BG - 13.31

यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति।तत एव च विस्तारं ब्रह्म सम्पद्यते तदा।।13.31।।

yadā bhūta-pṛithag-bhāvam eka-stham anupaśhyati tata eva cha vistāraṁ brahma sampadyate tadā

  • yadā - when
  • bhūta - living entities
  • pṛithak-bhāvam - diverse variety
  • eka-stham - situated in the same place
  • anupaśhyati - see
  • tataḥ - thereafter
  • eva - indeed
  • cha - and
  • vistāram - born from
  • brahma - Brahman
  • sampadyate - (they) attain
  • tadā - then

Translation

When a person sees all beings as resting in the One and emanating from the One alone, they then become Brahman.

Commentary

By - Swami Sivananda

13.31 यदा when? भूतपृथग्भावम् the whole variety of beings? एकस्थम् resting in the One? अनुपश्यति sees? ततः from that? एव alone? च and? विस्तारम् the spreading? ब्रह्म Brahman? सम्पद्यते (he) becomes? तदा then.Commentary A man attains to unity with the Supreme when he knows or realises through intuition that all these manifold forms are rooted in the One. As waves in water? atoms in the earth? rays in the sun? organs in the body? emotions in the mind? sparks in the fire? so verily are all forms rooted in the One. Wherever he turns his gaze he beholds only the one Self and enjoys the bliss of the Self.When he beholds the diversity of beings rooted in the One in accordance with the teachings of the scriptures and the preceptor? he realises through intuitive experience that all that he beholds is nothing but the Self and that the origin and the evolution of all is from That One alone. Compare with the Chhandogya Upanishad? 7.26.1.आत्मतः प्राण आत्मत आशा आत्मतः स्मरआत्मत आकाश आत्मतस्तेज आत्मत आपःआत्मत आविर्भावतिरोभावावात्मतोऽन्नम्।।Atmatah prana atmata asa atmatah smaraAtmata akasa atmatasteja atmata apahAtmata avirbhavatirobhavavatmatonnam.From the Self is life from the Self is desire from the Self is love from the Self is ether from the Self is light from the Self are the waters from the Self is appearance and disappearance from the Self is food.

By - Swami Ramsukhdas , in hindi

।।13.31।। व्याख्या --   [प्रकृतिके दो रूप हैं -- क्रिया और पदार्थ। क्रियासे सम्बन्धविच्छेद करनेके लिये उनतीसवाँ श्लोक कहा? अब पदार्थसे सम्बन्धविच्छेद करनेके लिये यह तीसवाँ श्लोक कहते हैं।]यदा भूतपृथग्भावं ৷৷. ब्रह्म सम्पद्यते तदा -- जिस कालमें साधक सम्पूर्ण प्राणियोंके अलगअलग भावोंको अर्थात् त्रिलोकीमें जितने जरायुज? अण्डज? उद्भिज्ज और स्वेदज प्राणी पैदा होते हैं? उन प्राणियोंके स्थूल? सूक्ष्म और कारणशरीरोंको एक प्रकृतिमें ही स्थित देखता है? उस कालमें वह ब्रह्मको प्राप्त हो जाता है।त्रिलोकीके स्थावरजङ्गम प्राणियोंके शरीर? नाम? रूप? आकृति? मनोवृत्ति? गुण? विकार? उत्पत्ति? स्थिति? प्रलय आदि सब एक प्रकृतिसे ही उत्पन्न हैं। सम्पूर्ण प्राणियोंके शरीर प्रकृतिसे ही उत्पन्न होते हैं? प्रकृतिमें ही स्थित रहते हैं और प्रकृतिमें ही लीन होते हैं। इस प्रकार देखनेवाला ब्रह्मको प्राप्त हो जाता है अर्थात् प्रकृतिसे अतीत स्वतःसिद्ध अपने स्वरूप परमात्मतत्त्वको प्राप्त हो जाता है। वास्तवमें वह पहलेसे ही प्राप्त था? केवल प्रकृतिजन्य पदार्थोंके साथ अपना सम्बन्ध माननेसे ही उसको अपने स्वरूपका अनुभव नहीं होता था। परन्तु जब वह सबको प्रकृतिमें ही स्थित और प्रकृतिसे ही उत्पन्न देखता है? तब उसको अपने स्वतःसिद्ध स्वरूपका अनुभव हो जाता है।जैसे पृथ्वीसे उत्पन्न होनेवाले स्थावरजङ्गम जितने भी शरीर हैं तथा उन शरीरोंमें जो कुछ भी परिवर्तन होता है? रूपान्तर होता है (टिप्पणी प0 705.1) क्रियाएँ होती हैं (टिप्पणी प0 705.2) वे सब पृथ्वीपर ही होती हैं। ऐसे ही प्रकृतिसे उत्पन्न होनेवाले जितने गुण? विकार हैं तथा उनमें जो कुछ परिवर्तन होता है? घटबढ़ होती है? वह सबकीसब प्रकृतिमें ही होती है। तात्पर्य है कि जैसे पृथ्वीसे पैदा होनेवाले पदार्थ पृथ्वीमें ही स्थित रहनेसे और पृथ्वीमें लीन होनेसे पृथ्वीरूप ही हैं? ऐसे ही प्रकृतिसे पैदा होनेवाला सब संसार प्रकृतिमें ही स्थित रहनेसे और प्रकृतिमें ही लीन होनेसे प्रकृतिरूप ही है। इसी प्रकार स्थावरजङ्गम प्राणियोंके रूपमें जो चेतनतत्त्व है? वह निरन्तर परमात्मामें ही स्थित रहता है। प्रकृतिके सङ्गसे उसमें कितने ही विकार क्यों न दीखें? पर वह सदा असङ्ग ही रहता है। ऐसा स्पष्ट अनुभव हो जानेपर साधक ब्रह्मको प्राप्त हो जाता है।यह नियम है कि प्रकृतिके साथ अपना सम्बन्ध माननेके कारण स्वार्थबुद्धि? भोगबुद्धि? सुखबुद्धि आदिसे प्राणियोंको अलगअलग भावसे देखनेपर रागद्वेष पैदा हो जाते हैं। राग होनेपर उनमें गुण दिखायी देते हैं और द्वेष होनेपर दोष दिखायी देते हैं। इस प्रकार दृष्टिके आगे रागद्वेषरूप परदा आ जानेसे वास्तविकताका अनुभव नहीं होता। परन्तु जब साधक अपने कहलानेवाले स्थूल? सूक्ष्म और कारणशरीरसहित सम्पूर्ण प्राणियोंके शरीरोंकी उत्पत्ति? स्थिति और विनाशको प्रकृतिमें ही देखता है तथा अपनेमें उनका अभाव देखता है? तब उसकी दृष्टिके आगेसे रागद्वेषरूप परदा हट जाता है और उसको स्वतःसिद्ध परमात्मतत्त्वका अनुभव हो जाता है। सम्बन्ध --   बाईसवें श्लोकमें जिसको देहसे पर बताया है और पीछेके (तीसवें) श्लोकमें जिसका ब्रह्मको प्राप्त होना बताया है? उस पुरुष(चेतन) के वास्तविक स्वरूपका वर्णन आगेके श्लोकमें करते हैं।

By - Swami Chinmayananda , in hindi

।।13.31।। किसी वस्तु या घटना के वैज्ञानिक अध्ययन की पूर्णता उसके बौद्धिक विश्लेषण तथा प्रायोगिक प्रत्यक्षीकरण से ही होती है।जब भौतिक विज्ञान में यह ज्ञात होता है कि परमाणु पदार्थ की इकाई है? तब इस ज्ञान के साथ यह भी समझना चाहिए कि ये परमाणु ही विभिन्न संख्या एवं प्रकारों में संयोजित होकर असंख्य रूप और गुणों वाली वस्तुओं के इस जगत् की रचना करते हैं। इसी प्रकार समस्त नाम और रूपों के पीछे एक आत्मतत्त्व ही सत्य है? यह जानना मात्र आंशिक ज्ञान है। ज्ञान की पूर्णता तो इसमें होगी कि जब हम यह भी जानेंगे कि इस एक आत्मा से विविधता की यह सृष्टि किस प्रकार प्रकट हुई है।जिस प्रकार? समुद्र को जानने वाला पुरुष असंख्य और विविध तरंगों का अस्तित्व एक समुद्र में ही देखता है? इसी प्रकार आत्मज्ञानी पुरुष भी भूतों के पृथक्पृथक् भाव को एक परमात्मा में ही स्थित देखता है। समस्त तरंगें समुद्र का ही विस्तार होती हैं। ज्ञानी पुरुष का भी यही अनुभव होता है कि एक आत्मा से ही इस सृष्टि का विस्तार हुआ है। स्वस्वरूपानुभूति के इन पवित्र क्षणों में ज्ञानी पुरुष स्वयं ब्रह्म बनकर यह अनुभव करता है कि एक ही आत्मतत्त्व अन्तर्बाह्य सबको व्याप्त और आलिंगन किए है? सबका पोषण करते हुए स्थित है न केवल गहनगम्भीर और असीमअनन्त में वह स्थित है? वरन् सभी सतही नाम और रूपों में भी वह व्याप्त है।स्वयं आत्मस्वरूप बनकर ही आत्मा का अनुभव होता है। जिसने यह पूर्णत जान लिया है कि स्वहृदय में स्थित आत्मा ही सर्वत्र भूतमात्र में स्थित आत्मा (ब्रह्म) है तथा किस प्रकार अविद्या के आवरण के कारण विविध नामरूपों में सत्य का दीप्तिमान स्वरूप आवृत हो जाता है? वही पुरुष तत्त्वज्ञ और सम्यक्दर्शी कहा जाता है। उस अनुभव में वह स्वयं उपाधियों से परे ब्रह्म से तादात्म्य को प्राप्त होता है।एक ही आत्मा के समस्त देहों में स्थित होने से उसे भी उपाधियों के दोष प्राप्त होते होंगे। ऐसी शंका के निवारण के लिए भगवान् कहते हैं

By - Sri Anandgiri , in sanskrit

।।13.31।।परिपूर्णत्वेन सर्वात्मत्वे प्राप्तमात्मनो देहादि तेन कर्तृत्वादिना तद्वत्त्वं दृष्टं हि पवित्रस्यापि पञ्चगव्यादेरपवित्रसंसर्गात्तद्दोषेण दुष्टत्वमित्याशङ्कामनूद्योत्तरत्वेन श्लोकमवतारयति -- एकस्येति। अनादित्वमेव साधयति -- आदिरिति। तथापि किं स्यादित्याशङ्क्य कार्यत्वकृतव्ययाभावः सिध्यतीत्याह -- यद्धीति। तथापि गुणापकर्षद्वारको व्ययो भविष्यति नेत्याह -- तथेति। निरवयवत्वादेव सावयवद्वारकस्य निर्गुणत्वाद्गुणद्वारकस्य च व्ययस्याभावेऽपि स्वभावतो व्ययः स्यादित्याशङ्क्याह -- परमात्मेति। परमात्मनः स्वतः परतो वा व्ययाभावे फलितमाह -- यत इति। स्वमहिमप्रतिष्ठस्य कथं शरीरस्थत्वं तत्राह -- शरीरेष्विति। सर्वगतत्वेन सर्वात्मत्वेन च देहादौ स्थितोऽपि स्वतो देहाद्यात्मना वा न करोति कूटस्थत्वाद्देहादेश्च कल्पितत्वादित्यर्थः। कर्तृत्वाभावेऽपि भोक्तृत्वं स्यादित्याशङ्क्याह -- तदकरणादिति। तंदेवोपपादयति -- यो हीति। परस्य कर्तृत्वादेरभावे कस्य तदिष्टमिति पृच्छति -- कः पुनरिति। परस्मादन्यस्य कस्यचिज्जीवस्य कर्तृत्वादीत्याशङ्कामनुवदति -- यदीति। तस्मिन्पक्षे प्रक्रमभङ्गः स्यादिति दूषयति -- तत इति। ईश्वरातिरिक्तजीवानङ्गीकारान्नोपक्रमविरोधोऽस्तीति शङ्कते -- अथेति। तर्हि प्रतीतकर्तृत्वादेरधिकरणं वक्तव्यमिति पूर्ववाद्याह -- क इति। परस्यैव कर्तृत्वाद्याधारत्वान्नास्ति वक्तव्यमित्याशङ्क्याह -- परो वेति। नास्तीति वाच्यमिति पूर्वेण संबन्धः। नहि कर्तृत्वादिभाक्त्वे परस्यास्मदादिवदीश्वरत्वमिति भावः। परस्यान्यस्य वा कर्तृत्वादावविशिष्टे शरीरस्थोऽपीत्यादिश्रुतिमूलमपि ज्ञातुं वक्तुं चाशक्यत्वात्त्याज्यमेवेति परीक्षकसंमत्योपसंहरति -- सर्वथेति। परस्य वस्तुनोऽकर्तुरभोक्तुश्चाविद्यया तदारोपादादेयमेव भगवन्मतमिति परिहरति -- तत्रेति। तमेव परिहारं प्रपञ्चयति -- अविद्येति। व्यावहारिके कर्तृत्वादाविष्टे पारमार्थिकमेव किं,नेष्यते तत्राह -- नत्विति। वास्तवकर्तृत्वाद्यभावे लिङ्गमुपन्यस्यति -- अत इति।

By - Sri Dhanpati , in sanskrit

।।13.31।।प्रकृतेर्विकाराणां च सांख्यवत्पुरुषादन्यत्वप्रसक्तिं निराकुर्वन्पुनरपि तदेव सम्यग्दर्शनं शब्दान्तरेण प्रपञ्चयति -- यदेति। यदा यस्मिन्काले भूतानां पृथग्भावः पृथक्त्वमेकस्थमेकस्मिन्नात्मनि प्रकृत्यादिसमस्तप्रपञ्चाधिष्ठाने प्रत्यगभिन्ने ब्रह्माणि सद्रूपे स्तितं कल्पितस्याधिष्ठानानतिरेकादात्मानतिरिक्तमनु शास्त्राचार्योपदेशात्पश्चात्पश्यतिआत्मैवैदं सर्वं? सर्वं खल्विदं ब्रह्म नेहनानास्ति किंचन? अहं ब्रह्मास्मि इति साक्षात्करोति ततएव परमात्मन एव विस्तारंयतो वा इमानि भूतानि जायन्ते? आनन्दाद्य्धवे खल्विमानि भूतानि जायन्ते? तस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाशः संभूतः? तदैक्षत? तत्तेजोऽसृजत इति सर्वप्रपञ्चविस्तारमनुपश्यति तदा तस्मिन्काले ब्रह्म संपद्यते। ब्रह्मैव भवतीत्यर्थः।ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति इति श्रुतेः। एकस्यामेवेश्वरशक्तिरुपायां प्रकृतौ स्थितं प्रलयेऽनुपश्यति। तत एव च तस्या एव प्रकृतेः सकाशाद्भूतानां विस्तारं सृष्टिसमयेऽनुपश्यतीति तूक्तप्रसक्त्यनिरासं ब्रह्म संपद्यते इति कथनानुपपत्तिं चाभिप्रेत्याचार्यैर्न व्याख्यातम्।

By - Sri Madhavacharya , in sanskrit

।।13.31।।एकस्थमेकस्मिन्विष्णौ स्थितम्। तत एव च विष्णोर्विस्तारम्।

By - Sri Neelkanth , in sanskrit

।।13.31।।ननु कथं प्रकृतेरेव कर्तृत्वं नत्वात्मन इत्याशङ्क्याह -- यदेति। भूतानां वियदादीनां जरायुजादीनां च पृथग्भावं नानाभावेनावस्थानं परिदृश्यमानमिदं यदा एकस्थं एकस्मिन्नात्मनि स्थितं रज्ज्वां सर्पादिवत्? कनके वा कुण्डलादिवत् विलीनं शास्त्राचार्योपदेशमनुपश्यति। तत् एवैकस्मात् विस्तारं च भूतपृथग्भावस्य व्युत्थानावस्थामनु स्वप्नादिवत् पश्यति तदा ब्रह्म संपद्यते ब्रह्मैव भवति। अयं भावः। कर्तृत्वं हि क्रियावत्त्वं क्रिया च परिस्पन्दः स च परिच्छन्नस्य पृथग्भूतस्य प्राकृतस्य बुद्ध्यादेरेव संभवति न तु व्यापकस्य सर्वभूतपृथग्भावग्रसिष्णोरात्मन इति।

By - Sri Ramanujacharya , in sanskrit

।।13.31।।अयं परमात्मा देहात् निष्कृष्य स्वभावेन निरूपितः? शरीरस्थः अपि अनादित्वाद् अनारभ्यत्वाद् अव्ययः व्ययरहितः। निर्गुणत्वात् सत्त्वादिगुणरहितत्वात् न करोति न लिप्यते। देहस्वभावैः न लिप्यते? न बध्यते।यद्यपि निर्गुणत्वात् न करोति? नित्यसंयुक्तः देहस्वभावैः कथं न लिप्यते इत्यत्र आह --

By - Sri Sridhara Swami , in sanskrit

।।13.31।। इदानी तु भूतानां प्रकृतितावन्मात्रत्वेनाभेदाद्भूतभेदकृतमप्यात्मनो भेदमपश्यन्ब्रह्मत्वमुपैतीत्याह -- यदेति। यदा भूतानां स्थावरजङ्गमानां पृथग्भावं भेदं पृथक्त्वं एकस्थं एकस्यामेवेश्वरशक्तिरूपायां प्रकृतौ स्थितं प्रलयेऽनुपश्यत्यालोचयति? तत एव च तस्या एव प्रकृतेः सकाशाद्भूतानां विस्तारं सृष्टिसमयेऽनुपश्यति? तदा प्रकृतितावन्मात्रत्वेन भूतानामप्यभेदं पश्यन्परिपूर्णं ब्रह्म संपद्यते। ब्रह्मैव भवतीत्यर्थः।

By - Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha , in sanskrit

।।13.31।।अथ परिणामित्वापरिणामित्वलक्षणं वैषम्यमुच्यते -- यदेति श्लोकेन। एकशब्देनान्यतरस्य निर्धारणार्थं भूतशब्दोऽत्र तिलतैलवन्मिथश्लिष्टचिदचित्समुदायपर इत्यभिप्रायेणाहप्रकृतिपुरुषेति। पृथग्भावशब्दोऽत्र जातिरूपं गुणादिरूपं च भेदमविशेषात्सङ्गृह्णाति। स च सर्वोऽप्यवस्थान्तरापत्तिरूपतया निर्विकारात् पुरुषाद्भेदः? तदाह -- देवत्वमनुष्यत्वह्रस्वत्वदीर्घत्वादिपृथग्भावमिति। एकशब्दोऽत्र प्रकृतयोरन्यतरनिर्धारणार्थ इत्याहएकतत्त्वस्थमिति। किं तदेकं इत्यत्राह -- प्रकृतिस्थमिति। यद्यात्मा अत्रैकशब्देन विवक्षितः? तदा तस्यैव देवादिवैषम्यदर्शनमुक्तं स्यात् तच्चसमं पश्यन् [13।29] इत्याद्युपक्रमेणपण्डिताः समदर्शिनः [5।18] इत्यादिस्मृत्यन्तरोक्त्या च विरुद्ध्येतेत्यभिप्रायेणाह -- नात्मस्थमिति। सन्मात्रस्यैकस्यैव ब्रह्मणः सकलविकल्पसकलपरिणामास्पदत्वमिहोच्यत इति परेषां जल्पाः प्रागेव निरस्ता इति चाभिप्रायः। आत्मा वै पुत्रनामासि [कौ.उ.2।11] इत्यादिषु योऽयमात्मनः पुत्रादिरूपः परिणामः प्रतीयते? सोऽपि अङ्गादङ्गात्सम्भवसि [कौ.उ.2।11] इत्यादिकमनुसन्दधानस्य प्रकृत्यंशगत एव प्रकाशेतेत्युच्यतेतत एव च विस्तारम् इति। तद्विवृणोति -- प्रकृतित एवेति। प्रकृतितत्त्वस्य प्रथमं देवादिरूपविचित्रपरिणामे? तन्मूले च सन्तानव्यपदेशभाजि परिणामे भोक्तुः पुरुषस्य भोगार्थसन्निधिमात्रमपेक्षितम्? न पुनर्भोगायतनादिगतविकारास्पदत्वमपीत्येवकाराभिप्रायः।ब्रह्म सम्पद्यते इत्यत्र परमात्मभावस्य विरुद्धत्वाज्जीवात्मभावस्य नित्यसिद्धत्वात् परमं साम्यमुपैति [मुं.उ.3।1।3]मम साधर्म्यमागताः [14।2] इत्यादिभिरैकार्थ्यात् परब्रह्मसाम्यापत्तिर्विवक्षितेत्यभिप्रायेणाह -- अनवच्छिन्नमिति। यद्वा देहात्मविवेकज्ञानमात्रेण साक्षात्परमात्मप्राप्तिर्न स्यादित्यभिप्रायः। ब्रह्म सम्पद्यते ब्रह्म भवतीत्यर्थः। तत्र फलितार्थकथनंआत्मानं प्राप्नोतीति। यद्वा ब्रह्मेति द्वितीयान्तम् सम्पद्यत इति सम्प्राप्नोतीत्यर्थः।

By - Sri Abhinavgupta , in sanskrit

।।13.31 -- 13.33।।यदि वा -- यदेत्यादि नोपलिप्यत इत्यन्तम्। विस्तीर्णत्वेन सर्वव्याप्त्या यदा भूतानां पृथक्तां भिन्नताम् (S चित्रताम्) आत्मन्येव पश्यति? आत्मन एव च उदितां तां मन्यते? तदापि सर्वकर्तृत्त्वात् न लेपभाक् यतः असौ परमात्मैव शरीरस्थोऽपि न लिप्यते आकाशवत्।

By - Sri Jayatritha , in sanskrit

।।13.31।।एकस्थं इत्यस्यैकस्यात्मकमिति व्याख्यानं सर्वप्रमाणविरुद्धमिति भावेनाह -- एकस्थमिति।तत एव च विस्तारं इत्यस्य स्वस्मादेव विश्वस्य विस्तारमिति व्याख्यानमसदिति भावेनाह -- तत एवेति।,विस्तारमुत्पत्तिम्।

By - Sri Madhusudan Saraswati , in sanskrit

।।13.31।।तदेवमापाततः क्षेत्रभेददर्शनमभ्यनुज्ञाय क्षेत्रज्ञभेददर्शनमपाकृतम्। इदानीं तु क्षेत्रभेददर्शनमपि मायिकत्वेनापाकरोति -- यदेति। यदा यस्मिन्काले भूतानां स्थावरजङ्गमानां सर्वेषामपि जडवर्गाणां पृथग्भावं पृथक्त्वं परस्परभिन्नत्वं एकस्थं एकस्मिन्नेवात्मनि सद्रूपे स्थितं कल्पितं कल्पितस्याधिष्ठानादनतिरेकात् सद्रूपात्मस्वरूपादनतिरिक्तं अनु पश्यति शास्त्राचार्योपदेशमनु स्वयमालोचयति आत्मैवेदं सर्वमिति। एवमपि मायावशात्तत एकस्मादात्मन एव विस्तारं भूतानां पृथग्भावं च स्वप्नमायावदनुपश्यति। ब्रह्म संपद्यते तदा सजातीयविजातीयभेददर्शनाभावात् ब्रह्मैव सर्वानर्थशून्यं भवति। तस्मिन्कालेयस्मिन्सर्वाणि भूतान्यात्मैवाभूद्विजानतः। तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यतः इति श्रुतेः। प्रकृत्यैव चेत्यत्रात्मभेदो निराकृतः? यदा भूतपृथग्भावमित्यत्र त्वनात्मभेदोपीतिविशेषः।

By - Sri Purushottamji , in sanskrit

।।13.31।।एवमेव सर्वेषां लये सूक्ष्मत्वमुत्पत्तौ विस्तरं च यदा ब्रह्मणः सकाशादेव तद्रूपं पश्यति तदा ब्रह्मत्वमाप्नोतीत्याह -- यदेति। यदा भूतानां स्थावरजङ्गमानां पृथग्भावं ब्रह्मणो भेदं विचित्रानेकरूपात्मकं एकस्थं संहारेच्छात्मकरमणात्मकब्रह्मस्वरूपस्थं प्रलये अनुपश्यति? च पुनः तत एव प्रपञ्चरमणेच्छुब्रह्मण एव सृष्टिसमये विस्तारमनुपश्यति? तदा ब्रह्म सम्पद्यते ब्रह्मत्वमाप्नोतीत्यर्थः।

By - Sri Shankaracharya , in sanskrit

।।13.31।। -- यदा यस्मिन् काले भूतपृथग्भावं भूतानां पृथग्भावं पृथक्त्वम् एकस्मिन् आत्मनि स्थितं एकस्थम् अनुपश्यति शास्त्राचार्योपदेशम्? अनु आत्मानं प्रत्यक्षत्वेन पश्यति आत्मैव इदं सर्वम् (छा0 उ0 7।25।2) इति? तत एव च तस्मादेव च विस्तारं उत्पत्तिं विकासम् आत्मतः प्राण आत्मत आशा आत्मतः स्मर आत्मत आकाश आत्मतस्तेज आत्मत आप आत्मत आविर्भावतिरोभावावात्मतोऽन्नम् (छा0 उ0 7।26।1) इत्येवमादिप्रकारैः विस्तारं यदा पश्यति? ब्रह्म संपद्यते भवति तदा तस्मिन् काले इत्यर्थः।।एकस्य आत्मानः सर्वदेहात्मत्वे तद्दोषसंबन्धे प्राप्ते? इदम् उच्यते --,

By - Sri Vallabhacharya , in sanskrit

।।13.31।।तृतीयेऽपि फलं दर्शयति -- यदेति। प्रकृतिपुरुषतत्त्वात्मकेषु देवादिभूतेषु सत्सु तेषां देवत्वमनुष्यत्वादिदीर्घह्रस्वस्थूलकृशत्वादिकं पृथग्भावं पृथक्त्वेन वा ज्ञायमानं उभयस्वरूपमेकस्थं प्रकृतिस्थं समष्टिपुरुषस्यं च पश्यति? तत एव च निर्गमनविस्तारं यथाऽग्नेः क्षुद्रा विस्फुलिंङगा ৷৷. एवमेवास्मादात्मनः ৷৷. भूतानि व्युच्चरन्ति [बृ.उ.2।1।20] इत्यादि श्रूयमाणं साक्षात्करोति तदा ब्रह्माक्षरं सम्पद्यते अनवच्छिन्नाक्षरात्मैक्यं प्राप्नोति। अयमर्थः -- क्षुद्रप्रवाहवद्व्यष्टिः समष्टिर्गाङ्गनीरवत्। अक्षरं तच्छक्तिवद्धि देवतावत्परो हरिः।।अक्षरेण सहैक्यं हि पुरुषस्याह तच्छ्रुतिः। पुरुषोत्तमतस्त्वैक्यं प्रवेशः स्वेच्छया मतः।।[व.सि.मु.] एतद्विषये मिथ्यावादिभिराविद्यको भेदः कल्पयित्वोपदिश्यते दृग्दृश्यव्यवहारमभ्युपगम्येति तदुपेक्ष्यं श्रौतानां श्रौत एव व्यवहारः? न यौक्तिकः? इत्यभियुक्तोक्तेः? विशेषस्तु निबन्धादवगन्तव्यः।