BG - 11.28

यथा नदीनां बहवोऽम्बुवेगाः समुद्रमेवाभिमुखाः द्रवन्ति। तथा तवामी नरलोकवीरा विशन्ति वक्त्राण्यभिविज्वलन्ति।।11.28।।

yathā nadīnāṁ bahavo ’mbu-vegāḥ samudram evābhimukhā dravanti tathā tavāmī nara-loka-vīrā viśhanti vaktrāṇy abhivijvalanti

  • yathā - as
  • nadīnām - of the rivers
  • bahavaḥ - many
  • ambu-vegāḥ - water waves
  • samudram - the ocean
  • eva - indeed
  • abhimukhāḥ - toward
  • dravanti - flowing rapidly
  • tathā - similarly
  • tava - your
  • amī - these
  • nara-loka-vīrāḥ - kings of human society
  • viśhanti - enter
  • vaktrāṇi - mouths
  • abhivijvalanti - blazing
  • -

Translation

Verily, just as many torrents of rivers flow towards the ocean, so too these heroes in the world of men enter Thy flaming mouths.

Commentary

By - Swami Sivananda

11.28 यथा as? नदीनाम् of rivers? बहवः many? अम्बुवेगाः watercurrents? समुद्रम् to the ocean? एव verily? अभिमुखाः towards? द्रवन्ति flow? तथा so? तव Thy? अमी these? नरलोकवीराः heroes in the world of men? विशन्ति enter? वक्त्राणि mouths? अभिविज्वलन्ति flaming.Commentary Ami These warriors such as Bhishma. Arjuna is now seeing all these warriors,whom he did not wish to kill? rushing to death. His delusion has vanished. He thinks now This battle cannot be avoided. It has the sanction of the Supreme Lord. Why should I worry about the inevitable The Lord has already destroyed these warriors. I am only an instrument in His hands. No sin can touch me even if I kill them. This is a just cause also.Why and how do they enter Arjuna says --

By - Swami Ramsukhdas , in hindi

।।11.28।। व्याख्या--'यथा नदीनां बहवोऽम्बुवेगाः समुद्रमेवाभिमुखा द्रवन्ति'--मूलमें जलमात्र समुद्रका है। वही जल बादलोंके द्वारा वर्षारूपमें पृथ्वीपर बरसकर झरने, नाले आदिको लेकर नदियोंका रूप धारण करता है। उन नदियोंके जितने वेग हैं, प्रवाह हैं, वे सभी स्वाभाविक ही समुद्रकी तरफ दौड़ते हैं। कारण कि जलका उद्गम स्थान समुद्र ही है। वे सभी जल-प्रवाह समुद्रमें जाकर अपने नाम और रूपको छोड़कर अर्थात् गङ्गा, यमुना, सरस्वती आदि नामोंको और प्रवाहके रूपको छोड़कर समुद्ररूप ही हो जाते हैं। फिर वे जल-प्रवाह समुद्रके सिवाय अपना कोई अलग, स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं रखते। वास्तवमें तो उनका स्वतन्त्र अस्तित्व पहले भी नहीं था? केवल नदियोंके प्रवाहरूपमें होनेके कारण वे अलग दीखते थे। 

By - Swami Chinmayananda , in hindi

।।11.28।। समुद्र से मिलन के लिए आतुर? उसकी ओर वेग से बहने वाली नदियों की उपमा इस श्लोक में दी गई है। जिस स्रोत से नदी का उद्गम होता है? वहीं से उसे अपना विशेष व्यक्तित्व प्राप्त हो जाता है। किसी भी एक बिन्दु पर वह नदी न रुकती है और न आगे बढ़ने से कतराती ही है। अल्पमति का पुरुष यह कह सकता है कि नदी की प्रत्येक बूँद समीप ही किसी स्थान विशेष की ओर बढ़ रही है। परन्तु यथार्थवादी पुरुष जानता है कि सभी नदियां समुद्र की ओर ही बहती जाती हैं? और वे जब तक समुद्र से मिल नहीं जाती तब तक मार्ग के मध्य न कहीं रुक सकती हैं और न रुकेंगी। समुद्र के साथ एकरूप हो जाने पर विभिन्न नदियों के समस्त भेद समाप्त हाे जाते हैं।नदी के जल की प्रत्येक बूंद समुद्र से ही आयी है। प्रथम मेघ के रूप में वह ऊपर पर्वतशिखरों तक पहुंची और वहाँ वर्षा के रूप में प्रकट हुईनदी तट के क्षेत्रों को जल प्रदान करके खेतों को जीवन और पोषण देकर वे बूंदें वेगयुक्त प्रवाह के साथ अपने उस प्रभव स्थान में मिल जाती हैं? जहाँ से उन्होंने यह करुणा की उड़ान भरी थी। इसी प्रकार अपने समाज की सेवा और संस्कृति का पोषण करने तथा विश्व के सौन्दर्य की वृद्धि में अपना योगदान देने के लिए समष्टि से ही सभी व्यष्टि जीव प्रकट हुए हैं? परन्तु उनमें से कोई भी व्यक्ति अपनी इस तीर्थयात्रा के मध्य नहीं रुक सकता है। सभी को अपने मूल स्रोत की ओर शीघ्रता से बढ़ना होगा। सम्ाुद्र को प्राप्त होने से नदी की कोई हानि नहीं होती है। यद्यपि मार्ग में उसे कुछ विशेष गुण प्राप्त होते हैं? जिनके कारण उसे एक विशेष नाम और आकार प्राप्त हो जाता है? तथपि उसका यह स्वरूप क्षणिक है। यह समुद्र के जल द्वारा शुष्क भूमि को बहुलता से समृद्ध करने के लिए लिया गया सुविधाजनक रूप है।इस श्लोक पर जितना अधिक हम विचार करेंगे उतना अधिक उसमें निहित आनन्द हमें प्राप्त होगा।किसलिये वे प्रवेश करते हैं अर्जुन बताता है कि

By - Sri Anandgiri , in sanskrit

।।11.28।।उभयोरपि सेनयोरवस्थितानां राज्ञां भगवन्मुखप्रवेशं निदर्शनेन विशदयति -- कथमित्यादिना।

By - Sri Dhanpati , in sanskrit

।।11.28।।तत्र दृष्टान्तमाह। यथा नदीनां स्त्रवन्तीनां बहवो जलानां वेगाः समुद्रमेवाभिमुखाः प्रतिमुखा द्रवन्ति विशन्ति तथामी नरलोकवीरास्तव मुखान्यभिविज्वन्ति प्रकाशभानानि विशन्ति।

By - Sri Neelkanth , in sanskrit

।।11.28।।इदमेव सदृष्टान्तमाह -- यथेति। तव वक्त्राणि विशन्तीति संबन्धः। अभिविज्वलन्ति सर्वतः जाज्वल्यमानानि।

By - Sri Ramanujacharya , in sanskrit

।।11.28।।एते राजलोका बहवो नदीनाम् अम्बुप्रवाहाः समुद्रम् इव प्रदीप्तज्वलनम् इव च शलभाः तव वक्त्राणि अभिविज्वलन्ति स्वयम् एव त्वरमाणा आत्मनाशाय विशन्ति।

By - Sri Sridhara Swami , in sanskrit

।।11.28।।प्रवेशमेव दृष्टान्तेनाह -- यथेति। नदीनामनेकमार्गप्रवृत्तानां बहवोऽम्बूनां वारीणां वेगाः प्रवाहाः समुद्राभिमुखाः सन्तो यथा समुद्रमेव द्रवन्ति प्रविशन्ति तथा अमी ये नरलोकवीरास्तेऽभिविज्वलन्ति सर्वतः प्रदीप्यमानानि वक्त्राणि प्रविशन्ति।

By - Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha , in sanskrit

।।11.28।।त्वरमाणाः [11।27] इत्युक्तस्वव्यापारमूलविनाशत्वे? सर्वेषां चैकस्मिन्नेवोपसंहारे तस्य चैकस्य सर्वसंहारानुगुणसामान्याकारेणावस्थानमात्रे च दृष्टान्तद्वयं श्लोकद्वयेनोच्यते -- यथेति। पाण्डवादीनां सर्वेषामपि विनाशानभिधानाज्जगत्प्रतपन्तीत्येतावन्मात्रस्य चानन्तरमुक्तेःनरलोकवीराः इत्युक्त एवार्थोलोकाः इत्युक्त इत्यभिप्रायेणएते राजलोका इति सङ्कलय्य कथितम्।अम्बुवेगाः इत्यत्र वेगशब्दस्यात्र वेगवद्विषयत्वव्यञ्जनाय प्रवाहशब्दः। पतङ्गशब्दस्यानेकार्थस्यात्र शकुन्तादिविषयत्वव्यावर्तनायशलभा इत्युक्तम्।अभिविज्वलन्ति इति पदं पूर्वश्लोकस्थमपि समनन्तरश्लोकगतज्वलनदृष्टान्तौपयिकमिति व्यञ्जनाय ज्वलनदृष्टान्तादनन्तरं पठितम्।समृद्धवेगाः इत्येतत्प्रागुक्तत्वरमाणपदसमानार्थमित्यभिप्रेत्यस्वयमेव त्वरमाणा इत्युक्तम्। पतङ्गानां प्रदीपादिषु पक्षवेगादिभिर्नाशकत्वस्यापि सम्भवात्तद्व्यवच्छेदःप्रदीप्तज्वलनम् इति वचनेन विवक्षित इति व्यञ्जनायआत्मनाशायेत्युक्तम्। नदीप्रवाहस्य नाशो नाम पृथग्भूतप्रवाहाकारत्यागः येन नदीप्रवाहव्यपदेशस्तस्मिन्नेव द्रव्ये निवर्तते पतङ्गानां तु द्रव्यान्तरव्यपदेशयोग्यभस्मताद्यापत्तिरिति प्रकारभेदप्रदर्शनाय दृष्टान्तद्वयाभिधानम्। यद्वा स्वेच्छया निवर्तितुमशक्यमित्येवमभिप्रायः प्रवाहदृष्टान्तः तथाविधस्य विनाशस्य स्वेच्छामूलव्यापारहेतुकत्वव्यञ्जनाय पतङ्गदृष्टान्तः। ईश्वरस्यापि च सर्वप्रवेशेऽप्यपरिपूर्णत्वविवक्षया समुद्रनिदर्शनम्? सहसा विध्वंसनाय तु ज्वलनोदाहरणम्।

By - Sri Abhinavgupta , in sanskrit

।।11.28।।No commentary.

By - Sri Madhusudan Saraswati , in sanskrit

।।11.28।।राज्ञां भगवन्मुखप्रवेशने निदर्शनमाह -- यथेति। यथा नदीनामनेकमार्गप्रवृत्तानां बहवोऽम्बूनां जलानां वेगा वेगवन्तः प्रवाहाः समुद्राभिमुखाः सन्तः समुद्रमेव द्रवन्ति विशन्ति तथा ते तवामी नरलोकवीरा विशन्ति वक्त्राण्यभितः सर्वतो ज्वलन्ति।अभिविज्वलन्ति इति वा पाठः।

By - Sri Purushottamji , in sanskrit

।।11.28।।प्रवेशे दृष्टान्तमाह -- यथेति। यथा नदीनां बहुधा प्रसरन्तीनां बहवोऽम्बुवेगाः जलप्रवाहाः समुद्रमेव स्वलयस्थानमेव अभिमुखाः सन्मुखाः सन्तो द्रवन्ति प्रविशन्ति तथा अमी नरलोकवीराः अभिविज्वलन्ति परितो दीप्यमानानि तव वक्त्राणि विशन्ति।

By - Sri Shankaracharya , in sanskrit

।।11.28।। --,यथा नदीनां स्रवन्तीनां बहवः अनेके अम्बूनां वेगाः अम्बुवेगाः त्वराविशेषाः समुद्रमेव अभिमुखाः प्रतिमुखाः द्रवन्ति प्रविशन्ति? तथा तद्वत? तव अमी भीष्मादयः नरलोकवीराः मनुष्यलोके शूराः विशन्ति वक्त्राणि अभिविज्वलन्ति प्रकाशमानानि।।ते किमर्थं प्रविशन्ति कथं च इत्याह --,

By - Sri Vallabhacharya , in sanskrit

।।11.28 -- 11.29।।यथा नदीनामिति। अम्बुवेगाः समुद्रमिव ते वक्त्राण्यभिमुखं तत्रैव चेमे नरलोकवीरा नाशाय विशन्ति।