यावत्सञ्जायते किञ्चित्सत्त्वं स्थावरजङ्गमम्।क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात्तद्विद्धि भरतर्षभ।।13.27।।
yāvat sañjāyate kiñchit sattvaṁ sthāvara-jaṅgamam kṣhetra-kṣhetrajña-sanyogāt tad viddhi bharatarṣhabha
Wherever a being is born, whether unmoving or moving, know thou, O best of the Bharatas (Arjuna), that it is from the union of the field and its knower.
13.27 यावत् whatever? सञ्जायते is born? किञ्चित् any? सत्त्वम् being? स्थावरजङ्गमम् the unmoving and the moving? क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात् from the union between the field and the knower of the field? तत् that? विद्धि know? भरतर्षभ O best of the Bharatas.Commentary O Arjuna? remember that whatever is born? unmoving or moving? know thou that to be done to the union between the body and the Self.The knower of the field is like the ether without parts. Therefore? there cannot be a union of the field and the knower of the field through contact of each others parts like the contact of the drum and the stick or a rope and a vessel. There cannot be the inseparable connection between them like the connection that exists between the head and the neck? or the arm and the shoulder? because the field and its knower are not related to each other as cause and effect.Then? what sort of union is there between the field and its knower It is of the nature of mutual superimposition or illusion. This consists in confounding the one with the other as well as their attributes? like the union of a rope with a snake? and motherofpearl with silver? on account of lack of discrimination of their real nature. The attributes of the Self are transferred to the body and vice versa. The insentient body is mistaken for the sentient Self. The activities of the body or Nature are transferred to the silent? actionless Self. This sort of illusion or superimposition will disappear when one attains knowledge of the Self? when he is able to separate the field from the knower like the reed from the Munja grass? when he realises that Brahman which is free from all limiting adjuncts is his own immortal Self? and that the field is a mere appearance like the snake in the rope? silver in motherofpearl? an imaginary city in the sky? and is like an object seen in a dream or like the horses? places and forests projected by ajuggler. A sage who has the knowledge of the Self is not born again.
।।13.27।। व्याख्या -- यावत्संजायते ৷৷. क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात् -- स्थिर रहनेवाले वृक्ष? लता? दूब? गुल्म? त्वक्सार? बेंत? बाँस? पहाड़ आदि जितने भी स्थावर प्राणी हैं और चलनेफिरनेवाले मनुष्य? देवता? पशु? पक्षी? कीट? पतंग? मछली? कछुआ आदि जितने भी जङ्गम (थलचर? जलचर? नभचर) प्राणी हैं? वे सबकेसब क्षेत्र और क्षेत्रज्ञके संयोगसे ही पैदा होते हैं।उत्पत्तिविनाशशील पदार्थ क्षेत्र हैं और जो इस क्षेत्रको जाननेवाला? उत्पत्तिविनाशरहित एवं सदा एकरस रहनेवाला है? वह क्षेत्रज्ञ है। उस क्षेत्रज्ञ(प्रकृतिस्थ पुरुष)का जो शरीरके साथ मैंमेरेपनका सम्बन्ध मानना है -- यही क्षेत्र और क्षेत्रज्ञका संयोग है। इस माने हुए संयोगके कारण ही इस जीवको स्थावरजङ्गम योनियोंमें जन्म लेना पड़ता है। इसी क्षेत्रक्षेत्रज्ञके संयोगको पहले इक्कीसवें श्लोकमें,गुणसङ्गः पदसे कहा है। तात्पर्य यह हुआ कि निरन्तर परिवर्तनशील प्रकृति और प्रकृतिके कार्य शरीरादिके साथ तादात्म्य कर लेनेसे स्वयं जीवात्मा भी अपनेको जन्मनेमरनेवाला मान लेता है।[स्थावरजङ्गम प्राणियोंके पैदा होनेकी बात तो यहाँ संजायते पदसे कह दी और उनके मरनेकी बात आगेके श्लोकमें विनश्यत्सु पदसे कहेंगे।]तद्विद्धि भरतर्षभ -- यह क्षेत्रज्ञ क्षेत्रके साथ अपना सम्बन्ध मानता है? इसीसे इसका जन्म होता है परन्तु जब यह शरीरके साथ अपना सम्बन्ध नहीं मानता? तब इसका जन्म नहीं होता -- इस बातको तुम ठीक समझ लो। सम्बन्ध -- पूर्वश्लोकमें भगवान्ने बताया कि क्षेत्र(शरीर) के साथ सम्बन्ध रखनेसे? उसकी तरफ दृष्टि रखनेसे यह पुरुष जन्ममरणमें जाता है? तो अब प्रश्न होता है कि इस जन्ममरणके चक्करसे छूटनेके लिये उसको क्या करना चाहिये इसका उत्तर भगवान् आगेके श्लोकमें देते हैं।
।।13.27।। क्षेत्र (प्रकृति) और क्षेत्रज्ञ (पुरुष) इन दोनों में ही स्वतन्त्र रूप से कोई एक ही तत्त्व इस चराचर जगत् का कारण नहीं है। इन दोनों के संयोग से जगत् उत्पन्न होता है परन्तु इन दोनों का संयोग वास्तविक नहीं? वरन् अन्योन्य धर्म अध्यासरूप है।अध्यास की प्रक्रिया में विद्यमान अधिष्ठान पर भ्रान्ति से किसी अन्य वस्तु की ही कल्पना की जाती है? जैसे स्तम्भ में प्रेत का अध्यास। इस प्रकार के अध्यास में? भ्रान्त व्यक्ति स्तम्भ में वस्तुत अविद्यमान प्रेत के रूप? गुण और क्रियाओं को देखता है। यह स्तम्भ पर प्रेत के धर्म का अध्यास है। इसी प्रकार? स्वयं अविद्यमान होते हुए भी जो प्रेत उस व्यक्ति को सद्रूप अर्थात् है इस रूप में प्रतीत हो रहा होता है? उसकी सत्ता वस्तुत स्तम्भ की ही होती है। यह है स्तम्भ के अस्तित्व के धर्म का प्रेत पर आरोप। गुणों के इस परस्पर अध्यास के कारण विचित्र बात यह होती है कि व्यक्ति को मिथ्या प्रेत तो दिखाई पड़ता है? परन्तु सत्य स्तम्भ नहीं मन की यह विचित्र युक्ति अध्यास कहलाती है। शुद्ध चैतन्य में क्षेत्र का सर्वथा अभाव है। क्षेत्र की अपनी न सत्ता है और न चेतनता। परन्तु? परस्पर विचित्र संयोग से इस चराचर जगत् की उत्पत्ति हुई प्रतीत होती है।इस अध्यास के कार्य को हम अपने में ही अनुभव कर सकते हैं। विचार करने पर विविधता पूर्ण सृष्टि निवृत्त हो जाती है और हमें यह ज्ञात होता है कि ब्रह्म ही वह परम सत्य अधिष्ठान है? जिस पर प्रकृति और पुरुष की क्रीड़ा हो रही है।उदाहरणार्थ? कोई एक व्यक्ति सामान्यत शान्त प्रकृति का है। परन्तु यदाकदा उसके मन में प्रबल कामना का उदय होता है। उस कामना से तादात्म्य करने के फलस्वरूप वह व्यक्ति कामुक बनकर ऐसा निन्द्य कर्म करता है? जिसका उसे पश्चात्ताप होता है इस उदाहरण में? कामना? कामुक व्यक्ति? पश्चात्ताप इन सबका अस्तित्व उस व्यक्ति में ही निहित होता है। यद्यपि वे उसमें हैं? किन्तु वस्तुत वह उसमें नहीं होता क्योंकि? उनके बिना भी उस व्यक्ति का अस्तित्व बना रहता है। तथापि? उस कामना वृत्ति से तादात्म्य करके वह पश्चात्ताप के योग्य कर्मों का कर्ता बन जाता है। इसी प्रकार? आत्मा परिपूर्ण होने के कारण उसमें क्षेत्र या अनात्मा की संभावना रहती है। प्रकृति को व्यक्त कर उसके साथ तादात्म्य से वह जीवरूप पुरुष बन जाता है। यह पुरुष मिथ्या आसक्तियों के द्वारा अपने संसार को बनाये रखता है। इस स्थिति में स्वयं को मुक्त कर अपने पूर्ण स्वरूप का साक्षात्कार करने का यही उपाय है कि हम आत्मा और अनात्मा का प्रमाण पूर्वक विवेक करें और प्रकृति से विलग होकर उसके कार्यों के साक्षी बनकर रहें।विवेक द्वारा प्राप्त सम्यक् दर्शन को अगले श्लोक में बताते हैं
।।13.27।।उत्तरग्रन्थमवतारयितुं व्यवहितं वृत्तं कीर्तयति -- नेत्यादिना। अविद्यानाद्यनिर्वाच्यमज्ञानं मिथ्याज्ञानं तत्संस्कारश्चादिशब्दार्थः। व्यवहितमनूद्याव्यवहितमनुवदति -- जन्मेति। व्यवधानाव्यवधानाभ्यां सर्वानर्थमूलत्वादज्ञानस्य तन्निवर्तकं सम्यग्ज्ञानं वक्तव्यमित्याह -- अत इति। तस्यासकृदुक्तत्वात्तदुक्तार्थप्रवृत्तिर्वृथेत्याशङ्क्यातिसूक्ष्मार्थस्य शब्दभेदेन पुनःपुनर्वचनमधिकारिभेदानुग्रहायेति मत्वाह -- उक्तमिति। सर्वत्र परस्यैकत्वान्नोत्कर्षापकर्षवत्त्वमित्याह -- सममिति। परमत्वमीश्वरत्वं चोपपादयति -- देहेति। आत्मा जीवस्तमित्यादीनान्वयोक्तिः। आश्रयनाशादाश्रितस्यापि नाशमाशङ्क्याह -- तं चेति। अविनश्यन्तमिति विशिनष्टीति संबन्धः। उभयत्र विशेषणद्वयस्य तात्पर्यमाह -- भूतानामिति। नाशानाशाभ्यां वैलक्षण्येऽपि कथमत्यन्तवैलक्षण्यं सविशेषत्वभिन्नत्वयोस्तुल्यत्वादिति शङ्कते -- कथमिति। भूतानां सविशेषत्वादिभावेऽपि परस्य तदभावादत्यन्तवैलक्षण्यमिति वक्तुं जन्मनो भावविकारेष्वादित्वमाह -- सर्वेषामिति। तत्र हेतुमाह -- जन्मेति। नहि जन्मान्तरेणोत्तरे विकारा युज्यन्ते जन्मवतस्तदुपलम्भादित्यर्थः। विनाशानन्तरभाविनोऽपि विकारस्य कस्यचिदुपपत्तेर्न तस्यान्त्यविकारत्वमित्याशङ्क्याह -- विनाशादिति। तस्यान्त्यविकारत्वे सिद्धे फलितमाह -- अत इति। तेषां जन्मादीनां कार्याणि कादाचित्कसत्त्वानि तदधिकरणानि तैः सहेति यावत्। परमेश्वरस्य भूतेभ्योऽत्यन्तवैलक्षण्यमुक्तमुपसंहरति -- तस्मादिति। निर्विशेषत्वं सर्वभावविकारविरहितत्वं कूटस्थत्वमेकत्वमद्वितीयत्वम्। यः पश्यतीत्यादि व्याचष्टे -- य एवमिति। उक्तविशेषणमीश्वरं पश्यन्नेव पश्यतीत्युक्तमाक्षिपति -- नन्विति। ईश्वरपराङ्मुखस्यानात्मनिष्ठस्य तद्दर्शित्वेऽपि विपरीतदर्शित्वादीश्वरप्रवणस्यैव सम्यग्दर्शित्वमिति विवक्षित्वा विशेषणमिति परिहरति -- सत्यमिति। उक्तमेव दृष्टान्तेन विवृणोति -- यथेत्यादिना। यः पश्यतीत्यादेरर्थमुपसंहरति -- इतर इति। परवस्तुनिष्ठेभ्यो व्यतिरिक्ता इत्यर्थः।
।।13.27।।अत्र क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धीति क्षेत्रज्ञेश्वरैकत्वविषयं ज्ञानं मोक्षसाधनं यज्ज्ञात्वामृतमश्रुत इत्युक्तं तत्र हेतुमाह -- यावदिति। यत्किंचित्सत्त्वं वस्तु स्थावरजंगमं संजायते समुत्पद्यते तत्सर्वं क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोः संयोगाज्जायत इत्येवं विद्धि जानीहि। एतज्ज्ञातुं योग्योऽसीति सूचयन्नाह -- हे भरतर्षभेति। ननु क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोः संयोगादिति भगवतोक्तं न संगच्छते,क्षेत्रस्याकाशवन्निरवयवत्वेन क्षेत्रेण रज्जवेव घटस्यावयवसंश्लेषद्वारकस्य संबन्धविशेषस्य संयोगस्यासंभवात्। तन्तुपटयोरिव क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरितरेतरकार्यकारणभावानभ्युपगमेन लक्षणया समवायलक्षणस्याप्यसंभवात्। तमः प्रकाशवद्विस्वभावयोस्तादात्म्यासंभवाच्चेति? चेन्न। रज्जुशुक्तिकादीनां तद्विवेकज्ञानाभावादध्यारोपितसर्परजतादिसंयोगवत् विषयविषयिणोर्भिन्नस्वभावयोः क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरितरेतरतद्धर्माध्यासलक्षणस्य संयोगस्य क्षेत्रक्षेत्रज्ञस्वरुपविवेकाभावनिबन्धनस्य संभवात्। तथाच यथाशास्त्रं मुञ्जादिवेषीकां यथोक्तलक्षणात्क्षेत्रात् यथोक्तलक्षणं क्षेत्रज्ञं विभज्य निरस्तसर्वोपाधिमीश्वराभिन्नं यः पश्यति क्षेत्रं च मायानिर्मितहस्तिस्वप्नद्रष्टवस्तुगन्धर्वनगरद्विचन्द्ररज्जूरगवदसदेव सदिवाभासत इत्येवं निश्चितविज्ञानी यस्तस्य सभ्यग्दर्शनेन जन्महेतोः मिथ्याज्ञानस्यापगमान्मोक्ष उपपद्यते नत्वन्यस्येत्यतो युक्तमुक्तं य एवं वेत्तीत्यादि।
।।13.27।।पुनश्च प्रकृतपुरुषेश्वरस्वरूपं साम्यादिधर्मयुक्तमाह -- यावदित्यादिना।
।।13.27।।पूर्वं कार्यकारणकर्तृत्वे इत्यत्र चिदचितोः पुंप्रकृत्योरन्योन्यधर्माध्यास उक्तस्तस्यैव गुणसङ्गरूपस्य कारणं गुणसङ्गोऽस्येति नानाजन्महेतुत्वं चोक्तं तद्विशदयति -- यावदिति। सत्त्वं जीवरूपम्। गुणसङ्गोऽत्र रूपाद्यासक्तिर्न किंतु क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोः संयोगोऽन्योन्यस्मिन्नन्योन्यात्मकताध्यासलक्षणो बोध्यः। शेषं स्पष्टम्।
।।13.27।।एवम् इतरेतरयुक्तेषु सर्वेषु भूतेषु देवादिविषमाकाराद् वियुक्तं तत्र तत्र तत्तद्देहेन्द्रियमनांसि प्रति परमेश्वरत्वेन स्थितम् आत्मानं ज्ञातृत्वेन समानाकारं तेषु देहादिषु विनश्यत्सु विनाशानर्हस्वभावेन अविनश्यन्तं यः पश्यति? स पश्यति? स आत्मानं यथावद् अवस्थितं पश्यति। यस्तु देवादिविषमाकारेण आत्मानम् अपि विषमाकारं जन्मविनाशादियुक्तं च पश्यति स नित्यम् एव संसरति इति अभिप्रायः।
।।13.27।। तत्र कर्मयोगस्य तृतीयचतुर्थपञ्चमेषु प्रपञ्चितत्वात्? ध्यानयोगस्य च षष्ठाष्टमयोः प्रपञ्चितत्वात्? ध्यानादेश्च सांख्यविविक्तात्मविषयत्वात्सांख्यमेव प्रपञ्चयन्नाह -- यावदित्यादि। यावदध्यायसमाप्ति। यावत्किंचिद्वस्तुमात्रं सत्त्वमुत्पद्यते तत्सर्वं क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्योगात् अविवेककृतात्तादात्म्याध्यासाद्भवतीति जानीहि।
।।13.27।।एवमात्मदर्शनमुक्तं? तदर्थंसमं सर्वेषु इत्यादिभिः श्लोकैः प्रकृतिपुरुषयोर्विवेकानुसन्धानप्रकारो वक्ष्यते। स चाविविक्तप्रतीतौ सत्यामेवोपदेष्टव्यः? अन्यथा निष्प्रयोजनत्वात्। सा च न दोषमन्तरेण घटते स च दोषोऽत्र भोक्तृत्वभोगायतनत्वनिर्वाहकः संसर्गविशेषः तदिदंयावत् सञ्जायते इति श्लोकेनोच्यत इति सङ्गतिमाहअथेति। सर्वशब्देन यावच्छब्दस्यात्र साकल्यपरत्वमुक्तम्। यावच्छब्दस्य यच्छब्दार्थत्वेन व्याख्यानमवाचकत्वान्मन्दप्रयोजनत्वाच्चायुक्तमिति भावः। सत्त्वशब्दोऽत्र जन्तुपरःद्रव्यासुव्यवसायेषु सत्त्वमस्त्री तु जन्तुषु [अमरः3।3।212] इति पाठात्। वृक्षगुल्मलतावीरुत्तृणादिषु चैतन्यविकासाभावमात्रेण जैनप्रक्रियया केवलाचेतनत्वशङ्कानिरासायात्र स्थावरशब्दः। स्थावरजङ्गमत्वयोर्बाल्ययौवनवार्धकादिवदयावच्छरीरभावित्वाभावज्ञापनायस्थावरजङ्गमात्मनेत्युक्तम्। क्षेत्रक्षेत्रज्ञाभ्यां सहान्यस्य संयोगशङ्काव्युदासायोक्तंइतरेतरसंयोगादिति। विधेयांशं दर्शयितुंसंयोगादेवेत्युक्तम्। मातापितृसंसर्गात् पुत्रोत्पत्तिवत्क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात्ततोऽन्यत्सत्त्वं जायेतेत्यत्राह -- संयुक्तमेवेति। पृथक्सिद्धप्रसिद्धक्षेत्रक्षेत्रिसम्बन्धव्यवच्छेदायाहनत्विति।तद्विद्धि [4।34] इति तच्छब्देन जन्मनः परामर्शः।
।।13.27।।यावदिति। यत्किंचित् चरम् अचरं च तत् सर्वं क्षेत्रज्ञातिरेकि न संभवतीति।
।।13.27।।तत्क्षेत्रं यच्च [13।4] इत्यादिना प्रतिज्ञातस्य सर्वस्योक्तत्वात्किमुत्तरेण इत्यत आह -- पुनश्चेति। उक्तस्य पुनर्वचने को हेतुः इत्यत उक्तं साम्यादीति। ईश्वरधर्मस्योभयधर्मात्प्राधान्येन साम्यग्रहणम्? तच्च प्रकृतिपुरुषधर्मकथनं यादृगिति प्रतिज्ञातेऽन्तर्भवति ईश्वरधर्मकथनं च यत्प्रभाव इति।
।।13.27।।संसारस्याविद्यकत्वाद्विद्यया मोक्ष उपपद्यत इत्येतस्यार्थस्यावधारणाय संसारतन्निवर्तकज्ञानयोः प्रपञ्चः क्रियते यावदध्यायसमाप्ति। तच्चकारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु इत्येतत्प्रागुक्तं विवृणोति -- यावदिति। यावत्किमपि सत्त्वं वस्तु संजायते स्थावरं जङ्गमं वा तत्सर्वं क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगादविद्यातत्कार्यात्मकं जडमनिर्वचनीयं सदसत्त्वं दृश्यजातं क्षेत्रं तद्विलक्षणं तद्भासकं स्वप्रकाशपरमार्थं सच्चैतन्यमसङ्गोदासीनं निर्धर्मकमद्वितीयं क्षेत्रज्ञं तयोः संयोगो मायावशादितरेतराविवेकनिमित्तो मिथ्यातादात्म्याध्यासः सत्यानृतमिथुनीकरणात्मकः तस्मादेव संजायते तत्सर्वं कार्यजातमिति विद्धि। हे भरतर्षभ? अतः स्वरूपाज्ञाननिबन्धनः संसारः स्वरूपज्ञानाद्विनष्टुमर्हति स्वप्नादिवदित्यभिप्रायः।
।।13.27।।एतेषु पूर्वोक्तप्रकारेषु किमुत्तमम् अथ च कथं ज्ञेयम् इत्यत आह -- यावदिति। यावद्वस्तुमात्रं स्थावरजङ्गमं तत् क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोः पूर्वोक्तस्वरूपयोगात् क्रीडार्थकमत्संयोगात् सत्त्वं सत्त्वात्मकं विद्धि जानीहि। भरतर्षभ इतिसम्बोधनं तदर्थज्ञानयोग्यत्वाय।
।।13.27।। --,यावत् यत् किञ्चित् संजायते समुत्पद्यते सत्त्वं वस्तु किम् अविशेषेण नेत्याह -- स्थावरजङ्गमं स्थावरं जङ्गमं च क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात् तत् जायते इत्येवं विद्धि जानीहि भरतर्षभ।।कः पुनः अयं क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोः संयोगः अभिप्रेतः न तावत् रज्ज्वेव घटस्य अवयवसंश्लेषद्वारकः संबन्धविशेषः संयोगः क्षेत्रेण क्षेत्रज्ञस्य संभवति? आकाशवत् निरवयवत्वात्। नापि समवायलक्षणः तन्तुपटयोरिव क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोः इतरेतरकार्यकारणभावानभ्युपगमात् इति? उच्यते -- क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोः विषयविषयिणोः भिन्नस्वभावयोः इतरेतरतद्धर्माध्यासलक्षणः संयोगः क्षेत्रक्षेत्रज्ञस्वरूपविवेकाभावनिबन्धनः? रज्जुशुक्तिकादीनां तद्विवेकज्ञानाभावात् अध्यारोपितसर्परजतादिसंयोगवत्। सः अयं अध्यासस्वरूपः क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगः मिथ्याज्ञानलक्षणः। यथाशास्त्रं क्षेत्रक्षेत्रज्ञलक्षणभेदपरिज्ञानपूर्वकं प्राक् दर्शितरूपात् क्षेत्रात् मुञ्जादिव इषीकां यथोक्तलक्षणं क्षेत्रज्ञं प्रविभज्य न सत्तन्नासदुच्यते इत्यनेन निरस्तसर्वोपाधिविशेषं ज्ञेयं ब्रह्मस्वरूपेण यः पश्यति? क्षेत्रं च मायानिर्मितहस्तिस्वप्नदृष्टवस्तुगन्धर्वनगरादिवत् असदेव सदिव अवभासते इति एवं निश्चितविज्ञानः यः? तस्य यथोक्तसम्यग्दर्शनविरोधात् अपगच्छति मिथ्याज्ञानम्। तस्य जन्महेतोः अपगमात् य एवं वेत्ति पुरुषं प्रकृतिं च गुणैः सह (गीता 13।23) इत्यनेन विद्वान् भूयः न अभिजायते इति यत् उक्तम्? तत् उपपन्नमुक्तम्।।न स भूयोऽभिजायते इति सम्यग्दर्शनफलम् अविद्यादिसंसारबीजनिवृत्तिद्वारेण जन्माभावः उक्तः। जन्मकारणं च अविद्यानिमित्तकः क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगः उक्तः अतः तस्याः अविद्यायाः निवर्तकं सम्यग्दर्शनम् उक्तमपि पुनः शब्दान्तरेण उच्यते --,
।।13.27।।अथ साङ्ख्यरीत्या प्रकृतिसंसृष्टस्यात्मनो विवेकानुसन्धानप्रकारं वक्तुं स्थावरजङ्गमं च सत्त्वं सच्चित्संसर्गजमित्याह -- यावदिति। सत्त्वं भूतमात्रं स्थावरं जङ्गमं च जायते तत् क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोः सम्बन्धात्उभययुजा भवन्त्यसुभृतो जलबुद्बुदवत् [भाग.10।87।31] इति वाक्यात्। क्षेत्रात्मनोरन्योन्यसंयोगादिह जायते संयुक्तावेव? नेतरेतरवियुक्तावित्यर्थः।