बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च।सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयं दूरस्थं चान्तिके च तत्।।13.16।।
bahir antaśh cha bhūtānām acharaṁ charam eva cha sūkṣhmatvāt tad avijñeyaṁ dūra-sthaṁ chāntike cha tat
It is within and without all beings, both the unmoving and the moving; It is subtle and unknowable, and It is near and far away.
13.16 बहिः without? अन्तः within? च and? भूतानाम् of (all) beings? अचरम् the unmoving? चरम् the moving? एव also? च and? सूक्ष्मत्वात् because of Its subtlety? तत् That? अविज्ञेयम् unknowable? दूरस्थम् is far? च and? अन्तिके near? च and? तत् That.Commentary Brahman is subtle like the ether. It is incomprehensible to the unillumined on account of Its extreme subtlety. It is unknowable to the man who is not endowed with the four means of salvation.Brahman is known or realised by the wise. It is realised by the first class aspirant who is eipped with these means. It is near to the wise man or the illumined because It is his very Self. It is very far to the ignorant man who is drowned in worldliness or sensual pleasures. It is not attainable by the ignorant or unenlightened even in millions of years.Near and far away This expression is found in the Isavasya Upanishad (5) and the Mundaka Upanishad (3.17).
।।13.16।। व्याख्या -- [ज्ञेय तत्त्वका वर्णन बारहवेंसे सत्रहवें श्लोकतक -- कुल छः श्लोकोंमें हुआ है। उनमेंसे यह पन्द्रहवाँ श्लोक चौथा है। इस श्लोकके अन्तर्गत पहलेके तीन श्लोकोंका और आगेके दो श्लोकोंका भाव भी आ गया है। अतः यह श्लोक इस प्रकरणका सार है।]बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च -- जैसे बर्फके बने हुए घड़ोंको समुद्रमें डाल दिया जाय तो उन घड़ोंके बाहर भी जल है? भीतर भी जल है और वे खुद भी (बर्फके बने होनेसे) जल ही हैं। ऐसे ही सम्पूर्ण चरअचर प्राणियोंके बाहर भी परमात्मा हैं? भीतर भी परमात्मा हैं और वे खुद भी परमात्मस्वरूप ही हैं। तात्पर्य यह हुआ कि जैसे घड़ोंमें जलके सिवाय दूसरा कुछ नहीं है अर्थात् सब कुछ जलहीजल है? ऐसे ही संसारमें परमात्माके सिवाय दूसरा कोई तत्त्व नहीं है अर्थात् सब कुछ परमात्माहीपरमात्मा हैं। इसी बातको भगवान्ने महात्माओंकी दृष्टिसे वासुदेवः सर्वम् (गीता 7। 19) और अपनी दृष्टिसे सदसच्चाहम् (गीता 9। 19) कहा है।दूरस्थं चान्तिके च तत् -- किसी वस्तुका दूर और नजदीक होना तीन दृष्टियोंसे कहा जाता है -- देशकृत? कालकृत और वस्तुकृत। परमात्मा तीनों ही दृष्टियोंसे दूरसेदूर और नजदीकसेनजदीक हैं जैसे -- दूरसेदूर देशमें भी वे ही परमात्मा हैं और नजदीकसेनजदीक देशमें भी वे ही परमात्मा हैं (टिप्पणी प0 690) पहलेसेपहले भी वे ही परमात्मा थे? पीछेसेपीछे भी वे ही परमात्मा रहेंगे और अब भी वे ही परमात्मा हैं सम्पूर्ण वस्तुओंके पहले भी वे ही परमात्मा हैं? वस्तुओंके अन्तमें भी वे ही परमात्मा हैं और वस्तुओंके रूपमें भी वे ही परमात्मा हैं।उत्पत्तिविनाशशील पदार्थोंके संग्रह और सुखभोगकी इच्छा करनेवालेके लिये परमात्मा (तत्त्वतः समीप होनेपर भी) दूर हैं। परन्तु जो केवल परमात्माके ही सम्मुख है? उसके लिये परमात्मा नजदीक हैं। इसलिये साधकको सांसारिक भोग और संग्रहकी इच्छाका त्याग करके केवल परमात्मप्राप्तिकी अभिलाषा जाग्रत् करनी चाहिये। परमात्मप्राप्तिकी उत्कट अभिलाषा होते ही परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है अर्थात् परमात्मासे नित्ययोगका अनुभव हो जाता है।सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयम् -- वे परमात्मा अत्यन्त सूक्ष्म होनेसे इन्द्रियाँ और अन्तःकरणका विषय नहीं है अर्थात् वे परमात्मा इनकी पकड़में नहीं आते। अब प्रश्न उठता है कि जब जाननेमें नहीं आते? तो फिर उनका अभाव होगा उनका अभाव नहीं है। जैसे परमाणुरूप जल सूक्ष्म होनेसे नेत्रोंसे नहीं दीखता? पर न दीखनेपर भी,उसका अभाव नहीं है। वह जल परमाणुरूपसे आकाशमें रहता है और स्थूल होनेपर बूँदें? ओले आदिके रूपमें दीखने लग जाता है। ऐसे ही परमात्मा अत्यन्त सूक्ष्म होनेसे इन्द्रियाँ? मन? बुद्धि आदिके द्वारा जाननेमें नहीं आते क्योंकि वे इनसे परे हैं? अतीत हैं।जीवोंके अज्ञानके कारण ही वे परमात्मा जाननेमें नहीं आते। जैसे? कहीं पर श्रीमद्भगवद्गीता शब्द लिखा हुआ है। जो पढ़ालिखा नहीं है? उसको तो केवल लकीरें ही दीखती हैं और जो पढ़ालिखा है? उसको श्रीमद्भगवद्गीता दीखती है। संस्कृत पढ़े हुएको यह शब्द किस धातुसे बना हुआ है? इसका क्या अर्थ होता है -- यह दीखने लग जाता है। गीताका मनन करनेवालेको गीताके गहरे भाव दीखने लग जाते हैं। ऐसे ही जिन मनुष्योंको परमात्मतत्त्वका ज्ञान नहीं है? उनको परमात्मा नहीं दीखते? उनके जाननेमें नहीं आते। परन्तु जिनको परमात्मतत्त्वका ज्ञान हो गया है? उनको तो सब कुछ परमात्माहीपरमात्मा दीखते हैं।उस परमात्मतत्त्वको ज्ञेय (13। 12? 17) भी कहा है और अविज्ञेय भी कहा है। इसका तात्पर्य यह है कि वह स्वयंके द्वारा ही जाना जा सकता है? इसलिये वह ज्ञेय है और वह इन्द्रियाँमनबुद्धिके द्वारा नहीं जाना जा सकता? इसलिये वह अविज्ञेय है।सर्वत्र परिपूर्ण परमात्माको जाननेके लिये यह आवश्यक है कि साधक परमात्माको सर्वत्र परिपूर्ण मान ले। ऐसा मानना भी जाननेकी तरह ही है। जैसे (बोध होनेपर) ज्ञान(जानने) को कोई मिटा नहीं सकता? ऐसे ही परमात्मा सर्वत्र परिपूर्ण हैं इस मान्यता(मानने) को कोई मिटा नहीं सकता। जब सांसारिक मान्यताओं -- मैं ब्राह्मण हूँ? मैं साधु हूँ आदिको (जो कि अवास्तविक हैं) कोई मिटा नहीं सकता? तब पारमार्थिक मान्यताओंको (जो कि वास्तविक हैं) कौन मिटा सकता है तात्पर्य यह है कि दृढ़तापूर्वक मानना भी एक साधन है। जाननेकी तरह माननेकी भी बहुत महिमा है। परमात्मा सर्वत्र परिपूर्ण हैं -- ऐसा दृढ़तापूर्वक मान लेनेपर यह मान्यता मान्यतारूपसे नहीं रहेगी? प्रत्युत इन्द्रियाँमनबुद्धिसे परे जो अत्यन्त सूक्ष्म परमात्मा हैं? उनका अनुभव हो जायगा।
।।13.16।। परमात्मा की सर्वव्यापकता को यहाँ उपनिषदों की अननुकरणीय शैली में इंगित किया गया है।वह भूतमात्र के अन्तर्बाह्य है सभी व्यष्टि उपाधियों में व्यक्त चेतन तत्त्व सर्वव्यापी है। अन्तर्बाह्य से तात्पर्य है कि जहाँ शरीरादि उपाधियाँ हैं? वहाँ तो वह विशेष रूप से व्यक्त हुआ विद्यमान रहता ही है? परन्तु जहाँ कोई उपाधि नहीं है वहाँ भी वह केवल सत्य रूप से स्थित रहता है। जिस प्रकार? जहाँ रेडियो है वहाँ ध्वनि तरंगों का अस्तित्व स्पष्ट ज्ञात होता है? परन्तु जहाँ रेडियो नहीं है? वहाँ उन तरंगों का अभाव नहीं कहा जा सकता।वह चर है और अचर भी जो अपनी स्वेच्छा से विचरण करता रहता है? वह चर प्राणी है? तथा गतिहीन वस्तु अचर वर्ग में आती है। इस वाक्य का अर्थ इस प्रकार भी किया जाता है कि आत्मतत्त्व अचर होते हुये भी चर है इसका तात्पर्य यह है कि आत्मा सर्वव्यापी होने से स्वस्वरूप की दृष्टि से अचर है? परन्तु वही आत्मा गतिमान् उपाधियों से अवच्छिन्नसा होकर चरवत् प्रतीत होता है। उदाहरणार्थ? किसी गतिमान वाहन में कोई व्यक्ति स्वयं अपने स्थान पर बैठा हुआ (अचर) ही मीलों लम्बी यात्रा तय कर लेता है इस प्रकार? हमारे व्यक्तित्व का सारभूत तत्त्व एक? सनातन व परिपूर्ण है जो अन्तर्बाह्य सर्वत्र व्याप्त है। उसके बिना कोई भी क्रिया संभव नहीं है ? इसलिये वह सभी क्रियाओं में विद्यमान है। वह सत्स्वरूप से सर्वत्र ही स्थित है। तब? फिर क्या कारण है कि हम उसे इन्द्रियों द्वारा नहीं देख सकते? या मन और बुद्धि से अनुभव नहीं कर पाते भगवान् कहते हैं कि? वह अत्यन्त सूक्ष्म होने से अविज्ञेय है।गुणवान् वस्तु स्थूल होती है। जिस वस्तु में अधिक गुण होते हैं वह उतनी ही अधिक स्थूल होती है और एकाधिक इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण की जा सकती है। जैसे? पृथ्वी का ज्ञान पाँचों इन्द्रियों के द्वारा होता है। जबकि वायु का केवल श्रोत्र और स्पर्शेन्द्रिय से। अत पृथ्वी स्थूलतम तत्त्व है और आकाश में केवल शब्द गुण होने से वह सूक्ष्मतम है।कार्य की अपेक्षा कारण सदैव सूक्ष्म होता है। आकाश तत्त्व सृष्ट वस्तु होने से उसका भी कारण होना आवश्यक है। आकाश का भी कारण वह नित्य अधिष्ठान ब्रह्म है जिससे पंच महाभूतों की उत्पत्ति होती है। स्वाभविक ही है कि वह ब्रह्म आकाश से भी सूक्ष्म होने के कारण हमारे उपलब्ध प्रमाणों के द्वारा दृश्य रूप में नहीं जाना जा सकता है वह अविज्ञेय है।वह दूरस्थ और समीपस्थ है एक साकार परिच्छिन्न वस्तु को किसी स्थान विशेष पर यहाँ या वहाँ स्थित बताया जा सकता है। उन वस्तुओं के द्रष्टा की स्थिति से उनकी दूरी नापी जाकर उन्हें दूरस्थ या समीपस्थ कहा जा सकता है। परन्तु जो सर्वव्यापी है वह एक ही समय यहाँ होगा और वहाँ भी होगा और इसलिये वह दूरस्थ और समीपस्थ भी है। इन दो शब्दों की व्याख्या इस प्रकार भी की जा सकती है कि परमात्मा सर्व नामरूपों की उपाधियों से मुक्त दूरस्थ है किन्तु वही परमात्मा इन नामरूपों में भी समीपस्थ है। श्रीशंकराचार्य अपने भाष्य में लिखते हैं कि यह आत्मा अज्ञानियों को अत्यन्त दूर स्थित हुआ भासता है? जबकि ज्ञानी जन तो उसे अत्यन्त समीप से आत्मरूप से ही अनुभव करते हैं।संक्षेप में? विरोधाभास की भाषा की सुन्दरता से युक्त यह श्लोक उन पाठकों को सहसा जगा देता है? जो केवल बौद्धिक ज्ञान से ही सन्तुष्ट हो जाते हैं। यह श्लोक उन्हें मनन या ध्यान के द्वारा परमात्मा के सर्वव्यापक एवं सर्वातीत स्वरूप का साक्षात् अनुभव करने के लिए प्रेरित करता है।इसी ज्ञेय के विषय में भगवान् आगे कहते है
।।13.16।।ज्ञेयस्यास्तित्वे हेत्वन्तरमाह -- किञ्चेति। तद्धि प्रतिदेहं नभोवदेकं तद्भेदे मानाभावाद्भिन्नत्वे च घटवदनात्मत्वापातादतोऽद्वितीयं सर्वत्र प्रत्यग्भूतं ज्ञेयं नास्तीत्यतिसाहसमित्याह -- अविभक्तं चेति। कथं तर्हि देहादेर्भेदधीरित्याशङ्क्य कल्पनयेत्याह -- भूतेष्विति। तत्र हेतुः -- देहेष्विति। कार्याणां स्थितिहेतुत्वाच्च ज्ञेयमस्तीत्याह -- भूतेति। निमित्तोपादानतया तेषां प्रलये प्रभवे च कारणत्वाच्च तदस्तीत्याह -- प्रलयेति। तर्हि,कार्यकारणत्वस्य वस्तुत्वान्नाद्वैतमित्याशङ्क्याह -- यथेति।
।।13.16।।इतोऽपि ज्ञेयस्य ब्रह्मणोऽस्तित्वं ज्ञातव्यमित्याशयेनाह -- बहिरिति। त्वक्पर्यन्तं देहमात्मत्वेनाविद्याकल्पितमपेक्ष्य तमेवावाधिं कृत्वा बहिरुच्यते। तता प्रत्यगात्मानमपेक्ष्य देहमेवावधिं कृत्वान्तरुच्यते। तथाच भूतेभ्यो बहिर्बाह्यं विषयाद्यात्मकं भूतानां चराचराणामन्तर्मध्ये प्रत्यग्भूतं ज्ञेयमित्यर्थः। मध्ये प्राप्तमभावं वारयति। अचरं चरमेवच। यन्मध्ये भूतात्मकनानाविधदेहात्मना भासमानमपि तदेव ज्ञेयं यता रज्जौ भासमानः सर्पो रज्जुरेव तथासति ज्ञेये भासमानं ज्ञेयमेवेत्यर्थः। यद्येवं तर्हि सर्वैरिदमिति किमर्थं न विज्ञेयमिति चेत्तत्राह। शूक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयं। यथा आम्रादिगते रुपे चक्षुषा दृश्यमानेऽप्ययोग्यत्वात्तत्स्थिं रसादि तेन न दृश्यते तथा सर्वात्मकमपि ज्ञेयं सर्वस्मिञ्ज्ञातेप्याकाशवदतीन्द्रित्वात् तज्ज्ञेयमविज्ञेयम्। एतेन घटादिज्ञानेन ब्रह्मज्ञानमपि स्यात् घटाद्यात्मकत्वाद्ब्रह्मण इति शङ्कापि निरस्ता। अतएवाविदुषां तत्प्राप्तिसाधनशून्यानामविज्ञाततया दूरस्थं वर्षसहस्त्रकोट्याप्यप्राप्यत्वात्। अन्तिके च तत्। विदुषां तुआत्मैवेदं सर्वं ब्रह्मैवेदं सर्वम् इत्यादिप्रमाणतो नित्यविज्ञाततया स्वात्मभूतत्वाद्य्ववधानरहितमित्यर्थः। तथाच श्रुतिःतदेजति तन्नैजति तद्दूरे तद्विन्तिके। तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाह्यतः। दूरात्सुदूरे तदिहान्तिके च पश्यत्स्विहैव निहितं गुहायाम् इत्याद्या।
।।13.16।।नन्वसक्तमसंबद्धं चेत्कथमुपलब्धं स्यादित्याशङ्क्याह -- बहिरिति। भूतानां प्राणिनामेकादशेन्द्रियाणि स्थूलभूतानि च केवलविकारत्वेन व्यवहितत्वात् बहिरित्युच्यन्ते। महदहंकारपञ्चतन्मात्राव्यक्तानि प्रकृतिरूपत्वेन संनिहितत्वादन्तरित्युच्यन्ते। चराचरमिति। उभयनिकृष्टाश्चराचरोपाध्युपलक्षिता अवधिभूताः पुरुषाश्चरमचरं चेत्यनेनोच्यन्ते। तत्र चराचरं ज्ञेयमिति सामानाधिकरण्यात्पुरुषाणां ज्ञेयब्रह्मभाव उक्तः। बहिरन्तश्च ज्ञेयमिति षोडशसु विकारेष्वष्टासु प्रकृतिषु च ज्ञेयस्य संबन्ध उक्तः। स च संबन्धो यादृशो यक्षस्तादृशो बलिरितिन्यायेनाध्यस्तप्रकृतिविकृतिनिरूपितत्वेनाध्यस्त एव। एवं च पुरुषस्योपलब्धिमात्रशरीरस्य गुणैः सहाध्यासिकसंबन्धसत्त्वात् गुणोपलब्धृत्वं युज्यते। यथा प्रकाशमात्रस्वरूपस्य रवेः प्रकाश्यसंबन्धापेक्षं प्रकाशयितृत्वं तद्वदित्यर्थः। ननु नित्यापरोक्षः पुरुषप्रकृतिविकारसंबद्धश्च तर्हि कुतो न सर्वैर्गृह्यत इत्याशङ्क्याह। सूक्ष्मत्वात् दुर्लक्ष्यत्वात्तज्ज्ञेयं। अविज्ञेयं दुर्विज्ञेयम्। यथा जपाकुसुमोपहितस्य स्फटिकस्य शौक्ल्यं सन्निहितमपि रूपान्तरविक्षेपेण तिरोहितं सन्न गृह्यते एवं नित्यापरोक्षमप्यसङ्गं ब्रह्मोपाध्युपधानाद्विविक्ततया न ग्रहीतुं शक्यं किंत्वौपाधिकधर्मोपेतमेव गृह्यते मूढैः। विद्वद्भिस्तूपाधिप्रविलापनेन सुग्रहमित्याशयः। एतदेवाह -- दूरस्थं चान्तिके च तदिति। यथा मूढो जलसूर्यं बिम्बसूर्याद्दूरस्थं मन्यते विद्वांस्तु उपाधिप्रतिहतनयनरश्मीनामुपर्युत्प्लुत्य गतानां बिम्बग्राहित्वं स्पष्टम्। बिम्बस्याधस्थत्वग्रहणं तु पूर्वप्रवृत्ताधोमुखवृत्तिसंस्कारापेक्षमिति जानन् बिम्बदेशे एव प्रतिबिम्बं पश्यति। बिम्बे एव जलस्थत्वमध्यस्य तेन तु जले प्रतिबिम्ब इति। उपाधौ धर्म्यध्यासकल्पनातो विषयस्योपाधिसंसर्गमात्राध्यासकल्पने लाघवात्। एवं बिम्बभूतं ब्रह्म प्रतिबिम्बभूताज्जीवान्मूढानां विप्रकृष्टं विदुषां त्वत्यन्तं संनिकृष्टमिति।
।।13.16।।देवमनुष्यादिभूतेषु सर्वत्र स्थितम् आत्मवस्तु वेदितृत्वैकाकारतया अविभक्तम् अविदुषां देवाद्याकारेणअयं देवो मनुष्यः इति विभक्तम् इव च स्थितम्।देवः अहम् मनुष्यः अहम् इति देहसामानाधिकरण्येन अनुसंधीयमानम् अपि वेदितृत्वेन देहाद् अर्थान्तरभूतं ज्ञातुं शक्यम् इति आदौ उक्तम्एतद् यो वेत्ति (गीता 13।1) इति।इदानीं प्रकारान्तरैः च देहाद् अर्थान्तरत्वेन ज्ञातुं शक्यम् इति आह -- भूतभर्तृ च इति।भूतानां पृथिव्यादीनां देहरूपेण संहृतानां यद् भर्तृ तद् भर्तव्येभ्यो भूतेभ्यः अर्थान्तरं ज्ञेयम्? अर्थान्तरम् इति ज्ञातुं शक्यमित्यर्थः। तथा ग्रसिष्णु अन्नादीनां भौतिकानां ग्रसिष्णु? ग्रस्यमानेभ्यो भूतेभ्यो ग्रसितृत्वेन अर्थान्तरभूतम् इति ज्ञातुं शक्यम्।प्रभविष्णु च प्रभवहेतुः च। ग्रस्तानामन्नादीनाम् आकारान्तरेण परिणतानां प्रभवहेतुः तेभ्यः अर्थान्तरम् इति ज्ञातुं शक्यम् इत्यर्थः।मृतशरीरे ग्रसनप्रभवादीनाम् अदर्शनात् न भूतसंघातरूपं क्षेत्रं ग्रसनप्रभवभरणहेतुः इति निश्चीयते।
।।13.16।।किंच -- बहिरिति। भूतानां चराचराणां स्वकार्याणां बहिश्चान्तश्च तदेव सुवर्णमिव कटककुण्डलादीनाम्? जलतरङ्गाणामन्तर्बहिश्च जलमिव? अचरं स्थावरं चरं जङ्गमं यद्भूतजातं तदेव? कारणात्मकत्वात्कार्यस्य? एवमपि सूक्ष्मत्वाद्रूपादिहीनत्वात्तदविज्ञेयमिदं तदिति स्पष्टज्ञानार्हं न भवति। अतएवाविदुषां योजनलक्षान्तरितमिव? दूरस्थं च? सविकारायाः प्रकृतेः परत्वात्। विदुषां पुनः प्रत्यगात्मत्वादन्तिके च तन्नित्यं संनिहितम्। तथाच मन्त्रःतदेजति तन्नैजति तद्दूरे तद्वन्तिके। तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाह्यतः इति। एजति चलति नैजति न चलति तत् उ अन्तिके इति च्छेदः।
।।13.16।।सशरीरत्वावस्थायां हि भूतान्तर्वृत्तिरिति मुक्तस्याशरीरत्वात्तद्बहिर्वृत्तिर्युक्ता तदन्तर्वृत्तिस्तु कथं इत्यत्राह -- जक्षन्निति। स्वच्छन्दवृत्तिषु तेषामन्तश्च वर्तत इत्यन्वयः। न चैतत्कर्मकृतं सशरीरत्वं स्वेन रूपेणाभिनिष्पद्यते [छां.उ.8।12।2] इत्याविर्भूतस्वरूपस्य तदुक्तेः? तस्य च विधूतपुण्यपापत्वात्स्वराड्भवति [छां.उ.7।25।2] इति वचनाच्च। तदेतदभिप्रेत्य -- स्वच्छन्दवृत्तिष्वित्युक्तम्। स यदि पितृलोककामो भवति [छां.उ.8।2।1] इमान् लोकान् कामान्नी कामरूप्यनुसञ्चरन् [तै.उ.3।10।5] इत्यादिकमादिशब्देन गृह्यते। स्वरूपतो निर्विकारस्यात्मनस्त्रिधाभावादिकं जक्षणादिकं पितृलोकादिकं च शरीरपरिग्रहमन्तरेण नोपपद्यते शरीरं चास्य प्राकृतानामप्राकृतानां वा भूतानां सङ्घात एवेति भूतान्तर्वर्तित्वं सिद्ध्यतीत्यभिप्रायः। अचरत्वचरत्वयोर्न चराचरान्तरत्वे शुद्धावस्थायामन्वयः अतोबहिरन्तः इत्युक्तसशरीरत्वाशरीरत्वे तत्र हेतू इति दर्शयति -- स्वभावतोऽचरं चरं च देहित्व इति। पादाद्यधीनसञ्चारतदभावाविह विवक्षितौ। योग्यानुपलम्भबाधपरिहारायोच्यतेसूक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयमिति। अहमिति नित्यमुपलभ्यमानस्य अविज्ञेयत्वं केनाकारेण इत्यत्राह -- एवं सर्वशक्तियुक्तं सर्वज्ञमिति। तच्छब्दपरामृष्टोऽयमर्थः। योग्यत्वशङ्कासूचनाय दूरत्वाद्यनुपलम्भकारणान्तराभावोपलक्षणतयाअस्मिन् क्षेत्रे वर्तमानमपीत्युक्तम्। पृथिव्याद्यपेक्षया सूक्ष्माणामपि वाय्वादीनां पृथगुपलम्भोऽस्तीति तद्व्युदासायोक्तंअतिसूक्ष्मत्वादिति।अहं जानामि इत्यात्मोपलम्भे सत्यपि विविच्य ज्ञातुमशक्यत्वमविज्ञेयत्वमिति सोपसर्गनिषेधेन विवक्षितमिति दर्शयितुंदेहात्पृथक्त्वेनेत्युक्तम्। पृथक्त्वस्य सर्वदा सर्वैरनुपलम्भे शशश्रृङ्गादिवदप्रामाणिकत्वमेव स्यात्? योगाभ्यासविधानस्य च निरर्थकत्वं स्यादित्यत्रोक्तंसंसारिभिरिति। योगिनामपि मुक्तवदविच्छिन्नविशदतमप्रत्ययाभावात्संसारिभिरिति सामान्येनोक्तम्। यद्वा योगविरहिता इह संसारिशब्देन विवक्षिताः? योगिनामासन्नमोक्षत्वेन मुक्तप्रायत्वात्।दूरस्थं चान्तिके च तत् इत्यनेन न व्याप्तिर्विवक्षिता? तस्याःसर्वमावृत्य तिष्ठति [13।14] इति प्रागेवोक्तत्वात् अतोऽत्र सूक्ष्मत्वात्संसारिभिरविज्ञेयस्य कथं तैरेव विज्ञातव्यत्वविधिः इति शङ्काव्युदासायाधिकारिभेदेन दुर्ग्रहत्वसुग्रहत्वपरत्वमाह -- अमानित्वादिति।
।।13.13 -- 13.18।।एतेन ज्ञानेन यत् ज्ञेयं तदुच्यते -- ज्ञेयमित्यादि विष्ठितमित्यन्तम्। अनादिमत् परं ब्रह्म इत्यादिभिर्विशेषणैः ब्रह्मस्वरूपाक्षेपानुग्राहकं,(S -- स्वरूपापेक्षानु -- ) सर्वप्रवादाभिहितविज्ञानापृथग्भावं कथयति (S??N सर्वप्रवादान्तराभिहितपृथग्भावकमुच्यते)। एतानि च विशेषणानि पूर्वमेव व्याख्यातानि इति किं निष्फलया,पुनरुक्त्या।
।।13.16।।भूतानां भवनधर्माणां सर्वेषां कार्याणां कल्पितानामकल्पितमधिष्ठानमेकमेव। बहिरन्तश्च रज्जुरिव स्वकल्पितानां सर्पधारादीनां सर्वात्मना व्यापकमित्यर्थः। अतएव अचरं स्थावरं चरं जङ्गमं च भूतजातं तदेव अधिष्ठानात्मकत्वात्। कल्पितानां न ततः किंचिद्व्यतिरिच्यत इत्यर्थः। एवं सर्वात्मकत्वेपि सूक्ष्मत्वाद्रूपादिहीनत्वात्तदविज्ञेयं इदमेवमिति स्पष्टज्ञानार्हं न भवति। अतएवात्मज्ञानसाधनशून्यानां वर्षसहस्रकोट्याप्यप्राप्यत्वात्। दूरस्थं च योजनलक्षकोट्यन्तरितमिव तत्। ज्ञानसाधनसंपन्नानां तु अन्तिके च तदत्यन्तव्यवहितमेव आत्मत्वात्।दूरात्सुदूरे तदिहान्तिके च पश्यत्स्विहैव निहितं गुहायाम् इत्यादिश्रुतिभ्यः।
।।13.16।।एवं भोगकर्तृत्वे व्यापकत्वं बाध्यत इत्यत आह -- बहिरिति। भूतानां चराचराणां बहिः भोक्तृत्वेन? अन्तस्तद्रूपेणात्मरूपेण वा तदेव? एवं बहिरन्तस्स्थत्वे सति भिन्नत्वेन व्यापकत्वहानिमाशङ्क्याह -- अचरं स्थावरं? चरमेव च जङ्गमं च। एवकारेण स्थावरत्वसहितमेव जङ्गमत्वं जङ्गमत्वसहितमेव स्थावरत्वं? तेन विरुद्धधर्माश्रयत्वं ज्ञापितम्। एवं सति सर्वज्ञेयत्वमेव स्यात्। पूर्वोक्तसाधनवत्सु को विशेषः इत्यत आह -- सूक्ष्मत्वादिति। तत् ब्रह्म तत्र तत्र लीलार्थरूपेण सूक्ष्मत्वात् साधनाभावे अविज्ञेयं विशेषेण ज्ञातुमशक्यमित्यर्थः। एतदेवाह दूरस्थं चान्तिके च तत्? बहिर्मुखानां दूरस्थं? भक्तानां च अन्तिके निकटे स्थितमित्यर्थः। चकारद्वयेनैतदुभयस्याऽपि लीलात्मकत्वं ज्ञापितम्। यद्वामर्यादास्थानां दूरस्थं? पुष्टिस्थानामन्तिके स्थितम्। यद्वा पुष्टिमार्गीयाणामेव विरहदशायामतितापेन पुरस्कृतं तच्च विरहरीत्या दूरस्थमेव? अन्तिके हृदये परोक्षरीत्या। तदज्ञानेन तज्जीवनार्थं निकटे च स्थितम्।मया परोक्षं भजता तिरोहितम् [भाग.10।32।21] इति रीत्येति भावः।
।।13.16।। -- बहिः त्वक्पर्यन्तं देहम् आत्मत्वेन अविद्याकल्पितम् अपेक्ष्य तमेव अवधिं कृत्वा बहिः उच्यते। तथा प्रत्यगात्मानमपेक्ष्य देहमेव अवधिं कृत्वा अन्तः उच्यते। बहिरन्तश्च इत्युक्ते मध्ये अभावे प्राप्ते? इदमुच्यते -- अचरं चरमेव च? यत् चराचरं देहाभासमपि तदेव ज्ञेयं यथा रज्जुसर्पाभासः। यदि अचरं चरमेव च स्यात् व्यवहारविषयं सर्वं ज्ञेयम्? किमर्थम् इदम् इति सर्वैः न विज्ञेयम् इति उच्यते -- सत्यं सर्वाभासं तत् तथापि व्योमवत् सूक्ष्मम्। अतः सूक्ष्मत्वात् स्वेन रूपेण तत् ज्ञेयमपि अविज्ञेयम् अविदुषाम्। विदुषां तु? आत्मैवेदं सर्वम् (छा0 उ0 7।25।2) ब्रह्मैवेदं सर्वम् (बृ0 उ0 2।5।1) इत्यादिप्रमाणतः नित्यं विज्ञातम्। अविज्ञाततया दूरस्थं वर्षसहस्रकोट्यापि अविदुषाम् अप्राप्यत्वात्। अन्तिके च तत्? आत्मत्वात् विदुषाम्।।किञ्च --,
।।13.16।।तस्यैव प्रपञ्चात्मकतामाह -- अचरं चरमेव चेति।द्विरूपं तद्धि सर्वं स्यादेकं तस्माद्विलक्षणम् इति। अचरं जडं तत्। सदेव सोम्येदमग्र आसीत् [छां.उ.6।2।1] इति सर्वं खल्विदं ब्रह्म [छा.उ.3।14।1] इत्यादिश्रुतेः। चरं जङ्गमं जीवरूपं च तत्त्वमसि श्वेतकेतो [छां.उ.6.816] इति श्रुतेः सूक्ष्मत्वादविज्ञेयं तत् दूरस्थमन्तिके च तत्। तथा च मन्त्रः तदेजति तन्नैजति तद्दूरे तद्व(द)न्तिके। तदन्तर(म)स्य सर्वस्य तदु सर्वस्य बाह्यं (बाह्यतः) [ईशो.5] इति।