न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः।यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम।।15.6।।
na tad bhāsayate sūryo na śhaśhāṅko na pāvakaḥ yad gatvā na nivartante tad dhāma paramaṁ mama
Neither does the sun illuminate there, nor the moon, nor the fire; having gone there, they do not return; that is My supreme abode.
15.6 न not? तत् that? भासयते illumines? सूर्यः the sun? न not? शशाङ्कः the moon? न not? पावकः fire? यत् to which? गत्वा having gone? न not? निवर्तन्ते (they) return? तत् that? धाम Abode? परमम् Supreme? मम My.Commentary That supreme abode is selfillumined for Brahman is selfluminous. It existed before the sun? the moon and the fire came into existence during creation. It remains even after they dissolve into the Unmanifested during the dissolution of the world.This verse is taken from the Kathopanishad The sun does not shine there? nor do the moon and the stars? nor does this lightning shine and much less this fire. When It shines? everything shines after It? by Its light? all these shine (Chap.II?5.15). The same idea occurs in the Svetasvatara Upanishad (6.14) and the Mundaka Upanishad (II.2.10). The sun? the moon? etc.? derive their light from Para Brahman. Nothing else is needed for illuminating the Supreme Being because It is selfluminous.Dhama paramam Supreme abode or superexcellent seat or Para Brahman.Though the sun is endowed with the power of illumining all? it cannot illumine the Supreme Being.यत् धाम वैष्णवं पदं गत्वा प्राप्य न निवर्तन्ते यत् च सूर्यादिभिः न भासयते तत् धाम पदं परमं मम विष्णोः।That abode? to which having gone? none returns? and which the sun? moon? stars? lightning and fire do not illumine? is the highest abode of Vishnu.(Cf.VIII.21)
।।15.6।। व्याख्या -- [छठा श्लोक पाँचवें और सातवें श्लोकोंको जोड़नेवाला है। इन श्लोकोंमें भगवान् यह बताते हैं कि वह अविनाशी पद मेरा ही धाम है? जो मेरेसे अभिन्न है और जीव भी मेरा अंश होनेके कारण मेरेसे अभिन्न है। अतः जीवकी भी उस धाम(अविनाशी पद) से अभिन्नता है अर्थात् वह उस धामको नित्यप्राप्त है।यद्यपि इस छठे श्लोकका बारहवें श्लोकसे घनिष्ठ सम्बन्ध है? तथापि पाँचवें और सातवें श्लोकोंको जोड़नेके लिये इसको यहाँ दिया गया है। इस श्लोकमें भगवान्ने दो खास बातें बतायी हैं -- (1) उस धामको सूर्यादि प्रकाशित नहीं कर सकते (जिसका कारणरूपसे विवेचन भगवान्ने इसी अध्यायके बारहवें श्लोकमें किया है) और (2) उस धामको प्राप्त हुए जीव पुनः लौटकर संसारमें नहीं आते (जिसका कारणरूपसे विवेचन भगवान्ने इसी अध्यायके सातवें श्लोकमें किया है)।]न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः -- दृश्य जगत्में सूर्यके समान तेजस्वी? प्रकाशस्वरूप कोई चीज नहीं है। वह सूर्य भी उस परमधामको प्रकाशित करनेमें असमर्थ है फिर सूर्यसे प्रकाशित होनेवाले चन्द्र और अग्नि उसे प्रकाशित कर ही कैसे सकते हैं इसी अध्यायके बारहवें श्लोकमें भगवान् स्पष्ट कहेंगे कि सूर्य? चन्द्र और अग्निमें मेरा ही तेज है। मेरेसे ही प्रकाश पाकर ये भौतिक जगत्को प्रकाशित करते हैं। अतः जो उस परमात्मतत्त्वसे प्रकाश पाते हैं? उनके द्वारा परमात्मस्वरूप परमधाम कैसे प्रकाशित हो सकता है (टिप्पणी प0 757) तात्पर्य यह है कि परमात्मतत्त्व चेतन है और सूर्य? चन्द्र तथा अग्नि जड (प्राकृत) हैं। ये सूर्य? चन्द्र और अग्नि क्रमशः नेत्र? मन और वाणीको प्रकाशित करते हैं। ये तीनों (नेत्र? मन और वाणी) भी जड ही हैं। इसलिये नेत्रोंसे उस परमात्मतत्त्वको देखा नहीं जा सकता? मनसे उसका चिन्तन नहीं किया जा सकता और वाणीसे उसका वर्णन नहीं किया जा सकता क्योंकि जड तत्त्वसे चेतन परमात्मतत्त्वकी अनुभूति नहीं हो सकती। वह चेतन (प्रकाशक) तत्त्व इन सभी प्रकाशित पदार्थोंमें सदा परिपूर्ण है। उस तत्त्वमें अपनी प्रकाशकताका अभिमान नहीं है।चेतन जीवात्मा भी परमात्माका अंश होनेके कारण स्वयं प्रकाशस्वरूप है अतः उसको भी जड पदार्थ (मन? बुद्धि? इन्द्रियाँ आदि) प्रकाशित नहीं कर सकते। मन? बुद्धि? इन्द्रियाँ आदि जडपदार्थोंका उपयोग (भगवान्के नाते दूसरोंकी सेवा करके) केवल जडतासे सम्बन्धविच्छेद करनेमें ही है।एक बात ध्यान देनेकी है कि यहाँ सूर्यको भगवान् या देव की दृष्टिसे न देखकर केवल प्रकाश करनेवाले पदार्थोंकी दृष्टिसे देखा गया है। तात्पर्य है कि सूर्य तैजसतत्त्वोंमें श्रेष्ठ है अतः यहाँ केवल सूर्यकी बात नहीं? प्रत्युत चन्द्र आदि सभी तैजसतत्त्वोंकी बात चल रही है। जैसे? दसवें अध्यायके सैंतीसवें श्लोकमें भगवान्ने कहा कि वृष्णिवंशियोंमें मैं वासुदेव हूँ (गीता 10। 37)? तो वहाँ वासुदेवका भगवान्के रूपसे वर्णन नहीं? प्रत्युत वृष्णिवंशके श्रेष्ठ पुरुषके रूपसे ही वर्णन है।यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम -- जीव परमात्माका अंश है। वह जबतक अपने अंशी परमात्माको प्राप्त नहीं कर लेता? तबतक उसका आवागमन नहीं मिट सकता। जैसे नदियोंके जलको अपने अंशी समुद्रसे मिलनेपर ही स्थिरता मिलती है? ऐसे ही जीवको अपने अंशी परमात्मासे मिलनेपर ही वास्तविक? स्थायी शान्ति मिलती है। वास्तवमें जीव परमात्मासे अभिन्न ही है? पर संसारके (माने हुए) सङ्गके कारण उसको ऊँचनीच योनियोंमें जाना पड़ता है।यहाँ परमधाम शब्द परमात्माका धाम और परमात्मा -- दोनोंका ही वाचक है। यह परमधाम प्रकाशस्वरूप है। जैसे सूर्य अपने स्थानविशेषपर भी स्थित है और प्रकाशरूपसे सब जगह भी स्थित है अर्थात् सूर्य और उसका प्रकाश परस्पर अभिन्न हैं? ऐसे ही परमधाम और सर्वव्यापी परमात्मा भी परस्पर अभिन्न हैं।भक्तोंकी भिन्नभिन्न मान्यताओँके कारण ब्रह्मलोक? साकेत धाम? गोलोक धाम? देवीद्वीप? शिवलोक आदि सब एक ही परमाधामके भिन्नभिन्न नाम हैं। यह परमधाम चेतन? ज्ञानस्वरूप? प्रकाशस्वरूप और परमात्मस्वरूप है।यह अविनाशी परमपद आत्मरूपसे सबमें समानरूपसे अनुस्यूत (व्याप्त) है। अतः स्वरूपसे हम उस परमपदमें स्थित हैं ही परन्तु जडता(शरीर आदि) से तादात्म्य? ममता और कामनाके कारण हमें उसकी प्राप्ति अथवा उसमें अपनी स्वाभाविक स्थितिका अनुभव नहीं हो रहा है। सम्बन्ध -- पूर्वश्लोकमें भगवान्ने अपने परमधामका वर्णन करते हुए यह बताया कि उसको प्राप्त होकर जीव लौटकर संसारमें नहीं आते। उसके विवेचनके रूपमें अपने अंश जीवात्माको भी (परमधामकी ही तरह) अपनेसे अभिन्न बताते हुए? जीवसे क्या भूल हो रही है कि जिससे उसको नित्यप्राप्त परमात्मस्वरूप परमधामका अनुभव नहीं हो रहा है -- इसका हेतुसहित वर्णन आगेके श्लोकमें करते हैं।
।।15.6।। आध्यात्मिक जीवन का लक्ष्य है संसार में अपुनरावृत्ति। इसे विशेष बल देकर पूर्व के श्लोकों में प्रतिपादित किया गया था और इस श्लोक में पुन उसे दोहराया जा रहा है। धर्मशास्त्र के सभी ग्रन्थों में किसी विशेष सिद्धान्त पर बल देने के लिये पुनरुक्ति का ही प्रयोग किया जाता है। निसंदेह इस उपाय का सर्वत्र उपयोग नहीं किया जाता है। तर्क की परिसीमा में आने वाले प्रमेयों की सिद्धि केवल तर्कों के द्वारा ही की जा सकती है। परन्तु आत्मज्ञान का क्षेत्र इन्द्रिय अगोचर होने से प्रारम्भ में केवल आचार्य का ही वहाँ प्रवेश होता है? शिष्यों का नहीं। अत अज्ञात अनन्तस्वरूप के अनुभव के सम्बन्ध में शिष्यों को विश्वास कराने का एकमात्र उपाय पुनरुक्ति ही है? जिसका उपयोग ऋषियों ने अपने उपदेशों में किया है।सम्पूर्ण गीता में इस गौरवमयी पूर्णत्व की स्थिति को साधकों की परा गति के रूप में इंगित किया गया है। यद्यपि यह स्थिति मन और वाणी के परे हैं? तथापि उसे इंगित करने का यहाँ समुचित प्रयत्न किया गया है।सूर्य? चन्द्र और अग्नि उसे प्रकाशित नहीं कर सकते हैं। यहाँ प्रकाश के उन स्रोतों का उल्लेख किया गया है जिनके प्रकाश में हमारे चर्मचक्षु दृश्य वस्तु को देख पाते हैं। वस्तु को देखने का अर्थ उसे जानना है और किसी वस्तु को देखने के लिए वस्तु का नेत्रों के समक्ष होना तथा उसका प्रकाशित होना भी आवश्यक है। प्रकाश के माध्यम में ही नेत्र रूप और रंग को देख सकते हैं। इसी प्रकार? हम अन्य इन्द्रियों के द्वारा शब्द? स्पर्श? रस और गन्ध को? तथा मन और बुद्धि के द्वारा क्रमश भावनाओं और विचारों को भी जानते हैं। जिस प्रकाश से हमें इन सबका भान होकर बोध होता है? वह चैतन्य का प्रकाश है।यह चैतन्य का प्रकाश भौतिक जगत् के प्रकाश के स्रोतोंसूर्य? चन्द्र और अग्निके द्वारा प्रकाशित नहीं किया जा सकता। वस्तुत ये सभी प्रकाश के स्रोत चैतन्य के दृश्य विषय है। यह नियम है कि दृश्य अपने द्रष्टा को प्रकाशित नहीं कर सकता तथा कभी भी और किसी भी स्थान पर द्रष्टा और दृश्य एक नहीं हो सकते। जिस चैतन्य के द्वारा हम अपने जीवन के सुखदुखादि अनुभवों को जानते हैं वह चैतन्य ही सनातन आत्मा है और इसे ही भगवान् अपना परम धाम कहते हैं। यही जीवन का परम लक्ष्य है।वह मेरा परम धाम है यहाँ धाम शब्द से तात्पर्य स्वरूप से है? न कि किसी स्थान विशेष से। पूर्व श्लोक में वर्णित गुणों से सम्पन्न साधक ध्यानाभ्यास के द्वारा मन और बुद्धि के विक्षेपों से परे परमात्मा के धाम में पहुँचकर सत्य से साक्षात्कार का समय निश्चित कर अनन्तस्वरूप ब्रह्म से भेंट कर सकता है।हम सब लोग उपयोगितावादी है। अत हम पहले ही जानना चाहते हैं कि क्या सत्य का अनुभव इतने अधिक परिश्रम के योग्य है क्या उसे प्राप्त कर लेने के पश्चात् पुन इस दुखपूर्ण संसार में लौटने की आशंका या संभावना नहीं है यह भय निर्मूल है। भगवान् श्रीकृष्ण पुन तीसरी बार हमें आश्वासन देते हैं? मेरा परम धाम वह है जहाँ पहुँचने पर साधक पुन लौटता नहीं है।यह सर्वविदित तथ्य है कि ज्ञान की किसी शाखाविशेष में प्रवीणता प्राप्त कर लेने के पश्चात् उस प्रवीण पुरुष द्वारा अपने ज्ञान में त्रुटि करना प्राय असंभव हो जाता है। किसी महान् संगीतज्ञ का जानबूझकर राग और ताल में त्रुटि करना उतना ही कठिन है? जितना कि एक नवशिक्षित गायक का सुस्वर में गायन। कोई भाषाविद् पुरुष अपने संभाषण में व्याकरण की त्रुटियाँ नहीं कर सकता। यदि लौकिक जगत् के अपूर्ण ज्ञान के क्षेत्र में भी एक सुसंस्कृत? शिक्षित और कलाकार पुरुष पुन असभ्य और अशिक्षित पुरुष के स्तर तक नहीं गिरता है? तो एक पूर्ण ज्ञानी पुरुष का पुन अज्ञानजनित भ्रान्तियों को लौटना कितना असंभव होगा विश्व के आध्यात्मिक साहित्य का यह एक अत्यन्त विरल श्लोक है? जिसमें इतनी सरल शैली में निरुपाधिक? शुद्ध परमात्मा का इतना स्पष्ट निर्देश किया गया है।हिन्दू धर्म में पुनर्जन्म के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है। इस सिद्धान्त के अनुसार? जीव एक देह का त्याग करने के पश्चात् अपने कर्मों के अनुसार पुन नवीन देह धारण करता है। ये शरीर देवता? मनुष्य? पशु आदि के हो सकते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि एक देह को त्यागने पर जीव का मोक्ष न होकर वह पुन संसार को ही प्राप्त होता है। परन्तु? इस श्लोक में तो यह कहा गया है? जहाँ पहुँचकर जीव पुन लौटता नहीं? वह मेरा परम धाम है। अत यहाँ इन दोनों सिद्धान्तों में विरोध प्रतीत होता है।इस विरोध का परिहार करने के लिये भगवान् श्रीकृष्ण अगले श्लोकों में जीव के स्वरूप पर प्रकाश डालते हैं
।।15.6।।तच्चेत्पदं वेद्यं कर्तुरन्यत्कर्मेति द्वैतापातोऽवेद्यं चेदपुमर्थत्वात्प्रेप्सितत्वासिद्धिरित्याशङ्क्याह -- तदेवेति।
।।15.6।।ननु गच्छन्तीत्यस्यासन्निहितं देशान्तरं गत्वा प्राप्नुवन्तीत्यर्थ उत सन्निकृष्टं तमसावृतघटमिवावरणनिवृत्त्या प्राप्नुवन्तीति। नाद्यः। येन सर्वमिदं ततमित्याद्युक्तिविरोधात् द्वैतापत्तिरवेद्यं चेदपुरुषार्थत्वात् प्रेप्सितत्वासिद्धिरित्याशङ्का,सूर्याद्यभास्यत्वेनावेद्यमपि धाम तेजोरुपं सर्वावभासकत्वादतन्निरासे सति स्वयमेव प्रकाशत इति पुरुषार्थत्वान्नाप्रेप्सितमिति निरसुतुं तदेव पदं पुनर्विशष्टि -- नेति। तद्धाम तेजोरुपं सूर्याद्यवभासकं सूर्यादयो न प्रकाशयन्ति तत्प्रकाश्यानां तत्प्रकाशकत्वायोगात्। शसाङ्कशचन्द्रः। पावकोऽग्निः। तथाच श्रुतिःन तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः। तमेव भान्तमनु भाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति। यद्वैष्णवं पदं गत्वा प्राप्य न निवर्तन्ते यच्च सूर्यादिभिर्नावभाष्यते तद्धाम स्वप्रकाशरुपं सर्वावभासकं परमं प्रकृष्टं सर्वोत्तमं मम श्रीविष्णोः। षष्ठी तुतद्विष्णो परमं पदंआनन्दं ब्रह्मणो विद्वान्न बिभेति कुचश्चन इति श्रुत्यनुरोधेन राहोः शिर इतिवदौपचारिकसंबन्धविवक्षया नतु भेदविवक्षया।एकमेवाद्वितीयंविज्ञानमानन्दं ब्रह्ममृत्योः स मृत्युमाप्नोति य इह नानेव पश्यति इत्यादिश्रुतेः। केचित्तु तत्रावेद्यत्वं सूर्याद्यभाष्यत्वेनात्रोक्तं सर्वभासकत्वेन तु स्वयमपरोक्षत्वंयदादित्यगतं तेज इत्यत्र वक्ष्यति। एवमुभाभ्यां श्लोकाभ्यां श्रुतर्दलद्वयं व्याख्यातमिति द्रष्टव्यमिति वर्णयन्ति। सूर्यो न भासयते इत्यनेन रुपादिहीनत्वेन चक्षुषाद्ययोग्यत्वात्सर्वेषां बाह्येन्द्रियाणां निवृतिः। न शशाङ्क इत्यनेन मनोनुग्राहकचन्द्रनिषेधे मनसः। न पावक इति वाचो निवृत्तिः।न चक्षुषा गृह्यते? यन्मनसा न मनुते? यद्वाचानभ्युदितम् इति श्रुतेरित्यन्येषां व्याख्याने तु लक्षणादोषो द्रष्टव्यः।
।।15.6।।स्वरूपं कथयति -- न तदित्यादिना।
।।15.6।।ननु यदि तदूर्ध्वं पदं गच्छन्ति तर्हि ततः पातोऽप्यवश्यंभावीपतनान्ताः समुच्छ्रयाः इति न्यायात्। ततश्च यस्मिन् गता न निवर्तन्तीत्यनुपपन्नमित्याशङ्क्य तस्य पदस्य स्वरूपमाह -- न तदिति। तत्पदं सूर्यो न भासयति। रूपादिहीनत्वेन चक्षुरयोग्यत्वात्। एतेन सर्वेषां बाह्येन्द्रियाणां निवृत्तिः। यद्धि रूपव़च्चक्षुर्योग्यं तत्सूर्येण चक्षुरनुग्राहकेण भास्यं इदं तु न तथेत्यर्थः। न शशाङ्कश्चन्द्रोऽपि भासयति। यन्मनोग्राह्यं वस्तु तच्चन्द्रेण मनोनुग्राहकेण भास्यं इदं तु न तथा।यन्मनसा न मनुते इति श्रुत्याऽस्य मनोग्राह्यत्वनिषेधात्। नापि पावकः भासयति। यद्धि वाचा ग्राह्यं तत्तदनुग्राहकेण पावकेन भास्यं इदं तु न तथा।यद्वाचानभ्युदितम् इति श्रुत्यास्य वाग्गोचरत्वनिषेधात्।न चक्षुषा गृह्यते नापि वाचा इत्यादि श्रुत्यन्तरं च। यतश्चक्षुर्मनोवाचामगम्यं तेन स्थूलसूक्ष्मकारणप्रपञ्चातीतं प्रत्यगद्वयम्नान्तःप्रज्ञं न बहिःप्रज्ञंअस्थूलमनणु इत्यादिश्रुतिभिः सर्वविशेषरहितं यत्प्रतिपादितं तत् मम परमं धाम वृत्तिरूपज्ञानादपरमादन्यज्योतिश्चिन्मात्रम्। ममेति संबन्धो राहोः शिर इतिवदुपचारात्। मदभिन्नज्योतिः स्वयंप्रकाशमित्यर्थः। अतएव यद्गत्वा प्राप्य ज्ञात्वेत्यर्थः। न निवर्तन्ते निवृत्तिकारणस्य मूलाज्ञानस्याभाव्त। एवं व्याख्याने हियदा ह्येवैष एतस्मिन्नदृश्येनात्म्येऽनिरुक्तेऽनिलयनेऽभयं प्रतिष्ठां विन्दते अथ सोऽभयं गतो भवति इति श्रुत्यर्थानुगमो दृश्यते। अदृश्ये इति दृगयोग्यत्वेन सूर्यभास्यत्वं पर्युदस्यते। अनात्म्ये आत्मनो मनसो योग्यं आत्म्यं तदन्यत्र अनात्म्ये इति मनसोऽप्ययोग्यत्वेन चन्द्रभास्यत्वं निरस्यते। अनिलयने निलीयतेऽस्मिन्सर्वं स्थूलसूक्ष्ममिति निलयनं कारणं तद्भिन्ने। अतएवानिरुक्ते निर्वचनायोग्ये। वाचामगोचर इत्यर्थः। तेन पावकाप्रकाश्ये इति सिद्धम्। ये तु सूर्याद्यप्रकाश्यमर्चिरादिमार्गगम्यं सत्यलोकादप्युपरितनमप्राकृतं वैष्णवं पदं नित्यं देशान्तरेऽस्ति तद्गत्वा पुनर्न निवर्तन्त इति व्याचक्षते तेषांन रूपमस्येह तथोपलभ्यत इति दृश्यस्य तुच्छत्वादेव तादृशस्यापि तुच्छत्वमपरिहार्यम् दृश्यत्वाविशेषात्। तस्माद्यथोक्त एव श्लोकार्थः।
।।15.6।। तद् आत्मज्योतिः न सूर्यो भासयते न शशाङ्को न पावकः च। ज्ञानम् एव हि सर्वस्य प्रकाशकम्। बाह्यानि तु ज्योतींषि विषयेन्द्रियसंबन्धविरोधितमोनिरसनद्वारेण उपकारकाणि।अस्य च प्रकाशको योगः तद्विरोधि च अनादिकर्म? तन्निवर्तनं च उक्तं भगवत्प्रपत्तिमूलम् असङ्गादियद् गत्वा पुनः न निवर्तन्ते तत् परमं धाम परमं ज्योतिः मम मदीयं मद्विभूतिभूतो ममांश इत्यर्थः।आदित्यादीनाम् अपि प्रकाशकत्वेन तस्य परमत्वम्। आदित्यादीनि हि ज्योतींषि न ज्ञानज्योतिषः प्रकाशकानि? ज्ञानम् एव हि सर्वस्य प्रकाशकम्।
।।15.6।। तदेव गन्तव्यं पदं विशिनष्टि -- न तदिति। यत्पदं सूर्यादयो न प्रकाशयन्ति? यत्प्राप्य न निवर्तन्ते योगिनः? तद्धाम स्वरूपं परमं मम। अनेन सूर्यादिप्रकाशाविषयत्वेन जडत्वशीतोष्णादिदोषप्रसङ्गो निरस्तः।
।।15.6।।प्रकाशकान्तरनैरपेक्ष्यद्योतनाय तच्छब्दाभिप्रेतमाह -- आत्मज्योतिरिति।अयं भावः तच्छब्दस्य प्रकृतपरामर्शित्वस्वारस्यात्पदमव्ययं तत् [15।5] इति परिशुद्धात्मस्वरूपस्य प्रकृतत्वादुत्तरश्लोकेऽपिममैवांशो जीवलोके जीवभूतः [15।7] इति तस्यैवोक्तेरत्रापि श्रुतिसिद्धस्वयञ्ज्योतिष्ट्वव्यञ्जकधामशब्दप्रयोगात् जीवविषयोऽयं श्लोक इति। सूर्याद्यप्रकाश्यत्वं स्वभाववैपरीत्येन स्थापयति -- ज्ञानमेव हीति।सर्वस्येति -- प्रकाश्यवर्गस्य? तत्प्रकाशकतयाऽभिमतसूर्यादिज्योतिषोऽपीति भावः। ज्ञानं चेत् सर्वस्य प्रकाशकं? तर्हि बाह्येष्वपि किं सूर्याद्यपेक्षया कथं च तेषु प्रकाशकत्वव्यवहारः इत्यत्राह -- बाह्यानि त्विति।सम्बन्धविरोधीति सामग्रीमध्यपातिविशिष्टसम्बन्धाकारविवक्षयोक्तम्। नहि कुड्यादिवत्तमो व्यवधायकं? तमोव्यवहितालोकस्थग्रहणात्। एवं सर्वप्रकाशकमात्मज्योतिः स्वयमेव किं न प्रकाशते केन वाऽन्येन तत्प्रकाश्यं इत्यत्राह -- अस्य चेति। चस्त्वर्थः शङ्कानिवृत्त्यर्थः। स्वयम्प्रकाशस्यापि यथावस्थितसमस्ताकारग्रहणे संसारिणां योग एवोपाय इति भावः। प्रकाशकान्तरप्रतिक्षेपे वेद्यत्वनिषेधशङ्काप्यनेन परिहृता। विशेषनिषेधः शेषाभ्यनुज्ञानपर इति भावः। योगोऽपि सर्वेषां किं न सिद्ध्येत् तत्राह -- तद्विरोधीति। सांसारिकं कर्म योगोत्पत्तिप्रतिबन्धकमित्यर्थः। तर्हि सर्वेषां न सिद्ध्येदिति शङ्कायां प्रकृतेन परिहरतितन्निवर्तनं चेति।गत्वा प्राप्येत्यर्थः। धामशब्दोऽत्र प्राग्वन्न नियमनस्थानपरः अपितु सूर्याद्यपेक्षाप्रतिक्षेपात्स्वरूपस्य प्रकाशरूपत्वसिद्धेर्ज्योतिर्वाची। तत एव मम परं ज्योतिरित्यन्वयो मन्दः। ममेति स्वसम्बन्धविधिस्तु मुक्तदशाभाविपरमसाम्यशङ्कितस्वातन्त्र्यपरिहारेण सार्थ इत्यभिप्रायेणाह -- परं ज्योतिर्मम मदीयमिति।ममैवांशः [15।7] इति वक्ष्यमाणस्यापि निदानमिहाभिप्रेतमिति व्यञ्जयन् षष्ठ्युक्तं सम्बन्धसामान्यं विशेषे नियच्छति -- मद्विभूतिभूत इति। विभूतित्वं च न गृहिणो गृहादिवत्? अपित्वपृथक्सिद्धविशेषणांशत्वेनेत्याहममांश इति।अयमभिप्रायः -- न तावन्निरवयव एकस्मिन् स्वरूपेऽशव्यपदेशः? अंशस्यैकवस्त्वेकदेशरूपत्वेन भेदाश्रयत्वादंशांशिभावस्य। अन्यथैकस्मिन् कोंऽशः कश्चांशी न हि स एव तस्यांश इति भ्रान्तोऽपि ब्रूयात्। न च भेदाभेदसम्भवः? व्याघातसर्वश्रुतिकोपादिप्रसङ्गात्।पादोऽस्य विश्वा भूतानि [ऋक्सं.8।7।17।3यजुस्सं.31।3]तस्यावयवभूतैस्तु व्याप्तं सर्वमिदं जगत् [श्वे.उ.4।10] यथाऽग्नेः क्षुद्रा विस्फुलिङ्गा व्युच्चरन्त्येवमेवास्मादात्मनः सर्व एवात्मानो (सर्वे प्राणाः सर्वे लोकाः सर्वे देवाः सर्वाणि भूतानि) व्युच्चरन्ति [बृ.उ.2।1।20] इत्यादिश्रुतिप्रतीतांशत्वं विशिष्टे विशेषणांशतयेतिअंशो नानाव्यपदेशात् [ब्र.सू.2।3।43] इत्यधिकरणेप्रकाशादिवत्तु नैवं परः [ब्र.सू.2।3।46] इति सूत्रे निरूपितम्। अतोऽनेकेष्वेव केनचिदुपाधिना एकतयाभिमतेषु कश्चिन्निरूप्यमाणोंऽश इति व्यपदिश्यते। एवमेव हि पटादिराश्यादिष्वपि। तच्च विशेषणविशेष्यभावेनावस्थितेष्वपि विशिष्टैक्येविशेषणांशः इत्यादिव्यपदेशेषु तुल्यम्। तस्मादत्रात्यन्तभिन्नयोर्जीवपरयोर्विभूतितद्वद्भावेन विशिष्टैक्याद्विशेषणभूतो जीवो निष्कृष्य व्यपदिश्यमानः प्रधानापेक्षयांश इति व्यपदिश्यत इति। अत्र निरङ्कुशपारम्यवत्परमात्मव्यतिरिक्तविषयधामशब्दनिर्दिष्टज्योतिर्विशेषणभूतं परमत्वं सन्निहितज्योतिरपेक्षयेति,तत्फलितमाहआदित्यादीनामपीति।
।।15.6।।न तदिति। सूर्यादीनां तत्रानवकाशः। तेषां कालाद्यवच्छेदात्? वेद्यत्वात्? करणोपकारकत्वात्। तस्य तु दिक्कालाद्यनवच्छेदात्? वेदकत्त्वात्? करणप्रवर्तकत्वात्? तदतीतत्त्वात्।
।।15.6।। उत्तरवाक्यानां सङ्गत्यप्रतीतेस्तां सूचयन्नाह -- स्वरूपमिति। अनेन कीदृशं तत्पदं यत्प्राप्तिः पुरुषार्थः। इत्याकाङ्क्षायामिदमुच्यत इत्युक्तं भवति। स्वरूपमित्यनेन पदमित्युक्तस्य धामेति वक्ष्यमाणस्य चार्थोऽप्युक्तो भवति स्थानतेजसोरसङ्गत्वात्।
।।15.6।।तदेव गन्तव्यं पदं विशिनष्टि -- न तदिति। यद्वैष्णवं पदं गत्वा योगिनो न निवर्तन्ते तत्पदं सर्वावभासनशक्तिमानपि सूर्यो न भासयते। सूर्यास्तमयेऽपि चन्द्रो भासको दृष्ट इत्याशङ्क्याह -- न शशाङ्कः इति। सूर्याचन्द्रमसोरुभयोरप्यस्तमयोरप्यस्तमयेऽग्निः प्रकाशको दृष्ट इत्याशङ्क्याह -- न पावक इत्युभयत्राप्यनुषज्यते। कुतः सूर्यादीनां तत्र प्रकाशनासामर्थ्यमित्यत आह -- तदिति। तद्धाम ज्योतिः स्वयंप्रकाशमादित्यादिसकलजडज्योतिरवभासकं परमं प्रकृष्टं मम विष्णोः स्वरूपात्मकं पदम्। नहि यो यद्भास्यः स स्वभासकं तं भासयितुमीष्टे। तथाच श्रुतिःन तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः। तमेव भान्तमनु भाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति इति। एतेन तत्पदं वेद्यं न वा आद्ये,वेद्यभिन्नवेदितृत्वसापेक्षापेक्षत्वेन द्वैतापत्तिः। द्वितीये त्वपुरुषार्थत्वापत्तिरित्यपास्तम्। अवेद्यत्वे सत्यपि स्वयमपरोक्षत्वात्। तत्रावेद्यत्वं सूर्याद्यभास्यत्वेनात्रोक्तं? सर्वभासकत्वेन तु स्वयमपरोक्षत्वं यदादित्यगतं तेज इत्यत्र वक्ष्यति। एवमुभाभ्यां श्लोकाभ्यां श्रुतेर्दलद्वयं व्याख्यातमिति द्रष्टव्यम्।
।।15.6।।अथ तत्पदस्वरूपमाह -- न तदिति। तत्पदं सूर्यो न भासयते न प्रकाशयति। एतेन स्वयम्प्रकाशत्वमुक्तम्। न शशाङ्कश्चन्द्रोऽपि तापहरणपूर्वकशीतादिना न प्रकाशयति। न पावकः? अग्निः शीतादिनिवारकत्वेन न प्रकाशयति। किञ्च यत्पदं गत्वा न निवर्तन्ते न पुनरागच्छन्ति। कुतः इत्यत आह। तत् मम परममुत्कृष्टं धाम गृहरूपमित्यर्थः।
।।15.6।। -- तत् धाम इति व्यवहितेन धाम्ना संबध्यते। तत् धाम तेजोरूपं पदं न भासयते सूर्यः आदित्यः सर्वावभासनशक्तिमत्त्वेऽपि सति। तथा न शशाङ्कः चन्द्रः? न पावकः न अग्निरपि। यत् धाम वैष्णवं पदं गत्वा प्राप्य न निवर्तन्ते? यच्च सूर्यादिः न भासयते? तत् धाम पदं परमं विष्णोः मम पदम्? यत् गत्वा न निवर्तन्ते (गीता 15।6) इत्युक्तम्।।ननु सर्वा हि गतिः आगत्यन्ता? संयोगाः विप्रयोगान्ताः इति प्रसिद्धम्। कथम् उच्यते तत् धाम गतानां नास्ति निवृत्तिः इति श्रृणु तत्र कारणम् --,
।।15.6।।तदेव विशिनष्टि -- न तद्भासयत इति। तद्विष्णोः परमं पदं [ऋक्सं.1।2।6।5] अक्षरंचैद्ये च सात्वतपतेश्चरणं प्रविष्टे [ ] इति भागवतवाक्यात्पदभूतंप्रभुत्वेन हरेः स्फूर्तौ लोकवत्त्वेन तूद्भवः इति निबन्धवाक्यात् लोकात्मकत्वेन च प्रसिद्धं लोकप्रसिद्धाः सूर्यादयो न भासयन्ते यद्गत्वा च योगिनो नहि निवर्तन्ते तत्परमं सर्वोत्कृष्टं मम पुरुषोत्तमस्य धाम परमं ज्योतीरूपं सर्वप्रकाशकं अध्यात्मज्ञानस्वरूपंन यत्र माया इति निरूपणान्ममाधिष्ठानभूतं सर्वात्ममूलं निरुपममहिमात्मकं ज्ञेयम्।