BG - 9.2

राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम्। प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम्।।9.2।।

rāja-vidyā rāja-guhyaṁ pavitram idam uttamam pratyakṣhāvagamaṁ dharmyaṁ su-sukhaṁ kartum avyayam

  • rāja-vidyā - the king of sciences
  • rāja-guhyam - the most profound secret
  • pavitram - pure
  • idam - this
  • uttamam - highest
  • pratyakṣha - directly perceptible
  • avagamam - directly realizable
  • dharmyam - virtuous
  • su-sukham - easy
  • kartum - to practice
  • avyayam - everlasting

Translation

This is the royal science, the royal secret, the supreme purifier, realizable by direct intuitive knowledge, according to righteousness, very easy to perform and imperishable.

Commentary

By - Swami Sivananda

9.2 राजविद्या the king of sciences? राजगुह्यम् kingly secret? पवित्रम् purifier? इदम् this? उत्तमम् highest? प्रत्यक्षावगमम् realisable by direct? intuitional knowledge? धर्म्यम् according to righteousness? सुसुखम् very easy? कर्तुम् to perform? अव्ययम् imperishable.Commentary In this verse Lord Krishna eulogies the knowledge of Brahman very highly in order to create a great interest in the spiritual aspirants for attaining It ickly.There is neither blind faith nor faithmongering in this royal science. The truth? the sovereign,secret (the Self or the Absolute) can be directly realised by intuition or immediate perception. The science of the Absolute is the most splendid of all sciences. It is the science of sciences. Of sciences the highest? of secrets the most profoun? of purifiers the supreme is this. The knowledge of Brahman is the best purifier. It reduces the roots of all Karmas and all the Karmas themselves which have been stored up in the course of many thousands of births? into ashes in the twinkling of an eye. It destroys Avidya along with its effects. An expiatory act (Prayaschitta) cannot destroy all sins. It removes the effect of a single sin? only to some extent. Even if it is removed the effect of that sin remains in a subtle state in the mind and forces him to do sinful acts in his next birth. But the knowledge of the Self destroys ickly all the sins in their gross and subtle states that are accumulated in the course of several thousands of births along with Avidya? their cause. That is the reason why it is a supreme purifier. The causal body of the Jiva is called MulaAvidya (rootignorance). The Avidya or the veil of ignorance that envelops the visible objects of this world is called Sthula Avidya or gross ignorance.The knowledge of the Self is not opposed to Dharma. It is the fruit of all actions done in many births without expectation of fruits. Further? the knowledge of the Absolute can very easily be attained. One may think that this knowledge will perish soon as it is easily obtained? when its effect is exhausted. It is not so. It is imperishable. It is everlasting. It shines for ever by its own Selfeffulgence. He who has tasted this nectar even once becomes immortal. Therefore the knowledge of the Absolute is certainly worth aciring. You will have to strive very hard to attain it anyhow in this birth? as it is very difficult to get a human birth. Strive hard every moment? for life is uncertain and the prize (final liberation) is great.

By - Swami Ramsukhdas , in hindi

।।9.2।। व्याख्या--'राजविद्या'--यह विज्ञानसहित ज्ञान सम्पूर्ण विद्याओंका राजा है; क्योंकि इसको ठीक तरहसे जान लेनेके बाद कुछ भी जानना बाकी नहीं रहता।भगवान्ने सातवें अध्यायके आरम्भमें कहा है कि 'मेरे समग्ररूपको जाननेके बाद जानना कुछ बाकी नहीं रहता।' पन्द्रहवें अध्यायके अन्तमें कहा है कि 'जो असम्मूढ़ पुरुष मेरेको क्षरसे अतीत और अक्षरसे उत्तम जानता है, वह सर्ववित् हो जाता है अर्थात् उसको जानना कुछ बाकी नहीं रहता', इससे ऐसा मालूम होता है कि भगवान्के सगुण-निर्गुण, साकार-निराकार, व्यक्त-अव्यक्त आदि जितने स्वरूप हैं, उन सब स्वरूपोंमें भगवान्के सगुण-साकार स्वरूपकी बहुत विशेष महिमा है।

By - Swami Chinmayananda , in hindi

।।9.2।। धर्म शब्द का प्रचलित अर्थ यह है कि सप्ताह के किसी विशेष दिन? निर्धारित समय के लिए देवालय में जाकर व्रत पालन तथा पूजा करना आदि। इस दृष्टि से वेदान्त कोई धर्म नहीं है परन्तु आदर्श जीवन जीने की कला को धर्म समझने पर वेदान्त सर्वश्रेष्ठ धर्म है? क्योंकि उसमें आदर्श जीवन का वैज्ञानिक विश्लेषण एवं विवेचन किया गया है। राजविद्या? राजगुह्य? पवित्र और उत्तम कहकर भगवान् श्रीकृष्ण उसकी प्रशंसा करते हैं।कोई ज्ञान? राजविद्या और गुह्यतम तथा परम पवित्र होते हुए भी यदि अनुभव ग्राह्य नहीं है? तो उसका कोई उपयोग नहीं हो सकता। परन्तु इस ज्ञान में यह दोष नहीं है? क्योंकि यह प्रत्यक्षावगमम् अर्थात् इसका आत्मरूप में साक्षात् अनुभव किया जा सकता है।इसी प्रकार? यह ज्ञान र्धम्य अर्थात् धर्म के अनुकूल है? धर्मयुक्त है। धर्म शब्द का अर्थ अनेक स्थलों पर बताया जा चुका है। आत्मचैतन्य के अभाव में मनुष्य स्थूल और सूक्ष्मरूप जड़तत्त्वों का समूह मात्र है? जो स्वयं कोई भी कार्य करने में समर्थ नहीं है। यह चेतनतत्त्वआत्मा ही मनुष्य का वास्तविक धर्म है? स्वरूप है। भगवान् यहाँ जो ज्ञान प्रदान करने वाले हैं? वह न भौतिक विज्ञान है और न मनोविज्ञान किन्तु वह आत्मज्ञान अर्थात् मनुष्य के स्वस्वरूप का ज्ञान है।सुसुखं कर्तुम् धर्म कोई बाह्य जगत् में की जाने वाली क्रिया नहीं? वरन् आत्मिक उन्नति का मार्ग है? जिसका अनुसरण प्रत्येक व्यक्ति स्वयं ही करता है। यदि प्रस्तुत ज्ञान को प्राप्त करना अत्यन्त कठिन हो? तो उसमें किसी की प्रवृत्ति न होने से उसकी विद्यमानता व्यर्थ ही होगी। वैज्ञानिकों की इस घोषणा से कि मंगलग्रह पर सोने का अक्षय भण्डार वितरण के लिए उपलब्ध है? देश की दरिद्रता दूर नहीं होती भगवान् इस ज्ञान के कठिन होने के भय को साधक के मन से निवृत्त करने के लिए कहते हैं कि यह करने में अत्यन्त सरल है। लगनशील और योग्य विद्यार्थी के लिये चित्तशुद्धि और उसके द्वारा ज्ञान से लक्ष्यप्राप्ति करना अत्यन्त सरल कार्य है।करने में सरल होते हुए भी यदि इस ज्ञान का फल अनित्य और विनाशी हो? तो कोई भी बुद्धिमान पुरुष उसकी प्राप्ति के लिए प्रयत्न नहीं करेगा। किन्तु स्वयं भगवान् प्रमाणित करते हैं कि इस ज्ञान का फल अव्यय है आत्म साक्षात्कार का अर्थ है? स्वयं अनादिअनन्त आत्मा ही बन जाना? जो इस आभासिक दृश्यमान जगत् का एकमेव अद्वितीय अधिष्ठान है। इसलिए कहा गया है कि यह ज्ञान अव्यय है।ज्ञान के साधकों के विपरीत? जो लोग इस नित्य वस्तु के लिए प्रयत्न नहीं करते? उनके विषय में कहते हैं --

By - Sri Anandgiri , in sanskrit

।।9.2।।तदाभिमुख्यसिद्धये तज्ज्ञानं स्तौति -- तच्चेति। ब्रह्मविद्या विद्यानां राजा श्रेष्ठेत्यत्र हेतुमाह -- दीप्तीति। कुतो ब्रह्मविद्याया विद्यान्तरेभ्यो दीप्त्यतिशयवत्त्वं तदाह -- दीप्यते हीति। दृश्यते हि विद्वदन्तरेभ्यो लोके पूजातिरेको ब्रह्मविदामिति भावः। उत्कृष्टतमं शुद्धिकारणं ब्रह्मज्ञानमित्येतदुपपादयति -- अनेकेति। तत्र च श्रुतिस्मृती प्रमाणयितव्ये। न शास्त्रैकगम्यमिदं ज्ञानं किंतु प्रत्यक्षप्रमेयमित्याह -- किञ्चेति। प्रत्यक्षमवगमो मानमस्मिन्निति तथा? यद्वावगम्यत इत्यवगमः फलं प्रत्यक्षोऽवगमोऽस्येति दृष्टफलत्वं ज्ञानस्योच्यते। धर्म्यमित्येतद्व्याकरोति -- अनपेतमिति। धर्मस्येव तस्य क्लेशसाध्यत्वमाशङ्क्याह -- एवमपीति। तत्र रत्नविषयं विवेकज्ञानं संप्रयोगादुपदेशापेक्षादनायासेन दृष्टं तथेदं ब्रह्मज्ञानमित्याह -- तथेति। अव्ययमिति विशेषणमाशङ्कापूर्वकं विवृणोति -- तत्रेत्यादिना। व्यवहारभूमिः सप्तम्यर्थः। ज्ञानस्याक्षयफलत्वे फलितमाह -- अत इति।

By - Sri Dhanpati , in sanskrit

।।9.2।।तज्ज्ञानं स्तौति राजेति। राजविद्या विद्यानां सर्वासां राजा। ब्रह्मविद्यावतः पूजातिशयदर्शयेन तस्या अतिशयेन देदीप्यमानत्वात्। तथाच श्रुतिःतस्मादात्मज्ञमर्चयेद्भूतिकामः इति। भगवद्ववचनं चनिरपेक्षं मुनिं शान्तं निर्वैरं समदर्शनम्। अनुब्रजाभ्यहं नित्यं पूयेयेत्यङ्गिरेणुभिः।। इति। तथा सर्वेषां गुह्यानामुत्कर्षवत्त्वेन गोप्यानां राजाऽत्यत्कर्षत्वात्राजदन्तादिषु परम् इत्युपासर्जनस्य परनिपातः। इदं ब्रह्मज्ञानमुत्तमं पवित्रं सर्वेषां पावनानामपि शुद्धिकत्वात्। अन्यद्धि प्रायश्चित्तादिरुपं पवित्रं यथाकथंचित्किंचित्पापं नाशयति। इदं तु सर्वै धर्माधर्मादिलक्षणं अनेकजन्मसंचितं समूलं कर्म नाशयति। क्रियमाणं चाश्चलष्टं करोति। तथाच व्याससूत्रेतदधिगम उत्तरपूर्वाधयोरश्लेषविनाशौ तद्य्वपदेशात्इतरस्याप्येवमसंश्लेषः पाते तु इति। तस्मात्किं तस्य ब्रह्मज्ञानस्य परमपावनत्वं वक्तव्यमेतल्लवसदृशस्यान्यस्य पावन स्यानिरुपणात्। किंच न केवलं धर्मवच्छास्त्रगम्यं परोक्षमेवापितु प्रत्यक्षावगमं प्रत्यक्षेण सुखादेरिवावगमो यस्येति भाष्यम्। प्रत्यक्षोऽवगमो मानमस्मिमन्निति तथा। यद्वावगम्यत इत्यवगमः फलं प्रत्यक्षोऽवगमोऽस्येति दृष्टफलत्वं ज्ञानस्योच्यत इति तट्टीका। प्रथमपक्षेऽवगम्येतऽनेनेत्यवगमो मानं प्रत्यक्षं तदस्मिन्निति स्वरुपतः साक्षिप्रत्यक्षत्वं। द्वितीयपक्षे फलतः तत्प्रत्यक्षत्वं मयेदं विदतमतो नष्टमिदानीं ममात्राज्ञानमिति सार्वजनीनः साक्ष्यनुभवः इति तदर्थः। प्रत्यक्षं नित्यापरोक्षं यत्प्रत्यगात्मवस्तु तदेव याथात्म्येनावगम्येऽनेनेत्यपि केचित्तदेतत्पक्षत्रयमपि भाष्यस्योपलक्षणार्थत्वेनोपादेयम्। नन्वनेकगुणवतोऽपि मांसभक्षणादेर्धर्मविरुद्धत्वं दृष्टम्? तथा आत्मज्ञानमपि किं न स्यादिति तत्राह। धर्म्यं धर्मादनपेतम्। अनेकजन्मार्जितसुकृतसाध्यत्वात्। नन्वेमपि दुःसंपाद्यं स्यादिति तत्राह। सुसुखं कर्ते गुरुपदिष्टवेदान्तवाक्यैरज्ञाननिवृत्त्या सुखेनैव संपादयितुं शक्यं न देशकालऋत्विगाद्यपेक्षास्तीति। ननु लोके यन्महत्फलं तद्वह्वायाससाध्यकर्मसाध्यम्। अल्पं त्वल्पायाससाध्यकर्मसाध्यं दृष्टम्। तद्वज्ज्ञानमपि कर्तुं सुखं अल्पफलं भविष्यतीत्याशङ्क्य रत्नविवेकज्ञानस्याल्पायाससाध्यस्यापि महाफलदर्शनान्नेत्याह। अव्ययं नास्य ज्ञानस्य लोकवत्फलतो व्ययो नाशोस्तीऽत्यव्ययम्। अतः श्रद्धयावश्यं संपाद्यमिति भावः।

By - Sri Madhavacharya , in sanskrit

।।9.2।।राजविद्या प्रधानविद्या। प्रत्यक्षं ब्रह्म अवगम्यते येन तत्प्रत्यक्षावगमम्। अक्षेष्विन्द्रियेषु प्रति प्रतिस्थित इति प्रत्यक्षः। तथा च श्रुतिः यः प्राणे तिष्ठन्प्राणादन्तरो यं प्राणो न वेद यस्य प्राणः शरीरम्। यः प्राणमन्तरो यमयत्येष त आत्माऽन्तर्याम्यमृतः। यो वाचि तिष्ठन् ৷৷. यश्चक्षुषि तिष्ठन् [बृ.उ.3।7।1618] इत्यादिः। य एषोऽन्तरक्षिणि पुरुषो दृश्यते [छां.उ.1।7।5] इति च अङ्गुष्ठमात्रः पुरुषोऽङ्गुष्ठं च समाश्रितः [म.ना.उ.15।5] इति च।त्वं मनस्त्वं चन्द्रमास्त्वं चक्षुरादित्यः इत्यादेश्च मोक्षधर्मे। [म.भा.12।338।98100] स प्रत्यक्षः प्रति इति हि सोऽक्षेष्वक्षवान् भवति य एवं विद्वान्प्रत्यक्षं वेद इति सामवेदे बाभ्रव्यशाखायाम्। धर्मो भगवान् तद्विषयं धर्म्यम्। सर्वं जगद्धत्त इति धर्मः।पृथिवी धर्ममूर्धनि इति च प्रयोगान्मोक्षधर्मे।भारभृत्कथितो योगी [म.भा.13।149।106] इति च। भर्ता सन् भ्रियमाणो बिभर्ति [तै.आ.3।14] इति च श्रुतिः। धर्मो वा इदमग्र आसीन्न पृथिवी न वायुर्भाकाशो न ब्रह्मा न रुद्रो न देवा न ऋषयः सोऽध्यायत् इति च सामवेदशाखायाम्।

By - Sri Neelkanth , in sanskrit

।।9.2।।एतदेव स्तौति -- राजविद्येति। विद्यानां राजा इति राजविद्या अध्यात्मविद्या। गुह्यानां राजा इति राजगुह्यम्।राजदन्तादिषु परम् इत्युपसर्जनस्य परनिपातः। पवित्रं पावनम्। उत्तमं पूर्वापरदुरितनाशाश्लेषहेतुत्वात्प्रायश्चित्ताद्यपेक्षया श्रेष्ठम्। प्रत्यक्षावगमं प्रत्यक्षं नित्यापरोक्षं यत्प्रत्यगात्मवस्तु तदेव याथात्म्येनावगम्यतेऽनेनेति प्रत्यक्षावगमं? प्रत्यक्षेण सुखादिवद्गमो यस्येति वा। अस्मिन्पक्षे विज्ञानसहितमिति विशेषणस्य श्लोकान्तरस्थत्वान्न तेन पौनरुक्त्यदोषः। तर्हि अपूर्वत्वाभावान्निष्फलं स्यादत आह। धर्म्यं धर्मादनपेतम्। तथाहि क्षणमपि प्रत्यगात्माकारवृत्तौ सत्यां श्रूयतेक्षणमेकं क्रतुशतस्य चतुःसप्तत्या यत्फलं तद्वाप्नोति इति। तर्हि दुःसाध्यं स्यान्नेत्याह -- सुसुखं कर्तुमिति। कर्तुं संपादयितुमाविष्कर्तुं सुसुखमनायाससाध्यम्। अज्ञानापनयमात्रसिद्धत्वात्। तर्हि आशुविनाशिफलं चेत्। अव्ययं? वस्तुमात्रविषयत्वात्। अनन्तफलं नतु कर्मफलवन्नश्यति।

By - Sri Ramanujacharya , in sanskrit

।।9.2।।राजविद्या विद्यानां राजा राजगुह्यं गुह्यानां राजा राज्ञां विद्येति वा राजविद्या? राजानो हि विस्तीर्णागाधमनसः? महामनसाम् इयं विद्या इत्यर्थः।महामनस एव गोपनीयगोपनकुशला इति तेषाम् एव गुह्यम् इदम्। उत्तमम् पवित्रं मत्प्राप्तिविरोध्यशेषकल्मषापहं प्रत्यक्षावगमम्? अवगम्यते इति अवगमो विषयः? प्रत्यक्षभूतः अवगमो विषयो यस्य ज्ञानस्य तत् प्रत्यक्षावगमम्? भक्तिरूपेण उपासनेन उपास्यमानः अहं तदानीम् एव उपासितुः प्रत्यक्षताम् उपागतो भवामि इत्यर्थः।अथापि धर्म्यं धर्माद् अनपेतं धर्मत्वं हि निःश्रेयससाधनत्वम् स्वरूपेण एव अत्यर्थप्रियत्वेन तदानीम् एव मद्दर्शनापादनतया च स्वयं निःश्रेयसरूपम् अपि निरतिशयनिःश्रेयसरूपात्यन्तिकमत्प्राप्तिसाधनम् इत्यर्थः। अत एव सुसुखं कर्तुं सुसुखोपादानम्? अत्यर्थप्रियत्वेन उपादेयम् अव्ययम् अक्षयं मत्प्राप्तिं साधयित्वा अपि स्वयं न क्षीयते। एवंरूपम् उपासनं कुर्वतो मत्प्रदाने कृते अपि न किञ्चित् कृतं मया अस्य इति मे प्रतिभाति इत्यर्थः।

By - Sri Sridhara Swami , in sanskrit

।।9.2।।किंच -- राजविद्येति। इदं ज्ञानं राजविद्या विद्यानां राजेति राजविद्या च। गुह्यानां राजेति राजगुह्यं विद्यासु गोप्येषु च रहस्यम्। अतिश्रेष्ठमित्यर्थः। राजदन्तादित्वादुपसर्जनस्य परत्वम्। राज्ञां विद्या राज्ञां गुह्यमितिवा उत्तमं पवित्रमत्यन्तपावनमिदं ज्ञानिनां प्रत्यक्षावगमं च प्रत्यक्षः स्पष्टोऽवगमोऽवबोधो यस्य तत्प्रत्यक्षावगमम्। दृष्टफलमित्यर्थः। धर्म्यं च धर्मादनपेतं? सर्वधर्मफलत्वात्। कर्तुं सुसुखं च। सुखेन कर्तुं शक्यमित्यर्थः। अव्ययमक्षयफलत्वात्।

By - Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha , in sanskrit

।।9.2।।उपायान्तरेभ्योऽस्योपायस्यातिशयं दर्शयति -- राजविद्येति। राजशब्दस्यात्र क्षत्रियविषयत्वेविशेषविधिः शेषनिषेधं गमयति [ ] इतिन्यायात् ब्राह्मणादेरनधिकारप्रसङ्गात्राज्ञां विद्या इति विग्रहमनादृत्याह -- विद्यानां राजा ৷৷. गुह्यानां राजेति। समानाधिकरणसमासफलमनुरुध्येदमुक्तम् शब्दार्थस्तु राजभूता विद्येति राजदन्तादिषु वा पाठो द्रष्टव्यः।पवित्रमिदमुत्तमम् इत्युत्तमशब्दसमानन्यायतया राजशब्दोऽत्र श्रेष्ठवाची। एवमप्रसिद्धार्थक्लेशमसहमान आहराज्ञां विद्येति। ब्राह्मणादेरधिकारनिषेधपरत्वशङ्कापरिहारायोपचारनिमित्तं गुणं दर्शयतिराजानो हीति। फलितमाहमहामनसामिति। अजहल्लक्षणा वा गौणी वा वृत्तिरिह विवक्षिता? अन्यैर्ज्ञातुमशक्यत्वादिति भावः।राजगुह्यम् इत्यस्यापि सप्रयोजनत्वायौपचारिकार्थत्वं दर्शयतिमहामनस एव हीति। उपायविरोधिनिवर्तककतिपयनिवर्तकव्यवच्छेदार्थमुत्तमशब्दविशेषितपवित्रशब्दविवक्षितमाह -- मत्प्राप्तीति।प्रत्यक्षावगमम् इत्यत्र प्रत्यक्षरूपज्ञानपरत्वे नपुंसकत्वायोगाज्ज्ञानस्यैव विशेष्यस्य ज्ञानमेव विशेषणीकृत्य बहुव्रीह्ययोगाच्च कर्मणि व्युत्पत्त्या बहुव्रीहित्वं घटयतिअवगम्यत इत्यादिना। नन्विदमयुक्तम्? उपासनस्य स्मृतिसन्ततिरूपत्वात्? उपास्यस्य चाप्रत्यक्षत्वश्रुतेः प्रत्यक्षस्य तु विषयान्तरस्य भक्तावनन्वयादित्यत्राहभक्तरूपेणेति।भक्त्या त्वनन्यया शक्यः [11।54] इत्यादिकमिह भाव्यम्।तदानीमेवेत्यासक्तिवशादुक्तम्।स्वयं फलभूतानां हि फलान्तरसाधनत्वरूपं धर्मत्वं दुर्लभमित्यभिप्रायेणाह -- अथापि धर्म्यमिति।धर्मपथ्यर्थन्यायादनपेते [अष्टा.4।4।92] इति सूत्रानुसारेण धर्म्यशब्दं निर्वक्तिधर्मादिति। अभिप्रेतं विवृणोतिधर्मत्वं हीत्यादिना। प्रीतिपर्यायधृतिवाचके धातौ करणविवक्षया व्युत्पन्नो ह्ययं धर्मशब्द इति भावः। उक्तं चाभियुक्तैःधर्म इत्युपसंहार्ये यच्छ्रेयस्करभाषणम्। तद्धर्मपदवाच्यार्थनिरूपणविवक्षया इत्यादि। श्रेयसोऽत्रावच्छेदकाभावात्मुक्तिः कैवल्यनिर्वाणश्रेयोनिश्श्रेयसामृतम् [अमरः1।5।6] इति नैघण्टुकपाठाच्चनिरतिशयेत्यादिकमुक्तम्।अत एवेति -- स्वरूपतः साध्यतश्च पुरुषार्थरूपत्वादित्यर्थः। कर्तुं सुसुखं करणे सुसुखमित्यर्थः।सुसुखं इत्यस्य तुमुनन्तक्रियाकर्मीभावभ्रमव्युदासायाहसुसुखोपादानमिति। उपसर्गसुखशब्दयोरत्राभिप्रेतमाहअत्यर्थेति। स्वरूपतो विषयतश्चात्यर्थानुकूलत्वात्सुखेनानुष्ठेयमित्यर्थः। फलविनाश्यं हि सर्वमन्यत्कर्म इदं तु सुकरमपि फलेनापि न क्षीयते अपवर्गरूपं फलमप्येतस्य नालमित्यतिशयपरोऽव्ययशब्द इत्यभिप्रायेणाहअक्षयमिति। तद्विवृणोतिमत्प्राप्तिमिति। तर्हि किमन्यदधिकं साध्यमिति शङ्कायामभिप्रेतमाहएवंरूपमिति।

By - Sri Abhinavgupta , in sanskrit

।।9.2।।राजेति। राजते सर्वविद्यामध्ये वीप्यते या। इहैव ह्युच्यते -- अध्यात्मविद्या विद्यानाम् इति। राज्ञां जनकादीनाम् अत्र अधिकारः? तेषां रहस्यम् अतिगुप्तत्वात् (S??N प्रति गुप्तत्वात्)। क्षत्रियसुलभेन वी,(धी) रभावेनाविकम्पनात् (S??N -- कम्पत्वात्) कर्तुमनुष्ठातुं (N अनुष्ठानम्) सुसुखम्। [अव्ययम्]? न चास्य ब्रह्मोपासनात्मनः कर्मणः अन्यकर्मवदुपभोगादिना व्ययोऽस्ति।

By - Sri Jayatritha , in sanskrit

।।9.2।।राज्ञामश्वपतिजनकादीनां विद्या राजविद्येति कश्चित्? तदसत् ब्राह्मणादीनामनधिकारप्रसङ्गादिति भावेनाह -- राजेति। राजेव राजा? राजा चासौ विद्या चेति राजविद्येत्यर्थः। प्रत्यक्षेणावगमो यस्येति (शां.) व्याख्यानमसत्। भगवन्माहात्म्यस्य शास्त्रैकसमधिगम्यत्वात्अद्वैतोद्गारस्य प्रमाणविरुद्धत्वादिति भावेनाह -- प्रत्यक्षमिति। शास्त्रैकवेद्यं ब्रह्म कथं प्रत्यक्षं इत्यत आह -- अक्षेष्विति। प्रत्यक्षः परमात्मा। प्रादिसमासोऽयं? नाव्ययीभाव इति ज्ञापनाय नपुंसके प्रकृतेऽपि पुँल्लिङ्गनिर्देशः? अन्यथा षष्ठी न श्रूयेत। परमात्मनोऽक्षेषु स्थितत्वे किं मानं इत्यत आह -- तथा चेति। प्राण इति प्राणाभिमानिनी देवतोच्यते? प्राणादन्तरो भिन्नः। अङ्गुष्ठेति कर्मेन्द्रियाधिष्ठातृत्वमुच्यते। मन इत्यादेर्मनआदिस्थ इत्यर्थः। प्रत्यक्षशब्दस्यायमर्थ इत्यत्र श्रुतिमाह -- स इति। प्रतिस्थितः। अक्षवान् प्रशस्तेन्द्रियः। यो विद्वानेवं प्रत्यक्षशब्दार्थं वेद। धर्मादनपेतं धर्म्यमिति निर्वचनेऽपि न प्रसिद्धधर्माविरुद्धत्वमर्थः? निवृत्तधर्मस्य ब्रह्मज्ञानाविरुद्धतायाः प्रसिद्धत्वात्। प्रवृत्तिलक्षणस्य तु तद्विरुद्धत्वादिति भावेनाह -- धर्म इति। तस्मादनपेतमित्यर्थस्तद्विषयमिति। कथं भगवान् धर्मः इत्यत आह -- सर्वमिति। धृञो मन्प्रत्यय औणादिकः। धारके धर्मशब्दप्रवृत्तिः कुतः इत्यत आह -- पृथिवीति। पर्वतोपरीत्यर्थः। भगवतः सर्वधारकत्वे किं मानं इत्यत आह -- भारभृदिति। सर्वत्र स्थितो भगवान् सर्वेण ध्रियते? स कथं सर्वस्य धारकः इत्यत आह -- भर्तेति। भर्ता सन्नेव म्रियमाणो न स्वकीयस्थित्यै। धर्मशब्दस्य भगवद्वाचित्वं कुतः इत्यत आह -- धर्मो वा इति। इदमग्रे अस्याग्रे। अत्र पुण्यं धर्मः किं न स्यात् इति शङ्कानिरासार्थं सोऽध्यायदिति वाक्यशेषोदाहरणम्।

By - Sri Madhusudan Saraswati , in sanskrit

।।9.2।।पुनस्तदाभिमुख्याय तज्ज्ञानं स्तौति -- राजविद्या सर्वासां विद्यानां राजा? सर्वाविद्यानाशकत्वात्? विद्यान्तरस्याविद्यैकदेशविरोधित्वात्। तथा राजगुह्यं सर्वेषां गुप्तानां राजा? अनेकजन्मकृतसुकृतसाध्यत्वेन बहुभिरज्ञातत्वात्। राजदन्तादित्वादुपसर्जनस्य परनिपातः। पवित्रमिदमुत्तमम्। प्रायश्चित्तैर्हि किंचिदेकमेव पापं निवर्त्यते। निवृत्तं च तत्स्वकारणे सूक्ष्मरूपेण तिष्ठत्येव। यतः पुनस्तत्पापमुपचिनोति पुरुषः। इदं त्वनेकजन्मसहस्रसंचितानां सर्वेषामपि पापानां स्थूलसूक्ष्मावस्थानां तत्कारणस्य चाज्ञानस्य सद्य एवोच्छेदकम्। अतः सर्वोत्तमं। पावनमिदमेव। नचातीन्द्रिये धर्म इवात्र कस्यचित्संदेहः? स्वरूपतः फलतश्च प्रत्यक्षत्वादित्याह -- प्रत्यक्षावगमं अवगम्यतेऽनेनेत्यवगमो मानं? अवगम्यते प्राप्यत इत्यवगमः फलं? प्रत्यक्षमवगमो मानमस्मिन्निति स्वरूपतः साक्षिप्रत्यक्षत्वं? प्रत्यक्षोऽवगमोऽस्येति फलतः साक्षिप्रत्यक्षत्वं? मयेदं विदितमतो नष्टमिदानीमत्र,ममाज्ञानमिति हि सार्वलौकिकः साक्ष्यनुभवः। एवं लोकानुभवसिद्धत्वेऽपि तज्ज्ञानं धर्म्यं धर्मादनपेतं अनेकजन्मसंचितनिष्कामधर्मफलम्। तर्हि दुःसंपादं स्यान्नेत्याह -- सुसुखं कर्तुं,गुरूपदर्शितविचारसहकृतेन वेदान्तवाक्येन सुखेन कर्तुं शक्यं न देशकालादिव्यवधानमपेक्षते प्रमाणवस्तुपरतन्त्रत्वाज्ज्ञानस्य। एवमनायाससाध्यत्वे स्वल्पफलत्वं स्यादत्यायासाध्यानामेव कर्मणां महाफलत्वदर्शनादिति नेत्याह -- अव्ययम्। एवमनायाससाध्यस्याप्यस्य फलतो व्ययो नास्तीत्यव्ययम्। अक्षयफलमित्यर्थः। कर्मणां त्वतिमहतामपि क्षयिकफलत्वमेवयो वा एतदक्षरं गार्ग्यविदित्वास्िमँल्लोके जुहोति यजते तपस्तप्यते बहूनि वर्षसहस्राण्यन्तवदेवास्य तद्भवति इति श्रुतेः। तस्मात्सर्वोत्कृष्टत्वाच्छ्रद्धेयमेवात्मज्ञानम्।

By - Sri Purushottamji , in sanskrit

।।9.2।।गुह्यतमत्वज्ञापनायोच्यमानस्य सर्वोत्तमत्वमाह -- राजविद्येति। इदमुच्यमानं राजविद्या विद्यानां राजा? ब्रह्मविद्यात्मकमित्यर्थः। राजगुह्यं गुह्यानां गोप्यानां राजा? विद्यासु मुख्यत्वात् गोप्येषु मुख्यत्वात् कस्यापि न वक्तव्यमिति भावः। पवित्रं? परमपावनमित्यर्थः। उत्तमं सर्वोत्कृष्टम्। प्रत्यक्षावगमं साक्षात्फलात्मकं? दृष्टफलरूपमित्यर्थः। धर्म्यं धर्मोत्पादकं? कर्तुं सुसुखं सुखेन कर्तुं योग्यम्? अव्ययं अविनाशि। यद्वा -- अव्ययं कर्तुं स्वसुखं सुसुखं परमसुखमित्यर्थः।

By - Sri Shankaracharya , in sanskrit

।।9.2।। --,राजविद्या विद्यानां राजा? दीप्त्यतिशयवत्त्वात् दीप्यते हि इयम् अतिशयेन ब्रह्मविद्या सर्वविद्यानाम्। तथा राजगुह्यं गुह्यानां राजा। पवित्रं पावनं इदम् उत्तमं सर्वेषां पावनानां शुद्धिकारणं ब्रह्मज्ञानम् उत्कृष्टतमम्। अनेकजन्मसहस्रसंचितमपि धर्माधर्मादि समूलं कर्म क्षणमात्रादेव भस्मीकरोति इत्यतः किं तस्य पावनत्वं वक्तव्यम्। किञ्च -- प्रत्यक्षावगमं प्रत्यक्षेण सुखादेरिव अवगमो यस्य तत् प्रत्यक्षावगमम्। अनेकगुणवतोऽपि धर्मविरुद्धत्वं दृष्टम्? न तथा आत्मज्ञानं धर्मविरोधि? किंतु धर्म्यं धर्मादनपेतम्। एवमपि? स्याद्दुःखसंपाद्यमित्यत आह -- सुसुखं कर्तुम्? यथा रत्नविवेकविज्ञानम्। तत्र अल्पायासानामन्येषां कर्मणां सुखसंपाद्यानाम् अल्पफलत्वं दुष्कराणां च महाफलत्वं दृष्टमिति? इदं तु सुखसंपाद्यत्वात् फलक्षयात् व्येति इति प्राप्ते? आह -- अव्ययम् इति। न अस्य फलतः कर्मवत् व्ययः अस्तीति अव्ययम्। अतः श्रद्धेयम् आत्मज्ञानम्।।ये पुनः --,

By - Sri Vallabhacharya , in sanskrit

।।9.2।।किञ्च राजविद्येति। इदं ज्ञानं खलु राज्ञां महामनसां विद्या गुह्यं च मन्त्ररूपं विद्यानां राजा गुह्यं च इति वा। राजदन्तादित्वादुपसर्जनस्य परत्वम्। पावनसम्बन्धित्वात् पवित्रम्। प्रत्यक्षेति अवगम्यत इत्यवगमो विषयो यस्य ज्ञानस्य सोऽहं प्रत्यक्षतामुपगतो भवामीत्यर्थः? भक्त्यावृतत्वात्। अथापि धर्म्यं निश्श्रेयसलक्षणाद्धर्मादनपेतम्अनिच्छतो गतिमण्वीं प्रयुङ्क्ते इति वाक्यात्। कर्तुं च सुसुखं न कर्मान्तरवद्दुष्करम्।