसृष्टिरूपाणि कर्मामि मां न निबध्नन्ति। तत्र हेतुः उदासीनवदासीनमिति। यथा पर्जन्यो बीजविशेषेषु रागं केषुचिद्द्वेषं चाकृत्वा उदासीनः सन् वर्षति एवमीश्वरोऽपि पुण्यवत्सु रागं पापिषु द्वेषं चाकुर्वञ्जगत्सृजति। तत्तदसाधारणकर्मबीजवशात्ते ते विभिन्नं फलं प्राप्नुवन्तीति नेश्वरवैषम्यादीत्यर्थः। ननु विसृजामि। उदासीनवदासीनमिति परस्परविरुद्धमुच्यत इत्याशङ्क्याह -- मयेति। मया कूटस्थेन अध्यक्षेण अयस्कान्तकल्पेन प्रवर्तकेन प्रकृतिश्चराचरं जगत् सूयते उत्पादयति। अनेनाध्यक्षत्वेनैव हेतुना हे कौन्तेय? जगद्विपरिवर्तते जन्माद्यवस्थासु भ्रमति। अयस्कान्तवदहमुदासीनश्च सृष्टिप्रवर्तकश्च भवामीति भावः। तथा च मन्त्रवर्णःएको देवः सर्वभूतेषु गूढः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा। कर्माध्यक्षः सर्वभूताधिवासः साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च इति एकस्यैव देवस्य सर्वाध्यक्षत्वं साक्षित्वं च प्रतिपादयति।
।।9.9।।न च तानि विषमसृष्ट्यादीनि कर्माणि मां निबध्नन्ति मयि नैर्घृण्यादिकं न आपादयन्ति? यतः क्षेत्रज्ञानां पूर्वकृत्यानि एव कर्माणि देवादिविषमभावहेतवः अहं तु तत्र वैषम्ये असक्तः तत्र उदासीनवद् आसीनः। यथा आह सूत्रकारः -- वैषम्यनैर्घृण्ये न सापेक्षत्वात् (ब्र0 सू0 2।1।34) न कर्माविभागादिति चेन्नानादित्वात् (ब्र0 सू0 2।1।35) इति।
।।9.9।। ननु एवं नानाविधानि कर्माणि कुर्वतस्तव जीववद्वन्धः कथं न स्यादित्याशङ्क्याह -- नचेति। तानि सृष्ट्यादीनि कर्माणि मां न निबध्न्ति। कर्मासक्तिर्हि बन्धहेतुः सा चाप्तकामत्वान्मम नास्त्यत उदासीनवद्वर्तमानस्य मे बन्धनं नापादयन्ति? उदासीनत्वे कर्तृत्वानुपपत्तेरुदासीनवत्स्थितमित्युक्तम्।
।।9.9।।न च मां तानि कर्माणि इत्येतन्न पुण्यपापरूपकर्मविषयम्? तस्याप्रस्तुतत्वेनतानि इति परामर्शायोगात् सृष्टिसंहारादेश्च प्रसक्तत्वात्तत्परामर्श एवोचितः तस्य दोषरूपत्वमपि सृज्यदेवादिवैषम्यादिना द्योतितमिति तन्निरासार्थोऽयं श्लोक इत्यभिप्रायेणाह -- एवं तर्हीति।सृष्ट्यादीनीत्यादिशब्देन स्थितिसंहारनिग्रहानुग्रहादिसङ्ग्रहः।नैर्घृण्यादीत्यादिशब्देन पक्षपातित्वाव्यवस्थितत्वादि सङ्गृह्यते।निबध्नन्ति इति न संसाररूपो बन्ध उच्यते? जगत्सृष्ट्यादेः संसारहेतुत्वाश्रवणात्? परोक्तधर्माधर्मसम्बन्धशङ्काप्रसङ्गाभावात्? दौर्जन्ये सत्यपीश्वरस्य नियामकाभावात् अतो नैर्घृण्यादिरूपदोषानुबन्ध एवात्र शङ्कितः प्रतिषिध्यत इत्याहमयीति। चः शङ्कानिवृत्त्यर्थः। सृष्टिवैषम्ये प्रयोजकमभिप्रेतमाहयत इति।स्वशक्त्या वस्तु वस्तुतां [वि.पु.1।4।52]कर्मभिर्भाविताः पूर्वैः [वि.पु.1।5।26]आब्रह्मस्तम्बपर्यन्ता जगदन्तर्व्यवस्थिताः। प्राणिनः कर्मजनितसंसारवशवर्तिनः [वि.ध.104।23।36]वाचिकैः पक्षिमृगतां मानसैरन्त्यजातिताम् [मनुः12।9]अविद्या कर्मसंज्ञान्या तृतीया शक्तिरिष्यते। यया क्षेत्रज्ञशक्तिः सा वेष्टिता नृप सर्वगा।।संसारतापानखिलानवाप्नोत्यतिसन्ततान्। तया तिरोहितत्वाच्च शक्तिः क्षेत्रज्ञसंज्ञिता।।सर्वभूतेषु भूपाल तारतम्येन [वर्तते] लक्ष्यते [वि.पु.6।7।6163़] इत्यादिभिः सिद्धोऽयमर्थः।तेषु कर्मस्वसक्तम् इत्युक्ते सति अकर्तृत्वादिभ्रमः स्यादिति तन्निरासायोक्तंतत्र वैषम्य इति।असक्तः प्रयोजकत्वरूपसम्बन्धरहित इत्यर्थः। असक्तत्वे दृष्टान्त उच्यतेउदासीनवदासीन इति। यथा कस्मिंश्चित्कर्मणि उदासीनस्तत्र प्रयोजकत्वरूपसम्बन्धरहितः? तथा कर्ताऽप्यसौ तस्मिन्नंशे। यद्वा उदासीनवदासीन इत्यर्थः। तेन कर्मानुष्ठानदशायामीश्वरस्य वैषम्यादुदासीनत्वमेवोच्यते। विषमसृष्टेः,कर्मसापेक्षत्वे जीवानां तत्कर्मप्रवाहाणां च अनादितया प्रलयकालेऽपि तत्सद्भावे सूत्रद्वयं दर्शयति -- वैषम्येति।
।।9.9 -- 9.10।।न चेति। मयेति। न च मेऽस्ति कर्मबन्धः? औदासीन्येन वर्तमानोऽहं यतः। अत एवाहं जगन्निर्माणे अनाश्रितव्यापारत्वात् हेतुः।
।।9.9।।स्वतः कर्तृत्वे कथमुदासीनत्वमुच्यते इति चेत्? न वतिना तस्य निषिद्धत्वादिति भावेनाह -- उदासीनवदिति। अनुदासीनत्वेऽपि वतिर्व्यर्थः स्यात्? अन्यस्य तदर्थस्याभावादित्यत आह -- तदर्थमिति। वत्यर्थं सादृश्यं स्वयमेव विवृणोतीत्यर्थः। परमेश्वरस्य कर्मसु सक्त्यभावे प्रमाणमाह -- अवाक्येति। सर्वथोदासीन एव किं न स्यात् इति चेत्? न तथा सति प्रकृत्यादीनामसत्त्वप्रसङ्गादिति भावेनाह -- द्रव्यमिति। यदीश्वरस्य स्वतः कर्तृत्वं स्यात्तदाउदासीनं इत्येतत्?न तु मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति इत्यत्र कथं हेतुः स्यात् इत्यत आह -- यस्येति। असक्त्या अनादरेणानायासेनेति यावत्। भगवतोऽपि कर्मबन्धोऽस्तीति केषाञ्चित्प्रलापः? यथाविष्णुर्येन दशावतारगहने क्षिप्तो महासङ्कटे [भ.नी.श.92] इत्यादि तन्निरासाय श्रुत्युपपत्ती प्राह -- न कर्मणेति। नियामयति नियच्छति।
।।9.9।।अतः नच नैव सृष्टिस्थितिप्रलयाख्यानि तानि मायाविनेव स्वप्नदृशेव च मया क्रियमाणानि मां निबध्नन्ति अनुग्रहनिग्रहाभ्यां न सुकृतदुष्कृतभागिनं कुर्वन्ति मिथ्याभूतत्वात्। हे धनंजय? युधिष्ठिरराजसूयार्थं सर्वान्राज्ञो जित्वा धनमाहृतवानिति महान्प्रभावः सूचितः प्रोत्साहनार्थम्। तानि कर्माणि कुतो न बध्नन्ति तत्राह -- उदासीनवदासीनं? यथा कश्चिदुपेक्षको द्वयोर्विवदमानयोर्जयपराजयासंसर्गी तत्कृतहर्षविषादाभ्यामसंसृष्टो निर्विकार आस्ते तद्वन्निर्विकारतयाऽसीनम्। द्वयोर्विवदमानयोरीहाभावादुपेक्षकत्वमात्रसाधर्म्येण वतिप्रत्ययः।,अतएव निर्विकारत्वात्तेषु सृष्ट्यादिकर्मस्वसक्तं अहं करोमीत्यभिमानलक्षणेन सङ्गेन रहितं मां न निबध्नन्ति कर्माणीति युक्तमेव। अन्यस्यापि हि कर्तृत्वाभावे फलसङ्गाभावे च कर्माणि न बन्धकारणानीत्युक्तमनेन? तदुभयसत्त्वे तु कोशकार इव कर्मभिर्बध्यते मूढ इत्यभिप्रायः।
।।9.9।।ननु रमणात्मकशक्तिवशसृष्टानि तानि त्वां वशीकृत्य प्रपञ्चरमण एवं कथं न स्थापयन्ति इत्याशङ्क्याह -- न च मामिति। हे धनञ्जय लौकिकपरवशैकचित्त तानि भूतानि उदासीनवत् आसीनं तेषु? परमकृपया कृतार्थीकरणार्थं तेषु तिष्ठन्तं मां न निबध्नन्ति न वशीकुर्वन्ति। च पुनः कर्माणि क्रीडात्मकानि च मां न वशीकुर्वन्ति। कुतः तेषु कर्मसु क्रीडात्मकेष्वपि असक्तमनासक्तम्? आत्मारामत्वात् शक्तिषु रसदानार्थं क्रीडाकरणात्। एतदेवोक्तंवैकुण्ठः कल्पितो येन लोको लोकनमस्कृतः। रमया प्रार्थ्यमानेन देव्या तत्प्रियकाम्यया [भाग.8।5।5] इति।
।।9.9।। --,न च माम् ईश्वरं तानि भूतग्रामस्य विषमसर्गनिमित्तानि कर्माणि निबध्नन्ति धनंजय। तत्र कर्मणां असंबन्धित्वे कारणमाह -- उदासीनवत् आसीनं यथा उदासीनः उपेक्षकः कश्चित् तद्वत् आसीनम्? आत्मनः अविक्रियत्वात्? असक्तं फलासङ्गरहितम्? अभिमानवर्जितम् अहं करोमि इति तेषु कर्मसु। अतः अन्यस्यापि कर्तृत्वाभिमानाभावः फलासङ्गाभावश्च असंबन्धकारणम्? अन्यथा कर्मभिः बध्यते मूढः कोशकारवत् इत्यभिप्रायः।।तत्र भूतग्राममिमं विसृजामि उदासीनवदासीनम् इति च विरुद्धम् उच्यते? इति तत्परिहारार्थम् आह --,
।।9.9।।नचैवं विषमकर्मकरणे मम नैर्घृण्यादिबन्धोऽसक्तत्वादित्याह -- न च मामिति। असाधारणमहिमत्वद्योतकानि न मां बध्नन्ति नैर्घृण्यादिबन्धं नापादयन्ति? यतो जीवात्मनां प्राकृतानि कर्माणि तानि च देवादिभावहेतूनि। अहं तु तेषु कर्मसु प्रकृतौ च उदासीनवदितिमाया परैत्यभिमुखे च विलज्जमाना इत्यादिवाक्यात्। वैषम्यनैर्घृण्यं च सक्तस्य कर्मिणो भवति? न चासक्तस्य। यथाऽऽह सूत्रकारः -- वैषम्यनैर्घृण्ये न सापेक्षत्वात्तथाहि दर्शयतिन कर्माविभागादिति चेत? न अनादित्वात् [ब्र.सू.2।1।3435] इति।