तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्।।18.62।।
tam eva śharaṇaṁ gachchha sarva-bhāvena bhārata tat-prasādāt parāṁ śhāntiṁ sthānaṁ prāpsyasi śhāśhvatam
Fly to Him for refuge with all your being, O Arjuna; by His grace you will obtain supreme peace and the eternal abode.
18.62 तम् to Him? एव even? शरणम् गच्छ take refuge? सर्वभावेन with all thy being? भारत O Bharata? तत्प्रसादात् by His grace? पराम् supreme? शान्तिम् peace? स्थानम् the abode? प्राप्स्यसि (thou) shalt obtain? शाश्वतम् eternal.Commentary Do total and perfect surrender to the Lord. Do not keep any secret desires for silent gratification. Desire and egoism are the two chief obstacles that stand in the way of selfsurrender. Kill them ruthlessly.Run to the Lord for shelter with all thy being for freeing thyself from the troubles? afflictions and sorrows of Samsara. Take the Lord as the sole refuge. Then by His grace? thou shalt obtain supreme peace and attain to the supreme? eternal Abode.
।।18.62।। व्याख्या -- [मनुष्यमें प्रायः यह एक कमजोरी रहती है कि जब उसके सामने संतमहापुरुष विद्यमान रहते हैं? तब उसका उनपर श्रद्धाविश्वास एवं महत्त्वबुद्धि नहीं होती (टिप्पणी प0 963) परन्तु जब वे चले जाते हैं? तब पीछे वह रोता है? पश्चात्ताप करता है। ऐसे ही भगवान् अर्जुनके रथके घोड़े हाँकते हैं और उनकी आज्ञाका पालन करते हैं। वे ही भगवान् जब अर्जुनसे कहते हैं कि शरणागत भक्त मेरी कृपासे शाश्वत पदको प्राप्त हो जाता है और तू भी मेरेमें चित्तवाला होकर मेरी कृपासे सम्पूर्ण विघ्नोंको तर जायगा? तब अर्जुन कुछ बोले ही नहीं। इससे यह सम्भावना भी हो सकती है कि भगवान्के वचनोंपर अर्जुनको पूरा विश्वास न हुआ हो। इसी दृष्टिसे भगवान्को यहाँ अर्जुनके लिये अन्तर्यामी ईश्वरकी शरणमें जानेकी बात कहनी पड़ी।]तमेव शरणं गच्छ -- भगवान् कहते हैं कि जो सर्वव्यापक ईश्वर सबके हृदयमें विराजमान है और सबका संचालक है? तू उसीकी शरणमें चला जा। तात्पर्य है कि सांसारिक उत्पत्तिविनाशशील पदार्थ? वस्तु? व्यक्ति? घटना परिस्थिति आदि किसीका किञ्चिन्मात्र भी आश्रय न लेकर केवल अविनाशी परमात्माका ही आश्रय ले ले।पूर्वश्लोकमें यह कहा गया कि मनुष्य जबतक शरीररूपी यन्त्रके साथ मैंमेरापनका सम्बन्ध रखता है तबतक ईश्वर अपनी मायासे उसको घुमाता रहता है। अब यहाँ एव पदसे उसका निषेध करते हुए भगवान् अर्जुनसे कहते हैं कि शरीररूपी यन्त्रके साथ किञ्चिन्मात्र भी मैंमेरापनका सम्बन्ध न रखकर तू केवल उस ईश्वरकी शरणमें चला जा।सर्वभावेन -- सर्वभावसे शरणमें जानेका तात्पर्य यह हुआ कि मनसे उसी परमात्माका चिन्तन हो? शारीरिक क्रियाओंसे उसीका पूजन हो? उसीका प्रेमपूर्वक भजन हो और उसके प्रत्येक विधानमें परम प्रसन्नता हो। वह विधान चाहे शरीर? इन्द्रियाँ? मन आदिके अनुकूल हो? चाहे प्रतिकूल हो? उसे भगवान्का ही किया हुआ मानकर खूब प्रसन्न हो जाय कि अहो भगवान्की मेरेपर कितनी कृपा है कि मेरेसे बिना पूछे ही? मेरे मन? बुद्धि आदिके विपरीत जानते हुए भी केवल मेरे हितकी भावनासे? मेरा परम कल्याण करनेके लिये उन्होंने ऐसा विधान किया हैतत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम् -- भगवान्ने पहले यह कह दिया था कि मेरी कृपासे शाश्वत पदकी प्राप्ति हो जाती है (18। 56) और मेरी कृपासे तू सम्पूर्ण विघ्नोंसे तर जायगा (18। 58)। वही बात यहाँ कहते हैं कि उस अन्तर्यामी परमात्माकी कृपासे तू परमशान्ति और शाश्वत स्थान(पद)को प्राप्त कर लेगा।गीतामें अविनाशी परमपदको हीपरा शान्ति नामसे कहा गया है। परन्तु यहाँ भवगान्नेपरा शान्ति औरशाश्वत स्थान (परमपद) -- दोनोंका प्रयोग एक साथ किया है। अतः यहाँपरा शान्ति का अर्थ संसारसे सर्वथा उपरति औरशाश्वत स्थान का अर्थ परमपद लेना चाहिये।भगवान्ने तमेव शरणं गच्छ पदोंसे अर्जुनको सर्वव्यापी ईश्वरकी शरणमें जानेके लिये कहा है। इससे यह शङ्का हो सकती है कि क्या भगवान् श्रीकृष्ण ईश्वर नहीं हैं क्योंकि अगर भगवान् श्रीकृष्ण ईश्वर होते? तो अर्जुनकोउसीकी शरणमें जा -- ऐसा (परोक्ष रीतिसे) नहीं कहते।इसका समाधान यह है कि भगवान्ने सर्वव्यापक ईश्वरकी शरणागतिको तो गुह्याद्गुह्यतरम् (18। 63) अर्थात् गुह्यसे गुह्यतर कहा है? पर अपनी शरणागतिको सर्वगुह्यतमम् (18। 64) अर्थात् सबसे गुह्यतम कहा है। इससे सर्वव्यापक ईश्वरकी अपेक्षा भगवान् श्रीकृष्ण बड़े ही सिद्ध हुए।भगवान्ने पहले कहा है कि मैं अजन्मा? अविनाशी और सम्पूर्ण प्राणियोंका ईश्वर होते हुए भी अपनी प्रकृतिको अधीन करके अपनी योगमायासे प्रकट होता हूँ (4। 6) मैं सम्पूर्ण यज्ञों और तपोंका भोक्ता हूँ? सम्पूर्ण लोकोंका महान् ईश्वर हूँ और सम्पूर्ण प्राणियोंका सुहृद हूँ -- ऐसा मुझे माननेसे शान्तिकी प्राप्ति होती है (5। 29) परन्तु जो मुझे सम्पूर्ण यज्ञोंका भोक्ता और सबका मालिक नहीं मानते? उनका पतन होता है (9। 24)। इस प्रकार अन्वयव्यतिरेकसे भी भगवान् श्रीकृष्णका ईश्वरत्व सिद्धि हो जाता है।इस अध्यायमें ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति (18। 61) पदोंसे अन्तर्यामी ईश्वरको सब प्राणियोंके हृदयमें स्थित बताया है और पंद्रहवें अध्यायमें सर्वस्य चाहं हृदि संनिविष्टः (15। 15) पदोंसे अपनेको सबके हृदयमें स्थित बताया है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि अन्तर्यामी परमात्मा और भगवान् श्रीकृष्ण दो नहीं हैं?,एक ही हैं।जब अन्तर्यामी परमात्मा और भगवान् श्रीकृष्ण एक ही हैं? तो फिर भगवान् श्रीकृष्णने अर्जुनको तमेंव शरणं गच्छ क्यों कहा इसका कारण यह है कि पहले छप्पनवें श्लोकमें भगवान्ने अपनी कृपासे शाश्वत अविनाशी पदकी प्राप्ति होनेकी बात कही और सत्तावनवेंअट्ठावनवें श्लोकोंमें अर्जुनको अपने परायण होनेकी आज्ञा देकरमेरी कृपासे सम्पूर्ण विघ्नोंको तर जायगा -- यह बात कही। परन्तु अर्जुन कुछ बोले नहीं अर्थात् उन्होंने कुछ भी स्वीकार नहीं किया। इसपर भगवान्ने अर्जुनको धमकाया कि यदि अहंकारके कारण तू मेरी बात नहीं सुनेगा तो तेरा पतन हो जायगा। उनसठवें और साठवें श्लोकमें कहा कि मैं युद्ध नहीं करूँगा -- इस प्रकार अहंकारका आश्रय लेकर किया हुआ तेरा निश्चय भी नहीं टिकेगा और तुझे स्वभावज कर्मोंके परवश होकर युद्ध करना ही पड़ेगा। भगवान्के इतना कहनेपर भी अर्जुन कुछ बोले नहीं। अतः अन्तमें भगवान्को यह कहना पड़ा कि यदि तू मेरी शरणमें नहीं आना चाहता तो सबके हृदयमें स्थित जो अन्तर्यामी परमात्मा हैं? उसीकी शरणमें तू चला जा।वास्तवमें अन्तर्यामी ईश्वर और भगवान् श्रीकृष्ण सर्वथा अभिन्न हैं अर्थात् सबके हृदयमें अन्तर्यामीरूपसे विराजमान ईश्वर ही भगवान् श्रीकृष्ण हैं और भगवान् श्रीकृष्ण ही सबके हृदयमें अन्तर्यामीरूपसे विराजमान ईश्वर हैं। सम्बन्ध -- पूर्वश्लोकमें भगवान्ने अर्जुनसे कहा कि तू उस अन्तर्यामी ईश्वरकी शरणमें चला जा। ऐसा कहनेपर भी अर्जुन कुछ नहीं बोले। इसलिये भगवान् आगेके श्लोकमें अर्जुनको चेतानेके लिये उन्हें स्वतन्त्रता प्रदान करते हैं।
।।18.62।। ईशावास्योपनिषद् के प्रथम मन्त्र का भावार्थ यह है कि यह सम्पूर्ण जगत् ईश्वर से व्याप्त है। इसलिए? नामरूपों के भेद से दृष्टि हटाकर अनन्त परमात्मा का आनन्दानुभव करो किसी के धन का लोभ मत करो। गीतादर्शन का सारतत्त्व भी यही है। अहंकार का त्याग करके अपने कर्त्तव्य करो यह तो मानो गीता का मूल मंत्र ही है। आत्मा और अनात्मा के मिथ्या सम्बन्ध से ही कर्तृत्वाभिमानी जीव की उत्पत्ति होती है। यह जीव ही संसार के दुखों को भोगता रहता है। अत? इससे अपनी मुक्ति के लिए अहंकार का परित्याग करना चाहिए। यहाँ प्रश्न उपस्थित हो सकता है कि अहंकार का त्याग कैसे करें इसके उत्तर में ईश्वरार्पण की भावना का वर्णन किया गया है। पूर्वश्लोक में ही ईश्वर के स्वरूप को दर्शाया गया है। इसलिए? अब? भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं? तुम उसी हृदयस्थ ईश्वर की शरण में जाओ।शरण में जाने का अर्थ है अभिमान एवं फलासक्ति का त्याग करके? कर्माध्यक्षकर्मफलदाता ईश्वर का सतत स्मरण करते हुए कर्म करना। इसके फलस्वरूप चित्त की शुद्धि प्राप्त होगी? जो आत्मज्ञान में सहायक होगी। आत्मज्ञान की दृष्टि से शरण का अर्थ होगा समस्त अनात्म उपाधियों के तादात्म्य को त्यागकर आत्मस्वरूप ईश्वर के साथ एकत्व का अनुभव करना। यह शरणागति अपने सम्पूर्ण व्यक्तित्व के साथ ही हो सकती है (सर्वभावेन)? अधूरे हृदय से नहीं। राधा? हनुमान और प्रह्लाद जैसे भक्त इसके उदाहरण हैं।चित्त की शुद्धि और आत्मानुभूति ही ईश्वर की कृपा अथवा प्रसाद है। जिस मात्रा में? अनात्मा के साथ हमारा तादात्म्य निवृत्त होगा? उसी मात्रा में हमें ईश्वर का यह प्रसाद प्राप्त होगा।भारत भरतवंश में जन्म लेने के कारण अर्जुन का नाम भारत था। शब्द व्युत्पत्ति के अनुसार इसका अर्थ है वह पुरुष जो भा अर्थात् प्रकाश (ज्ञान) में रत है। आध्यात्मिक ज्ञान के प्रकाश में रमने वाले ऋषियों के कारण ही यह देश भारत कहा गया है।प्रकरण का उपसंहार करते हुए भगवान् कहते हैं
।।18.62।।ईश्वरः सर्वाणि भूतानि प्रेरयति चेत्प्राप्तकैवल्यस्यापि पुरुषकारस्यानर्थक्यमित्याशङ्क्याह -- तमेवेति। सर्वात्मना मनोवृत्त्या वाचा कर्मणा चेत्यर्थः। ईश्वरस्यानुग्रहात्तत्त्वज्ञानोत्पत्तिपर्यन्तादिति शेषः। मुक्तास्तिष्ठन्त्यस्मिन्निति स्थानम्।
।।18.62।।यस्मीदश्वर एव तत्तत्कर्मफलप्रदाता भ्रामयति तस्मात्तमेव ईश्वरं शरणं आश्रयं संसारार्ति हरणार्थं सर्वभावेन सर्वात्मना मनसा वाचा कर्मणा च गच्छ आश्रय। हेभारतेति संबोधयन् उत्तमवंशोद्भवस्त्वं योग्योऽसीति द्योतयति। तत्प्रसादातात्तस्य सभ्यगाराधितस्येश्वरस्य प्रसादादनुग्रहात्परां प्रकृष्टां शान्तिं अविद्योपशमरुपां सर्वानार्थनिवृत्तिस्थानं च मुक्तास्तिष्ठन्ति यस्मिन्निति स्थानं मम विष्णोः परम पदं शाश्वतं सदैकरसमवाप्यस्यसि।
।।18.62।।परोक्षवचनं तु द्रोणं प्रति भीमवचनवत्।
।।18.62।।तमेव ईश्वरं सर्वभावेन सर्वात्मना शरणमाश्रयं गच्छ श्रयस्व। तत्प्रसादात् तदनुग्रहात्परां शान्तिमुपरतिं समाधिमितियावत्। तथा च सूत्रंसमाधिसिद्धिरीश्वरप्रणिधानात् इति। स्थानं च परं विष्णोः पदं मोक्षं शाश्वतं नित्यं प्राप्स्यसि।
।।18.62।।यस्माद् एवं तस्मात् तम् एव सर्वस्य प्रशासितारम् आश्रितवात्सल्येन त्वत्सारथ्ये अवस्थितम्इत्थं कुरु इति च प्रशासितारं मां सर्वभावेन सर्वात्मना शरणं गच्छ अनुवर्तस्व। अन्यथा तन्मायाप्रेरितेन अज्ञेन त्वया युद्धादिकरणम् अवर्जनीयम्? तथा सति नष्टो भविष्यसि। अतो मदुक्तप्रकारेण युद्धादिकं कुरु इत्यर्थः। एवं कुर्वाणः तत्प्रसादात् परां शान्तिं सर्वकर्मबन्धोपशमनं शाश्वतं च स्थानं प्राप्स्यसि। यद् अभिधीयते श्रुतिशतैः -- तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः। (ऋ0 सं0 1।2।6।5)ते ह नाकं महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः। (यजुः सं0 31।16)यत्र ऋषयः प्रथमजा ये पुराणाः।परेण नाकं विहितं गुहायाम् (महाना0 8।14)यो अस्याध्यक्षः परमे व्योमन्। (ऋ0 सं0 8।7।17।7)अथ यदतः परो दिवो ज्योतिर्दीप्यते (छ0 उ0 3।13।7)सोऽध्वनः पारमाप्नोति तद्विष्णोः परमं पदम् (क0 उ0 3।9) इत्यादिभिः।
।।18.62।।तमिति। यस्मादेवं सर्वे जीवाः परमेश्वरपरतन्त्रास्तस्मादहंकारं परित्यज्य सर्वभावेन सर्वात्मना तमीश्वरमेव शरणं गच्छ। ततस्तस्यैव प्रसादात्परमामुपशान्तिं स्थानं च पारमेश्वरं शाश्वतं नित्यं प्राप्स्यसि।
।।18.62।।स्वतन्त्रे स्वमायया प्रेरयति? परतन्त्रस्तां कथं निस्तरेत् इत्यत्रोत्तरंतमेव शरणम् इति श्लोक इत्याह -- एतन्मायानिवृत्तिहेतुमाहेति।यस्मादेवम् -- अन्यथाऽपि बुद्ध्या निवर्तितुमशक्यत्वादित्यर्थः? सर्वस्येश्वराधीनत्वादिति वा।तमेव इत्यनेन मायां कोऽन्यो निवर्तयितुं शक्नोतीति सूचितमित्याह -- सर्वस्य प्रशासितारमिति। अत्यन्तस्वतन्त्रः स एव हीदानीं रथिनस्तव सारथित्वेन परतन्त्रः प्रशास्तीत्यभिप्रायेणआश्रितवात्सल्येनेत्यादिकमुक्तम्। एवमनुवर्तनीयत्वाय परत्वं सौलभ्यं च दर्शितम्। भावशब्दोऽत्र मनोवृत्तिपर इत्याहसर्वात्मनेति। सर्वप्रकारेणेति वाऽर्थः। तेनवासुदेवः सर्वम् [7।19] इत्युक्तप्रक्रिययाऽन्तर्यामित्वेनोपदेष्टृत्वेन प्राप्यत्वप्रापकत्वादिभिश्चैक एवावस्थित इत्यनुसन्धानं वा विवक्षितम्। अत्र शरणशब्द उपदेशादिमुखेन गोप्तृविषयः तेनैव द्वारेणोपायपरो वा। यथोपदिष्टकरणमेवात्र शरणागतिरित्यभिप्रायेणाऽऽह -- सर्वात्मनाऽनुवर्तस्वेति।न श्रोष्यसिन योत्स्ये इत्युक्तनिषेधपरत्वादनुवर्तनमेवात्र शरणागतिरिति दर्शयितुं प्रकृतेन विपर्यये प्रत्यवायेन योजयति -- अन्यथापीति। प्रकृतोपयोगेनानुवृत्तिं विशिंषन् विवक्षितमुपसंहरति -- अतस्तदुक्तप्रकारेणेति। स्ववर्णाश्रमानरूपतदाज्ञानुवर्तनमेव हि तत्प्रीणनमिति भावः।उक्तानुवृत्तिं प्रसादहेतुतयोत्तरार्धेन योजयति -- एवं कुर्वाणस्तत्प्रसादादिति।मत्प्रसादात् [18।5658] इत्युक्त एवार्थःतत्प्रसादात् इत्यत्र निर्दिष्टः। तत्रोक्तं सर्वदुर्गतरणमिह परा शान्तिः। शान्तेश्चात्र परत्वं निवृत्तजातीयकारणसामानाधिकरण्यविरहेणापुनरङ्कुरत्वमित्यभिप्रायेणाऽऽहसर्वकर्मेति। सर्वकर्मबन्धोपशमपरशान्तिशब्देन अनिष्टनिवृत्तिरुक्ता।स्थानं प्राप्स्यसि इति इष्टप्राप्तिरुच्यते। शाश्वतशब्देन ब्रह्मादिस्थानव्यवच्छेदः। मूलप्रकृतिः सूक्ष्मावस्था? मुक्तप्राप्यस्थानमिति केचित् सत्यलोकादिष्वेव वैष्णवस्थानमिति चापरे तत्स्थानशब्दस्य मुख्यार्थस्वीकाराय? वादिक्षेपाय चाप्राकृतस्थानं श्रुतिभिरुपपादयति -- यदभिधीयत इति। अधीतवेदानां सम्प्रतिपत्त्यतिशयार्थंश्रुतिशतैरित्युक्तम्। एतेन कारणश्रुतीनां एकमेवाद्वितीयम् [छां.उ.6।2।1] इत्यादीनां स्रक्ष्यमाणकार्यप्रपञ्चमात्रप्रलयपरत्वं बहुश्रुत्यविरोधाय दर्शितम्।तद्विष्णोः इति वाक्यं प्रत्येकं सदापश्यदनेकसूरिविशिष्टविधिपरं? कृत्स्नस्याप्राप्तत्वात्।विष्णोः इति वैयधिकरण्याच्च नात्र स्वरूपपरता युक्ता।यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति इत्यत्राप्यनवच्छेदान्नित्यं सन्तीति सिद्धम्। अत्र चशाश्वतं स्थानम् इति निर्दिष्टं परमात्मन एव स्थानमिति प्रकरणान्तरे व्यक्तम्।रम्याणि कामचाराणि (दिव्यानि कामचारीणि) विमानानि सभास्तथा। आक्रीडा विविधा राजन् पद्मिन्यश्चामलोदकाः। एते वै निरयास्तात स्थानस्य परमात्मनः [म.भा.12।198।411] इति। आह च भगवान् पराशरः -- एकान्तिनः सदा ब्रह्मध्यायिनो योगिनो हि ये। तेषां तत्परमं स्थानं यद्वै पश्यन्ति सूरयः [वि.पु.1।6।39] इति।
।।18.61 -- 18.62।।ईश्वर इति। तमेवेति। एष ईश्वरः परमात्मा अवश्यं शरणत्वेन ग्राह्यः। तत्र हि अधिष्ठातरि कर्तरि ( omits कर्तरि ) बोद्धरि स्वात्ममये विमृष्टे ( ?N विस्पष्टे ) ? न कर्माणि स्थतिभाञ्जि भवन्ति। न हि निशिततरनखरकोटिविदारितसमदकरिकरटगलितमुक्ताफलनिकरपरिकरप्रकाशितप्रतापमहसि ( omits -- परिकर -- ) सिंहकिशोरके गुहामधितिष्ठति चपलमनसो विद्रवणमात्रबलशालिनो हरिणपोतकाः ( K हिरण -- ) स्वैरं स्वव्यापारपरिशीलनापटुभावमवलंबन्ते इति।तमेव शरणं गच्च्छइत्युपक्रम्य मत्प्रसादात् इति निर्वाहवाक्यमभिदधत् भगवान् परमात्मानम् ईश्वरं वासुदेवं च एकतया योजयति इति।
।।18.62।।ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति [18।61]तमेव शरणं गच्छ तत्प्रसादात् इत्यादिरूपात्परोक्षवचनात्कृष्णस्यानीश्वरत्वं प्रतीयते। तन्निराकर्तुमाह -- परोक्षेति। निश्चितार्थत्वाभिप्रायेणान्यथासिद्धमिति शेषः।
।।18.62।।ईश्वरः सर्वभूतानि परतन्त्राणि प्रेरयति चेत्प्राप्तं विधिप्रतिषेधशास्त्रस्य सर्वस्य पुरुषकारस्य चानर्थक्यमित्यत्राह -- तमेवेति। तमेवेश्वरं शरणंनामाश्रयं संसारसमुद्रोत्तरणार्थं गच्छ आश्रय। सर्वभावेन सर्वात्मना मनसा वाचा कर्मणा च। हे भारत? तत्प्रसादात्तस्यैवेश्वरस्यानुग्रहात्तत्त्वज्ञानोत्पत्तिपर्यन्तात्परां शान्तिं सकार्याविद्यानिवृत्तिं स्थानमद्वितीयस्वप्रकाशपरमानन्दरूपेणावस्थानं शाश्वतं नित्यं प्राप्स्यसि।
।।18.62।।मामज्ञात्वा मदाज्ञां चेन्न करोषि तदा हृदयस्थितेश्वरस्यैव शरणं गच्छेत्याह -- तमेवेति। हे भारत सत्कुलोत्पन्नत्वादहङ्काररहित तं पूर्वोक्तं हृदयस्थितमेव ईश्वरं सर्वभावेन सङ्कल्पविकल्पान् परित्यज्य सर्वात्मना शरणं गच्छ? ततस्तत्प्रसादात् परां शान्तिं शाश्वतं नित्यं स्थानं पूर्वश्लोकोक्तमक्षरात्मकं प्राप्स्यसि।
।।18.62।। --,तमेव ईश्वरं शरणम् आश्रयं संसारार्तिहरणार्थं गच्छ आश्रय सर्वभावेन सर्वात्मना हे भारत। ततः तत्प्रसादात् ईश्वरानुग्रहात् परां प्रकृष्टां शान्तिम् उपरतिं स्थानं च मम विष्णोः परमं पदं प्राप्स्यसि शाश्वतं नित्यम्।।
।।18.62।।अतस्तमेव सर्वनियन्तारं सर्वेश्वरं शरण्यं गच्छ सर्वात्मना। अन्यथा मत्प्रकृतिप्रेरितेन तु त्वया युद्धकरणमनिवार्यं भविष्यत्येवेति वरं मदुक्तकरणम्। मत्प्रसादादेव परां शान्तिं शाश्वतं स्थानं च प्राप्स्यसि। अतो भगवदाज्ञातः स्वधर्मकरणं मतं तथा सति न बन्धः स्यात्तदीयस्येति निर्णयः।