BG - 13.14

सर्वतः पाणिपादं तत्सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम्।सर्वतः श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति।।13.14।।

sarvataḥ pāṇi-pādaṁ tat sarvato ’kṣhi-śhiro-mukham sarvataḥ śhrutimal loke sarvam āvṛitya tiṣhṭhati

  • sarvataḥ - everywhere
  • pāṇi - hands
  • pādam - feet
  • tat - that
  • sarvataḥ - everywhere
  • akṣhi - eyes
  • śhiraḥ - heads
  • mukham - faces
  • sarvataḥ - everywhere
  • śhruti-mat - having ears
  • loke - in the universe
  • sarvam - everything
  • āvṛitya - pervades
  • tiṣhṭhati - exists

Translation

With hands and feet everywhere, with eyes, heads, and mouths everywhere, with ears everywhere, He exists in the worlds, enveloping all.

Commentary

By - Swami Sivananda

13.14 सर्वतः everywhere? पाणिपादम् with hands and feet? तत् that? सर्वतः everywhere? अक्षिशिरोमुखम् with eyes? heads and mouths? सर्वतः everywhere? श्रुतिमत् with ears? लोके in the world? सर्वम् all? आवृत्य having enveloped? तिष्ठति exists.Commentary He (the knower of the field or Para Brahman) pervades everything in this world. He fills and surrounds this world with Himself. He abides in the universe enveloping everything.In the previous verse it is said that the Brahman Which is to be known is neither being nor nonbeing. One may think that It is nonentity or void or nothing. In order to remove this misapprehension? the Lord says in this verse that the knowable has hands and feet everywhere? etc. It directs the mind and the senses to do their proper functions. This is only the manifest aspect of Saguna Brahman (Brahman with attributes).Just as the enginedriver drives the engine? so also the knowable or the knower of the field drieves the bodyengine. It is the Inner Ruler. It is the innermost Self. It is the support? substratum or basis for this world? body? mind? lifeforce and the senses. The existence of Brahman is determined or ascertained or indicated by the existence of the limiting adjuncts? viz.? body? mind and senses? because there must be selfconsciousness behind their activities. How can you call It nonexistence thenJust as the rope is not affected by the alities or the defects of the illusory superimposed snake? so also Para Brahman (the knower of the field) is not affected by the superimposed world? body? senses? mind and the lifeforce. There is only one common consciousness is eternal? selfluminous and allpervading. That common consciousness is Para Brahman.The body? mind? senses and the lifeforce are by nature insentient. But they are moved by Brahman to action. They act on account of the mere presence of Brahman or the knower of the field. (The limiting adjuncts are illusory.) Hence they put on the semblance of consciousness? just as the iron piece puts on the semblance of a magnet when it is in the presence of a magnet.The whole world is superimposed on Brahman like the snake on the rope. This is called Adhyaropa. It is sublated by the method (Yukti) of Apavada (negation or denial).This verse is taken from the Svetasvataropanishad 3.16.

By - Swami Ramsukhdas , in hindi

।।13.14।। व्याख्या --   सर्वतः पाणिपादं तत् -- जैसे स्याहीमें सब जगह सब तरहकी लिपियाँ विद्यमान हैं अतः लेखक स्याहीसे सब तरहकी लिपियाँ लिख सकता है। सोनेमें सब जगह सब तरहके गहने विद्यमान हैं अतः सुनार सोनेमें किसी भी जगहसे जो गहना बनाना चाहे? बना सकता है। ऐसे ही भगवान्के सब जगह ही हाथ और पैर हैं अतः भक्त भक्तिसे जहाँकहीं जो कुछ भी भगवान्के हाथोंमें देना चाहता है? अर्पण करना चाहता है? उसको ग्रहण करनेके लिये उसी जगह भगवान्के हाथ मौजूद हैं। भक्त बाहरसे अर्पण करना चाहे अथवा मनसे? पूर्वमें देना चाहे अथवा पश्चिममें? उत्तरमें देना चाहे अथवा दक्षिणमें? उसे ग्रहण करनेके लिये वहीं भगवान्के हाथ मौजूद हैं। ऐसे ही भक्त जलमें? स्थलमें? अग्निमें? जहाँकहीं जिस किसी भी संकटमें पड़नेपर भगवान्को पुकारता है? उसकी रक्षा करनेके लिये वहाँ ही भगवान्के हाथ तैयार हैं अर्थात् भगवान् वहाँ ही अपने हाथोंसे उसकी रक्षा करते हैं।भक्त जहाँकहीं भगवान्के चरणोंमें चन्दन लगाना चाहता है? पुष्प चढ़ाना चाहता है? नमस्कार करना चाहता है? उसी जगह भगवान्के चरण मौजूद हैं। हजारोंलाखों भक्त एक ही समयमें भगवान्के चरणोंकी अलगअलग पूजा करना चाहें? तो उनके भावके अनुसार वहाँ ही भगवान्के चरण मौजूद हैं।सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम् -- भक्त भगवान्को जहाँ दीपक दिखाता है? आरती करता है? वहाँ ही भगवान्के नेत्र हैं। भक्त जहाँ शरीरसे अथवा मनसे नृत्य करता है? वहाँ ही भगवान् उसके नृत्यको देख लेते हैं। तात्पर्य है कि जो भगवान्को सब जगह देखता है? भगवान् भी उसकी दृष्टिसे कभी ओझल नहीं होते (गीता 6। 30)।भक्त जहाँ भगवान्के मस्तकपर चन्दन लगाना चाहे? पुष्प चढ़ाने चाहे? वहाँ ही भगवान्का मस्तक है।भक्त जहाँ भगवान्को भोग लगाना चाहे? वहाँ ही भगवान्का मुख है अर्थात् भक्तद्वारा भक्तिपूर्वक दिये हुए पदार्थको भगवान् वहाँ ही खा लेते हैं (गीता 9। 26)।सर्वतःश्रुतिमत् -- भक्त जहाँकहीं जोरसे बोलकर प्रार्थना करे? धीरेसे बोलकर प्रार्थना करे अथवा मनसे प्रार्थना करे? वहाँ ही भगवान् अपने कानोंसे सुन लेते हैं।मनुष्योंके सब अवयव (अङ्ग) सब जगह नहीं होते अर्थात् जहाँ नेत्र हैं? वहाँ कान नहीं होते और जहाँ कान,हैं? वहाँ नेत्र नहीं होते जहाँ हाथ हैं? वहाँ पैर नहीं होते और जहाँ पैर हैं? वहाँ हाथ नहीं होते इत्यादि। परन्तु भगवान्की इन्द्रियाँ? उनके अवयव सब जगह हैं। अतः भगवान् नेत्रोंसे सुन भी सकते हैं? बोल भी सकते हैं? ग्रहण भी कर सकते हैं इत्यादि। तात्पर्य है कि वे सभी अवयवोंसे सभी क्रियाएँ कर सकते हैं क्योंकि उनके सभी अवयवोंमें सभी अवयव मौजूद हैं। उनके छोटेसेछोटे अंशमें भी सबकीसब इन्द्रियाँ हैं।भगवान्के सब जगह हाथ? पैर? नेत्र? सिर? मुख और कान कहनेका तात्पर्य है कि भगवान् किसी भी प्राणीसे दूर नहीं हैं। कारण कि भगवान् सम्पूर्ण देश? काल? वस्तु? व्यक्ति? घटना? परिस्थिति आदिमें परिपूर्णरूपसे विद्यमान हैं। संतोंने कहा है -- चहुँ दिसि आरति चहुँ दिसि पूजा। चहुँ दिसि राम और नहिं दूजा।।संसारी आदमीको जैसे बाहरभीतर? ऊपरनीचे सब जगह संसारहीसंसार दीखता है? संसारके सिवाय दूसरा कुछ दीखता ही नहीं? ऐसे ही परमात्माको तत्त्वसे जाननेवाले पुरुषको सब जगह परमात्माहीपरमात्मा दीखते हैं।लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति -- अनन्त सृष्टियाँ हैं? अनन्त ब्रह्माण्ड हैं? अनन्त ऐश्वर्य हैं और उन सबमें देश? काल? वस्तु? व्यक्ति आदि भी अनन्त हैं? वे सभी परमात्माके अन्तर्गत हैं। परमात्मा उन सबको व्याप्त करके स्थित हैं। दसवें अध्यायके बयालीसवें श्लोकमें भी भगवान्ने कहा है कि मैं सारे संसारको एक अंशसे व्याप्त करके स्थित हूँ। सम्बन्ध --   पूर्वश्लोकमें सगुणनिराकारका वर्णन करके अब आगेके तीन श्लोकोंमें उसकी विलक्षणता? सर्वव्यापकता और सर्वसमर्थताका वर्णन करते हैं।

By - Swami Chinmayananda , in hindi

।।13.14।। सर्वत पाणिपादम् उत्तम अधिकारी तो आत्मा के निर्गुण स्वरूप को पहचान लेता है? परन्तु मध्यम अधिकारी को अज्ञात और अव्यक्त का बोध? ज्ञात और व्यक्त वस्तुओं के द्वारा कराने में सरलता होती है। यद्यपि प्रणियों के हाथ और पैर जड़ तत्त्व के बने हैं? तथापि वे चेतन और कार्यक्षम प्रतीत हो रहे हैं। इन सबके पीछे इन्हें चेतनता प्रदान करने वाला आत्मतत्त्व सर्वत्र एक ही है। इसीलिए यहाँ कहा गया है कि ब्रह्म समस्त हाथ और पैरों को धारण करने वाला है।इसी प्रकार? समस्त नेत्र? शिर और मुख भी इस चैतन्य के कारण ही स्वव्यापार करने में समर्थ होते हैं। इसलिए आत्मा का निर्देश इस प्रकार करते हैं कि वह सब ओर नेत्र? शिर और मुख वाला है। चैतन्य से धारण किये होने पर ही प्राणियों में विषय ग्रहण तथा विचार करने की क्रियाएं होती रहती हैं। अत चैतन्य ब्रह्म सब ओर से श्रोत वाला कहा गया है।यह सबको व्याप्त करके स्थित है यहाँ जब आत्मा के उपाधियुक्त स्वरूप और प्रभाव को दर्शाया गया है? तो कोई यह मान सकता है कि जहाँ उपाधियाँ हैं? वहीं पर आत्मा का अस्तित्व है और अन्यत्र नहीं। इस प्रकार की विपरीत धारणा को दूर करने के लिए यहाँ पर अत्यन्त उचित ही कहा गया है कि वह परम सत्य सबको व्याप्त करके स्थित है। यह श्लोक वैदिक साहित्य से परिचित विद्यार्थियों को ऋग्वेद के प्रसिद्ध पुरुषसूक्तम् का स्मरण कराता है।भगवान् आगे कहते हैं

By - Sri Anandgiri , in sanskrit

।।13.14।।आरोपादृते साक्षादेव ज्ञेयस्य पाण्यादिमत्त्वमाशङ्क्याह -- उपाधीति। इन्द्रियविशेषणीभूतसर्वशब्दाज्ज्ञेयोपाधित्वन्यायाविशेषाच्चात्र बुद्ध्यादेरपि ग्रहणमित्याह -- अन्तःकरणे चेति। श्रोत्रादीनां ज्ञेयोपाधित्वस्य मनोबुद्धिद्वारत्वादपि तयोरिह ग्रहणमित्याह -- अपिचेति। तयोरपीहोपादाने फलितमाह -- इत्यत इति। अक्षरार्थमुक्त्वा वाक्यार्थमाह -- सर्वेति। उपाधिद्वारा कल्पितव्यापारवत्त्वे मानमाह -- ध्यायतीति। कल्पितमेवास्य व्यापारवत्त्वं न वास्तवमित्यत्र भगवतोऽपि संमतिमाकाङ्क्षाद्वारा दर्शयति -- कस्मादित्यादिना। सर्वकरणराहित्ये फलमाह -- अत इति। साक्षादेव ज्ञेयस्य वेगवद्विहरणादिक्रियावत्ताया मान्त्रवर्णिकत्वात्कुतोऽस्य करणव्यापारैरव्यापृतत्वमित्याशङ्क्यानुवादपूर्वकं मन्त्रस्य प्रकृतानुगुणत्वमाह -- यस्त्विति। करणगुणानुगुण्यभजनमन्तरेण साक्षादेव जवनादिक्रियावत्त्वप्रदर्शनपरत्वे मन्त्रस्य मुख्यार्थत्वं स्यादित्याशङ्क्य तदसंभवान्नैवमित्याह -- अन्ध इति। अर्थवादस्य श्रुतेऽर्थे तात्पर्याभावान्न प्रकृतप्रतिकूलतेत्यर्थः। सर्वकरणराहित्यं तद्व्यापारराहित्यस्योपलक्षणमित्यङ्गीकृत्योक्तमेव हेतुं कृत्वा वस्तुतः सर्वसङ्गवर्जितत्वमाह -- यस्मादिति। वस्तुतः सर्वसङ्गाभावेऽपि सर्वाधिष्ठानत्वमाह -- यद्यपीति। स्वसत्तामात्रेणाधिष्ठानतया सर्वं पुष्णातीत्येतदुपपादयति -- सदिति। विमतं सति कल्पितं प्रत्येकं सदनुविद्धधीबोध्यत्वात्प्रत्येकं चन्द्रभेदानुविद्धधीबोध्यचन्द्रभेदवदित्यर्थः। सर्वं सदास्पदमित्ययुक्तं मृगतृष्णिकादीनां तदभावादित्याशङ्क्याह -- नहीति। तेषामपि कल्पितत्वे निरधिष्ठानत्वायोगान्निरूप्यमाणे तदधिष्ठानं सदेवेति सर्वस्य सति कल्पितत्त्वमविरुद्धमित्यर्थः। सर्वाधिष्ठानत्वेन ज्ञेयस्य ब्रह्मणोऽस्तित्वमुक्तमुपसंहरति -- अत इति। इतश्च ज्ञेयं ब्रह्मास्तीत्याह -- स्यादिदं चेति। नहि तस्योपलब्धृत्वमसत्त्वे सिध्यतीत्यर्थः।

By - Sri Dhanpati , in sanskrit

।।13.14।।ननु सर्व विशेषरहितस्य वागाद्यगोचरस्य सच्छब्दाविषयत्वादसत्त्वाशङ्कायां न सदित्यनेन संक्षेपतः समाहितायामपि प्रत्यक्त्वेनेन्द्रियप्रवृत्त्यादिहेतुत्वेन कल्पितद्वैतसत्तास्फूर्तिप्रदत्वेन च ज्ञेयस्यास्तित्वं प्रतिपादयन्नादौ यथाऽचेतनानां रथादीनां चेतनाधीना प्रवृत्तिस्तथा सर्वप्राणिकरणानामचेतनानां तच्च प्रत्यक्चैतन्यं ब्रह्मैवेति विस्तरेण तदाशङ्कानिवृत्त्यर्थमाह। सर्वतः सर्वत्र पाणयो हस्ताः पादाश्च यस्य तत् ज्ञेयं तथा तद्यपि पाण्यदीनां देहस्थत्वेनात्मधर्मत्वं तथापि करणप्रवृत्तिश्चेतनाधिष्ठानपूर्विका प्रेक्षापूर्वकप्रवृत्तित्वात् रथादिप्रवृत्तिवदिति सर्वप्राणिकरणोपाधिभिः क्षेत्रज्ञास्तित्वं विभाव्यते। ननूक्तरीत्या चेतनास्तित्वमिद्धावपि कथं क्षेत्रज्ञास्तित्वमितिचेत् चेतन एव क्षेत्रोपाधितः क्षेत्रज्ञ इत्युच्यते इत्यतस्तदस्तित्वं क्षेत्रज्ञास्तित्वमेव। ननु क्षेत्रोपाधितश्चैतन्यस्य क्षेत्रज्ञत्वेऽपिपाण्यादिमत्त्वं कथमितिचेत्। क्षेत्रस्य पाण्यादिभिरनेकधाभिन्नत्वेन तदुपाधितः क्षेत्रज्ञस्यापि पाण्यादिमत्तायाः सुवचत्वात्। न सत्तन्नासदुच्यत इति निर्विशेषत्वेन ज्ञेयत्वोक्तिस्तु क्षेत्रोपाधिकृतस्य विशेषजातस्य मिथ्यात्वात्। क्षेत्रज्ञस्य तदपनयेन सुवचा। ननु पाण्यादिमत्त्वस्यैवोपाधिकृतस्य मिथ्यात्वात् ज्ञेयप्रवचनाधिकारे तदुक्तिरपार्थेति चेन्न। ज्ञेयास्तित्वबोधनाय ज्ञेयधर्मवत्परिकल्प्यतथाभूतपाण्याद्युक्तेः सार्थकत्वात्। तदुक्तं संप्रदायविद्भिःअध्यारोपापवादाभ्यां निष्प्ररञ्चं प्रपञ्चयते इति। सर्वतोक्षीणि शिरांसि मुखानि च यस्य तत्। सर्वतः,श्रुतिः श्रवणेन्द्रियमस्त्यस्य तत् पाणिपादमुखवत्त्वमवशिष्टकर्मेन्द्रियवत्त्वस्याक्षिश्रुतिमत्त्वं चावशिष्टज्ञानेन्द्रियत्त्वस्य मनोबुद्य्धादिमत्त्वस्य चोपलक्षणम्। सर्वत्र सर्वदेहावयवत्वेन गम्यमानाः पाणिपादातयो ज्ञेयस्य परमात्मनः सन्निधिमात्रेण प्रवर्तनसमर्थस्य सत्त्वं निमीत्तीकृत्य स्वकार्यवन्तो भवन्तीत्यतो ज्ञेयसद्भावलिङ्गानि ज्ञेयस्येत्युपचारत उच्यते। लोके सर्वप्राणिसमुदाये सर्वं चराचरं सत्तादिनाध्यासिकसंबन्धेनावृत्य संव्याप्य तिष्ठति निर्विशेषामेव स्थितिं लभते नतु चलति। अध्यारोपितसविशेषप्रपञ्चने स विशेषत्वं नैव लभत इत्यर्थः।

By - Sri Neelkanth , in sanskrit

।।13.14।।एवं स च य इत्येतत्क्षेत्रज्ञस्वरूपमपास्तसमस्तविशेषमुपपाद्य यत्प्रभाव इति प्रतिज्ञातं तस्य प्रभाव वैश्वरूप्यलक्षणमुपपादयति -- सर्वत इति। सर्वतः सर्वासु दिक्षु अन्तर्बहिश्च पाणयः पादाश्चास्य सन्तीति सर्वतःपाणिपादम्। एवं सर्वतः अक्षीणि शिरांसि मुखानि च यस्य तत्सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम्। सर्वतःश्रुतिमत् श्रवणवत्। लोके सर्वं आवृत्य व्याप्य तिष्ठति। यथा स्वप्नदृक् तैजसो वासनामयेनैव पाणिपादादिना स्वाप्नं प्रपञ्चमनुभवति। तस्य च जाग्रत्काले उपाधिभूतं पिण्डगतमेव पाणिपादादिकं तदेव स्थूलप्रपञ्चानुभवसंस्काराधानद्वारा वासनामयस्य प्रपञ्चस्य कारणम्। वासनामयश्च स्थूलप्रपञ्चस्य कारणमिति बीजाङ्कुरन्यायेनानयोरन्योन्यस्मिन्नन्योन्यसद्भावोऽन्योन्यकारणत्वं चास्तीति। एवं सकलप्राणिधीवासनोपरक्ताज्ञानोपाधिकं चैतन्यं सकलप्राणिधीवासनामयं समष्टिसूक्ष्मप्रपञ्चमवभासयति। अस्य चोपाधिभूतं ब्रह्माण्डगतसकलप्राणिपादादिकमेव। एवं च पूर्ववत्स्थूलसूक्ष्मयोरपि समष्टिप्रपञ्चयोरन्योन्यं बीजाङ्कुरन्यायेन कार्यकारणभावमन्योन्यस्यान्योन्यस्मिन्सद्भावं चाभिप्रेत्योक्तं भगवता भाष्यकारेण सकलप्राणिकरणोपाधिद्वारेण ज्ञेयब्रह्मणोऽस्तित्वं प्रतिपाद्यत इति। कार्यद्वारा करणास्तित्वसिद्धौ च कारणाभावोऽप्यपोद्यतेअनादिमत्परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते इति। ननुप्रक्षालनाद्धि पङ्कस्य दूरादस्पर्शनं वरम् इति न्यायेन व्यर्थस्तर्हि कारणोपन्यास इति चेन्न। तं विना शुद्धाधिगमायोगात्। शाखाचन्द्रन्यायेन हि सगुणं निर्गुणस्य वस्तुनो ज्ञापकम्। यथोक्तं भाष्ये उपाधिकृतमिथ्यारूपमप्यस्तित्वाधिगमाय ज्ञेयधर्मवत्परिकल्प्योच्यते सर्वतःपाणिपादमित्यादि। तथाहि संप्रदायविदां वचनम्अध्यारोपापवादाभ्यां निष्प्रपञ्चं प्रपञ्च्यते इति।

By - Sri Ramanujacharya , in sanskrit

।।13.14।।सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियगुणैः आभासो यस्य तत् सर्वेन्द्रियगुणाभासम्। इन्द्रियगुणा इन्द्रियवृत्तयः? इन्द्रियवृत्तिभिः अपि विषयान् ज्ञातुं समर्थम् इत्यर्थः। स्वभावतः सर्वेन्द्रियविवर्जितं विना एव इन्द्रियवृत्तिभिः स्वत एव सर्वं जानाति इत्यर्थः। असक्तं स्वभावाद् एव देवादिदेहसङ्गरहितम्? सर्वभृत् च एव देवादिसर्वदेहभरणसमर्थं च।स एकधा भवति (द्विधा भवति) त्रिधा भवति (छा0 उ0 7।26।2) इत्यादिश्रुतेः।निर्गुणं तथा स्वभावतः सत्त्वादिगुणरहितं गुणभोक्तृ च सत्त्वादीनां गुणानां भोगसमर्थं च।

By - Sri Sridhara Swami , in sanskrit

।।13.14।। नन्वेवं ब्रह्मणः सदसद्विलक्षणत्वे सतिसर्वं खल्विदं ब्रह्मब्रह्मैवेदं सर्वम् इत्यादिश्रुतिभिर्विरुध्येतेत्याशङ्क्यपराऽस्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च इत्यादिश्रुतिप्रसिद्धयाऽचिन्त्यशक्त्या सर्वात्मतां तस्य दर्शयन्नाह -- सर्वत इति पञ्चभिः। सर्वतः सर्वत्र पाणयः पादाश्च यस्य तत्? सर्वतोऽक्षीणि शिरांसि मुखानि च यस्य तत्? सर्वतःश्रुतिमच्छ्रवणेन्द्रियैर्युक्तं सल्लोके सर्वमावृत्य व्याप्य तिष्ठति। सर्वप्राणिप्रवृत्तिभिः पाण्यादिभिरुपाधिभिः सर्वव्यवहारास्पदत्वे तिष्ठतीत्यर्थः।

By - Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha , in sanskrit

।।13.14।।आत्मस्वरूपस्याशरीरत्वान्निरवयवत्वान्निरिन्द्रियत्वाच्च पाणिपादप्रसङ्ग एव नास्ति? न चेदमनेकबाहुत्वादिप्रागुक्तपरं? जीवप्रकरणत्वस्थापनात् अतएव जीवकर्मगृहीतैः स्वेच्छागृहीतैश्च पाण्यादिभिर्विश्वात्मकस्य ब्रह्मणो योग उच्यत इत्यादिकल्पनाऽपि निरस्ता पादादिषु पाण्याद्यभावाच्च सर्वत इत्यपि न घटते तत्कथं सर्वतःपाणिपादत्वादिकं इत्यत्राह -- परिशुद्धेति। पाण्यादिरहितस्यापि परिशुद्धात्मनः पाण्यादिशब्दलक्षिते शक्तियोगे श्रुतिं दर्शयितुं परमात्मनस्तद्रहितस्यापि तच्छक्तियोगं तावद्दर्शयति -- अपाणीति। अपाणिपादः [श्वे.उ.3।19] इति निषेध्यस्य कर्मेन्द्रियवर्गस्योपलक्षणम् अचक्षुरकर्णः [श्वे.उ.3।19] इति ज्ञानेन्द्रियवर्गस्य। तर्हि परमात्मासाधारणस्वभावस्यात्र अल्पशक्तौ जीवे कथं व्यपदेशः इत्यत्राह -- प्रत्यगात्मनोऽपीति। मुक्तदशायां ब्रह्मगुणाष्टकयोगादसङ्कुचितज्ञानशक्तेस्तदुपपत्तिरिति भावः। साम्यश्रुतिसङ्कोचाभावाद्विशेषकण्ठोक्त्यभावेऽपि सर्वतःपाणिपादत्वादिकं सिद्धमेवेत्यभिप्रायेणैवकारः। साम्यापत्तिमात्रे सर्वथासाम्यं कथं श्रुतिसिद्धं इत्यत्राह -- तदेति। इदं हि परमसाम्यं जगद्व्यापारव्यतिरिक्तसर्वविषयमिति फलपादे मीमांसितमिति भावः। स च श्रुत्यर्थोऽत्राप्युपदेक्ष्यते? तद्विवक्षाऽत्र युक्तेत्याह -- इदं ज्ञानमिति।तिष्ठति इत्यत्र व्याप्तेरप्रच्युतिर्विवक्षिता। कर्मवेष्टितज्ञानस्याणोः कथं सर्वव्यापिस्थितिरित्यत्राह -- परिशुद्धेति। इदं च व्यापकत्वं धर्मभूतज्ञानद्वारेति निरूपितं शारीरकेप्रदीपवदावेशस्तथाहि दर्शयति [ब्र.सू.4।4।15] इत्यादिना? जीवस्वरूपस्याणुत्वेनैव लक्षणात्? निर्विकारश्रुत्या च स्वरूपविकारायोगात्।

By - Sri Abhinavgupta , in sanskrit

।।13.13 -- 13.18।।एतेन ज्ञानेन यत् ज्ञेयं तदुच्यते -- ज्ञेयमित्यादि विष्ठितमित्यन्तम्। अनादिमत् परं ब्रह्म इत्यादिभिर्विशेषणैः ब्रह्मस्वरूपाक्षेपानुग्राहकं,(S -- स्वरूपापेक्षानु -- ) सर्वप्रवादाभिहितविज्ञानापृथग्भावं कथयति (S??N सर्वप्रवादान्तराभिहितपृथग्भावकमुच्यते)। एतानि च विशेषणानि पूर्वमेव व्याख्यातानि इति किं निष्फलया,पुनरुक्त्या।

By - Sri Madhusudan Saraswati , in sanskrit

।।13.14।।एवं निरुपाधिकस्य ब्रह्मणः सच्छब्दप्रत्ययाविषयत्वादसत्त्वाशङ्कायां नासदित्यनेनापास्तायामपि विस्तरेण तदाशङ्कानिवृत्त्यर्थं सर्वप्राणिकरणोपाधिद्वारेण चेतनक्षेत्रज्ञरूपतया तदस्तित्वं प्रतिपादयन्नाहसर्वत इति। सर्वत्रः सर्वेषु देहेषु पाणयः पादाश्चाचेतनाः स्वस्वव्यापारेषु प्रवर्तनीया यस्य चेतनस्य क्षेत्रज्ञस्य तत्सर्वतःपाणिपादं ज्ञेयं ब्रह्म सर्वाचेतनप्रवृत्तीनां चेतनाधिष्ठानपूर्वकत्वात्तस्मिन्क्षेत्रज्ञे चेतने ब्रह्मणि ज्ञेये सर्वाचेतनवर्गप्रवृत्तिहेतौ न नास्तिताशङ्केत्यर्थः। एवं सर्वतोऽक्षीणि शिरांसि मुखानि च यस्य प्रवर्तनीयानि? एवं सर्वतः श्रुतयः श्रवणेन्द्रियाणि यस्य प्रवर्तनीयत्वेन सन्ति तत्सर्वतोक्षिशिरोमुखम्। सर्वतः श्रुतिमल्लोके सर्वप्राणिनिकाये एकमेव नित्यं विभु च सर्वमचेतनवर्गं आवृत्य स्वसत्तया स्फूर्त्या चाध्यासिकेन संबन्धेन व्याप्य तिष्ठति निर्विकारमेव स्थितिं लभते नतु स्वाध्यस्तस्य जडप्रपञ्चस्य दोषेण गुणेन वाणुमात्रेणापि संबध्यत इत्यर्थः। यथाच सर्वेषु देहेष्वेकमेव चेतनं नित्यं विभु च न प्रतिदेहं भिन्नं तथा प्रपञ्चितं प्राक्।

By - Sri Purushottamji , in sanskrit

।।13.14।।एवं सर्वाविषयत्वे ज्ञेयत्वं बाध्यते इति ज्ञेयत्वेन स्वरूपमाह -- सर्वत इति। सर्वतः पाणयः पादाश्च यस्य तत्। एवं विशेषणद्वयेन सर्वत्र क्रियाशक्तिः सर्वसेव्यत्वं च निरूपितम्। सर्वतः अक्षीणि शिरांसि मुखानि च यस्य। एवं विशेषणत्रयेण सर्वज्ञानवत्त्वं सर्वमुख्यत्वं ज्ञापितम्। सर्वतश्श्रुतिमत् सर्वतः श्रवणेन्द्रिययुक्तम्। अनेन भक्तादिस्तुतिश्रवणे योग्यत्वेन कृपालुत्वं प्रदर्शितम्। लोके स्वकीय इति शेषः। तर्हि परिच्छिन्नं भविष्यति इत्याशङ्क्याह -- सर्वं आवृत्य व्याप्य सर्वेन्द्रियादियुक्तमेव तिष्ठतीति भावः।

By - Sri Shankaracharya , in sanskrit

।।13.14।। --,सर्वतःपाणिपादं सर्वतः पाणयः पादाश्च अस्य इति सर्वतःपाणिपादं तत् ज्ञेयम्। सर्वप्राणिकरणोपाधिभिः क्षेत्रज्ञस्य अस्तित्वं विभाव्यते। क्षेत्रज्ञश्च क्षेत्रोपाधितः उच्यते। क्षेत्रं च पाणिपादादिभिः अनेकधा भिन्नम्। क्षेत्रोपाधिभेदकृतं विशेषजातं मिथ्यैव क्षेत्रज्ञस्य? इति तदपनयनेन ज्ञेयत्वमुक्तम् न सत्तन्नासदुच्यते इति। उपाधिकृतं मिथ्यारूपमपि अस्तित्वाधिगमाय ज्ञेयधर्मवत् परिकल्प्य उच्यते सर्वतःपाणिपादम् इत्यादि। तथा हि संप्रदायविदां वचनम् -- अध्यारोपापवादाभ्यां निष्प्रपञ्चं प्रपञ्च्यते इति। सर्वत्र सर्वदेहावयवत्वेन गम्यमानाः पाणिपादादयः ज्ञेयशक्तिसद्भावनिमित्तस्वकार्याः इति ज्ञेयसद्भावे लिङ्गानि ज्ञेयस्य इति उपचारतः उच्यन्ते। तथा व्याख्येयम् अन्यत्। सर्वतःपाणिपादं तत् ज्ञेयम्। सर्वतोऽक्षिशिरोमुखं सर्वतः अक्षीणि शिरांसि मुखानि च यस्य तत् सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम् सर्वतःश्रुतिमत् श्रुतिः श्रवणेन्द्रियम्? तत् यस्य तत् श्रुतिमत्? लोके प्राणिनिकाये? सर्वम् आवृत्य संव्याप्य तिष्ठति स्थितिं लभते।।उपाधिभूतपाणिपादादीन्द्रियाध्यारोपणात् ज्ञेयस्य तद्वत्ताशङ्का मा भूत् इत्येवमर्थः श्लोकारम्भः --,

By - Sri Vallabhacharya , in sanskrit

।।13.14।।तत्साकारं निराकारं वा इत्याशङ्क्याऽऽह -- सर्वतःपाणिपादान्तमिति। साकारमेव सर्वत्र प्रदेशे पाणयः पादा अन्ता यस्य। गतिकृतिलक्षणे क्रिये सर्वत्र अन्तपदेन स्वेच्छया परिच्छेदावभानं चोक्तम्। सर्वतोऽक्षिशिरोमुखं इति ज्ञानप्राधान्यभोगाश्च सर्वत्र चोक्ताः। नामप्रपञ्चार्थमाह -- सर्वत्र श्रुतिमल्लोक इति। सर्वतः शृणोतीत्यर्थः। एतादृशस्य परिच्छेदः सम्भविष्यतीत्याह -- सर्वमावृत्य तिष्ठतीति। एते धर्माः प्रपञ्चोत्पत्त्यनन्तरमेव स्पष्टा भवन्ति? तथापि तेषां नित्यत्वख्यापनाय प्रथमतो वचनम्।