समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः। ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्।।9.29।।
samo ’haṁ sarva-bhūteṣhu na me dveṣhyo ’sti na priyaḥ ye bhajanti tu māṁ bhaktyā mayi te teṣhu chāpyaham
I am the same to all beings; there is none hateful or dear to Me; but those who worship Me with devotion are in Me, and I am also in them.
9.29 समः the same? अहम् I? सर्वभूतेषु in all beings? न not? मे to Me? द्वेष्यः hateful? अस्ति is? न not? प्रियः dear? ये who? भजन्ति worship? तु but? माम् Me? भक्त्या with devotion? मयि in Me? ते they? तेषु in them? च and? अपि also? अहम् I.Commentary The Lord has an even outlook towards all. He regards all living beings alike. None He has condemned? none has He favoured. He is the enemy of none. He is the partial lover of none. He does not favour some and frown on others. The egoistic man only has created a wide gulf between himself and the Supreme Being by his wrong attitude. The Lord is closer to him that his own breath? nearer than his hands and feet.I am like fire. Just as fire removes cold from those who draw near it but does not remove the cold from those who keep away from it? even so I bestow My grace on My devotees? but not owing to any sort of attachment on My part. Just as the light of the sun? though pervading everywhere? is reflected only in a clean mirror but not in a pot? so also I? the Supreme Lord? present everywhere? manifest Myself only in those persons from whose minds all kinds of impurities (which have accumulated there on account of ignorance) have been removed by their devotion.The sun has neither attachment for the mirror nor hatred for the pot. The Kalpavriksha has neither hatred nor love for people. It bestows the desired objects only on those who go near it. (Cf.VII.17XII.14and20)Now hear the glory of devotion to Me.
।।9.29।। व्याख्या--'समोऽहं सर्वभूतेषु'-- मैं स्थावरजंगम आदि सम्पूर्ण प्राणियोंमें व्यापकरूपसे और कृपादृष्टिसे सम हूँ। तात्पर्य है कि मैं सबमें समानरूपसे व्यापक, परिपूर्ण हूँ --'मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना' (गीता 9। 4), और मेरी सबपर समानरूपसे कृपादृष्टि है--'सुहृदं सर्वभूतानाम्' (गीता 5। 29)।
।।9.29।। भूतमात्र में व्याप्त आत्मा एक ही है वही एक चैतन्य तत्त्व प्राणिमात्र के अन्तकरण की भावनाओं एवं विचारों को प्रकाशित करता है। मैं समस्त भूतों में सम हूँ। एक सूर्य जगत् की सभी वस्तुओं को प्रकाशित करता है और उसकी किरणें सभी वस्तुओं की सतहों पर से परावर्तित होती हैं चाहे वह सतह पाषाण की हो या किसी रत्न की।मुझे न कोई अप्रिय है और न कोई प्रिय यदि एक ही आत्मा? श्रीकृष्ण और बुद्ध में? आचार्य शंकर और ईसामसीह में? एक पागल और हत्यारे में तथा साधु और दुष्ट में रमती है तो क्या कारण है कि कोईकोई पुरुष तो इस आत्मा को पहचान पाते हैं? जबकि अन्य लोग कृत्रिम कीटों के समान जीवन जीते हैं भक्तिमार्ग की विवेचना करने वाले भावना प्रधान साहित्य में उपर्युक्त वैषम्य का भावुक स्पष्टीकरण दिया जाता है। उनके अनुसार ईश्वर की कृपा के कारण किन्हीं किन्हीं पुरुषों में दिव्यता अधिक मात्रा में अभिव्यक्त होती है। यह स्पष्टीकरण उन लोगों के लिए पर्याप्त या सन्तोषजनक हो सकता है? जो धर्मविषयक चर्चा में अपनी बौद्धिक क्षमता का अधिक उपयोग नहीं करते हैं। परन्तु बुद्धिमान विचारी पुरुषों को यह स्पष्टीकरण असंगत जान पड़ेगा? क्योंकि उस स्थिति में यह मानना पड़ेगा कि परमात्मा कुछ लोगों के प्रति पक्षपात करते हैं। इस प्रकार की दोषपूर्ण व्याख्या का खण्डन और शुद्ध तर्क संगत सिद्धांत का प्रतिपादन करते हुए भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि आत्मा भूतमात्र में सदा एक समान भाव से स्थित है। उसके लिए शुभ और अशुभ का भेदभाव नहीं है आत्मा को किसी प्राणी के प्रति न प्रेम विशेष है और न किसी अन्य के प्रति द्वेष।इसका अर्थ यह नहीं समझना चाहिए कि आत्मा कोई शक्तिहीन जड़ तत्त्व है। सूर्य की उपमा द्वारा इस श्लोक का आशय सम्यक् प्रकार से समझा जा सकता है। यद्यपि एक ही सूर्य जगत् की विविध प्रकार की वस्तुओं पर प्रतिबिम्बत या परावर्तित होता है? तथापि यह भी सत्य है कि परावर्तित प्रकाश की स्पष्टता एवं प्रखरता परावर्तन के माध्यम की सतह के गुणों पर निर्भर करेगी। एक खुरदरे पाषाण पर प्रकाश की न्यूनतम मात्रा परावर्तित होगी? जबकि स्वच्छ चमकीले दर्पण पर सम्भवत सर्वाधिक होगी।इस भेद के कारण सूर्य पर यह आरोप नहीं लगाया जा सकता कि उसे दर्पण के प्रति विशेष प्रेम है और पाषाण के प्रति घृणा। इस उपमा को आन्तरिक जीवन में लागू करके देखें? तो यह स्पष्ट होगा कि यदि स्वर्णिमहृदय के कुछ विरले लोगों में आध्यात्मिक सौन्दर्य एवं सार्मथ्य अधिक मात्रा में व्यक्त होती है और अनेक पाषाणी हृदयों के व्यक्तियों में रंचमात्र भी नहीं? तो इसका कारण विभिन्न उपाधियां हैं? और न कि आत्मा। आत्मा न किसी को वरीयता देता है और न किसी के प्रति उसका पूर्वाग्रह ही है। हमें जो विषमता अनुभव होती है? वह सर्वथा प्रकृति के नियमानुसार ही है।प्रथम पंक्ति में परमात्मा का पक्षपातरहित स्वरूप दिखाया? और फिर कहते हैं कि? परन्तु जो मुझे भक्तिपूर्वक भजते हैं? वे मुझमें और मैं भी उनमें हूँ। इन दोनों पंक्तियों में विरोधाभास प्रत्यक्ष होते हुए भी वास्तविकता ऐसी नहीं हैं। यह सत्य है कि परमात्मा को किसी से राग या द्वेष नहीं है? किन्तु लोगों का उनके प्रति अवश्य ही राग या द्वेष हो सकता है। जिन्हें ईश्वर से प्रेम है? वे लोग उनके समीप पहुँचना चाहते हैं और अन्य लोग उनसे दूर ही रहते हैं। इस प्रकार जो भक्तिपूर्वक परमात्मा की पूजा करते हैं वे अन्त में अपने पूज्य और ध्येय को आत्मस्वरूप में साक्षात् अनुभव करते हैं? अर्थात् उन्हें यह ज्ञान होता है कि वास्तव में वे परमात्मस्वरूप से एक ही हैं? भिन्न नहीं।जो मुझे भक्तिपूर्वक भजते हैं प्रारम्भ में इसका अर्थ कर्मकाण्डीय पूजा के विविध विधान से समझा जा सकता है। उसके आध्यात्मिक अभिप्राय को समझने के लिए सूक्ष्म और गम्भीर अध्ययन की आवश्यकता है। मूलत पूजा वह साधन प्रकिया है? जिसके द्वारा सम्पूर्ण वृत्तिरूपी सैन्य को संगठित करके उन्हें ध्यान के दिव्य ध्येय की ओर प्रवृत्त किया जाता है। इसमें प्रयत्न यह होता है कि ध्येय सत्य के साथ पूर्ण तादात्म्य? पूर्ण एकत्व स्थापित हो जाय। यह साधना भक्तिपूर्वक करने से भक्त भगवान् से? ध्याता ध्येय से तद्रूप हो जाता है।इस अभिप्राय को ध्यान में रखकर इस श्लोक का पुन अध्ययन करने पर भगवान् के सैद्धांतिक कथन का अर्थ स्पष्ट हो जाता है। यद्यपि सत्स्वरूप आत्मा को किसी से कोई पक्षपात नहीं है? परन्तु किन्हींकिन्हीं शुद्धांतकरण के भक्तजनों में अपने परमात्मस्वरूप की पहचान के कारण इस दिव्यत्व की अभिव्यक्ति होती है।अनात्म उपाधियों के साथ आत्मबुद्धि से अत्यधिक आसक्ति के कारण जीव पूर्णत्व के आनन्द का अनुभव नहीं कर पाता है। परन्तु जब इस आसक्ति और बहिर्मुखी प्रवृत्तियों का वह परित्याग कर देता है? तब ज्ञान प्राप्ति का अधिकारी बन कर अपने आत्मस्वरूप के साथ एकरूप हो जाता है। मनुष्य के मन की स्थिति उसके बद्धत्व या मुक्तत्व का द्योतक है। बहिर्मुखी मन अनित्य विषयों में सुख की खोज करते हुए उनसे बँध जाता है और सदा दुख और निराशा के कारण कराहता रहता है जबकि वही मन अन्तर्मुखी होकर आत्मचिन्तन के द्वारा आत्मानुभव को प्राप्त करता है।शीतकाल में अपने कमरे के अन्दर बैठकर कोई व्यक्ति अत्यधिक शीत का अनुभव करता है? जबकि अन्य व्यक्ति बाहर सूर्य की खुली धूप में बैठकर सूर्य की उष्णता का आनन्द लेता है। सूर्य को बाहर बैठे व्यक्ति से न प्रेम है और न कमरे में बैठे व्यक्ति से कोई द्वेष। इस श्लोक की भाषा में हम कह सकते हैं कि बाहर धूप में बैठे लोग सूर्य से अनुग्रहीत हैं और अन्य लोग उसकी कृपा से वंचित हैं। किसी भी स्थान पर गीता मनुष्य को परिस्थितियों के सामने अथवा अपनी दुर्बलता और अयोग्यता के समक्ष आत्मसमर्पण करने को प्रेरित नहीं करती यह गीताशास्त्र कर्तव्य कर्म और आशावादी प्रयत्नों को प्रोत्साहित करने वाला है जो इस पर बल देता है कि मनुष्य अपनी दुर्बलताओं एवं परिस्थितियों का स्वामी है? दास नहीं।क्या आत्मसाक्षात्कार का मार्ग केवल साधु पुरुषों के लिए ही उपलब्ध है भगवान् इस भक्ति के माहात्म्य को बताते हुए कहते हैं --
।।9.29।।भगवतो रागद्वेषवत्त्वेनानीश्वरत्वमाशङ्क्य परिहरति -- रागेत्यादिना। तर्हि भगवद्भजनमकिंचित्करमित्याशङ्क्याह -- अग्निवदिति। तत्प्रपञ्चयति -- यथेति। भक्तानभक्तांश्चानुगृह्णतोऽननुगृह्णतश्च भगवतो न कथं रागादिमत्त्वमित्याशङ्क्याह -- ये भजन्तीति। ये वर्णाश्रमादिधर्मैर्मां भजन्ति ते तेनैव भजनेनाचिन्त्यमाहात्म्येन परिशुद्धबुद्धयो मयि मत्समीपे वर्तन्ते मदभिव्यक्तियोग्यचित्ता भवन्ति। तुशब्दोऽस्य विशेषस्य द्योतनार्थः। तेषु च समीपे तेषामहमपि स्वभावतो वर्तमानस्तदनुग्रहपरो भवामि। यथा व्यापकमपि सावित्रं तेजः स्वच्छे दर्पणादौ प्रतिफलति तथा परमेश्वरोऽवर्जनीयतया भक्तिनिरस्तसमस्तकलुषसत्त्वेषु पुरुषेषु संनिधत्ते दैवीं प्रकृतिमाश्रिता मां भजन्तीत्युक्तत्वादित्यर्थः।
।।9.29।।ननु मोक्षादिदानेन भक्ताननुह्णतस्तददानेनाभक्तानननुगृह्णतस्त्व वैषम्यमिति चेत्तत्राह -- सम इति। अहं परमात्मा सच्चिदानन्दघनः सर्वभूतेषु ब्रह्मादिस्तम्ब पर्यन्वेष समः समानः। यतो मम द्वेषविषयः कश्चितपि न भवति रागाविषयश्च। एवं तर्हि कथं भक्ताननुगृह्णासि नेतरानिति तरह -- य इति। तुशब्दः शङ्काव्यवच्छेदार्थः। यता सवितृप्रकाशः स्वच्छास्वच्छातर्पणेषु समोऽपि स्वच्छेषु विशेषेण वर्तते नास्वच्छेषु। यथा वह्निः सर्वसमोऽपि सन्निहितानां शीतं नाशयति नासन्निहितानाम्। यथावा कल्पवृक्षो भक्ताननुगृह्णाति लाभक्तान्। एवं ये तु भक्त्या मां भजन्ते सेवन्ते ते स्वभावतो मयि वर्तन्ते। मदाकाराकारितचित्तवृत्तयोऽनुग्रहभाजो भवन्तीत्यर्थः। अहंच तेषु स्वभावत एव वर्ते तेषां चित्तवृत्तौ स्वभावादेव प्रतिफलितोऽनुग्राहको भवामीत्यर्थः।
।।9.29।।तर्हि स्नेहादिमत्त्वादल्पभक्तस्यापि कस्यचिद्बहुफलं ददासि? विपरीतस्यापि कस्यचिद्विपरीतमित्यत आह -- समोऽहमिति। तर्हि न भक्तिप्रयोजनमित्यत आह -- ये भजन्तीति। मयि ते तेषु चाप्यहमिति? मम ते वशाः तेषामहं वश इति। उक्तं च पैङ्गिखिलेषु -- ये वै भजन्ते परमं पुमांसं तेषां वशः स तु मे मद्वशाश्च,इति। तद्वशा एव ते सर्वदा? तथापि बुद्धिपूर्वाबुद्धिपूर्वकत्वेन भेदः? उद्धवादिवच्छिशुपालादिवच्च। तच्चोक्तं तत्रैव -- अबुद्धिपूर्वाद्यो वशस्तस्य ध्यानात्पुनर्वशो भवते बुद्धिपूर्वम् इति।
।।9.29।।यतो भक्तानेवानुगृह्णाति नेतरानित्यतो रागद्वेषवान्भगवानित्यत आह -- समोऽहमिति। यथाग्निः रागादिशून्योऽपि समीपस्थानामेव शीतं नाशयति न दूरस्थानां तद्वत्सर्वत्र समोऽप्यहं शरणागतानामेव बन्धं नाशयामि नान्येषामित्यर्थः। अतो मम न रागद्वेषाविति भावः। मयि ते तेषु चाप्यहम्। भक्ता अनन्यशरणतया मय्येव वर्तन्ते अहमपि तेष्वेव वर्ते। अभक्तचित्तानां रागाद्याक्रान्तत्वेन तत्र मम विशेषतोऽभिव्यक्तिर्नास्तीति भावः।
।।9.29।।देवतिर्यङ्मनुष्यस्थावरात्मना स्थितेषु जातितः च आकारतः स्वभावतो ज्ञानतः च अत्यन्तोत्कृष्टापकृष्टरूपेण वर्तमानेषु सर्वेषु भूतेषु समाश्रयणीयत्वेन समः अहम् अयं जात्याकारस्वभावज्ञानादिभिः निकृष्ट इति समाश्रयणे न मे द्वेष्यः अस्ति उद्वेजनीयतया न त्याज्यः अस्ति तथा समाश्रितत्वातिरेकेण जात्यादिभिः अत्यन्तोत्कृष्टः अयम् इति तद्युक्ततया समाश्रयणे न कश्चित् प्रियः अस्ति न संग्राह्यः अस्ति।अपि तु अत्यर्थमत्प्रियत्वेन मद्भजनेन विना आत्मधारणालाभात् मद्भजनैकप्रयोजना ये मां भजन्ते ते जात्यादिभिः उत्कृष्टाः अपकृष्टा वा मत्समानगुणवद्यथासुखं मयि एव वर्तन्ते अहम् अपि तेषु मदुत्कृष्टेषु इव वर्ते।
।।9.29।।यदि भक्तेभ्य एव मोक्षं ददासि नाभक्तेभ्यश्च तर्हि तवापि किं रागद्वेषादिकृतं वैषम्यमस्ति? नेत्याह -- सम इति। समोऽहं सर्वेष्वपि भूतेषु। अतो मे मम प्रियश्च द्वेष्यश्च नास्त्येव। एवंसत्यपि ये मां भजन्ति ते भक्ता मयि वर्तन्ते। अहमपि तेष्वनुग्राहकतया वर्ते। अयं भावः -- यथाग्नेः स्वसेवकेष्वेव तमःशीतादिदुःखमपाकुर्वतोऽपि न वैषभ्यं? यथावा कल्पवृक्षस्य? तथैव भक्तपक्षपातिनोऽपि मम न वैषम्यं किंतु मद्भक्तेरेवं महिमेति।
।।9.29।।दुर्लभसुलभोत्कृष्टापकृष्टादिद्रव्यतारतम्यादशनेन स्वीकारःपत्रम् [9।26] इति श्लोकेन प्रोक्तः तेन सौलभ्यमुक्तं भवति?यत्करोषि [9।27] इत्यादिना क्रियमाणस्य सर्वस्य बुद्धिविशेषमात्रेण तदाराधनत्वसम्पत्त्या तदेव दृढीकृतम् अथ भक्तियोगाधिकारिप्रशंसनपरेसमोऽहम् इति श्लोके तु जात्याकारादितारतम्यानादरेण भक्तैः स्वस्यैकरस्यमुच्यते। तेन सौशील्यमुक्तं भवति। कंसादिनिग्रहादक्रूराद्यनुग्रहात्तत्कुरुष्व मदर्पणम् [9।27]मामुपैष्यसि [9।28] इत्याद्युक्तेश्च जाता रागद्वेषशङ्का प्रतिक्षेप्येत्यभिप्रायेणाह -- ममेति। अहंशब्दोऽत्र स्वेतरव्यवच्छेदपर इत्यभिप्रायेणअतिलोकमित्युक्तम्।समोऽहम् इत्यस्य प्रतिशिरोभूतं वैषम्यं सर्वशब्देन विवक्षितमित्यभिप्रायेणाहदेवेति।जातितः देवत्वमनुष्यत्वब्राह्मणत्वक्षत्रियत्वादेःआकारतः अभिरूपस्त्रीत्वपुंस्त्वसमविषमाङ्गत्वादेः। वक्ष्यति हियेऽपि स्युः पापयोनयः। स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्राः [9।32] इति।स्वभावतः इत्यनेन सात्त्विकराजसत्वादिकं विवक्षितम्। देवादीनां भगवत्समाश्रयणंतदुपर्यपि बादरायणः सम्भवात् [ब्र.सू.1।3।26] इत्यधिकरणे समर्थितम् तिरश्चामपि गजेन्द्रवानरेन्द्रादिषु पुण्याधिक्यनिबन्धनज्ञानविशेषवत्सु प्रथितम्। तस्मात्तिर्यगधिकरणाविरोधः। स्थावरेष्वपि शापादिजातेषु क्वचिज्ज्ञानं महर्षयः कथयन्ति। ततश्च मनोवृत्तिरूपं समाश्रयणं तत्रापि सम्भवेदेव।न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः इत्यस्य प्रतिषेधस्य प्रसङ्गसाकाङ्क्षत्वात् जात्यादिभिर्निकर्षोत्कर्षौ प्रतिषेध्यप्रसञ्जकतयोक्तावित्याहअयमिति। तद्द्वेष्यत्वप्रियत्वे हि त्याज्यात्याज्यत्वसङ्ग्राह्यत्वार्थे इति तन्निषेधात्तन्निषेधः फलित इत्यभिप्रायेणोक्तम्उद्वेजनीयतया न त्याज्योऽस्तीति?न सङ्ग्राह्योऽस्तीति च। समाश्रयणाधीनप्रियत्वप्रतिषेधभयात्समाश्रितत्वातिरेकेणेत्युक्तम्। यदि? न प्रियत्वहेतुतया प्रसिद्धाज्जात्यादिभिरुत्कर्षात्प्रियत्वम्? कुतस्तर्हि यदि न कुतश्चित्?स च मम प्रियः इत्यादिविरोध इति शङ्कानिराकरणार्थस्तुशब्द इत्यभिप्रायेणाहअपित्विति।भक्त्या भजन्ति इत्यनयोः पौनरुक्त्यपरिहारायान्वयमाहअत्यर्थेति।ये इत्येतदुत्कर्षापकर्षानियमाभिप्रायमित्याहते जात्यादिभिरिति। तुल्यानामिवान्योन्यमैकरस्यमिहमयि इत्यादिना विवक्षितमित्यभिप्रायेणोक्तंमत्समानगुणवद्यथासुखमिति। ननु स्वामित्वेन त्वामनुसन्धाय भजतां कथं त्वयि समानगुणवद्वृत्तिरित्यस्योत्तरंतेषु चाप्यहम् इत्यनेनोच्यत इत्यभिप्रायेणाहअहमपीति। सौशील्यातिरेकतो मत्तोऽप्युत्कृष्टानिवाहंशिरसा देवः प्रतिगृह्णाति [म.भा.12।343।64] इत्युक्तप्रक्रियया सम्भावयामि ततश्च ते मत्परमेश्वरत्वाद्यनुसन्धाननिबन्धनसाध्वसविधुराः सुखं मां सेवन्त इति भावः। अहं च ते चान्योन्यं पित्रादिष्विव न्यस्तभरा इति पिण्डितार्थः। स्वजातिप्रतिनियतधर्मैर्भजनान्नापकृष्टजातिनिर्देशविरोधः।
।।9.29 -- 9.31।।सम इत्यादि प्रणश्यतीत्यन्तम्। प्रतिजाने इति। युक्तियुक्तोऽयमर्थो भगवत्प्रतिज्ञातत्वात् सुष्ठुतमां दृढो भवति।
।।9.29।।भक्तप्रियत्वमुक्त्वा तद्विरुद्धं सर्वत्र साम्यं कथमुच्यते इत्यत आह तर्हीति। यदि त्वं भक्तप्रियः तदा द्वेष्योऽप्रियश्च स्याः? ततश्च भक्तेषु द्वेषिषु यथासङ्ख्यं स्नेहद्वेषवत्त्वादल्पभक्तस्यापि कस्यचिद्बहुफलं सुखरूपं ददासि? विपरीतस्याल्पद्वेषिणोऽपि कस्यचिद्बहुफलं दुःखरूपं ददासीत्याद्यापद्यते? राजादिषु तथा दर्शनात्? तथा च वैषम्यनैर्घृण्ये तवेति शङ्कार्थः? पूर्वार्धेनैव शङ्कायाः परिहृतत्वात्किमुत्तरार्धेनेत्यत आह -- तर्हीति। अहं हि सर्वभूतेषु समः? न वैषम्यादिमान् यतो मे तदीयं द्वेषमपेक्ष्याधिकं द्वेष्यो नास्ति? तदीयां भक्तिमपेक्ष्याधिकं प्रियश्च नास्तीति भगवतोक्तेऽपि विपरीतमर्थं गृहीत्वा शङ्कते। यदि ते प्रियो नास्ति तर्हि न भक्तिः प्रयोजनं,फलस्य। तथा चोक्तविरोध इति भावः।मयि ते तेषु चाप्यहम् इत्येतन्न फलं स्वभावसिद्धत्वादित्यत आह -- मयीति। इत्यस्येत्यर्थ इति योजना। कुत एतत् इत्यत आह -- उक्तं चेति। मम ते वशा इत्येतदपि तादृगेव? भजनाभावेऽपि तद्वशत्वस्वाभाव्यादित्यत आह तदिति। यद्यपीति शेषः। अत्र दृष्टान्तं प्रमाणं चाह -- उद्धवादिवदिति। अबुद्धिपूर्वं यो वशः सः।
।।9.29।।यदि भक्तानेवानुगृह्णासि नाभक्तान् ततो रागद्वेषवत्त्वेन कथं परमेश्वरः स्यादिति नेत्याह -- सर्वेषु प्राणिषु समस्तुल्योऽहं सद्रूपेण स्फुरणरूपेणानन्दरूपेण च स्वाभाविकेनौपाधिकेन चान्तर्यामित्वेन। अतो न मम द्वेषविषयः प्रीतिविषयो वा कश्चिदस्ति सावित्रस्येव गगनमण्डलव्यापिनः प्रकाशस्य। तर्हि कथं भक्ताभक्तयोः फलवैषम्यं तत्राह -- ये भजन्ति तु ये तु भजन्ति सेवन्ते मां सर्वकर्मसमर्पणरूपया भक्त्या। अभक्तापेक्षया भक्तानां विशेषद्योतनार्थस्तुशब्दः। कोऽसौ मयि ते ये मदर्पितैर्निष्कामैः कर्मभिः शोधितान्तःकरणास्ते निरस्तसमस्तरजस्तमोमलस्य सत्त्वोद्रेकेणातिस्वच्छस्यान्तःकरणस्य सदा मदाकारां वृत्तिमुपनिषन्मानेनोत्पादयन्तो मयि वर्तन्ते। अहमप्यतिस्वच्छायां तदीयचित्तवृत्तौ प्रतिबिम्बतस्तेषु वर्ते। चकारोऽवधारणार्थः। त एव मयि तेष्वेवाहमिति। स्वच्छस्य हि द्रव्यस्यायमेव स्वभावो येन संबध्यते तदाकारं गृह्णातीति। स्वच्छद्रव्यसंबद्धस्य च वस्तुन एष एव स्वभावो यत्तत्र प्रतिफलतीति। तथा अस्वच्छद्रव्यस्याप्येष एव स्वभावो यत्स्वसंबद्धस्याप्याकंर न गृह्णातीति। अस्वच्छद्रव्यसंबद्धस्य च वस्तुन एष एव स्वभावो यत्तत्र न प्रतिफलतीति। यथा हि सर्वत्र विद्यमानोऽपि सावित्रः प्रकाशः स्वच्छे दर्पणादावेवाभिव्यज्यते न त्वस्वच्छे घटादौ। तावता न दर्पणे रज्यति न वासौ द्वेष्टि घटं? एवं सर्वत्र समोऽपि स्वच्छे भक्तचित्तेऽभिव्यज्यमानोऽस्वच्छे चाभक्तचित्तेऽनभिव्यज्यमानोऽहं न रज्यामि कुत्रचित्। न वा द्वेष्मि कंचित्। सामग्रीमर्यादया जायमानस्य कार्यस्यापर्यनुयोज्यत्वात् वह्निवत्कल्पतरुवच्चावैषम्यं व्याख्येयम्।
।।9.29।।एवं कर्मसमर्पणेन तद्बन्धनिवृत्त्युक्त्या असमर्पकाणां च बन्ध एव पर्यवसितस्तेन स्ववैषम्यमाशङ्कमानमाह -- समोऽहमिति। अहं सर्वभूतेषु समः। न मे द्वेष्यः कोऽपि। न प्रियः। अत्रायं भावः -- स्वक्रीडार्थं सर्वभूतानि मया सृष्टानि? अतस्तेषु सर्वेष्वहं समः ये क्रीडार्थकत्वमज्ञात्वाऽन्यथाकर्मादिकर्तारो मयि विषमत्वं कुर्वन्ति? अतस्तेषां त्वात्मदोषेणैव बन्धादिकं भवति ये तु मां भक्त्या स्नेहेन क्रीडारूपं ज्ञात्वा भजन्ति ते स्वभजनात्मकधर्मेण मयि तिष्ठन्ति? तेष्वहं तत्कृतितुष्टस्तिष्ठामि? तेन न वैषम्यमिति भावः।
।।9.29।। --,समः तुल्यः अहं सर्वभूतेषु। न मे द्वेष्यः अस्ति न प्रियः। अग्निवत् अहम् -- दूरस्थानां यथा अग्निः शीतं न अपनयति? समीपम् उपसर्पतां अपनयति तथा अहं भक्तान् अनुगृह्णामि? न इतरान्। ये भजन्ति तु माम् ईश्वरं भक्त्या मयि ते -- स्वभावत एव? न मम रागनिमित्तम् मयि वर्तन्ते। तेषु च अपि अहं स्वभावत एव वर्ते? न इतरेषु। न एतावता तेषु द्वेषो मम्।।श्रृणु मद्भक्तेर्माहात्म्यम् --,
।।9.29।।ननु यदि भक्तेभ्य एव मुक्तिं ददासि नाभक्तेभ्यस्तर्हि तवापि किं रागद्वेषादिकृतवैषम्यम् नहि नहीत्याह -- समोऽहमिति। सर्वभूतेषु उच्चनीचेषु सम एव वर्त्तेऽहं न तु विषमः।समोऽस्मि मित्रे च रिपौ इति वाक्यात्। एवं सत्यपि मां भक्त्या ये भजन्ति ते तु मयि मदाधाराः? अहं चापि तेषु तदाधारोऽस्मि? इदं च भक्तिमाहात्म्यमेव ममाप्यस्वतन्त्रत्वमापादयति। तथा चोक्तं भागवते [9।4।6368] भगवतैव -- साधवो हृदयं मह्यं साधूनां हृदयं त्वहम्। अहं भक्तपराधीनो ह्यस्वतन्त्र इव द्विज।।वशे (वशी) कुर्वंति मां भक्त्या सत्स्त्रियः सत्पतिं यथा।।इत्यादिना च। नच पुनरपि दोषतादवस्थ्यं कल्पतरुस्वभावत्वात्। नहि कल्पतर्वादावनाश्रितानां कामाद्यसिद्ध्या वैषम्यं वक्तुमुचितं तथा भगवत्यपीति बोध्यम्।