BG - 9.34

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु। मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः।।9.34।।

man-manā bhava mad-bhakto mad-yājī māṁ namaskuru mām evaiṣhyasi yuktvaivam ātmānaṁ mat-parāyaṇaḥ

  • mat-manāḥ - always think of me
  • bhava - be
  • mat - my
  • bhaktaḥ - devotee
  • mat - my
  • yājī - worshipper
  • mām - to me
  • namaskuru - offer obeisances
  • mām - to me
  • eva - certainly
  • eṣhyasi - you will come
  • yuktvā - united with me
  • evam - thus
  • ātmānam - your mind and body
  • mat-parāyaṇaḥ - having dedicated to me

Translation

Fix your mind on Me; be devoted to Me; sacrifice to Me; bow down to Me; having thus united your whole self to Me, taking Me as the supreme goal, you will come to Me.

Commentary

By - Swami Sivananda

9.34 मन्मनाः with mind filled with Me? भव be thou? मद्भक्तः My devotee? मद्याजी sacrificing unto Me? माम्,unto Me? नमस्कुरु bow down? माम् to Me? एव alone? एष्यसि thou shalt come? युक्त्वा having united? एवम् thus? आत्मानम् the self? मत्परायणः taking Me as the Supreme Goal.Commentary Fill thy mind with Me. Fix your head? heart and hands on Me. Get your heart in tune with Me. Become a true worshipper. You will secure eternal bliss. Having known Me? you will cross beyond death.The whole being of man should be surrendered to the Lord without reservation. Then the whole life will undergo a wonderful transformation. You will have the vision of God everywhere. All sorrows and pains will vanish. Your mind will be one with the divine consciousness.Just as the potether becomes one with the universal ether when the limiting adjunct (pot) is broken? just as the Ganga and the Yamuna? leaving their names and forms become one with the ocean? so also the sage gets rid of Avidya and all sorts of limiting adjuncts through the direct realisation of the Self and becomes identical with Para Brahman.Yukta means steadied in thought? having thus fixed the mind on the Lord? knowing that I am the Self of all beings and the highest goal. (Cf.V.17VII.7?14XVIII.65)(This chapter is known by the name Adhyatma Yoga also.)Thus in the Upanishads of the glorious Bhagavad Gita? the science of the Eternal? the scripture of Yoga? the dialogue between Sri Krishna and Arjuna? ends the ninth discourse entitledThe Yoga of the Kingly Science and the Kingly Secret.,

By - Swami Ramsukhdas , in hindi

।।9.34।। व्याख्या --[अपने हृदयकी बात वहीं कही जाती है, जहाँ सुननेवालेमें कहनेवालेके प्रति दोषदृष्टि न हो, प्रत्युत आदरभाव हो। अर्जुन दोषदृष्टिसे रहित हैं, इसलिये भगवान्ने उनको अनसूयवे (9। 1) कहा है। इसी कारण भगवान् यहाँ अर्जुनके सामने अपने हृदयकी गोपनीय बात कह रहे हैं।]'मद्भक्तः' -- मेरा भक्त हो जा कहनेका तात्पर्य है कि तू केवल मेरे साथ ही अपनापन कर केवल मेरे साथ ही सम्बन्ध जोड़, जो कि अनादिकालसे स्वतःसिद्ध है। केवल भूलसे ही शरीर और संसारके साथ अपना सम्बन्ध मान रखा है अर्थात् 'मैं अमुक वर्णका हूँ, अमुक आश्रमका हूँ, अमुक सम्प्रदायका हूँ, अमुक नामवाला हूँ -- इस प्रकार वर्ण, आश्रम आदिको अपनी अहंतामें मान रखा है। इसलिये अब असत्रूपसे बनी हुई अवास्तविक अहंताको वास्तविक सत्रूपमें बदल दे कि मैं तुम्हारा हूँ और तुम मेरे हो। फिर तेरा मेरे साथ स्वाभाविक ही अपनापन हो जायगा, जो कि वास्तवमें है।'मन्मना भव' -- मन वहीं लगता है, जहाँ अपनापन होता है, प्रियता होती है। तेरा मेरे साथ जो अखण्ड सम्बन्ध है, उसको मैं तो नहीं भूल सकता, पर तू भल सकता है इसलिये तेरेको मेरेमें मनवाला हो जा -- ऐसा कहना पड़ता है।'मद्याजी' -- मेरा पूजन करनेवाला हो अर्थात् तू खाना-पीना, सोना-जगना, आना-जाना, काम-धन्धा करना आदि जो कुछ क्रिया करता है, वह सब-की-सब मेरी पूजाके रूपमें ही कर उन सबको मेरी पूजा ही समझ।'मां नमस्कुरु' -- मेरेको नमस्कार कर कहनेका तात्पर्य है कि मेरा जो कुछ अनुकूल, प्रतिकूल या सामान्य विधान हो, उसमें तू परम प्रसन्न रह। मैं चाहे तेरे मन और मान्यतासे सर्वथा विरुद्ध फैसला दे दूँ, तो भी उसमें तू प्रसन्न रह। जो मनुष्य हानि और परलोकके भयसे मेरे चरणोंमें पड़ते हैं, मेरे शरण होते हैं, वे वास्तवमें अपने सुख और सुविधाके ही शरण होते हैं, मेरे शरण नहीं। मेरे शरण होनेपर किसीसे कुछ भी सुख-सुविधा पानेकी इच्छा होती है तो वह सर्वथा मेरे शरणागत कहाँ हुआ? कारण कि वह जबतक कुछ-न-कुछ सुख-सुविधा चाहता है, तबतक वह अपना कुछ स्वतन्त्र अस्तित्व मानता है।वास्तवमें मेरे चरणोंमें पड़ा हुआ वही माना जाता है, जो अपनी कुछ भी मान्यता न रखकर मेरी मरजीमें अपने मनको मिला देता है। उसमें मेरेसे ही नहीं प्रत्युत संसारमात्रसे भी अपनी सुखसुविधा, सम्मानकी किञ्चित् गन्धमात्र भी नहीं रहती। अनुकूलता-प्रतिकूलताका ज्ञान होनेपर भी उसपर उसका कुछ भी असर नहीं होता अर्थात् मेरे द्वारा कोई अनुकूल-प्रतिकूल घटना घटती है, तो मेरे परायण रहनेवाले भक्तकी उस घटनामें विषमता नहीं होती। अनुकूल-प्रतिकूलका ज्ञान होनेपर भी वह घटना उसको दो रूपसे नहीं दीखती, प्रत्युत केवल मेरी कृपारूपसे दीखती है।मेरा किया हुआ विधान चाहे शरीरके अनुकूल हो, चाहे प्रतिकूल हो, मेरे विधानसे कैसी भी घटना घटे, उसको मेरा दिया हुआ प्रसाद मानकर परम प्रसन्न रहना चाहिये। अगर मनके प्रतिकूल-से-प्रतिकूल घटना घटती है, तो उसमें मेरी विशेष कृपा माननी चाहिये क्योंकि उस घटनामें उसकी सम्मति नहीं है। अनुकूल घटनामें उसकी जितने अंशमें सम्मति हो जाती है, उतने अंशमें वह घटना उसके लिये अपवित्र हो जाती है। परन्तु प्रतिकूल घटनामें केवल मेरा ही किया हुआ शुद्ध विधान होता है -- इस बातको लेकर उसको परम प्रसन्न होना चाहिये। मनुष्य प्रतिकूल घटनाको चाहते नहीं, करता नहीं और उसमें उसका अनुमोदन भी नहीं रहता, फिर भी ऐसी घटना घटती है, तो उस घटनाको उपस्थित करनेमें कोई भी निमित्त क्यों न बने और वह भी भले ही किसीको निमित्त मान ले, पर वास्तवमें उस घटनाको घटानेमें मेरी ही हाथ है, मेरी ही मरजी है (टिप्पणी प0 531)। इसलिये मनुष्यको उस घटनामें दुःखी होना और चिन्ता करना तो दूर रहा, प्रत्युत उसमें अधिक-से-अधिक प्रसन्न होना चाहिये। उसकी यह प्रसन्नता मेरे विधानको लेकर नहीं होनी चाहिये किन्तु मेरेको (विधान करनेवालेको) लेकर होनी चाहिये। कारण कि अगर उसमें उस मनुष्यका मङ्गल न होता, तो प्राणिमात्रका परमसुहृद् मैं उसके लिये ऐसी घटना क्यों घटाता इसी प्रकार हे अर्जुन तू भी सर्वथा मेरे चरणोंमें पड़ जा अर्थात् मेरे प्रत्येक विधानमें परम प्रसन्न रह।जैसे, कोई किसीका अपराध करता है, तो वह उसके सामने जाकर लम्बा पड़ जाता है और उससे कहता है कि आप चाहे दण्ड दें, चाहे पुरस्कार दें, चाहे दुत्कार दें, चाहे जो करें, उसीमें मेरी परम प्रसन्नता है। उसके मनमें यह नहीं रहता कि सामनेवाला मेरे अनुकूल ही फैसला दे। ऐसे ही भक्त भगवान्के सर्वथा शरण हो जाता है, तो भगवान्से कह देता है कि हे प्रभो मैंने न जाने किन-किन जन्मोंमें आपके प्रतिकूल क्याक्या आचरण किये हैं, इसका मेरेको पता नहीं है। परन्तु उन कर्मोंके अनुरूप आप जो परिस्थिति भेजेंगे, वह मेरे लिये सर्वथा कल्याणकारक ही होगी। इसलिये मेरेको किसी भी परिस्थितिमें किञ्चिन्मात्र भी असन्तोष न,होकर प्रसन्नता-ही-प्रसन्नता होगी। हे नाथ मेरे कर्मोंका आप कितना खयाल रखते हैं कि मैंने न जाने किसकिस जन्ममें, किसकिस परिस्थितिमें परवश होकर क्या-क्या कर्म किये हैं, उन सम्पूर्ण कर्मोंसे सर्वथा रहित करनेके लिये आप कितना विचित्र विधान करते हैं मैं तो आपके विधानको किञ्चिन्मात्र भी समझ नहीं सकता और मेरेमें आपके विधानको समझनेकी शक्ति भी नहीं है। इसलिये हे नाथ मैं उसमें अपनी बुद्धि क्यों लगाऊँ मेरेको तो केवल आपकी तरफ ही देखना है। कारण कि आप जो कुछ विधान करते हैं, उसमें आपका ही हाथ रहता है अर्थात् वह आपका ही किया हुआ होता है, जो कि मेरे लिये परम मङ्गलमय है। यही 'मां नमस्कुरु' का तात्पर्य है। 'मामैवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः' -- यहाँ 'एवम्' का तात्पर्य है कि 'मद्भक्तः' से तू स्वयं मेरे अर्पित हो गया, 'मन्मनाः' से तेरा अन्तःकरण मेरे परायण हो गया, 'मद्याजी' से तेरी मात्र क्रियाएँ और पदार्थ मेरी पूजासामग्री बन गये और 'मां नमस्कुरु' से तेरा शरीर मेरे चरणोंके अर्पित हो गया। इस प्रकार मेरे परायण हुआ तू मेरेको ही प्राप्त होगा।युक्त्वैवमात्मानम् (अपनेआपको मेरेमें लगाकर) कहनेका तात्पर्य यह हुआ कि मैं भगवान्का ही हूँ ऐसे अपनी अहंताका परिवर्तन होनेपर शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, पदार्थ, क्रिया -- ये सबकेसब मेरेमें ही लग जायँगे। इसीका नाम शरणागति है। ऐसी शरणागति होनेपर मेरी ही प्राप्ति होगी, इसमें सन्देह नहीं है। मेरी प्राप्तिमें सन्देह वहीं होता है, जहाँ मेरे सिवाय दूसरेकी कामना है, आदर है, महत्त्वबुद्धि है। कारण कि कामना, महत्त्वबुद्धि, आसक्ति आदि होनेपर सब जगह परिपूर्ण रहते हुए भी मेरी प्राप्ति नहीं होती।'मत्परायणः' का तात्पर्य है कि मेरी मरजीके बिना कुछ भी करनेकरानेकी किञ्चिन्मात्र भी स्फुरणा नहीं रहे। मेरे साथ सर्वथा अभिन्न होकर मेरे हाथका खिलौना बन जाय। विशेष बात ( 1 ) भगवान्का भक्त बननेसे, भगवान्के साथ अपनापन करनेसे, मैं भगवान्का हूँ इस प्रकार अहंताको बदल देनेसे मनुष्यमें बहुत जल्दी परिवर्तन हो जाता है। वह परिवर्तन यह होगा कि वह भगवान्में मनवाला हो जायगा, भगवान्का पूजन करनेवाला बन जायगा और भगवान्के मात्र विधानमें प्रसन्न रहेगा। इस प्रकार इन चारों बातोंसे शरणागति पूर्ण हो जाती है। परन्तु इन चारोंमें मुख्यता भगवान्का भक्त बननेकी ही है। कारण कि जो स्वयं भगवान्का हो जाता है, उसके न मनबुद्धि अपने रहते हैं, न पदार्थ और क्रिया अपने रहते हैं और न शरीर अपना रहता है। तात्पर्य है कि लौकिक दृष्टिमें जो अपनी कहलानेवाली चीजें हैं, जो कि उत्पन्न और नष्ट होनेवाली हैं, उनमेंसे कोई भी चीज अपनी नहीं रहती। स्वयंके अर्पित हो जानेसे मात्र प्राकृत चीजें भगवान्की ही हो जाती हैं। उनमेंसे अपनी ममता उठ जाती है। उनमें ममता करना ही गलती थी, वह गलती सर्वथा मिट जाती है। ( 2 ) मनुष्य संसारके साथ कितनी ही एकता मान लें, तो भी वे संसारको नहीं जान सकते। ऐसे ही शरीरके साथ कितनी ही अभिन्नता मान लें, तो भी वे शरीरके साथ एक नहीं हो सकते और उसको जान भी नहीं सकते। वास्तवमें संसारशरीरसे अलग होकर ही उनको जान सकते हैं। इस रीतिसे परमात्मासे अलग रहते हुए परमात्माको यथार्थरूपसे नहीं जान सकते। परमात्माको तो वे ही जान सकते हैं, जो परमात्मासे एक हो गये हैं अर्थात् जिन्होंने मैं और 'मेरा'-पन सर्वथा भगवान्के समर्पित कर दिया है। मैं और 'मेरा'-पन तो,दूर रहा, मैं और मेरेपनकी गन्ध भी अपनेमें न रहे कि मैं भी कुछ हूँ, मेरा भी कोई सिद्धान्त है, मेरी भी कुछ मान्यता है आदि।जैसे, प्राणी शरीरके साथ अपनी एकता मान लेता है, तो स्वाभाविक ही शरीरका सुखदुःख अपना सुखदुःख दीखता है। फिर उसको शरीरसे अलग अपने अस्तित्वका भान नहीं रहता। ऐसे ही भगवान्के साथ अपनी स्वतःसिद्ध एकताका अनुभव होनेपर भक्तका अपना कि़ञ्चिन्मात्र भी अलग अस्तित्व नहीं रहता। जैसे संसारमें भगवान्की मरजीसे जो कुछ परिवर्तन होता है, उसका भक्तपर असर नहीं पड़ता, ऐसे ही उसके स्थूल, सूक्ष्म और कारणशरीरमें जो कुछ परिवर्तन होता है, उसका उसपर कुछ भी असर नहीं पड़ता। उसके शरीरद्वारा भगवान्की मरजीसे स्वतःस्वाभाविक क्रिया होती रहती है। यही वास्तवमें भगवान्की परायणता है।भगवान्को प्राप्त होनेका तात्पर्य है कि भगवान्के साथ अभिन्नता हो जाती है, जो कि वास्तविकता है। यह अभिन्नता भेदभावसे भी होती है और अभेदभावसे भी होती है। जैसे, श्रीजीकी भगवान् श्रीकृष्णके साथ अभिन्नता है। मूलमें भगवान् श्रीकृष्ण ही श्रीजी और श्रीकृष्ण -- इन दो रूपोंमें प्रकट हुए हैं। दो रूप होते हुए भी श्रीजी भगवान्से भिन्न नहीं हैं और भगवान् श्रीजीसे भिन्न नहीं हैं। परन्तु परस्पर रस( प्रेम) का आदानप्रदान करनेके लिये उनमें योग और वियोगकी लीला होती रहती है। वास्तवमें उनके योगमें भी वियोग है और वियोगमें भी योग है अर्थात् योगसे वियोग और वियोगसे योग पुष्ट होता रहता है, जिसमें अनिर्वचनीय प्रेमकी वृद्धि होती रहती है। इस अनिर्वचनीय और प्रतिक्षण वर्धमान प्रेमको प्राप्त हो जाना ही भगवान्को प्राप्त होना है। सातवें और नवें अध्यायके विषयकी एकता सातवें अध्यायके आरम्भमें भगवान्ने विज्ञानसहित ज्ञान अर्थात् राजविद्याको पूर्णतया कहनेकी प्रतिज्ञा की थी -- 'ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः' (7। 2)। सातवें अध्यायमें भगवान्के कहनेका जो प्रवाह चल रहा था, आठवें अध्यायके आरम्भमें अर्जुनके प्रश्न करनेसे उसमें कुछ परिवर्तन आ गया। अतः आठवें अध्यायका विषय समाप्त होते ही भगवान् अर्जुनके बिना पूछे ही 'इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे। ज्ञानं विज्ञानसहितं --' (9। 1) कहकर अपनी तरफसे पुनः विज्ञानसहित ज्ञान कहना शुरू कर देते हैं। सातवें अध्यायमें भगवान्ने जो विषय तीस श्लोकोंमें कहा था, उसी विषयको नवें अध्यायके आरम्भसे लेकर दसवें अध्यायके ग्यारहवें श्लोकतक लगातार कहते ही चले जाते हैं। इन श्लोकोंमें कही हुई बातोंका अर्जुनपर बड़ा प्रभाव पड़ता है, जिससे वे दसवें अध्यायके बारहवें श्लोकसे अठारहवें श्लोकतक भगवान्की स्तुति और प्रार्थना करते हैं। तात्पर्य यह हुआ कि सातवें अध्यायमें कही गयी बातको भगवान्ने नवें अध्यायमें संक्षेपसे, विस्तारसे अथवा प्रकारान्तरसे कहा है।सातवें अध्यायके पहले श्लोकमें 'मय्यासक्तमनाः' आदि पदोंसे जो विषय संक्षेपसे कहा था, उसीको नवें अध्यायके चौंतीसवें श्लोकमें 'मन्मनाः' आदि पदोंसे थोड़ा विस्तारसे कहा है।सातवें अध्यायके दूसरे श्लोकमें भगवान्ने कहा कि मैं विज्ञानसहित ज्ञान कहूँगा जिसको जाननेसे फिर जानना बाकी नहीं रहेगा। यही बात भगवान्ने नवें अध्यायके पहले श्लोकमें कही कि मैं विज्ञानसहित ज्ञान कहूँगा जिसको जानकर तू अशुभ(संसार) से मुक्त हो जायगा। मुक्ति होनेसे फिर जानना बाकी नहीं रहता। इस प्रकार भगवान्ने सातवें और नवें -- दोनों ही अध्यायोंके आरम्भमें विज्ञानसहित ज्ञान कहनेकी प्रतिज्ञा की और दोनोंका एक फल बताया।सातवें अध्यायके तीसरे श्लोकमें भगवान्ने कहा कि हजारोंमें कोई एक मनुष्य वास्तविक सिद्धिके लिये यत्न,करता है और यत्न करनेवालोंमें कोई एक मेरेको तत्त्वसे जानता है। इसका कारण नवें अध्यायके तीसरे श्लोकमें बताते हैं कि इस विज्ञानसहित ज्ञानपर श्रद्धा न रखनेसे मनुष्य मेरेको प्राप्त न हो करके मौतके रास्तेमें चले जाते हैं अर्थात् बारबार जन्मतेमरते रहते हैं।सातवें अध्यायके छठे श्लोकमें भगवान्ने अपनेको सम्पूर्ण जगत्का प्रभव और प्रलय बताया। यही बात नवें अध्यायके अठारहवें श्लोकमें 'प्रभवः प्रलयः' पदोंसे बतायी।सातवें अध्यायके दसवें श्लोकमें भगवान्ने अपनेको सनातन बीज बताया और नवें अध्यायके अठारहवें श्लोकमें अपनेको अव्यय बीज बताया।सातवें अध्यायके बारहवें श्लोकमें 'न त्वहं तेषु ते मयि' कहकर जिस राजविद्याका संक्षेपसे वर्णन किया था, उसीका नवें अध्यायके चौथे और पाँचवें श्लोकमें विस्तारसे वर्णन किया है।सातवें अध्यायके तेरहवें श्लोकमें भगवान्ने सम्पूर्ण प्राणियोंको तीनों गुणोंसे मोहित बताया और नवें अध्यायके आठवें श्लोकमें सम्पूर्ण प्राणियोंको प्रकृतिके परवश हुआ बताया।सातवें अध्यायके चौदहवें श्लोकमें भगवान्ने कहा कि जो मनुष्य मेरे ही शरण हो जाते हैं, वे मायाको तर जाते हैं और नवें अध्यायके बाईसवें श्लोकमें कहा कि जो अनन्य भक्त मेरा चिन्तन करते हुए मेरी उपासना करते हैं, उनका योगक्षेम मैं वहन करता हूँ।सातवें अध्यायके पंद्रहवें श्लोकमें भगवान्ने 'न मां दुष्कृतिनो मूढाः' कहा था, उसीको नवें अध्यायके ग्यारहवें श्लोकमें 'अवजानन्ति मां मूढाः' कहा है।सातवें अध्यायके पंद्रहवें श्लोकमें भगवान्ने 'आसुरं भावमाश्रिताः' पदोंसे जो बात कही थी, वही बात नवें अध्यायके बारहवें श्लोकमें 'राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिताः' पदोंसे कही है। सातवें अध्यायके सोलहवें श्लोकमें जिनको सुकृतिनः कहा था, उनको ही नवें अध्यायके तेरहवें श्लोकमें,'महात्मानः' कहा है।सातवें अध्यायके सोलहवेंसे अठारहवें श्लोकतक सकाम और निष्कामभावको लेकर भक्तोंके चार प्रकार बताये और नवें अध्यायके तीसवेंसे तैंतीसवें श्लोकतक वर्ण, आचरण और व्यक्तिको लेकर भक्तोंके सात भेद बताये।सातवें अध्यायके उन्नीसवें श्लोकमें भगवान्ने महात्माकी दृष्टिसे 'वासुदेवः सर्वम्' कहा और नवें अध्यायके उन्नसीवें श्लोकमें भगवान्ने अपनी दृष्टिसे 'सदसच्चाहम् कहा।भगवान्से विमुख होकर अन्य देवताओंमें लगनेमें खास दो ही कारण हैं -- पहला कामना और दूसरा भगवान्को न पहचानना। सातवें अध्यायके बीसवें श्लोकमें कामनाके कारण देवताओंके शरण होनेकी बात कही गयी और नवें अध्यायके तेईसवें श्लोकमें भगवान्को न पहचाननेके कारण देवताओंका पूजन करनेकी बात कही गयी।सातवें अध्यायके तेईसवें श्लोकमें सकाम पुरुषोंको अन्तवाला (नाशवान्) फल मिलनेकी बात कही और नवें अध्यायके इक्कीसवें श्लोकमें सकाम पुरुषोंके आवागमनको प्राप्त होनेकी बात कही।सातवें अध्यायके तेईसवें श्लोकमें भगवान्ने कहा कि देवताओंके भक्त देवताओंको और मेरे भक्त मेरेको प्राप्त होते हैं। यही बात भगवान्ने नवें अध्यायके पचीसवें श्लोकमें भी कही।सातवें अध्यायके चौबीसवें श्लोकके पूर्वार्धमें भगवान्ने जो 'अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः' कहा था, उसीको नवें अध्यायके ग्यारहवें श्लोकके पूर्वार्धमें 'अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्'कहा है। ऐसे ही सातवें अध्यायके चौबीसवें श्लोकके उत्तरार्धमें जो 'परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम्' कहा था, उसीको नवें अध्यायके ग्यारहवें श्लोकके उत्तरार्धमें 'परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्' कहा है।सातवें अध्यायके सत्ताईसवें श्लोकमें भगवान्ने 'सर्गे यान्ति' कहा था, उसीको नवें अध्यायके तीसरे श्लोकमें 'मृत्युसंसारवर्त्मनि' कहा है।सातवें अध्यायके तीसवें श्लोकमें भगवान्ने अपनेको जाननेकी बात मुख्य बतायी है और नवें अध्यायके चौंतीसवें श्लोकमें भगवान्ने अर्पण करनेकी बात मुख्य बतायी है।

By - Swami Chinmayananda , in hindi

।।9.34।। यह श्लोक सम्पूर्ण अध्याय का सुन्दर सारांश है? क्योंकि इस अध्याय के कई अन्य श्लोकों पर यह काफी प्रकाश डालता है। हम कह सकते हैं कि यह श्लोक अनेक श्लोकों की व्याख्या का कार्य करता है।वेदान्त के प्रकरण ग्रन्थों में आत्मविकास एवं आत्मसाक्षात्कार के लिए सम्यक् ज्ञान और ध्यान का उपदेश दिया गया है। ध्यान के स्वरूप की परिभाषा इस प्रकार दी गई है कि? उस (सत्य) का ही चिन्तन? उसके विषय में ही कथन? परस्पर उसकी चर्चा करके मन का तत्पर या तत्स्वरूप बन जाने को ही? ज्ञानी पुरुष ब्रह्माभ्यास समझते हैं। ब्रह्माभ्यास की यह परिभाषा ध्यान में रखकर ही महर्षि व्यास इस श्लोक में दृढ़तापूर्वक अपने सुन्दर भक्तिमार्ग का चित्रण करते हैं। यही विचार इसी अध्याय में एक से अधिक अवसरों पर व्यक्त किया गया है।सब काल में किसी भी कार्य में व्यस्त रहते हुए भी मन को मुझमें स्थिर करके? मेरा भक्त मेरा पूजन करता है और मुझे नमस्कार करता है। संक्षेपत? जीवन में आध्यात्मिक सुधार के लिए मन का विकास एक मूलभूत आवश्यकता है। यदि वास्तव में हम आध्यात्मिक विकास करना चाहें तो बाह्य दशा या परिस्थिति? हमारी आदतें? हमारा भूतकालीन या वर्तमान जीवन कोई भी बाधक नहीं हो सकता है।प्रयत्नपूर्वक ईश्वर स्मरण या आत्मचिन्तन ही सफलता का रहस्य है। इस प्रकार जब तुम मुझे परम लक्ष्य समझोगे तब तुम मुझे प्राप्त होओगे? यह श्रीकृष्ण का अर्जुन को आश्वासन है। वर्तमान में हम जो कुछ हैं? वह हमारे संस्कारों के कारण है। शुभ और दैवी संस्कारों के होने पर हम उन्हीं के अनुरूप बन जाते हैं।conclusion तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रेश्रीकृष्णार्जुनसंवादे राजविद्याराजगुह्ययोगो नाम नवमोऽध्याय।।इस प्रकार श्रीकृष्णार्जुनसंवाद के रूप में ब्रह्मविद्या और योगशास्त्रस्वरूप श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद् का राजविद्याराजगुह्ययोग नामक नवां अध्याय समाप्त होता है।इस अध्याय के लिए दिया गया यह नाम उपयुक्त है। राजविद्या और राजगुह्य इन दो शब्दों का विस्तृत विवेचन किया जा चुका है। अध्याय के प्रारम्भ में हमने देखा कि शुद्ध चैतन्य ही वह ज्ञान है? जिसके प्रकाश में सभी औपाधिक या वृत्तिज्ञान सम्भव है। अत उस पारमार्थिक तत्त्व का बोध कराने वाली इस विद्या को राजविद्या कहना अत्यन्त समीचीन है। उपनिषदों में इसे सर्वविद्या प्रतिष्ठा कहा गया है? क्योंकि इसे जानकर और कोई जानने योग्य शेष नहीं रह जाता है यही मुण्डकोपनिषद् की भी घोषणा है।

By - Sri Anandgiri , in sanskrit

।।9.34।।भगवद्भक्तेरित्थंभावं पृच्छति -- कथमिति। ईश्वरभजन इतिकर्तव्यतां दर्शयति -- मन्मना इति। एवं भगवन्तं भजमानस्य मम किं स्यादित्याशङ्क्याह -- मामेवेति। समाधाय भगवत्येवेति शेषः। एवमात्मानमित्येतद्विवृणोति -- अहंहीति। अहमेव परमयनं तवेति मत्परायणस्तथाभूतः सन्मामेवात्मानमेष्यसीति संबन्धः। तदेवं मध्यमानां ध्येयं निरूप्य नवमेनाधमानामाराध्याभिधानमुखेन निजेन पारमार्थिकेन रूपेण प्रत्युक्तेन ज्ञानं परमेश्वरस्य परमाराधनमित्यभिदधता सोपाधिकं तत्पदवाच्यं निरुपाधिकं च तत्पदलक्ष्यं व्याख्यातम्।इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यश्रीमच्छुद्धानन्दपूज्यपादशिष्यानन्दगिरिकृतौ नवमोऽध्यायः।।9।।

By - Sri Dhanpati , in sanskrit

।।9.34।।भजनप्रकारमाह -- मन्मना भव मयि परमेश्वरे एव मनो यस्य न स्त्र्यादौ स तथा भव। मम भक्तो नतु भूतादेः। तथा मद्यजनशीलो भव नत्विन्द्रादेः। मामेव च नमस्कुरु नतु मद्य्वतिरिक्तबुद्य्धान्यान्। तथा चैवमात्मामन्तःकरणं समाधाय मद्भजनप्रकारेण मत्परायणः सन्मामेवैष्यसि प्राप्स्यसीत्यर्थः। एवमुक्ताप्रकारं भक्तियोगं विधाय आत्मानं,समस्तभूतप्रत्यगात्माभिन्नपरमात्मानं मामेवैश्यसीति वा संबन्धः। तदनेन नवमाध्यायेन तत्पदलक्ष्यं ज्ञेयं ब्रह्म निरुपयता तदुपायभूतं भगवद्भजनमत्युत्तमफलदमतिसुलभं पापजन्मनामप्युद्धारकमत एवावश्यकमिति दर्शितम्।इति श्रीपरमहंसपरिव्राजकाचार्यश्रीबालस्वामिश्रीपादशिष्टदत्तवंशावतंसरामकुमारसूनुधनपतिविदुषा विरचिताया श्रीगीताभाष्योत्कर्षदीपिकायां नवमोऽध्यायः।।9।।

By - Sri Neelkanth , in sanskrit

।।9.34।।भजनप्रकारं दर्शयति -- मन्मना इति। मय्येव मनो यस्य न पुत्रादौ स मन्मनाः। ममैव भक्तो न राजादेर्धनाद्यर्थं स मद्भक्तः। मद्याजी मदर्थमेव यजते न स्वर्गाद्यर्थं स मद्याजी तादृशो भव। मामेव नमस्कुरु शरणं व्रज नत्वन्यान्। एवमनेन प्रकारेण युक्त्वा योगं कृत्वा मामेवात्मानं सर्वान्तरं एष्यसि प्राप्स्यसि। अभेदेन घटाकाश इव महाकाशम्। यतो मत्परायणः अहमेव सर्वोपाधिशून्यश्चिदात्मा परं सर्वोत्कृष्टमयनं प्राप्यं यस्य स मत्परायणः। तथा च श्रूयतेयथा नद्यः स्यन्दमानाः समुद्रेऽस्तं गच्छन्ति नामरूपे विहाय। तथा विद्वान्नामरूपाद्विमुक्तः परात्परं पुरुषमुपैति दिव्यम् इति।

By - Sri Ramanujacharya , in sanskrit

।।9.34।।मन्मना भव मयि सर्वेश्वरे निखिलहेयप्रत्यनीककल्याणैकताने सर्वज्ञे सत्यसंकल्पे निखिलजगदेककारणे परस्मिन् ब्रह्मणि पुरुषोत्तमे पुण्डरीकदलामलायतेक्षणे स्वच्छनीलजीमूतसंकाशे युगपदुदितदिनकरसहस्रसदृशतेजसि लावण्यामृतमहोदधौ उदारपीवरचतुर्बाहौ अत्युज्जवलपीताम्बरे अमलकिरीटमकरकुण्डलहारकेयूरकटकादिभूषिते,अपारकारुण्यसौशील्यसौन्दर्यमाधुर्यगाम्भीर्यौदार्यवात्सल्यजलधौ अनालोचितविशेषाशेषलोकशरण्ये सर्वस्वामिनि तैलधारावद् अविच्छेदेन निविष्टमना भव।तद् एव विशिनष्टि -- मद्भक्तः अत्यर्थमत्प्रियत्वेन युक्तो मन्मनो भव इत्यर्थः।पुनः अपि विशिनष्टि -- मद्याजी अनवधिकातिशयप्रियमदनुभवकारि -- तमद्यजनपरो भव।यजनं नाम परिपूर्णशेषवृत्तिः? औपचारिकसांस्पर्शिकाभ्यवहारिकादिसकलभोगप्रदानरूपो हि यागः।यथा मदनुभवजनितनिरवधिकातिशयप्रीतिकारितमद्यजनपरो भवसि तथा मन्मना भव इत्युक्तं भवति।पुनः अपि तद् एव विशिनष्टि -- मां नमस्कुरु? अनवधिकातिशयप्रियमदनुभवकारितात्यर्थप्रियाशेषशेषवृत्तौ अपर्यवस्यन् मयि अन्तरात्मनि अतिमात्रप्रह्वीभावव्यसायं कुरु।मत्परायणः अहम् एव परम् अयनं यस्य असौ मत्परायणः? मया विना आत्मधारणासंभावनया मदाश्रय इत्यर्थः।एवम् आत्मानं युक्त्वा मत्परायणः त्वम् एवम् अनवधिकातिशयप्रीत्या मदनुभवसमर्थं मनः प्राप्य माम् एव एष्यसि। आत्मशब्दो हि अत्र मनोविषयः।एवंरूपेण मनसा मां ध्यात्वा माम् अनुभूय माम् इष्टवा मां नमस्कृत्य मत्परायणो माम् एव प्राप्स्यसि इत्यर्थः।तद् एवं लौकिकानि शरीरधारणार्थानि वैदिकानि च नित्यनैमित्तिकानि कर्माणि मत्प्रीतये मच्छेषतैकरसो मया एव कारित इति कुर्वन् सततं मत्कीर्तनयजननमस्कारादिकान् प्रीत्या कुर्वाणो मन्नियाम्यं निखिलजगत् मच्छेषतैकरसम् इति च अनुसंदधानः? अत्यर्थप्रियमद्गुणगणं च अनुसंधाय अहरहः उक्तलक्षणम् इदम् उपासनम् उपादधानो माम् एव प्राप्स्यसि।

By - Sri Sridhara Swami , in sanskrit

।।9.34।। भजनप्रकारं दर्शयन्नुपसंहरति -- मन्मना इति। मय्येव मनो यस्य स मन्मनास्त्वं भव। तथैव ममैव भक्तः मत्सेवको भव। मद्याजी मद्यजनशीलो भव। मामेव च नमस्कुरु। एवमेभिः प्रकारैर्मत्परायणः सन्नात्मानं मनो मयि युक्त्वा समाधाय मामेव परमानन्दरूपमेष्यसि प्राप्स्यसि।

By - Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha , in sanskrit

।।9.34।।भजस्व [9।33] इत्युक्तभक्तिस्वरूपनिष्कर्षोऽनन्तरं क्रियत इति सङ्गतिं दर्शयति -- भक्तिस्वरूपमाहेति। सामान्येन सर्वासु परविद्यासूपास्यतया तदुपयुक्ततया च प्रमाणशतैः प्रतिपादिताः स्वरूपरूपगुणादयोऽत्रास्मच्छब्देन विवक्षिता इत्यभिप्रायेणाह -- मयीति। तमीश्वराणां परमं महेश्वरं [श्वे.उ.6।7] न तस्येशे कश्चन [तै.ना.1।9] इत्यादेरर्थमाह -- सर्वेश्वरेश्वर इति। न ह्यसमर्थसेवया किञ्चिल्लभ्यते नच ब्रह्माण्डान्तरादेरनीश्वरा ब्रह्मेशादयोऽपि मोक्षदानशक्ता इति भावः। क्षेत्रज्ञस्येश्वरज्ञानाद्विशुद्धिः परमा मता [या.स्मृ.3।34] इति ह्युच्यते। हेयास्पदस्य गुणरहितस्य च भजनीयत्वाभावादितरव्यावृत्त्यर्थं सगुणनिर्गुणश्रुतीनां विषयव्यवस्थयोभयलिङ्गत्वमाह -- निखिलेति। समस्तानिष्टनिवर्तकत्वादनन्तभोग्यमयत्वाच्चायमेवोपास्य इति भावः। अनन्तमङ्गलगुणोपलक्षकतया ध्येयलक्षणजगत्कारणत्वमोक्षप्रदत्वौपयिकं गुणद्वयंसर्वज्ञे सत्यसङ्कल्प इत्युक्तम्। यः सर्वज्ञः सर्वविद्यस्य ज्ञानमयं तपः। तस्मादेतद्ब्रह्म नामरूपमन्नं च जायते [मुं.उ.1।9] इति? सत्यकामः सत्यसङ्कल्पः [छां.उ.8।1।5] इति च अनिष्टनिवृत्त्यादौ चान्याज्ञातं सहकारिसापेक्षत्वं च नास्तीति भावः। यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते इत्युपक्रम्य तद्विजिज्ञासस्व [तै.उ.3।1।1] कारणं तु ध्येयः [अ.शिखो.3] इत्याद्यभिप्रायेण -- निखिलजगदेककारण इत्युक्तम्। निखिलशब्देनाव्यक्तादेर्ब्रह्मरुद्रादेश्च सङ्ग्रहः। व्योमातीतनिर्गुणवादादिनिराकरणं? सामान्यविशेषशब्दयोरैकरस्यं चाभिप्रेत्यपरस्मिन् ब्रह्मणि पुरुषोत्तम इत्युक्तम्। अनेन सर्वात्मकत्वं सर्वविलक्षणत्वं चाविरुद्धमुपदर्शितं भवति। नारायणानुवाकपुरुषसूक्तादिकं च स्मारितम्। एतावता विशिष्टं स्वरूपमुक्तम्।अथ सर्वशाखादिपठितपुरुषसूक्तादिसिद्धं शुभाश्रयप्रकरणप्रपञ्चितं च विग्रहतद्गुणादिकमुच्यते।तस्य यथा कप्यासं पुण्डरीकमेवमक्षिणी [छां.उ.1।6।7] इत्याद्युक्तपरत्वचिह्नमाह -- पुण्डरीकदलामलायताक्ष इति।स्वच्छेत्यादिना नीलतोयदमध्यस्था [तै.ना.11।12] इत्यादिकमनुसंहितम्। स्वच्छत्वं मणिमुकुरसलिलकाचादिवद्व्यवहितप्रकाशप्रतिबिम्बादियोग्यः प्रसादविशेषः।दिवि सूर्यसहस्रस्य [11।12] इत्यादि वक्ष्यमाणं तमेव भान्तम् [मुं.उ.2।2।10] इत्यादिश्रुतिं चाभिप्रेत्योक्तं -- युगपदित्यादि। श्रुत्यादिप्रसिद्धं बहूनामुदारत्वमौर्जित्यमभिमतफलप्रदत्वं च। यत्र रूपान्तरं न विशिष्टं? तत्र वक्तुर्वसुदेवनन्दनस्य रूपं विवक्षितम् तच्च सर्वावतारोपलक्षणम्। चतुर्भुजत्वं भगवतः कृष्णस्य पररूपस्य सांसिद्धिकम् द्विभुजत्वं सहस्रभुजत्वादिकं चाहार्यमित्याशयेनोक्तं -- चतुर्बाहाविति। अथवापि चतुर्भुजत्वं -- भुजैश्चतुर्भिः समुपेतमेतद्रूपं विशिष्टं दिवि संस्थितं च। भूमौ गतं पूजयताप्रमेयं सदा हि तस्मिन्निवसामि देवाः इत्यादिकमिह भाव्यम्। दिव्याम्बरयोगमाह -- अत्युज्ज्वलितेति। मूर्धादिपादान्तदिव्यावयवगतसमस्ताभरणवर्गोपलक्षणतया किरीटाद्युक्तिः।ध्येयः सदा इत्युपक्रम्यकेयूरवान् मकरकुण्डलवान् किरीटी [भ.उ.पु.आ.हृ.155] इत्यादिकमिह द्रष्टव्यम्। मकरशब्दो मकराकारकुण्डलपरः। तेजःप्राचुर्यं प्रतिकूलैर्दुष्प्रेक्षत्वं चाभिप्रेत्ययुगपदित्यादिकमुक्तम्।लावण्येत्यादिना तु तस्यैवानुकूलभोग्यत्वाकर्षकत्वादिकमभिप्रेतम्। चक्षुरानन्दजनकस्तेजोविशेषो हि लावण्यम्। तत इदमुच्यते -- लोचनैरनुजग्मुस्ते तमादृष्टिपथात्पुनः। मनोभिरनुजग्मुश्च कृष्णं प्रीतिसमन्विताः।।अतृप्तमनसामेवं तेषां केशवदर्शने। क्षिप्रमन्तर्दधे शौरिश्चक्षुषां प्रियदर्शनः।।अमृतस्येव नातृप्यन् प्रेक्षमाणा जनार्दनम् [म.भा.2।2।2628]नहि तस्मान्मनः कश्चिच्चक्षुषी वा नरोत्तमात्। नरः शक्नोत्यपाक्रष्टुमतिक्रामति राघवे [वा.रा.2।17।13] इति।अपारेत्यादिना सौलभ्योपयोगिनोऽमिताः सुन्दरत्वादिमिश्राः समाश्रयणीयत्वेऽत्यन्तापेक्षिताः स्वरूपरूपयोर्गुणा उक्ताः।सर्वलोकशरण्याय [वा.रा.6।17।17]सुदुष्टो वाऽप्यदुष्टो वा [वा.रा.6।18।5]विभीषणो वा सुग्रीव यदि वा रावणः स्वयम् [वा.रा.6।18।34] इत्यादिकमनुसन्धाय कारुण्यादिफलितमाह -- अनालोचितेति। आश्रितसंरक्षणं स्वलाभं मत्वा प्रवर्तत इत्यभिप्रायेणोक्तं -- सर्वस्वामिनीति।कृष्णस्य हि कृते भूतमिदं विश्वं चराचरम् [म.भा.2।38।23] इत्युक्तम्। निदिध्यासितव्यः [बृ.उ.2।4।54।5।6] ध्यायथ [मुं.उ.2।2।6] ध्रुवा स्मृतिः [छां.उ.7।26।2] आवृत्तिरसकृदुपदेशात् [ब्र.सू.4।1।1] इत्याद्यनुसन्धानेन मनश्शब्दस्यात्र ध्यानाख्यमनोवृत्तिविशेषविषयतामाह -- तैलधारेति।मय्येव मन आधत्स्व [12।8] इत्युच्यत इति। अत्रमामेवैष्यसि इति साध्यगतावधारणात्साधनेऽप्यवधारणं विवक्षितमिति गम्यते। तेन चानन्यमनस्त्वादिकं सिद्धम्। ततश्च तैलधारादिवदविच्छेदोऽपि फलित इति भावः।यमेवैष वृणुते तेन लभ्यः [कठो.1।2।22] इति श्रुत्युपबृंहणतामभिप्रेत्याहतदेवेति। भक्तेरपि ज्ञानविशेषरूपत्वाद्विशेषकत्वमुपपद्यत इत्यभिप्रायेणाहअत्यर्थेति। स्वतन्त्रार्थान्तरविधानशङ्कानिरासायाह पुनरपीति। भक्तिस्वरूपविशेषनिष्कर्षपरत्वात्तदसाधारणशास्त्रविशेषप्रतिपादितपूजाविशेषपरोऽयं यजनशब्द इत्यभिप्रायेणाह -- यजनं नामेति। शेषवृत्तिः कैङ्कर्यम्। इदं चपत्रं पुष्पम् [9।26] इत्यादिना प्रदर्शितस्य भगवच्छास्त्रप्रपञ्चितस्य सङ्ग्रहशासनम्। अतोऽत्र यजिर्दर्शपूर्णमासादिविषय इति न भ्रमितव्यम्।यज देवपूजायाम् [धा.पा.1।1027] इत्येव च पठ्यते।देवतामुद्दिश्य द्रव्यत्यागो यागः इति चाहुः। अग्निहोत्रादिव्यतिरिक्तेष्वपि पञ्चमहायज्ञादिषु यजिर्निरूढः। अन्यत्रापिकृष्णो वाक्यैरिज्यते सम्मृशानैः [म.भा.13।18।6] इत्यादयः प्रयोगाः। अतोऽत्र भगवच्छास्त्रादिप्रपञ्चितविषयोऽयं यजिरित्यभिप्रायेणाह -- औपचारिकेति। औपचारिकाः नीराजनादयः सांस्पर्शिकाः स्रक्चन्दनादयः आदिशब्देन सान्दृष्टिकदीपादिग्रहणम्।मद्याजी इत्यनेन बाह्यक्रियापरेण मन्मनस्त्वं कथं विशेष्यत इत्यत्राह -- यथेति।पुनरपीत्याद्यपि पूर्ववत्। पूर्वोक्तादधिकरूपत्वं दर्शयितुम् -- अपर्यवस्यन्नित्यन्तमुक्तम्।अत्यर्थशब्देन दास्यस्य स्वरूपप्राप्तता विवक्षिता।अतिमात्रशब्देन तस्य निरतिशयभोगरूपत्वं सूचितम्। त्रिविधप्रतिसङ्ग्रहाय नमधातुस्वरूपनिरूपणेन प्रह्वीभावशब्दः।प्रेक्षावतः प्रवृत्तिर्या प्रह्वीभावात्मिका परा। उत्कृष्टं परमुद्दिश्य तन्नमः परिगीयते [अहिर्बु.सं.52।10] इति हि नमश्शब्दो विवृतः। ज्ञानविशेषकत्वव्यक्त्यर्थंव्यवसायशब्दः।परायणः इत्यत्र परशब्दविशेषणसामर्थ्यादवधारणं विवक्षितमित्यभिप्रायेणअहमेवेत्युक्तम्। फलितमाह -- मया विनेति। एषैव भक्तेः परमा काष्ठा प्राप्तेरव्यवहितपूर्वभाविनीति फलाभिलाषज्ञापनार्थो मत्परायणशब्द इत्यभिप्रायः। एवंशब्दानूदितमाकारमाह -- अनवधिकेत्यादिना।आत्मानंयुक्त्वा इति पदयोरत्रोचितार्थप्रदर्शनंमनः प्राप्येति। युजिरत्र योगार्थः समाध्यर्थो वा।मन्मना भव इत्युक्तार्थपरत्वंएवमात्मानम् इत्यनुवादेन प्रतीयत इत्यभिप्रायेणाह -- आत्मशब्दो हीति। मनसोऽत्र निर्देशो ध्यानाधिकरणत्वेनेति प्रदर्शयन् श्लोकस्य पिण्डितार्थमाह -- एवं रूपेणेति। निरतिशयप्रीतिमतेत्यर्थः। ध्यानादिकं मद्भक्त इति विशेषणाद्भोगरूपमित्यभिप्रायेणमामनुभूयेत्युक्तम्।अथ सुखग्रहणाध्यायप्रधानार्थभूतसाङ्गोपाङ्गफलशिरस्कभक्तिस्वरूपं सङ्क्षेपेण निष्कृष्य वदन्नुपसंहरति -- तदेवमिति। तत् तस्मादित्यर्थः। तव दुःखबहुलसंसारसागरपतितत्वात्? मम च परत्वसौलभ्यादियुक्तस्य समस्तदुःखसागरोत्तरणसांयात्रिकत्वात्? उपायस्य चात्यन्तसुकरत्वादिगुणयुक्तत्वादित्यर्थः।एवमिति पूर्वग्रन्थैरुक्तप्रकारेणेत्यर्थः।लौकिकानीत्यादि कुर्वन्नित्यन्तंयत्करोषि इत्यादेरर्थःमन्नियाम्यमित्यादिकंमया ततम् [9।4] इत्यादेरभिप्रेतकथनम्अत्यर्थप्रियमद्गुणगणमितिसमोऽहम् [9।29]पत्रं पुष्पम् [9।26] इत्यादेरर्थः। गुणानुसन्धानाद्भक्तेः पुरुषसाध्यत्वं युज्यत इत्यभिप्रायेणाह -- मद्गुणगणं चानुसन्धायाहरहरुक्तलक्षणमिदमुपासनमुपाददान इति।इति मत्वा भजन्ते माम् [10।8] इत्यादिकमत्रानुसंहितम्।अहरहरित्यादिकंमन्मनाः इत्यादेर्विवक्षितम्। आप्रयाणत्वसिद्ध्यर्थम्अहरहरित्याद्युक्तम्।उक्तलक्षणमिति -- अनन्यप्रयोजननमस्कारादिप्रेरकमदेकधारकत्वदशापर्यन्तनिरतिशयप्रीतिरूपमित्यर्थः।इति कवितार्किकसिंहस्य सर्वतन्त्रस्वतन्त्रस्य श्रीमद्वेङ्कटनाथस्य वेदान्ताचार्यस्य कृतिषु श्रीमद्गीताभाष्यटीकायां तात्पर्यचन्द्रिकायां नवमोऽध्यायः।।9।।

By - Sri Abhinavgupta , in sanskrit

।।9.32 -- 9.34।।मां हि इत्यादि मत्परायण इत्यन्तम्। पापयोनयः पशुपक्षिसरीसृपादयः। स्त्रिय इति अज्ञाः। वैश्या इति कृष्यादिकर्मान्तररताः। शूद्रा इति कार्त्स्येन वैदिकक्रियानधिकृताः परतन्त्रवृत्तयश्च। तेऽपि मदाश्रिता मामेव यजन्ते। गजेन्द्रमोक्षणादीनि चरितानि हि परमकारुणिकस्य भगवतः सहस्रशः श्रूयन्ते। किमङ्ग पुनरेतद्विपरीतवृत्तयः।केचिदाक्षते -- द्विजराजन्यप्रशंसापरमेतद्वाक्यम्? न तु स्त्र्यादिषु अपवर्गप्राप्तितात्पर्येण इति। ते हि भगवतः सर्वानुग्राहिकां शक्तिं मितविषयतया खण्डयन्तः तथा परमेश्वरस्य परमकृपालुत्वमसहमानाः (S omits तथा -- मसहमानाः) न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः ? अपि चेत्सुदुराचारः इत्यादीन्यन्यानि चैवंप्रकारस्फुटार्थप्रतिपादकानि वाक्यानि विरोधयन्तः निरतिशययुक्तिप्रपञ्चसाधिताद्वैतभगवत्तत्त्वे (S??N भगवत्तत्त्वम्) भेदलिङ्गं (S? भेदभङ्गम् N भेदभङ्ग -- ) बलादेवानयन्तः अन्यांश्च आगमविरोधानचेतयमानाः कथमिदं कथमिदम् इति पर्यनुयोज्यमाना (?N पर्यनुयुज्यमानः) यदि? परम् अन्तर्गर्भीकृतजात्यादिमहाग्रहाविष्टान्तः (? N -- ग्रहगृहीताविष्टान्तः -- ) करणाः मात्सर्यावहित्थालज्जाचिह्नीकृतवाङ्मुखदृष्टयः समग्रस्य जनस्य असत्प्रलापिनः इति हास्यरसविषयभावमात्मनि (S omits -- विषय -- ) आरोपयन्ति। यत्पूर्वैव व्याख्या सर्वस्य करोति शिवम् इति।

By - Sri Madhusudan Saraswati , in sanskrit

।।9.34।।भजनप्रकारं दर्शयन्नुपसंहरति -- राजभक्तस्यापि राजभृत्यस्य पुत्रादौ मनस्तथा स तन्मना अपि न तद्भक्त इत्यत उक्तं मन्मना भव मद्भक्त इति। तथा मद्याजी मत्पूजनशीलो मां नमस्कुरु मनोवाक्कायैः। एवमेभिः प्रकारैर्मत्परायणो भदेकशरणः सन्नात्मानमन्तःकरणं युक्त्वा मयि समाधाय मामेव परमानन्दघनं स्वप्रकाशं सर्वोपद्रवशून्यमभयमेष्यसि प्राप्स्यसि।श्रीगोविन्दपदारविन्दमकरन्दास्वादशुद्धाशयाः संसाराम्बुधिमुत्तरन्ति सहसा पश्यन्ति पूर्णं महः।वेदान्तैरवधारयन्ति परमं श्रेयस्त्यजन्ति भ्रमं द्वैतं स्वप्नसमं विदन्ति विमलां विन्दन्ति चानन्दताम्।।

By - Sri Purushottamji , in sanskrit

।।9.34।।भजने प्रकारमाह -- मन्मना इति। मय्येव मनो यस्य तादृशो भूत्वा मद्भक्तो मयि स्नेहयुक्तश्च सन् मद्याजी मत्पूजकः परिचर्याकरणशीलो मां नमस्कुरु। मनोनिवेशनेन मनोभजनमुक्तम्। पूजनेन कायिकम्। नमनोक्त्या वाचिकम्। ततः कायवाङ्मनोभिर्भजनं कुर्वित्युक्तम्। एवं मत्परायणः सन् आत्मानं मयि युक्त्वा युक्तं कृत्वा अवश्यं मामेव पुरुषोत्तमं एष्यसि प्राप्स्यसि। एवकारेणाक्षरांशादिप्राप्तिर्निवारिता।एवं स्वभक्तिमाहात्म्यं भजनार्थं ससाधनम्।प्रोवाच नवमेऽध्याये श्रीकृष्णो ह्यर्जुनाय तु।।9।।

By - Sri Shankaracharya , in sanskrit

।।9.34।। --,मयि वासुदेवे मनः यस्य स त्वं मन्मनाः भव तथा मद्भक्तः भव मद्याजी मद्यजनशीलः भव। माम् एव च नमस्कुरु। माम् एव ईश्वरम् एष्यसि आगमिष्यसि युक्त्वा समाधाय चित्तम्। एवम् आत्मानम्? अहं हि सर्वेषां भूतानाम् आत्मा? परा च गतिः? परम् अयनम्? तं माम् एवंभूतम्? एष्यसि इति अतीतेन संबन्धः? मत्परायणः सन् इत्यर्थः।।इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यस्य श्रीगोवन्दभगवत्पूज्यपादशिष्यस्य,श्रीमच्छंकरभगवतः कृतौ श्रीमद्भगवद्गीताभाष्येनवमोऽध्यायः।।,

By - Sri Vallabhacharya , in sanskrit

।।9.34।।इदं मुख्यं भजनस्वरूपमाह -- मन्मना इति। मय्येव श्रीपुरुषोत्तमे नीलव्योममूर्त्तिमति सर्वज्ञे सर्वशक्तिमति परमानन्दमात्रकरपादमुखोदरादिके निखिलालौकिकगुणगणेऽचिन्त्ये सर्ववेदान्तवेद्ये स्वेच्छया स्वगताशेषसौन्दर्यमाविर्भाव्य भुवि प्रादुर्भूते कृशतरजनपोषके स्वसर्वस्वमिति सर्वात्मभावेनाविच्छेदेन निर्मिषमना एव भव। अनेन स्मरणरूपमुक्तसाङ्ख्ययोगतात्पर्यभूतं भजन(मनन)मुक्तम् तेन (सयोग)ज्ञानकाण्डार्थसिद्धिः मद्भक्त इति भजनं पुरुषोत्तमस्वरूपसेवानिष्ठो भव इत्युपासनाकाण्डार्थसिद्धिः? मद्याजीति कर्मकाण्डार्थसिद्धिश्च सूचिता। मानसं कायिकं च भजनमुक्तम्। मामेव नमस्कुर्विति तस्यानन्यभावेन तवास्मीति साष्टाङ्गप्रणामपूर्वकं प्रपत्तिः स्वाहङ्कारादिदोषत्यागपूर्वकं तदीयत्वानुसन्धानगर्भा प्रदर्शिता। एवकारस्य सर्वत्रानुषङ्गो ज्ञेयः। तेननान्यं देवं नमस्कुर्यान्नान्यं देव निरीक्षयेत् इति विधीयते। अन्यभजनादिरूपस्यास्यैव सर्वधर्मपदवाच्यस्य परित्यागोऽन्ते वक्ष्यतेसर्वधर्मान्परित्यज्य [18।66] इत्यादिना। इयमेव भगवदनुग्रहात्मकपोषणभक्तिसरणिः। भगवदाश्रयमात्रस्य मुख्यता यतः? तथा च ताद्दशसेवकानामहमेव सर्वसाधनरूपः फलरूपश्चेत्याह -- मामेवैष्यसीति। परिदृश्यमानं पुरुषोत्तमं मामेव प्राप्स्यसि मद्भक्त्या प्राप्योऽहमेव फलमित्यर्थः। इदं च सर्वं सेवाफलग्रन्थे समुपपादितं श्रीमदाचार्यैः -- अलौकिकसामर्थ्यं सायुज्यं सेवोपयोगि देहो वा वैकुण्ठादिषु तत्समीपवर्त्ती इत्यादि च। अयमेतन्मार्गीयः परः पुरुषार्थः सूचितः। तत्र च पुनरप्येवमात्मानं युक्त्वा योगेन समाधाय मत्परायण एव भविष्यसीति मार्गान्तराद्वैलक्षण्यमुक्तम्।,फलभूतत्वादेतन्मार्गस्य मर्यादापुष्टिपुरुषोत्तमसम्बन्धित्वाच्चेति दिक्।