BG - 9.1

श्री भगवानुवाच इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे। ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्।।9.1।।

śhrī bhagavān uvācha idaṁ tu te guhyatamaṁ pravakṣhyāmyanasūyave jñānaṁ vijñāna-sahitaṁ yaj jñātvā mokṣhyase ’śhubhāt

  • śhrī-bhagavān uvācha - the Supreme Lord said
  • idam - this
  • tu - but
  • te - to you
  • guhya-tamam - the most confidential
  • pravakṣhyāmi - I shall impart
  • anasūyave - nonenvious
  • jñānam - knowledge
  • vijñāna - realized knowledge
  • sahitam - with
  • yat - which
  • jñātvā - knowing
  • mokṣhyase - you will be released
  • aśhubhāt - miseries of material existence

Translation

The Blessed Lord said, "I shall now declare to thee, who does not cavil, the greatest secret—the knowledge combined with experience (Self-realisation). Having known this, thou shalt be free from evil."

Commentary

By - Swami Sivananda

9.1 इदम् this? तु indeed? ते to thee? गुह्यतमम् greatest secret? प्रवक्ष्यामि (I) shall declare? अनसूयवे to one who does not cavil? ज्ञानम् knowledge? विज्ञानसहितम् combined with experience? यत् which? ज्ञात्वा having known? मोक्ष्यसे thou shalt be free? अशुभात् from evil.Commentary Idam (this) alludes to knowledge of the Self.Jnana Theoretical knowledge of Brahman through the study of the Upanishads? also known as Paroksha Brahma Jnana.Vijnana Direct intuitive perception of Brahman or AtmaSakshatkara? also known as Aparoksha Brahma Jnana.This alone forms the direct means of attaining to liberation from evil or the bondage of Samsara? freedom from birth and death.The knowledge of the Self is the most profound secret. It can hardly be described in words. It can be realised only through direct experience or spiritual intuition. Atman or Brahman or the selfluminous? eternal? Supreme Purusha is ever shining in the chambers of the hearts of men. Throughout the ages there have always been a few who have trodden the spiritual path and found out this secret or the spiritual treasure of the precious pearl of the Self. Knowledge of the Self is the only direct means for attaining liberation? Karma Yoga purifies the heart and leads to the dawn of the knowledge of the Self.Lord Krishna says? O Arjuna? I shall teach you this profoundest secret knowledge combined with realisation as you are free from jealousy. From this we can clearly understand that freedom from jealousy is an important alification for an aspirant. Knowledge can only dawn in a mind which is free from all forms of jealousy which causes great distraction of the mind and produces intense heartburning. Matsarya (malicious envy)? Irshya (jealous of others prosperity or happiness) and Asuya (envious or indignant over the merits of another) are all varieties of jealousy. If you superimpose evil alities on a virtuous man who really does not possess these alities on a virtuous man who really does not possess these alities and speak ill of him? this is jealousy (Asuya). To behold evil or to look at a person with the faultfinding evil eye? and to see evil in him who is free from any kind of fault and who is virtuous is Asyua. Jealousy is only pettymindedness. This is a modification of ignorance. It can be eradicated by eniry of the nature of the Self and cultivating its opposite alities? viz.? nobility? broad and universal tolerance? magnanimity and largeheartedness.To thee who does not carp or cavil This implies that Arjuna was endowed with all the virtues of a disciple such as straightforwardness? selfcontrol? restraint of the senses? serenity of mind? discrmination? dispassion? etc. This is the Upalakshana (the truth alluded to where only a part is stated) and Asuya is the Upalakshaka (the hint which alludes to the Upalakshana).

By - Swami Ramsukhdas , in hindi

।।9.1।। व्याख्या--इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे--भगवान्के मनमें जिस तत्त्वको, विषयको कहनेकी इच्छा है, उसकी तरफ लक्ष्य करानेके लिये ही यहाँ भगवान् सबसे पहले 'इदम्' (यह) शब्दका प्रयोग करते हैं। उस (भगवान्के मन-बुद्धिमें स्थित) तत्त्वकी महिमा कहनेके लिये ही उसको 'गुह्यतमम्' कहा है अर्थात् वह तत्त्व अत्यन्त गोपनीय है। इसीको आगेके श्लोकमें 'राजगुह्यम्' और अठारहवें अध्यायके चौंसठवें श्लोकमें 'सर्वगुह्यतमम्' कहा है। यहाँ पहले 'गुह्यतमम्'कहकर पीछे (गीता 9। 34 में) 'मन्मना भव' ৷৷. कहा है और अठारहवें अध्यायमें पहले 'सर्वगुह्यतमम्' कहकर पीछे (गीता 18। 65 में) 'मन्मना भव' ৷৷. कहा है। तात्पर्य है कि यहाँका और वहाँका विषय एक ही है, दो नहीं।

By - Swami Chinmayananda , in hindi

।।9.1।। भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन में एक मुमुक्षु के लक्षण पाते हैं? जो वास्तव में आत्मोन्नति के द्वारा संसार के समस्त बंधनों का विच्छेदन करना चाहता है। उसे केवल किसी ऐसी सहायता की आवश्यकता है? जिससे कि उसे अपने साधन मार्ग की प्रामाणिकता का दृढ़ निश्चय हो सके। भगवान् कहते हैं कि वे अनसूयु अर्जुन को विज्ञान के सहित ज्ञान का अर्थात् सैद्धान्तिक ज्ञान तथा उसके अनुभव का उपदेश देंगे। असूया का अर्थ है गुणों में भी दोष देखना। अत अनसूयु का अर्थ है वह पुरुष जो असूया रहित है अथवा दोष दृष्टि रहित है। इस ज्ञान का प्रयोजन है? जिसे जानकर तुम अशुभ अर्थात् संसार बंधनों से मुक्त हो जाओगे।जीवन की चुनौतियों का सामना करने में मनुष्य की अक्षमता का कारण यह है कि वह वस्तु और व्यक्ति अर्थात् जगत् का त्रुटिपूर्ण मूल्यांकन करता है। फलत जीवनसंगीत के सुर और लय को वह खो देता है। अपने तथा बाह्य जगत् के वास्तविक स्वरूप को समझने का अर्थ है जगत् के साथ स्वस्थ एवं सुखवर्धक संबंध रखने के रहस्य को जानना। जो पुरुष इस प्रकार समष्टि के साथ एकरूपता पाने में सक्षम है? वही जीवन में निश्चित सफलता और पूर्ण विजय का भागीदार होता है।आन्तरिक विघटन के कारण अपने समय का वीर योद्धा अर्जुन एक विक्षिप्त पुरुष के समान व्यवहार करने लगा था। ऐसे पुरुष को जीवन की समस्यायें अत्यन्त गम्भीर? कर्तव्य महत् कष्टप्रद और स्वयं जीवन एक बहुत बड़ा भार प्रतीत होने लगता है। वे सभी लोग संसारी कहलाते हैं? जो जीवनइंजिन को अपने ऊपर से चलने देकर छिन्नभिन्न हो जाते हैं। इनके विपरीत? जो पुरुष इस जीवनइंजिन में चालक के स्थान पर बैठकर मार्ग के सभी गन्तव्यों को पार करके अपने गन्तव्य तक सुरक्षित पहुँचते हैं? वे आत्मज्ञानी? और सन्त ऋषि कहलाते हैं। यद्यपि आत्मज्ञानी का यह पद मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है? तथापि इस धरोहर का लाभ केवल वह विवेकी प्ाुरुष पाता है? जिसमें अपने जीवन पर विजय पाने का उत्साह और साहस होता है और जो इस पृथ्वी पर ईश्वर के समान रहता है सभी परिस्थितियों का शासक बनकर और जीवन की दुर्भाग्यपूर्ण स्थितियों में हँसता हुआ।जीवन जीने की इस कला के प्रति साधक के मन में रुचि और उत्साह उत्पन्न करने के लिए इस ज्ञान की स्तुति करते हुए भगवान् कहते हैं --

By - Sri Anandgiri , in sanskrit

।।9.1।।अतीतेनागामिनोऽध्यायस्यागतार्थत्वं वक्तुं वृत्तमनुवदति -- अष्टम इति। नाडी सुषुम्नाख्या। धारणाख्येनाङ्गेन युक्तो योगो धारणायोगः। सगुणः सर्वद्वारसंयमनादिगुणस्तेन सहित इत्यर्थः। तत्फलोक्त्यर्थमनन्तराध्यायारम्भमाशङ्क्याह -- तस्य चेति। अग्निरर्चिरित्यादिनोपलक्षितेन क्रमवता देवयानेन पक्षेति यावत्। ज्ञानानन्तरमेव यथोक्तफललाभादलमनेन मार्गेणेत्याशङ्क्याह -- कालान्तर इति। अर्चिरादिमार्गेण ब्रह्मप्राप्तौ मुक्तेर्मार्गायत्तत्वात् न तस्य इत्यादिश्रुतिविरोधः स्यादित्याशयेन शङ्क्यते -- तत्रेति। वृत्तोऽर्थः सप्तम्यर्थः। उक्ताशङ्कानिवृत्त्यर्थमनन्तराध्यायमुत्थापयति -- तदाशङ्केति। संप्रयुक्तत्वेनापरोक्षत्वाभावेऽपि पूर्वोत्तरग्रन्थालोचनया बुद्धिसंनिधानादिदंशब्देन ब्रह्मज्ञानं गृहीतमित्याह -- तद्बुद्धाविति। प्रकृताज्ञानाज्ज्ञानस्य वैशिष्ट्यावद्योती तुशब्द इत्याह -- तुशब्द इति। निपातार्थमेव स्फुटयति -- इदमेवेति। तस्मिन्नर्थे संवादकत्वेन श्रुतिस्मृती दर्शयति -- वासुदेव इति। अद्वैतज्ञानवद्द्वैतज्ञानमपि केषांचिन्मोक्षहेतुरित्याशङ्क्याह -- नान्यदिति। द्वैतज्ञानं मोक्षाय न क्षममित्यत्र श्रुतिमुदाहरति -- अथेति। अविद्याप्रकरणोपक्रमार्थोऽथशब्दः। अतोऽद्वैतादन्यथा। भिन्नत्वेनेत्यर्थः। विदुस्तत्त्वमिति शेषः। द्वैतस्य दुर्निरूपत्वेन कल्पितत्वात्तज्ज्ञानं रज्जुसर्पादिज्ञानतुल्यत्वान्न क्षेमप्राप्तिहेतुरिति चकारार्थः। असूया गुणेषु दोषाविष्करणं तद्रहिताय। ज्ञानाधिकृतायेत्यर्थः। ज्ञानं ब्रह्मचैतन्यं तद्विषयं वा प्रमाणज्ञानं तस्य तेनैव विशेषितत्वानुपपत्तिमाशङ्क्य व्याकरोति -- अनुभवेति। विज्ञानमनुभवः साक्षात्कारस्तेन सहितमित्यर्थः। उक्तज्ञानं प्राप्तस्य किं स्यादित्याशङ्क्याह -- यज्ज्ञानमिति।

By - Sri Dhanpati , in sanskrit

।।9.1।।अष्टमे देवयानमार्गेणापुनरावृत्तिं मोक्षं गच्छन्तीत्युक्तम्? तत्र तेनैव प्रकारेण मोक्षाप्राप्तिर्नान्यथेति शङ्कामपनुदन् श्रीभगवानुवाच -- इदमिति। पूर्वोक्तेष्वध्यायेषूक्तं वक्ष्यमाणं च ब्रह्मज्ञानं बुद्धौ संनिधीकृत्येदमित्युक्तम्। तुशब्दो ध्यानाज्ज्ञानस्य वैलक्षण्यद्योदनार्थः। ज्ञानस्य सविज्ञानस्य साक्षान्मोक्षासाधनत्वात्। इदं तु ते ज्ञानं प्रवक्ष्यामीति संबन्धः। तच्च प्रत्यगभिन्नपरमात्मज्ञानंवासुदेवः सर्वमिति? आत्मैवेदं सर्व? अहं ब्रह्मास्मि? सर्व खल्विदं ब्रह्म? एकमेवाद्वितीयं? नेहनानास्ति किंचन? मृत्योः स मृत्युमाप्नोति य इह नानेव पश्यति इत्यादिश्रुतस्मिमृत्युक्तं विज्ञानेनामुभवेन सहितं युक्तं गुह्यतमम्। अयमर्थःधर्मज्ञानं हि गुह्यम्? उपास्यज्ञानं गह्यतरम्? अखण्डार्थज्ञानं गुह्यतममतिगोप्यम्। ननु गुह्यतमं किमर्थै वदसीति चेत्तवानसूयागुणेन वशीकृतो वक्ष्यामीत्याह -- अनसूयव इति। गुणेषु दोषाविष्करणमसूया। साक्षान्मोक्षसाधनं परमात्मज्ञानं तु तत्तल्लोकविषयभोगविरोधीति परमरुपुषार्थसाधने तत्त्वज्ञाने दोषदृष्टिस्तद्रहिताय सर्वदायमात्मैश्वर्यख्यापनेनात्मानं प्रशंसति मत्पुरस्तादित्येवंरुपासूयेति वाभ्यसूयति आत्मप्रशंसादिदोषाध्योरोपणेन ईश्वरत्वमजानन्न सहते इति भाष्यात्। यज्ज्ञानमुक्तविशेषणविशुष्टं ज्ञात्वा लब्ध्वा अशुभात्संकारबन्धनान्मोक्ष्यसे। मुक्तो भविष्यसीत्यर्थः। यत्तु इदं वक्ष्यमाणं तु पूर्वस्मात् ध्येयाद्विलक्षणं ज्ञेयं ज्ञानं ज्ञप्तिमात्रस्वरुपं ब्रह्म विज्ञानेनानुभवेन सहितं नतु केवलं पारोक्ष्येण यज्ज्ञानं ज्ञात्वा साक्षात्कृत्येत्यादि तदुपेक्ष्यम्। विज्ञानसहितंराजविद्या राजगुह्यंअश्रद्दधानाः पुरुषा धर्मस्यास्य परंतप इति मूलेन इदं ब्रह्मज्ञानं विद्यानां राजा दीप्त्यतिशयवत्त्वाद्दीप्यते हीयमपतिश्येन ब्रह्मविद्या। आत्मज्ञानस्य धर्मस्यास्येति तद्भाष्येण च विरोधस्य स्पष्टत्वादिति दिक्।

By - Sri Madhavacharya , in sanskrit

।।9.1।।श्रीरङ्गनाथाय नमः। म्। सप्तमाध्यायोक्तं स्पष्टयत्यस्मिन्नध्याये।

By - Sri Neelkanth , in sanskrit

।।9.1।।पूर्वाध्याये किंतद्ब्रह्मेत्यादिसप्तप्रश्न्यां अक्षरं ब्रह्म परममित्यादिना संक्षिप्य व्याख्यातायां तज्ज्ञानस्य पृथक्प्रयोजनाकाङ्क्षायां कर्मविद आधिभौतिकं धूमादिमार्गप्राप्यं स्थानमिति निरूपणेन प्राप्यप्रापकादिविभागो दर्शितः। तेन कर्माधिभूते व्याख्याते। तथा सूत्रान्तर्यामिणोरुपासकस्यार्चिरादिमार्गेण क्रममुक्तिस्थानप्राप्तिरित्युक्तं तेनाधिदैवाधियज्ञौ व्याख्यातौ। ओमित्येकाक्षरमित्यादिना अन्तकाले कथं ज्ञेयोऽसीत्यस्योत्तरं व्याख्यातम्। तदेवं ध्येयब्रह्मविद्या साङ्गा निरूपिता? परिशिष्टमाद्यं ज्ञेयब्रह्मविषयं प्रश्नद्वयं किं तद्ब्रह्म किमध्यात्ममिति तद्विवरणाय नवमोऽध्याय आरभ्यते। न केवलमर्चिरादिगतिप्राप्या कालान्तर एव मुक्तिरस्ति किंत्विहैव सद्योमुक्तिरस्तीति विशेषं वक्तुं श्रीभगवानुवाच -- इदं तु ते इति। इदं वक्ष्यमाणं तु पूर्वस्माद्ध्येयाद्विलक्षणं ज्ञेयं ते तुभ्यं गुह्यतममतिगोप्यं प्रवक्ष्यामि। अनसूयवे असूया गुणेषु दोषाविष्करणं तद्रहिताय। ज्ञानं ज्ञप्तिमात्रस्वरूपं ब्रह्म। विज्ञानेनानुभवेन सहितं नतु केवलं पारोक्ष्येण। यज्ज्ञानं ज्ञात्वा साक्षात्कृत्य अशुभात्संसारान्मोक्ष्यसे। अत्र यत्सप्तमादौज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः इति प्रतिज्ञातं? यस्य च विज्ञानाय शाखाचन्द्रन्यायेनोपलक्षणीभूतं जगत्कारणं ब्रह्म तत्रैव निरूपितम्? यद्विज्ञानेऽधिकारसंपत्त्यर्थं तस्यैव सगुणस्योपासनमुक्तं तदिह सर्वशेषीभूतं ब्रह्म वक्तव्यमिति तथैव प्रतिजानीते वचनमात्रेणैवात्रापरोक्षं ज्ञानं जायत इति। तच्च तत्रैव व्युत्पादितं न विस्मर्तव्यम्।

By - Sri Ramanujacharya , in sanskrit

।।9.1।।श्री भगवानुवाच -- इदं तु ते गुह्यतमं भक्तिरूपम् उपासनाख्यं ज्ञानं विज्ञानसहितम् उपासनगतिविशेषज्ञानसहितम् अनसूयवे ते प्रवक्ष्यामि। मद्विषयं सकलेतरविसजातीयम् अपरिमितप्रकारं माहात्म्यं श्रुत्वा एवम् एव संभवति इति मन्वानाय ते प्रवक्ष्यामि इत्यर्थः। यद् ज्ञानम् अनुष्ठानपर्यन्तं ज्ञात्वा मत्प्राप्तिविरोधिनः सर्वस्माद् अशुभात् मोक्ष्यसे।

By - Sri Sridhara Swami , in sanskrit

।।9.1।।परेशः प्राप्यते शुद्धभक्त्येति स्थितमष्टमे। नवमे तु तदैश्वर्यमत्याश्चर्यं प्रपञ्च्यते।।1।।एवं तावत्सप्तमाष्टमयोः स्वीयं पारमेश्वरं तत्त्वं भक्त्यैव सुलभं नान्यथेत्युक्त्वेदानीमचिन्त्यं स्वकीयमैश्वर्यं भक्तेश्चासाधारणप्रभावं प्रपञ्चयिष्यन् श्रीभगवानुवाच -- इदंत्विति। विशेषेण ज्ञायतेऽनेनेति विज्ञानमुपासनं तत्सहितं ज्ञानमीश्वरविषयमिदं अनसूयवे पुनः पुनः स्वमाहात्म्यवोपदिशतीत्येवं परमकारुणिके मयि दोषदृष्टिरहिताय ते तुभ्यं वक्ष्यामि। तुशब्दो वैशिष्ट्ये। तदेवाह -- गुह्यतममित्यादिना। गुह्यं धर्मज्ञानं? ततो देहादिव्यतिरिक्तात्मज्ञानं गुह्यतरं? ततोऽपि परमात्मज्ञानमतिरहस्यत्वाद्गुह्यतमम्। यज्ज्ञात्वाऽशुभात्संसारान्मोक्ष्यसे सद्य एव मुक्तो भविष्यति।

By - Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha , in sanskrit

।।9.1।।स्वमाहात्म्यं मनुष्यत्वे परत्वं च महात्मनाम्। विशेषो नवमे योगो भक्तिरूपः प्रकीर्तितः [गी.सं.13] इति सङ्ग्रहश्लोकमपि व्याकुर्वंस्तदनुसारेणाष्टमनवमयोः सङ्गतिं च दर्शयति -- उपासकेत्यादिना। विशेषाः ज्ञातव्योपादेयभेदाः। परमपुरुषमाहात्म्यस्य ज्ञानिनां विशेषस्य च प्रागेव प्रकृतत्वात्तत्प्रभावविशोधनमत्रोपासनतत्फलानुप्रविष्टतया क्रियते अध्यायप्रधानार्थस्तूपासनस्वरूपनिष्कर्षप्रधानार्थत्वेन इत्यभिप्रायेणविशोध्येति विच्छिद्य?भक्तिरूपस्येत्यादि पृथगुक्तम्। भजनोपासनशब्दयोरस्मिन्नेवाध्याये प्रकरणान्तरेषु च समानविषयतयैव प्रयोगवशाच्छ्रुतिसिद्धोपासनस्यैवात्र भक्तिशब्देन विशेषणं कृतमित्यभिप्रायेणभक्तिरूपस्योपासनस्येत्युक्तम्। अत्रइदं तु ते गुह्यतमम् इति ज्ञानस्योपक्रान्तत्वात्?मन्मना भव [9।34] इति चोपसंह्रियमाणत्वात्? मध्ये च बहुशो भजनस्यैवाभ्यस्यमानत्वात्? प्रत्यक्षरूपत्वनिरतिशयप्रियत्वकीर्तनीययतननमस्काररूपत्वादीनां चापूर्वाणां भक्तिस्वरूपानुप्रवेशिनां प्रकाराणां प्रतिपाद्यमानत्वात्? स्वरूपतः साध्यतया निरतिशयफलप्रतिपादनात्?राजविद्या इत्यादिना प्रशंसारूपार्थवाददर्शनाच्चात्रोपक्रमोपसंहारादितात्पर्यलिङ्गैः भक्तिस्वरूपनिष्कर्षेऽध्यायस्य तात्पर्यम् तदन्विततयाऽन्यदत्रोच्यत इत्यभिप्रायः।इदं तु ते इत्यत्र वक्ष्यमाणमेव बुद्धिस्थतयाइदम् इति निर्दिष्टम्। एष तु वा अतिवदति [छां.उ.7।16।1] इति प्राणविदपेक्षया सत्यविदोऽधिकत्ववत्? तुशब्देन कर्मयोगज्ञानयोगाभ्यामप्यस्याधिक्यं विवक्षितम्। तयोर्हि गुह्यत्वं? गुह्यतरत्वं च। इदं तु गुह्यतमम्। इदं च शूश्रूषातिशयोत्थापनार्थं? गोपनाधिक्यशिक्षणार्थं चोक्तम्।उपबृंहणीयवेदान्तवाक्येष्विवात्रापि ज्ञानशब्दस्य वक्ष्यमाणविशेषपर्यवसानप्रदर्शनायभक्तिरूपमुपासनाख्यमित्युक्तम्।उपासनगतविशेषज्ञानसहितमिति पूर्वोक्तविज्ञानादत्रत्यविज्ञानस्य भेदः तद्ध्युपास्यादिविशेषज्ञानम्? उपासनगतविशेषः? उपासनप्रकारः। प्रस्तुतौपयिकमनसूयुत्वप्रकारं दर्शयतिमद्विषयमिति। गुणेषु दोषाविष्करणचित्तवृत्तिविशेषो ह्यसूया तद्विपर्ययश्च गुणेषु गुणाध्यवसाय एव हीति भावः। एतेनोपदेशयोग्यायोग्यविभागेन शिष्यशिक्षणं कृतम्। स्मरन्ति च विद्याया वचनम्असूयकाय मां मादाः [मनुः2।114] इत्यादि। वक्ष्यति चइदं ते नातपस्काय इत्यारभ्यन च मां योऽभ्यसूयति [18।67] इति। प्रवक्ष्यामि कृत्स्नं लघु व्यक्तं च वक्ष्यामीत्यर्थः।यज्ज्ज्ञानमनुष्ठानपर्यन्तं ज्ञात्वेति नह्यनुष्ठेयज्ञानमात्रादनुष्ठानफलम् अत उपासनस्वरूपं ज्ञात्वा तदनुष्ठानद्वारा मोक्ष्यस इत्युच्यत इति भावः। कर्मादिभिर्हि भक्त्युत्पत्त्यादिविरोधिपापनिरसनम् भक्त्या तु भगवत्प्राप्तिविरोधिसमस्तपापनिरसनं हि प्रमाणसिद्धमित्यभिप्रायेण -- मत्प्राप्तिविरोधिनः सर्वस्मादशुभादित्युक्तम्। अशुभशब्दस्यात्र स्वर्गाद्यपरपर्यायव्यामोहननिरयहेतुभूतपुण्यशब्दाभिलप्यपापविषयत्वमपिसर्वस्मादित्यनेन विवक्षितम्।

By - Sri Abhinavgupta , in sanskrit

।।9.1।।इदमिति। अनसूयत्वं ज्ञानसंक्रान्तौ कारणं मुख्यम्। ज्ञानविज्ञाने प्राग्वत्।

By - Sri Jayatritha , in sanskrit

।।9.1।।पूर्वसङ्गतत्वेनाध्यायार्थमाह -- सप्तमेति। भगवन्माहात्म्यमिति शेषः। पदार्थज्ञानपूर्वकं वाक्यार्थज्ञानमिति सप्तमोक्तपदार्थानष्टमे व्याख्याय नवमे तद्वाक्यार्थं स्पष्टीकरोतीत्यर्थः।

By - Sri Madhusudan Saraswati , in sanskrit

।।9.1।।,मामक्षरं यः परमक्षरं हि परोपदेशेन चिदक्षरेण।,चकार विभ्रान्त्यपनोदविद्यस्तं काशिराजं गुरुराजमीडे।।पूर्वाध्याये मूर्धन्यनाडीद्वारकेण हृदयकण्ठभ्रूमध्यादिधारणासहितेन सर्वेन्द्रियद्वारसंयमगुणकेन योगेन स्वेच्छयोत्क्रान्तप्राणस्यार्चिरादिमार्गेण ब्रह्मलोकं प्रयातस्य तत्र सम्यग्ज्ञानोदयेन कल्पान्ते परब्रह्मप्राप्तिलक्षणा क्रममुक्तिर्व्याख्याता। तत्र चानेनैव प्रकारेण मुक्तिर्लभ्यते नान्यथेत्याशङ्क्यअनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः। तस्याहं सुलभः इत्यादिना भगवत्तत्त्वविज्ञानात्साक्षान्मोक्षप्राप्तिरभिहिता। तत्र चानन्या भक्तिरसाधारणो हेतुरित्युक्तंपुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया इति। तत्र पूर्वोक्तयोगधारणापूर्वकप्राणोत्क्रमणार्चिरादिमार्गगमनकालविलम्बादिक्लेशमन्तरेणैव साक्षान्मोक्षप्राप्तये भगवत्तत्त्वस्य तद्भक्तेश्च विस्तरेण ज्ञापनाय नवमोऽध्याय आरभ्यते। अष्टमे ध्येयब्रह्मनिरूपणेन तद्ध्याननिष्ठस्य गतिरुक्ता? नवमे तु ज्ञेयब्रह्मनिरूपणेन ज्ञाननिष्ठस्य गतिरुच्यत इति संक्षेपः। तत्र वक्ष्यमाणज्ञानस्तुत्यर्थास्त्रीञ् श्लोकान् श्रीभगवानुवाच -- इदं त्वित्यादिना। इदं प्राग्बहुधोक्तमग्रे च वक्ष्यमाणमधुनोच्यमानं ज्ञानं शब्दप्रमाणकं ब्रह्मतत्त्वविषयकं ते तुभ्यं प्रवक्ष्यामि। तुशब्दः पूर्वाध्यायोक्ताद्ध्यानाज्ज्ञानस्य वैलक्षण्यमाह। इदमेव सम्यग्ज्ञानं साक्षान्मोक्षप्राप्तिसाधनं नतु ध्यानं तस्याज्ञानानिवर्तकत्वात्। तत्त्वन्तःकरणशुद्धिद्वारेदमेव ज्ञानं संपाद्य क्रमेण मोक्षं जनयतीत्युक्तम्। कीदृशं ज्ञानम्। गुह्यतमं गोपनीयतम्। अतिरहस्यत्वात्। यतो विज्ञानसहितं ब्रह्मानुभवपर्यन्तं ईदृशमतिरहस्यमप्यहं शिष्यगुणाधिक्याद्वक्ष्यामि ते तुभ्यं अनसूयवे। असूया गुणेषु दोषदृष्टिस्तदाविष्करणादिफला सर्वदायमात्मैश्वर्यख्यापनेनात्मानं प्रशंसति मत्पुरस्तादित्येवंरूपा तद्रहिताय। अनेनार्जवसंयमावपि शिष्यगुणौ व्याख्यातौ। पुनः कीदृशं ज्ञानम्। यज्ज्ञात्वा प्राप्य मोक्ष्यसे सद्य एव संसारबन्धनादशुभात्सर्वदुःखहेतोः।

By - Sri Purushottamji , in sanskrit

।।9.1।।प्रोवाच कृष्णः कृपया नवमे पाण्डवं प्रति। राजविद्या राजगुह्यं योगं स्वैश्वर्यबोधकम्।।1।।एवं पूर्वाध्याये स्वस्वरूपं भक्त्यैकलभ्यमुक्त्वा भक्तिस्वरूपज्ञानमाह कृष्णः कृपया -- इदं त्विति। इदं तु गुह्यतममत्यन्तं गुप्तं भगवद्विषयकभक्त्यात्मकं ज्ञानं विज्ञानसहितमनुभवसहितं भक्तिप्रतिफलनरूपं अनसूयवे प्रतिक्षणमुत्तरोत्तरमतिकाठिन्यभक्त्यैकलभ्यस्वरूपकथनेऽपि दोषरहितश्रवणैकपरचित्ताय ते तुभ्यं प्रवक्ष्यामि? प्रकर्षेण स्वरूपज्ञानसहितं कथयिष्यामीत्यर्थः। यज्ज्ञात्वा यत्स्वरूपं ज्ञात्वा अशुभात् स्वरूपाज्ञानात्मकसंसारात् मोहाद्वा मोक्ष्यसे? मुक्तो भविष्यसीत्यर्थः। तुशब्देन सर्वेषामकथनीयत्वं ज्ञापितम्। ते इति कथनेन कृपया वक्ष्यामीति व्यञ्जितम्।

By - Sri Shankaracharya , in sanskrit

।।9.1।। -- इदं ब्रह्मज्ञानं वक्ष्यमाणम् उक्तं च पूर्वषु अध्यायेषु? तत् बुद्धौ संनिधीकृत्य इदम् इत्याह। तुशब्दो विशेषनिर्धारणार्थः। इदमेव तु सम्यग्ज्ञानं साक्षात् मोक्षप्राप्तिसाधनम् वासुदेवः सर्वमिति आत्मैवेदं सर्वम् (बृ0 उ0 2।4।6) एकमेवाद्वितीयम् (छा0 उ0 6।2।1) इत्यादिश्रुतिस्मृतिभ्यः नान्यत्? अथ ते येऽन्यथातो विदुः अन्यराजानः ते क्षय्यलोका भवन्ति इत्यादिश्रुतिभ्यश्च। ते तुभ्यं गुह्यतमं गोप्यतमं प्रवक्ष्यामि कथयिष्यामि अनसूयवे असूयारहिताय। किं तत् ज्ञानम्। किंविशिष्टम् विज्ञानसहितम् अनुभवयुक्तम्? यत् ज्ञात्वा प्राप्य मोक्ष्यसे अशुभात् संसारबन्धनात्।।त़ञ्च --,

By - Sri Vallabhacharya , in sanskrit

।।9.1।।नवमे स्वाक्षरैश्वर्यज्ञानं सद्भक्तिगर्भितम्। प्राह विज्ञानसहितं महापतितपावनः।।1।।एवं तावत्पूर्वत्र स्वमहिमानं सर्वोत्तममुक्त्वा स्वस्य योगनिष्पन्नज्ञानिभक्त्यैकलभ्यत्वं सूचितं इदानीं स्वाक्षरैश्वर्यमहिमज्ञानद्वारा स्वभक्तेरसाधारणमाहात्म्यं महापतितपावनत्वं प्रदर्शयिष्यन् श्रीभगवानुवाच इदं त्विति। तुः पूर्वव्यावृत्त्यर्थः। तत्तु गुह्यं चतुर्विधोपासकभेदनिबन्धनविशेषरूपं? इदं तु गुह्यतमं भजनीयभक्तिमाहात्म्यनिबन्धनरूपमिति ते तुभ्यं अनसूयवे पुनः पुनः सकलेतरविजातीयं मद्विषयकमपरिमितगुणमाहात्म्यं श्रुत्वैवमेव सम्भवतीति मन्वानाय ज्ञानं स्वमाहात्म्यविषयकं विज्ञानं भक्तिगतविशेषज्ञानसहितं प्रकर्षेण वक्ष्यामि यत् ज्ञात्वाऽशुभान्मोहान्मोक्ष्यसे।