इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्गुह्यतरं मया।विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु।।18.63।।
iti te jñānam ākhyātaṁ guhyād guhyataraṁ mayā vimṛiśhyaitad aśheṣheṇa yathechchhasi tathā kuru
Thus, wisdom more secret than secrecy itself has been declared to you by me. Reflect on it fully, then act as you wish.
18.63 इति thus? ते to thee? ज्ञानम् wisdom? आख्यातम् has been declared? गुह्यात् than the secret? गुह्यतरम् more secret? मया by Me? विमृश्य reflecting over? एतत् this? अशेषेण fully? यथा as? इच्छसि (thou) wishest? तथा so? कुरु act.Commentary Thus has wisdom? more profound than all secrets? been declared to thee by Me. This teaching is well known as the Gita? the essence of all the Vedas. If anyone follows it and lives in the spirit of this teaching he will certainly attain supreme peace? highest knowledge and immortality. There is no doubt about this. I have revealed the mystery of this secret treasure to thee as thou art dear to Me? O Arjuna.It The teaching declared above. Reflect fully over everything that has been taught to thee.
।।18.63।। व्याख्या -- इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्गुह्यतरं मया -- पूर्वश्लोकमें सर्वव्यापक अन्तर्यामी परमात्माकी जो शरणागति बतायी गयी है? उसीका लक्ष्य यहाँ इति पदसे कराया गया है। भगवान् कहते हैं कि यह गुह्यसे भी गुह्यतर शरणागतिरूप ज्ञान मैंने तेरे लिये कह दिया है। कर्मयोग गुह्य है और अन्तर्यामी निराकार परमात्माकी शरणागतिगुह्यतर है (टिप्पणी प0 965.1)।विमृश्यैतदशेषेण -- गुह्यसेगुह्यतर शरणागतिरूप ज्ञान बताकर भगवान् अर्जुनसे कहते हैं कि मैंने पहले जो भक्तिकी बातें कही हैं? उनपर तुम अच्छी तरहसे विचार कर लेना। भगवान्ने इसी अध्यायके सत्तावनवेंअट्ठावनवें श्लोकोंमें अपनी भक्ति(शरणागति) की जो बातें कही हैं? उन्हें एतत् पदसे लेना चाहिये। गीतामें जहाँजहाँ भक्तिकी बातें आयी हैं? उन्हें अशेषेण पदसे लेना चाहिये (टिप्पणी प0 965.2)।विमृश्यैतदशेषेण कहनेमें भगवान्की अत्यधिक कृपालुताकी एक गुढ़ाभिसन्धि है कि कहीं अर्जुन मेरेसे विमुख न हो जाय? इसलिये यदि यह मेरी कही हुई बातोंकी तरफ विशेषतासे खयाल करेगा तो असली बात अवश्य ही इसकी समझमें आ जायगी और फिर यह मेरेसे विमुख नहीं होगा।यथेच्छसि तथा कुरु -- पहले कही सब बातोंपर पूरापूरा विचार करके फिर तेरी जैसी मरजी आये? वैसा कर। तू जैसा करना चाहता है? वैसा कर -- ऐसा कहनेमें भी भगवान्की आत्मीयता? कृपालुता और हितैषिता ही प्रत्यक्ष दीख रही है।पहले वक्ष्याम्यशेषतः (7। 2)? इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे (9। 1) वक्ष्यामि हितकाम्यया (10। 1) आदि श्लोकोंमें भगवान् अर्जुनके हितकी बात कहते आये हैं? पर इन वाक्योंमें भगवान्की अर्जुनपर सामान्य कृपा है।न श्रोष्यति विनङ्क्ष्यसि (18। 58) -- इस श्लोकमें अर्जुनको धमकानेमें भगवान्की विशेष कृपा और अपनेपनका भाव टपकता है।यहाँ यथेच्छसि तथा कुरु कहकर भगवान् जो अपनेपनका त्याग कर रहे हैं? इसमें तो भगवान्कीअध्यधिक कृपा और आत्मीयता भरी हुई है। कारण कि भक्त भगवान्का धमकाया जाना तो सह सकता है? पर भगवान्का त्याग नहीं सह सकता। इसलिये न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि आदि कहनेपर भी अर्जुनपर इतना असर नहीं पड़ा जितना यथेच्छसि तथा कुरु कहनेपर पड़ा। इसे सुनकर अर्जुन घबरा गये कि भगवान् तो मेरा त्याग कर रहे हैं क्योंकि मैंने यह बड़ी भारी गलती की कि भगवान्के द्वारा प्यारसे समझाने? अपनेपनसे धमकाने और अन्तर्यामीकी शरणागतिकी बात कहनेपर भी मैं कुछ बोला नहीं? जिससे भगवान्कोजैसी मरजी आये? वैसा कर -- यह कहना पड़ा। अब तो मैं कुछ भी कहनेके लायक नहीं हूँ ऐसा सोचकर अर्जुन बड़े दुःखी हो जाते हैं? तब भगवान् अर्जुनके बिना पूछे ही सर्वगुह्यतम वचनोंको कहते हैं? जिसका वर्णन आगेके श्लोकमें है। सम्बन्ध -- पूर्वश्लोकमें भगवान् विमृश्यैतदेषेण पदसे अर्जुनको कहा कि मेरे इस पूरे उपदेशका सार निकाल लेना। परन्तु भगवान्के सम्पूर्ण उपदेशका सार निकाल लेना अर्जुनके वशकी बात नहीं थी क्योंकि अपने उपदेशका सार निकालना जितना वक्ता जानता है? उतना श्रोता नहीं जानता दूसरी बात? जैसी मरजी आये? वैसा कर -- इस प्रकार भगवान्के मुखसे अपने त्यागकी बात सुनकर अर्जुन बहुत डर गये? इसलिये आगेके दो श्लोकोंमें भगवान् अपने प्रिय सखा अर्जुनको आश्वासन देते हैं।
।।18.63।। प्रस्तुत श्लोक कुरुक्षेत्र की रणभूमि पर दिये गये गीताप्रवचन का अन्तिम श्लोक माना जा सकता है। संस्कृत में इति शब्द के साथ किसी कथन अथवा उद्धरण की समाप्ति की जाती है। इस दृष्टि से भगवान् श्रीकृष्ण अपने उपदेश को यहीं पर सम्पूर्ण करते हैं।गुह्यात् गुह्य तरम् गुह्य या रहस्य उसे कहते हैं? जो अधिकांश लोगों को अज्ञात होता है? किन्तु कुछ विरले लोग उसे जानते हैं। यद्यपि वह अज्ञात होता है? तथपि अज्ञेय नहीं। उसका ज्ञान आप्त पुरुषों (जानकर लोगों) से प्राप्त किया जा सकता है। गीता में आत्मज्ञान का उपदेश दिया गया है। आत्मा द्रष्टा है इसलिए वह कभी इन्द्रिय? मन और बुद्धि द्वारा दृश्यरूप में नहीं जाना जा सकता। इसलिए? कोई व्यक्ति कितना ही बुद्धिमान क्यों न हो? वह स्वयं अपनी बुद्धि के द्वारा आत्मा के शुद्ध स्वरूप का आभास तक नहीं पा सकता। इसके लिए गुरु के उपदेश की नितान्त आवश्यकता होती है। सर्वथा इन्द्रिय अगोचर होने के कारण ही यह आत्मज्ञान समस्त लौकिक रहस्यों से भी अधिक गूढ़ है।गुह्य शब्द का अर्थ यह नहीं होता कि इस ज्ञान का उपदेश किसी को देना ही नहीं चाहिए। परन्तु भारत के पतन काल में कतिपय लोगों ने इसे अपनी वैयक्तिक सम्पत्ति समझकर गुह्य शब्द की आड़ में अन्य लोगों को इस ज्ञान से वंचित रखा। परन्तु यदि हम अपने धर्मशास्त्रों का समुचित अध्ययन करें? तो यह ज्ञात होगा कि उदार हृदय के ऋषियों ने किसी भी स्थान पर ऐसे रूढ़िवादी लोगों के मत का अनुमोदन नहीं किया है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि जिस पुरुष में सूक्ष्म ज्ञान को ग्रहण करने की मानसिक और बौद्धिक क्षमता नहीं होती? वह इसका अधिकारी नहीं होता। अनधिकारी को सर्वोच्च ज्ञान देने पर वह उसे विपरीत समझकर तथा दोषपूर्ण जीवन जीकर स्वयं की ही हानि कर सकता है।इस पर पूर्ण विचार करके केवल श्रवण या पठन से ही मनुष्य को पूर्ण ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता। ज्ञान सन्देह रहित तथा विपर्यय (मिथ्या धारणाओं) से रहित होना चाहिए। इसलिए? आचार्य से प्राप्त किये गये ज्ञान पर युक्तियुक्त मनन और चिन्तन करने की आवश्यकता होती है। प्रत्येक साधक को स्वयं ही मनन करके प्राप्त ज्ञान की सत्यता का निश्चय करना होता है। भगवान् श्रीकृष्ण नहीं चाहते कि अर्जुन उनके उपदेश को विचार किये बिना ही स्वीकार कर ले। इसलिए? यहाँ वे कहते हैं? इस पर पूर्ण विचार करके? जैसी तुम्हारी इच्छा हो वैसा तुम करो।यथेच्छसि तथा कुरु भगवान् श्रीकृष्ण? कर्मयोग की जीवनपद्धति को स्वीकार करने के विषय में अन्तिम निर्णय अर्जुन पर ही छोड़ देते हैं। प्रत्येक पुरुष को स्वेच्छा से ही ईश्वर प्राप्ति के लिए प्रयत्न करना चाहिए। इसमें किसी को बाध्य नहीं किया जा सकता क्योंकि सभी नवीन जन्मों में सहजता या स्वत प्रवृत्ति अमूल्य गुण माना जाता है। जीवन के समस्त सिद्धांतों? तथ्यों एवं उपायों को अर्जुन के समक्ष प्रस्तुत करने के पश्चात्? भगवान् श्रीकृष्ण उसे विचारपूर्वक निर्णय लेने के लिए आमन्त्रित करते हैं। अध्यात्म के आचार्यों को चाहिए कि वे किसी प्रकार भी अपने शिष्यों को बाध्य न करें। भारतवर्ष में इस प्रकार बाध्य करके कभी धर्म प्रचार नहीं किया गया है।भगवान् श्रीकृष्ण आगे कहते हैं
।।18.63।।शास्त्रमुपसंहर्तुमिच्छन्नाह -- इति ते ज्ञानमिति। ज्ञानं करणव्युत्पत्त्या गीताशास्त्रम्? यथेच्छसि तथा कुरु ज्ञानं कर्म वा यदिष्टं तदनुतिष्ठेत्यर्थः।
।।18.63।।शास्त्रमुपसंहर्तुमिच्छन्नाह -- इतीति। इत्येतत्ते तुभ्यं ज्ञायतेनेनेति ज्ञानं गीताशास्त्रं गुह्याद्गोप्याद्हुह्यतरं अतिशयेन गोप्यं रहस्यं मया सर्वज्ञेनाप्ततमेन शास्त्रयोनिना आख्यातं कथितम्। एतद्यथोक्तशास्त्रमशेषेण समस्तं विमृश्य विमर्शनमालोचनं कृत्वा यथेच्छसि तथा कुरु नत्वेतत्सा कत्येनाविमृश्यैवेत्यर्थः।
।।18.63।।सर्वगीतार्थमुपसंहरति -- इतीति। इति एवंप्रकारं ते तुभ्यं मया सर्वज्ञेन परमकारुणिकेन ज्ञानम् आख्यातम्। गुह्यान्मन्त्रतन्त्ररसायनरूपाद्गुह्यतरमतिशयितं रहस्यम्। एतद्यथोक्तं शास्त्रार्थजातं विमृश्य सम्यगालोच्य यथेच्छसि तथा कुरु।
।।18.63।।इति एवं ते मुमुक्षुभिः अधिगन्तव्यं ज्ञानं सर्वस्माद् गुह्याद् गुह्यतरं कर्मयोगविषयं ज्ञानयोगविषयं भक्तियोगविषयं च सर्वम् आख्यातम्। एतद् अशेषेण विमृश्य स्वाधिकारानुरूपं यथा इच्छसि तथा कुरु? कर्मयोगं ज्ञानं भक्तियोगं वा यथेष्टम् आतिष्ठ इत्यर्थः।
।।18.63।।सर्वगीतार्थमुपसंहरन्नाह -- इतीति। इति अनेन प्रकारेण तुभ्यं सर्वज्ञेन परमकारुणिकेन मया ज्ञानमाख्यातमुपदिष्टम्। कथंभूतम् गुह्याद्गोप्याद्रहस्यमन्त्रयोगादिज्ञानादपि गुह्यतरं एतन्मयोपदिष्टं गीताशास्त्रशेषतो विमृश्य पर्यालोच्य पश्चाद्यथेच्छसि तथा कुरु। एतस्मिन्पर्यालोचिते सति तव मोहो निवर्तिष्यत इति भावः।
।।18.63।।एवमर्जुनस्य युद्धे प्रोत्साहनव्याजेन सर्वाध्यात्मशास्त्रार्थजातमुपदिश्य सर्वासु निष्ठासु नित्यकर्मणो दुस्त्यजतयाऽन्तेऽपि युद्धकर्तव्यत्वमेव स्थापितम्। अथस हि धर्मः सुपर्याप्तो ब्रह्मणः पदवेदने [अनुगी.1।12] इति प्रत्यभिज्ञापयिष्यमाणप्रकारेण श्रोतव्यान्तराभावज्ञापनाय प्रक्रान्तनिष्ठात्रयं पुष्कलोपदिष्टतया यथाधिकारमनुष्ठेयत्वेन निगम्यतेइति ते ज्ञानमाख्यातम् इति श्लोकेन। वाच्यवचनयोः सम्यक्त्वं पौष्कल्यं च इतिकरणेन विवक्षितमित्यभिप्रायेणाऽऽह -- इत्येवमिति। तेयच्छ्रेयः स्यात् [2।7] इत्यादिवादिने प्रपन्नाय शिष्यायेत्यर्थः। अत्र लौकिकप्रमाणप्रसिद्धविषयेभ्य आयुर्धनुर्गान्धर्ववेदार्थनीतिशास्त्रादिजन्येभ्योज्ञानेभ्यः प्रकृष्टातीन्द्रियपारलौकिकस्वर्गादिपुरुषार्थतदुपायविषयं वेदाख्यशास्त्रमूलं विविधज्ञानं गुह्यशब्देन विवक्षितम्। गुह्यतरशब्देन तु वेदान्तनिष्पाद्यं तदुपबृंहणभूतैतच्छास्त्रविशोधितं मुमुक्षुभिर्यथाधिकारमनुष्ठेयव्यवहिताव्यवहितसमस्तमोक्षोपायज्ञानं प्रदर्श्यते। तत्र त्रिवर्गमात्रसक्तेभ्यो गोपनीयतया गुह्यतरत्वोक्तिरित्यभिप्रायेणाऽऽह -- मुमुक्षुभिरधिगन्तव्यं ज्ञानं सर्वस्माद्गुह्याद्गुह्यतरमिति।नन्वेतच्छास्त्रोक्तेष्वेव गुह्यगुह्यतरविभागः स्यात् तत्राप्यन्तिमाध्यायोक्तमेव गुह्यतरतयाऽत्र निगम्यत इति शङ्कामपाकरोतिकर्मयोगविषयं ज्ञानयोगविषयं भक्तियोगविषयं चेति।विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु इत्यनन्तरवाक्यपरामर्शस्वारस्याद्गीताशास्त्रोक्तं कृत्स्नमिह गुह्यतरशब्देन विवक्षितमिति गम्यते। तदवान्तरतारतम्ये तु सर्वगुह्यतममित्यनन्तरश्लोके वक्ष्यत इति भावः।आख्यातम् इत्यनेन वक्तव्यान्तराभावो व्यञ्जित इत्यभिप्रायेणाऽऽहसर्वमाख्यातमिति। मया स्वतः सार्वज्ञादिगुणयोगादाप्ततमेन हितैषिणा चेत्यर्थः।अशेषेण विमृश्य इत्यनेन विवक्षितमाहस्वाधिकारानुरूपमिति। सहसैव पूर्वपूर्वपरित्यागो न युक्त इति भावः।यथेच्छसि तथा कुरु इत्येतन्न युद्धकरणाकरणविषयम्? निष्ठात्रयेऽपि नित्यनैमित्तिकानां वर्णाश्रमानुबन्धिकर्मणामवश्यानुष्ठेयत्वोक्तेः?यद्यहङ्कारमाश्रित्य [18।59] इत्यादिश्लोकाभ्यामर्जुनेन युद्धस्य दुस्त्यजतां वदतो भगवतस्तन्निवृत्तिविवक्षानुपपत्तेश्च। अतोऽत्र तत्तदधिकारानुरूपमुपदिष्टेषु शास्त्रार्थपर्वसु बुद्धिमत्तरस्त्वं कर्मज्ञानभक्तिषु कर्मण्यस्मिन्ममेदानीमधिकार इति परामृश्य तस्मिन् पर्वणि परिगृहीतस्ववर्णाश्रमधर्म एव वर्तस्वेत्युच्यत इत्यभिप्रायेणाऽऽह -- कर्मयोगं ज्ञानयोगं भक्तियोगं वा यथेष्टमातिष्ठेति। एतेनकर्मज्ञानयोगयोरिदं निगमनम्सर्वगुह्यतमम् इत्यादिनाभक्तियोगनिगमनम् इति कैश्चिदुक्तो विभागो निरस्तः।
।।18.63।।इति त इति। तदेवेदं ( तवेदं ) ज्ञानम् उक्तं गुह्यात्? वेदान्तादपि? गुह्यं? परमाद्वैतप्रकाशनात्। एतच्चाशेषेण ( S एतच्चाविशेषेण ) विमृश्येति ( ?N omit विमृश्येति and read संग्रहतात्पर्यम् ) -- तात्पर्यमत्र विचार्येत्यर्थः।
।।18.63।।सर्वगीतार्थमुपसंहरन्नाह -- इतीति। इत्यनेन प्रकारेण ते तुभ्यमत्यन्तप्रियाय ज्ञानमात्ममात्रविषयं मोक्षसाधनं गुह्याद्गुह्यतरं परमरहस्यादपि संन्यासान्तात्कर्मयोगाद्रहस्यतरं तत्फलभूतत्वादाख्यातं समन्तात् कथितं मया सर्वज्ञेन परमाप्तेन। अतो विमृश्य पर्यालोच्य एतन्मयोपदिष्टं गीताशास्त्रमशेषेण सामस्त्येन सर्वैकवाक्यतया ज्ञात्वा स्वाधिकारानुरूपेण यथेच्छसि तथा कुरु न त्वेतदविमृश्यैव कामकारेण यत्किंचिदित्यर्थः।,अत्र चैतावदुक्तम्। अशुद्धान्तःकरणस्य मुमुक्षोर्मोक्षसाधनज्ञानोत्पत्तियोग्यताप्रतिबन्धकपापक्षयार्थं फलाभिसन्धिपरित्यागेन भगवदर्पणबुद्ध्या वर्णाश्रमधर्मानुष्ठानं? ततः शुद्धान्तःकरणस्य विविदिषोत्पत्तौ गुरुमुपसृत्य ज्ञानसाधनवेदान्तवाक्यविचाराय ब्राह्मणस्य सर्वकर्मसंन्यासः? ततो भगवदेकशरणतया विविक्तसेवादिज्ञानसाधनाभ्यासाच्छ्रवणमनननिदिध्यासनैरात्मसाक्षात्कारोत्पत्त्या मोक्ष इति। क्षत्रियादेस्तु संन्यासानधिकारिणो मुमुक्षोरन्तःकरणशुद्ध्यनन्तरमपि भगवदाज्ञापालनाय लोकसंग्रहाय च यथाकथंचित्कर्माणि कुर्वतोऽपि भगवदेकशरणतया पूर्वजन्मकृतसंन्यासादिपरिपाकाद्वा हिरण्यगर्भन्यायेन तदपेक्षणाद्वा भगवदनुग्रहमात्रेणेहैव तत्त्वज्ञानोत्पत्त्याऽग्रिमजन्मनि ब्राह्मणजन्मलाभेन संन्यासादिपूर्वकज्ञानोत्पत्त्या वा मोक्ष इति। एवं विचारिते च नास्ति मोहावकाश इति भावः।
।।18.63।।अथ सकलगीताशास्त्रार्थमुपसंहरन्नाह -- इतीति। इति अमुना प्रकारेण ते तव मया सर्वकर्त्रा सर्वात्मना गुह्यात् गोप्यात् गुह्यतरं गोप्यतरं मन्त्रबीजवत् सर्वशास्त्रज्ञानसारात्मकं ज्ञानमाख्यातं आ समन्तात् ससाधनं प्रसिद्धतयोक्तमित्यर्थः। एतत् मदुपदिष्टगीताशास्त्रार्थं अशेषेण पूर्वापरानुसन्धानेन विमृश्य पर्यालोच्य यथा कर्तुमिच्छसि उत्तमत्वेन तथा कुरु। एतद्विमर्शात् तदाज्ञाकरणे एव बुद्धिर्भविष्यतीत्याशयेनयथेच्छसि इत्युक्तमिति भावः।
।।18.63।। --,इति एतत् ते तुभ्यं ज्ञानम् आख्यातं कथितं गुह्यात् गोप्यात् गुह्यतरम् अतिशयेन गुह्यं रहस्यम् इत्यर्थः? मया सर्वज्ञेन ईश्वरेण। विमृश्य विमर्शनम् आलोचनं कृत्वा एतत् यथोक्तं शास्त्रम् अशेषेण समस्तं यथोक्तं च अर्थजातं यथा इच्छसि तथा कुरु।।भूयोऽपि मया उच्यमानं श्रृणु --,
।।18.63।।सर्वगीतार्थमुपसंहरन्नाह -- इतीति। निरतिशयकरुणावरुणालयेनाख्यातं ज्ञानं यत्तद्भगवता गीतं ज्ञानं (गीतं भगवता ज्ञानं यत्तत् -- ) संग्राममूर्द्धनि इति भागवतेऽपि [1।15।30] ज्ञानपदवाच्यं सर्ववेदान्तसिद्धान्तसारं इदमिति ज्ञायते। अतो विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु।