BG - 14.20

गुणानेतानतीत्य त्रीन्देही देहसमुद्भवान्।जन्ममृत्युजरादुःखैर्विमुक्तोऽमृतमश्नुते।।14.20।।

guṇān etān atītya trīn dehī deha-samudbhavān janma-mṛityu-jarā-duḥkhair vimukto ’mṛitam aśhnute

  • guṇān - the three modes of material nature
  • etān - these
  • atītya - transcending
  • trīn - three
  • dehī - the embodied
  • deha - body
  • samudbhavān - produced of
  • janma - birth
  • mṛityu - death
  • jarā - old age
  • duḥkhaiḥ - misery
  • vimuktaḥ - freed from
  • amṛitam - immortality
  • aśhnute - attains

Translation

The embodied one, having crossed beyond these three Gunas from which the body is evolved, is freed from birth, death, decay, and pain, and attains immortality.

Commentary

By - Swami Sivananda

14.20 गुणान् Gunas? एतान् these? अतीत्य having crossed? त्रीन् three? देही the embodied? देहसमुद्भवान् out of which the body is evolved? जन्ममृत्युजरादुःखैः from birth? death? decay and pain? विमुक्तः freed? अमृतम् immortality? अश्नुते attains to.Commentary Just as a river is absorbed in the ocean? so also he who has? while still alive? gone beyond the alities which form the seed from which all bodies have sprung and of which they are composed? is absorbed in Me. He ever enjoys the bliss of the Eternal. He attains release or Moksha. He attains to My Being.When the Lord said that the wise man crosses beyond the three alities and attains immortality? Arjuna became inspired with the desire of learning more about it. Just as he has asked a estion about the sage of steady wisdom in chapter II? verse 54? he now asks Lord Krishna about the characteristics of a sage who has crossed over the three alities. How does he act What is his conduct or behaviour How has he gone beyond the alities

By - Swami Ramsukhdas , in hindi

।।14.20।। व्याख्या --   गुणानेतानतीत्य त्रीन्देही देहसमुद्भवान् -- यद्यपि विचारकुशल मनुष्यका देहके साथ सम्बन्ध नहीं होता? तथापि लोगोंकी दृष्टिमें देहवाला होनेसे उसको यहाँ देही कहा गया है।देहको उत्पन्न करनेवाले गुण ही हैं। जिस गुणके साथ मनुष्य अपना सम्बन्ध मान लेता है? उसके अनुसार उसको ऊँचनीच योनियोंमें जन्म लेना ही पड़ता है (गीता 13। 21)।अभी इसी अध्यायके पाँचवें श्लोकसे अठारहवें श्लोकतक जिनका वर्णन हुआ है? उन्हीं तीनों गुणोंके लिये यहाँ एतान् त्रीन् गुणान् पद आये हैं। विचारकुशल मनुष्य इन तीनों गुणोंका अतिक्रमण कर जाता है अर्थात् इनके साथ अपना सम्बन्ध नहीं मानता? इनके साथ माने हुए सम्बन्धका त्याग कर देता है। कारण कि उसको यह स्पष्ट विवेक हो जाता है कि सभी गुण परिवर्तनशील हैं? उत्पन्न और नष्ट होनेवाले हैं और अपना स्वरूप गुणोंसे कभी लिप्त हुआ नहीं? हो सकता भी नहीं। ध्यान देनेकी बात है कि जिस प्रकृतिसे ये गुण उत्पन्न होते हैं? उस प्रकृतिके साथ भी स्वयंका किञ्चिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं है? फिर गुणोंके साथ तो उसका सम्बन्ध हो ही कैसे सकता हैजन्ममृत्युजरादुःखैर्विमुक्तोऽमृतमश्नुते -- जब इन तीनों गुणोंका अतिक्रमण कर जाता है? तो फिर उसको जन्म? मृत्यु और वृद्धावस्थाका दुःख नहीं होता। वह जन्ममृत्यु आदिके दुःखोंसे छूट जाता है क्योंकि जन्म आदिके होनेमें गुणोंका सङ्ग ही कारण है। ये गुण आतेजाते रहते हैं इनमें परिवर्तन होता रहता है। गुणोंकी वृत्तियाँ कभी सात्त्विकी? कभी राजसी और कभी तामसी हो जाती हैं परन्तु स्वयंमें कभी सात्त्विकपना? राजसपना और तामसपना आता ही नहीं। स्वयं (स्वरूप) तो स्वतः असङ्ग रहता है। इस असङ्ग स्वरूपका कभी जन्म नहीं होता। जब जन्म नहीं होता? तो मृत्यु भी नहीं होती। कारण कि जिसका जन्म होता है? उसीकी मृत्यु होती है तथा उसीकी वृद्धावस्था भी होती है। गुणोंका सङ्ग रहनेसे ही जन्म? मृत्यु और वृद्धावस्थाके दुःखोंका अनुभव होता है। जो गुणोंसे सर्वथा निर्लिप्तताका अनुभव कर लेता है? उसको स्वतःसिद्ध अमरताका अनुभव हो जाता है।देहसे तादात्म्य (एकता) माननेसे ही मनुष्य अपनेको मरनेवाला समझता है। देहके सम्बन्धसे होनेवाले सम्पूर्ण दुःखोंमें सबसे बड़ा दुःख मृत्यु ही माना गया है। मनुष्य स्वरूपसे है तो अमर ही किन्तु भोग और संग्रहमें आसक्त होनेसे और प्रतिक्षण नष्ट होनेवाले शरीरको अमर रखनेकी इच्छासे ही इसको अमरताका अनुभव नहीं होता। विवेकी मनुष्य देहसे तादात्म्य नष्ट होनेपर अमरताका अनुभव करता है।पूर्वश्लोकमें मद्भावं सोऽधिगच्छति पदोंसे भगवद्भावकी प्राप्ति कही गयी एवं यहाँ अमृतमश्नुते पदोंसे अमरताका अनुभव करनेको कहा गया -- वस्तुतः दोनों एक ही बात है।गीतामें जरामरणमोक्षाय (7। 29)? जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम् (13। 8) और यहाँ जन्ममृत्युजरादुःखैर्विमुक्तः (14। 20) -- इन तीनों जगह बाल्य और युवाअवस्थाका नाम न लेकर जरा (वृद्धावस्था) का ही नाम लिया गया है? जबकि शरीरमें बाल्य? युवा और वृद्ध -- ये तीनों ही अवस्थाएँ होती हैं। इसका कारण यह है कि बाल्य और युवाअवस्थामें मनुष्य अधिक दुःखका अनुभव नहीं करता क्योंकि इन दोनों ही अवस्थाओंमें शरीरमें बल रहता है। परन्तु वृद्धावस्थामें शरीरमें बल न रहनेसे मनुष्य अधिक दुःखका अनुभव करता है। ऐसे ही जब मनुष्यके प्राण छूटते हैं? तब वह भयंकर दुःखका अनुभव करता है।,परन्तु जो तीनों गुणोंका अतिक्रमण कर जाता है? वह सदाके लिये जन्म? मृत्यु और वृद्धावस्थाके दुःखोंसे मुक्त हो जाता है।इस मनुष्यशरीरमें रहते हुए जिसको बोध हो जाता है? उसका फिर जन्म होनेका तो प्रश्न ही पैदा नहीं होता। हाँ? उसके अपने कहलानेवाले शरीरके रहते हुए वृद्धावस्था और मृत्यु तो आयेगी ही? पर उसको वृद्धावस्था और मृत्युका दुःख नहीं होगा।वर्तमानमें शरीरके साथ स्वयंकी एकता माननेसे ही पुनर्जन्म होता है और शरीरमें होनेवाले जरा? व्याधि आदिके दुःखोंको जीव अपनेमें मान लेता है। शरीर गुणोंके सङ्गसे उत्पन्न होता है। देहके उत्पादक गुणोंसे रहित होनेके कारण गुणातीत महापुरुष देहके सम्बन्धसे होनेवाले सभी दुःखोंसे मुक्त हो जाता है।अतः प्रत्येक मनुष्यको मृत्युसे पहलेपहले अपने गुणातीत स्वरूपका अनुभव कर लेना चाहिये। गुणातीत होनेसे जरा? व्याधि? मृत्यु आदि सब प्रकारके दुःखोंसे मुक्ति हो जाती है और मनुष्य अमरताका अनुभव कर लेता है। फिर उसका पुनर्जन्म होता ही नहीं। सम्बन्ध --   गुणातीत पुरुषं दुःखोंसे मुक्त होकर अमरताको प्राप्त कर लेता है -- ऐसा सुनकर अर्जुनके मनमें गुणातीत मनुष्यके लक्षण जाननेकी जिज्ञासा हुई। अतः वे आगेके श्लोकमें भगवान्से प्रश्न करते हैं।

By - Swami Chinmayananda , in hindi

।।14.20।। पाठशाला में कार्यकर रहे व्यक्ति को अग्नि की उष्णता और धुंए का कष्टसहना पड़ता है? तो ग्रीष्म काल की धूप में खड़े व्यक्ति को सूर्य के ताप और चमक को सहन करना पड़ता है। यदि ये दोनों व्यक्ति अपने उन स्थानों से हटकर अन्य शीतल स्थान पर चले जायें? तो उनके कष्टों की निवृत्ति हो जायेगी। इसी प्रकार? हम अपनी उपाधियों में क्रीड़ा कर रहे तीन गुणों के साथ तादात्म्य करके सांसारिक जीवन के बन्धनों और दुखों को भोग रहे हैं। इनसे अतीत हो जाने पर इनकी क्रूरता का अन्त हो जाता है? क्योंकि परिपूर्ण सच्चिदानन्द आत्मा में इन सबका कोई अस्तित्व नहीं है।यहाँ सत्त्वादि गुणों को शरीर की उत्पत्ति का कारण बताया गया है। वेदान्त की भाषा में आत्मस्वरूप के अज्ञान को कारण शरीर कहते हैं जिसका अनुभव हमें अपनी निद्रावस्था में होता है। इन तीनों गुण से भिन्न यह अज्ञान कोई वस्तु नहीं है। इस कारण अवस्था से ये त्रिगुण? सूक्ष्म शरीर अर्थात् अन्तकरण की विभिन्न वृत्तियों और भावनाओं के रूप में व्यक्त होते हैं। विचाररूप में परिणत ये गुण शुभ या अशुभ कर्मों के रूप में व्यक्त होने के लिये स्थूल शरीर का रूप ग्रहण करते हैं।प्रत्येक व्यक्ति को अपने विचारों और भावनाओं को प्रगट करने के लिए एक उपयुक्त माध्यम की आवश्यकता होती है। उदाहरणार्थ? चित्रकार को एक पट? तूलिका और रंगों की? तो संगीतज्ञ को वाद्यों की आवश्यकता होती है। चित्रकार को वाद्य और संगीतज्ञ के हाथ में तूलिका देने से दोनों को कोई लाभ नहीं होगा। इसी प्रकार? पशु की वृत्तियों वाले जीव को पशु का देह धारण करना मनुष्य शरीर की अपेक्षा अधिक उपयुक्त होगा। यह सब कार्य इन तीन गुणों का ही है।इससे स्पष्ट हो जाता है कि त्रिगुणों से परे पहुँचा हुआ व्यक्ति सूक्ष्म और कारण शरीरों के दुखों से भी मुक्त हो जाता है।विकार और परिवर्तन जड़ पदार्थ के धर्म हैं। अत भौतिक तत्त्वों से बने हुये सभी स्थूल शरीर विकारों को प्राप्त होते हैं? जिनका क्रम है जन्म? वृद्धि? व्याधि? जरा (क्षय) और मृत्यु। इनमें से प्रत्येक विकार दुखदायक होता है। जन्म में पीड़ा है वृद्धि व्यथित करने वाली है? वृद्धावस्था विचलित करने वाली है? व्याधि अत्यन्त क्रूर है तो मृत्यु अत्यन्त भयंकर परन्तु ये समस्त दुख देहाभिमानी अज्ञानी जीव को ही होते हैं? आत्म स्वरूप में स्थित आत्मज्ञानी को नहीं? क्योंकि वह अपने उपाधियों से परे स्वरूप को पहचान लेता है। बाढ़? अकाल? युद्ध? महामारी? अन्त्येष्टि? विवाह एवं अन्य सहस्र घटनाओं को सूर्य प्रकाशित करता है? किन्तु सूर्य में इनमें से एक भी घटना का अस्तित्व नहीं है। इसी प्रकार आत्मचैतन्य हमारी उपाधियों को तथा तत्संबंधित अनुभवों को प्रकाशित करता है? परन्तु उसका इन सबके साथ कोई सम्बन्ध नहीं होता। अत आत्मवित् पुरुष इन सभी संघर्षों से मुक्त हो जाता है।और वह अमृतत्त्व को प्राप्त होता है आत्मज्ञान का फल केवल दुख निवृत्ति ही नहीं वरन् परमानन्द प्राप्त भी है। भगवान् के कथन में इसी तथ्य का निर्देश है। निद्रावस्था में रोगी व्यक्ति अपनी पीड़ा को भूल जाता है निराश व्यक्ति अपनी निराशाओं से मुक्त हो जाता है क्षुधा से व्याकुल पुरुष को क्षुधा का अनुभव नहीं होता और दुखी को दुख का विस्मरण हो जाता है। परन्तु? इससे यह नहीं कहा जा सकता है कि रोगोपशम हो गया? निराशा निवृत्त हो गयी? क्षुधा शांत हो गयी और दुख का शमन हो गया। निद्रा तो वर्तमान दुख के साथ होने वाली अस्थायी सन्धिमात्र है। जाग्रत अवस्था में आने पर पुन ये सब दुख भी लौटकर आ जाते हैं। परन्तु आत्मानुभूति में दुखों की आत्यन्तिक निवृत्ति और परमानन्द की प्राप्ति होती है। इसलिये यहाँ कहा गया है कि अमृतत्त्व अर्थात् मोक्ष की इस स्थिति को इसी जगत् में? इसी जीवन में और इसी देह में रहते हुये प्राप्त किया जा सकता है। इस पृथ्वी पर ईश्वरीय पुरुष बनने का अनुभव वास्तव में विरला है। ऐसे मुक्त पुरुष के लक्षण क्या हैं? जिन्हें जानकर हम उसे समझ सकें और अपने में भी उस स्थिति को पाने का प्रयत्न कर सकें वह जगत् में किस प्रकार व्यवहार करेगा तथा जगत् के साथ उस ज्ञानी का संबंध किस प्रकार का होगा प्रश्न पूछने के लिये एक अवसर पाकर अर्जुम पूछता है

By - Sri Anandgiri , in sanskrit

।।14.20।।अनर्थव्रातरूपमपोह्य विद्वान्ब्रह्मत्वं प्राप्नोतीत्येतत्प्रश्नद्वारा विवृणोति -- कथमित्यादिना। यथोक्तानित्येतदेव व्याचष्टे -- मायेति। मायैवोपाधिस्तद्भूतांस्तदात्मनः सत्त्वादीननर्थरूपानित्यर्थः। एभ्यः समुद्भवन्तीति समुद्भवा देहस्य समुद्भवा देहसमुद्भवास्तानिति व्युत्पत्तिं गृहीत्वा व्याचष्टे -- देहोत्पत्तीति। यो विद्वानविद्यामयान्गुणाञ्जीवन्नेवातिक्रम्य स्थितस्तमेव विशिनष्टि -- जन्मेति। पुरस्ताद्विस्तरेणोक्तस्य प्रसङ्गादत्र संक्षिप्तस्य सम्यग्ज्ञानस्य फलमुपसंहरति -- एवमिति।

By - Sri Dhanpati , in sanskrit

।।14.20।।कथमधिगच्छतीत्यपेक्षायमाह। गुणानेतान्यथोक्तान्मायात्मकांस्त्रीन्सत्त्वरजस्तमःसंज्ञकान् समुद्भवन्त्येभ्य इति समुद्भवाः देहस्य समुद्भवाः तान् देहसमुद्भवान् तान् देहसमुद्धवान् देहोत्पत्तिबीजभूतान् देही अतीत्य विद्वान्,जीवन्नेवातिक्रम्य जन्ममृत्युजरादुःखै जन्म च मृत्युश्च जरा च दुःखानि च तैः जीवन्नेव मुक्तः सर्वानर्थविनिर्मुक्तः अमृतं ब्रह्मानन्दं मद्भावं मोक्षमश्रुते प्राप्तोतीत्यर्थः।

By - Sri Madhavacharya , in sanskrit

।।14.19 -- 14.20।।परिणामिकर्त्तारं गुणेभ्योऽन्यं न पश्यति। अन्यथा यदा पश्यः पश्यते रुक्मवर्णं कर्तारमीशं पुरुषं ब्रह्मयोनिम् [मुण्ड.3।1।3] इति श्रुतिविरोधः।नाहं कर्त्ता न कर्त्ता त्वं कर्त्ता यस्तु सदा प्रभुः इति मोक्षधर्मे।

By - Sri Neelkanth , in sanskrit

।।14.20।।कथं त्वद्भावं गच्छतीति तत्राह -- गुणानिति। एतान्गुणान् महदादित्रयोविंशतिविकारात्मना,परिणतान् देहसमुद्भवान् स्थूलदेहस्य समुद्भवो येभ्यस्तानतीत्य जीवन्नेवातिक्रम्य निर्विकल्पकसमाध्यभ्यासेन बाधित्वाऽमृतं मोक्षमश्नुते प्राप्नोति। एतेनानन्दावाप्तिर्गुणात्ययप्रयोजनमुक्तम्। यतो मुक्तो जन्ममृत्युजरादुःखैर्विमुक्तः सन्निति त्वनर्थनिवृत्तिरुक्ता।

By - Sri Ramanujacharya , in sanskrit

।।14.20।।अयं देही देहसमुद्भवान् देहाकारपरिणतप्रकृतिसमुद्भवान् एतान् सत्त्वादीन् त्रीन् गुणान् अतीत्य तेभ्यः च अन्यम्? ज्ञानैकाकारम् आत्मानम् पश्यन् जन्ममृत्युजरादुःखैः विमुक्तः अमृतम् आत्मानम् अनुभवति एष मद्भाव इत्यर्थः।अथ गुणातीतस्य स्वरूपसूचनाचारप्रकारं गुणात्ययहेतुं च पृच्छन् अर्जुन उवाच --

By - Sri Sridhara Swami , in sanskrit

।।14.20।।ततश्च गुणकृतसर्वानर्थनिवृत्त्या कृतार्थो भवतीत्याह -- गुणानिति। देहाद्याकारः समुद्भवः परिणामो येषां ते देहसमुद्भवाः तानेतांस्त्रीनपि गुणानतीत्यातिक्रम्य तत्कृतैर्जन्मादिभिर्विमुक्तः सन्नमृतमश्नुते ब्रह्मानन्दं प्राप्नोति।

By - Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha , in sanskrit

।।14.20।।तदेवमनेकश्रुतिस्मृत्यादिविरुद्धं मुक्तस्य भगवत्त्वं कथमुच्यते इति शङ्कायामुक्तमर्थं कर्तृभ्य इत्यादिनानूद्यानन्तरश्लोकमवतारयति -- स भगवद्भावः कीदृश इति।देहसमुद्भवान् इत्यत्र देहोत्पत्तिबीजभूतानिति परव्याख्यानमयुक्तम्?गुणाः प्रकृतिसम्भवाः [14।5] इतिवदत्रापि प्रकृतिपरिणतिरूपदेहाश्रयत्ववचनस्य युक्तत्वादित्यभिप्रायेणाहदेहाकारपरिणतप्रकृतिसमुद्भवानिति। वक्ष्यमाणप्रकारेण गुणात्ययो बद्धदशायामेवेत्याहगुणानतीत्य तेभ्योऽन्यमित्यादिना।जन्ममृत्युजरादुःखैः? जन्मादिकृतैर्दुःखैरित्यर्थः। जन्मादिभिस्तत्साध्यैश्च दुःखैरिति वा।मद्भावं सोऽधिगच्छति [14।19] इत्युक्तमेवविमुक्तोऽमृतमश्नुते इत्यनेन विवृतमित्याहआत्मानमनुभवतीति।एष मद्भाव इत्यर्थ इति -- एष इति न पुनः श्रुत्यादिविरुद्ध इत्यर्थः।

By - Sri Abhinavgupta , in sanskrit

।।14.16 -- 14.20।।कर्मण इत्यादि अश्नुते इत्यन्तम्। अत्र केचिदसंबद्धाः श्लोकाः कल्पिताः? पुनरुक्तत्वात् ( पुनरुक्तार्थत्वात्) ते त्याज्या एव। एतद्गुणातीतवृत्तिस्तु (N गुणातीतश्रुतिस्तु) मोक्षायैव कल्पते।

By - Sri Jayatritha , in sanskrit

।।14.19 -- 14.20।।नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं इति स्वतन्त्रकर्तृत्वं गुणानामेव? नान्यस्येत्युच्यत इत्यपव्याख्याननिरासार्थमाह -- परिणामीति। कुत एतत् इत्यत आह -- अन्यथेति गुणेभ्योऽन्यस्य कर्तृत्वाभावे। मोक्षधर्मे परमेश्वरस्य कर्तृत्वमुक्तं तद्विरोधश्चेति वाक्यशेषः।

By - Sri Madhusudan Saraswati , in sanskrit

।।14.20।।कथमधिगच्छतीत्युच्यते -- गुणानेतान्मायात्मकांस्त्रीन्सत्त्वरजस्तमोनाम्नः देहसमुद्भवान्देहोत्पत्तिबीजभूतान् अतीत्य जीवन्नेव तत्त्वज्ञानेन (नाधिगत्य) बाधित्वा जन्ममृत्युजरादुःखैर्जन्मना,मृत्युना जरया दुःखैश्चाध्यात्मिकादिभिर्मायामयैर्विमुक्तो जीवन्नेव तत्संबन्धशून्यः सन् विद्वानमृतं मोक्षं मद्भावमन्ते प्राप्नोति।

By - Sri Purushottamji , in sanskrit

।।14.20।।ततो मद्भावयुक्तो गुणदोषाभिभूतो न भवतीत्याह -- गुणानेतानिति। देही जीवो देहसमुद्भवान् देहानां समुद्भव उत्पत्तिर्येभ्यस्तादृशानेतान् लौकिकान् न त्वलौकिकान् त्रीन् गुणानतीत्य अतिक्रम्य? जन्म तत्कर्मभोगार्थकं? मृत्युस्तद्भोगसमाप्तिरूपो भगवद्विस्मरणरूपो वा? जरा सेवाप्रतिबन्धरूपा? दुःखं संसारात्मकम्? एतैर्विमुक्तः अमृतं मरणादिदोषरहितम् लौकिकं देहमश्नुते भुङ्क्ते प्राप्नोतीत्यर्थः। अथवा अमृतमलौकिकं देहं प्राप्य मया सह सर्वकामानश्नुते सोऽश्नुते सर्वान् कामान् सह [तै.उ.2।1] इति श्रुत्युक्तरीत्या देहीतिपदादिदं व्यज्यते अन्यथा देहवत्पदं व्यर्थं स्यादिति भावः।

By - Sri Shankaracharya , in sanskrit

।।14.20।। --,गुणान् एतान् यथोक्तान् अतीत्य जीवन्नेव अतिक्रम्य मायोपाधिभूतान् त्रीन् देही देहसमुद्भवान् देहोत्पत्तिबीजभूतान् जन्ममृत्युजरादुःखैः जन्म च मृत्युश्च जरा च दुःखानि च जन्ममृत्युजरादुःखानि तैः जीवन्नेव विमुक्तः सन् विद्वान् अमृतम् अश्नुते? एवं मद्भावम् अधिगच्छति इत्यर्थः।।जीवन्नेव गुणान् अतीत्य अमृतम् अश्नुते इति प्रश्नबीजं प्रतिलभ्य? अर्जुन उवाच --,अर्जुन उवाच --,

By - Sri Vallabhacharya , in sanskrit

।।14.19 -- 14.20।।एवं गुणसर्गभेदोक्तौ पुरुषस्य सर्वस्य बन्धलीलामुपपाद्येदानीं तद्विवेकतो गुणात्ययद्वारा मोक्षलीलामाहू द्वाभ्याम् -- नान्यमिति। यदा गुणेभ्योऽन्यं कर्त्तारं नानुपश्यति गुणा एव स्वानुगुणप्रवृत्तिषु कर्त्तार इति पश्यति गुणेभ्यश्च परमात्मानं वेत्ति तदा द्रष्टा मद्भावं ब्रह्माक्षरभावं प्राप्नोति ब्रह्मवित् (ब्रह्म वेद) ब्रह्मैव भवति [मुं.उ.3।2।9] इति श्रुतेः। निर्गुणं हि ब्रह्म स्वयमव्ययं तदा गुणांस्त्रीनेतानतीत्यामृतमश्नुते प्राप्नुते ब्रह्मसुखं वा भुङ्क्ते।