ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना।अन्ये सांख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे।।13.25।।
dhyānenātmani paśhyanti kechid ātmānam ātmanā anye sānkhyena yogena karma-yogena chāpare
Some behold the Self within themselves through meditation, others through the Yoga of knowledge, and still others through the Yoga of action.
13.25 ध्यानेन by meditation? आत्मनि in the self? पश्यन्ति behold? केचित् some? आत्मानम् the Self? आत्मना by the self? अन्ये others? सांख्येन योगेन by the Yoga of knowledge (by the Sankhya Yoga)? कर्मयोगेन by Karma Yoga? च and? अपरे others.Commentary There are severla paths to reach the knowledge of the Self according to the nature or temperament and capacity of the individual. The first path is the Yoga of meditation taught by Maharshi Patanjali. The Raja Yogins behold the Supreme Self in the self (Buddhi) by the self (purified mind). Meditation is a continous and unbroken flow of thought of the Self like the flow of oil from one vessel to another. Through concentration hearing and the other senses are withdrawn into the mind. The senses are not allowed to run towards their respective sensual objects. They are kept under proper check and control through the process of abstraction. Then the mind itself is made to abide in the Self through constant meditation on the Self. The mind is refined or purified by meditation. The mind that is rendered pure will naturally move towards the Self. It is not attracted by nor is it attached to the sensual objects.Sankhya Yoga is Jnana Yoga. The aspirant does Vichara (analysis? reflection) and separates himself from the three alities of Nature? the three bodies and the five sheaths and identifies himself with the witness (Self). He thinks and feels? I am distinct from the three alities. I am the silent witness. I am unattached. I am nondoer. I am nonenjoyer. I am immortal? eternal? selfexistent? selfluminous? indivisible? unborn and unchanging.The Karma Yogi surrenders his actions and their fruits to the Lord. He has Isvarapana Buddhi (intelligence that offers everything to God). This produces purity of mind which gives rise to knowledge of the Self. Karma Yoga brings about concentration of the mind through the purification of the mind. It leads to Yoga through the purification of the mind and so it is spoken of as Yoga itself.Those who practise Sankhya Yoga are the highest class of spiritual aspirants. Those who practise the Yoga of meditation are aspirants of the middling class. Those who practise Karma Yoga are the lowest class of spiritual aspirants. The aspirants of the middling and lowest class soon become aspirants of the highest class through rigorous Sadhana or spiritual practices. (Cf.V.5VI.46)
।।13.25।। व्याख्या -- ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना -- पाँचवें अध्यायके सत्ताईसवेंअट्ठाईसवें श्लोकोंमें छठे अध्यायके दसवेंसे अट्ठाईसवें श्लोकतक और आठवें अध्यायके आठवेंसे चौदहवें श्लोकतक जो सगुणसाकार? निर्गुणनिराकार आदिके ध्यानका वर्णन हुआ है? उस ध्यानमें जिसकी जैसी रुचि? श्रद्धाविश्वास और योग्यता है? उसके अनुसार ध्यान करके कई साधक अपनेआपसे अपनेमें परमात्मतत्त्वका अनुभव करते हैं।जो सम्बन्धविच्छेद प्रकृति और पुरुषको अलगअलग जाननेसे होता है? वह सम्बन्धविच्छेद ध्यानसे भी होता है। ध्यान न तो चित्तकी मूढ़ वृत्तिमें होता है और न क्षिप्त वृत्तिमें होता है। ध्यान विक्षिप्त वृत्तिमें आरम्भ होता है। चित्त जब स्वरूपमें एकाग्र हो जाता है? तब समाधि हो जाती है। एकाग्र होनेपर चित्त निरुद्ध हो जाता है। इस तरह जिस अवस्थामें चित्त निरुद्ध हो जाता है। उस अवस्थामें चित्त संसार? शरीर? वृत्ति? चिन्तन आदिसे भी उपरत हो जाता है। उस समय ध्यानयोगी अपनेआपसे अपनेआपमें अपना अनुभव करके सन्तुष्ट हो जाता है (गीता 6। 19 20)।अन्ये सांख्येन योगेन -- दूसरे अध्यायके ग्यारहवेंसे तीसवें श्लोकतक चौथे अध्यायके तैंतीसवेंसे उन्तालीसवें श्लोकतक पाँचवें अध्यायके आठवें? नवें तथा तेरहवेंसे छब्बीसवें श्लोकतक और बारहवें अध्यायके चौथेपाँचवें आदि श्लोकोंमें कहे हुए सांख्ययोगके द्वारा कई साधक अपनेआपसे अपनेमें परमात्मतत्त्वका अनुभव करते हैं।सांख्ययोग नाम है विवेकका। उस विवेकके द्वारा सत्असत्का निर्णय हो जाता है कि सत् नित्य है? सर्वव्यापक है? स्थिर स्वभाववाला है? अचल है? अव्यक्त है? अचिन्त्य है और असत् चल है? अनित्य है? विकारी है? परिवर्तनशील है। ऐसे विवेकविचारसे सांख्ययोगी प्रकृति और उसके कार्यसे बिलकुल अलग हो जाता है और अपनेआपसे अपनेआपमें परमात्मतत्त्वका अनुभव कर लेता है।कर्मयोगेन चापरे -- दूसरे अध्यायके सैंतालीसवेंसे तिरपनवें श्लोकतक तीसरे अध्यायके सातवेंसे उन्नीसवें श्लोकतक चौथे अध्यायके सोलहवेंसे बत्तीसवें श्लोकतक पाँचवें अध्यायके छठेसातवें आदि श्लोकोंमें कहे हुए कर्मयोगके द्वारा कई साधक अपनेआपसे अपनेमें परमात्मतत्त्वका अनुभव करते हैं।जो सम्बन्धविच्छेद प्रकृति और पुरुषको अलगअलग जाननेसे होता है? वह सम्बन्धविच्छेद कर्मयोगसे भी होता है। कर्मयोगी जो कुछ भी करे? वह केवल संसारके हितके लिये ही करे। यज्ञ? दान? तप? तीर्थ? व्रत आदि जो कुछ भी करे? वह सब मात्र प्राणियोंके कल्याणके लिये ही करे? अपने लिये नहीं। ऐसा करनेसे स्वयंका उन क्रियाओंसे? पदार्थ? शरीर आदिसे सम्बन्धविच्छेद हो जाता है और अपनेआपसे अपनेमें परमात्मतत्त्वका अनुभव हो जाता है।मनुष्यने स्वाभाविक ही अपनेमें देहको स्वीकार किया है? माना है। इस मान्यताको दूर करनेके लिये अपनेमें,परमात्माको देखना अर्थात् देहकी जगह अपनेमें परमात्माको मानना बहुत आवश्यक है।अपनेमें परमात्माको देखना करणनिरपेक्ष होता है। करणसापेक्ष ज्ञान प्रकृतिके सम्बन्धसे होता है। इसलिये साधक किसी करणके द्वारा परमात्मामें स्थित नहीं होता? प्रत्युत स्वयं ही स्थित होता है स्वयंकी परमात्मामें स्थिति किसी करणके द्वारा हो ही नहीं सकती।
।।13.25।। सर्वोपाधिविनिर्मुक्त आत्मा का शुद्ध स्वरूप में अनुभव करना ही आध्यात्मिक साधना का अन्तिम लक्ष्य है? जिसके सम्पादन के लिए अनेक उपाय? विकल्प यहाँ बताये गये हैं। मानव का व्यक्तित्व सुगठन उसी स्थिति से प्रारम्भ होना चाहिए जहाँ वर्तमान काल में मनुष्य स्वयं को पाता है। क्रमबद्ध पाठों के बिना कोई भी शिक्षा सफल नहीं हो सकती।अत्यन्त अशुद्ध एवं चंचल मन के व्यक्ति के आत्मविकास के लिए भी अनुकूल साधन का होना आवश्यक है। पूर्णत्व के सिद्धांत को केवल बौद्धिक स्तर पर समझने से ही आत्मिक उन्नति नहीं हो सकती। ज्ञान के अनुरूप ही व्यक्ति का जीवन होने पर वास्तविक विकास संभव होता। इसलिए? अपने वैचारिकजीवन को नियन्त्रित करने तथा पुनर्शिक्षा के द्वारा उसे सही दिशा प्रदान करने में साधक को विवेक तथा उत्साह से पूर्ण सक्रिय साधना का अभ्यास करने की आवश्यकता होती है। यही कारण है कि प्रत्येक व्यक्ति को आत्मोन्नति के इस मार्ग में कठिनाई का अनुभव होता है।विभिन्न प्रकार एवं स्तर के मनुष्यों के विकास के लिए? प्राचीनकाल के महान् ऋषियों नेविभिन्न साधन मार्गों को खोज निकाला? जिन सबका साध्य एक ही है। प्रत्येक मार्ग के अनुयायी के लिए वही मार्ग सबसे उपयुक्त है। किसी एक मार्ग को अन्यों की अपेक्षा श्रेष्ठ नहीं कहा जा सकता है। एक औषधालय में अनेक औषधियाँ रखी होती हैं प्रत्येक औषधि किसी रोग विशेष के लिए होती है और उस रोग से पीड़ित रोगी के लिए स्वास्थ्यलाभ होने तक वही औषधि सर्वोत्तम होती है।विभिन्न साधकों में प्रतीयमान भेद उनके मानसिक सन्तुलन और बौद्धिक क्षमता के भेद के कारण होता है। शास्त्रीय भाषा में इसे अन्तकरण की अशुद्धि कहते हैं। वे सब साधन? जिनके द्वारा चित्तशुद्धि प्राप्त होती है? बहिरंग साधन या गौण साधन कहलाते हैं। चित्त के शुद्ध होने पर आत्मसाक्षात्कार का अन्तरंग या साक्षात् साधन ध्यान है।कोई पुरुष ध्यान के द्वारा आत्मा को देखते हैं ध्यान के विषय में शंकराचार्य जी लिखते हैं कि शब्दादि विषयों से श्रोत्रादि इन्द्रियों को मन में उपरत करके मन को चैतन्यस्वरूप आत्मा में एकाग्र करके चिन्तन करना ध्यान कहलाता है। इस चिन्तन में ध्येयविषयक वृत्तिप्रवाह तैलधारा के समान अखण्ड और अविरल बना रहता है। स्वाभाविक है कि यह मार्ग उन उत्तम साधकों के लिए हैं? जिनका हृदय और विवेक समान रूप से विकसित होता है।आत्मा को देखने का अर्थ नेत्रों से रूपवर्ण देखना नहीं है? अन्यथा यह तो वेदान्त के सिद्धांत का ही खंडन हो जायेगा। आत्मा तो द्रष्टा है? दृश्य नहीं। अत? आत्मदर्शन से तात्पर्य स्वस्वरूपानुभूति से है। वह अनुभव करतलामलक के दर्शन के समान स्पष्ट और सन्देह रहित होने के कारण यह कहने की प्रथा पड़ गयी कि वे आत्मा को देखते हैं।आत्मा के द्वारा आत्मा को देखते हैं शंकराचार्य जी इस भाग के भाष्य में कहते हैं ध्यान के द्वारा आत्मा में अर्थात् ध्यान से सुसंस्कृत हुए अन्तकरण के द्वारा देखते हैं। शुद्धांतकरण में ही आत्मा का स्पष्ट अनुभव होता है।किसी को इस बात पर आश्चर्य़ हो सकता है कि यहाँ बुद्धि और अन्तकरण (मन) के लिए भी आत्मा शब्द का ही प्रयोग क्यों किया गया है इसका कारण यह है कि जब साधक को अपने पारमार्थिक सत्यस्वरूप का अनुभव होता है? तब उस सत्य की दृष्टि से मन? बुद्धि आदि का कोई पृथक अस्तित्व नहीं रह जाता है। सब आत्मस्वरूप ही बन जाते हैं। सभी तरंगें? फेन आदि समुद्र के अतिरिक्त कुछ नहीं है। स्वप्नद्रष्टा? स्वप्न जगत् और स्वप्न के अनुभव ये सब वस्तुत जाग्रत्पुरुष का मन ही है। इसी दृष्टि से हमारे आध्यात्मिक ग्रन्थों में हमारे व्यक्तित्व के बाह्यतम पक्ष शरीरादि को भी आत्मा शब्द से निर्देशित किया गया है।उपर्युक्त ध्यानयोग का मार्ग विवेक और वैराग्य से सुसम्पन्न उत्तम अधिकारियों के ही उपयुक्त है। अत मध्यम प्रकार के साधकों के लिए उपायान्तर बताते हैं।सांख्य योग विवेक के होते हुए भी वैराग्य की कमी होने के कारण जिन साधकों का मन ध्यान में स्थिर नहीं हो पाता और उनका तादात्म्य मन में उठने वाली वृत्तियों के साथ हो जाता है? उनको सांख्य योग का अभ्यास करने को कहा गया है। क्रमबद्ध युक्तियुक्त विचार का वह मार्ग जिसके द्वारा? हम किसी निश्चित सिद्धांत पर पहुँचते हैं? जो कभी प्रमाणान्तर या युक्ति से अन्यथा सिद्ध नहीं हो सकता अर्थात् अकाट्य रहता है? सांख्य योग कहलाता है।इस साधना के अभ्यास में साधक को इस ज्ञान को दृढ़ बनाये रखना चाहिए कि मन में उठने वाली ये वृत्तियाँ सत्व? रज और तमोगुण के कार्यरूप हैं तथा दृश्य हैं मैं इनका साक्षी इन से भिन्न और नित्य हूँ। इस प्रकार? मन का ध्यान वृत्तियों से हटकर साक्षी में स्थिर हो जाने पर अन्य वृत्तियाँ स्वत लीन हो जायेंगी और निर्विकल्प आत्मा का बोधमात्र रह जायेगा।कर्मयोग जिन पुरुषों के अन्तकरण में वासनाओं की प्रचुरता होती है? वे अध्ययनरूप सांख्ययोग का पालन नहीं कर सकते हैं और उनके लिए ध्यानयोग का प्रश्न ही नहीं उठता है। ऐसे साधकों के लिए प्रथम वासना क्षय के उपाय के रूप में कर्मयोग का उपदेश दिया जाता है जिसका गीता के तीसरे अध्याय में विशद् वर्णन किया गया है। अहंकार और स्वार्थ को त्यागकर ईश्वरार्पण की भावना से कर्म करने से पूर्वसंचित वासनाओं का क्षय हो जाता है और नई वासनाएं उत्पन्न नहीं होतीं। इस प्रकार? चित्त के शुद्ध होने पर आत्मज्ञान की जिज्ञासा जागृत होने पर वह व्यक्ति शास्त्राध्ययन के (सांख्य योग) योग्य बन जाता है। तत्पश्चात् विवेक और वैराग्य के दृढ़ होने पर ध्यान योग के द्वारा अध्यात्म साधना के सर्वोच्च शिखर ब्रह्मात्मैक्यबोध को प्राप्त हो जाता है।संक्षेप में? सत्त्वगुणप्रधान व्यक्ति के लिए ध्यानयोग उपयुक्त है। रजोगुण का आधिक्य और सत्त्वगुण की न्यूनता से युक्त पुरुष के लिए सांख्य योग है और सर्वथा रजोगुण प्रधान पुरुष के लिए कर्मयोग का साधन है।तब फिर? तमोगुण प्रधान अर्थात् जिसमें विचारशक्ति का अभाव हो? ऐसे व्यक्ति के लिए कौन सा उपाय है भगवान् बताते हैं कि
।।13.25।।अधमतमानधिकारिणो मोक्षमार्गे प्रवृत्तिं प्रतिलम्भयति -- अन्ये त्विति। आचार्याधीनां श्रुतिमेवाभिनयति -- इदमिति। उपासनमेव विवृणोति -- श्रद्दधाना इति। परोपदेशात्प्रवृत्तानामपि प्रवृत्तेः,साफल्यमाह -- तेऽपीति। तेषां मुख्याधिकारित्वं व्यावर्तयति -- श्रुतीति। तेऽपीत्यपिना सूचितमर्थमाह -- किमिति।
।।13.25।।एवं तत्त्वंपदार्थौ संशोध्य प्रतिपादितमिदानीमात्मदर्शनोपायविकल्पान्यथाधिकारं प्रतिपादयति -- ध्यानेनेति। केचिदुत्तमाधिकारिणो योगिनः एतज्जन्मनि जन्मान्तरे वा कृताभ्यां श्रवणममनाभ्यामसंभावनादिदोषनिर्मुक्ताः शब्दादिविषयेभ्यः श्रोत्रादीनि करणानि मनस्युपसंहृत्य मनश्च पत्गात्मन्येकाग्रं विधाय तैलधारावत्संतताविच्छिन्नप्रत्ययेन निदिध्यासनापरपर्यायेण ध्यानेनात्मनि बुद्धौ आत्मानं प्रत्यक्वेतनमात्मना ध्यानसंस्कृतेनान्तःकरणेन पश्यन्ति साक्षात्कुर्वन्ति। आत्मनि देहे इति व्याख्याने तूक्तार्थापेक्षया सामञ्जस्यं चिन्त्यम्। अन्ये मध्यमाधिकारिणः। श्रवणमननपरायणा इमे सत्त्वरजस्तमांसि गुणाः सविकाराः अनात्मानं मिथ्याभूतास्तद्य्वापारसाक्षिभूतोऽपिणामी नित्यो गुणविलक्षणो विभुः सच्चिदानन्दघन आत्मेति वेदान्तविचारजन्येन चिन्तनात्मकेन सांख्येन योगेन ध्यानोत्पत्तिद्वारा आत्मन्यात्मानमात्मना पश्यन्तीति पूर्ववत्। अपरे मन्दाधिकारिणः कर्मैव योगार्थत्वगुणेन योगस्तेन कर्मयोगेन ईश्वरार्पणबुद्य्धानुष्ठीयमानेन सत्त्वशुद्धश्रवणमननध्यानापरोक्षज्ञानोत्पत्तिद्वारेणात्मन्यात्मानमात्मना पश्यन्तीति पूर्ववत्।
।।13.25 -- 13.26।।साङ्ख्येन वेदोक्तभगवत्स्वरूपज्ञानेन। कर्मिणामपि श्रुत्वा ज्ञात्वा ध्यात्वा दृष्टिः। श्रावकाणां च ज्ञात्वा ध्यात्वा। साङ्ख्यानां च ध्यात्वा। तथा च गौपवनश्रुतिः -- कर्म कृतवा च तच्छ्रुत्वा ज्ञात्वा ध्यात्वाऽनुपश्यति। श्रावकोऽपि तथा ज्ञात्वा ध्यात्वा ज्ञान्यपि पश्यति। अन्यथा तस्य दृष्टिर्हि कथञ्चिन्नोपजायते इति। अन्य इत्यशक्तानामप्युपायदर्शनार्थम्।
।।13.25।।एवंविधात्मदर्शनेऽधिकारिभेदेनोपायविकल्पानाह -- ध्यानेनेति। अत्र ये आत्मानं विविदिषन्ति ते निष्कामकर्मणा परमेश्वरमाराधयन्ति ते कर्मयोगिनः। तत एवोत्पन्नविविदिषा वेदान्तश्रवणे प्रवर्तन्ते। ततः प्रमाणगतासंभावनानिवृत्तौ सत्यां तस्यैवार्थस्य मनने प्रवर्तन्ते प्रमेयगतासंभावनानिवृत्त्यर्थं ते सांख्याः। ततः प्रमाणप्रमेयगतासंभावनाया निवृत्त्यनन्तरं अनात्मनि देहादावात्मबुद्धिरूपाया विपरीतभावनाया निवृत्त्यर्थं निदिध्यासनं विजातीयप्रत्ययतिरस्कारपूर्वकसजातीयप्रत्ययप्रवाहीकरणलक्षणं कर्तुं प्रवर्तन्ते। ततस्तत्परिपाके आत्मनि बुद्धिवृत्तौ आत्मानं परमेश्वरं पश्यन्ति ते ध्यायिनः। तत्र ये कर्मसांख्ययोर्निष्णातास्ते ध्यानेनात्मनि देहे आत्मानं परमेश्वरं आत्मना बुद्ध्या पश्यन्ति। अन्ये त्वकृतकर्माणः सांख्येन योगेन विचारात्मकेन योगेन ध्यानद्वारा पश्यन्ति। अन्ये पुनः कर्मयोगेनैव पूर्वोक्तलक्षणेन सांख्या ध्यानद्वारा पश्यन्तीति साधनत्रयस्य समुच्चयो न तु विकल्पः।
।।13.25।।अन्ये तु कर्मयोगादिषु आत्मावलोकनसाधनेषु अनधिकृताः अन्येभ्यः तत्त्वदर्शिभ्यो ज्ञानिभ्यः श्रुत्वा कर्मयोगादिभिः आत्मानम् उपासते? ते अपि आत्मदर्शनेन मृत्युम् अतितरन्ति ये श्रुतिपरायणाः श्रवणमात्रनिष्ठाः? ते च श्रवणनिष्ठाः पूतपापाः क्रमेण कर्म योगादिकम् आरभ्य अतितरन्ति एव मृत्युम्। अपिशब्दात् च पर्वभेदः अवगम्यते।अथ प्रकृतिसंसृष्टस्य आत्मनो विवेकानुसंधानप्रकारं वक्तुं सर्वं स्थावरं जङ्गमं च सत्त्वं चिदचित्संसर्गजम् इत्याह --
।।13.25।।एवंभूतविविक्तात्मज्ञाने साधनविकल्पानाह -- ध्यानेनेति द्वाभ्याम्। ध्यानेन आत्माकारप्रत्ययावृत्त्या। आत्मनि देहे आत्मना मनसा एवमात्मानं केचित्पश्यन्ति। अन्ये तु सांख्येन प्रकृतिपुरुषवैलक्षण्यालोचनेन? योगेनाष्टाङ्गेन? अपरे च कर्मयोगेन पश्यन्तीति सर्वत्रानुषङ्गः। एतेषां च ध्यानादीनां यथायोगं क्रमसमुच्चये सत्यपि तत्तन्निष्ठाभेदाभिप्रायेण विकल्पोक्तिः।
।।13.25।।उक्तमेवार्थं श्लोकद्वयेन विवृण्वन्नात्मज्ञानस्य पर्वभेदानाह -- ध्यानेनेति। अधिकरणतया कर्मतया? करणतया च निर्देशादात्मशब्दत्रयमिह भिन्नविषयमिति तत्तदुचितमाहआत्मनि शरीर इत्यादिना। उत्तरोत्तरापकृष्टपर्वनिर्देशक्रमात् ध्यानशब्दोऽत्र साङ्ख्यादप्युत्कृष्टं साक्षाद्योगाख्यं पर्वाभिधत्ते।अनिष्पन्नयोगा इत्यादि पर्वक्रमप्रदर्शनं आत्मदर्शने स्वतन्त्रोपायत्वशङ्काव्युदासार्थम्।ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानाम् [3।3] इति पूर्वोक्तानुसारेणसाङ्ख्येन योगेन इत्यस्यार्थमाहज्ञानयोगेनेति।अपरे इत्यनेन प्रागुक्तकर्मयोगाधिकारिवर्गविवक्षेत्यभिप्रायेणाहज्ञानयोगानधिकारिण इत्यादिना।
।।13.25 -- 13.26।।ध्यानेनेति। अन्य इति। ईदृशं च ज्ञानं प्रधानम्। कैश्चित् [आत्मा] आत्मतया उपास्यते अन्यैः प्रागुक्तेन सांख्यनयेन अपरैः कर्मणा इतरैरपि स्वयमीदृशं (?N ईदृग्) ज्ञानमजानद्भिरपि श्रवणप्रवणैः यथाश्रुतमेवोपास्यते। तेऽपि मृत्युं संसारं तरन्ति। येन केनचिदुपायेन भगवत्तत्त्वमुपास्यमानमुत्तारयति। अतः सर्वथा एवमासीतेत्युक्तम्।
।।13.25 -- 13.26।।अन्ये साङ्ख्येन योगेन इत्यत्र कापिलतन्त्रोक्तप्रकृतिपुरुषविवेकज्ञानं साङ्ख्यमिति व्याख्यानमसत्? कापिलतन्त्रस्यावैदिकस्यात्र ग्रहणायोगात्? तस्य भगवद्दर्शने प्रधानसाधनत्वायोगाच्चेति भावेनान्यथा व्याचष्टे -- साङ्ख्येनेति। ज्ञानेन परोक्षज्ञानेन। ध्यानेनेत्यत्र ध्यानादीनां केवलानामेवेश्वरदर्शनसाधनत्वमुच्यत इत्यन्यथाप्रतीतिनिरासार्थमाह -- कर्मिणामिति। दृष्टिः प्राप्येति शेषः। पाठक्रमादर्थक्रमस्य प्राधान्याद्व्युत्क्रमेणोक्तिः। कुत एतत् इत्यत आह -- तथा चेति। ध्यात्वेत्येतज्ज्ञान्यपीत्युत्तरेणापि सम्बध्यते। ननु सर्वत्र सर्वस्य संयोजने सत्येक एवायं प्रकारः स्यात्तथा चकेचिदन्ये परं इत्युक्तमयुक्तं स्यादित्यत आह -- अन्य इति। ध्यानादावुत्तरोत्तरसाधने साक्षादशक्तानामपिं तत्तदुपायज्ञानादिप्रदर्शनार्थमवस्थाभेदमाश्रित्यान्य इत्याद्युक्तमित्यर्थः।
।।13.25।।अत्रात्मदर्शने साधनविकल्पा इमे कथ्यन्ते -- ध्यानेनेति। इह हि चतुर्विधा जनाः केचिदुत्तमाः केचिन्मध्यमाः केचिन्मन्दाः केचिन्मन्दतरा इति तत्रोत्तमानामात्मज्ञानसाधनमाह। ध्यानेन विजातीयप्रत्ययानन्तरितेन सजातीयप्रत्ययप्रवाहेण श्रवणमननफलभूतेनात्मचिन्तनेन निदिध्यासनशब्दोदितेन आत्मनि बुद्धौ पश्यन्ति साक्षात्कुर्वन्ति आत्मानं प्रत्यक्चेतनमात्मना ध्यानसंस्कृतेनान्तःकरणेन केचिदुत्तमा योगिनः। मध्यमानामात्मज्ञानसाधनमाह। अन्ये मध्यमाः सांख्येन योगेन निदिध्यासनपूर्वभाविना श्रवणमननरूपेण नित्यानित्यविवेकादिपूर्वकेण इमे गुणत्रयपरिणामा अनात्मानः सर्वे मिथ्याभूतास्तत्साक्षिभूतो नित्यो विभुर्निर्विकारः सत्यः समस्तजडसंबन्धशून्य आत्माहमित्येवं वेदान्तवाक्यविचारजन्येन चिन्तनेन पश्यन्त्यात्मानमात्मनीति वर्तते। ध्यानोत्पत्तिद्वारेणेत्यर्थः। मन्दानां ज्ञानसाधनमाह। कर्मयोगेन ईश्वरार्पणबुद्ध्या क्रियमाणेन फलाभिसन्धिरहितेन तत्तद्वर्णाश्रमोचितेन वेदविहितेन कर्मकलापेन चापरे मन्दाः पश्यन्त्यात्मानमात्मनीति वर्तते। सत्त्वशुद्ध्या श्रवणमननध्यानोत्पत्तिद्वारेणेत्यर्थः।
।।13.25।।नन्वेवं ज्ञानेनैव मुक्तिश्चेत्तदाऽन्यसाधनानामप्रयोजकत्वं स्यादित्याशङ्क्यान्यसाधनस्वरूपमाह -- ध्यानेनेति द्वयेन। केचित् ज्ञानिनः ध्यानेन परिकल्पनेन आत्महृदये आत्मना मनसा आत्मानं आत्मरूपं भगवन्तं पश्यन्ति। अन्ये साङ्ख्येन नित्यानित्यवस्तुविवेकात्मकेन योगेन तथा पश्यन्ति। अपरे कर्मयोगेन कर्मसु तदात्मकप्राकट्यरूपयोगेन पश्यन्ति तद्रूपम्।
।।13.25।। -- ध्यानेन? ध्यानं नाम शब्दादिभ्यो विषयेभ्यः श्रोत्रादीनि करणानि मनसि उपसंहृत्य? मनश्च प्रत्यक्चेतयितरि? एकाग्रतया यत् चिन्तनं तत् ध्यानम् तथा? ध्यायतीव बकः? ध्यायतीव पृथिवी? ध्यायन्तीव पर्वताः (छा0 उ0 7।6।1) इति उपमोपादानात्। तैलधारावत् संततः अविच्छिन्नप्रत्ययो ध्यानम् तेन ध्यानेन आत्मनि बुद्धौ पश्यन्ति आत्मानं प्रत्यक्चेतनम् आत्मना स्वेनैव प्रत्यक्चेतनेन ध्यानसंस्कृतेन अन्तःकरणेन केचित् योगिनः। अन्ये सांख्येन योगेन? सांख्यं नाम इमे सत्त्वरजस्तमांसि गुणाः मया दृश्या अहं तेभ्योऽन्यः तद्व्यापारसाक्षिभूतः नित्यः गुणविलक्षणः आत्मा इति चिन्तनम् एषः सांख्यो योगः? तेन,पश्यन्ति आत्मानमात्मना इति वर्तते। कर्मयोगेन? कर्मैव योगः? ईश्वरार्पणबुद्ध्या अनुष्ठीयमानं घटनरूपं योगार्थत्वात् योगः उच्यते गुणतः तेन सत्त्वशुद्धिज्ञानोत्पत्तिद्वारेण च अपरे।।
।।13.25।।एवम्भूतदर्शनसाधनविकल्पानाह -- द्वाभ्यां ध्यानेनेति। आत्मनि स्वस्मिन् आत्मना स्वेन? अन्ये साङ्ख्येन योगेनाष्टाङ्गेन? कर्मयोगेन चापरे निष्कामेन पश्यन्त्यात्मानम्।