श्री भगवानुवाच भूय एव महाबाहो श्रृणु मे परमं वचः। यत्तेऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया।।10.1।।
śhrī bhagavān uvācha bhūya eva mahā-bāho śhṛiṇu me paramaṁ vachaḥ yatte ’haṁ prīyamāṇāya vakṣhyāmi hita-kāmyayā
The Blessed Lord said, Again, O mighty-armed Arjuna, listen to my supreme word which I will declare to you, who are beloved, for your welfare.
10.1 भूयः again? एव verily? महाबाहो O mightyarmed? श्रृणु hear? मे My? परमम् supreme? वचः word? यत् which? ते to thee? अहम् I? प्रीयमाणाय who art beloved? वक्ष्यामि (I) will declare? हितकाम्यया wishing (thy) welfare.Commentary I shall repeat what I said before (in the seventh and the ninth discourses). My essential nature and My manifestations have already been pointed out. As it is very difficult to understand the divine nature? I shall describe it once more to you? although it has been described already. I shall tell you of the divine glories and point out in which forms of being I should be thought of.I will speak to you as you are delighted to hear Me. Now your heart is taking delight in Me.The Lord wants to encourage Arjuna and cheer him up and so He Himself comes forward to give instructions to Arjuna even without his reest.Paramam Vachah supreme word. Paramam means supreme? revealing the unsurpassed truth (Niratisaya Vastu which is Brahman).O Arjuna You are immensely delighted with My speech? as if you are drinking the immortalising nectar.
।।10.1।। व्याख्या--'भूयः एव'--भगवान्की विभूतियोंको तत्त्वसे जाननेपर भगवान्में भक्ति होती है, प्रेम होता है। इसलिये कृपावश होकर भगवान्ने सातवें अध्यायमें (8वें श्लोकसे 12वें श्लोकतक) कारणरूपसे सत्रह विभूतियाँ और नवें अध्यायमें (16वें श्लोकसे 19वें श्लोकतक) कार्यकारणरूपसे सैंतीस विभूतियाँ बतायीं। अब यहाँ और भी विभूतियाँ बतानेके लिये (टिप्पणी प0 535.1) तथा (गीता 8। 14 एवं 9। 22, 34 में कही हुई) भक्तिका और भी विशेषतासे वर्णन करनेके लिये भगवान् 'भूयः एव' कहते हैं। 'श्रृणु मे परमं वचः' -- भगवान्के मनमें अपनी महिमाकी बात, अपने हृदयकी बात, अपने प्रभावकी बात कहनेकी विशेष आ रही है (टिप्पणी प0 535.2)। इसलिये वे अर्जुनसे कहते हैं कि 'तू फिर मेरे परम वचनको सुन'। दूसरा भाव यह है कि भगवान् जहाँ-जहाँ अर्जुनको अपनी विशेष महत्ता, प्रभाव, ऐश्वर्य आदि बताते हैं अर्थात् अपने-आपको खोल करके बताते हैं, वहाँ-वहाँ वे परम वचन, रहस्य आदि शब्दोंका प्रयोग करते हैं; जैसे--चौथे अध्यायके तीसरे श्लोकमें ''रहस्यं ह्येतदुत्तमम्' पदोंसे बताते हैं कि जिसने सूर्यको उपदेश दिया था, वही मैं तेरे रथके घोड़े हाँकता हुआ तेरे सामने बैठा हूँ। अठारहवें अध्यायके चौंसठवें श्लोकमें 'श्रृणु मे परमं वचः' पदोंसे यह परम वचन कहते हैं कि तू सम्पूर्ण धर्मोंका निर्णय करनेकी झंझटको छोड़कर एक मेरी शरणमें आ जा मैं तुझे सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त कर दूँगा, चिन्ता मत कर (18। 66)। यहाँ ''श्रृणु मे परमं वचः' पदोंसे भगवान्का आशय है कि प्राणियोंके अनेक प्रकारके भाव मेरेसे ही पैदा होते हैं और मेरेमें ही भक्तिभाव रखनेवाले सात महर्षि, चार सनकादि तथा चौदह मनु -- ये सभी मेरे मनसे पैदा होते हैं। तात्पर्य यह है कि सबके मूलमें मैं ही हूँ। जैसे आगे तेरहवें अध्यायमें ज्ञानकी बात कहते हुए भी चौदहवें अध्यायके आरम्भमें भगवान्ने फिर ज्ञानका वर्णन करनेकी प्रतिज्ञा की है, ऐसे ही सातवें और नवें अध्यायमें ज्ञान-विज्ञानकी बात कहते हुए भी दसवें अध्यायके आरम्भमें फिर उसी विषयको कहनेकी प्रतिज्ञा करते हैं। चौदहवें अध्यायके आरम्भमें भगवान्ने,''परं भूयः प्रवक्ष्यामि ज्ञानानां ज्ञानमुत्तमम्' कहा, और यहाँ (दसवें अध्यायके आरम्भमें) 'श्रृणु मे परमं वचः' कहा! इनका तात्पर्य है कि ज्ञानमार्गमें समझकी, विवेक-विचारकी मुख्यता रहती है, अतः साधक वचनोंको सुन करके विचार-पूर्वक तत्त्वको समझ लेता है। इसलिये वहाँ 'ज्ञानानां ज्ञानमुत्तमम्' कहा है। भक्तिमार्गमें श्रद्धाविश्वासकी मुख्यता रहती है; अतः साधक वचनोंको सुन करके श्रद्धा-विश्वासपूर्वक मान लेता है। इसलिये यहाँ 'परमं वचः' कहा गया है।'यत्तेऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया' -- सुननेवाला वक्तामें श्रद्धा और प्रेम रखनेवाला हो और वक्ताके भीतर सुननेवालेके प्रति कृपापूर्वक हित-भावना हो तो वक्ताके वचन, उसके द्वारा कहा हुआ विषय श्रोताके भीतर अटलरूपसे जम जाता है। इससे श्रोताकी भगवान्में स्वतः रुचि पैदा हो जाती है, भक्ति हो जाती है, प्रेम हो जाता है। यहाँ 'हितकाम्यया' पदसे एक शङ्का हो सकती है कि भगवान्ने गीतामें जगह-जगह कामनाका निषेध किया है, फिर वे स्वयं अपनेमें कामना क्यों रखते हैं? इसका समाधान यह है कि वास्तवमें अपने लिये भोग, सुख, आराम आदि चाहना ही 'कामना' है। दूसरोंके हितकी कामना 'कामना' है ही नहीं। दूसरोंके हितकी कामना तो त्याग है और अपनी कामनाको मिटानेका मुख्य साधन है। इसलिये भगवान् सबको धारण करनेके लिये आदर्शरूपसे कह रहे हैं कि जैसे मैं हितकी कामनासे कहता हूँ, ऐसे ही मनुष्यमात्रको चाहिये कि वह प्राणिमात्रके हितकी कामनासे ही सबके साथ यथायोग्य व्यवहार करे। इससे अपनी कामना मिट जायगी और कामना मिटनेपर मेरी प्राप्ति सुगमतासे हो जायगी। प्राणिमात्रके हितकी कामना रखनेवालेको मेरे सगुण स्वरूपकी प्राप्ति भी हो जाती है -- 'ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः' (गीता 12। 4)? और निर्गुण स्वरूपकी प्राप्ति भी हो जाती है-- 'लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणं ৷৷. सर्वभूतहिते रताः' (गीता 5। 25)। सम्बन्ध--परम वचनके विषयमें, जिसे मैं आगे कहूँगा, मेरे सिवाय पूरा-पूरा बतानेवाला अन्य कोई नहीं मिल सकता। इसका कारण क्या है इसे भगवान् आगेके श्लोकमें बताते हैं।
।।10.1।। प्रथम अध्याय के अनिश्चय की स्थिति में देखे गये कम्पित अर्जुन ने अब तक एक अतुलनीय आन्तरिक सन्तुलन प्राप्त कर लिया था। हिन्दू दर्शन के बुद्धिमत्तापूर्वक किये गये अध्ययन से? जो आन्तरिक शान्ति प्राप्त होती है? उसे भगवान् इस अध्याय के प्रारम्भ में ही अपने शिष्य अर्जुन को प्रीयमाण कहकर स्पष्ट करते हैं। प्रीयमाण का अर्थ है जो प्रसन्न हो। यहाँ अर्जुन की प्रसन्नता का कारण भगवान् के उपदेश का श्रवण है।शिष्यों के उत्साह एवं रुचिपूर्ण श्रवण से गुरु का उत्साह भी द्विगुणित हो जाता है। वेदान्त दर्शन के गूढ़ अभिप्रायों को अधिकाधिक समझने पर आन्तरिक शान्ति और सन्तोष का अनुभव हुए बिना नहीं रह सकता। गीताचार्य श्रीकृष्ण पुन उत्साह से भरकर इस ज्ञान का विस्तार से वर्णन करते हैं। पुन तुम मेरे परम वचनों को सुनो? जो मैं तुम्हारे हित की इच्छा से कहूँगा।यहाँ अर्जुन को महाबाहो कहकर सम्बोधित किया गया है। यह सम्बोधन अर्जुन को इस बात का स्मरण कराता है कि उसको अपने आन्तरिक जीवन में भी एक वीर पुरुष के समान प्राप्त परिस्थिति में से ही एक दिव्य आनन्द के राज्य का निर्माण करना चाहिए? जो कि उसकी वास्तविक धरोहर है यह स्पष्ट है कि भगवान् का प्रवचन किसी लौकिक विषय पर न होकर मनुष्य में ही निहित आध्यात्मिक श्रेष्ठता की सम्भावनाओं तथा उन्हें उजागर करने के उपायों पर है क्योंकि यहाँ कहा गया है कि तुम मेरे परम वचनों को सुनो? जो मैं तुम्हारे (आध्यात्मिक) हित की इच्छा से कहूंगा।पुन प्रवचन प्रारम्भ करने का क्या प्रयोजन है? इसे वे अब बताते हैं --
।।10.1।।अध्यायद्वये सिद्धमर्थं संक्षेपतोऽनुभाषते -- सप्तम इति। तत्त्वं सोपाधिकं निरुपाधिकं च। विभूतयः सविशेषनिर्विशेषरूपप्रतिपत्त्युपयोगिन्यः। उत्तराध्यायस्याध्यायद्वयेन संबन्धं वदन्नध्यायान्तरमवतारयति -- अथेति। वक्तव्याः सविशेषध्याने निर्विशेषप्रतिपत्तौ च शेषत्वेनेति शेषः। ननु सविशेषं निर्विशेषं च भगवतो रूपं प्रागेव तत्र तत्रोक्तं तत्किमिति पुनरुच्यते तत्राह -- उक्तमपीति। यद्यपि तत्र तत्र तत्त्वमुक्तं तथापि पुनर्वक्तव्यं दुर्विज्ञेयत्वादिति यतो मन्यतेऽत इति योजना। प्रकृष्टत्वं वचसः स्पष्टयति -- निरतिशयेति। तदेव वचो विशिनष्टि -- यत्परममिति। सकृदुक्तेरर्थसिद्धेरसकृदुक्तिरनर्थिकेत्याशङ्क्याह -- प्रीयमाणायेति। ततो वक्ष्यामि तुभ्यमिति पूर्वेण संबन्धः। हितं दुर्विज्ञेयं तत्त्वज्ञानम्।
।।10.1।।सप्तमेऽध्यायऽष्टमे च भगवतस्तत्त्वं सोपाधिकं विभूतयः सविशेषबोधोपयोगिन्यः प्रकाशिताः? नवमे च तत्त्वं निरुपाधिकं विभूतयो निर्विशेषबोधोपायोगिनः। अथेदानीं सविशेषध्याने निर्विशेषज्ञाने चोपायभूता येषु येषु भावेषु चिन्तयः परमेश्वरस्ते ते भावा वक्त्व्याः? तत्त्वं च यद्यप्युक्तं तथापि दुर्विज्ञेयत्वात्पुनरपि वक्तव्यमिति मन्यमानो भगवानुवाच -- भूत इति। भूयएव पुनरपि हे महाबाहो? मे मम परमं प्रकृष्टं वचो वचनं श्रुणु। वचसः प्रकृष्टं वचो वचनं श्रुणु। वचसः प्रकष्टत्वं च प्रकृष्टवस्तुप्रकाशकत्वेन यत् परमं वचस्ते तुभ्यं अहं वक्ष्यामि। कुत इत्यत आह। प्रीयमाणाय यतस्त्वं मद्वचनं श्रृण्वन्नमृतमिव पिबन्नत्यन्तं प्रीयसेऽतस्त्व हितकाम्यया हितकामनया यद्वक्ष्यामि तच्छ्रण्वित्यर्थः। श्रुत्वा च महाबाहुत्वं सार्थकं कुर्विति संबोधनाशयः।
।।10.1।।म्। उपासनार्थं विभूतीः विशेषणकारणत्वं च केषाञ्चिदनेनाध्यायेनाह -- प्रीयमाणाय श्रुत्वा सन्तोषं प्राप्नुवते।
।।10.1।।सप्तमे त्वंपदवाच्योऽर्थो निरूपितः? तदुपासनाच्च क्रममुक्तिरित्यष्टमे प्रोक्तं? नवमे तत्पदलक्ष्यार्थ उक्तस्तत्प्राप्तये च विश्वतोमुखं सर्वत्र भगवद्भावभावनात्मकं भगवद्भजनमुक्तम्? तद्रागद्वेषकलुषितमनसामशक्यमिति मन्वानो भगवांस्तत्सिद्धये स्वविभूतीः केषुचिदेव पदार्थेषु भगवद्बुद्धिविधानार्थास्तावद्दर्शयति दशमे। तत्फलभूतं विश्वतोमुखस्योपासनं तेन च विश्वरूपदर्शनमेकादशे। द्वादशे पुनस्तत्पदलक्ष्यस्याव्यक्तस्योपासनं तदुपासकलक्षणानि चोक्त्वा उपासनाकाण्डं तत्पदार्थशोधनार्थं समापयिष्यति तत्र वात्सल्यात्स्वयमेव श्रीभगवानुवाच -- भूय एवेति। हे महाबाहो? भूयः प्रागुक्तमपि पुनर्मे परमं निरतिशयवस्तुनः प्रकाशकं वचः शृणु। प्रीयमाणाय अमृतपानादिवन्मद्वचनात्प्रीतिमनुभवते वक्ष्यामि। हितकाम्यया तव हितेच्छया।
।।10.1।।श्री भगवानुवाच -- मम माहात्म्यं श्रुत्वा प्रीयमाणाय ते मद्भक्त्युत्पत्तिविवृद्धिरूपहितकामनाय भूयः मन्माहात्म्यप्रपञ्चविषयम् एव परमं वचो यद् वक्ष्यामि तद् अवहितमनाः श्रृणु।
।।10.1।।उक्ताः संक्षेपतः पूर्वं सप्तमादौ विभूतयः। दशमे ता वितन्यन्ते सर्वत्रेश्वरदृष्टये।।1।।एवं तावत्सप्तमादिभिस्त्रिभिरध्यायैर्भजनीयं परमेश्वररूपं निरूपितम्। तद्विभूतयश्च सप्तमेरसोऽहमप्सु कौन्तेय इत्यादिना संक्षेपतो दर्शिताः। अष्टमे चअधियज्ञोऽहमेवात्र इत्यादिना? नवमे चअहं ऋतुरहं यज्ञः इत्यादिना। अथेदानीं ता एव विभूतीः प्रपञ्चयिष्यन् स्वभक्तेश्चावश्यंकरणीयत्वं वर्णयिष्यन् श्रीभगवानुवाच -- भूय एवेति। महान्तौ युद्धादिस्वधर्मानुष्ठाने महत्परिचर्यायां वा कुशलौ बाहू यस्य हे महाबाहो? भूयएव पुनरपि मे वचः शृणु। कथंभूतम्। परमं परमात्मनिष्ठं मद्वचनामृतेनैव प्रीतिं प्राप्नुवते ते तुभ्यं हितकाम्यया हितेच्छया यदहं वक्ष्यामि तत्।
।।10.1।।दशमसङ्गतिं वक्तुं नवमार्थं सप्तमप्रभृत्यध्यायत्रयार्थं वा सङ्गृह्याह -- भक्तियोग इति।स्वकल्याणगुणानन्त्यं कृत्स्नस्वाधीनतामतिः। भक्त्युत्पत्तिविवृद्ध्यर्था विस्तीर्णा दशमोदिता [गी.सं.14] इति सङ्ग्रहश्लोकं व्याकुर्वन् सङ्गतिमाह -- इदानीमिति। पूर्वत्र सपरिकरभक्तियोगस्वरूपप्रपञ्चनपरतया स्वकल्याणगुणादेः सङ्ग्रहेण कथनम् इह तु तत्प्रपञ्चनमित्यवसरप्राप्तिरपौनरुक्त्यं चविस्तीर्णा इत्यनेन विवक्षितमिति दर्शयितुंइदानीं प्रपञ्च्यत इति पदद्वयम्। अर्जुनस्य वक्ष्यमाणार्थश्रवणयोग्यत्वं तस्यार्थस्य च परमहितसाधनत्वादिकं च वदन् सोपच्छन्दनं सावधानयतिभूय एव इति श्लोकेन। प्रश्नमन्तरेणापि स्वयमेव प्रतिपादने हेतुःप्रीयमाणाय इत्यनेनोच्यत इत्यभिप्रयंस्तादृशप्रीतेर्विषयं दर्शयतिमम माहात्म्यं श्रुत्वेति। बाहुशालिनां हि परोत्कर्षकथनमसूयावहम् भवतस्तु शिशुपालादिव्याकुले जगति भाग्यवशादीदृशी प्रीतिः सञ्जातेतिमहाबाहोप्रीयमाणाय इत्यनयोर्भावः। यद्वा बाहुबलाद्यथा ते बाह्यशत्रुविजयः? तथा मद्विषयप्रीतिबलादान्तरशत्रवोऽपि त्वया जिता इति भावः। प्रकरणादर्थस्वभावाच्च हितं विशिनष्टि -- मद्भक्त्युत्पत्तिविवृद्धिरूपेति।सर्वपापैः प्रमुच्यते [10।3]सोऽविकम्प्येन योगेन युज्यते [10।7] इति हि वक्ष्यत इति भावः। उक्तमात्रस्य पुनरभिधाने प्रयोजनाभावात्भूय एव इत्यनेन प्रक्रान्तगुह्यतमानुबन्ध्यर्थप्रपञ्चनरूपत्वं विवक्षितमित्यभिप्रायेण -- भूयो मन्माहात्म्यप्रपञ्चनविषयमेवेत्युक्तम्। एतेनैव वचसः परमत्वे हेतुरपि दर्शितः। शृण्वत एवार्जुनस्य पुनःश्रृणु इति विधानं विशिष्टश्रवणार्थमित्यभिप्रायेणाह -- तदवहितमना इति। पूर्वमनसूयवे दोषनिवृत्त्या गहनमात्रमुक्तम् इदानीमुच्यमाने प्रीयमाणाय गुणसम्पत्त्यातिगहनमुच्यते अतस्त्वयाऽत्यन्तावहितेन भवितव्यमिति भावः।
।।10.1 -- 10.5।।प्राक्तनैर्नवभिरध्यायैर्य एवार्थो लक्षितः? स एव प्रतिपदपाठैरस्मिन्नध्याये प्रतायते। तथा चाह -- भूय एव इति। उक्तमेवार्थं स्फुटीकर्तुं (?N?K विस्पष्टीकर्तुं) पुनः कथ्यमानं श्रृण्विति। अर्जुनोऽपि एवमेवाभिधास्यति भूयः कथय (X? 18) इति। इत्यध्यायतात्पर्यम्। शिष्टं निगदव्याख्यातमिति ( -- व्याख्यानमिति) किं पुनरुक्तेन सन्दिग्धं तु निर्णेष्यते।भूय इत्यादि पृथग्विधा इत्यन्तम्। असंमोहः उत्साहः।
।।10.1।।प्रकृतसङगतत्वेनाध्यायप्रतिपाद्यं दर्शयति -- उपासनार्थमिति। षष्ठे ध्यानमुक्तं तन्नवमान्तेमन्मना भव इति स्मारितं? तच्च ध्येयसापेक्षं? विशिष्टाधिकारिणां च भगवद्विभूतय उपास्या अतस्ता आहानेन दशमाध्यायेन। तत्रादौ केषाञ्चिद्बुद्ध्यादीनां महर्ष्यादीनां च विशेषकारणत्वमपि भगवत आहेत्यर्थः। विभूतिशब्दार्थस्तात्पर्यनिर्णयेऽभिहितः। तदुक्तेर्भूयस्त्वात्प्रथममुपादानम्। अत एवैकवाक्यता। ननु विभूतयःरसोऽहं [7।8] इत्यादिनोक्ता एव सत्यम्? अत एवविस्तरेणात्मनः [10।18] इति वक्ष्यति विशेषकारणत्वं नाम सामर्थ्यातिशयोपेततया निर्माणम्। प्राक्शोकसंविग्नमानसः [1।47] इत्युक्तम्? तद्विरुद्धं कथंप्रीयमाणाय इत्युच्यत इत्यतो व्याचष्टे -- प्रीयमाणायेति। पूर्वं बन्धुस्नेहाच्छोक उक्तः? इदानीं भगवद्वचनश्रवणनिमित्तात्सन्तोषप्राप्तिः श्रोतृत्वसम्पत्प्रतिपादनायोच्यत इति न विरोध इति भावः।
।।10.1।।यद्राजविद्या किल राजगुह्यं पवित्रमेकं निजरूपरूपम्। येनोपदिष्टं श्रुतिवाक्यमाद्यं तं काशिराजं गुरुराजमीडे।।एवं सप्तमाष्टमनवमैस्तत्पदार्थस्य भगवतस्तत्त्वं सोपाधिकं निरुपाधिकं च दर्शितं? तस्य च विभूतयः सोपाधिकस्य ध्याने निरुपाधिकस्य ज्ञाने चोपायभूताःरसोऽहमप्सु कौन्तेय इत्यादिना सप्तमे?अहं क्रतुरहं यज्ञः इत्यादिना नवमे च सङ्क्षेपेणोक्ताः। अथेदानीं तासां विस्तरो वक्तव्यो भगवतो ध्यानाय? तत्त्वमपि दुर्विज्ञेयत्वात्पुनस्तस्य वक्तव्यं ज्ञानायेति दशमोऽध्याय आरभ्यते। तत्र प्रथममर्जुनं प्रोत्साहयितुं श्रीभगवानुवाच -- भूयएव पुनरपि हे महाबाहो? शृणु मे मम परमं प्रकृष्टं वचः। यत्ते तुभ्यं प्रीयमाणाय मद्वचनादभृतपानादिव प्रीतिमनुभवते वक्ष्याम्यहं परमाप्तस्तव हितकाम्ययेष्टप्राप्तीच्छया।।
।।10.1।।नवमे भक्तिरूपं यदुक्तं तत्सिद्धये हरिः। स्वविभूतिस्वरूपं च कृपया दशमेऽब्रवीत्।।1।।पूर्वाध्याये सर्वकर्मसमर्पणमुक्तं? ततश्च भक्ितकरणमाज्ञप्तम्? तच्च स्वरूपाज्ञानेन कृतमप्यकृतप्रायमिति स्वरूपज्ञानार्थं स्वस्वरूपं स्वविभूतिरूपं वदन् पार्थं श्रवणार्थं सावधानतया सम्मुखीकुर्वन् प्रतिजानीते -- श्रीभगवानुवाच भूय एवेति। हे महाबाहो भजनौपयिककृपाशक्ितमन् भूय एव पुनरपि मम वचनश्रवणेन प्रीयमाणाय परमानन्दं प्राप्नुवते ते हितकाम्यया यदहं वक्ष्यामि तत् परमं परो मीयते ज्ञायतेऽनेनेति परमार्थरूपमुत्कृष्टं मे वचः शृणु।प्रीयमाणाय इति पदेनान्येभ्योऽवक्तव्यत्वं गोप्यत्वं च ज्ञापितम्।हितकाम्यया इतिपदेन परमकृपा दर्शिता।
।।10.1।। --,भूयः एव भूयः पुनः हे महाबाहो श्रृणु मे मदीयं परमं प्रकृष्टं निरतिशयवस्तुनः प्रकाशकं वचः वाक्यं यत् परमं ते तुभ्यं प्रीयमाणाय -- मद्वचनात् प्रीयसे त्वम् अतीव अमृतमिव पिबन्? ततः -- वक्ष्यामि हितकाम्यया हितेच्छया।।किमर्थम् अहं वक्ष्यामि इत्यत आह --,
।।10.1।।अथोक्तभक्तिवृद्ध्यर्थं स्वयोगप्रभवं हरिः। भूय एवाहानुपृष्टो विभूतिं चापि केशवः।।1।।सच्चिदानन्दसम्भूतं जगदेतत्सदा(मदा)त्मकम्। इति सर्वात्मदृष्ट्यर्थं सर्वस्याह विभूतिताम्।।2।।पूर्णस्य तत्पूर्णमदः पूर्णमेवावशिष्यते। इति श्रुत्यांशिनो विष्णोस्तथात्वे नास्त्यपूर्णता।।3।।समुद्रस्येव पूर्णस्य कोटिब्रह्माण्डदेहिनः। सर्वा विभूतयस्तस्य मुख्या एवात्र कीर्त्तिताः।।4।।तथाहि श्रीभगवानुवाच -- भूय एवेति। स्वधर्मानुष्ठानार्थं विद्यमानौ महान्तौ बाहू यस्य हे महाबाहो भूयस्तन्मे वचः श्रृणु? यत्तेऽहं वक्ष्यामि हितकाम्यया। किम्भूताय मन्माहात्म्यं श्रुत्वा प्रीयमाणाय। वचश्च किम्भूतं परमं मद्योगवैभवज्ञापनविषयकम्।