BG - 13.7

इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं सङ्घातश्चेतनाधृतिः।एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम्।।13.7।।

ichchhā dveṣhaḥ sukhaṁ duḥkhaṁ saṅghātaśh chetanā dhṛitiḥ etat kṣhetraṁ samāsena sa-vikāram udāhṛitam

  • ichchhā - desire
  • dveṣhaḥ - aversion
  • sukham - happiness
  • duḥkham - misery
  • saṅghātaḥ - the aggregate
  • chetanā - the consciousness
  • dhṛitiḥ - the will
  • etat - all these
  • kṣhetram - the field of activities
  • samāsena - comprise of
  • sa-vikāram - with modifications
  • udāhṛitam - are said

Translation

Desire, hatred, pleasure, pain, the aggregate (body), intelligence, and fortitude—the field has thus been briefly described with its modifications.

Commentary

By - Swami Sivananda

13.7 इच्छा desire? द्वेषः hatred? सुखम् pleasure? दुःखम् pain? सङ्घातः the aggregate? चेतना intelligence? धृतिः fortitude? एतत् this? क्षेत्रम् field? समासेन briefly? सविकारम् with modifications? उदाहृतम् has been described.Commentary These principles form the frame or the skelteton on which the world of forms is built. All these are mental states and treated as properties of the body by the Sankhya school of thought. According to the NyayaYaiseshika schools? these are the inherent alities of the Self. The modifications have a beginning and an end. Only that which is unchanging can be the witness of these modifications. The knower of the field is unchanging. He is the witness of the field and its modifications.Desire is a modification of the mind. It is an earnest longing for an object. It is a Vritti (thoughtwave) born of Rajas which urges a man who has once experienced a certain object of pleasure to get hold of it as conducive to his pleasure when he beholds the same object again. This is the property of the inner sense. It is the field because it is knowable.You enjoy a certain sensual object. The impression of this is produced in the subconscious mind. This impression is vivified or revived through memory or remembrance of the sensual pleasure. Then desire arises to enjoy the object again. Repetition of the sensual enjoyment intensifies the memory and desire. Renunciation of the objects and meditation thin out the impressions and the desires.If anyone gives a description of the beautiful scenery of Badri Narayana or Mount Kailasa at once a desire arises in our minds to vist those places. If a man says that very good sweetmeats and mangoes are available in Bangalore? a desire to get these objects crops up in your mind. Therefore memory of sensual enjoyments and the hearing of the alities of the sensual objects are the root causes of desires. Hope fattens the desires. Hope gives a new lease of life to desires. Desire excites the mind and the senses. Desire makes the mind restless. Desire makes the mind wander in the sensual grooves.An object which is sweet and pleasant to you at one moment produces the very reverse of that sensation at another moment. Everyone of you might have had this experience. Objects are pleasant only when there is a longing for them. But they are unpleasant when there is no longing for them. Therefore desires are the cause of pleasure. If satisfaction arises through enjoyment of the objects? pleasure will cease. If your mind is destitute of desires then you will always enjoy serenity? eanimity? balance or poise in spite of many obstalces or adversities. The foundation of desire is the love of sensual pleasures. Desires run along the path of your inclination? proclivity or tendency or taste. Desire is the fuel. Thought is the fire. If you withdraw the fuel of desire? the fire of thought will be extinguished like an oilless lamp. The intellect becomes impure by association with desires.Hatred is a modification of the mind. It is a negative one. It is a Vritti that impels a man who,experienced pain from a certain object to dislike it when he beholds the same object again. Hatred also is field because it is knowable. The modification that arises in the mind when your desire is not fulfilled is called hatred.Pleasure is agreeable? peaceful? made of Sattva. This is also the field because it is knowable.Pain is disagreeable or unpleasant. It is also the field because it is knowable.Sanghata Aggregate? the combination of the body and the senses or the bundle of the 35 components of the body.Chetana Intelligence is a mental state which manifests itself in the aggregate just as fire manifests itself in a ball of iron. This is also the field because it is knowable. Chetana means consciousness and also the activity of the vital airs.Dhriti Firmness? courage? fortitude. It is a Sattvic modification of the mind. The body? the senses and the mind are sustained by firmness when they are depressed and agitated. The five elements are antagonistic to each other. Water destroys earth. Fire dries up water. Water puts out fire. Wind puts out a lamp (fire). Ether absorbs the wind. The five elements fight amongst themselves and yet they (that have a natural dislike for one another) dwell together ite amicably in the same body. Each element beautifully cooperates with the others in carrying on the common functions of the body harmoniously. Each element nourishes the other elements also with its own alities. Dhriti is firmness or the power by which these fighting elements are held in union and harmony and kept in a state of steadiness and balance. This is also the field because it is knowable.Desire and the other alities that are spoken of in this verse stand for all the alities of the mind. The field that is mentioned in the first verse has been dealth with in all its different forms in the fifth and the sixth verses.

By - Swami Ramsukhdas , in hindi

।।13.7।। व्याख्या --   इच्छा -- अमुक वस्तु? व्यक्ति? परिस्थिति आदि मिले -- ऐसी जो मनमें चाहना रहती है? उसको इच्छा कहते हैं। क्षेत्रके विकारोंमें भगवान् सबसे पहले इच्छारूप विकारका नाम लेते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि इच्छा मूल विकार है क्योंकि ऐसा कोई पाप और दुःख नहीं है? जो सांसारिक इच्छाओंसे,पैदा न होता हो अर्थात् सम्पूर्ण पाप और दुःख सांसारिक इच्छाओंसे ही पैदा होते हैं।द्वेषः -- कामना और अभिमानमें बाधा लगनेपर क्रोध पैदा होता है। अन्तःकरणमें उस क्रोधका जो सूक्ष्म रूप रहता है? उसको द्वेष कहते हैं। यहाँ द्वेषः पदके अन्तर्गत क्रोधको भी समझ लेना चाहिये।सुखम् -- अनुकूलताके आनेपर मनमें जो प्रसन्नता होती है अर्थात् अनुकूल परिस्थिति जो मनको सुहाती है? उसको सुख कहते हैं।दुःखम् -- प्रतिकूलताके आनेपर मनमें जो हलचल होती है अर्थात् प्रतिकूल परिस्थिति जो मनको सुहाती नहीं है? उसको दुःख कहते हैं।संघातः -- चौबीस तत्त्वोंसे बने हुए शरीररूप समूहका नाम संघात है। शरीरका उत्पन्न होकर सत्तारूपसे दीखना भी विकार है तथा उसमें प्रतिक्षण परिवर्तन होते रहना भी विकार है।चेतना -- चेतना नाम प्राणशक्तिका है अर्थात् शरीरमें जो प्राण चल रहे हैं? उसका नाम चेतना है। इस चेतनामें परिवर्तन होता रहता है जैसे -- सात्त्विकवृत्ति आनेपर प्राणशक्ति शान्त रहती है और चिन्ता? शोक? भय? उद्वेग आदि होनेपर प्राणशक्ति वैसी शान्त नहीं रहती? क्षुब्ध हो जाती है। यह प्राणशक्ति निरन्तर नष्ट होती रहती है। अतः यह भी विकाररूप ही है।साधारण लोग प्राणवालोंको चेतन और निष्प्राणवालोंको अचेतन कहते हैं? इस दृष्टिसे यहाँ प्राणशक्तिको,चेतना कहा गया है।धृतिः -- धृति नाम धारणशक्तिका है। यह धृति भी बदलती रहती है। मनुष्य कभी धैर्यको धारण करता है और कभी (प्रतिकूल परिस्थिति आनेपर) धैर्यको छोड़ देता है। कभी धैर्य ज्यादा रहता है और कभी धैर्य कम रहता है। मनुष्य कभी अच्छी बातको धारण करता है और कभी विपरीत बातको धारण करता है। अतः धृति भी क्षेत्रका विकार है।[अठारहवें अध्यायके तैंतीसवेंसे पैंतीसवें श्लोकतक धृतिके सात्त्विकी? राजसी और तामसी -- इन तीन भेदोंका वर्णन किया गया है। परमात्माकी तरफ चलनेमें सात्त्विकी धृतिकी बड़ी आवश्यकता है।]एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम् -- जैसे पहले श्लोकमें इदं शरीरम् कहकर व्यष्टि शरीरसे अपनेको अलग देखनेके लिये कहा? ऐसे ही दृश्य(क्षेत्र और उसमें होनेवाले विकार) से द्रष्टाको अलग दिखानेके लिये यहाँ एतत् पद आया है।पाँचवें श्लोकमें भगवान्ने समष्टि संसारका वर्णन किया और यहाँ छठे श्लोकमें व्यष्टि शरीरके विकारोंका वर्णन किया क्योंकि समष्टि संसारमें इच्छाद्वेषादि विकार होते ही नहीं। तात्पर्य यह है कि व्यष्टि शरीर समष्टि संसारसे और समष्टि संसार व्यष्टि शरीरसे अलग नहीं है अर्थात् ये दोनों एक हैं। जैसे इसी अध्यायके दूसरे श्लोकमें भगवान्ने क्षेत्रज्ञके साथ अपनी एकता बतायी? ऐसे ही यहाँ व्यष्टि शरीर और उसमें होनेवाले विकारोंकी समष्टि संसारके साथ एकता बताते हैं। आगे इक्कीसवें श्लोकमें भगवान्ने पुरुषकी स्थिति शरीरमें न बताकर प्रकृतिमें बतायी है -- पुरुषः प्रकृतिस्थो हि। इससे भी सिद्ध होता है कि पुरुषकी स्थिति (सम्बन्ध) व्यष्टि शरीरमें हो जानेसे उसकी स्थिति समष्टि प्रकृतिमें हो जाती है क्योंकि व्यष्टि शरीर और समष्टि प्रकृति -- दोनों एक ही हैं। वास्तवमें देखा जाय तो व्यष्टि है ही नहीं? केवल समष्टि ही है। व्यष्टि केवल भूलसे मानी हुई है। जैसे समुद्रकी लहरोंको समुद्रसे अलग मानना भूल है? ऐसे ही व्यष्टि,शरीरको समष्टि संसारसे अलग (अपना) मानना भूल ही है।विशेष बात -- क्षेत्रज्ञ जब अविवेकसे क्षेत्रके साथ अपना सम्बन्ध मान लेता है? तब क्षेत्रमें इच्छाद्वेषादि विकार पैदा हो जाते हैं। क्षेत्रज्ञका वास्तविक स्वरूप तो सर्वथा निर्विकार ही है। क्षेत्रक्षेत्रज्ञके संयोगसे पैदा होनेवाले विकार सर्वथा मिटाये जा सकते हैं क्योंकि क्षेत्रज्ञका क्षेत्रके साथ संयोग केवल माना हुआ है। इस माने हुए संयोगको मिटानेके लिये भगवान् इस अध्यायके पहले श्लोकमें शरीरको अपनेसे पृथक् देखनेके लिये और फिर दूसरे श्लोकमें परमात्मासे अपने नित्यसंयोग(एकता) का अनुभव करनेके लिये कहते हैं। ऐसा अनुभव होनेपर क्षेत्रके साथ मानी हुई एकताका सर्वथा अभाव हो जाता है और फिर विकार उत्पन्न हो ही नहीं सकते।बोध होनेपर अर्थात् क्षेत्र(शरीर) से सर्वथा सम्बन्धविच्छेद होनेपर इच्छा और द्वेष सदाके लिये सर्वथा मिट जाते हैं। सुख और दुःख अर्थात् अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितिका ज्ञान तो होता है? पर उससे अन्तःकरणमें कोई विकार पैदा नहीं होता अर्थात् अनुकूलप्रतिकूल परिस्थिति प्राप्त होनेपर जीवन्मुक्त महापुरुष सुखीदुःखी नहीं होता। सुखदुःखका ज्ञान होना दोषी नहीं है? प्रत्युत उसका असर पड़ना (विकार होना) दोषी है (टिप्पणी प0 675)।जीवन्मुक्त महापुरुषका संघात अर्थात् शरीरसे किञ्चिन्मात्र भी मैंमेरेपनका सम्बन्ध न रहनेके कारण उसका कहा जानेवाला शरीर यद्यपि महान् पवित्र हो जाता है? तथापि प्रारब्धके अनुसार उसका यह शरीर रहता ही है। जबतक शरीर रहता है? तबतक चेतना (प्राणशक्ति) भी रहती है। परिश्रम होनेपर उसमें चञ्चलता आती है? नहीं तो वह शान्त रहती है। साधनावस्थामें जो सात्त्विकी धृति थी? वह बोध होनेपर भी रहती है। परन्तु अन्तःकरणसे तादात्म्य न रहनेसे तत्त्वज्ञ महापुरुषका चेतना और धृतिरूप विकारोंसे कोई सम्बन्ध नहीं रहता।तात्पर्य यह हुआ कि शरीरके साथ तादात्म्य होनेसे जो विकार होते हैं? वे विकार बोध होनेपर नहीं होते। संघात? चेतना और धृतिरूप विकारोंके रहनेपर भी उनका स्वयंपर कुछ भी असर नहीं पड़ता। सम्बन्ध --   शरीरके साथ तादात्म्य कर लेनेसे ही इच्छा? द्वेष आदि विकार पैदा होते हैं और उन विकारोंका स्वयंपर असर पड़ता है। इसलिये भगवान् शरीरके साथ किये हुए तादात्म्यको मिटानेके लिये आवश्यक बीस साधनोंका ज्ञान के नामसे आगेके पाँच श्लोकोंमें वर्णन करते हैं।

By - Swami Chinmayananda , in hindi

।।13.7।। अब यहाँ मुख्य विषय का प्रारम्भ होता है जिसे भगवान् ने पहले केवल यह शरीर कहकर निर्देशित किया था? उस क्षेत्र के तत्त्वों का यहाँ नामोल्लेख करके गणना की गई है।महाभूतानि आकाश? वायु? अग्नि? जल और पृथ्वी ये पंचमहाभूत हैं। ये महाभूत अपने सूक्ष्म रूप में तन्मात्रा कहलाते हैं। इन्हीं तन्मात्राओं के परस्पर मिलन से पाँच स्थूल महाभूत उत्पन्न होते हैं? जिनका निर्देश यहाँ इन्द्रियों के पाँच विषय कहकर किया गया है।अहंकार चैतन्य का उपाधियों के साथ तादात्म्य होने पर अहंभाव या अहंकार की उत्पत्ति होती है। यही उपाधियों द्वारा कर्मों का कर्ता और फलों का भोक्ता बनता है। संसार के सुखदुखादिक इसी के लिए होते हैं।बुद्धि समष्टि की दृष्टि से यहाँ बुद्धि शब्द प्रयुक्त है? जिसे सांख्यदर्शन में महत्तत्त्व कहते हैं। अन्तकरण की निश्चयात्मिका वृत्ति बुद्धि कहलाती है। जीवन में वस्तु की यथार्थता? अनुभवों का शुभ और अशुभ रूप में निर्धारण करना ही बुद्धि का कार्य है।अव्यक्त मनुष्य के मन और बुद्धि जिससे प्रेरित होते हैं? वह अव्यक्त वासनाएं हैं। जगत् में हम जो कर्म करते हैं तथा फल भोगते हैं? उनसे हमारे मन में संस्कार उत्पन्न होते हैं? जो हमारे भावी कर्म? विचार एवं भावनाओं को दिशा प्रदान करते हैं।एक व्यष्टि जीव के समस्त कर्मों का स्रोत उसकी वासनाएं होती हैं। इसलिए स्वाभाविक है कि समष्टि की दृष्टि से सम्पूर्ण चराचर सृष्टि का स्रोत समष्टि वासनाएं ही होनी चाहिए। इसी समष्टि वासना को सांख्यदर्शन में मूलप्रकृति कहा गया है? तो वेदान्त ने इसे माया कहा है। माया या मूलप्रकृति की उपाधि से विशिष्ट परमात्मा ही सृष्टिकर्ता ईश्वर है और वही परमात्मा व्यष्टि वासना की उपाधि (अविद्या) से विशिष्ट जीव बनता है।इस विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि अव्यक्त ही वह अदृष्ट कारण है? जिससे यह दृश्य जगत् कार्यरूप में व्यक्त हुआ है।दस इन्द्रियाँ पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ और पाँच कर्मेन्द्रियाँ ही वे कारण हैं? जिनके द्वारा प्रत्येक मनुष्य क्रमश विषय ग्रहण करके अपनी प्रतिक्रियाएं व्यक्त करता है।एक (मन) प्रस्तुत प्रकरण के सन्दर्भ में एक शब्द से निर्दिष्ट वस्तु मन है। प्रत्येक ज्ञानेन्द्रिय केवल एक ही विषय का ग्रहण करती है। पाँचों इन्द्रियों से सम्बद्ध मन समस्त विषय संवेदनाओं को एकत्र कर बुद्धि के समक्ष निर्णय के लिए प्रस्तुत करता है। तत्पश्चात् उस निर्णय को वह पाँच कर्मेन्द्रियों के द्वारा कार्यान्वित करता है। इस प्रकार? विषय ग्रहण तथा प्रतिक्रिया का व्यक्त होना इन दोनों का कार्य एक मन ही करता है? इसलिए उसे यहाँ एक शब्द से इंगित करते हैं।पाँच इन्द्रियगोचर विषय पंच ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा ग्रहण किये जाने वाले पाँच विषय हैं शब्द? स्पर्श? रूप? रस और गन्ध। यही सम्पूर्ण जगत् है।इस प्रकार? इस श्लोक में सांख्य दर्शन के प्रसिद्ध चौबीस तत्त्वों की गणना की गयी है।क्षेत्र के तत्त्वों को बताने के पश्चात्? भगवान् उसके विकारों को बताते हैं। वे विकार हैं इच्छा? द्वेष? सुख? दुख? स्थूल देह? अन्तकरण वृत्ति तथा धृति अर्थात् धैर्य। संक्षेपत केवल शरीर? इन्द्रियाँ? मन और बुद्धि ही क्षेत्र नहीं है? वरन् उसमें इन उपाधियों द्वारा अनुभूत विषय? भावनाएं और विचार भी समाविष्ट हैं।द्रष्टा से भिन्न जो कुछ भी है? वह सब दृश्य है? क्षेत्र है। इस द्रष्टा आत्मचैतन्य की दृष्टि से जो कुछ भी दृश्य? ज्ञात तथा अनुभूत वस्तु है? वह सब क्षेत्र है। इसे गीता में अत्यन्त संक्षिप्त वाक्य यह शरीर के द्वारा दर्शाया गया है।इस सम्पूर्ण क्षेत्र को प्रकाशित करने वाला चैतन्यस्वरूप आत्मा क्षेत्रज्ञ कहलाता है। अविद्या दशा में यह जीव? शरीर आदि क्षेत्र को ही अपना स्वरूप अर्थात् क्षेत्रज्ञ समझता है? इस कारण उसे अपने शुद्ध आत्मस्वरूप का बोध कराने के लिए? सर्वप्रथम? जड़ और चेतन का विवेक कराना आवश्यक है। इसीलिए? यहाँ क्षेत्र को इतने विस्तार पूर्वक बताया गया है।अब अगले पाँच श्लोकीय प्रकरण में ज्ञान को बताया गया है जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है? यहाँ ज्ञान शब्द से तात्पर्य उस अन्तकरण से है? जो आत्मज्ञान के लिए आवश्यक गुणों से सम्पन्न हो? क्योंकि शुद्ध अन्तकरण के द्वारा ही आत्मा का अनुभव सम्भव होता है। अत? अब प्रस्तुत प्रकरण में भगवान् श्रीकृष्ण बीस गुणों को बताते हैं? जो सदाचार और नैतिक नियम हैं।वे गुण हैं

By - Sri Anandgiri , in sanskrit

।।13.7।।ननूक्ते क्षेत्रे क्षेत्रज्ञो वक्तव्यस्तं हित्वा किमित्यन्यदुच्यते तत्राह -- क्षेत्रज्ञ इति। अनादिमदित्यादिना वक्ष्यमाणविशेषणं क्षेत्रज्ञं स्वयमेव भगवान्विवक्षितविशेषणसहितं ज्ञेयं यत्तदित्यादिना वक्ष्यतीति संबन्धः। किमिति क्षेत्रज्ञो वक्ष्यते तत्राह -- यस्येति। ज्ञेयं यत्तदित्यतः प्राक्तनग्रन्थस्य तात्पर्यमाह -- अधुनेति। अमानित्वादिलक्षणं विदधातीत्युत्तरत्र संबन्धः। ज्ञानसाधनसमुदायबोधनं कुत्रोपयुज्यते तत्राह -- यस्मिन्निति।योग्यमधिकृतमेव विवृणोति -- यत्पर इति। एतज्ज्ञानमिति वचनात्कथमिदं ज्ञानसाधनमित्याशङ्क्याह -- तमिति। तद्विधानस्य वक्तृद्वारा दार्ढ्यं सूचयति -- भगवानिति। अमानित्वादिनिष्ठस्यान्तर्धियो ज्ञानमिति,नियमार्थमाह -- अमानित्वमिति। मानस्तिरोहितोऽवलेपः। स चात्मन्युत्कर्षारोपहेतुः सोऽस्येति मानी न मान्यमानी तस्य भावोऽमानित्वमिति व्याकरोति -- अमानित्वमित्यादिना। प्रतियोगिमुखेनादम्भित्वं विवृणोति -- अदम्भित्वमिति। वाङ्मनोदेहैरपीडनं प्राणिनामहिंसनम्? तदेवाहिंसेत्याह -- अहिंसेति। परापराधस्य चित्तविकारकारणस्य प्राप्तावेवाविकृतचित्तत्वेनापकारसहिष्णुत्वं क्षान्तिरित्याह -- क्षान्तिरिति। अवक्रत्वमकौटिल्यं यथाहृदयव्यवहारः सदैकरूपप्रवृत्तिनिमित्तत्वं चेत्यर्थः।उपनीय तु यः शिष्यम् इत्यादिनोक्तमाचार्यं व्यवच्छिनत्ति -- मोक्षेति। शुश्रूषादीत्यादिपदं नमस्कारादिविषयम्। बाह्यमाभ्यन्तरं च द्विप्रकारं शौचं क्रमेण विभजते --,शौचमित्यादिना। मनसो रागादिमलानामिति संबन्धः। तापनयोपायमुपदिशति -- प्रतिपक्षेति। रागादिप्रतिकूलस्य भावनाविषयेषु दोषदृष्ट्या वृत्तिस्तयेति यावत्। स्थिरभावमेव विशदयति -- मोक्षेति। आत्मनो नित्यसिद्धस्यानाधेयातिशयस्य कुतो विनिग्रहस्तत्राह -- आत्मन इति।

By - Sri Dhanpati , in sanskrit

।।13.7।।एवं क्षेत्रस्वरुपनिर्देशेनैव तत्क्षेत्रं यच्च यादृक्चेति व्याख्यायेच्छादीनामात्मविकारत्वानिवृत्तये क्षेत्रविकारत्वनिरुपणेन यद्विकारीत्येतन्नरुपयन्नात्मगुणा इति यानाचक्षते वैशेषिकास्तेऽपि क्षेत्रधर्मा एव नतु क्षेत्रज्ञस्येत्याशयेनाह -- इच्छेति। इच्छा पर्वोपलब्धसुखहेतुसजातीये हेतौ उपलभमाने इदं मे स्यादिति स्पृहा। तथानुभूतदुःखहेतुसजातीये हेतावुपलभमाने इदं मे मा भूदिति चित्तवृत्तिर्द्वेषः। तथा प्रसन्नत्वात्मकमनुकूलं सुखं प्रतिकूलात्मकं देहेन्द्रियाणआं संहतिः संघातः। तस्मिन्नभिव्यक्तान्तःकरणवृत्तिरात्मचैतन्याभासानुविद्धा चेतना ययावसादप्राप्तानि देहेन्द्रियाणि ध्रियन्ते सा घृतिः। इच्छादिग्रहणं संकल्पविकल्पाद्यन्तःकरणधर्मोपलक्षणार्थम्। तथाच श्रुतिः -- कामः संकल्पो विचिकित्सा श्रद्धाऽश्रद्धा धृतिरधृतिर्ह्नीर्धीर्भीरित्येतत्सर्वं मन ए इति। तथा चेच्छादीनां ज्ञेयत्वाज्ज्ञेयान्तःकरणधर्मत्वप्रतिपादनेन श्रुत्या सर्वज्ञेन भगवता च वैशेषिकमतस्य हेयत्वं बोधितम्। क्षेत्रनिरुपणमुपसंहरति। एतत्क्षेत्रं सविकारं विकारेण महदादिना तद्विकारेण चेच्छादिना सहितं समासेन सेक्षेपेणोदाहृत्मुक्तं। यस्य क्षेत्रभेदजातस्य संहतिरिदं शरीरं क्षेत्रमित्युक्तं तत्क्षेत्रं महाभूतादिभेदभिन्नं धृत्यन्तं विरक्तस्य ज्ञानाधिकाराय वैराग्यार्थं व्याख्यातमित्यर्थः।

By - Sri Madhavacharya , in sanskrit

।।13.7।।इच्छादयो विकाराः।

By - Sri Neelkanth , in sanskrit

।।13.7।।यतश्च विकाराद्यज्जायत इत्युक्तं तदाह -- इच्छेति। इच्छा सुखे तत्साधने वा स्पृहारूपा चित्तवृत्तिरिदं मे भूयादिति सा काम इति राग इति चोच्यते। द्वेषो दुःखे तत्साधने चेदं मे माभूदिति स्पृहाविरोधिनी चेतोवृत्तिः। सुखदुःखे प्रसिद्धे। संघातःआत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः इति श्रुतेरिन्द्रियमनश्चिदात्मनामेकलोलीभावरूपो भोक्ता। चेतना या पूर्वोक्ता बुद्धिः सैव शुद्धा सत्त्वमयत्वाद्विमलादर्शवच्चित्प्रतिबिम्बग्राहिणी तप्तायःपिण्डे वह्नित्वमिव स्वयमचेतनापि चेतनात्वं प्राप्ता यया व्याप्तः स्थूलपिण्डोऽपि चेतन एव प्रतीयते सेयं चेतना मनःसंज्ञिता सैव इच्छादिरूपा परिणमते। तथा च श्रुतिःकामः संकल्पो विचिकित्सा श्रद्धाऽश्रद्धा धृतिरधृतिर्ह्रीर्धीर्भीरित्येतत्सर्वं मन एव इति कामादीनां मनोवृत्तित्वमाह। एतत्क्षेत्रमव्यक्ताख्यं विकारं विकारेण महदादिना तद्विकारेण चेच्छादिना सहितमुदाहृतमुक्तम्। नन्विच्छादयोऽहंप्रत्ययविषयस्यात्मनो धर्मा इति काणादा वदन्ति। सत्यमेव वदन्ति ते परंतु सोऽस्माकं मुख्य आत्मैव न भवति? तस्य शुद्धायां चित्यभेदेनाध्यस्तत्वादिति प्रागेवोक्तम्। अतः क्षेत्रान्तर्गतस्याहमर्थस्य दृश्यस्य तादृशा एव दृश्या इच्छादयो धर्माः सन्तु न नः किञ्चिच्छिन्नम्। आत्मनोऽसङ्गत्वमहंकारस्यानृतत्वं चानुभवसिद्धं श्रुती अप्यनुवदतःअसङ्गो ह्ययं पुरुषः इतिअमृतेन हि प्रत्यूढाः इति।

By - Sri Ramanujacharya , in sanskrit

।।13.7।।अमानित्वम् उत्कृष्टजनेषु अवधीरणारहित्वम्। अदम्भित्वं धार्मिकत्वयशःप्रयोजनतया धर्मानुष्ठानं दम्भः तद्रहितत्वम्। अहिंसा वाङ्मनःकायैः परपीडारहित्वम्। क्षान्तिः परैः पीड्यमानस्य अपि तान् प्रति अविकृतचित्तव्यम्। आर्जवं परान् प्रति वाङ्मनःकायवृत्तीनाम् एकरूपता। आचार्योपासनम् आत्मज्ञानप्रदायिनि आचार्ये प्रणिपातपरिप्रश्नसेवादिनिरतत्वम्। शौचम् आत्मज्ञानतत्साधनयोग्यता मनोवाक्कायगता शास्त्रसिद्धा। स्थैर्यम् अध्यात्मशास्त्रोदितेषु अर्थेषु निश्चलत्वम्। आत्मविनिग्रहः -- आत्मस्वरूपव्यतिरिक्तविषयेभ्यो मनसो निवर्तनम्।

By - Sri Sridhara Swami , in sanskrit

।।13.7।।इच्छेति। इच्छादयः प्रसिद्धाः? संघातः शरीरं? चेतना ज्ञानात्मिका मनोवृत्तिः? धृतिर्धैर्यम्? एतइच्छादयो दृश्यत्वान्नात्मधर्मा अपितु मनोधर्मा एव अतः क्षेत्रान्तःपातिन? एव। उपलक्षणं चैतत्संकल्पादीनाम्। तथाच श्रुतिःकामः संकल्पो विचिकित्सा श्रद्धाऽश्रद्धा धृतिरधृतिर्ह्नीर्धीर्भीरित्येतत्सर्वं मन एव इति। अनेन च यादृगिति प्रतिज्ञाता क्षेत्रधर्मा दर्शिताः। एतत्क्षेत्रं सविकारमिन्द्रियादिविकारसहितं संक्षेपेण तुभ्यं मयोक्तमिति क्षेत्रोपसंहारः।

By - Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha , in sanskrit

।।13.7।।इच्छा द्वेषः सुखं दुःखम् इत्येतत्यद्विकारि [13।4] इत्युक्तस्य प्रतिपादकमित्याशयेनाह -- इच्छा द्वेष इति। इच्छादीनां भूतसङ्घातरूपक्षेत्रपरिणामत्वाभावेन कथं क्षेत्रविकारत्वं प्रत्युतात्मधर्मभूतज्ञानविकारत्वमेवेत्याशयेन शङ्कते -- यद्यपीति। तेषां क्षेत्रविकारत्वव्यपदेश औपचारिक इत्याशयेन परिहरतितथापीति। क्षेत्रासाधारणकार्यत्वमुपचारनिमित्तमिति भावः। ननु कथमिच्छादीनां धर्मभूतज्ञानविकारत्वम्? कामः सङ्कल्पः [बृ.उ.1।5।3] इत्यादिना तेषां मनोविकारत्वश्रवणात्।पञ्चवृत्तिर्मनोवद्व्यपदिश्यते [बृ.सू.2।4।12] इति सूत्रभाष्येन कामादिकं मनसस्तत्त्वान्तरम् [रा.भा.] इति भाषितत्वाच्चेत्यत आह -- तेषामिति। नचाश्रयत्वमन्तरेण हेतुत्वमस्त्विति वाच्यम्?कार्यकारणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते [13।21] इति पूर्ववाक्ये क्रियाश्रयत्वरूपकर्तृत्वं प्रति प्रकृतेराश्रयत्वेन हेतुत्वोक्त्या तद्वैरूप्यापत्तेः। न चान्तःकरणावच्छिन्नचैतन्यरूपजीवस्य पुरुषशब्देन विवक्षितत्वात्? कामः सङ्कल्पः [बृ.उ.1।5।3] इत्यादिश्रुत्यनुसारेण योग्यतयाऽन्तःकरणस्य तदाश्रयत्वपरमेवपुरुषः सुखदुःखानाम् [13।21] इति वाक्यमिति वाच्यं? देहादिवदन्तःकरणस्यापि प्रकृतिपरिणामत्वेन कार्यकारणकर्तृत्वे सुखदुःखानां भोक्तृत्वे च हेतुः प्रकृतिरुच्यत इत्येवोक्त्यापत्तेः। चैतन्यसम्बन्धप्रयुक्तं भोक्तृत्वाश्रयत्वमितिपुरुषः सुखदुःखानाम् इत्युक्तिरिति चेत्? कर्तृत्वाश्रयत्वमपि तत्सम्बन्धायत्तमिति तत्रापि तथोक्तिः स्यात्। नचैवंकामः सङकल्पः इति श्रुतेःपञ्चवृत्तिर्मनोवद्व्यपदिश्यते [ब्र.सू.2।4।12] इति सूत्रभाष्यस्य च कथमुपपत्तिरिति वाच्यम् कामसङ्कल्पादिशब्दवाच्यधर्मभूतज्ञानपरिणामहेतुभूतमनोवृत्तीनां तत्कार्यवाचिशब्देनाभिधानपूर्वकं मनसस्तत्त्वान्तरत्वाभावप्रतिपादनपरत्वेनोपपत्तेः।न भयसम्प्रतिपन्नमनोवृत्तिभिरेव तत्तन्नाम्नीभिः सर्वकार्योपपत्तौ कामादिशब्दवाच्यधर्मभूतज्ञानपरिणामकल्पने प्रमाणाभावात् कामादिशब्दानां मनोवृत्तिषु लाक्षणिकत्वमनुपपन्नमिति चेत्? न सोऽकामयत [तै.उ.2।6] अथ पुरुषो ह वै नारायणोऽकामत [ना.उ.1] इति स्थाने तदैक्षत [छां.उ.6।2।3] स ईक्षाञ्चक्रे [प्र.उ.6।3] इत्यन्तःकरणरहितजगत्कारणाश्रितज्ञानविशेषवाचीक्षतिशब्दपाठात् स तपोऽतप्यत [तै.उ.2।6] इति तत्स्थानपठिततपश्शब्दस्य यस्य ज्ञानमयं तपः [मुं.उ.1।1।9] इति ज्ञानशब्देन व्याख्यानात्। स यदि पितृलोककामो भवति सङ्कल्पादेवास्य पितरः समुत्तिष्ठन्ति [छां.उ.8।2।1] इति मुक्ताश्रितत्वेन कामसङ्कल्पयोः श्रवणात् सुखत्वापरपर्यायानन्दत्वस्य रसं ह्येवायं लब्ध्वाऽऽनन्दी भवति [तै.उ.2।7] आनन्दं ब्रह्मणो विद्वान् [तै.उ.2।4?9] इत्यादिषुअनुकूलज्ञानमेव ह्यानन्दः [रा.भा.] इति भाष्यकृदुक्तरीत्या मुक्तब्रह्मसंबन्धिज्ञानवृत्तित्वश्रवणात्निरस्तातिशयाह्लादसुखभावैकलक्षणा। भेषजं भगवत्प्राप्तिरेकान्तात्यन्तिकी मता [वि.पु.5।6।59] इति भगवदनुभवरूपभगवत्प्राप्तेः सुखरूपत्वमृतेश्च कामसङ्कल्पसुखादीनां ज्ञानावस्थाविशेषत्वस्य अवश्याभ्युपगमनीयत्वान्मनोवृत्तीनामज्ञानत्वेनान्याधीनप्रकाशतयानन्याधीनप्रकाशत्वादिरूपव्यापकनिवृत्त्या व्याप्यभूतार्थान्तरप्रकाशादिहेतुत्वासम्भवेन ज्ञानावस्थाविशेषानङ्गीकारे विषयप्रकाशव्यवहारादेरनुपपत्तेः स्वप्रकाशज्ञानावस्थाविशेषाणामावश्यकत्वादनेकशक्तिकल्पने गौरवेण कामसङ्कल्पादिशब्दानां वृत्तिषु लाक्षणिकत्वस्य न्याय्यत्वाच्च।नच वृत्तीनां चैतन्यसम्बन्धेन विषयप्रकाशादिसमर्थत्वमिति वाच्यम्? निर्विशेषचैतन्यस्य सर्वविषयविमुखस्य विषयप्रकाशाद्ययोग्यत्वेन तत्सहायस्यशतमप्यन्धानां न पश्यति इति न्यायेन विषयप्रकाशादिसामर्थ्यानापादकत्वान्निर्विशेषचैतन्यस्य तद्योग्यत्वे तेनैव प्रकाशाद्युपपत्तौ वृत्त्यवच्छेदकल्पना निष्फला स्यात्। नच संसारदशायां सङ्कुचितस्य तस्य विषयव्यवस्थौपयिकतया साफल्यमिति वाच्यम्? तस्य सङ्कोचाङ्गीकारे निर्विकारत्वादिप्रतिपादकश्रुत्यादिविरोधाच्चक्षुरादिवृत्तिभिरेव विषयव्यवस्थोपपत्तेश्च धर्मभूतज्ञानस्य च विकारोऽङ्गीकृत एवेति न किञ्चिदनुपपन्नमस्माकम् -- इति। एतत्सर्वमभिप्रेत्य भाषितंतेषां पुरुषधर्मत्वंपुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते [13।21]इति वक्ष्यत इति।चेतनाधृतिः इत्यत्र न तावत्पदद्वयं? चैतन्यस्य क्षेत्रान्तर्भावात् एकपदत्वेऽपि चेतनाया धृतिरिति न विग्रहः? धृतिशब्दस्याधारपरत्वे शरीरस्य चैतन्याधारत्वासम्भवात् भोगस्थानपरत्वे निर्विशेषचैतन्यस्य भोक्तृत्वानभ्युपगमात् एष हि द्रष्टा श्रोता रसयिता घ्राता मन्ता बोद्धा कर्ता विज्ञानात्मा पुरुषः [प्र.उ.4।9] इति ज्ञातृत्वकर्तृत्वविशिष्टचेतनस्यैव भोक्तृत्वश्रवणाच्च। चेतनस्याधृतिरिति विग्रहः। चेतनशब्देनात्मा निर्दिश्यते।भूतरुह्याम [वि.पु. ] इतिवत् आधृतिशब्दोऽपिअकर्तरि च कारके संज्ञायाम् [अष्टा.3।3।19] इत्याधारपर इत्याह -- आधृतिराधार इति। अत्रोद्दिष्टार्थक्रमवशाद्व्युत्क्रमेण व्याख्यातम्? आधारत्वस्यात्र भोगायतनत्वरूपत्वान्नाधेयत्वरूपशरीरलक्षणविरोध इत्यभिप्रेत्याह -- सुखेति।महाभूतानि इत्यादेः सुग्रहत्वायमहाभूतानि इत्यादेःतत्क्षेत्रं यच्च यादृक्च [13।4] इत्यादि यद्वृत्तपञ्चकार्थविषयतां दर्शयन् पिण्डितार्थमाह -- प्रकृत्यादीति।सविकारशब्देनेच्छादीनां क्षेत्रपरिणामत्वशङ्काव्युदासायाह -- सकार्यमिति। ,

By - Sri Abhinavgupta , in sanskrit

।।13.6 -- 13.7।।महाभूतानीति। इच्छेति। अव्यक्तम् प्रकृतिः। इन्द्रियाणि मनसा सह एकादश। ,इन्द्रियगोचराः रूपादयः पंच। चेतना दृक्छक्तिः पुरुषः। धृतिरिति -- अन्ते (?N अत्रान्ते किल) किल सर्वस्य आ ब्रह्मणः क्रिमिपर्यन्तस्य प्रारब्धे निष्पन्ने वा कार्ये कामक्रोधादिषु च इयतैव मम पर्याप्तं? किमन्येन ईदृशश्चाहं नित्यमेव भूयासम् इति प्राणसन्धारिणी (S?N -- संधारणी -- साधारणी) धृतिः आश्वासनात्मिका पररहस्यशासनेषु रागशब्दवाच्या जायते।

By - Sri Jayatritha , in sanskrit

।।13.7।।महाभूतानीत्यनुक्रम्यएतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतं इत्युक्तम्? तत्र न ज्ञायते किं क्षेत्रं के च तद्विकारा इत्यत आह -- इच्छादय इति। पूर्वं क्षेत्रमिति भावः।

By - Sri Madhusudan Saraswati , in sanskrit

।।13.7।।इच्छा सुखे तत्साधने चेदं मे भूयादिति स्पृहात्मा चित्तवृत्तिः काम इति राग इति चोच्यते। द्वेषो दुःखे तत्साधने चेदं मे भूयादिति स्पृहाविरोधिनी चित्तवृत्तिः क्रोध इतीर्ष्येति चोच्यते। सुखं निरुपधीच्छाविषयीभूता धर्मासाधरणकारणिका चित्तवृत्तिः परमात्मसुखव्यञ्जिका। दुःखं निरुपधिद्वेषविषयीभूता चित्तवृत्तिरधर्मासाधारणकारणिका। संघातः पञ्चमहाभूतपरिणामः। सेन्द्रियं शरीरं चेतना स्वरूपज्ञानव्यञ्जिका प्रमाणासाधारणकारणिका चित्तवृत्तिर्ज्ञानाख्या। धृतिरवसन्नानां देहेन्द्रियाणामवष्टम्भहेतुः प्रयत्नः। उपलक्षणमेतदिच्छादिग्रहणं सर्वान्तःकरणधर्माणाम्। तथाच श्रुतिःकामः संकल्पो विचिकित्सा श्रद्धाऽश्रद्धा धृतिरधृतिर्ह्रीर्धीर्भीरित्येतत्सर्वं मन एव इति। मृद्धटवदुपादानाभेदेन कार्याणां कामादीनां मनोधर्मत्वमाह -- एतदिति। एतत्परिदृश्यमानं सर्वं महाभूतादिधृत्यन्तं जडं क्षेत्रज्ञेन साक्षिणावभास्यमानत्वात्तदनात्मकं क्षेत्रं भास्यमचेतनं समासेनोदाहृतमुक्तम्। ननु शरीरेन्द्रियसंघात एव चेतनः क्षेत्रज्ञ इति लोकायतिकाः। यचेतना क्षणिकं ज्ञानमेवात्मेति सुगताः। इच्छाद्वेषप्रयत्नसुखदुःखज्ञानान्यात्मनो लिङ्गमिति नैयायिकाः। तत्कथं क्षेत्रमेवैतत्सर्वमिति तत्राह -- सविकारमिति। विकारो जन्मादिर्नाशान्तः परिणामो नैरुक्तैः पठितस्तत्सहितं सविकारमिदं महाभूतादिधृत्यन्तमतो न विकारः साक्षी स्वोत्पत्तिविनाशयोः स्वेन द्रष्टुमशक्यत्वात् अन्येषामपि,स्वधर्माणां स्वदर्शनमन्तरेण दर्शनानुपपत्तेः स्वेनैव स्वदर्शने च कर्तृकर्मविरोधात् निर्विकार एव सर्वविकारसाक्षी। तदुक्तंनर्ते स्याद्विक्रियां दुःखी साक्षिता काऽविकारिणः। धीविक्रियासहस्राणां साक्ष्यतोऽहमविक्रियः।। इति। तेन विकारित्वमेव क्षेत्रचिह्नं नतु परिगणनमित्यर्थः।

By - Sri Purushottamji , in sanskrit

।।13.7।।इच्छा अभिलषितार्थरूपा? द्वेषः प्रतीपस्फूर्त्या? सुखं स्वाभिलषितप्राप्त्या? दुःखं स्वाज्ञानकल्पितं?,सङ्घातः शरीरं? चेतना ज्ञानरूपा मनोवृत्तिः? धृतिः धैर्यम्। इच्छादयोऽपि मनोधर्मा अतः सविकारम् इन्द्रियादिविकारसहितं क्षेत्रं सर्वोत्पत्तिस्थानं सङ्क्षेपेण सम्यक्प्रकारेण उदाहृतं लीलार्थं प्रकटितमिति ज्ञानार्थं कथितमित्यर्थः।

By - Sri Shankaracharya , in sanskrit

।।13.7।। --,इच्छा? यज्जातीयं सुखहेतुमर्थम्? उपलब्धवान् पूर्वम्? पुनः तज्जातीयमुपलभमानः तमादातुमिच्छति सुखहेतुरिति सा इयं इच्छा अन्तःकरणधर्मः ज्ञेयत्वात् क्षेत्रम्। तथा द्वेषः? यज्जातीयमर्थं दुःखहेतुत्वेन अनुभूतवान्? पुनः तज्जातीयमर्थमुपलभमानः तं द्वेष्टि सोऽयं द्वेषः ज्ञेयत्वात् क्षेत्रमेव। तथा सुखम् अनुकूलं प्रसन्नसत्त्वात्मकं ज्ञेयत्वात् क्षेत्रमेव। दुःखं प्रतिकूलात्मकम् ज्ञेयत्वात् तदपि क्षेत्रम्। संघातः देहेन्द्रियाणां संहतिः। तस्यामभिव्यक्तान्तःकरणवृत्तिः? तप्त इव लोहपिण्डे अग्निः आत्मचैतन्याभासरसविद्धा चेतना सा च क्षेत्रं ज्ञेयत्वात्। धृतिः यया अवसादप्राप्तानि देहेन्द्रियाणि ध्रियन्ते सा च ज्ञेयत्वात् क्षेत्रम्। सर्वान्तःकरणधर्मोपलक्षणार्थम् इच्छादिग्रहणम्। यत उक्तमुपसंहरति एतत् क्षेत्रं समासेन सविकारं सह विकारेण महदादिना उदाहृतम् उक्तम्।।यस्य क्षेत्रभेदजातस्य संहतिः इदं शरीरं क्षेत्रम् इति उक्तम्? तत् क्षेत्रं व्याख्यातं महाभूतादिभेदभिन्नं धृत्यन्तम्। क्षेत्रज्ञः वक्ष्यमाणविशेषणः -- यस्य सप्रभावस्य क्षेत्रज्ञस्य परिज्ञानात् अमृतत्वं भवति? तम् ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि (गीता 13।12) इत्यादिना सविशेषणं स्वयमेव वक्ष्यति भगवान्। अधुना तु तज्ज्ञानसाधनगणममानित्वादिलक्षणम्? यस्मिन् सति तज्ज्ञेयविज्ञाने योग्यः अधिकृतः भवति? यत्परः संन्यासी ज्ञाननिष्ठः उच्यते? तम् अमानित्वादिगणं ज्ञानसाधनत्वात् ज्ञानशब्दवाच्यं विदधाति भगवान् --,

By - Sri Vallabhacharya , in sanskrit

।।13.7।।तस्य यद्विकारितामाह -- इच्छेत्यादि। यद्यपीच्छाद्वेषसुखदुःखान्यात्मधर्मभूतानि तथाप्यात्मनश्चिदंशभूतस्य क्षेत्रसम्बन्धप्रयुक्तानीति क्षेत्राश्रितानीत्युच्यन्ते साङ्ख्ये पुरुषधर्मत्वं चपुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते [13।21] इत्येव वक्ष्यते। सङ्घातः संहननं चेतनाविवेकाद्यात्मिका प्राणादिवृत्तिः धृतिश्चेति विकाराः। सुखदुःखे भुञ्जानस्य भोगापवर्गौ साधयतश्चिदंशभूतस्य वस्तुतोऽव्यक्तस्य पुरुषस्याधारतयोत्पन्नं भूतमयं शरीरं तेषामहङ्कारादीनामाश्रयं तत्तदिच्छासुखदुःखद्वेषसङ्घातादिविकारबहुलं विवेकधैर्यादिकचतुर्वर्गसाधकं मदिच्छयोद्भावितं स्वभक्त्यर्थं दिष्टकृतमन्यैः समुदङ्कितमिति मया तत् विनश्वरस्वभावं क्षेत्रं स्थूलं सूक्ष्मं च मानुषं शरीरं तुभ्यं समासेनोदाहृतम्।