BG - 13.24

य एवं वेत्ति पुरुषं प्रकृतिं च गुणैःसह।सर्वथा वर्तमानोऽपि न स भूयोऽभिजायते।।13.24।।

ya evaṁ vetti puruṣhaṁ prakṛitiṁ cha guṇaiḥ saha sarvathā vartamāno ’pi na sa bhūyo ’bhijāyate

  • yaḥ - who
  • evam - thus
  • vetti - understand
  • puruṣham - Puruṣh
  • prakṛitim - the material nature
  • cha - and
  • guṇaiḥ - the three modes of nature
  • saha - with
  • sarvathā - in every way
  • vartamānaḥ - situated
  • api - although
  • na - not
  • saḥ - they
  • bhūyaḥ - again
  • abhijāyate - take birth

Translation

He who thus knows the Spirit and Matter together with their qualities, in whatever condition he may be, he is not reborn.

Commentary

By - Swami Sivananda

13.24 यः who? एवम् thus? वेत्ति knows? पुरुषम् Purusha? प्रकृतिम् Prakriti? च and? गुणैः alities? सह with? सर्वथा in all ways? वर्तमानः living? अपि also? न not? सः he? भूयः again? अभिजायते is born.Commentary One who knows the Soul and Nature with its alities? whatever his conduct may be? frees himself from the cycle of births and deaths. Such is the advantage he gains from the discriminative knowledge of Spirit and Matter. He knows that he is eternal and changeless and that all changes are due to the modifications of Nature on account of its alities. The self through ignorance identifies itself with the body and suffers rirth.In whatsoever condition he may be? whether he is engaged in prescribed or forbidden acts (like Indra who killed the Purohita Visvarupa and many Sannyasins)? he is not born again? because the,actions (which are the seeds of rirth)? of one who knows the Spirit and Matter? who has gained the knowledge of the Self? are burnt by the fire of that knowledge. Just as the seeds that are fried in fire do not sprout again? so also the actions burnt in the fire of knowledge cannot produce new bodies or further births. In his case they are Karmabhasa (mere semblance of Karma). They are not effective causes and cannot produce further births. A burnt cloth cannot serve the purpose of the cloth.Those actions which are done with egoism and desire (expectation of fruits) will produce fruits or results. In the case of a wise man? the seeds of evil? viz.? ignorance? egoism? attachment? etc.? are burnt by the fire of knowledge. Therefore he cannot have rirths.The Karmas (Prarabdha) which have already started their operation by producing this present birth do not perish? notwithstanding the dawn of the knowledge of the Self. When an arrow is once sent out from a bow at a mark? it pierces the mark and continues to act till it falls to the ground when the full force with which it was dischared is exhausted. Even so the Prarabdha Karma which has given rise to the body continues to act till the inherent force is fully exhausted? although the sage has attained Selfrealisation through his body. But he is not in the least affected by this? because he has no identification with the body? and as he has identified himelf with Brahman or the Absolute. If a carbuncle or cancer arises in the body on account of Prarabdha Karma? he will not suffer a bit as he has risen above bodyconsciousness? and as he stands as a witness of his body. But a bystander or a spectator wrongly imagines that the liberated sage is also suffering like an ordinary worldly man. This is a serious and sad mistake. From the viewpoint of the liberated sage he has neither body nor Prarabdha Karma.An arrow that is placed ready on the bow but not discharged with force can be withdrawn. Similarly? the Karmas which have not begun to generate their fruits or effects can be neutralised or destroyed by the knowledge of the Self. Therefore it is proper to say that the liberated sage is not born again. He will not take another body when the body through which he attained knowledge perishes. As ignorance? the cause of this body? is destroyed by the knowledge of the Self? birth? the effect of ignorance? is also destroyed. As one takes birth through virtuous and vicious actions? a sage will not take birth as his virtuous and visiouc actions (the whole Sanchita or accumulated Karmas of his previous births) are destroyed by the knowledge of the Self. The Karmas done by him after he has attained Selfrealisation cannot touch him at all as he has neither egoism (agency) nor desires. (Cf.XIII.32)

By - Swami Ramsukhdas , in hindi

।।13.24।। व्याख्या --   य एवं वेत्ति ৷৷. न स भूयोऽभिजायते -- पूर्वश्लोकमें देहेऽस्मिन् पुरुषः परः पदोंसे पुरुषको देहसे पर अर्थात् सम्बन्धरहित कहा है? उसीको यहाँ एवम् पदसे कहते हैं कि जो साधक इस तरह पुरुषको देहसे? प्रकृतिसे पर अर्थात् सम्बन्धरहित जान लेता है तथा विकार? कार्य? करण? विषय आदि रूपसे जो कुछ भी संसार दीखता है? वह सब प्रकृति और उसके गुणोंका कार्य है -- ऐसा यथार्थरूपसे जान लेता है? वह फिर वर्ण? आश्रम? परिस्थिति आदिके अनुसार प्राप्त कर्तव्यकर्मको करता हुआ भी पुनर्जन्मको प्राप्त नहीं होता। कारण कि जन्म होनेमें गुणोंका सङ्ग ही कारण है (गीता 13। 21)।यहाँ सर्वथा वर्तमानोऽपि पदोंमें निषिद्ध आचरण नहीं लेना चाहिये क्योंकि जो अपनेको देहके सम्बन्धसे रहित अनुभव करता है और गुणोंके सहित प्रकृतिको अपनेसे अलग अनुभव करता है? उसमें असत् वस्तुओंकी कामना पैदा हो ही नहीं सकती। कामना न होनेसे उसके द्वारा निषिद्ध आचरण होना असम्भव है क्योंकि निषिद्ध आचरणके होनेमें कामना ही हेतु है (गीता 3। 37)।भगवान् यहाँ साधकको अपना वास्तविक स्वरूप जाननेके लिये सावधान करते हैं? जिससे वह अच्छी प्रकार,जान ले कि स्वरूपमें वस्तुतः कोई भी क्रिया नहीं है। अतः वह किसी भी क्रियाका कर्ता नहीं है और कर्ता न होनेके कारण वह भोक्ता भी नहीं होता। साधक जब अपनेआपको अकर्ता जान लेता है? तब उसका कर्तापनका अभिमान स्वतः नष्ट हो जाता है और उसमें क्रियाकी फलासक्ति भी नहीं रहती। फिर भी उसके द्वारा शास्त्रविहित क्रियाएँ स्वतः होती रहती हैं। गुणातीत होनेके कारण वह पुनर्जन्मको प्राप्त नहीं होता। सम्बन्ध --   पूर्वश्लोकमें भगवान्ने जन्मरहित होनेमें प्रकृतिपुरुषको यथार्थ जानना कारण बताया। अब यह जिज्ञासा होती है कि क्या जन्ममरणसे रहित होनेका और भी कोई उपाय है इसपर भगवान् आगेके दो श्लोकोंमें चार साधन बताते हैं।

By - Swami Chinmayananda , in hindi

।।13.24।। अब तक किये गये विवेचन का सारांश यह है कि पुरुष स्वस्वरूप से नित्यमुक्त होते हुए भी प्रकृति के साथ तादात्म्य के कारण जीव बनकर संसार के दुखों को भोगता है। इसी तादात्म्य के कारण उत्पन्न वासनाओं के अनुरूप विभिन्न योनियों में उसे जन्म लेना पड़ता है।परन्तु? जो साधक साधन सम्पन्न होकर गुरु के उपदेश से प्रकृति? पुरुष उनके परस्पर सम्बन्ध तथा प्रकृति के विविध प्रकार के प्रभाव रखने वाले गुणों को तत्त्वत जान लेता है? वही वास्तव में ज्ञानी पुरुष है? जो सदा के लिए संसार के बन्धनों से मुक्त हो जाता है।किसी वस्तु को पूर्णत जानने के लिए हमें उससे विलग रहना चाहिए। यदि हम स्वयं ही किसी परिस्थिति में उलझे हुए हों? तो हम उसका वस्तुनिष्ठ अध्ययन नहीं कर सकते। अत प्रकृति के विकारों (देहादि) और गुणों (सुखदुखादि) को जानने के लिए हमें उन सबका द्रष्टा बनकर स्थित होना चाहिए? तभी हम सर्वाधिष्ठान परमात्मा का साक्षात्कार कर सकते हैं। इस अनन्तस्वरूप ब्रह्म को अपने आत्मस्वरूप से जानने का अर्थ ही अविद्या को नष्ट करना है। ऐसे पूर्ण ज्ञानी पुरुष का पुन प्रकृति के साथ मिथ्या तादात्म्य होने के लिए कोई कारण ही नहीं रह जाता है। इसलिए यहाँ भगवान् कहते हैं कि? सब प्रकार से रहते हुए भी उसका पुन जन्म नहीं होता है। इसका अभिप्राय यह है कि ज्ञानी पुरुष जगत् में कर्म करता हुआ भी सामान्य मनुष्यों के समान नईनई वासनाओं को उत्पन्न करके उनके बन्धन में नहीं आता है क्योंकि उसका अहंकार सर्वथा नष्ट हो चुका होता है।ब्रह्मवित् ब्रह्म ही बन जाता है और उसके समस्त कर्म नष्ट हो जाते हैं यह सभी उपनिषदों के द्वारा प्रतिपादित सत्य है।अब? आत्मदर्शन के लिए अनेक उपाय बताते हैं

By - Sri Anandgiri , in sanskrit

।।13.24।।ज्ञेयं यत्तदित्यादिना तत्पदार्थस्त्वंपदार्थश्चानन्तरमेव शोधितौ तयोरैक्यं चक्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि इत्युक्तमिदानीं तद्दृष्टिहेतून्यथाधिकारं कथयति -- अत्रेति। ध्यानाख्यं साधनं किंरूपमिति पृच्छति -- ध्यानं नामेति। तद्रूपं वदन्नुत्तरमाह -- शब्दादिभ्य इति। एकाग्रतयोपसंहृत्येति संबन्धः। यच्चिन्तनं प्रत्यक्चेतयितरीति पूर्वेणान्वयः। किं तच्चिन्तनमित्युक्ते दृष्टान्तद्वारा श्रुत्यवष्टम्भेन ध्यानं प्रपञ्चयति -- तथेति। विवक्षितध्यानानुरोधेनेति यावत्? आत्मानं पश्यन्ति परमात्मतयेति शेषः। केचिदित्युत्तमाधिकारिणो गृह्यन्ते। मध्यमाधिकारिणो निर्दिशति -- अन्य इति। सांख्यशब्दितं साधनं किं नामेत्युक्ते विचारजन्यं ज्ञानं तदेव ज्ञानं,हेतुतया योगतुल्यत्वाद्योगशब्दितमित्याह -- सांख्यमिति। अधमानधिकारिणः संगिरते -- कर्मेति। चित्तैकाग्र्यं योगस्तादर्थ्यं कर्मणः शुद्धिहेतोरस्ति तेन गौण्या वृत्त्या योगशब्दितं कर्मेत्याह -- गुणत इति। अपरे पश्यन्त्यात्मानमात्मनेति पूर्ववदनुषङ्गमङ्गीकृत्याह -- तेनेति।

By - Sri Dhanpati , in sanskrit

।।13.24।।क्षेत्रज्ञं तापि मां विद्वीत्युपन्यस्तमात्मतत्त्वं व्याख्यायोपसंहृतमिदानीं शुद्धार्थयोरैक्यरुपात्मतत्त्वस्य प्रागुक्तस्य ज्ञानं फलोक्त्या स्तौति -- यइति। एवं यथोक्तेन प्रकारेण पुरुषं जीवेश्वरादिसर्वकल्पनाधिष्ठानं यो वेत्ति उक्तलक्षणः पुरुषोऽहमिति साक्षाज्जानाति प्रकृतिं चानद्यनिर्वाच्यां सर्वानर्थोपाधिभूतां गुणैः स्वविकारैः सह प्रागुक्तैकत्वगोचरया विद्यया।ञभावमापादितां यो वेत्तीति संबन्धः। स सर्वथा वर्णाश्रमधर्मानुल्लङ्घ्य प्रवर्तमानोऽपि भूयः पुनः पतितेऽस्मिञशरीरे देहान्तराय न जायते नोत्पद्यते। आवर्तमानो जन्मालावनपि सर्वथा भूयो नाभिजायत इति कल्पना तु भाष्यबहिर्भूता नादर्तव्या। आवर्तमान इत्याद्युक्तेः फलाभावात्।क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरेब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवतितस्य तावदेव चिरं यावन्न विमोक्ष्येइषीकातूलवच्च सर्वकर्माणि प्रदह्यन्ते?यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्मस्मसात्कुरुतेऽर्जुने। ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथाबीजान्यग्नयुपदग्धानि न रोहन्ति यथा पुनः। ज्ञानदग्धैस्तथा क्लेशैर्नात्मा संपद्यते पुनः।।अविद्याकामक्लेशबीजनिमित्तानां फलारम्भकाणां जन्मान्तराङ्कुरारम्भसामर्थ्यवतां कर्मणां ज्ञानग्मिनोक्तबीजदाहे सति जन्माङ्करारम्भसामर्थ्य न घटते इति श्रुतिस्मृतियुक्तभिरुक्तम्। विदुषो जन्माभावमभिप्रेत्य भगवतोक्तं न स भूयोभिजायत इति। एतेन ज्ञानोत्पत्तेः प्राक्कृतानां कर्मणामुत्तरकालभाविनामति क्रान्तोनेकजन्मकृतानां च फलमदत्त्वा प्रारब्धकर्मवन्नाशो न युक्तः।नाभूक्तं क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि इत्यादिवचनात्। तस्मान्त्रिप्रकाराण्यपि कर्माणि त्रीणि जन्मामि संहतानि वा सर्वाण्येकं जन्मारभेरन्। अन्यथा कृतविप्रणाशे सर्वत्रानाश्वासप्रशङ्गः शास्त्रानर्थक्यं च स्यादीति शङ्का प्रत्युक्ता। सर्वकर्माणीति विशेषणात्। सर्वेषां कर्मणां दाहस्य वक्तुं युक्तत्वात्। ननु ज्ञानोत्पत्त्युत्तरकालकृतानां सर्वकर्मणां ज्ञानसहभावित्वात्तेन दाहोऽस्तु नत्वन्येषाम्। तथाच न विशेषणवैयर्थ्यमिति चेन्न। संकोचे मानाभावात्। प्रारब्धकर्मणां मुक्तेषुवत्प्रवृत्तफलत्वात्तत्साम्यमनारब्धवेगेषुवदन्येषां कर्मणां न युज्यत इत्यतः पतितेऽस्मिन्विद्वच्छरीरे न स भूयोभिजायत इति युक्तमेवोक्तमिति सिद्धम्।

By - Sri Neelkanth , in sanskrit

।।13.24।।एवं यथोक्तलक्षणात्मज्ञाने फलमाह -- य एवमिति। गुणैः स्वविकारैः सर्वथा विहितेन निषिद्धेन वा कर्मणा वर्तमानोऽपि न स भूयोऽभिजायते पुनर्जन्म न लभते मुक्तो भवतीत्यर्थः।

By - Sri Ramanujacharya , in sanskrit

।।13.24।।केचित् निष्पन्नयोगा आत्मनि शरीरे अवस्थितम् आत्मानम् आत्मना मनसा ध्यानेन भक्तियोगेन पश्यन्ति। अन्ये च अनिष्पन्नयोगाः सांख्येन योगेन ज्ञानयोगेन योगयोग्यं मनः कृत्वा आत्मानं पश्यन्ति। अपरे योगादिषु आत्मावलोकनसाधनेषु अनधिकृता ये ज्ञानयोगानधिकारिणः? तदधिकारिणः च? सुकरोपायसक्ताः व्यपदेश्याः च? कर्मयोगेन अन्तर्गतज्ञानेन मनसा योगयोग्यताम् आपाद्य आत्मानं पश्यन्ति।

By - Sri Sridhara Swami , in sanskrit

।।13.24।। एवं प्रकृतिपुरुषविवेकज्ञानिनं स्तौति -- य एवमिति। एवमुपद्रष्टृत्वादिरुपेण पुरुषं यो वेत्ति? प्रकृतिं च गुणैः सुखदुःखादिपरिणामैः सहितां यो वेत्ति? स पुरुषः सर्वथा विधिमतिलङ्घ्य वर्तमानोऽपि पुनर्नाभिजायते। मुच्यत एवेत्यर्थः।

By - Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha , in sanskrit

।।13.24।।अथ विवेकानुसन्धानप्रकारं वक्तुं तत्रात्यादराय तत्फलं प्रथमं प्रदर्श्यतेय एनमिति श्लोकेन। अन्वादेशः प्रागुक्तविविक्ताकारपरामर्शीत्याहउक्तस्वभावमिति। प्रकृतेरपि प्रागेवोक्तत्वात्एनाम् इति विपरिणामःउक्तस्वभावामित्युक्तः। गुणानां तु प्राक्प्रदर्शनमात्रम् प्रपञ्चनं तु चतुर्दशाध्याय इत्यभिप्रायेणाहवक्ष्यमाणस्वभावयुक्तैरिति। प्रकृतिपुरुषयोरेव प्रधानत्वाद्गुणानां चाप्रधानत्वात्गुणैः सहेत्युक्तम्। पुरुषस्य प्रकृत्या समुच्चित्य सहनिर्देशेऽपि गुणशब्दोऽत्र पूर्वोत्तरप्रपञ्चितप्रकृतिगुणमात्रविषय इति ज्ञापनायसत्त्वादिभिरित्युक्तम्। प्रकृतितद्गुणसहितवेदनमशुद्धवेदनं स्यादिति शङ्कायांएनं वेत्ति इत्यनेनाभिप्रेतमाहयथावद्विवेकेन जानातीति। उच्छास्त्रप्रवृत्तित्वशङ्काव्युदासायसर्वथा इत्यनेन नानाविधदेहसंसर्गप्रयुक्तो योगविरोधिविचित्रक्लेशान्वयो विवक्षित इत्यभिप्रायेणाहदेवमनुष्यादीति। एतदुक्तं भवति -- तत्त्वविदः प्रारब्धकर्मवशात्तदानीन्तनक्लेशानुभवेऽपि नेतरपुरुषसाधर्म्येण जन्मान्तरमनुमातुं शक्यमिति। अपिशब्दादक्लिष्टवृत्तिषु कैमुत्यं सूचितम्।न जायते म्रियते [कठो.1।2।18] इत्यनेनैव आत्मस्वरूपस्य जन्म उक्तः अतोऽत्र तत्प्रसङ्गाभावात्तत्र भूयश्शब्दानन्वयाच्च सदसद्योनिजन्मसु [13।22] इति प्रसक्तदेहसंसर्गलक्षणजनिरेव निषिध्यत इत्यभिप्रायेणाहन भूयः प्रकृत्या संसर्गमर्हतीति। प्रलयाद्यवस्थासु विनष्टदेहस्य देहानन्तरमेव देहसम्बन्धलक्षणजन्यभावेऽपि पुनर्देहसम्बन्धयोग्यताऽस्ति? अस्य तु ज्ञानाग्निदग्धकर्मत्वात् साऽपि नास्तीत्यभिप्रायेणार्हतिशब्दः। अनर्हतामेव व्यञ्जयन् पुनर्भवादिरूपानिष्टनिवृत्तेरर्थादिष्टप्राप्तिपर्यन्ततामाहअपरिच्छिन्नेति। अज्ञानस्य कर्मणश्च निश्शेषविनाशात् नहि देहसम्बन्धयोग्यतेत्यभिप्रायेणअपरिच्छिन्नज्ञानलक्षणमपहतपाप्मानमिति विशेषणद्वयम्। भूयश्शब्दाभिप्रेतमाहतद्देहावसानसमय इति।

By - Sri Abhinavgupta , in sanskrit

।।13.24।।तथा चाह --,य एवमिति। एवम् अनेन सर्वाभेदरूपेण ब्रह्मदर्शनेन यो योगी प्रकृतिं पुरुषं गुणांश्च तद्विकारान् जानाति? सर्वेण प्रकारेण यथा तथा वर्तमानोऽपि स (S? omit सः) मुक्त एवेत्यर्थः।

By - Sri Madhusudan Saraswati , in sanskrit

।।13.24।।तदेवं स च यो यत्प्रभावश्चेति व्याख्यातं? इदानीं यज्ज्ञात्वाऽमृतमश्नुत इत्युक्तमुपसंहरति -- य एवमिति। य एवमुक्तेन प्रकारेण वेत्ति पुरुषमयमहमस्मीति साक्षात्करोति प्रकृतिं चाविद्यां गुणैः स्वविकारैः सह मिथ्याभूतामात्मविद्यया बाधितां वेत्ति निवृत्ते ममाज्ञानतत्कार्ये इति स सर्वथा प्रारब्धकर्मवशादिन्द्रवद्विधिमतिक्रम्य वर्तमानोऽपि भूयो न जायते। पतितेऽस्मिन्विद्वच्छरीरे पुनर्देहग्रहणं न करोति। अविद्यायां विद्यया नाशितायां तत्कार्यासंभवस्य बहुधोक्तत्वात्।तदधिगम उत्तरपूर्वाघयोरश्लेषविनाशौ तद्व्यपदेशात् इति न्यायात्। अपिशब्दाद्विधिमनतिक्रम्य वर्तमानः स्ववृत्तस्थो भूयो न जायत इति किमु वक्तव्यमित्यभिप्रायः।

By - Sri Purushottamji , in sanskrit

।।13.24।।एवमनूद्यैवंविदः संसाराभावमाह -- य एवमिति। एवं पूर्वोक्तप्रकारेण यः पुरुषं प्रकृतिं च गुणैः सह भगवद्रूपं वेत्ति जानाति? ज्ञात्वा तथा सर्वथा वर्तमानोऽपि तथाऽऽचरणशीलो यो भवति? स भूयो नाभिजायते संसारे नोत्पन्नो भवति। किन्तु मुक्त एव भवतीत्यर्थः।

By - Sri Shankaracharya , in sanskrit

।।13.24।। --,यः एवं यथोक्तप्रकारेण वेत्ति पुरुषं साक्षात् अहमिति प्रकृतिं च यथोक्ताम् अविद्यालक्षणां गुणैः स्वविकारैः सह निवर्तिताम् अभावम् आपादितां विद्यया? सर्वथा सर्वप्रकारेण वर्तमानोऽपि सः भूयः पुनः पतिते अस्मिन् विद्वच्छरीरे देहान्तराय न अभिजायते न उत्पद्यते? देहान्तरं न गृह्णाति इत्यर्थः। अपिशब्दात् किमु वक्तव्यं स्ववृत्तस्थो न जायते इति अभिप्रायः।।ननु? यद्यपि ज्ञानोत्पत्त्यनन्तरं पुनर्जन्माभाव उक्तः? तथापि प्राक् ज्ञानोत्पत्तेः कृतानां कर्मणाम् उत्तरकालभाविनां च? यानि च अतिक्रान्तानेकजन्मकृतानि तेषां च? फलमदत्त्वा नाशो न युक्त इति? स्युः त्रीणि जन्मानि? कृतविप्रणाशो हि न युक्त इति? यथा फले प्रवृत्तानाम् आरब्धजन्मनां कर्मणाम्। न च कर्मणां विशेषः अवगम्यते। तस्मात् त्रिप्रकाराण्यपि कर्माणि त्रीणि जन्मानि आरभेरन् संहतानि वा सर्वाणि एकं जन्म आरभेरन्। अन्यथा कृतविनाशे सति सर्वत्र अनाश्वासप्रसङ्गः? शास्त्रानर्थक्यं च स्यात्। इत्यतः इदमयुक्तमुक्तम् न स भूयोऽभिजायते इति। न क्षीयन्ते चास्य कर्माणि (मु0 उ0 2।2।8) ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति (मु0 उ0 3।2।9) तस्य तावदेव चिरम् (छा0 उ0 6।14।2) इषीकातूलवत् सर्वाणि कर्माणि प्रदूयन्ते (छा0 उ0 5।24।3) इत्यादिश्रुतिशतेभ्यः उक्तो विदुषः सर्वकर्मदाहः। इहापि च उक्तः यथैधांसि इत्यादिना सर्वकर्मदाहः? वक्ष्यति च। उपपत्तेश्च -- अविद्याकामक्लेशबीजनिमित्तानि हि कर्माणि जन्मान्तराङ्कुरम् आरभन्ते इहापि च साहंकाराभिसंधीनि कर्माणि फलारम्भकाणि? न इतराणि इति तत्र तत्र भगवता उक्तम्। बीजान्यग्न्युपदग्धानि न रोहन्ति यथा पुनः। ज्ञानदग्धैस्तथा क्लेशैर्नात्मा संपद्यते पुनः इति च। अस्तु तावत् ज्ञानोत्पत्त्युत्तरकालकृतानां कर्मणां ज्ञानेन दाहः ज्ञानसहभावित्वात्। न तु इह जन्मनि ज्ञानोत्पत्तेः प्राक् कृतानां कर्मणां अतीतजन्मकृतानां च दाहः युक्तः। न सर्वकर्माणि इति विशेषणात्। ज्ञानोत्तरकालभाविनामेव सर्वकर्मणाम् इति चेत्? न संकोचे कारणानुपपत्तेः। यत्तु उक्तम् यथा वर्तमानजन्मारम्भकाणि कर्माणि न क्षीयन्ते फलदानाय प्रवृत्तान्येव सत्यपि ज्ञाने? तथा अनारब्धफलानामपि कर्मणां क्षयो न युक्तः इति? तत् असत्। कथम् तेषां मुक्तेषुवत् प्रवृत्तफलत्वात्। यथा पूर्वं लक्ष्यवेधाय मुक्तः इषुः धनुषः लक्ष्यवेधोत्तरकालमपि आरब्धवेगक्षयात् पतनेनैव निवर्तते? एवं शरीरारम्भकं कर्म शरीरस्थितिप्रयोजने निवृत्तेऽपि? आ संस्कारवेगक्षयात् पूर्ववत् वर्तते एव। यथा स एव इषुः प्रवृत्तिनिमित्तानारब्धवेगस्तु अमुक्तो धनुषि प्रयुक्तोऽपि उपसंह्रियते? तथा अनारब्धफलानि कर्माणि स्वाश्रयस्थान्येव ज्ञानेन निर्बीजीक्रियन्ते इति? पतिते अस्मिन् विद्वच्छरीरे न स भूयोऽभिजायते इति युक्तमेव उक्तमिति सिद्धम्।।अत्र आत्मदर्शने उपायविकल्पाः इमे ध्यानादयः उच्यन्ते --,