BG - 18.1

अर्जुन उवाच संन्यासस्य महाबाहो तत्त्वमिच्छामि वेदितुम्। त्यागस्य च हृषीकेश पृथक्केशिनिषूदन।।18.1।।

arjuna uvācha sannyāsasya mahā-bāho tattvam ichchhāmi veditum tyāgasya cha hṛiṣhīkeśha pṛithak keśhi-niṣhūdana

  • arjunaḥ uvācha - Arjun said
  • sanyāsasya - of renunciation of actions
  • mahā-bāho - mighty-armed one
  • tattvam - the truth
  • ichchhāmi - I wish
  • veditum - to understand
  • tyāgasya - of renunciation of desires for enjoying the fruits of actions
  • cha - and
  • hṛiṣhīkeśha - Krishna, the Lord of the senses
  • pṛithak - distinctively
  • keśhī-niṣhūdana - Krishna, the killer of the Keshi demon

Translation

Arjuna said, "O mighty-armed Hrishikesa, I desire to know the essence or truth of renunciation and abandonment severally, O slayer of Kesi."

Commentary

By - Swami Sivananda

18.1 संन्यासस्य of renunciation? महाबाहो O mightyarmed? तत्त्वम् the essence of truth? इच्छामि (I) wish? वेदितुम् to know? त्यागस्य of Tyaga or abandonment? च and? हृषीकेशः O Krishna? पृथक् severally? केशिनिषूदन् slayer of Kesi.Commentary The teaching of the whole of the GitaSastra is summed up beautifully in this discourse. This last discourse is a brief masterly summary of all that is told in the previous chapters. Arjuna wishes to know the distinction between Sannyasa and Tyaga.Kesi was an Asura whom Lord Krishna slew. So Lord Krishna is addressed as Kesinishudana by Arjuna.The words Sannyasa and Tyaga have been used here and there in the preceding discourses but their connotations are not lucidly distinguished. Therefore Lord Krishna clearly explains to Arjuna the right significance of the two terms in the following verse.

By - Swami Ramsukhdas , in hindi

।।18.1।। व्याख्या --   संन्यासस्य महाबाहो ৷৷. पृथक्केशिनिषूदन -- यहाँ महाबाहो सम्बोधन सामर्थ्यका सूचक है। अर्जुनद्वारा इस सम्बोधनका प्रयोग करनेका भाव यह है कि आप सम्पूर्ण विषयोंको कहनेमें समर्थ हैं अतः मेरी जिज्ञासाका समाधान आप इस प्रकार करें? जिससे मैं विषयको सरलतासे समझ सकूँ।  हृषीकेश सम्बोधन अन्तर्यामीका वाचक है। इसके प्रयोगमें अर्जुनका भाव यह है कि मैं संन्यास और त्यागका तत्त्व जानना चाहता हूँ अतः इस विषयमें जोजो आवश्यक बातें हों? उनको आप (मेरे पूछे बिना भी) कह दें।केशिनिषूदन सम्बोधन विघ्नोंको दूर करनेवालेका सूचक है। इसके प्रयोगमें अर्जुनका भाव यह है कि जिस प्रकार आप अपने भक्तोंके सम्पूर्ण विघ्नोंको दूर कर देते हैं? उसी प्रकार मेरे भी सम्पूर्ण विघ्नोंको अर्थात् शङ्काओँ और संशयोंको दूर कर दें।जिज्ञासा प्रायः दो प्रकारसे प्रकट की जाती है --,(1) अपने आचरणमें लानेके लिये और (2) सिद्धान्तको समझनेके लिये। जो केवल पढ़ाई करनेके लिये (सीखनेके लिये) सिद्धान्तको समझते हैं? वे केवल पुस्तकोंके विद्वान् बन सकते हैं और नयी पुस्तक भी बना सकते हैं? पर अपना कल्याण नहीं कर सकते (टिप्पणी प0 869)। अपना कल्याण तो वे ही कर सकते हैं? जो सिद्धान्तको समझकर उसके अनुसार अपना जीवन बनानेके लिये तत्पर हो जाते हैं।यहाँ अर्जुनकी जिज्ञासा भी केवल सिद्धान्तको जाननेके लिये ही नहीं है? प्रत्युत सिद्धान्तको जानकर उसके अनुसार अपना जीवन बनानेके लिये है। एषा तेऽभिहिता सांख्ये (गीता 2। 39) में आये सांख्य पदको ही यहाँ संन्यास पदसे कहा गया है। भगवान्ने भी सांख्य और संन्यासको पर्यायवाची माना है जैसे -- पाँचवें अध्यायके दूसरे श्लोकमें संन्यासः? चौथे श्लोकमें सांख्ययोगौ? पाँचवें श्लोकमें यत्सांख्यैः और छठे श्लोकमें संन्यासस्तु पदोंका एक ही अर्थमें प्रयोग हुआ है। इसलिये यहाँ अर्जुनने सांख्यको ही संन्यास कहा है। इसी प्रकार बुद्धिर्योगे त्विमां श्रृणु (गीता 2। 39) में आये योग पदको ही यहाँ त्याग पदसे कहा गया है। भगवान्ने भी योग (कर्मयोग) और त्यागको पर्यायवाची माना है जैसे -- दूसरे अध्यायके अड़तालीसवें श्लोकमें सङ्गं त्यक्त्वा तथा इक्यावनवें श्लोकमें फलं त्यक्त्वा? तीसरे अध्यायके तीसरे श्लोकमें कर्मयोगेन योगिनाम्? चौथे अध्यायके बीसवें श्लोकमें त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गम्? पाँचवें श्लोकमें तद्योगैरपि गम्यते? ग्यारहवें श्लोकमें सङ्गं त्यक्त्वा तथा बारहवें श्लोकमें त्यागात् पदोंका एक ही अर्थमें प्रयोग हुआ है। इसलिये यहाँ अर्जुनने कर्मयोगको ही त्याग कहा है।अच्छी तरहसे रखनेका नाम संन्यास है -- सम्यक् न्यासः संन्यासः। तात्पर्य है कि प्रकृतिकी चीज सर्वथा प्रकृतिमें देने (छोड़ देने) और विवेकद्वारा प्रकृतिसे अपना सर्वथा सम्बन्धविच्छेद कर लेनेका नाम संन्यास है।कर्म और फलकी आसक्तिको छोड़नेका नाम त्याग है। छठे अध्यायके चौथे श्लोकमें आया है कि जो कर्म और फलमें आसक्त नहीं होता? वह योगारूढ़ हो जाता है।  सम्बन्ध --   अर्जुनकी जिज्ञासाके उत्तरमें पहले भगवान् आगेके दो श्लोकोंमें अन्य दार्शनिक विद्वानोंके चार मत बताते हैं।

By - Swami Chinmayananda , in hindi

।।18.1।। यद्यपि अर्जुन की जिज्ञासा शैक्षणिक रुचि की है? तथापि भगवान् श्रीकृष्ण पूर्ण गम्भीरता के साथ उसका उत्तर देते हैं। जब शिष्य अपना सन्देह या जिज्ञासा प्रकट करता है? तब निश्चय ही वह स्वयं अपनी कठिनाई नहीं जान पाता है। अत गुरु का यह कर्तव्य हो जाता है कि शिष्य की कठिनाई को समझकर उसका समाधान करे। यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण का यही प्रयत्न है।यह सम्पूर्ण अध्याय त्याग और संन्यास के अर्थ के चारों ओर घूमता रहता है। त्याग के बिना संन्यास अनाकलनीय है? असम्भव है? और यदि कोई ऐसा प्रयत्न करता है? तो उसका संन्यास केवल पाखण्ड ही कहा जायेगा। यह अध्याय हमारी उन वासनाओं? प्रवृत्तियों? उद्देश्यों आदि का वर्णन करता है? जो सर्वथा त्याज्य है। इनके ज्ञान से अवांछनीय गुणों का वास्तविक त्याग संभव हो सकता है। इस तथ्य को ध्यान में रखकर इस अध्याय का अध्ययन करना चाहिए? अन्यथा? निश्चय ही? यह हमें प्रभावित नहीं कर पायेगा।केशनिषूदन केशि नामक एक असुर अश्व का रूप धारण करके बालकृष्ण की हत्या करने आया था? परन्तु भगवान् ने उसे ही दो भागों में विदीर्ण कर दिया था। अत वे केशिनिषूदन के नाम से प्रसिद्ध हुए।इन शब्दों के तत्त्वनिर्णय हेतु

By - Sri Anandgiri , in sanskrit

।।18.1।।पूर्वैरध्यायैर्विस्तरेण यतस्ततो विक्षिप्ततयोक्तमर्थं सुखप्रतिपत्त्यर्थं संक्षेपेणोपसंहृत्याभिधातुमध्यायान्तरमवतारयति -- सर्वस्यैवेति। उपसंहृत्य वक्तव्य इति संबन्धः। किं चोपनिषत्सु इतस्ततो विस्तृतस्यार्थस्य बुद्धिसौकर्यार्थमस्मिन्नध्याये संक्षिप्ताभिधानं कर्तव्यमुपनिषदां गीतानां चैकार्थत्वादित्याह -- सर्वश्चेति। कथं सर्वोऽपि शास्त्रार्थोऽस्मिन्नध्याये संक्षिप्योपसंह्रियते तत्राह -- सर्वेषु हीति। ननु वेदार्थश्चेदशेषतोऽत्रोपसंजिहीर्षितस्तर्हि किमिति त्यागेनैके संन्यासयोगादिति च वेदार्थैकदेशविषयं प्रश्नप्रतिवचनं तत्राह -- अर्जुनस्त्विति। पृथगनयोस्तत्त्वं वेदितुमिच्छामीति विशेषणादपृथगर्थस्तयोरस्तीति गम्यते। बुभुत्सितस्य प्रष्टव्यत्वादेकदेशे तदभावादुक्तप्रश्नोपपत्तिरिति भावः।

By - Sri Dhanpati , in sanskrit

।18.1।।नमः समाय सोमाय मखार्च्याय मखारये। कृष्णायाकृष्णरुपाय विष्णवे शंभवे नमः।।1।।पूर्वाध्यायैर्विस्तरेणेतस्ततो विक्षिप्ततयोक्तमर्थमुपनिषत्सु चेतस्ततो विस्तृतमर्थं सुखप्रतिपत्तये उपसंहृत्य वक्तुमयमध्याय आरभ्यते। अतोताध्यायेपूक्तस्य सर्ववेदार्थस्यास्मिन्नध्यायेऽवगम्यमानत्वात्। अर्जुनस्तु संन्यासत्यागशब्दार्थयोरेव विशेणं बुभुत्सुरुवाच। संन्यासस्य संन्यासभ्दार्थस्य त्यागस्य च त्यागशब्दार्थस्य च पृथगन्योन्यविभागतस्तत्त्वं याथात्म्यं वेदितुं ज्ञातुमिच्छामि। हे महाबारो इति संबोधयन् तब बाहुतो जातैः क्षत्रियैः महाबाहुभिरितरैर्बाह्वादिसाध्ये कर्मण्यधिकृतैरज्ञैश्च कृतस्य संन्यासस्य त्यागस्य च तत्त्वं पृथग्वेदितुमिच्छामीति ध्वनयति। सर्वेन्द्रियनियन्तुरन्तर्यामिणः सर्वज्ञस्य मदभिप्रायनुसारेणैतत्कथनं सुकरमितिद्योतयन्नाह -- हृषीकेशेति। स्वजनसुखार्थं केश्यादिदुष्टनिषूदनस्य तव स्वभक्तस्य ममाप्यज्ञाननिषूदनं युक्तमेवेति सूचयन्संबोधयति केशिनिषूदनेति।

By - Sri Madhavacharya , in sanskrit

।।18.1।।अनन्तगुणपूर्णाय नमः। पूर्वोक्तं साधनं सर्वं सङ्क्षिप्योपसंहरत्यनेनाध्यायेन।

By - Sri Neelkanth , in sanskrit

।।18.1।।अस्यामष्टादशाध्याय्यां प्रथमे उपोद्धातितानां द्वितीये सूत्रितानां शेषैर्व्युत्पादितानामर्थानां कात्स्न्र्येनोपसंहारार्थोऽयमन्तिमोऽध्याय आरभ्यते। तत्र पूर्वाध्यायान्तेऽश्रद्धया कृतं सर्वं व्यर्थमित्युक्तम्। तत्र फलावश्यंभावनिश्चयः श्रद्धा सा च फलवतां कर्मणामेवाङ्गं न तु कर्मविरहरूपस्य संन्यासस्य भावरूपफलवर्जितस्य। अभावाद्भावोत्पत्तेरयोगात्। तस्माच्छ्रद्धासापेक्षकर्मापेक्षया श्रद्धानपेक्षः संन्यासः श्रेयान्। नचास्यैवंरूपस्य श्रद्धात्रैविध्यप्रयुक्तं सात्त्विकादिभेदेन त्रैविध्यं संभवति। येन फले तारतम्यं स्यात्। तत्फलस्य दृष्टविक्षेपनिवृत्तिरूपस्य सर्वत्र तुल्यत्वात्। स च संन्यासो यदि कर्मत्याग एव तर्हि सिद्धं नः समीहितम्। यदि तु तौ भिन्नौ तर्हि तयोर्वैलक्षण्यं विचार्यमित्याशयेनार्जुन उवाच -- संन्यासस्येति। हे महाबाहो हे हृषीकेश हे केशिनिषूदनेति बहुकृत्वः संबोधयन् जिज्ञासितेऽर्थेत्यादरं दर्शयति। संन्यासस्य तत्त्वं याथात्म्यं त्यागात्पृथग्भूतं वेदितुमिच्छामि। त्यागस्य याथात्म्यं संन्यासात्पृथग्भूतं वेदितुमिच्छामीति चकारेणानुवर्त्यते।

By - Sri Ramanujacharya , in sanskrit

।।18.1।।अर्जुन उवाच -- त्यागसंन्यासौ हि मोक्षसाधनतया विहितौ --,न कर्मणा न प्रजया धनेन त्यागेनैके अमृतत्वमानशुः (महाना0 8।14)वेदान्तविज्ञानसुनिश्चितार्थाः संन्यासयोगाद्यतयः शुद्धसत्त्वाः। ते ब्रह्मलोकेषु परान्तकाले परामृताः परिमुच्यन्ति सर्वे।। (मु0 उ0 3।2।6) इत्यादिषु। अस्य संन्यासस्य त्यागस्य च तत्त्वं याथात्म्यं पृथग् वेदितुम् इच्छामि। अयम् अभिप्रायः -- किम् एतौ संन्यासत्यागशब्दौ पृथगर्थौ? उत एकार्थौ एव यदा पृथगर्थौ? तदा अनयोः पृथक्त्वेन स्वरूपं वेदितुम् इच्छामि। एकत्वे अपि तस्य स्वरूपं वक्तव्यम् इति।अथ अनयोः एकम् एव स्वरूपम्? तत् च ईदृशम् इति निर्णेतुं वादिविप्रतिपत्तिं दर्शयन् श्रीभगवानुवाच --

By - Sri Sridhara Swami , in sanskrit

।।18.1।।न्यासत्यागविभागेन सर्वगीतार्थसंग्रहम्। स्पष्टमष्टादशे प्राह परमार्थविनिर्णये।।1।।अत्र चसर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी। संन्यासयोगयुक्तात्मा इत्यादिषु कर्मसंन्यास उपदिष्टः। तथात्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रयः। सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान् इत्यादिषु च फलमात्रत्यागेन कर्मानुष्ठानमुपदिष्टम्। न च परस्परं विरुद्धं सर्वज्ञः परमकारुणिको भगवानुपदिशेत्। अतः कर्मसंन्यासस्य तदनुष्ठानस्य चाविरोधप्रकारं बुभुत्सुरर्जुन उवाच -- संन्यासस्येति। भो हृषीकेश सर्वेन्द्रियनियामक? हे केशिनिषूदन केशिनाम्नो हि महतो हयाकृतेर्दैत्यस्य युद्धे मुखं व्यादाय भक्षयितुमागच्छतोऽत्यन्तं व्यात्ते मुखे वामबाहुं प्रवेश्य तत्क्षणमेव विवृद्धेन तेनैव बाहुना कर्कटिकाफलवत्तं विदार्य निषूदितवान्। अतएव हे महाबाहो इतिसंबोधनम्। संन्यासस्य त्यागस्य च तत्त्वं पृथग्विवेकेन वेदितुमिच्छामि।

By - Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha , in sanskrit

।।18.1।।कर्तव्यविशोधनप्रधाने अन्तिमेऽध्यायत्रिकेऽस्याध्यायस्य पश्चाद्भावित्वज्ञापनाय षोडशसप्तदशयोर्देवासुरविभागोक्त्यादिमुखेन हेयोपादेयविभजनपरतया प्रघट्टकैक्यमभिप्रेत्याऽऽह -- अतीतेनेति।वैदिकस्य कर्मणः सामान्यलक्षणं प्रणवान्वयः? तत्र मोक्षाभ्युदयसाधनयोर्भेदस्तत्सच्छब्दनिर्देशत्वेनेति विभजमानस्वायमभिप्रायः -- विशेषणादिसामर्थ्यलब्धोऽयं विभागः। ब्रह्मणः पारोक्ष्यात्तत् इति निर्देशः। तज्ज्ञाने तु सन्मात्रविवक्षया सच्छब्दः। क्रमादेते सात्त्विकराजसतामसा इति विभागस्तु कस्यचिदुत्प्रेक्षाकल्पितः -- इति। एवमुक्तेष्वप्यर्थेषु मोक्षसाधनभूतांशस्वरूपशोधनमुत्तराध्यायेन क्रियत इति सङ्गत्यभिप्रायेणाऽऽह -- अनन्तरमिति।ईश्वरे कर्तृताबुद्धिः सत्त्वोपादेयताऽन्तिमे। स्वकर्मपरिणामश्च शास्त्रसारार्थ उच्यते [गी.सं.22] इति सङ्ग्रहश्लोके त्यागसन्न्यासैक्यतत्स्वरूपानुक्तिरीश्वरे कर्तृताबुद्धेः शेषतया तदुपन्यासादिति मन्तव्यम्। सत्त्वोपादेयत्वमत्र तात्पर्यवृत्त्याऽभिधीयत इत्यभिप्रायेणाऽऽहसत्त्वरजस्तमसां कार्यवर्णनेनेति।स्वधर्मज्ञानवैराग्यसाध्यभक्त्येकगोचरः [गी.सं.1] इति सङ्ग्रहारम्भोक्तप्रधानकर्तव्यपरोऽत्रशास्त्रसारार्थशब्दः इत्यभिप्रायेणाऽऽहसारार्थो भक्तियोग इति। स्वर्गादिसाधनानां यज्ञदानादीनां स्वरूपाविशेषेऽपि यद्योगान्मोक्षसाधनत्वं? तदिदानीं सविशेषं शोधयितुमर्जुनः पृच्छतीत्यभिप्रायेण प्रकृते प्रश्नं सङ्गमयति -- तत्र तावदिति। सत्त्वविवृद्धितदुपायादिकथनं त्यागादिविशिष्टमोक्षसाधनकर्मार्थतया। सन्न्यासशब्दस्याश्रमविशेषादिरूढेस्त्यागमात्रेऽपि शक्तः पृथक्त्वैकत्वशङ्का। वादिविप्रतिपत्त्यादिभिः स्वरूपविशेषानिश्चयः। त्यागसन्न्यासयोर्विशेषतस्तत्त्वबुभुत्साहेतुमाह -- त्यागसन्न्यासौ हीति। कर्मस्वरूपे स्वर्गापवर्गादिसाधारणे त्यागादिसंज्ञकविशेषणयोगादेव ह्यपवर्गसाधनत्वम्। अतः प्राप्ताप्राप्तविवेकेन विशेषणे तत्साधनत्वव्यपदेशः। संशयविपर्ययोपमर्दी विशेष इह तत्त्वशब्देन विवक्षित इत्याह -- याथात्म्यमिति। पृथक्त्वं वेदितुमिच्छामीत्युक्ते निश्चितपृथक्त्वस्य तत्तत्स्वरूपजिज्ञासा प्रतीयते न च तद्युक्तं? पूर्वत्र पृथक्त्वनिश्चयहेत्वभावादुत्तरत्र चैकत्वस्यैव वक्ष्यमाणत्वात्। अतोऽयं प्रश्नोऽनुपपन्नः प्रतिवचनासङ्गतिश्चेत्यत्राऽऽह -- अयमभिप्राय इति।तत्त्वं वेदितुमिच्छामि इत्येतदेव विवक्षितम् पृथक्त्वनिर्देशस्तु संशयकोट्यन्यतरोपक्षेपमात्रपरः।पृथक्त्वमस्ति चेत्तद्वेदितुमिच्छामि इति वा वाक्यावृत्तिरित्यभिप्रायेणाऽऽह -- किमिति।

By - Sri Abhinavgupta , in sanskrit

।।18.1।।संन्यासस्येति। पूर्वमुक्तं स त्यागी स च बुद्धिमान् ( II? 50 ) इति। तथा स संन्यासी च योगी च न निरग्निः ( VI? I ) इत्यादि। अतस्त्यागिसंन्यासासिनोर्द्वयोः श्रवणात् विशेषजिज्ञासोरयं प्रश्नः।

By - Sri Jayatritha , in sanskrit

।।18.1।।अध्यायप्रतिपाद्यमाह -- पूर्वोक्तमिति। साधनं ज्ञानसाधनम्। उक्तस्योक्तिर्व्यर्थेत्याशङ्कानिरासाय सङ्क्षिप्योपसंहरतीत्युक्तम्। अनुक्तं त्रैगुण्यं च वक्तीत्यपि ग्राह्यम्।

By - Sri Madhusudan Saraswati , in sanskrit

।।18.1।।पूर्वाध्याये श्रद्धात्रैविध्येनाहारयज्ञतपोदानत्रैविध्येन च कर्मिणां त्रैविध्यमुक्तं सात्त्विकानामादानाय राजसतामसानां च हानाय। इदानीं तु संन्यासत्रैविध्यकथनेन संन्यासिनामपि त्रैविध्यं वक्तव्यम्। तत्र तत्त्वबोधनानन्तरं यः फलभूतः सर्वकर्मसंन्यासः स चतुर्दशेऽध्याये गुणातीतत्वेन व्याख्यातत्वान्न सात्त्विकराजसतामसभेदमर्हति। योऽपि तत्त्वबोधात्प्राक् तदर्थं सर्वकर्मसंन्यासस्तत्त्वबुभुत्सया वेदान्तवाक्यविचाराय भवति सोऽपित्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन इत्यादिना निर्गुणत्वेन व्याख्यातः? यस्त्वनुत्पन्नतत्त्वबोधानामनुत्पन्नतत्त्वबुभुत्सूनां च कर्मसंन्यासःस संन्यासी च योगी च इत्यादिना गौणो व्याख्यातस्तस्य त्रैविध्यसंभवात्तद्विशेषं बुभुत्सुरर्जुन उवाच -- संन्यासस्येति। अविदुषामनुपजातविविदिषाणां च कर्माधिकृतानामेव किंचित्कर्मग्रहेण किंचित्कर्मपरित्यागो यः स त्यागांशगुणयोगात्संन्यासशब्देनोच्यते एतादृशस्यान्तःकरणशुद्ध्यर्थमविद्वत्कर्माधिकारिकर्तृकस्य संन्यासस्य केनचिद्रूपेण कर्मत्यागस्य तत्त्वं स्वरूपं पृथक् सात्त्विकराजसतामसभेदेन वेदितुमिच्छामि त्यागस्य च तत्त्वं वेदितुमिच्छामि। किं संन्यासत्यागशब्दौ घटपटशब्दाविव भिन्नजातीयार्थौ किंवा ब्राह्मणपरिव्राजकशब्दाविवैकजातीयार्थौ। यद्याद्यस्तर्हि त्यागस्य तत्त्वं संन्यासात्पृथक् वेदितुमिच्छामि? यदि द्वितीयस्तर्ह्यवान्तरोपाधिभेदमात्रं वक्तव्यमेकव्याख्यानेनैवोभयं व्याख्यातं भविष्यति। महाबाहो केशिनिषूदनेति संबोधनाभ्यां बाह्योपद्रवनिवारणस्वरूपयोग्यताफलोपधाने प्रदर्शिते। हृषीकेशेत्यन्तरुपद्रवनिवारणसामर्थ्यमिति भेदः। अत्यनुरागात्संबोधनत्रयम्। अत्रार्जुनस्य प्रश्नौ कर्माधिकारिकर्तृत्वेन पूर्वोक्तयज्ञादिसाधर्म्येण संन्यासशब्दप्रतिपाद्यत्वेन च गुणातीतसंन्यासद्वयसाधर्म्येण त्रैगुण्यसंभवासंभवाभ्यां संशयः प्रथमस्य प्रश्नस्य बीजं। द्वितीयस्य तु संन्यासत्यागशब्दयोः पर्यायत्वात्कर्मफलत्यागरूपेण च वैलक्षण्योक्तेः संशयः।

By - Sri Purushottamji , in sanskrit

।।18.1।।अष्टादशानां विद्यानां फलमेतद्यतो मतम्। सर्वत्यागेन कर्त्तव्यो ह्याश्रयः सर्वभावतः।।1।।अतः पार्थाय सुप्रीतः प्राहाष्टादशसंज्ञके। अध्याये स्वाश्रयं श्रीमत्कृष्णो देवकिनन्दनः।।2।।अत्र सप्तदशाध्यायैर्भगवद्वाक्यतरणिकिरणविपाटितहृदयमोहान्धकारोऽर्जुनः सन्न्यासकर्मफलत्यागयोरेव भगवत्प्राप्तिहेतुत्वनिश्चयप्रकाशितहृत्सरोरुहः स्वबुद्धिनिश्चयेन सन्न्यासोत्तमज्ञानोऽपि भगवदुक्तस्वमुख्यज्ञानेन तत्सिसाधयिषुस्तयोस्तत्त्वं पृच्छति -- सन्न्यासस्येति। हे हृषीकेश एतत्तत्त्वज्ञानार्थं मदिन्द्रियप्रेरक सर्वकर्माणि मनसा सन्न्यस्याऽऽस्ते सुखं वशी। सन्न्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि [5।13] इत्यादिना सन्न्यासस्य स्वप्राप्तिरुक्ता? तत्र तस्य तत्त्वं यादृशेन त्वत्प्राप्तिर्भवति तादृक् तत्त्वं? हे महाबाहो अहं वेदितुं ज्ञातुमिच्छामि? तज्ज्ञापयेत्यर्थः। महत् क्रियाशक्तिमत्? स्वोद्धारणसमर्थ त्वत्सम्बन्धेनैतत्तत्त्वोपदेशेन मामुद्धरेत्युक्तं भवति। च पुनः हे केशिनिषूदन दैत्यनिवारक दैत्यावेशेन कायक्लेशादिककृतत्यागात् पृथक् त्यागस्य त्वत्सेवार्थकृतत्यागस्य तत्त्वं मुख्यरूपं वेदितुं ज्ञातुमिच्छामि।

By - Sri Shankaracharya , in sanskrit

।।18.1।। --,संन्यासस्य संन्यासशब्दार्थस्य इत्येतत्? हे महाबाहो? तत्त्वं तस्य भावः तत्त्वम्? याथात्म्यमित्येतत्? इच्छामि वेदितुं ज्ञातुम्? त्यागस्य च त्यागशब्दार्थस्येत्येतत्? हृषीकेश? पृथक् इतरेतरविभागतः केशिनिषूदन केशिनामा हयच्छद्मा कश्चित् असुरः तं निषूदितवान् भगवान् वासुदेवः? तेन तन्नाम्ना संबोध्यते अर्जुनेन।।संन्यासत्यागशब्दौ तत्र तत्र निर्दिष्टौ? न निर्लुठितार्थौ पूर्वेषु अध्यायेषु। अतः अर्जुनाय पृष्टवते तन्निर्णयाय भगवान् उवाच --,श्रीभगवानुवाच --,

By - Sri Vallabhacharya , in sanskrit

।।18.1।।अष्टादशे स्वगीतार्थस्त्यागन्यासविनिर्णयात्। सर्वधर्मान्परित्यज्य शरणे मोक्ष उच्यते।।1।।इह खलुसर्वकर्माणि मनसा सन्न्यस्यास्ते सुखं वशी [5।13]सन्न्यासयोगयुक्तात्मा [9।28] इत्यादिषु सन्न्यासशब्दोऽभिहितःत्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं [4।20] इत्यादिषु त्यागशब्दश्च तत्र सन्न्यासत्यागशब्दयोरेकविषय एवार्थो विशेषो वा कश्चनेत्यवशेषिततत्त्वबुभुत्सयाऽर्जुन उवाच -- सन्न्यासस्येति। सन्न्यासस्य त्यागस्य च तत्त्वं पृथक् विवेकतो ज्ञातुमिच्छामि? संशयासुरनिरासार्थंमहाबाहो केशिनिषूदन इति सम्बोधयति।