शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वरः।गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात्।।15.8।।
śharīraṁ yad avāpnoti yach chāpy utkrāmatīśhvaraḥ gṛihītvaitāni sanyāti vāyur gandhān ivāśhayāt
When the Lord, as the individual soul, obtains a body and when He leaves it, He takes these with Him, just as the wind takes the scents from their seats (flowers, etc.).
15.8 शरीरम् a body? यत् when? अवाप्नोति obtains? यत् when? च and? अपि also? उत्क्रामति leaves? ईश्वरः the Lord? गृहीत्वा taking? एतानि these? संयाति goes? वायुः the wind? गन्धान् the scents? इव as? आशयात् from (their) seats (the flowers).Commentary Here is a description of how the subtle body leaves the gross body.When the Jiva? the Lord of the aggregate of the body and the rest takes up this body he brings in with him the mind and the senses when he leavs the body at its dissolution he takes with him the senses and the mind? just as the wind carries with it the fragrance from the flowers. Wherever he goes and whatever form he assumes he again operates through these senses and the mind.Lord Jiva? the Lord of the aggregate of the body and the rest.The Self appears to be an agent or an enjoyer only when he possesses or assumes a body.
।।15.8।। व्याख्या -- वायुर्गन्धानिवाशयात् -- जिस प्रकार वायु इत्रके फोहेसे गन्ध ले जाती है किन्तु वह गन्ध स्थायीरूपसे वायुमें नहीं रहती क्योंकि वायु और गन्धका सम्बन्ध नित्य नहीं है? इसी प्रकार इन्द्रियाँ? मन? बुद्धि? स्वभाव आदि(सूक्ष्म और कारण -- दोनों शरीरों) को अपना माननेके कारण जीवात्मा उनको साथ लेकर दूसरी योनिमें जाता है।जैसे वायु तत्त्वतः गन्धसे निर्लिप्त है? ऐसे ही जीवात्मा भी तत्त्वतः मन? इन्द्रियाँ? शरीरादिसे निर्लिप्त है परन्तु इन मन? इन्द्रियाँ? शरीरादिमें मैंमेरेपनकी मान्यता होनेके कारण वह (जीवात्मा) इनका आकर्षण करता है।जैसे वायु आकाशका कार्य होते हुए भी पृथ्वीके अंश गन्धको साथ लिये घूमती है? ऐसे ही जीवात्मा परमात्माका सनातन अंश होते हुए भी प्रकृतिके कार्य (प्रतिक्षण बदलनेवाले) शरीरोंको साथ लिये भिन्नभिन्न योनियोंमें घूमता है। जड होनेके कारण वायुमें यह विवेक नहीं है कि वह गन्धको ग्रहण न करे परन्तु जीवात्माको तो यह विवेक और सामर्थ्य मिला हुआ है कि वह जब चाहे? तब शरीरसे सम्बन्ध मिटा सकता है। भगवान्ने मनुष्यमात्रको यह स्वतन्त्रता दे रखी है कि वह चाहे जिससे सम्बन्ध जोड़ सकता है और चाहे जिससे सम्बन्ध तोड़ सकता है। अपनी भूल मिटानेके लिये केवल अपनी मान्यता बदलनेकी आवश्यकता है कि प्रकृतिके अंश इन स्थूल? सूक्ष्म और कारणशरीरोंसे मेरा (जीवात्मका) कोई सम्बन्ध नहीं है। फिर जन्ममरणके बन्धनसे सहज ही मुक्ति है।भगवान्ने यहाँ तीन शब्द दृष्टान्तके रूपमें दिये हैं -- (1) वायु? (2) गन्ध और (3) आशय। आशय कहते हैं स्थानको जैसे -- जलाशय (जलआशय) अर्थात् जलका स्थान। यहाँ आशय नाम स्थूलशरीरका है। जिस प्रकार गन्धके स्थान (आशय) इत्रके फोहेसे वायु गन्ध ले जाती है और फोहा पीछे पड़ा रहता है? इसी प्रकार वायुरूप जीवात्मा गन्धरूप सूक्ष्म और कारणशरीरोंको साथ लेकर जाता है? तब गन्धका आशयरूप स्थूलशरीर पीछे रह जाता है।शरीरं यदवाप्नोति ৷৷. गृहीत्वैतानि संयाति -- यहाँ ईश्वरः पद जीवात्माका वाचक है। इस जीवात्मासे तीन खास भूलें हो रही हैं --,(1) अपनेको मन? बुद्धि? शरीरादि जड पदार्थोंका स्वामी मानता है? पर वास्तवमें बन जाता है स्वयं उनका दास।(2) अपनेको उन जड पदार्थोंका स्वामी मान लेनेके कारण अपने वास्तविक स्वामी परमात्माको भूल जाता है।(3) जड पदार्थोंसे माने हुए सम्बन्धका त्याग करनेमें स्वाधीन होनेपर भी उनका त्याग नहीं करता।परमात्माने जीवात्माको शरीरादि सामग्रीका सदुपयोग करनेकी स्वाधीनता दी है। उनका सदुपयोग करके अपना उद्धार करनेके लिये ये वस्तुएँ दी हैं? उनका स्वामी बननेके लिये नहीं। परन्तु जीवसे यह बहुत बड़ी भूल होती है कि वह उस सामग्रीका सदुपयोग नहीं करता प्रत्युत अपनेको उनका मालिक मान लेता है? पर वास्तवमें उनका गुलाम बन जाता है।जीवात्मा जड पदार्थोंसे माने हुए सम्बन्धका त्याग तभी कर सकता है? जब उसे यह मालूम हो जाय कि इनका मालिक बननेसे मैं सर्वथा पराधीन हो गया हूँ और मेरा पतन हो गया है। यह जिनका मालिक बनता है? उनकी गुलामी इसमें आ ही जाती है। इसे केवल वहम होता है कि मैं इनका मालिक हूँ। जड पदार्थोंका मालिक बन जानेसे एक तो इसे उन पदार्थोंकी कमी का अनुभव होता है और दूसरा यह अपनेको अनाथ मान लेता है।जिसे मालिकपना या अधिकार प्यारा लगता है? वह परमात्माको प्राप्त नहीं कर सकता क्योंकि जो किसी व्यक्ति? वस्तु? पद आदिका स्वामी बनता है? वह अपने स्वामीको भूल जाता है -- यह नियम है। उदाहरणार्थ? जिस समय बालक केवल माँको अपना मानकर उसे ही चाहता है? उस समय वह माँके बिना रह ही नहीं सकता। किन्तु वही बालक जब बड़ा होकर गृहस्थ बन जाता है और अपनेको स्त्री? पुत्र आदिका स्वामी मानने लगता है? तब उसी माँका पास रहना उसे सुहाता नहीं। यह स्वामी बननेका ही परिणाम है इसी प्रकार यह जीवात्मा भी शरारीदि जड पदार्थोंका स्वामी (ईश्वर) बनकर अपने वास्तविक स्वामी परमात्माको भूल जाता है -- उनसे विमुख हो जाता है। जबतक यह भूल या विमुखता रहेगी? तबतक जीवात्मा दुःख पाता ही रहेगा।ईश्वरः पदके साथ अपि पद एक विशेष अर्थ रखता है कि यह ईश्वर बना जीवात्मा वायुके समान असमर्थ? जड और पराधीन नहीं है। इस जीवात्मामें ऐसी सामर्थ्य और विवेक है कि यह जब चाहे? तब माने हुए सम्बन्धको छोड़ सकता है और परमात्माके साथ नित्य सम्बन्धका अनुभव कर सकता है। परन्तु संयोगजन्य सुखकी लोलुपताके कारण यह संसारसे माने हुए सम्बन्धको छोड़ता नहीं और छोड़ना चाहता भी नहीं। जडता(शरीरादि) से तादात्म्य छूटनेपर जीवात्मा (गन्धकी तरह) शरीरोंको साथ ले जा सकता ही नहीं।जीवको दो शक्तियाँ प्राप्त हैं -- (1) प्राणशक्ति? जिससे श्वासोंका आवागमन होता है और (2) इच्छाशक्ति? जिससे भोगोंको पानेकी इच्छा करता है। प्राणशक्ति हरदम (श्वासोच्छ्वासके द्वारा) क्षीण होती रहती है। प्राणशक्तिका खत्म होना ही मृत्यु कहलाती है। जडका संग करनेसे कुछ करने और पानेकी इच्छा बनी रहती है। प्राणशक्तिके रहते हुए इच्छाशक्ति अर्थात् कुछ करने और पानेकी इच्छा मिट जाय? तो मनुष्य जीवन्मुक्त हो जाता है। प्राणशक्ति नष्ट हो जाय और इच्छाएँ बनी रहें? तो दूसरा जन्म लेना ही पड़ता है। नया शरीर मिलनेपर इच्छाशक्ति तो वही (पूर्वजन्मकी) रहती है? प्राणशक्ति नयी मिल जाती है।प्राणशक्तिका व्यय इच्छाओंको मिटानेमें होना चाहिये। निःस्वार्थभावसे सम्पूर्ण प्राणियोंके हितमें रत रहनेसे इच्छाएँ सुगमतापूर्वक मिट जाती हैं।यहाँ गृहीत्वा पदका तात्पर्य है -- जो अपने नहीं हैं? उनसे राग? ममता? प्रियता करना। जिन मन? इन्द्रियोंके साथ अपनापन करके जीवात्मा उनको साथ लिये फिरता है? वे मन? इन्द्रियाँ कभी नहीं कहतीं कि हम तुम्हारी हैं और तुम हमारे हो। इनपर जीवात्माका शासन भी चलता नहीं जैसा चाहे वैसा रख सकता नहीं? परिवर्तन कर सकता नहीं फिर भी इनके साथ अपनापन रखता है? जो कि भूल ही है। वास्तवमें यह अपनेपनका (राग? ममतायुक्त) सम्बन्ध ही बाँधनेवाला होता है।वस्तु हमें प्राप्त हो या न हो? बढ़िया हो या घटिया हो? हमारे काममें आये या न आये? दूर हो या पास हो,यदि उस वस्तुको हम अपनी मानते हैं तो उससे हमारा सम्बन्ध बना हुआ ही है।अपनी तरफसे छोड़े बिना शरीरादिमें ममताका सम्बन्ध मरनेपर भी नहीं छूटता। इसलिये मृत शरीरकी हड्डियोंको गङ्गाजीमें डालनेसे उस जीवकी आगे गति होती है। इस माने हुए सम्बन्धको छोड़नेमें हम सर्वथा स्वतन्त्र तथा सबल हैं। यदि शरीरके रहते हुए ही हम उससे अपनापन हटा दें? तो जीतेजी ही मुक्त हो जायँजो अपना नहीं है? उसको अपना मानना और जो अपना है? उसको अपना न मानना -- यह बहुत ब़ड़ा दोष है? जिसके कारण ही पारमार्थिक मार्गमें उन्नति नहीं होती।इस श्लोकमें आया एतानि पद सातवें श्लोकके मनःषष्ठानीन्द्रियाणि (पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ तथा मन) का वाचक है। यहाँ एतानि पदको सत्रह तत्त्वोंके समुदायरूप सूक्ष्मशरीर एवं कारणशरीर(स्वभाव) का भी द्योतक मानना चाहिये। इस सबको ग्रहण करके जीवात्मा दूसरे शरीरमें जाता है। जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रोंका त्याग करके नये वस्त्र धारण करता है? ऐसे ही जीवात्मा पुराने शरीरका त्याग करके नये शरीरको प्राप्त होता है (गीता 2। 22)।वास्तवमें शुद्ध चेतन(आत्मा)का किसी शरीरको प्राप्त करना और उसका त्याग करके दूसरे शरीरमें जाना हो नहीं सकता क्योंकि आत्मा अचल और समानरूपसे सर्वत्र व्याप्त है (गीता 2। 17? 24)। शरीरोंका ग्रहण और त्याग परिच्छिन्न (एकदेशीय) तत्त्वके द्वारा ही होना सम्भव है? जबकि आत्मा कभी किसी भी देशकालादिमें परिच्छिन्न नहीं हो सकता। परन्तु जब यह आत्मा प्रकृतिके कार्य शरीरसे तादात्म्य कर लेता है अर्थात् प्रकृतिस्थ हो जाता है? तब (स्थूल? सूक्ष्म और कारण -- तीनों शरीरोंमें अपनेको तथा अपनेमें तीनों शरीरोंको धारण करने अर्थात् उनमें अपनापन करनेसे) वह प्रकृतिके कार्य शरीरोंका ग्रहणत्याग करने लगता है। तात्पर्य यह है कि शरीरको मैं और मेरा मान लेने कारण आत्मा सूक्ष्मशरीरके आनेजानेको अपना आनाजाना मान लेता है। जब प्रकृतिके कार्य शरीरसे तादात्म्य मिट जाता है अर्थात् स्थूल? सूक्ष्म और कारणशरीरसे आत्माका माना हुआ सम्बन्ध नहीं रहता तब ये शरीर अपने कारणभूत समष्टि तत्त्वोंमें लीन हो जाते हैं। तात्पर्य यह है कि पुनर्जन्मका मूल कारण जीवका शरीरसे माना हुआ तादात्म्य ही है। सम्बन्ध -- अब भगवान् सातवें श्लोकमें आये हुए मनःषष्ठानीन्द्रियाणि पदका खुलासा करते हैं।
।।15.8।। देहेन्द्रियादि का ईश्वर अर्थात् स्वामी है जीव। जब तक वह किसी एक देह मे रहता है? तब तक सूक्ष्म शरीर (इन्द्रियाँ और अन्तकरण) को धारण किये रहता है और असंख्य प्रकार के कर्म करता है। अपनी वासनाओं के अनुसार वह कर्म करता है और फिर कर्मो के नियमानुसार विविध फलों को भोगने के लिये उसे अन्यान्य शरीर ग्रहण करने पड़ते हैं। तब एक शरीर का त्याग करते समय वह सूक्ष्म शरीर को समेट लेता है और अन्य शरीर में जा कर पुन उसके द्वारा पूर्ववत् व्यवहार करता है।सूक्ष्म शरीर का स्थूल शरीर से सदा के लिये वियोग स्थूल शरीर के लिये मृत्यु है। मृत देह का आकार पूर्ववत् दिखाई देता है?किन्तु विषय ग्रहण? अनुभव तथा विचार ग्रहण करने की क्षमता उसमे नहीं होती? क्योंकि ये समस्त कार्य सूक्ष्म शरीर के होते हैं। जीव की उपस्थिति से ही देह को एक व्यक्ति के रूप में स्थान प्राप्त होता है।जिस प्रकार प्रवाहित किया हुआ वायु पुष्प? चन्दन? इत्र आदि सुगन्धित वस्तुओं की सुगन्ध को एक स्थान से अन्य स्थान बहा कर ले जाता है? उसी प्रकार जीव समस्त इन्द्रियादि को लेकर जाता है। वायु और सुगन्ध दृष्टिगोचर नहीं होते? उसी प्रकार देह को त्यागते हुये सूक्ष्म जीव को भी नेत्रों से नहीं देखा जा सकता है। जीव की समस्त वासनाएं भी उसी के साथ रहती हैं।इस श्लोक में जीव को देहादि संघात का ईश्वर कहने का अभिप्राय केवल इतना ही है कि उसी की उपस्थिति में विषय ग्रहण? विचार आदि का व्यवहार सुचारु रूप से चलता रहता है। वह इन उपाधियों का शासक और नियामक है। जिस प्रकार? किसी शासकीय अधिकारी का स्थानान्तर होने पर वह अपने घर की समस्त वस्तुओं को सन्दूकों में रखकर अपने नये स्थान पर पहुँचता है। तत्पश्चात्? वहाँ पुन अपने सामान को खोलकर नये गृह को सजाता है। ठीक इसी प्रकार जीवात्मा भी एक स्थूल शरीर को त्यागते समय समस्त इन्द्रियादि को एकत्रित कर शरीर को त्याग देता है? और फिर नवीन शरीर को धारण कर पुन सूक्ष्म शरीर के द्वारा समस्त व्यवहार करने लगता है। वेदान्त मे शरीर को भोगायतन कहते हैं। उपर्युक्त श्लोक वस्तुत उपनिषदों के ही सिद्धान्तों का ही सारांश है।वे इन्द्रियाँ कौन सी हैं सुनो
।।15.8।।स्वस्थाने स्थितानामिन्द्रियाणां जीवेनाकर्षणस्य कालं पृच्छति -- कस्मिन्निति। जीवस्योत्क्रान्तिर्नेश्वरस्येत्याशङ्क्येश्वरशब्दार्थमाह -- देहादीति। उत्क्रान्त्यनन्तरभाविनी गतिरित्येतदर्थवशादित्युक्तम्। अवशिष्टानि श्लोकाक्षराण्याचष्टे -- यदाचेति।
।।15.8।।कस्मिन्काले कर्षतीत्यपेक्षायां स्वस्थाने स्थितानां इन्द्रियाणां जीवेनाकर्षणस्य कालमाह -- शरीरमिति।पाठक्रमादर्थक्रमो बलीयान् इति न्यायेनेश्वरो देहासिसंघातस्वामी जीवो यत् यदाप्युत्क्रामति शरीराद्वहिर्निर्गच्छति तदा मनःषष्ठानीन्द्रियाणि कर्षतीति श्लोकस्य द्वितीयः पातोऽर्थवशात्प्राथम्येन संबध्यते। यदाच पूर्वस्माच्छरीराच्छरीरान्तरं प्राप्नोति तदा एतानि मनःषष्ठेन्द्रियाणि गृहीत्वा संयाति सभ्यग्ग्च्छति। तत्र दृष्टान्तः। आशयात्पुष्पादेः स्थानाद्गन्धान्गृहीत्वा यथा वायुः पवनः संयति तद्वत्।
।।15.8।।कर्षति इत्युक्ते जीवस्य स्वातन्त्र्यं प्रतीतं तन्निवारयति शरीरमित्यादिना -- यद्यदा शरीरमवाप्नोति उत्क्रामति च जीवस्तदेश्वर एवैतानि गृहीत्वा संयाति।यत्र यत्रैव संयुक्तो धाता गर्भं पुनः पुनः। तत्र तत्रैव वसति न यत्र स्वयमिच्छति इति हि मोक्षधर्मे।भावाभावावपि जानन्गरीयो जानामि श्रेयो न तु तत्करोमि। आशासु हर्म्यासु हृदासु कुर्वन्यथा नियुक्तोऽस्मि तथा वहामि इति च।हत्वा जित्वाऽपि मघवन्यः कश्चित्पुरुषायते। अकर्तात्वेव भवति कर्ता चैव करोति तत् इति च। तद्यथाहाऽनः सुसमाहितमुत्सर्जद्यायादेवमेवायं शारीर आत्मा प्राज्ञेनात्मनाऽन्वारूढमुत्सर्जद्याति [बृ.उ.4।3।35] इति च श्रुतिः। वाङ्मनसि सम्पद्यते? मनः प्राणे? प्राणस्तेजसि? तेजः परस्यां देवतायाम् [छां.उ.6।8।6] इति च। गन्धानिव सूक्ष्माणि। भोगोऽस्यापि साधितः पुरस्तात्।
।।15.8।।तथैतान्येव आशयात् स्वलयस्थानात् गृहीत्वा संयाति विषयदेशं प्रतिगच्छति प्रबोधसर्गव्युत्थानकालेषु। तत्र दृष्टान्तः। वायुर्गन्धानिवाशयात्। गन्धाशयात्पुष्पात्।
।।15.8।।यत् शरीरम् अवाप्नोति? यस्मात् शरीराद् उत्क्रामति? तत्र अयम् इन्द्रियाणाम् ईश्वरः एतानि इन्द्रियाणि भूतसूक्ष्मैः सह गृहीत्वा संयाति। वायुः गन्धान् इव आशयात् -- यथा वायुः स्रक्चन्दनकस्तूरिकाद्याशयात् तत्स्थानात् सूक्ष्मावयवैः सह गन्धान् गृहीत्वा अन्यत्र संयाति तद्वद् इत्यर्थः।कानि पुनः तानि इन्द्रियाणि इत्याह --
।।15.8।। तान्याकृष्य किं करोतीत्यत्राह -- शरीरमिति। यदा शरीरान्तरं कर्मवशादवाप्नोति यतश्च शरीरादुत्क्रामति ईश्वरो देहादीनां स्वामी तदा पूर्वस्माच्छरीरादेतानि गृहीत्वा तच्छरीरान्तरं सम्यग्याति। शरीरे सत्यपीन्द्रियग्रहणे दृष्टान्तः। आशयात्स्वस्थानात्कुसुमादेः सकाशात् गन्धान्गन्धवतः सूक्ष्मानंशान्गृहीत्वा यथा वायुर्गच्छति तद्वत्।
।।15.8।।No commentary.
।।15.8।।शरीरमिति। अवाप्नोति? गृह्णाति। उत्क्रामति त्यजति एतैः सह। यथा वायुः सर्वगतो विश्रान्तिधाम पार्थिवं प्राप्य ततो गन्धमानीय स्थानान्तरे तत्सहित एव संक्रामति? एवं जीवः पुर्यष्टकेन सह।
।।15.8।।पूर्ववाक्ये जीवस्य प्रकृतत्वात्तदुत्तरमपि तद्विषयमिति व्याख्यानमसत्? ईश्वरपदरूढार्थपरित्यागदोषात्? इत्याशयवान् सङ्गतिं तावदाह -- कर्षतीति। शरीरावाप्तौ मूलकारणादुत्क्रमणे शरीरात् स्थितौ गोलकादिभ्यो विषयान्प्रतीन्द्रियाणि जीवः कर्षतीति पूर्वत्रोक्तम्। तथा च तस्य नियामकान्तरानुक्त्या इन्द्रियकर्षणे स्वातन्त्र्यं प्रतीतं तदयुक्तम्। पूर्वोक्तविरोधादित्याशङ्क्येश्वरस्यैव तत्प्रतिपादयंस्तज्जीवस्य स्वातन्त्र्यं निवारयतीत्यर्थः। श्लोकद्वयोपादानायादिपदम्। अत्र शरीरावाप्त्युत्क्रमणयोरुक्तत्वादीश्वरस्य तदयोगात्कथमिदं तद्विषयम्। इत्यतो व्याचष्टे -- यदिति। जीव इति पूर्ववाक्यादनुवर्तते। यदेति श्रवणात्तदेति लभ्यते। एतानीन्द्रियाणि संयाति शरीरं लोकान्तरं च। कुतोऽयमर्थ इत्यतो जीवस्य शरीरप्राप्तौ तावदीश्वराधीनत्वे प्रमाणसम्मतिमाह -- यत्रेति। संयुक्तः प्रेरकत्वेन संयुक्तः परमेश्वरो यत्र यत्रैव योनौ गर्भं धाता तत्र तत्रैव वसति जीवः। प्रवृत्तावपीश्वराधीनत्वे जीवस्य प्रमाणसंवादमाह -- भावेति। भावाभावौ लौकिके शुभाशुभे गरीयः श्रेयो मोक्षमपि? तथापि तन्न करोमि साधयितुं न स्वतन्त्रोऽस्मि? किन्तु आशासु दिक्षु हर्म्यासु हर्म्येषु ह्रदासु ह्रदेषु तास्ताः क्रियाः कुर्वन्निव प्रतीयमानोऽहं यथेश्वरेण नियुक्तोऽस्मि तथा तथा तां वहामि। हननादिक्रियाः कृत्वा यः कश्चित् परमपुरुषवत्स्वातन्त्र्यमात्मनो मन्यते सोऽप्यकर्तैव भवति यतस्तद्धननादिकर्तेश्वर एव करोति। शरीरोत्क्रमणमपीश्वराधीनमित्यत्र श्रुतिसम्मतिमाह -- तद्यथेति। अनः शकटम्। सुसमाहितं पुरुषेण,सम्यगधिष्ठितमुत्सर्जद्ग्रामादिकमुत्सृजच्छारीर आत्मा जीवः प्राज्ञेनात्मना परमात्मना अन्वारूढोऽधिष्ठितः। उत्सर्जत् शरीरमुत्सृजन्। वागित्यनेनोत्क्रमणे परदेवतावागादीन्याकर्षतीत्युच्यते। अनेकेष्वाकृष्यमाणेषु सत्सु गन्धोपादानेऽभिप्रायमाह -- गन्धानिवेति। गन्धवतः पुष्पाद्यवयवानित्यर्थः। ननु श्रोत्रमित्यादिना विषयभोगोऽस्योच्यते? न चेश्वरस्यासावस्ति? किन्तु जीवस्यैव तत्कथमिदमीश्वरविषयं इत्यत आह -- भोग इति। पुरस्तात् सप्तमे।
।।15.8।।कस्मिन्काले कर्षतीत्युच्यते -- शरीरमिति। यत् यदा उत्क्रामति बहिर्निर्गच्छति ईश्वरो देहेन्द्रियसंघातस्य स्वामी जीवस्तदा यतो देहादुत्क्रामति ततो मनःषष्ठानीन्द्रियाणि कर्षतीति द्वितीयपादस्य प्रथममन्वयः। उत्क्रमणोत्तरभावित्वाद्गमनस्य। न केवलं कर्षत्येव किंतु यत् यदा च पूर्वस्माच्छरीराच्छरीरान्तरमवाप्नोति तदैतानि मनःषष्ठानीन्द्रियाणि गृहीत्वा संयात्यपि सम्यक् पुनरागमनराहित्येन। गच्छत्यपि शरीरे सत्येवेन्द्रियग्रहणे दृष्टान्तः आशयात्कुसुमादैः स्थानाद्गन्धान्गन्धात्मकान्सूक्ष्मानंशान्गृहीत्वा यथा वायुर्याति तद्वत्।
।।15.8।।तदेव विस्तरेणाऽऽह -- शरीरमिति। ईश्वरः मूलभूतो जीवो यत् यदा शरीरभोगार्थमवाप्नोति? च पुनः यदा भोगसमाप्तौ उत्क्रामति तदा एतानि पूर्वोक्तानीन्द्रियाणि स्वभोगार्थकानि सूक्ष्माणि संस्कारात्मकानि गृहीत्वैव सम्यक् स्वांशजीवभावेन सह याति प्राप्नोति। तत्र दृष्टान्तमाह वायुः आशयात् पुष्पादितो गन्धान् सूक्ष्मांशानिव।
।।15.8।। --,यच्चापि यदा चापि उत्क्रामति ईश्वरः देहादिसंघातस्वामी जीवः? तदा कर्षति इति श्लोकस्य द्वितीयपादः अर्थवशात् प्राथम्येन संबध्यते। यदा च पूर्वस्मात् शरीरात् शरीरान्तरम् अवाप्नोति तदा गृहीत्वा एतानि मनःषष्ठानि इन्द्रियाणि संयाति सम्यक् याति गच्छति। किमिव इति? आह -- वायुः पवनः गन्धानिव आशयात् पुष्पादेः।।कानि पुनः तानि --,
।।15.8।। शरीरं यदवाप्नोति। यस्माच्छरीरादुत्क्रामति तत्रायमिन्द्रियाणामीश्वरः एतानीन्द्रियाणि भूतसूक्ष्मैः सह गृहीत्वा संयाति। यथा वायुः कस्तूरिकाद्याशयात्तत्स्थानात्सूक्ष्मावयवैः सह गन्धान् गृहीत्वाऽन्यत्र संयाति तद्वत्। एतदेव प्रपञ्चितंउत्क्रान्तिगत्या गतीनां स्वात्मना चोत्तरयोः [ब्र.सू.2।3।1] इति सूत्रेषु।