BG - 15.7

ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति।।15.7।।

mamaivānśho jīva-loke jīva-bhūtaḥ sanātanaḥ manaḥ-ṣhaṣhṭhānīndriyāṇi prakṛiti-sthāni karṣhati

  • mama - my
  • eva - only
  • anśhaḥ - fragmental part
  • jīva-loke - in the material world
  • jīva-bhūtaḥ - the embodied souls
  • sanātanaḥ - eternal
  • manaḥ - with the mind
  • ṣhaṣhṭhāni - the six
  • indriyāṇi - senses
  • prakṛiti-sthāni - bound by material nature
  • karṣhati - struggling

Translation

An eternal portion of Myself having become a living soul in the world of life, draws to itself the five senses, with the mind as the sixth, abiding in Nature.

Commentary

By - Swami Sivananda

15.7 मम My? एव even? अंशः portion? जीवलोके in the world of life? जीवभूतः having become a soul? सनातनः eternal? मनःषष्ठानि with mind as the sixth? इन्द्रियाणि the (five) Indriyas? प्रकृतिस्थानि abiding in Prakriti? कर्षति draws (to itself).Commentary Now the Lord explains how the individual soul comes into being. The individual soul is a ray of the Lord. A ray of the Supreme Being enters Nature? draws to itself the five senses and the mind and becomes an embodied soul (Jiva) by assuming a body. Here is a description of how the subtle body or LingaSariria enters the gross body.Although the sun is reflected in water? it is not in any way tainted. When a crystal comes in,contact with a red cloth or red flower? it seems to be red but it is really not so. Even so the Supreme Beings is not in any way tainted by the actions of the individual soul.Ignorance is the limiting adjunct of the individual soul. On account of the limitation caused by this ignorance the soul experiences that it is the doer and the enjoyer. In essence the individual soul is identical with the Supreme Being or Brahman. When ignorance? the limiting adjunct or principle? is destroyed? the individual soul (Jiva) realises it identity with the Supreme Being (Brahman).Just as the ether in the pot becomes one with the universal ether when the limiting adjunct? the pot? is broken? so also the individual soul becomes one with Brahman when the limiting adjunct? ignorance? is annihilated. Just as there is no return of the potether after it has become one with the universal ether when the pot is destroyed? so also there is no return of the individual soul after the limiting adjunct (the Antahkarana? i.e.? mind and the other inner instruments) is destroyed. It becomes one with Brahman.Pratibimba (reflection) is only a portion of the Bimba (object). The reflected sun is only a portion of the real sun (the rays of the sun). When the water is removed the reflected sun goes back to the original sun? as it were. It does not return to the water again. Even so? when ignorance or the mind is annihilated? the Jiva (individual soul) which is a reflection of Brahman in ignorance is absorbed in the Bimba Brahman. It does not return to this world of birth and death.The individual soul is only an imaginary or fictitious portion of Brahman. It is not a real portion. For the Supreme Being is indivisible. It has no parts. If It has parts? It would be liable to destruction when the parts are disjointed or removed.The senses abide in Nature? in their respective seats such as ear? skin? tongue? eye and nose. A Sannyasi living in the caves of the Himalayas dreams that he is a married man and moves about hither and thither to get a job for his livelihood. Even so? the individual soul forgets its real divine nature? mistakes the impure? perishable body for the pure? immortal Self and imagines that it is the real actor and enjoyer by identifying itself with the body. It says? I am the Karta. I am the Bhokta. I am a soul bound by Samsara. I am happy. I am miserable. It becomes finite.In essence the Jiva is identical with Brahman. The difference is on account of delusion or imagination or superimposition. The illusion of difference is due to the limiting adjunct or principle (the mind) even as the illusion that the ether in the pot is different from the universal ether is caused by the limiting adjunct? viz.? the pot. Jivabrahmabhedabhranti (the delusion of the distinctior between the individual soul and the Supreme Being) is removed when the limiting adjunct (mind) is annihilated. In deep sleep the mind rests in a subtle state along with all the Samskaras (impressions) and Vasanas (tendencies) in its cause (primordial ignorance). Again it comes back from this state of ignorance when you return to the waking state. If the cause (ignorance) is destroyed by the knowledge of the Self? its effect (mind) is also annihilated.Just as the tortoise stretches out its head and feet which were in a state of Laya (absorption) in its body? so also the individual soul strecthces out its mind and senses which were in a state of absorption in primordial ignorance in deep sleep? to enjoy the sensual objects in the waking state.A ray of the Supreme Being enters Nature? draws to itself the five senses and the mind In this verse the formation of the astral body (LingaSarira or Sukshmasarira) is described.The Sruti declaresस एष इह प्रविष्टः आनखाग्रेभ्यः तत् सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत्।।That Supreme Being Itself? having created this aggregate of the body from the head to the toe? entered this body in the form of the Jiva.According to Vedanta there are nineteen principles? viz.? the five organs of knowledge? the five organs of action? the five vital airs (Prana? Apana? Vyana? Samana and Udana)? the mind? intellect? Chitta (the subconscious or the unconscious mind)? and egoism. We will have to conclude that the words the five senses and the mind point to the collection of the remaining thirteen principles also.Amsa This does not mean here a particle or portion which has been cut out. It is like the Amsar of the ether in the pot the ether is not cut out but still remains the whole ether. (Cf.XIV.3)

By - Swami Ramsukhdas , in hindi

।।15.7।। व्याख्या --   ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः -- जिनके साथ जीवकी तात्त्विक अथवा स्वरूपकी एकता नहीं है? ऐसे प्रकृति और प्रकृतिके कार्यमात्रका नाम लोक है। तीन लोक? चौदह भुवनोंमें जीव जितनी योनियोंमें शरीर धारण करता है? उन सम्पूर्ण लोकों तथा योनियोंको जीवलोकेपदके अन्तर्गत समझना चाहिये।आत्मा परमात्माका अंश है परन्तु प्रकृतिके कार्य शरीर? इन्द्रियाँ? प्राण? मन आदिके साथ अपनी एकता मानकर वह जीव हो गया है -- जीवभूतः। उसका यह जीवपना बनावटी है? वास्तविक नहीं। नाटकमें कोई पात्र बननेकी तरह ही यह आत्मा जीवलोकमें जीव बनता है।सातवें अध्यायमें भगवान्ने कहा है कि इस सम्पूर्ण जगत्को मेरी जीवभूता परा प्रकृतिने धारण कर रखा है (7। 5) अर्थात् अपरा प्रकृति(संसार) से वास्तविक सम्बन्ध न होनेपर भी जीवने उससे अपना सम्बन्ध मान रखा है।भगवान् जीवके प्रति कितनी आत्मीयता रखते हैं कि उसको अपना ही मानते हैं -- ममैवांशः। मानते ही नहीं? प्रत्युत जानते भी हैं। उनकी यह आत्मीयता महान् हितकारी? अखण्ड रहनेवाली और स्वतःसिद्ध है।यहाँ भगवान् यह वास्तविकता प्रकट करते हैं कि जीव केवल मेरा ही अंश है इसमें प्रकृतिका किञ्चिन्मात्र भी अंश नहीं है। जैसे सिंहका बच्चा भेड़ोंमें मिलकर अपनेको भेड़ मान ले? ऐसे ही जीव शरीरादि जड,पदार्थोंके साथ मिलकर अपने असली चेतनस्वरूपको भूल जाता है। अतः इस भूलको मिटाकर उसे अपनेको सदा सर्वथा चेतनस्वरूप ही अनुभव करना चाहिये। सिंहका बच्चा भेड़ोंके साथ मिलकर भी भेड़ नहीं हो जाता। जैसे कोई दूसरा सिंह आकर उसे बोध करा दे कि देख तेरी और मेरी आकृति? स्वभाव? जाति? गर्जना आदि सब एक समान हैं अतः निश्चितरूपसे तू भेड़ नहीं? प्रत्युत मेरेजैसा ही सिंह है। ऐसे ही भगवान् यहाँ मम एव पदोंसे जीवको बोध कराते हैं कि हे जीव तू मेरा ही अंश है। प्रकृतिके साथ तेरा सम्बन्ध कभी हुआ नहीं? है नहीं? होगा नहीं और हो सकता भी नहीं।भगवत्प्राप्तिके सभी साधनोंमें अहंता (मैंपन) और ममता(मेरापन) का परिवर्तनरूप साधन बहुत सुगम और श्रेष्ठ है। अहंता और ममता -- दोनोंमें साधककी जैसी मान्यता होती है? उसके अनुसार? उसका भाव तथा क्रिया भी स्वतः होती है। साधककी अहंता यह होनी चाहिये कि मैं भगवान्का ही हूँ और,ममता यह होनी चाहिये कि भगवान् ही मेरे हैं। यह सबका अनुभव है कि हम अपनेको जिस वर्ण? आश्रम? सम्प्रदाय आदिका मानते हैं? उसीके अनुसार हमारा जीवन बनता है। पर यह मान्यता (जैसे -- मैं ब्राह्मण हूँ मैं साधु हूँ आदि) केवल (नाटकके स्वाँगकी तरह) कर्तव्यपालनके लिये है क्योंकि यह सदा रहनेवाली नहीं है। परन्तु मैं भगवान्का हूँ यह वास्तविकता सदा रहनेवाली है। मैं ब्राह्मण हूँ मैं साधु हूँ आदि भाव कभी हमसे ऐसा नहीं कहते कि तुम ब्राह्मण हो या तुम साधु हो। इसी प्रकार मन? बुद्धि? इन्द्रियाँ? शरीर? धन? जमीन? मकान आदि जिन पदार्थोंको हम भूलसे अपना मान रहे हैं? वे हमें कभी भी ऐसा नहीं कहते कि तुम हमारे हो? पर सम्पूर्ण सृष्टिके रचयिता परमात्मा स्पष्ट घोषणा करते हैं कि जीव मेरा ही हैविचार करना चाहिये कि शरीरादि पदार्थोंको हम अपने साथ लाये नहीं? इच्छानुसार उसमें परिवर्तन कर सकते नहीं? इच्छानुसार उनको अपने पास स्थिर रख सकते नहीं? हम भी उनके साथ सदा रह सकते नहीं? उनको अपने साथ ले जा सकते नहीं? फिर भी उनको अपना मानते हैं -- यह हमारी कितनी बड़ी भूल हैबचपनमें हमारे मन? बुद्धि? इन्द्रियाँ? शरीर जैसे थे? वैसे अब नहीं हैं? सबकेसब बदल गये हैं? फिर भी हम,मैं जो बचपनमें था? वही अब हूँ ऐसा मानते हैं। कारण यही है कि शरीरादिमें परिवर्तन होनेपर भी हमारेमें परिवर्तन नहीं हुआ। इस प्रकार शरीरादिमें हमें स्पष्ट परिवर्तन दीखता है। जिसको परिवर्तन दीखता है? वह स्वयं परिवर्तनरहित होता ही है। अतः संसारके पदार्थ? व्यक्ति हमारे साथी नहीं हैं।मैं भगवान्का हूँ -- ऐसा भाव रखना अपनेआपको भगवान्में लगाना है। साधकोंसे भूल यही होती है कि वे अपनेआपको भगवान्में न लगाकर मनबुद्धिको भगवान्में लगानेकी कोशिश करते हैं। मैं भगवान्का हूँ -- इस वास्तविकताको भूलकर मैं ब्राह्मण हूँ मैं साधु हूँ आदि भी मानते रहें और मनबुद्धिको भगवान्में लगाते रहें तो यह दुविधा कभी मिटेगी नहीं? और बहुत प्रयत्न करनेपर भी मनबुद्धि जैसे भगवान्में लगने चाहिये? वैसे लगेंगे नहीं। भगवान्ने भी इस अध्यायके चौथे श्लोकमें मैं उस परमात्माके शरण हूँ पदोंसे अपनेआपको परमात्मामें लगानेकी बात ही कही है। गोस्वामी तुलसीदासजी भी कहते हैं कि पहले भगवान्का होकर फिर नामजप आदि साधन करें तो अनेक जन्मोंकी बिगड़ी हुई स्थिति आज अभी सुधर सकती है -- बिगरी जनम अनेक की सुधरै अबहीं आजु। होहि राम को नाम जपु तुलसी तजि कुसमाजु।।(दोहावली 22) तात्पर्य यह है कि भगवान्में केवल मनबुद्धि लगानेकी अपेक्षा अपनेआपको भगवान्में लगाना श्रेष्ठ है।,अपनेआपको भगवान्में लगानेसे मनबुद्धि स्वतः सुगमतापूर्वक भगवान्में लग जाते हैं। नाटकका पात्र हजारों दर्शकोंके सामने यह कहता है कि मैं रावणका बेटा मेघनाद हूँ और मेघनादकी तरह ही वह बाहरी सब क्रियाएँ करता है। परन्तु उसके भीतर यह भाव हरदम रहता है कि यह तो स्वाँग है वास्तवमें मैं मेघनाद हूँ ही नहीं। इसी तरह साधकोंको भी नाटकके स्वाँगकी तरह इस संसाररूपी नाट्यशालामें अपनेअपने कर्तव्यका पालन करते हुए भीतरसे मैं तो भगवान्का हूँ ऐसा भाव हरदम जाग्रत् रखना चाहिये।जीव सदासे ही भगवान्का है -- सनातनः। भगवान्ने न तो कभी जीवका त्याग ही किया? न कभी उससे विमुख ही हुए। जीव भी भगवान्का त्याग नहीं कर सकता। भगवान्के द्वारा मिली हुई स्वतन्त्रताका दुरुपयोग करके वह भगवान्से विमुख हुआ है। जिस प्रकार सोनेका गहना तत्त्वतः सोनेसे अलग नहीं हो सकता? उसी प्रकार जीव भी तत्त्वतः परमात्मासे कभी अलग नहीं हो सकता।बुद्धिमान् कहलानेवाले मनुष्यकी यह बहुत बड़ी भूल है कि वह अपने अंशी भगवान्से विमुख हो रहा है। वह इधर खयाल ही नहीं करता कि भगवान् इतने सुहृद् (दयालु और प्रेमी) हैं कि हमारे न चाहनेपर भी हमें चाहते हैं? न जाननेपर भी हमें जानते हैं। वे कितने उदार? दयालु और प्रेमी हैं -- इसका वर्णन भाषा? भाव? बुद्धि आदिके द्वारा हो ही नहीं सकता। ऐसे सुहृद् भगवान्को छोड़कर अन्य नाशवान् जड पदार्थोंको अपना मानना बुद्धिमानी नहीं? प्रत्युत महान् मूर्खता है।जब मनुष्य भगवान्के आज्ञानुसार अपने कर्तव्यका पालन करता है? तब वे उसकी इतनी उन्नति कर देते हैं कि जीवन सफल हो जाता है और जन्ममरणरूप बन्धन सदाके लिये मिट जाता है। जब मनुष्य भूलसे कोई निषिद्ध आचरण (पाप) कर बैठता है? तब वे दुःखोंको भेजकर उसको चेताते हैं? पुराने पापोंको भुगताकर उसको शुद्ध करते हैं और नये पापोंमें प्रवृत्तिसे रोकते हैं।जीव कहीं भी क्यों न हो? नरकमें हो अथवा स्वर्गमें? मनुष्ययोनिमें हो अथवा पशुयोनिमें? भगवान् उसको अपना ही अंश मानते हैं। यह उनकी कितनी अहैतुकी कृपा? उदारता और महत्ता है जीवके पतनको देखकर भगवान् दुःखी होकर कहते हैं कि मेरे पास आनेका उसका पूरा अधिकार था? पर वह मेरेको प्राप्त किये बिना (माम् अप्राप्य) नरकोंमें जा रहा है (गीता 16। 20)।मनुष्य चाहे किसी भी स्थितिमें क्यों न हो? भगवान् उसे वहाँ स्थिर नहीं रहने देते उसे अपनी ओर खींचते ही रहते हैं। जब हमारी सामान्य स्थितिमें कुछ भी परिवर्तन (सुखदुःख? आदरनिरादर आदि) हो? तब यह मानना चाहिये कि भगवान् हमें विशेषरूपसे याद करके नयी परिस्थिति पैदा कर रहे हैं हमें अपनी ओर खींच रहे हैं। ऐसा मानकर साधक प्रत्येक परिस्थितिमें विशेष भगवत्कृपाको देखकर मस्त रहे और भगवान्को कभी भूले नहीं।अंशीको प्राप्त करनेमें अंशको कठिनाई और देरी नहीं लगती। कठिनाई और देरी इसलिये लगती है कि अंशने अपने अंशीसे विमुखता मानकर उन शरीरादिको अपना मान रखा है? जो अपने नहीं हैं। अतः भगवान्के सम्मुख होते ही उनकी प्राप्ति स्वतःसिद्ध है। सम्मुख होना जीवका काम है क्योंकि जीव ही भगवान्से विमुख हुआ है। भगवान् तो जीवको अपना मानते ही हैं जीव भगवान्को अपना मान ले -- यही सम्मुखता है।मनुष्यसे यह ब़ड़ी भूल हो रही है कि जो व्यक्ति? वस्तु? परिस्थिति अभी नहीं है अथवा जिसका मिलना निश्चित भी नहीं है और जो मिलनेपर भी सदा नहीं रहेगी -- उसकी प्राप्तिमें वह अपना पूर्ण पुरुषार्थ और उन्नति मानता है। यह मनुष्यका अपने साथ बड़ा भारी धोखा है वास्तवमें जो नित्यप्राप्त और अपना है? उस परमात्माको प्राप्त करना ही मनुष्यका परम पुरुषार्थ है? शूरवीरता है। हम धन? सम्पत्ति आदि सांसारिक पदार्थ,कितने ही क्यों न प्राप्त कर लें? पर अन्तमें या तो वे नहीं रहेंगे अथवा हम नहीं रहेंगे। अन्तमें नहीं ही शेष रहेगा। वास्तवमें जो सदा है? उस(अविनाशी परमात्मा)को प्राप्त कर लेनेमें ही शूरवीरता है। जो नहीं है? उसको प्राप्त करनेमें कोई शूरवीरता नहीं है।जीव जितना ही नाशवान् पदार्थोंको महत्त्व देता है? उतना ही वह पतनकी तरफ जाता है और जितना ही अविनाशी परमात्माको महत्त्व देता है? उतना ही वह ऊँचा उठता है। कारण कि जीव परमात्माका ही अंश है।नाशवान् सांसारिक पदार्थोंको प्राप्त करके मनुष्य कभी भी बड़ा नहीं हो सकता। केवल बड़े होनेका वहम या धोखा हो जाता है और वास्तवमें असली बड़प्पन(परमात्मप्राप्ति) से वञ्चित हो जाता है। नाशवान् पदार्थोंके कारण माना गया बड़प्पन कभी टिकता नहीं और परमात्माके कारण होनेवाला बड़प्पन कभी मिटता नहीं इसलिये जीव जिसका अंश है? उस सर्वोपरि परमात्माको प्राप्त करनेसे ही वह बड़ा होता है। इतना बड़ा होता है कि देवतालोग भी उसका आदर करते हैं और कामना करते हैं कि वह हमारे लोकमें आये। इतना ही नहीं? स्वयं भगवान् भी उसके अधीन हो जाते हैं मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति -- भगवान्ने जिस प्रकार इसी श्लोकके पूर्वार्धमें जीवको अपनेमें स्थित न कहकर उसको अपना अंश बताया है? उसी प्रकार श्लोकके उत्तरार्धमें मन तथा इन्द्रियोंको प्रकृतिका अंश न कहकर उनको प्रकृतिमें स्थित बताया है। तात्पर्य है कि भगवान्का अंश जीव सदा भगवान्में ही स्थित है और प्रकृतिमें स्थित मन तथा इन्द्रियाँ प्रकृतिके ही अंश हैं। मन और इन्द्रियोंको अपना मानना? उनसे अपना सम्बन्ध मानना ही उनको आकर्षित करना है।यहाँ बुद्धिका अन्तर्भाव मन शब्दमें (जो अन्तःकरणका उपलक्षण है) और पाँच कर्मेन्द्रियों तथा पाँच प्राणोंका अन्तर्भाव इन्द्रिय शब्दमें मान लेना चाहिये। उपर्युक्त पदोंमें भगवान् कहते हैं कि मेरा अंश जीव मेरेमें स्थित रहता हुआ भी भूलसे अपनी स्थिति शरीर? इन्द्रियाँ? मन? बुद्धिमें मान लेता है। जैसे शरीर? इन्द्रियाँ? मन? बुद्धि प्रकृतिका अंश होनेसे कभी प्रकृतिसे पृथक् नहीं होते? ऐसे ही जीव भी मेरा अंश होनेसे कभी मेरेसे पृथक् होता नहीं? हो सकता नहीं। परन्तु यह जीव मेरेसे विमुख होकर मुझे भूल गया है।यहाँ मन और पाँच ज्ञानेन्द्रियोंका नाम लेनेका तात्पर्य यह है कि इन छहोंसे सम्बन्ध जोड़कर ही जीव बँधता है। अतः साधकको चाहिये कि वह शरीरइन्द्रियाँमनबुद्धिको संसारके अर्पण कर दे अर्थात् संसारकी सेवामें लगा दे और अपनेआपको भगवान्के अर्पण कर दे।विशेष बात(1) मनुष्य भूलसे शरीर? स्त्री? पुत्र? धन? मकान? मान? बड़ाई आदि नाशवान् वस्तुओंको अपनी और अपने लिये मानकर दुःखी होता है। इससे भी नीची बात यह है कि इस सामग्रीके भोग और संग्रहको लेकर वह अपनेको बड़ा मानने लगता है जबकि वास्तवमें इनको अपना मानते ही इनका गुलाम हो जाता है। हमें पता लगे या न लगे? हम जिन पदार्थोंकी आवश्यकता समझते हैं? जिनमें कोई विशेषता या महत्त्व देखते हैं या जिनकी हम गरज रखते हैं? वे (धन? विद्या आदि) पदार्थ हमसे बड़े और हम उनसे तुच्छ हो ही गये। पदार्थोंके मिलनेमें जो अपना महत्त्व समझता है? वह वास्तवमें तुच्छ ही है? चाहे उसे पदार्थ मिलें या न मिलें।भगवान्का दास होनेपर भगवान् कहते हैं -- मैं तो हूँ भगतनका दास? भगत मेरे मुकुटमणि परंतु जिनके हम दास बने हुए हैं? वे धनादि जड पदार्थ कभी नहीं कहते -- लोभी मेरे मुकुटमणि वे तो केवल हमें अपना दास ही बनाते हैं। वास्तवमें भगवान्को अपना जानकर उनके शरण हो जानेसे ही मनुष्य बड़ा बनता,है? ऊँचा उठता है। इतना ही नहीं भगवान् ऐसे भक्तको अपनेसे भी बड़ा मान लेते हैं और कहते हैं -- अहं भक्तपराधीनो ह्यस्वतन्त्र इव द्विज।साधुभिर्ग्रस्तहृदयो भक्तैर्भक्तजनप्रियः।।(श्रीमद्भा0 9। 4। 63)हे द्विज मैं भक्तोंके पराधीन हूँ? स्वतन्त्र नहीं। भक्तजन मेरेको अत्यन्त प्यारे हैं। मेरे हृदयपर उनका पूर्ण अधिकार है। कोई भी सांसारिक व्यक्ति? पदार्थ क्या हमें इतनी बड़ाई दे सकता हैयह जीव परमात्माका अंश होते हुए भी प्रकृतिके अंश शरीरादिको अपना मानकर स्वयं अपना अपमान करता है और अपनेको नीचे गिराता है। अगर मनुष्य इन शरीर? इन्द्रियाँ? मन आदि सांसारिक पदार्थोंका दास न बने? तो वह भगवान्का भी इष्ट हो जाय -- इष्टोऽसि मे दृढमिति (गीता 18। 64)। जिन्होंने भगवान्को प्राप्त कर लिया है? उनको भगवान् अपना प्रिय कहते हैं (गीता 12। 13 -- 19)। परंतु जिन्होंने भगवान्को प्राप्त नहीं किया है किंतु जो भगवान्को प्राप्त करना चाहते हैं? उन साधकोंको तो वे अपना अत्यन्त प्रिय कहते हैं -- भक्तास्तेऽतीव मे प्रियाः (गीता 12। 20)। ऐसे परम दयालु भगवान्को? जो साधकोंको अत्यन्त प्रिय और सिद्ध भक्तोंको केवल प्रिय कहते हैं? मनुष्य अपना नहीं मानता -- यह उसका कितना प्रमाद है(2) संसारका एक छोटासा अंश शरीर है और परमात्माका अंश स्वयं (जीवात्मा) है। भूल यह होती है कि परमात्माका अंश संसारके अंशके साथ मिलकर संसार और परमात्मा -- दोनोंको अपने अनुकूल बनाना चाहता है साधकका काम है -- इस भूलको मिटाना। इसके लिये वह शरीरको तो संसारके अनुकूल बना दे और स्वयं परमात्माके अनुकूल बन जाय। तात्पर्य है कि शरीरको संसारपर छोड़ दे कि जैसी संसारकी मरजी हो? वैसे रखे और अपनेको परमात्मापर छोड़ दे कि जैसी परमात्माकी मरजी हो? वैसे रखे।संसारकी चीज संसारको दे दे और परमात्माकी चीज परमात्माको दे दे -- यह ईमानदारी है। इस ईमानदारीका नाम ही मुक्ति है। जिसकी चीज है? उसको न दे संसारकी चीज भी ले ले और परमात्माकी चीज भी ले ले -- यह बेईमानी है। इस बेईमानीका नाम ही बन्धन है।संसारकी चीज संसारपर और परमात्माकी चीज परमात्मापर छोड़कर निश्चिन्त हो जाय। अपनी कोई कामना न रखे। न जीनेकी कामना रखे? न मरनेकी। भगवान् ऐसा कर देते तो ठीक रहता भगवान् वर्षा कर देते तो ठीक रहता गरमी ज्यादा पड़ रही है? थोड़ी कम कर देते तो अच्छा था बाढ़ आ गयी? वर्षा कम करते तो ठीक रहता -- इस तरह मनुष्य परमात्माको भी अपने अनुकूल बनाना चाहता है और संसारको भी। इस बातको छोड़कर अपनेआपको सर्वथा भगवान्के अर्पित कर दे और भगवान्से कह दे कि हे नाथ आप मेरेको पृथ्वीपर रखें या स्वर्गमें रखें अथवा नरकोंमें रखें बालक रखें या जवान रखें अथवा बूढ़ा रखें अपमानित रखें या सम्मानित रखें सुखी रखें या दुःखी रखें जैसी परिस्थितिमें रखना चाहें? वैसे रखें? पर मैं आपको भूलूँ नहीं।मनुष्य जिस घरको अपना मानता है? जिस कुटुम्बको अपना मानता है? जिन रुपयोंको अपना मानता है? उनकी ही चिन्ता उसको होती है। संसारमें लाखोंकरोड़ों घर हैं? अरबों आदमी हैं? अनगिनत रुपये हैं? पर उनकी चिन्ता नहीं होती क्योंकि उनको वह अपना नहीं मानता। जिनको अपना नहीं मानता? उनसे तो मुक्त है ही। अतः ज्यादा मुक्ति तो हो चुकी है? थोड़ीसी ही मुक्ति बाकी हैविचार करना चाहिये कि जिन थोड़ीसी चीजोंको हम अपनी मानते हैं? वे कौनसी सदा साथ रहनेवाली हैं चीजें तो रहेंगी नहीं? पर बन्धन (उनका सम्बन्ध) रह जायगा? जो जन्मजन्मान्तरतक साथ रहेगा। इसलिये साधकको चाहिये कि वह या तो शरीरको संसारके अर्पण कर दे? जो कर्मयोग है चाहे अपनेको शरीरसंसारसे सर्वथा अलग कर ले? जो ज्ञानयोग है और चाहे अपनेको भगवान्के अर्पण कर दे? जो भक्तियोग है। इन तीनोंमेंसे कोई भी साधन अपना ले? तीनोंका फल एक ही होगा। सम्बन्ध --   मनसहित इन्द्रियोंको अपना माननेके कारण जीव किस प्रकार उनको साथ लेकर अनेक योनियोंमें घूमता है -- इसका भगवान् दृष्टान्तसहित वर्णन करते हैं।

By - Swami Chinmayananda , in hindi

।।15.7।। अनन्तवस्तु अवयव रहित होने के कारण अखण्ड और अविभाज्य है। तथापि उपाधियों के सम्बन्ध से उसमें खण्ड और विभाग होने का आभास निर्माण हो सकता है। जिस प्रकार सर्वगत आकाश का कोई आकार नहीं है? तथापि घट उपाधि से अवच्छिन्न होकर बना घटाकाश बाह्य महाकाश से भिन्न प्रतीत होता है।इसी प्रकार देहेन्द्रियादि से अवच्छिन्न (मर्यादित? सीमित) आत्मा जीव के रूप में आत्मा से भिन्न प्रतीत होता है। अथवा? जैसे आकाश में स्थित चन्द्रमा एक पात्र में स्थित जल में प्रतिबिम्बित होता है और वह प्रतिबिम्ब जल की स्थिति के अनुसार स्थिर या विच्छिन्न होता रहता है किन्तु प्रतिबिम्ब के छिन्नभिन्न होने का प्रभाव आकाशस्थ चन्द्रमा पर नहीं पड़ता। इसी प्रकार? मनबुद्धि रूप सूक्ष्म शरीर में व्यक्त चैतन्य जीव कहलाता है। अन्तकरण की वृत्तियों के अनुसार यह जीव स्वयं को सुखीदुखी? संसारी अनुभव करता है? किन्तु उसका शुद्ध चैतन्य स्वरूप सदा अविकारी ही रहता है? जो सनातन कहा गया है।उपर्युक्त विवेचन का तात्पर्य यह है कि आत्मा को प्राप्त हुआ जीवत्व अज्ञान के कारण है। अत वह जीवत्व आभासिक है? वास्तविक नहीं जैसे आकाश का एकदेशीयत्व और चन्द्रमा का प्रतिबिम्बित्व। अज्ञान का नाश हो जाने पर जीव स्वत आत्मस्वरूप बन जाता है। तत्पश्चात् ज्ञान की उपस्थिति में अज्ञान पुन नहीं लौटता? तब जीव का संसार में पुनरागमन होने का कारण ही नहीं रह जाता है। इसलिए? पूर्व श्लोक में कहा गया था कि भगवान् के परम धाम को प्राप्त हुये जीव पुन संसार को नहीं लौटते हैं। इसका पूर्व जन्म के सिद्धान्त से कोई विरोध नहीं है? क्योंकि जब तक अज्ञान बना रहता है? तब तक जीव का भी अस्तित्व बने रहने के कारण उसका पुनर्जन्म सद्ध हो सकता है।इस श्लोक की दूसरी पंक्ति का सम्बन्ध अगले श्लोक से है। इसमें देहत्याग के समय जीव का कार्य बताया गया है।यह स्थूल शरीर जड़ है और इसमें चैतन्य को व्यक्त करने की सार्मथ्य नहीं है। ज्ञानेन्द्रियाँ और अन्तकरण (मन और बुद्धि) सूक्ष्म शरीर कहलाते हैं। यद्यपि यह सूक्ष्म शरीर भी जड़ है? किन्तु इसमें चैतन्य व्यक्त हो सकता है। यह चेतन सूक्ष्म शरीर ही जीव है? जो किसी देह को धारण कर उसे चेतनता प्रदान करता है। यह जीव प्रकृतिस्थ इन्द्रियाँ तथा मन अर्थात् अन्तकरण को एकत्र कर लेता है। यहाँ प्रकृति का अर्थ है स्थूल शरीर में स्थित नेत्र? श्रोत्र आदि इन्द्रिय गोलक। यही कारण कि मृत देह में यह गोलक तो रह जाते हैं? परन्तु उनमें विषय ग्रहण की कोई सार्मथ्य नहीं होती।किस समय यह जीव इन इन्द्रियादि को अपने में समेट लेता है भगवान् कहते हैं

By - Sri Anandgiri , in sanskrit

।।15.7।।उक्तमनूद्याक्षिपति -- यद्गत्वेति। तत्र प्रसिद्धिं प्रमाणयति -- संयोगा इति। गमनस्यागमनान्तत्वप्रसिद्धेरयुक्तं यद्गत्वेत्याद्युपसंहरति -- कथमिति। आक्षेपं परिहरति -- शृण्विति। भगवत्प्राप्तेर्निवृत्त्यन्तत्वाभावः सप्तम्यर्थः। जीवस्य परांशत्वेऽपि कथमुक्तदोषसमाधिरित्याशङ्क्य प्रतिबिम्बपक्षमादाय दृष्टान्तेन प्रत्याचष्टे -- यथेति। अवच्छेदपक्षमाश्रित्य दृष्टान्तान्तरेणोक्तदोषसमाधिं दर्शयति -- यथा वेति। आक्षेपसमाधिमुपसंहरति -- अत इति। परस्य निरवयवत्वात्तदंशत्वं जीवस्यायुक्तमिति शङ्कते -- नन्विति। तस्य निरवयवत्वं साधयति -- सावयवत्वे चेति। वस्तुतो निरंशस्यापि परस्य कल्पनया जीवोंऽशो भविष्यतीति परिहरति -- नैष दोष इति। वस्तुतस्तु जीवस्य नांशत्वं परमात्मना तावन्मात्रताया दर्शितत्वादित्याह -- दर्शितश्चेति। यदि परस्यांशत्वेन कल्पितो जीवो वस्तुतस्तदात्मैव न तर्हि तस्य संसारित्वमुत्क्रान्तिर्वेति शङ्कते -- कथमिति। जीवस्य संसरणमुत्क्रमणं चोपपादयितुमुपक्रमते -- उच्यत इति।

By - Sri Dhanpati , in sanskrit

।।15.7।।ननु यद्गत्वा न निवर्तन्त इति नोपपद्यते कतेरागत्यन्तत्वात्। तदुक्तंसर्वे क्षयान्ता निचयाः पतनान्ताः समुच्छ्रयाः। संयोगा विप्रयोगान्ता मरणान्तं च जीवितम् इत्याशङ्क्याह -- ममैवेति। जीवलोके संसारे जीवभूतो भोक्ता कर्तेति प्रसिद्धः। मम परमात्मन एवांशोऽवयवो नान्यस्य। अतएव सनातनः पुरातनः। एवंच यथा जलसूर्यकः सूर्यांशको जलनिमित्तापाये सूर्यं प्राप्य न निवर्तते? यथावा घटाद्युपाधिपरिच्छिन्नो घटाद्याकाश आकाशांशः सन् घटादिनिमित्तापाये आकांश प्राप्य नावर्तते तद्वज्जीवोऽपि मदंशः मां गत्वा पुनरावृत्तिशून्य एवेत्यतो युक्तमेव यद्गत्वा न निवर्तन्त इति। तथा चाविद्याकृतोपाधिपरिच्छिन्न एकदेशोंश इव कल्पिस्तत्त्वज्ञानेनाविद्यापागम उपाधेर्निमित्तभूतस्यापगमात् स्वरुपेणावतिष्ठते नतु निवयवस्य मुख्योऽवयवः संभवति सावयवत्वे च विनाशप्रसङ्गोऽनिष्टः स्यात्। यदि परस्यांशत्वेन कल्पितो जीवो वस्तुतः परमात्वैव तर्हि कथं संसरत्युत्क्रामति वेत्यपेक्षायामाह -- मन इति। मनःषष्ठानि श्रोत्रादीनिन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि स्वस्वप्रकृतौ कर्णशष्कुल्यातौ स्थाने स्थितानि कर्षति आकर्षति यदा पूर्वशरीराच्छारीरान्तरं प्राप्नोतीत्युत्तरेण संबन्धः। यत्त्वेवंभूतोऽपि सुषुप्ताकथमावर्तत इत्यत आह। मनः षष्ठं येषां तानि श्रोत्रादीनि पञ्चेन्द्रियाणि। इन्द्रस्यात्मो विषयोपलब्धिकरणताय लिङ्गानि जाग्रत्स्वप्नभोगजनककर्मक्षये प्रकृतिस्थानि प्रकृतावज्ञाने सूक्ष्मरुपेण स्थितानि पुनर्जाग्रद्भोगजनककर्मोदये भोगार्थ कर्षति। कूर्मोऽङ्गनीव प्रकृतेरज्ञानदाकर्षति। विषयग्रहणयोग्यतयाविर्भावयतीत्यर्थः। अतो ज्ञानादनावृत्तावज्ञानादनावृत्तिर्नोपपन्नेति भाव इतिव्याख्यानं तत्तु बह्वध्याहारसापेक्षमुत्तरश्लोकाननुबद्धम्। कस्मिन्काले कर्षतीत्यच्यत इति स्वग्रन्थाननुगुणं चात उपेक्ष्यमेवमन्येषामपि कुकल्पना भाष्यविरुद्धा नोपादेया।

By - Sri Neelkanth , in sanskrit

।।15.7।।ननु यदि सूर्याद्यभास्यज्योतीरूपस्त्वंक्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि इति स्वस्यैव क्षेत्रज्ञत्वं ब्रूषे तर्हि क्षेत्रज्ञस्य सतस्तव घटादिप्रकाशे किमिति सूर्याद्यपेक्षा दृश्यते। नहि स्वयं ज्योतीरूपः स्वविषयावभासने ज्योतिरन्तरमपेक्षते दीपादिष्वदर्शनादित्याशङ्क्याह त्रिभिः -- ममैवेति। यद्यस्मादीश्वरो जगत्स्रष्टा शरीरं अवाप्नोतिस एष इह प्रविष्ट आनखाग्रेभ्यःतत्सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत् इत्यादिश्रुतिभ्य ईश्वर एव शरीरधारी तथा यद्यस्माद्धेतोः। अपिशब्दोऽवधारणार्थे। चः समुच्चयार्थे।कस्मिन्नहमुत्क्रान्त उत्क्रान्तो भविष्यामि कस्मिन्वा प्रतिष्ठिते प्रतिष्ठास्यामीति स प्राणमसृजत इति श्रुतेः। प्राणधारणेनोपाधिना ईश्वर एव च उत्क्रामति। ततो हेतुद्वयाज्जीवलोके संसारे यो जीवभूतः प्राणी स सनातनः सर्वदैकरूपोऽहमेवेति वक्तव्येयथाग्नेः क्षुद्रा विस्फुलिङ्गा व्युच्चरन्त्येवमेवैतस्मादात्मनः सर्व एव आत्मानो व्युच्चरन्ति इति वह्निविस्फुलिङ्गन्यायेन स ममैवांश इत्यंशांशिभावोक्तिः। यद्यपि वह्नौ भेदः परिमाणं च स्वगतं न दृश्यते तथापि तूपाधिगतमेव तदुभयं तत्राप्युपचर्यते अयमग्निरस्मादग्नेर्भिन्नः अयमस्य स्फुलिङ्गः अयमस्मादल्प इति।एवमस्थूलमनण्वह्रस्वमदीर्घम् इति श्रुतेश्चतुर्विधपरिमाणशून्ये ब्रह्मणि ममैवांश इत्यंशांशिभावेन भेदोऽल्पत्वमहत्त्वे चोपचारादौपाधिके ध्येये। तथा च श्रुतिःबुद्धेर्गुणेनात्मगुणेन चैव ह्याराग्रमात्रो ह्यवरोऽपि दृष्टः इतिसमः प्लुषिणा समो मशकेन समो नागेन सम एभिस्त्रिभिर्लोकैः इति च। तथा च विस्फुलिङ्गो वह्निरेव न तु वन्ह्यंशः? एवं जीवोऽपि ब्रह्मैव न तु ब्रह्मांशःब्रह्मदाशा ब्रह्मदासा ब्रह्मेमे कितवा उत इति दाशादिष्वपि पिण्डेषु गोत्वस्येव कात्स्न्र्येन एकैकस्मिन् ब्रह्मभावपरिसमाप्तिदर्शनात्। निरंशेंऽशांशिकल्पनाया अयोग्यत्वाच्च स एवं जीवभूत ईश्वरो ममैवांश इवांशो,रूपभेदो मनः षष्ठं येषु तानि मनसा सह षडिन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि इन्द्रियाणां प्रकृतिः स्वभावो विषयप्रावण्यं तत्र स्थितानि। कर्षति सुप्तिप्रलयसमकालेषु संकोचयति।

By - Sri Ramanujacharya , in sanskrit

।।15.7।।इत्थम् उक्तस्वरूपः सनातनो मम अंश एव सन् कश्चिद् अनादिकर्मरूपाविद्यावेष्टनतिरोहितस्वरूपो जीवभूतो जीवलोके वर्तमानो देवमनुष्यादिप्रकृतिपरिणामविशेषशरीरस्थानि मनःषष्ठानि इन्द्रियाणि कर्षति। कश्चित् च पूर्वोक्तमार्गेण अस्या अविद्याया मुक्तः स्वेन रूपेण अवतिष्ठते।जीवभूतः तु अतिसंकुचितज्ञानैश्वर्यः कर्मलब्धप्रकृतिपरिणामविशेषरूप शरीरस्थानाम् इन्द्रियाणां मनःषष्ठानाम् ईश्वरः तानि कर्मानुगुणम् इतः ततः कर्षति।

By - Sri Sridhara Swami , in sanskrit

।।15.7।।ननु च त्वदीयं धाम प्राप्ताः सन्तो यदि न निवर्तन्ते तर्हिसति संपद्य न विदुः सति संपद्यामहे इत्यादिश्रुतेः सुषुप्तिप्रलयसमये त्वत्प्राप्तिः सर्वेषामस्तीति को नाम संसारी स्यादित्याशङ्क्य संसारिणं दर्शयति -- ममेति पञ्चभिः। ममैवांशो योऽयमविद्यया जीवभूतः सनातनः सर्वदा संसारित्वेन प्रसिद्धः असौ सुषुप्तिप्रलययोः प्रकृतौ लीनतया स्थितानि मनः षष्ठं येषां तानीन्द्रियाणि पुनर्जीवलोके संसारे भोगार्थमाकर्षति। एतच्च कर्मेन्द्रियाणां प्राणस्य चोपलक्षणार्थम्। अयं भावः -- सत्यं सुषुप्तिप्रलयोरपि मदंशत्वात्सर्वस्यापि जीवमात्रस्य मयि लयादस्त्येव मत्प्राप्तिः तथाप्यविद्ययावृतस्य सानुशयस्य सप्रकृतिके मयि लयो न तु शुद्धे। तदुक्तम् -- अव्यक्ताद्व्यक्तयः सर्वाः प्रभवन्ति इत्यादिना। अतश्च पुनः संसाराय निर्गच्छन्नविद्वान् प्रकृतौ लीनतया स्थितानि स्वोपाधिभूतानीन्द्रियाण्याकर्षति। विदुषां तु शुद्धस्वरूपप्राप्तेर्नावृत्तिरिति।

By - Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha , in sanskrit

।।15.7।।यद्येवं त्वद्विभूतित्तया तवांश एव? तर्हि नित्यसूरिवर्गवदविशेषेण सर्वेषां परिशुद्धाकारयोगः किं न स्यात् इत्यत्र बद्धस्यापि स्वविभूतित्वमनूद्य बद्धमुक्तादिव्यवस्थापनंममैवांशः इत्यादिनोच्यत इत्यभिप्रायेणाह -- इत्थमुक्तस्वरूप इति।

By - Sri Abhinavgupta , in sanskrit

।।15.7।।ममेति। ब्रह्मण एवायमंश इति। अज्ञानधर्मतया परिपूर्णस्य असंवेदनात् चेतनताऽनिवृत्तेश्च अंशत्वमुपचरितम् न (?N omit न) पुनर्वस्तुतः अंशवत्तोपपद्यते। प्रदेशोऽपि ब्रह्मणः सार्वरूप्यमनतिक्रान्तः इति हि श्रुतिः (N श्रुतेः)। एषैव च औपचारिकता यथावसरं योजनीया इति न विप्रतिपत्तव्यम्।

By - Sri Madhusudan Saraswati , in sanskrit

।।15.7।।ननु यद्गत्वा न निवर्तन्त इत्युक्तं यदि गच्छन्ति तर्ह्यावर्तन्त एव स्वर्गवदथ नावर्तन्ते तर्हि न गच्छन्ति तेन गत्वेति न निवर्तन्त इति च परस्परविरुद्धंसर्वे क्षयान्ता निचयाः पतनान्ताः समुच्छ्रयाः। संयोगा विप्रयोगान्ता मरणान्तं हि जीवितम् इति हि शास्त्रे लोके च प्रसिद्धम्। अनात्मत्वात्प्राप्तिः पुनरावृत्तिपर्यवसाना न त्वात्मप्राप्तिरितिचेत् न। सुषुप्तौसता सोम्य तदा संपन्नो भवति इति श्रुतिप्रतिपादिताया अप्यात्मप्राप्तेः पुनरावृत्तिपर्यन्तत्वदर्शनादन्यथा सुषुप्तस्य मुक्तत्वे पुनरुत्थानं न स्यात् तस्मादात्मप्राप्तौ गत्वेति नोपपद्यते तस्यौपचारिकत्वेप्यनिवृत्तिर्नोपपद्यत इत्येवं प्राप्ते ब्रूमः। गन्तुर्जीवस्य गन्तव्यब्रह्माभिन्नत्वाद्गत्वेत्यौपचारिकम्। अज्ञानमात्रव्यवहितस्य तस्य ज्ञानमात्रेणैव प्राप्तिव्यपदेशात्। यदि ब्रह्मणः प्रतिबिम्बो जीवस्तदा यथा जलप्रतिबिम्बितसूर्यस्य जलापाये बिम्बभूतसूर्यगमनं ततो नावृत्तिश्च। यदि च बुद्ध्यवच्छिन्नो ब्रह्मभागो जीवस्तदा यथा घटाकाशस्य घटापाये महाकाशं प्रति गमनं ततो नावृत्तिश्च तथा जीवस्याप्युपाध्यपाये निरुपाधिस्वरूपगमनं ततो नावृत्तिश्चेत्युपचारादुच्यते। एकस्वरूपत्वाद्भेदभ्रमस्य चोपाधिनिवृत्त्या निवृत्तेः। सुषुप्तौ त्वज्ञाने स्वकारणे भावनाकर्मपूर्वप्रज्ञासहितस्यान्तःकरणस्य जीवोपाधेः सूक्ष्मरूपेणावस्थानात्तत एवाज्ञानात्पुनरुद्भवः संभवति। ज्ञानादज्ञाननिवृत्तौ तु कारणाभावात्कुतः कार्योदयः स्यादज्ञानप्रभवत्वादन्तःकरणाद्युपाधीनाम्। तस्माज्जीवस्याहं ब्रह्मास्मीति वेदान्तवाक्यजन्यसाक्षात्कारादहं न ब्रह्मेत्यज्ञाननिवृत्तिर्गत्वेत्युच्यते। निवृत्तस्य चानाद्यज्ञानस्य पुनरुत्थानाभावेन तत्कार्यसंसाराभावो न निवर्तन्त इत्युच्यत इति न कोऽपि विरोधः। जीवस्य तु पारमार्थिकं स्वरूपं ब्रह्मैवेत्यसकृदावेदितम्। तदेतत्सर्व प्रतिपाद्यत उत्तरेण ग्रन्थेन। तत्र जीवस्य ब्रह्मरूपत्वादज्ञाननिवृत्त्या तत्स्वरूपं प्राप्तस्य ततो न प्रच्युतिरिति प्रतिपाद्यते ममैवांश इति श्लोकार्धेन। सुषुप्तौ तु सर्वकार्यसंस्कारसहिताज्ञानसत्त्वात्ततः पुनः संसारो जीवस्येति मनःषष्ठानीति श्लोकार्धेन प्रतिपाद्यते। ततस्तस्य वस्तुतोऽसंसारिणोऽपि मायया संसारं प्राप्तस्य मन्दमतिभिर्देहतादात्म्यं प्रापितस्य देहाद्व्यतिरेकः प्रतिपाद्यते शरीरमित्यादिना श्लोकार्धेन। श्रोत्रं चक्षुरित्यादिना तु यथायथं स्वस्वविषयेष्विन्द्रियाणां प्रवर्तकस्य तस्य तेभ्यो व्यतिरेकः प्रतिपाद्यते। एवं देहेन्द्रियादिविलक्षणमुत्क्रान्त्यादिसमये स्वात्मरूपत्वात्किमिति सर्वे न पश्यन्तीत्याशङ्कायां विषयविक्षिप्तचित्तादर्शनयोग्यमपि तं न पश्यन्तीत्युत्तरमुच्यत उत्क्रामन्तमित्यादिना श्लोकेन। तं ज्ञानचक्षुषः पश्यन्तीति विवृतं यतन्तो योगिन इति श्लोकार्धेन। विमूढा नानुपश्यन्तीत्येतद्विवृतं यतन्तोऽपीति श्लोकार्धेनेति पञ्चानां श्लोकानां संगतिः। इदानीमक्षराणि व्याख्यास्यामः।ममैवांश इति। ममैव परमात्मनोंऽशः निरंशस्यापि मायया कल्पितः सूर्यस्येव जले? नभस इव च घटे? मृषाभेदवानंश इवांशो जीवलोके संसारे। स च प्राणधारणोपाधिना जीवभूतः कर्ता भोक्ता संसारीति मृषैव प्रसिद्धिमुपगतः सनातनो नित्यः। उपाधिपरिच्छेदेऽपि वस्तुतः परमात्मस्वरूपत्वात्। अतो ज्ञानादज्ञाननिवृत्त्या स्वस्वरूपं ब्रह्म प्राप्य ततो न निवर्तन्त इति युक्तम्। एवंभूतोऽपि सुषुप्तात्कथमावर्तत इत्याह -- मन इति। मनः षष्ठं येषां तानि श्रोत्रत्वक्चक्षूरसनघ्राणाख्यानि पञ्चेन्द्रियाणि इन्द्रस्यात्मनो विषयोपलब्धिकरणतया लिङ्गानि जाग्रत्स्वप्नभोगजनककर्मक्षये प्रकृतिस्थानि प्रकृतावज्ञाने सूक्ष्मरूपेण स्थितानि पुनर्जाग्रद्भोगजनककर्मोदये भोगार्थं कर्षति कूर्मोऽङ्गानीव प्रकृतेरज्ञानादाकर्षति विषयग्रहणयोग्यतयाविर्भावयतीत्यर्थः। अतो ज्ञानादनावृत्तावप्यज्ञानादावृत्तिर्नानुपपन्नेति भावः।

By - Sri Purushottamji , in sanskrit

।।15.7।।ननु पूर्वं क्षेत्रक्षेत्रज्ञप्रकृतिपुरुषजडजङ्गमादीनां स्वांशत्वक्रीडौपयिकत्वस्वक्रीडार्थोपसादितत्वमुक्तमधुना चयद्गत्वा न निवर्त्तन्ते [5।6] इत्युक्तं तत्कथं सम्भवति इत्याकाङ्क्षायामाहममैवेति पञ्चभिः। जीवलोके मत्क्रीडार्थप्रकटिते जीवभूतः आनन्दांशतिरोधानेनाऽनीशितृत्वोद्भावनेन क्रीडारसभोगार्थसेवारसानुभवार्थजीवत्वलक्षणो ममैवांशः सनातनः सदा मयि विद्यमानः। मनः षष्ठं येषां तादृशानि प़ञ्चेन्द्रियाणि प्रकृतौ क्रीडार्थमाविर्भूतायां स्थितानि तद्भोगाद्यनुभवार्थं कर्षति।अत्रायं भावः -- साक्षात्स्वक्रीडानुभवार्थप्रकटितो जीवभावः सनातनः पुरुषोत्तमांश एव साक्षात् तद्द्वारा प्रकृत्युत्पादितभोगानुभवार्थं प्रकृटितोंऽशः सांसारिको जीवो मूलभूतजीवांशः स स्वांशं तत्र नयति यत्र तदिच्छा। अतएव तमुत्क्रामन्तं प्राणोऽनुत्क्रामति [बृ.उ.4।4।2] इत्यादिश्रुतिः।

By - Sri Shankaracharya , in sanskrit

।।15.7।। --,ममैव परमात्मनः नारायणस्य? अंशः भागः अवयवः एकदेशः इति अनर्थान्तरं जीवलोके जीवानां लोके संसारे जीवभूतः कर्ता भोक्ता इति प्रसिद्धः सनातनः चिरंतनः यथा जलसूर्यकः सूर्यांशः जलनिमित्तापाये सूर्यमेव गत्वा न निवर्तते च तेनैव आत्मना गच्छति? एवमेव यथा घटाद्युपाधिपरिच्छिन्नो घटाद्याकाशः आकाशांशः सन् घटादिनिमित्तापाये आकाशं प्राप्य न निवर्तते। अतः उपपन्नम् उक्तम् यद्गत्वा न निवर्तन्ते इति। ननु निरवयवस्य परमात्मनः कुतः अवयवः एकदेशः अंशः इति सावयवत्वे च विनाशप्रसङ्गः अवयवविभागात्। नैष दोषः? अविद्याकृतोपाधिपरिच्छिन्नः एकदेशः अंश इव कल्पितो यतः। दर्शितश्च अयमर्थः क्षेत्राध्याये विस्तरशः। स च जीवो मदंशत्वेन कल्पितः कथं संसरति उत्क्रामति च इति? उच्यते -- मनःषष्ठानि इन्द्रियाणि श्रोत्रादीनि प्रकृतिस्थानि स्वस्थाने कर्णशष्कुल्यादौ प्रकृतौ स्थितानि कर्षति आकर्षति।।कस्मिन् काले --,

By - Sri Vallabhacharya , in sanskrit

।।15.7।।अयमपि पुरुषो मे धाम ममैव सच्चिदानन्दात्मकस्य पुरुषोत्तमस्यैवांशोऽणुः केवलचिदात्मा स्वेच्छया पृथग्भावितः सनातनो वस्तुतो नित्यस्वरूपत्वात् -- अनादिकर्मरूपाविद्यावेष्टनतिरोहितानन्दस्वरूपो जीवभूतो जीवलोके वर्त्तमानो देवमनुष्यादिप्रकृतिपरिणामविशेषशरीरस्थानि मनष्षष्ठानीन्द्रियाणि कर्षति। कश्चित्पूर्वोक्तमार्गेणास्या अविद्याया मुक्तः स्वेन रूपेणावतिष्ठते संसारी जीवः अयं तु यतस्ततोऽतिसङ्कुचितज्ञानैश्वर्यः कर्मलब्धप्रकृतिपरिणामविशेषरूपशरीरस्थानामिन्द्रियाणां मनष्षष्ठानां कर्षणं कर्मानुगुणं करोति। सोऽप्यत्र ब्रह्मवादे सर्वशक्तिमतः पुरुषोत्तमस्यांश एव जीव इत्युच्यते। यथा च सूत्रेषुअंशो नानाव्यपदेशादन्यथा चापि दाशकितवादित्वमधीयत एके [ब्र.सू.2।3।43] इति। अयमात्मा भगवतोंऽशः सच्चिदानन्देषु चिद्रूपः इतरयोस्तत्र पराभिध्यानात्तिरोधानेन बन्धविपर्ययादिति क्रीडेच्छयैवांशत्वहेतुः। सूत्रे नानाव्यपदेशात् सर्व एवात्मनो (एत आत्मनः सर्वे प्राणाः सर्वे लोकाः सर्वे देवाः सर्वाणि भूतानि) व्युच्चरन्ति [बृ.उ.2।2।20] रमणीयचरणाः ৷৷. कपूयचरणाः [छां.उ.5।10।7] इति च। न च ब्रह्मणो निरवयवत्वात्कथं जीवोंऽश इति वाच्यम् न हि ब्रह्म निरंशं सांशं वा क्वचिल्लोके सिद्धं? वेदैकसमधिगम्यत्वात् सत्त्वाचार्यमतोपपन्नार्थतयाऽभ्युपगन्तव्यः? न तु सर्वविप्लवः कार्यः। युक्तिस्त्वेषोपपद्यते -- विस्फुलिङ्गा इवाग्नेर्हि जडा जीवाश्च निर्गताः। सर्वतः पाणिपादान्तात्सर्वतोक्षिशिरोमुखात्।।निरिन्द्रियात्स्वरूपेण तादृशादिति निश्चयः। संदेशेन जडाः पूर्वं चिदंशेनेतरा अपि।।अन्यधर्मतिरोभावा मूलेच्छातोऽस्वतन्त्रिणः इति हि ब्रह्मवादेंऽशपक्ष एव।ननु अंशत्वेन सजातीयत्वमायाति। श्रुत्यन्तरे पुनः ब्रह्म दाशा ब्रह्म दासा ब्रह्मेमे कितवा उत [ ] इत्यत्र सर्वस्यापि ब्रह्मज्ञानेन सर्वविज्ञानप्रतिपादनात् दाशादीनामपि ब्रह्मत्वं प्रतीयते तत्कार्यत्व एव स्यादिति चेत्? न? अन्यथा चापीत्यादि। प्रकारान्तरेणापि एके शाखिनः दाशकितवादित्वमधीयते शरीरत्वेनांशत्वेन च स्वरूपतः कार्याभावेऽपि प्रकारभेदेन कार्यत्वात्। तथा च न साजात्यं आनन्दाशस्य तिरोहितत्वात्। धर्मान्तरेण साजात्यं त्विष्टमेव ततोऽग्रे च सूत्रेमन्त्रवर्णात् [ब्र.सू.2।3।44] इति पुरुष एवेद्ँसर्वं [ऋक्सं.8।4।17।2यजुः31।2] इत्युक्त्वा पादोऽस्य विश्वा भूतानि [ऋक्सं.8।4।17।3यजुः31।3] इति जीवानां पादत्वं पादेषु स्थित्वेनावांशत्वम्। अतएवाग्रे अनुस्मर्यते इतिममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः [15।7] इति।प्रकाशादिवन्नैवं परः [ब्र.सू.2।3।46] इत्यत्र च जीवस्यांशत्वं हस्तादिवत् तद्दुःखेन परस्यापि तदा दुःखित्वं स्यादिति चेत्? एवं परो न भवति एवमिति प्रकारभेदः द्विष्टत्वेनानुभव इति यावत्। अन्यथा सर्वरूपत्वात्। कुत एवं तत्राह -- प्रकाशादिवदितिनाग्नेर्हि तापो न हिमस्य तत्स्यात् इति प्रकाशग्रहणं धर्मत्वद्योतनाय सुखदुःखादयोऽपि ब्रह्मधर्मा इति। अतो द्वैतबुद्ध्यांशस्यैव दुःखित्वं? न परस्य।अथवा प्रकाशः प्रकाश्यदोषेण यथा न दुष्टः? तापस्यापि तदंशत्वादितिस्मरन्ति च [ब्र.सू.2।3।473।2।14] इति सूत्रे ऋषयोंऽशिनं स्मरन्ति? दुःखसम्बन्धं न स्मरन्तितत्र यः परमात्मा हि स नित्यो निर्गुणः स्मृतः। न लिप्यते फलैश्चापि पद्मपत्रमिवाम्भसा। इतिकर्मात्मा ह्यपरो योऽसौ मोक्षबन्धैः स युज्यते। एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा न लिप्यते लोकदुःखेन बाह्यः [कठो.5।11] चकारात्तयोरेकं (अन्यः) पिप्पलं स्वाद्वत्ति अनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति [मुण्ड.3।1।1] इति भाष्यात्। अतो जीवो नाम ब्रह्मांशो न तु ब्रह्मैव? कुतः,नानाव्यपदेशात्। श्रुत्यादौ एषोऽणुरात्मा चेतसा वेदितव्यः [मुण्ड.3।1।9] बुद्धेर्गुणेनात्मगुणेन चैव आराग्रमात्रो ह्यवरो(प्यवरो)ऽपि दृष्टः [श्वेता.5।8] इति। अत्र बुद्धेर्गुणेनावरः तिरोभूतानन्द आत्मगुणेन त्वाराग्रमात्र एव व्यापक इति व्याख्यातम्। न हि महतो ब्रह्मणोऽणुत्वं यत्र चाणुत्वं तज्जीवान्तर्याम्यभिप्रायेण। अतएव वालाग्रशतभागस्य [श्वेता.5।9] इत्यादौ तत्त्वमसि श्वेतकेतो [छां.उ.6।8।7816] योऽसावादित्ये सोसावहं [ ] यथाग्नेः क्षुद्रा [बृ.उ.2।1।20] इत्यादौ च नानाव्यपदेशात् सर्ववाक्यबाधाभावायाणुरेव ब्रह्मांश एव जीव इति मन्तव्यम्।अथवा नानाव्यपदेशात् भेदव्यपदेशादित्यर्थः। य आत्मनि तिष्ठन्नात्मानमन्तरे यमयति यमात्मा न वेद यस्यात्मा शरीरम् [श.ब्रा.14।5।30] इति माध्यन्दिनब्राह्मणे जीवपरमात्मनोर्भेदेनोपदेशात् केवलं प्राणधारणप्रयत्नवान् ब्रह्मणोंऽशो जीवशब्देनोच्यत इत्यर्थः। यो विज्ञाने तिष्ठन् विज्ञानमन्तरो यमयति [बृ.उ.3।7।22] इति काण्वपाठे स एवार्थः। एकत्र क्वचिदन्यथाप्रतिवादिना वक्तव्यं स्यात्? न तु नानाप्रमाणवचनेषु तथा अतएव श्रुतावभेदोक्तिः तदंशत्वात्। अंशत्वं स सजातीयत्वे सति तदपेक्षया किञ्चिन्न्यूनशक्त्याश्रयत्वमिति। स यथा महाराजो जानपदान् गृहीत्वा स्वे जनपदे यथाकामं परिवर्त्तत एवमेवायमात्मेति प्रज्ञया शरीरमुद्वह्य तमुत्क्रामति तयोर्ध्वमायन्नमृतत्वमेति [कठो.6।16छा.उ.8।6।6।] ऊर्णनाभिर्यथा तन्तून् सृजते सञ्चारत्यपि। जाग्रत्स्वप्ने तथा जीवो गच्छत्यागच्छते पुनः [ब्रह्मो.20] इति श्रुतिस्मृत्युक्तगमनागमनादिकं चाणुत्वमन्तरेण अनुपपन्नं जीवस्य ब्रह्मांशत्वमेव प्रबोधयतीत्यणुत्वाद्ब्रह्मणोंऽश एव जीवः। जीवब्रह्मविभागस्याविद्याकल्पितत्वे मानाभावात्अविभक्तं विभक्तिमत् इतिवाक्याच्छुतौ विश्वतश्चक्षुः [ऋक्सं.8।3।16।3] इतिमन्त्रे प्रयोजनाभावेऽप्युतेतिपदश्रवणात्मसहजो ब्रह्मकृत एवायं विभागः? न त्वविद्याकल्पितः तथा सति सृष्ट्यारम्भेऽविभक्तस्य संसारित्वाभावाद्विभागस्य च संसारकल्पनमन्तरेणानुपपत्तेरन्योन्याश्रयः प्रसज्येत। विभागस्याविद्याकल्पितत्वेन तस्याः स्थितेरनुक्तसिद्धत्वान्निराधारस्थितेरसम्भावितत्वाद्भ्रान्तिरूपत्वेन द्वैतापत्तिभिया च स्वाधिष्ठानत्वस्यापि वक्तुमशक्यत्वाद्ब्रह्मणश्चाधिष्ठानत्वे संसारित्वप्रसक्त्यैकमुक्तौ सर्वमुक्तिप्रसङ्गादभावदर्शनाच्छास्त्राप्रामाण्यं सर्वविप्लवप्रसङ्ग एव। तस्मादखिलश्रुतिस्मृतिप्रामाण्याज्जीवाः सर्वे भगवतो ब्रह्मणोंऽशा अणवः सनातनाः स्वेच्छातो विभक्ता इति सर्वमनवद्यम्। प्रकृते स एकोऽयं जीवभूतः यावन्तो जीवास्तद्रूपतया जातः। समष्ट्यभिप्रायेणैकवचनम्। स च जीवलोके प्रपञ्चे। प्रपञ्चो हि जीवानां लोको वैकुण्ठो भगवत इव। अतएव प्रपञ्चक्रीडने जीवरूपस्य प्राधान्यं अनेन जीवेनात्मना [छा.उ.6।3।2] इति श्रुतेः। तादृशोऽपि न देहादिरिवागन्तुकः? किन्तु सनातनः सर्वदैवैतावज्जीवरूपः न तु भौतिकसृष्टिवत्पश्चात्तनः। प्रपञ्चे तस्यांशस्य तथाभूतस्य कार्यमाह -- मनष्षष्ठानीति। मनसा षष्ठानि षण्णां पूरणानि षट्सङ्ख्याकानि इन्द्रियाणि ज्ञानेन्द्रियाणि वासनामयलिङ्गशरीरभूतानि विषयभोगोत्पत्त्यर्थं कृषीवलो भूमिमिव लिखति? इह विषयभोगोत्पत्यनुकूलानि करोतीत्यर्थः। तान्यपि प्रकृतिस्थानीति? नत्वात्मस्थानि। प्रकृतौ संसर्जनात्प्रकृतिस्थानीत्युक्तम्। अतएवोक्तंबुद्धीन्द्रियमनःप्राणान् जनानामसृजत्प्रभुः। मात्रार्थं च भवार्थं च स्वात्मने कल्पनाय च [भाग.10।87।2] इति तत एवायं जीवः।