अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च। न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते।।9.24।।
ahaṁ hi sarva-yajñānāṁ bhoktā cha prabhureva cha na tu mām abhijānanti tattvenātaśh chyavanti te
For I alone am the enjoyer and Lord of all sacrifices; but they do not know Me in reality, and thus they return to this mortal world.
9.24 अहम् I? हि verily? सर्वयज्ञानाम् of all sacrifices? भोक्ता enjoyer? च and? प्रभुः Lord? एव alone? च and? न not? तु but? माम् Me? अभिजानन्ति know? तत्त्वेन in essence (or in reality)? अतः hence? च्यवन्ति fall? ते they.Commentary They do not know that I? the Supreme Self? am the enjoyer of all sacrifices enjoined in the Vedas and the Smritis (the codes of right conduct) and the Lord of all sacrifices. As I am the inner Ruler of this world I am the Lord of all sacrifices (Vide chapter VIII. 4 -- Adhiyajnohamevatra I am the presiding deity of the sacrifice). I am at the beginning and at the end of every sacrifice and yet these people worship other gods. Therefore they worship in ignorance. As they worhsip other gods without recognising Me? and as they have not consecrated their actions to Me? they return to this mortal world after their merits are exhausted from the plane to which they had attained as the result of their sacrifices.Those who are devoted to other gods and who worship Me in ignorance (Avidhipurvakam) also get the fruit of sacrifice. How (Cf.V.29XV.9)
।।9.24।। व्याख्या--[दूसरे अध्यायमें भगवान्ने कहा है कि जो भोग और ऐश्वर्यमें अत्यन्त आसक्त हैं, वे 'मेरेको केवल परमात्माकी तरफ ही चलना है' -- ऐसा निश्चय नहीं कर सकते (2। 44)। अतः परमात्माकी तरफ चलनेमें दो बाधाएँ मुख्य हैं-- अपनेको भोगोंका भोक्ता मानना और अपनेको संग्रहका मालिक मानना। इन दोनोंसे ही मनुष्यकी बुद्धि उलटी हो जाती है, जिससे वह परमात्मासे सर्वथा विमुख हो जाता है। जैसे, बचनपमें बालक माँके बिना रह नहीं सकता पर बड़ा होनेपर जब उसका विवाह हो जाता है, तब वह स्त्रीसे 'मेरी स्त्री है' ऐसा सम्बन्ध जोड़कर उसका भोक्ता और मालिक बन जाता है। फिर उसको माँ उतनी अच्छी नहीं लगती, सुहाती नहीं। ऐसे ही जब यह जीव भोग और ऐश्वर्यमें लग जाता है अर्थात् अपनेको भोगोंका भोक्ता और संग्रहका मालिक मानकर उनका दास बन जाता है और भगवान्से सर्वथा विमुख हो जाता है, तो फिर उसको यह बात याद ही नहीं रहती कि सबके भोक्ता और मालिक भगवान् हैं। इसीसे उसका पतन हो जाता है। परन्तु जब इस जीवको चेत हो जाता है कि वास्तवमें मात्र भोगोंके भोक्ता और मात्र ऐश्वर्यके मालिक भगवान् ही हैं, तो फिर वह भगवान्में लग जाता है, ठीक रास्तेपर आ जाता है। फिर उसका पतन नहीं होता।] 'अहं हि सर्वयज्ञानां (टिप्पणी प0 510.1) भोक्ता च प्रभुरेव च'-- शास्त्रकी आज्ञाके अनुसार मनुष्य यज्ञ, दान, तप, तीर्थ, व्रत आदि जितने शुभकर्म करते हैं तथा अपने वर्ण-आश्रमकी मर्यादाके अनुसार जितने व्यावहारिक और शारीरिक कर्तव्य-कर्म करते हैं, उन सब कर्मोंका भोक्ता अर्थात् फलभागी मैं हूँ। कारण कि वेदोंमें, शास्त्रोंमें, पुराणोंमें, स्मृतिग्रन्थोंमें प्राणियोंके लिये शुभकर्मोंका जो विधान किया गया है, वह सब-का-सब मेरा ही बनाया हुआ है, और मेरेको देनेके लिये ही बनाया हुआ है,जिससे ये प्राणी सम्पूर्ण कर्तव्य-कर्मोंसे और उनके फलोंसे सर्वथा निर्लिप्त रहें, कभी अपने स्वरूपसे च्युत न हों और अनन्य भावसे केवल मेरेमें ही लगे रहें। अतः उन सम्पूर्ण शुभ-कर्मोंका और व्यावहारिक तथा शारीरिक कर्तव्य-कर्मोंका भोक्ता मैं ही हूँ।जैसे सम्पूर्ण यज्ञोंका भोक्ता (फलभागी) मैं ही हूँ, ऐसे ही सम्पूर्ण संसारका अर्थात् सम्पूर्ण लोक, पदार्थ, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति, क्रिया और प्राणियोंके शरीर, मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ आदिका मालिक भी मैं ही हूँ। कारण कि अपनी प्रसन्नताके लिये ही मैंने अपनेमेंसे इस सम्पूर्ण सृष्टिकी रचना की है; अतः इन सबकी रचना करनेवाला होनेसे इनका मालिक मैं ही हूँ। विशेष बात भगवान्का भोक्ता बनना क्या है? भगवान्ने कहा है कि महात्माओंकी दृष्टिमें सब कुछ वासुदेव ही है (7। 19) और मेरी दृष्टिमें भी सत्-असत् सबकुछ मैं ही हूँ (9। 19)। जब सब कुछ मैं ही हूँ, तो कोई किसी देवताकी पुष्टिके लिये यज्ञ करता है, उस यज्ञके द्वारा देवतारूपमें मेरी ही पुष्टि होती है। कोई किसीको दान देता है, तो दान लेनेवालेके रूपमें मेरा ही अभाव दूर होता है, उससे मेरी ही सहायता होती है। कोई तप करता है, तो उस तपसे तपस्वीके रूपमें मेरेको ही सुख-शान्ति मिलती है। कोई किसीको भोजन कराता है, तो उस भोजनसे प्राणोंके रूपमें मेरी ही तृप्ति होती है। कोई शौचस्नान करता है, तो उससे उस मनुष्यके रूपमें मेरेको ही प्रसन्नता होती है। कोई पेड़-पौधोंको खाद देता है,उनको जलसे सींचता है तो वह खाद और जल पेड़-पौधोंके रूपमें मेरेको ही मिलता है और उनसे मेरी ही पुष्टि होती है। कोई किसी दीनदुःखी, अपाहिजकी तन-मन-धनसे सेवा करता है तो वह मेरी ही सेवा होती है। कोई वैद्यडाक्टर किसी रोगीका इलाज करता है, तो वह इलाज मेरा ही होता है। कोई कुत्तोंको रोटी डालता है कबूतरोंको दाना डालता है गायोंकी सेवा करता है भूखोंको अन्न देता है प्यासोंको जल पिलाता है तो उन सबके रूपमें मेरी ही सेवा होती है। उन सब वस्तुओंको मैं ही ग्रहण करता हूँ (टिप्पणी प0 510.2)। जैसे कोई किसी मनुष्यकी सेवा करे, उसके किसी अङ्गकी सेवा करे, उसके कुटुम्बकी सेवा करे, तो वह सब सेवा उस मनुष्यकी ही होती है। ऐसे ही मनुष्य जहाँकहीं सेवा करे, जिस-किसीकी सहायता करे, वह सेवा और सहायता मेरेको ही मिलती है। कारण कि मेरे बिना अन्य कोई है ही नहीं। मैं ही अनेक रूपोंमें प्रकट हुआ हूँ -- 'बहु स्यां प्रजायेय' (तैत्तिरीय0 2। 6)। तात्पर्य यह हुआ कि अनेक रूपोंमें सब कुछ ग्रहण करना ही भगवान्का भोक्ता बनना है।भगवान्का मालिक बनना क्या हैभगवत्तत्त्वको जाननेवाले भक्तोंकी दृष्टिमें अपरा और पराप्रकृतिरूप मात्र संसारके मालिक भगवान् ही हैं। संसारमात्रपर उनका ही अधिकार है। सृष्टिकी रचना करें या न करें, संसारकी स्थिति रखें या न रखें, प्रलय करें या न करें प्राणियोंको चाहे जहाँ रखें, उनका चाहे जैसा संचालन करें, चाहे जैसा उपभोग करें,अपनी मरजीके मुताबिक चाहे जैसा परिवर्तन करें, आदि मात्र परिवर्तन-परिवर्द्धन करनेमें भगवान्की बिलकुल स्वतन्त्रता है। तात्पर्य यह हुआ कि जैसे भोगी पुरुष भोग और संग्रहका चाहे जैसा उपभोग करनेमें स्वतन्त्र है (जबकि उसकी स्वतन्त्रता मानी हुई है, वास्तवमें नहीं है), ऐसे ही भगवान् मात्र संसारका चाहे जैसा परिवर्तनपरिवर्द्धन करनेमें सर्वथा स्वतन्त्र हैं। भगवान्की वह स्वतन्त्रता वास्तविक है। यही भगवान्का मालिक बनना है।
।।9.24।। सभी यज्ञों का भोक्ता और स्वामी एक आत्मा ही है। आत्मा ही विभिन्न देवता शरीरों में व्यक्त हुआ है? जिसके कारण उन देवताओं को अपनीअपनी सार्मथ्य प्राप्त हुई है। उनका कृपाप्रसाद प्राप्त करने के लिए भक्तजन उनकी आराधना करते हैं। भगवान् यहाँ कहते हैं कि श्रद्धापूर्वक इन पूजकों द्वारा जिन देवताओं का यज्ञादि में आह्वान किया जाता है? उनका मूल अव्ययस्वरूप मैं ही हूँ। यह पूजा चाहे मन्दिर में हो या मस्जिद में? गिरजाघर में हो या गुरुद्वारे में। परन्तु क्योंकि वे मेरी परिच्छिन्न शक्तियों के अधिष्ठाता देवताओं की ही पूजा करते हैं? इसलिए वे मुझे अपने आत्मरूप में नहीं जानते? जो अनन्तस्वरूप हैं। परिणाम यह होता है कि पुन संसार के शोकमोह और असंख्य बन्धनों में घिर जाते हैं।इसी सिद्धांत को व्यावहारिक जीवन में लागू करें? तो ज्ञात होगा कि उन सभी कार्यक्षेत्रों में जहाँ लोग परिश्रम (यज्ञ) करते हैं? वह सदैव किसी न किसी अनित्य लाभ या फल (देवता) को प्राप्त करने के लिए ही होता है। वे आध्यात्मिक विकास के लिए परिश्रम नहीं करते? जिससे कि वे अपने शुद्ध आत्मस्वरूप को पहचान सकें। कामुकता की फिसलन भरी ढलान पर चलते हुए वे क्रूर पाशविकता के स्तर तक गिर जाते हैं? जो कि मानव के पद और प्रतिष्ठा पर एक बड़ा कलंक है।पूर्ण सुख और सन्तोष? परम शान्ति और समाधान हृदय के अन्तरतम भाग में स्थित हैं? न कि बाह्य जगत् के लाभ और सफलता में? यश और कीर्ति में। हृदय में स्थित इस शाश्वत लाभ की ओर ध्यान न देकर? कामनाओं के बिच्छुओं से दंशित अविवेकी मनुष्य इतस्तत दौड़ते हैं? और इस प्रकार अपने साथसाथ उस मार्ग पर चलने वाले अन्य लोगों के लिए भी दुर्व्यवस्था और दुख उत्पन्न करते हैं। जब ऐसे मोहित लोगों की पीढ़ी स्वच्छन्दता को प्रोत्साहित कर उपभोग का ही जीवन जीती है? और एक क्षण भी रुककर अपने कर्मों का मूल्यांकन करने पर कदापि ध्यान नहीं देती? तब अवश्य ही? उस पीढ़ी का इतिहास विस्फोटित जगत् के मुख पर? उसी विस्फोट से मृत और अपंग हुए लोगों के उस रक्त से लिखा जाता हैं? जो पुत्रों और पतियों से वियुक्त हुई माताओं और विधवाओं के अश्रुओं से मिश्रित होता है। निश्चय ही? वे र्मत्यलोक के दुखों को पुन लौटते हैं।हम यह कैसे कह सकते हैं कि अविधिपूर्वक पूजन करने पर भी वे भक्तजन किसी फल को प्राप्त करते हैं इस पर कहते हैं --
।।9.24।।ननु वस्वादित्येन्द्रादिज्ञानपूर्वकमेव तद्भक्तास्तद्याजिनो भवन्तीति कथमविधिपूर्वकं तेषां यजनमिति शङ्कते -- कस्मादिति। देवतान्तरयाजिनां यजनमविधिपूर्वकमित्यत्र हेत्वर्थत्वेन श्लोकमुत्थापयति -- उच्यत इति। सर्वेषां द्विविधानां यज्ञानां वस्वादिदेवतात्वेनाहमेव भोक्ता स्वेनान्तर्यामिरूपेण प्रभुश्चाहमेवेति प्रसिद्धमेतदिति हिशब्दः। प्रभुरेव चेत्युक्तं विवृणोति -- मत्स्वामिको हीति। तत्र पूर्वाध्यायगतवाक्यं प्रमाणयति -- अधियज्ञोऽहमिति। तथापि देवतान्तरयाजिनां यजनमविधिपूर्वकमिति कुतः सिद्धं तत्राह -- तथेति। ममैव यज्ञेषु भोक्तृत्वे प्रभुत्वे च सतीति यावत्। तयोर्भोक्तृप्रभ्वोर्भावस्तत्त्वं तेन भोक्तृत्वेन प्रभुत्वेन च मां यथावद्यतो न जानन्त्यतो भोक्तृत्वादिना ममाज्ञानान्मय्यनर्पितकर्माणश्चयवन्ते कर्मफलादित्याह -- अतश्चेति।
।।9.24।।एतदेव स्फोरयति -- अहमिति। सर्वयज्ञानां श्रौतानां स्मार्तानां च देवतारुपेण भोक्तन्तर्यामिरुपेण फलप्रदातृरुपेण प्रभूरेव चाहं हि प्रसिद्धमेतत्। तथा चैतादृशं मा यतस्तत्त्वेन ये नाभिजानन्तिं अतोऽविथोपूर्वकमिष्ट्वा यागफलभोगान्ते च्यवन्ति ते मर्त्यलोकं विशन्ति।
।।9.24।।कारणमाह विधिपूर्वकत्वे -- अहं हीति।
।।9.24।।हि यतः सर्वयज्ञानामहमेव सर्वदेवतारूपेण भोक्ता प्रभुः फलदाता च। एवं सति ते मां प्रत्यगभिन्नं तत्त्वेन याथातथ्येन न जानन्ति अतश्च्यवन्ति ज्ञाननिष्ठामलब्ध्वा संसारगर्ते पतन्ति।
।।9.24।।प्रभुः एव च तत्र तत्र फलप्रदाता च अहम् एव इत्यर्थः।अहो महद् इदं वैचित्र्यं यद् एकस्मिन् एव कर्मणि वर्तमानाः संकल्पमात्रभेदेन केचिद् अत्यल्पफलभागिनः,च्यवनस्वभावाः च भवन्ति? केचन अनवधिकातिशयानन्दपरमपुरुषप्राप्तिरूपफलभागिनः अपुनरावर्त्तिनः च भवन्ति? इति आह --
।।9.24।।एतदेव विवृणोति -- अहं हीति। सर्वेषां यज्ञानां तत्तद्देवतारूपेणाहमेव भोक्ता प्रभुश्च स्वामी फलदातापि चाहमेवेत्यर्थः। एवंभूतं मां ते तत्त्वेन यथावन्नाभिजानन्ति अतश्च्यवन्ति प्रच्यवन्ते पुनरावर्तन्ते। येतु सर्वदेवतासु मामेवान्तर्यामिणं पश्यन्तो यजन्ति ते तु नावर्तन्ते।
।।9.24।।अविधिपूर्वकत्वविवरणरूपतां? तथाविधस्यात्यन्तनैष्फल्यशङ्कापरिहाररूपतां चअहं हि इति श्लोकस्य दर्शयतिअत इति। सर्वशब्देनेन्द्राद्युद्देशेन क्रियमाणानामित्यभिप्रेतम्।आराध्यश्चेति भोक्तृशब्दाभिप्रेतोक्तिः।च्यवन्ति इत्यनेन कुतश्चिदिति सिद्धम्? तच्च तत्तत्कर्मसाध्यमस्थिरं फलमेवेतियान्ति इत्यनन्तरश्लोकवशाद्वाक्यान्तराच्च लब्धम् तदाहपरिमितेत्यादिना। फलस्य परिमितत्वं देशतः कालतः स्वरूपतश्च। अतस्तद्भागिनां च्यवनस्वभावता। प्रभुशब्दस्यात्रगतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी [9।18] इत्यादिष्विव शास्तृत्वादिविवक्षाव्युदासाय योग्यमर्थमाहतत्रतत्रेति। सूत्रं च -- फलमत उपपत्तेः [ब्र.सू.3।2।38] इति। यथेन्द्राद्याराधनतया प्रयोगेऽपि तत्रतत्र फलप्रदोऽहम्? न तथा मदाराधनत्वेऽन्यः फलप्रद इत्येवकारार्थः।
।।9.23 -- 9.25।।येऽपीत्यादि प्रयतात्मनः इत्यन्तम्। येऽपि नामधेयान्तरैरुपासते तेऽपि मामेवोपासते। न हि ब्रह्मव्यतिरेकि किञ्चिदुपास्यमस्ति। किन्तु अविधिना इति विशेषः। अविधिः अन्यो विधिः। नानाप्रकारैर्विधभिरहमेव परब्रह्मसत्तास्वभावो याज्य इति।न तु यथा अन्यैर्दर्शनान्तरदूषणसमुपार्जितमहापातकम (S? omit पातक -- ) -- लीमसैर्व्याख्यातम् अविधिना? दुष्टविधिना इति। एवं हि सति मामेव यजन्ते? सर्वयज्ञानाञ्चाहमेव भोक्ता इति दृश्यमानमेतदसमञ्जसीभवेत् इत्यलं कल्मषकलिलैस्साकं संलापेन।अस्मद्गुरवस्तु निरूपयन्ति -- अन्या स्वात्मव्यतिरिक्ता भेदवादनयेन ब्रह्मस्वभावहीनैव काचिद्देवता इति गृहीत्वा तामेव [ये] यजन्ते तेऽपि वस्तुतो मामेव स्वात्मरूपं यजन्ते? किं तु अविधिना दुष्टेन विधिना भेदग्रहणरूपेण,(S? भेदग्रहरूपेण) इति।अत एवाह -- न तु मां स्वात्मानं तत्त्वेन देवतारूपतया भोक्तृत्वेन जानन्ति? अतश्चलन्ति ते,(S? ? N च्यवन्ते) मद्रूपात्। किम् देवव्रतत्वेन देवान् यान्ति इत्यादि। एतदेव चलनमिति,(S??N च्यवन) यावत्। ये तु मत्स्वरूपमभेदेन (?N -- स्वरूपभेदे (दं) न विदुः? ते देवभूतपितृयागादिनाऽपि मामेव यजन्ते (N यजन्ति)। ते च मद्याजिनो मामेव गच्छन्ति (N यजन्ति) इत्युपसंहरिष्यति।ननु द्रव्यत्यागार्थमुद्दिष्टा देवता इत्युच्यते। तत् कथमनुद्दिश्यस्वात्मतत्त्वस्य याज्यत्वम् आदित्यः प्रायणीयश्चरुः इति विधिशेषभूतदेवता उद्देशात्मकविध्यन्तरभावितो (?N प्रभावितो) ह्यसौ उद्देशः (श्यः)। न च स्वात्मविषयो (S??N omit विषयो) विधिरस्ति इत्यभिप्रायेणाह -- अविधिपूर्वकं मामिति। स्वात्मव्यतिरिक्तायां देवतायामस्ति अपेक्ष्यो विधिः? अप्राप्तप्रापणरूपत्वात्। स्वात्मा तु परमेश्वरो न विधिपूर्वकः? विधिपरिप्रापितत्त्वाभावात् (S??N -- परिप्राप्यत्वाभावात्)। न हि तदनुद्देशेन किञ्चित्प्रवर्तते। तेन विधिपरिप्रापितेन्द्रादिदेवतोद्देशेषु सर्वेषु स (S omits सः) स्वात्मा विश्वावभासनस्वभावः तदुद्देश्यदेवतावभासभित्ति (?N substitutes -- भित्ति with मिति -- ) स्थानीयतयैव अहमहमिकया सततावभासमानः स्रक्सूत्रकल्पः सततोद्दिष्टः इति युक्तिसिद्धमेतत्? मामेव यजन्ति अविधिपूर्वकत्वात् [इति]। मुख्यभूतमत्प्राप्तिफलस्य तान्प्रति कर्त्रभिप्रायत्वं नास्ति? अपि तु परिमितदक्षिणास्थानीयेन्द्रादिपद ( -- येन्द्रपदातिमात्र N येन्द्रपदादि K (n) -- इन्द्रादिपदमात्र -- ) -- मात्रप्राप्तेरेव (? K (n) प्राप्तय एव N प्राप्त एव) याजकवच्चरितार्थत्वमेषाम् इति प्रथयितुं परस्मैपदम्। यदुक्तं मयैव -- वेदान् वेद न वेद शाम्भवपदं दूयेत निर्वेदवान् स्वर्गार्थी यजमानतां प्रतिजहज्जातो यजन् याजकः।सर्वाः कर्मरसप्रवाहविसराः (K प्रसराः) संवित्स्रवन्त्योऽखिलाः स्त्वामा (स्वात्मा) नन्दमहाम्बुधिं विदधते नाप्राप्य पूर्णां, स्थितिम्।।इतिएवं य उक्तक्रमेण वेत्ति तस्येन्द्रादिदेवतायागोऽपि परमेश्वरयाग इति।
।।9.24।।अहं क्रतुः [9।16] इत्यादिनोक्तत्वादहं हीति पुनरुक्तिरित्यत आह -- कारणमिति। त्रैविद्यादिकृतानां यज्ञानां भगवांश्चेद्भोक्ता कथं तर्ह्यविधिपूर्वकत्वं इति शङ्कायामिति शेषः।
।।9.24।।अविधिपूर्वकत्वं विवृण्वन्फलप्रच्युतिममीषामाह -- अहं भगवान्वासुदेव एव सर्वेषां यज्ञानां श्रौतानां स्मार्तानां च तत्तद्देवतारूपेण भोक्ता च स्वेनान्तर्यामिरूपेण अधियज्ञत्वात्प्रभुश्च फलदाता चेति प्रसिद्धमेतत्। देवतान्तरयाजिनस्तु मामीदृशं तत्त्वेन भोक्तृत्वेन प्रभुत्वेन च भगवान्वासुदेव एव वस्वादिरूपेण यज्ञानां भोक्ता स्वेन रूपेण च फलदाता न तदन्योऽस्ति कश्चिदाराध्य इत्येवंरूपेण न जानन्ति। अतो मत्स्वरूपापरिज्ञानान्महतायासेनेष्ट्वापि मय्यर्पितकर्माणस्तत्तद्देवलोकं धूमादिमार्गेण गत्वा तद्भोगान्ते च्यवन्ति प्रच्यवन्ते। तद्भोगजनककर्मक्षयात्तद्देहादिवियुक्ताः पुनर्देहग्रहणाय मनुष्यलोकं प्रत्यावर्तन्ते। ये तु तत्तद्देवतासु भगवन्तमेव सर्वान्तर्यामिणं पश्यन्तो यजन्ते ते भगवदर्पितकर्माणस्तद्विद्यासहितकर्मवशादर्चिरादिमार्गेण ब्रह्मलोकं गत्वा तत्रोत्पन्नसम्यग्दर्शनास्तद्भोगान्ते मुच्यन्त इति विवेकः।
।।9.24।।विधिहीनरूपमाह -- अहमिति। हि निश्चयेन सर्वयज्ञानां भोक्ता तदधिष्ठातृदेवानां मदंशत्वात्तद्रूपेण अहं भोक्ता। चकारेण तद्रूपोऽपि। प्रभुरेव च? फलदाता चेत्यर्थः। एवकारेण৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷. द्वितीयचकारेण च सर्वप्रभुत्वेन भोक्तृत्वेऽपि मदेकांशप्रीणनमेव भवति? न तु सर्वप्रभुमत्प्रीतिरिति ज्ञापितम्। एतादृशं मां तु पुनस्तत्त्वेन मूलरूपेण न अभितः सर्वप्रकारेण जानन्तियावान् यश्चास्मि (तत्त्वतः) यादृशः [18।55] इति। अतस्ते च्यवन्ति पर्यावर्तन्ते। मत्तो वा च्यवन्ति भ्रश्यन्ति। अत्रायं भावः -- भगवदंशदेवताभजनत्वेन यज्ञादिना वा यत्फलं भवति तन्महाप्रभुभजनेन भवतिमूलनिषेकः शाखायामपि इति न्यायेन प्रभुभजने तेऽपि प्रसीदन्ति? तद्भजने त एव प्रसीदन्ति तदंशप्राकट्य च भवेत्। अत एव युधिष्ठिरेण श्रीभागवतेक्रतुराजेन गोविन्द राजसूयेन पावनीः। यक्ष्ये विभूतीर्भवतस्तत्सम्पादय नः प्रभो [10।72।3] इति विज्ञापितम्। तेन भगवदिच्छया भगवद्भजनं कुर्वता तदिच्छां ज्ञात्वा तदंशप्राकट्यं चेत्तदा तद्रीत्यैव৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷. कार्यमन्यथा न कार्यमेतदज्ञानात्तत्त्वज्ञानाभावः।
।।9.24।। -- अहं हि सर्वयज्ञानां श्रौतानां स्मार्तानां च सर्वेषां यज्ञानां देवतात्मत्वेन भोक्ता च प्रभुः एव च। मत्स्वामिको हि यज्ञः? अधियज्ञोऽहमेवात्र (गीता 8।4) इति हि उक्तम्। तथा न तु माम् अभिजानन्ति तत्त्वेन यथावत्। अतश्च अविधिपूर्वकम् इष्ट्वा यागफलात् च्यवन्ति प्रच्यवन्ते ते।।येऽपि अन्यदेवताभक्तिमत्त्वेन अविधिपूर्वकं यजन्ते? तेषामपि यागफलं अवश्यंभावि। कथम् --,
।।9.24।।एतदेव विवृणोति -- अहं हीति। मदङ्गभूतेषु मे शरीरतयाऽवस्थितेषु तेष्विन्द्रादिदेवेष्वात्मतयाऽवस्थितोऽहमेव सर्वयज्ञानां भोक्ता प्रभुः फलदाता। चकाराद्यज्ञादिरूपस्तत्साधनादिरूपश्च। न हि स्वहस्तादिकृतं नात्मकृतं भवतीति केनाप्युपलभ्यते पत्रादिनिष्ठकृतिर्न मूलभूतकृतंति च परं तथा तत्त्वेन मूलत्वेन तु मां नाभिजानन्ति कर्मजडाः अतोऽन्तवत्फलभोगादपि पुनश्चयवन्ति। स्वर्गादितः अन्यभावाच्च्यवन्ति पुनः पतन्तीत्यर्थ। ततो भावभेद एव फलभेदे हेतुरुक्तः।